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प्रमेयकमलमार्तण्डे र्नास्ति कारणं तन्न क्रियते । न हि सर्वं सर्वस्य कारण मिष्टम् । नापि 'यद्यदसत्तत्तत्क्रियते एव' इति व्याप्तिरिष्टा । किं तहि ? 'यत्क्रियते तत्प्रागुत्पत्तः कथञ्चिदसदेव' इति । ननु तुल्येप्यसत्कारित्वे कारणानां किमिति सर्वं सर्वस्यासतः कारणं न स्यादित्यन्यत्रापि समानम् । समाने हि सत्कारित्वे किमिति सर्व सर्वस्य सतः कारणं न स्यात् ? कारणशक्तिप्रतिनियमात् 'सदप्यात्मादि न क्रियते' इत्यन्यत्रापि समानम् । प्रतिपादितप्रकारेण सर्वथा सतः कार्यत्वासम्भवात्कथञ्चिदसत्कार्यवादे एव चोपादानग्रहणादित्यादेहेतुचतुष्टयस्य विरुद्धता साध्यविपर्ययसाधनात् । तन्नोत्पत्तः प्राक्कारण(णे) कार्यसद्भावसिद्धिः।
सांख्य-कारणों का असत्कारीपना [असत् को करना]. तुल्य होते हुए भी सभी कारण सभी असत् को करने वाले क्यों नहीं होते ?
जैन-यह प्रश्न आपके प्रति भी है, सत्कार्यपना समान होने पर भी सभी कारण सभी सत्को करने वाले क्यों नहीं होते हैं ?
सांख्य-कारण शक्तिका प्रतिनियम होने से सत् होते हुए भी आत्मा आदि को नहीं किया जाता ?
जैन-यह बात असत् कार्यवाद में भी समान रूपसे सुघटित होती है, अर्थात् कारण शक्तिका प्रतिनियम होने से असत् होते हुए भी किसी खरविषाणादि को तो नहीं किया जाता और घटादि को किया जाता है। तथा अभी तक जैसा हमने प्रतिपादन किया है तदनुसार यह निश्चित होता है कि सर्वथा सत् पदार्थ के कार्यपना असंभव है, कथंचित् असत् कार्यवाद में ही कार्यपना संभव है, और उपादान ग्रहण आदि शेष चार हेतुनों का विरुद्धपना भी होता है, क्योंकि ये हेतु आपके साध्यसे विपरीत जो असत् कार्यत्व है उसको सिद्ध करते हैं । अतः उत्पत्ति के पहले कारण में कार्यका सद्भाव मानना सिद्ध नहीं होता है ।
और जो सांख्य ने कहा था कि भेदों का परिमाण इत्यादि हेतु से एक प्रधान रूप कारण ही सिद्ध होता है, वह भी प्रलाप. मात्र है, क्योंकि "भेदों के परिमाण से" यह जो हेतु है उसका एक कारण पूर्वकत्व के साथ अविनाभाव नहीं है, भेदों के परिमाणका अनेक कारण पूर्वक होने में भी अविरोध है, क्योंकि इनका तो मात्र कारण पूर्वक होनेके साथ ही अविनाभाव है, यदि उसीको सिद्ध करना है तो सिद्ध साधन है, अर्थात् ऐसा हम मानते ही हैं ।
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