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प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्यात्, तथा च दुःखितत्वाबासी जिनोऽस्मदादिवत् । तथा भोजनं रसनेन शीतादिकं च स्पर्शनादिनेन्द्रियेण यद्यसावनुभवेत्; तर्हि भगवतो मतिज्ञानानुषङ्गः । अथ केवलज्ञानेन; तत्रापि सर्न भोजनादिकं परशरीरस्थमप्यस्यानुषज्यते । न चात्मशरीरस्थमेवास्य तन्नान्यदित्यभिधातव्यम्; भगवता वीतमोहस्य स्वपरशरीरमतिविभागाभावात् ।।
यच्चोपचारतोप्यस्यैकादश परीषहा न सम्भाव्यन्ते तत्र तनिषेधपरत्वात् सूत्रस्य, 'एकेनाधिका न दश परीषहा जिने एकादश जिने' इति व्युत्पत्तः । प्रयोगः-भगवान् क्षुदादिपरीषहरहितोऽनन्तसुखत्वात्सिद्धवत् ।
किञ्च, भोजनं कुर्वाणो भगवान् किल लोकर्नावलोक्यते चक्षुषेत्यभिधोयते भवता । तत्रादर्शनेऽयुक्तसे वित्वादेकान्तमाश्रित्य भुक्त इति कारणम्, बहलान्धकारस्थितभोजनं वा, विद्याविशेषण स्वस्य तिरोधानं वा ? तत्राद्यपक्षे पारदारिकवद्दीनवद्वा दोषसम्भावनाप्रसङ्गः । अन्धकारस्तु न सम्भाव्यते, तद्दे हदीप्त्या तस्य निहतत्वात् । विद्याविशेषोपयोगे चास्य निर्ग्रन्थत्वाभावः । कथं चादृश्याय
भगवान सिर्फ स्वशरीर संबद्ध भोजन का अनुभव करते हैं अन्यके शरीर संबद्ध भोजन का नहीं, ऐसा कहना भी असत् है, वीतरागी. भगवानके स्वका शरीर और परका शरीर ऐसा भेद होता नहीं ।
जिनेन्द्रदेवके उपचारसे भी एकादश परीषह नहीं होती ऐसा अभिप्राय होवे तो "एकादश जिने' इस तत्वार्थ सूत्रका अर्थ निषेधपरक होगा । एकसे अधिक दस परीषह केवलीके नहीं होती ऐसी व्युत्पत्ति होगी।
अनुमान प्रमाण-भगवान क्षुधादि परीषहों से रहित हैं, क्योंकि वे अनंतसुखके भोक्ता हैं, जैसे कि सिद्ध भगवान हैं ।
किंच, केवली भोजन करते हुए अन्य लोगोंको दिखायी नहीं देते ऐसा आपका कहना है, सो क्या कारण है, अयुक्त भोजन करने के कारण एकांतका आश्रय लेकर खाते हैं अथवा गाढ अंधकारमें स्थित होकर खाते हैं अतः दिखायी नहीं देते ? अथवा विद्या विशेष द्वारा स्वयंको तिरोभूत कर खाते हैं ? प्रथम पक्ष माने तो परदारासेवी सदृश नीच या दीन पुरुष सदृश केवलीके भी दोषकी संभावना हुई ? तभी तो एकांत में अभोग्यका भक्षण किया । दूसरापक्ष अंधकारमें स्थित होकर खानेकी बात असंभव है, क्योंकि केवली जिनेन्द्रके स्वयंके शरीरकांति द्वारा अंधकार नष्ट हो चुका है । तीसरा पक्ष-विद्या द्वारा स्वको तिरोभूत कर भोजन क्रिया माने तो उनके निर्ग्रन्थता समाप्त होती है । तथा ऐसे अदृश्य भगवानको दातार आहार को कैसे देंगे ? इन सब दोषोंको
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