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प्रमेयकमलमार्तण्डे
तेन हि नित्यसुखस्य तदनुभवस्य वा प्रतिबन्धोऽनुत्पत्तिलक्षणो विनाशलक्षणो वा न युक्तः; द्वयोरपि नित्यत्वाभ्युपगमात् । न च संसारावस्थायां बाह्यविषयव्यासङ्गाद्विद्यमानस्याप्यनुभवस्यासंवेदनम्, तदभावात्त मोक्षावस्थायां संवेदनमित्यभिधातव्यम्; तदनुभवस्य नित्यत्वेन व्यासङ्गानुपपत्तः। आत्मनो हि व्यासङ्गो रूपादौ विषये ज्ञानोत्पत्तौ विषयान्तरे ज्ञानानुत्पत्तिः, इन्द्रियस्याप्येकस्मिन्विषये ज्ञानजनकत्वेन प्रवृत्तस्य विषयान्तरे ज्ञानाजनकत्वम् । स चात्रानुपपन्नः; सुखवत्तज्ज्ञानस्यापि सदा सत्त्वात् । शरीरादेस्तु प्रतिबन्धकत्वे तदपहन्तुहिंसाफलं न स्यात्, प्रतिबन्धकविघातकारकस्योपकारकत्वेन लोके प्रतीतेः।
अथानित्यं तत्संवेदनम्; तदोत्पत्तिकारणं वाच्यम् । अथ योगजधर्मापेक्षः पुरुषान्तःकरणसंयोगोऽसमवायिकारणम् । ननु योगजधर्मस्य मुक्तावसम्भवात् कथमसौ तत्संयोगेनापेक्ष्येत यतस्तत्र
प्रतिबन्ध होना भी अशक्य है । नित्य सुख और उसका अनुभव दोनोंका अनुत्पत्ति रूप प्रतिबन्ध अथवा विनाशरूप प्रतिबन्ध हो नहीं सकता, क्योंकि सुख और अनुभव नित्य है।
शंका-संसार अवस्थामें यह जीव बाह्य विषयमें आसक्त रहता है अतः नित्य सुखानुभवके विद्यमान रहते हुए भी उसका संवेदन नहीं हो पाता, और मोक्ष अवस्था में बाह्य विषयासक्ति नहीं होनेसे नित्य सुखका संवेदन होता है ?
__समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं, सुखानुभव नित्य होनेसे आत्मादिके विषय व्यासंग या आसक्ति नहीं होना अशक्य है । रूपादि विषयमें ज्ञानकी उत्पत्ति होनेपर अन्य विषयमें ज्ञान उत्पन्न नहीं होना आत्माका व्यासंग कहलाता है, तथा एक विषय में ज्ञानको उत्पन्न करने में प्रवृत्त होनेपर अन्य विषयमें ज्ञानको उत्पन्न नहीं करना इन्द्रियका व्यासंग कहलाता है, ऐसा व्यासंग नित्यसुखमें अनुपपन्न है, क्योंकि सुखके समान उसका ज्ञान भी सदा विद्यमान रहता है । शरीरादिको नित्य सुखका प्रतिबंधक माने तो शरीरका घात करनेवाले हिंसकको हिंसाका फल [ पापका दुःख रूप फल ] नहीं मिलेगा, उस हिंसकने सुखका प्रतिबंधक स्वरूप शरीरको नष्ट किया है अतः वह उपकारक ही कहलायेगा । लोकमें भी यही उक्ति प्रसिद्ध है। नित्य सुखका संवेदन अनित्य हुआ करता है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो उस अनित्य संवेदनकी उत्पत्तिमें हेतु कौन है यह प्रश्न होगा ? योगज धर्मकी अपेक्षा लेकर होनेवाला आत्मा और भवका संयोग उस संवेदनकी उत्पत्तिका असमवायी कारण है ऐसा उत्तर ठीक नहीं है, मुक्त
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