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प्रकृतिकर्तृत्ववादः
१५६ रूपं तत्कार्यमेव न भवति । न चान्यस्य भावेऽन्यदस्त्यतिप्रसङ्गात् । अथाभिन्नम्; तर्हि दध्यादेनित्यत्वात्कारणव्यापारवैयर्थ्यम् ।
__ अभिव्यक्ती कारणानां व्यापारान्न वैयर्थ्यम्; इत्यप्यसत्; यतोऽभिव्यक्तिः पूर्व सती, असती वा ? सती चेत्, कथं क्रियेत ? अन्यथा कारकव्यापारानुपरमः स्यात् । अथासती; तथाप्याकाशकुशेशयवत्कथं क्रियेत ? असदकरणादित्यभ्युपगमाच्च ।
___ सर्वस्य सर्वथा सत्त्वेन च कार्यत्वासम्भवादुपादानपरिग्रहोपि न प्राप्नोति । सर्वसम्भवाभावोपि प्रतिनियतादेव क्षीरादेर्दध्यादीनां जन्मोच्यते । तच्च सत्कार्यवादपक्षे दूरोत्सारितम् । शक्तस्य शक्यकरणादिति चात्रासम्भाव्यम्; यदि हि केनचित् किंचिनिष्पाद्यत तदा निष्पादकस्य शक्तिर्व्यवस्थाप्येत निष्पाद्यस्य च करणं नान्यथा । कारणभावोप्यर्थानां न घटते कार्यत्वाभावादेव ।
समाधान-यह कथन अयुक्त है, इसमें प्रश्न होता है कि अभिव्यक्ति पूर्वमें सत् थी अथवा असत् थी ? सत् थी तो उसको किसप्रकार किया जाय ? यदि सत्को भी किया जाता है तो कारकों को व्यापार किसी कालमें भी नहीं रुक पायेगा । यदि अभिव्यक्ति पूर्वमें असत् थी तो आकाश पुष्पके समान उसको किसप्रकार किया जा सकता है ? असत् को नहीं किया जाता ऐसा आपने माना भी है।
दूसरी बात यह भी है कि सब पदार्थ सर्वथा सत् रूप हैं तो उनमें कार्यपना असंभव होनेसे उपादान कारण का ग्रहण होना भी नहीं बनता है। सबसे सब संभव नहीं है ऐसा जो कहा उसका अर्थ यही है कि प्रतिनियत दुग्धादिसे दही आदिकी उत्पत्ति होना, किन्तु यह सत्कार्य वादके पक्षमें घटित नहीं होता है । तथा सत्कार्यवादमें शक्तका शक्य करण भी असंभव है, क्योंकि यदि किसीके द्वारा कोई निष्पादन करने योग्य होवे तो निष्पादककी शक्ति व्यवस्थापित की जा सकती है एवं निष्पाद्यको किया जा सकता है, किन्तु निष्पाद्य आदिके अभावमें शक्तका शक्य करण कौनसा होगा, अर्थात् सत्कार्यवादमें पहलेसे ही सब निष्पन्न होनेसे शक्यका करना आदि नहीं बनता । और कार्यत्वका अभाव होनेसे पदार्थों में कारण भाव भी सिद्ध नहीं होता है।
तथा आपके यहांपर असत् अकरणात् आदि हेतु दिये जाते हैं वे प्रवृत्त होकर क्या करते हैं ? क्योंकि अपने विषयमें प्रवृत्त हुआ हेतु दो कार्योंको करता है एक तो प्रमेयार्थ विषयमें उत्पन्न हुए संशय और विपर्यास को दूर करता है और दूसरे निश्चय को उत्पन्न करता है। किन्तु यह सब सत्कार्यवादमें संभव नहीं है । क्योंकि आपके
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