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प्रकृतिकर्तृत्ववादः
१६६ यच्चदमुक्तम्-अविभागाद्वैश्वरूप्यस्य; तदप्यसाम्प्रतम्; प्रलयकालस्यैवाप्रसिद्ध: । सिद्धी वा तदासी महदादीनां लयो भवन् पूर्वस्वभावप्रच्युतौ भवेत्. अप्रच्युतौ वा ? यदि प्रच्युतो; तहि तेषां तदा विनाशसिद्धिः स्वभावप्रच्युतेविनाशरूपत्वात् । अथाप्रच्युतौ; तर्हि लयानुपपत्तिः; नहि अविकलमात्मनस्तत्त्वमनुभवतः कस्यचिल्लयो युक्तोऽतिप्रसङ्गात् । परस्परविरुद्ध चेदम् 'अविभागो वैश्वरूप्यम्' इति च । वैश्वरूप्यं च प्रधानपूर्वत्वे नोपपद्यत एव, तन्मयत्वेन सर्वस्य जगतस्तत्स्वरूपवदेकत्वप्रसङ्गात्, इति कस्याऽविभागः स्यादिति ? तन्न प्रधानस्य सकल जगत्कर्तृत्वं सिद्धम्, यतस्तत्सिद्धौ प्रधानस्य सर्वज्ञता, कर्तृत्वस्य कारणशक्तिपरिज्ञानाविनाभावासिद्ध रित्युक्त प्रागीश्वरनिराकरणे, तदलमतिप्रसङ्गन।
एतेन सेश्वरसाङ ख्यैर्य डुक्तम्-'न प्रधानादेव केवलादमी कार्यभेदाः प्रवर्त्तन्ते तस्याचेतन
अप्रच्युतिमें होता है तो लयकी असिद्धि होती है, क्योंकि पूर्णरूपसे अपने स्वरूपका अनुभवन करते हुए किसी वस्तुका लय मानना सर्वथा अयुक्त है, अन्यथा अतिप्रसंग होगा। तथा यह परस्पर विरुद्ध है कि अविभाग है पुनश्च वैश्वरूप्य है, तथा प्रधान पूर्वत्वमें वैश्वरूप्य बनता ही नहीं, क्योंकि प्रधानसे तन्मय होनेके कारण संपूर्ण जगत को उसके स्वरूपके समान एक रूप होने का प्रसंग आता है और इस प्रकार जगतके एक रूप हो जानेसे किसका अविभाव होवेगा? अतः प्रधानका सकल जगत् कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता है जिससे यह माना जा सके कि प्रधान जगतका कर्ता होनेसे सर्वज्ञ है ? अर्थात् जगत कर्तृत्व हेतसे प्रधानमें सर्वज्ञता सिद्ध करना असंभव है क्योंकि कर्तृत्वका कारणकी शक्तिके परिज्ञानके साथ अविनाभाव सिद्ध नहीं है अर्थात् कर्ताको कारणकी शक्तिका ज्ञान अवश्य होना चाहिये ऐसा नियम नहीं है, इस विषय में पहले ईश्वरवाद का निराकरण करते समय, बहुत कुछ प्रतिपादन हो चुका है, अतः अधिक नहीं कहते हैं।
- इस निरीश्वर सांख्यके प्रकृतिकर्तृत्ववादके निराकरणसे ही सेश्वरवादी सांख्य द्वारा जो कहा गया है उसका भी निराकरण होता है। उनका कहना है कि केवल प्रधानसे ये महदादि कार्यभेद नहीं हो सकते हैं, क्योंकि प्रधान अचेतन है, अचेतन पदार्थ अधिष्ठायकके बिना कार्यको प्रारंभ करते हुए नहीं देखे जाते । ईश्वरसे अन्य सामान्य आत्माको अधिष्ठायक माने तो भी युक्त नहीं, क्योंकि सृष्टि कालमें वह अज्ञानी रहता है, कहा भी है कि बुद्धि द्वारा संसर्गित होकर ही आत्मा पदार्थ को जानता है । बुद्धिके संसर्ग होनेके पूर्व तो यह आत्मा अज्ञ ही रहता है अतः किसी भी
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