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प्रमेयकमलमार्तण्डे 'स्वर्गकामः' इत्याद्यागमजनितकामेन यागाभिलाषेण निर्वत्यं हि काम्यमग्निष्टोमादि । कैवल्यं तु सकलविशेषगुणोच्छेदवि शिष्टात्मस्वरूपं निर्वाणम् । न च विपर्ययज्ञानप्रध्वंसादिक्रमेण तद्विशिष्टात्मस्वरूपनिर्वाणस्य तत्त्वज्ञानकार्यत्वादनित्यत्वं वाच्यमः यतो विशेषगरणोच्छेदस्यानित्यत्वमापाद्यते, तद्विशिष्टात्मनो वा ? न तावद्विशेषगुणोच्छेदस्य; अस्य प्रध्वंसाभावरूपत्वात् । कार्यवस्तुनो ह्यनित्यत्वं प्रसिद्धम् । तद्विशिष्टात्मनश्च वस्तुत्वेपि कार्यत्वाभावान्नानित्यत्वम् । न च बुद्ध्यादिविनाशे गुणिनस्तथाभावो युक्तः; तयोरत्यन्तभेदात् । तत्तादात्म्ये त्वयं दोषः स्यादेव ।
अथ मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतबुद्धयस्तत्र प्रवर्तन्ते इत्यानन्दरूपो मोक्षोऽभ्युपगन्तव्य :
"प्रानन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते" [ J इत्यागमात् । आत्मा सुखस्वभावोऽत्यन्तप्रियबुद्धिविषयत्वात्, अनन्यपरतयोपादीयमानत्वाच्च । यद्यदेवंविधं तत्तत्सुखस्वभावम् यथा
नहीं, क्योंकि वह प्रध्वंसाभाव रूप होनेसे निःस्वरूप है जो कार्यरूप वस्तु होती है उसी के अनित्यपना संभव है । उच्छेदसे विशिष्ट आत्माको अनित्य कहना भी प्रयुक्त है, क्योंकि वह विशिष्ट आत्मा वस्तुरूप होते हुए भी किसीका कार्य नहीं होनेसे अनित्य नहीं है । तथा बुद्धि आदि गुणोंका नाश होनेसे गुणी आत्मा नष्ट हो जाय सो बात नहीं है, क्योंकि गुणीसे गुण अत्यन्त भिन्न होता है । गुण गुणीका तादात्म्य स्वीकार करते तो उक्त दोषकी संभावना थी। इसप्रकार वैशेषिक द्वारा मान्य मोक्ष का स्वरूप है।
- वेदांती-वैशेषिक द्वारा मान्य मोक्षावस्थामें बुद्धि आदि गुणोंका ही प्रभाव है किन्तु हमारा कहना है कि वहांपर चैतन्य भी अभाव होता है इसी कारणसे प्रेक्षावान उस अवस्थाके लिये प्रवृत्ति नहीं करते । मोक्ष तो आनंदरूप है ऐसा स्वीकार करना चाहिये । कहा भी है-"अानंद परम ब्रह्म का स्वरूप है और वह मोक्षमें अभिव्यक्त होता है" इस आगम वाक्यके समान अनुमान भी इसी मोक्ष स्वरूपको सिद्ध करता है-आत्मा सुख स्वभाववाला है, क्योंकि वह अत्यन्त प्रिय बुद्धिका विषय है तथा अनन्य रूपसे ग्राह्य हैं, जो जो इसप्रकारका होता है वह वह अत्यन्त सुखस्वभाव वाला होता है, जैसे विषय सम्बन्धी सुख अत्यन्त प्रिय होता है, आत्मा अत्यन्त प्रिय बुद्धि का विषय हैं ही अतः सुख स्वभावी है । इसप्रकार आत्मा सुख स्वभावी है यह भलीभांति सिद्ध हुआ।
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