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प्रमेयकमलमार्तण्डे किंच, एते हेतवो भवत्पक्षे प्रवृत्ताः किं कुर्वन्ति ? स्व विषये हि प्रवृत्तं साधनं द्वयं करोतिप्रमेयार्थविषये प्रवृत्ती संशयविपर्यासौ निवर्तयति, निश्चयं चोत्पादयति । तच्च सत्कार्यवादे न सम्भवति । संशयविपर्यासौ हि भवतां मते चैतन्यात्मको, बुद्धिमनःस्वभावौ वा ? पक्षद्वयेपि न तयोनिवृत्तिः सम्भवति; चैतन्यबुद्धिमनसां नित्यत्वेनानयोरपि नित्यत्वात् । नापि निश्चयस्योत्पत्तिः; तस्यापि सदा सत्त्वात्, इति साधनोपन्यासवैयर्थम् । तस्मात्साधनोपन्यासस्यार्थवत्त्वमिच्छता निश्चयोऽसन्ने व साधनेनोत्पाद्यत इत्यङ्गीकर्तव्यम् । तथा चासदकरणादेहतुगणस्यानेनैवानकान्तिकता । यथा चासतोपि निश्चयस्य करणम्, तन्निष्पत्तये च यथा विशिष्टसाधनपरिग्रहः, यथा चास्य न सर्वस्मात्साधनाभासादेः सम्भवः, यथा चासावसन्नपि शक्त हेतुभिः क्रियते, तत्र च हेतूनां कारणभावोस्ति तथान्यत्रापि भविष्यति ।
मतमें संशय और विपर्यासको चैतन्यात्मक माना है अथवा बुद्धि और मनका स्वभाव माना है ? दोनों पक्षमें भी उन संशय विपर्यासका प्रादुर्भाव होना असंभव है, क्योंकि चैतन्य, बुद्धि और मन नित्य होनेसे संशय विपर्यास भी नित्य सिद्ध होते हैं । असत अकरणात् आदि हेतु निश्चयको उत्पन्न करते हैं ऐसा पक्ष भी अयुक्त है, क्योंकि निश्चय भी सदा सत्रूप होता है । इसप्रकार आपके मतमें हेतुअोंका उपन्यास व्यर्थ होता है, अतः हेतुके उपन्यास की सार्थकताको चाहने वाले आपको निश्चय असत् है और वह हेतु द्वारा उत्पन्न किया जाता है ऐसा स्वीकार करना होगा । और ऐसा स्वीकार करने पर असदकरणात् आदि हेतु पंचक की इसीके साथ अनेकान्तिकता आती है, क्योंकि जिसप्रकार निश्चय असत् था और उसको किया गया एवं उसकी निष्पत्तिके लिये जैसे विशिष्ट साधनका ग्रहण हुआ, तथा जैसे इस निश्चयका सभी साधनाभास आदिसे होना संभव नहीं है, तथा जैसे यह निश्चय असत् होकर भी शक्त हेतु द्वारा किया जाता है एवं उसमें हेतुओंका कारणभाव भी है, ठीक इसीप्रकारसे अन्यत्र भी असतको किया जा सकना, विशिष्ट उपादान ग्रहण आदि आदि सब संभव हो सकेगा।
शंका-यद्यपि साधन प्रयोगके पहले निश्चय सत् ही रहता है फिर भी उसके लिये साधनका प्रयोग व्यर्थ नहीं जाता, क्योंकि निश्चयकी अभिव्यक्ति के लिये उसका व्यापार होता है ?
समाधान-अभिव्यक्ति किसे कहते हैं स्वभावमें अतिशयकी उत्पत्ति होना , या तद्विषयक ज्ञान होना अथवा उसके उपलब्धिके आवरणका अपगम होना ? स्वभाव
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