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प्रकृतिकर्त्तृत्ववादः
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विषय एव विदुषाम् । प्रथानर्थान्तरभूतः तथाप्येकस्माद्धर्मस्वरूपादव्यतिरिक्तत्वात्तयोरेकत्वमेवेति कथं परिणामो धर्मिणः, धर्मयोर्वा विनाशप्रादुर्भावौ धर्मिस्वरूपवत् ? धर्माभ्यां च धर्मिणोऽनन्यत्वाद्धर्मस्वरूपवदपूर्वस्योत्पादः पूर्वस्य विनाश इति नैव कस्यचित्परिणामः सिध्यति । तस्मान्न परिणामवशादपि भवतां कार्यकारणव्यवहारो युक्तः ।
यच्चदमुत्पत्तेः प्राक्कार्यस्य सत्त्वसमर्थनार्थ मसदकरणादिहेतुपञ्चकमुक्तम्; तद् असत्कार्यवादपक्षेपितुल्यम् । शक्यते ह्यवमप्यभिधातुम् - 'न सदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।' न सत्कार्यमिति सम्बन्धः ।
किञ्च, सर्वथा सत्कार्यम्, कथंचिद्वा ? प्रथमपक्षोऽसम्भाव्यः यदि हि क्षीरादौ दध्यादिकार्यारिण सर्वथा विशिष्टरसवीर्यविपाकादिना विभक्तरूपेण मध्यावस्थावत्सन्ति, तर्हि तेषां किमुत्पाद्यमस्ति येन तानि कारणैः क्षीरादिभिर्जन्यानि स्युः ? तथा च प्रयोगः- यत्सर्वाकारेण सत्तन्न केनचिज्जन्यम् यथा प्रधानमात्मा वा सच्च सर्वात्मना परमते दध्यादीति न महदादेः कार्यता । नापि प्रधानस्य
समान पूर्वका उत्पाद एवं पूर्वका विनाश होनेसे किसीका भी परिणाम होना सिद्ध नहीं होता, इसलिये आपके यहां परिणामके निमित्तसे भी कार्य कारणका व्यवहार सिद्ध नहीं है |
उत्पत्तिके पहले कार्य के सत्वका समर्थन करनेके लिये असतु अकरणात् इत्यादि पांच हेतु कहे थे वे सत् कार्यवादके पक्ष में भी समान रूपसे घटित होते हैं । क्योंकि ऐसा कह सकते हैं कि सत्को न कर सकनेसे, उपादानका ग्रहण होने से, सर्वमें सर्व संभव न होने से, शक्तका शक्य करण होनेसे और कारणभाव होनेसे उत्पत्तिके पहले कार्य सत् नहीं था, इसप्रकार "सत्कार्यं न" ऐसा सम्बन्ध जोड़कर प्रतिपादन कर सकते हैं ।
दूसरी बात यह कि आपके यहां कार्यको सर्वथा सत् माना है या कथंचित् सत् माना है ? प्रथमपक्ष असंभव है, क्योंकि यदि दूध आदिमें दही आदि कार्य विशिष्ट रस, वीर्य, विपाक ग्रादि विभक्त रूपसे मध्य अवस्थाके समान विद्यमान है तो ब उनका कौनसा धर्म उपाद्य रह जाता है जिससे वे दूध आदि कारणों द्वारा उत्पन्न किये जा सकते हैं ? अतः निश्चय होता है कि जो सर्वाकारसे सत् है वह किसीके द्वारा जन्य नहीं होता, जैसे प्रधान ग्रथवा आत्मा किसीके द्वारा जन्य नहीं होता, पर मतमें दही कादि पदार्थ सत्रूप है अतः किससे जन्य नहीं है, इसप्रकार महदादिमें कार्यपना सिद्ध नहीं होता । तथा प्रधानके कारणपना भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि कार्यपना ही अवि
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