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कवलाहारविचारः
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विष्ठादिकं च साक्षात्कुर्वन्तो व्रतशीलविहीना अपि न भुञ्जते, भगवांस्तु व्रतादिसम्पन्नस्तत्साक्षात्कुर्वन् कथं भुञ्जीत ? अन्यथा तेभ्योप्यसो हीनसत्त्वः स्यात् ।
यदप्युच्यते-यत्किञ्चिदृष्ट शुद्धमशुद्ध तत्स्मरन्तो यथास्मदादयो भोजनं कुर्वन्ति तथा केवली साक्षात्कुर्वन्निति; तदप्युक्तिमात्रम्; न ह्यस्मदादीनां परमचारित्रपदप्राप्त नाशेषज्ञेन भगवता साम्यमस्ति । अस्मदादयोपि हि यथा(यदा)कथञ्चित्किञ्चिदशुद्ध वस्तु दृष्ट स्मरन्तो भोजनपरित्यागेऽसमर्थास्तद्भुञ्जते तदा तद्दोषविशुद्ध्यर्थं गुरुवचनादात्मानं निन्दन्तः प्रायश्चित्तं कुर्वन्ति । ये तु तत्त्यागे समर्थाः पिण्डविशुद्धावुद्यतमनसो निर्वेदस्य परां काष्ठामापन्नास्त्यक्तशरीरापेक्षा जितजिव्हा अन्तरायविषये निपुणमतयस्ते स्मरन्तोपि न भुञ्जते ।
सकल चराचर जगतको जानते हैं अतः मत्स्यादिको मारते हुए धीवरादिको देखकर एवं उनके मांसको देखकर तथा अशुचि विष्ठा आदि मलोंको देखकर किसप्रकार आहार को कर सकेंगे ? अर्थात् नहीं कर सकते । यदि करते हैं तो वे निर्दयी कहलायेंगे । हम साक्षात अनुभव करते हैं कि जो पुरुष व्रत शील आदिका पालन भी नहीं करते किन्तु जीवोंका वध होता देख या विष्ठादिको देखकर भोजन नहीं करते फिर भगवान तो व्रत शील संपन्न हैं, वे उन पदार्थों को साक्षात् देखते हुए भोजन कैसे करेंगे, नहीं कर सकते । अन्यथा उन जीवोंसे भी हीन शक्तिक कहलायेंगे ।
श्वेताम्बर-जिसप्रकार हम लोग जो कुछ शुद्ध या अशुद्ध वस्तुका स्मरण करते हुए भोजन को कर लेते हैं उसीप्रकार केवली उनको साक्षात् देखते हुए भोजन कर लेते हैं।
दिगम्बर-यह कथन असत् है, हम जैसे रागी छद्मस्थ जीवोंके और परम चारित्र पदको प्राप्त सर्वज्ञ भगवानके समानता नहीं हो सकती। हम लोगोंमें भी बहुत से संयमी महानुभाव जब किसी प्रकारसे किसी अशुद्धवस्तुका स्मरण हो आता है तब भोजनका त्याग करने में असमर्थ होनेसे उसे कर तो लेते हैं किन्तु फिर उस दोषकी शुद्धिके लिये गुरुके समक्ष अपनी निंदा करते हुए प्रायश्चित लेते हैं । तथा बहुतसे महानुभाव साधु भोजन त्यागमें समर्थ हैं, पिंडशुद्धि अर्थात् एषणा समितिके पालन करने में दक्ष, वैराग्यकी चरम काष्ठाको प्राप्त, शरीरकी उपेक्षा करनेवाले, जिन्होंने रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त की है, तथा बत्तीस अंतराय पालने में कुशल हैं वे साधु उन विष्ठा आदि अशुचि पदार्थका स्मरण आनेपर आहार नहीं करते, अंत कर लेते हैं ।
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