Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ईश्वरवादः
१०५ प्रतिपादकत्वेन विध्यङ्गत्वात् । तथाहि-स्तुतेः स्वार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तकत्वं निन्दायास्तु निवर्तकत्वम्, अन्यथा हि तदर्थापरिज्ञाने विहितप्रतिषेधेष्वविशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा स्यात् । तथा विधिवाक्यस्यापि स्वार्थप्रतिपादनद्वारेणैव पुरुषप्रेरकत्वं दृष्टमेवं स्वरूपपरेष्वपि वाक्येषु स्यात्, वाक्यरूपताया अविशेषाद्विशेषहेतोश्चाभावात् । तथा स्वरूपार्थानामप्रामाण्ये "मेध्या आपो दर्भः पवित्रममेध्यमशुचि" इत्येवंस्वरूपापरिज्ञाने विध्यङ्गतायामविशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिप्रसङ्गः । न चैतदस्ति, मेध्येष्वेव प्रवर्त्तते अमेध्येषु च निवर्त्तते इत्युपलम्भात्।
एवं प्रमाणप्रसिद्धो भगवान् कारुण्याच्छरीरादिसर्गे प्राणिनां प्रवर्त्तते । न चैवं सुखसाधन एव प्राणिसर्गोऽनुषज्यते; अदृष्टसहकारिणः कर्तृत्वात् । यस्य यथाविधोऽदृष्ट: पुण्यरूपोऽपुण्यरूपो वा तस्य तथाविधफलोपभोगाय तत्सापेक्षस्तथाविधशरीरादीन्सृजतीति । अदृष्टप्रक्षयो हि फलोपभोगं विना न शक्यो विधातुम् ।
बात यह है कि जो लोग वेद वाक्य का अर्थ विधि रूप करते हैं उनके यहां भी स्वार्थ प्रतिपादन द्वारा ही पुरुष के प्रेरकपना देखा जाता है अतः स्वरूप प्रतिपादक वाक्यों में भी इसी प्रकार घटित होता है। विधि परक वाक्य और स्वरूप प्रतिपादक वाक्य इनमें वाक्यपना तो समान ही है, भेद कारक विशेष हेतु भी नहीं है । तथा यदि स्वरूपार्थ प्रतिपादक वेद वाक्यों में अप्रामाण्य माना जायगा तो "जल पवित्र है," "दर्भ पवित्र है" "अशुचि पदार्थ अपवित्र है" इत्यादि वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं होने से दोनों में विधि रूपता की समानता होने से प्रवृत्ति निवृत्ति समान हो जायगी, किंतु ऐसा नहीं होता है पवित्र पदार्थों में ही प्रवृत्ति होती है और अपवित्र में ही निवृत्ति होती है।
इस प्रकार प्रमाण द्वारा प्रसिद्ध ऐसे भगवान करुणा भाव से प्राणियों के शरीरादि की रचना में प्रवृत्ति करते हैं। करुणा से प्रवृत्ति करता है तो सुख साधन रूप ही प्राणियों को पैदा करना चाहिये ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि प्राणियों के शरीर आदि के कर्तृत्व में ईश्वर को अदृष्ट की सहायता रहती है, जिस प्राणी का जिस प्रकार का अदृष्ट पुण्य रूप या पाप रूप होता है उसको वैसे फल भोगने के लिये ईश्वर उसी प्रकार के अदृष्ट की अपेक्षा से वैसे ही शरीरादि की रचना करता है। अदृष्ट का नाश फल भोगे बिना नहीं हो सकता है । ऐसा भी नहीं कहना कि-अदृष्ट से ही सकल कार्य की उत्पत्ति होती है अतः अन्य कर्ता की कल्पना क्यों करना ? अदृष्ट
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