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मोक्षस्वरूपविचारः
२०३ हि कर्मणां प्रक्षयानुपपत्तः तत्त्वज्ञानिनोपि कर्मक्षयार्थितया प्रवृत्त वैद्योपदेशेनातुरवदौषधाचरणे। यथैव ह्यातुरस्यानभिलषितेप्यौषधाचरणे व्याधिप्रक्षयार्थं प्रवृत्तिः, तद्वयतिरेकेण तत्प्रक्षयानुपपत्ते स्तथात्रापि। ननु तत्त्वज्ञानिनां तत्त्वज्ञानादेव सञ्चितकर्मप्रक्षय इत्यप्यागमोस्ति
"यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा"
- [भगवद्गी० ४।३७ ] इति ।
गतं चित्तमाभ्यां इति अनुसंधानं" इसप्रकार अनुसंधान शब्दकी निरुक्ति है, इसका अर्थ जिनके द्वारा चित्त नाना विकल्पोंमें उलझा रहता है उसको अनुसंधान कहते हैं। मिथ्याज्ञानका अभाव हो जाने पर अभिलाषा समाप्त होती है अतः तत्त्वज्ञानीके उपभोग होना असंभव है ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिये, उपभोग किये बिना कर्मों का नाश नहीं होता अतः तत्वज्ञानी पुरुष कर्मक्षयार्थ फलोपभोगमें प्रवृत्त होते हैं, जैसे रोगको दूर करनेका इच्छुक रोगी वैद्यके कथनानुसार औषधिका उपभोग करता है, जिस तरह उस रोगीको औषधिकी रुचि नहीं है फिर भी रोगके परिहारार्थ उसका सेवन करता है उसके सेवन विना रोग नष्ट नहीं होता, ठीक इसीप्रकार तत्वज्ञानीके कर्मोका नाश उसके फल भोगे विना नहीं होता अतः विराग भावसे फलोपभोग करके उनको निर्जीर्ण करते हैं।
शंका-तत्त्वज्ञानियोंके तत्वज्ञानमात्रसे ही कर्मोंका नाश होता है ऐसा आगम में लिखा है, जैसे-प्रदीप्त हुई अग्नि ईंधनोंको क्षणमात्रमें भस्मसात् कर देती है, वैसे तत्त्वज्ञान रूपी अग्नि सकल कर्मेन्धनको भस्मसात् करती है यह आगम वाक्य और पूर्वोक्त नामुक्त क्षीयते कर्म, इत्यादि वाक्य इनमें परस्पर विरुद्ध अर्थका प्रतिपादन होनेसे एक ही विषयमें वे अागम वाक्य प्रमाणभूत कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-यह शंका अयुक्त है, तत्त्वज्ञान कर्मोंका नाश करने में साक्षात् प्रवृत्ति नहीं करता, वह तो कर्मोंकी शक्ति ज्ञात कराता है, कर्मशक्तिको ज्ञात कर लेनेसे अखिल शरीरोंकी उत्पत्ति होकर फलोपभोग होता है, फिर कर्मोंका विध्वंस हो पाता है। अतः तत्त्वज्ञान के लिये अग्निकी उपमा उपचारसे है । इसप्रकारका पूर्वोक्त आगम वाक्योंका व्याख्यान करनेसे विरोध समाप्त होता है । इन अागम वाक्योंका अर्थ कोई
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