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मोक्षस्वरूपविचारः
२११ साधनं च अत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वमनन्यपरतयोपादीयमानत्वं चानकान्तिकत्वादसाधनम्; दुःखाभावेपि भावात् । अनन्यपरतयोपादीयमानत्वं चासिद्धम्; न ह्यात्माऽन्यार्थ नोपादीयते; सुखार्थमस्योपादानात् । अत्यन्त प्रियबुद्धिविषयत्वमप्यसिद्धम्; दुःखितायामप्रियबुद्ध रपि भावात् ।
'अानन्दं ब्रह्मणो रूपम्' इत्याद्यागमो नित्यसुखसद्भावावेदकः; इत्यप्यसमोचीनम्; तस्यैतदर्थत्वासिद्ध: । आनन्दशब्दो ह्यात्यन्तिकदुःखाभावे प्रयुक्तत्वाद्गौणः । दृष्टश्च दुःखाभावे सुखशब्दप्रयोगः, यथा भाराक्रान्तस्य ज्वरादिसन्तप्तस्य वा तदपाये।
असाध्यमें भी पाया जाता है, अर्थात् दुःखका अभाव होना भी अत्यन्त प्रिय बुद्धिका विषय है, किन्तु यह दुःखाभाव निःस्वभावरूप होनेसे आत्माका स्वभाव नहीं बन सकता, इस तरह साध्य और असाध्य दोनोंमें रहनेसे यह हेतु अनैकान्तिक दोष युक्त है । अनन्यपरतया उपादीय मानत्व हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास है, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-आत्मा सुखस्वभावी है क्योंकि वह अनन्यपरतया उपादीयमान है अर्थात् प्रात्माका पात्मामें लीन होना रूप ग्राह्यपना है, अन्यके द्वारा उपादीयमानत्व नहीं है, सो यह अयुक्त है, क्योंकि प्रात्मा अन्यके लिये उपादीयमान न होवे सो बात नहीं है, सुखके लिये वह उपादीयमान होता ही है । अत्यन्त प्रिय बुद्धि विषयत्व हेतुमें अनैकान्तिक दोषके समान असिद्ध दोष भी आता है, क्योंकि आत्मा सिर्फ प्रिय बुद्धिविषय ही हो सो बात नहीं है दुःखित अवस्थामें वह अप्रिय बुद्धिका विषय भी होता है।
___"आनंदो ब्राह्मणो रूपं" इत्यादि आगम वाक्य नित्य सुखके अस्तित्वको सिद्ध करते हैं ऐसा कहना भी प्रयुक्त है, क्योंकि उस वाक्यका इसतरहका अर्थ होना असिद्ध है, वहांपर आनंदशब्दका प्रयोग आत्यन्तिक रूपसे दुःखका अभावरूप अर्थमें हया है अतः गौण है, देखा भी जाता है कि दुःखके अभाव होनेपर सुख शब्दका प्रयोग है जैसे भारसे आक्रांत पुरुषका भार कम होनेपर या ज्वरयुक्त रोगीका ज्वर कम होनेपर सुख हुमा इसप्रकार सुख शब्दका प्रयोग होता है।
दूसरी बात यह है कि नित्य सुख प्रात्माके स्वरूपसे अपृथक् है या पृथक है ? प्रथमपक्ष माने तो जिसप्रकार प्रात्मस्वरूपका सतत् रूपसे अनुभव होता है उसप्रकार सुखका अनुभव भी सतत् रूपसे होनेके कारण बद्ध और मुक्त अवस्थाका भेद समाप्त हो जाता है।
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