Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमाण्डे
प्रेक्षावद्युक्त तस्याचेतनत्वात् प्र ेक्षायाश्च चेतनापर्यायत्वात् । अथ कारण मात्रं साध्यते, तर्हि सिद्धसाध्यता । न ह्यस्माकं कारणमन्तरेण कार्यस्योत्पादोऽभीष्टः । कारणमात्रस्य च ' प्रधानम्' इति संज्ञाकरणे न किञ्चिद्विरुध्यतेऽर्थ भेदाभावात् ।
किंच, शक्तितः प्रवृत्त रित्यनेन यदि कथञ्चिदव्यतिरिक्तशक्तियोगिकारण मात्रं साध्यते; तदा सिद्धसाध्यता । अथ व्यतिरिक्तविचित्रशक्तियुक्तमेकं नित्यं कारणम्; तदानैकान्तिकता हेतोः । तथाभूतेन क्वचिदन्वयासिद्ध ेरसिद्धता च, न खलु व्यतिरिक्तशक्तिवशात् कस्यचित्कारणस्य क्वचित्कार्ये प्रवृत्तिः प्रसिद्धा, शक्तीनां स्वात्मभूतत्वात् ।
कान्तिक दोष आयेगा, क्योंकि प्रेक्षावान कर्त्ता के बिना भी अपने हेतुके सामर्थ्य के प्रतिनियमसे प्रतिनियत कार्य की उत्पत्ति होने में अविरोध है । दूसरी बात यह भी है कि आप प्रधानको कारण मानते हैं किन्तु प्रधान प्रचेतन होने से बुद्धिमान कारण नहीं हो सकता, बुद्धि तो चेतन की पर्याय है । यदि कहे कि कारण मात्रको सिद्ध किया जाता है तब तो सिद्धसाध्यता है । क्योंकि हम जैन को भी कारण के बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना इष्ट नहीं है। यदि आप इस कारण मात्र को ही प्रधान ऐसा नामकरण करते हैं तो कोई विरोध नहीं है, क्योंकि अर्थ में भेद भाव नहीं है ।
किंच, शक्तितः प्रवृत्तेः इस हेतु द्वारा यदि कथंचित् अव्यतिरिक्त शक्ति योगी कारण मात्र को सिद्ध किया जाता है तब तो सिद्धसाध्यता है, और यदि व्यतिरिक्त [भिन्न ] शक्तियुक्त एक नित्य कारणको सिद्ध किया जाता है तो हेतु प्रनैकान्तिक दोष युक्त होता है, क्योंकि उस प्रकारके हेतु का कहीं पर प्रन्वय सिद्ध नहीं होने से सिद्धता होती है, क्योंकि अपने से अतिरिक्त अर्थात् भिन्न शक्ति से किसी कारण की कार्य में प्रवृत्ति होती हुई नहीं देखी जाती, शक्तियां तो स्वात्मभूत हुआ करती हैं ।
और भी जो कहा था कि वैश्वरूप्यका अविभाग होने से सब कार्यका एक कारण है ऐसा भी प्रयुक्त है, क्योंकि वैश्वरूप्यके विभाग [ अन्तर्लीन ] का कारण जो प्रलयकाल बताया उसकी ही प्रसिद्धि है, यदि कदाचित् वह सिद्ध हो जाय तो भी महदादिका लय पूर्व स्वभाव से प्रच्युत होने पर होता है अथवा अप्रच्युत रहते हुए होता हैं ? यदि प्रच्युत होने पर होता है तो सांख्य को अनिष्ट ऐसे विनाश की सिद्धि होवेनी, क्योंकि स्वभाव की प्रच्युति होना ही विनाश
कहलाता है । और यदि
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