Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे न चादृष्टादेवाखिलोत्पत्तिरस्तु किं कर्तृ कल्पनयेति वाच्यम्; तस्याप्यचेतनतयाधिष्ठात्रपेक्षोपपत्तेः । तथाहि-अदृष्ट चेतनाधिष्ठितं कार्ये प्रवर्त्ततेऽचेतनत्वात्तन्त्वादिवत् । न चास्मदाद्यात्मैवाधिष्ठायकः; तस्यादृष्टपरमाण्वादिविषय विज्ञानाभावात् । न च (चा ) चेतनस्याकस्मात्प्रवृत्तिरुपलब्धा, प्रवृत्तौ वा निष्पन्नेपि कार्ये प्रवत विवेकशून्यत्वात् ।
तथा वात्तिककारेणापि प्रमाणद्वयं तत्सिद्धयेऽभ्यधायि-"महाभूतादि व्यक्त चेतनाधिष्ठितं प्राणिनां सुखदुःख निमित्तं रूपादिमत्त्वात्तुर्यादिवत् । तथा पृथिव्यादीनि महाभूतानि बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि स्वासु धारणाद्यासु क्रियासु प्रवर्त्तन्तेऽनित्यत्वाद्वास्यादिवत् ।” [न्यायवा० पृ० ४६७]
तथाऽविद्धकर्णेन च-"तनुकरणभुवनोपादानानि चेतनाधिष्ठितानि स्वकार्यमारभन्ते रूपादिमत्त्वात्तन्त्वादिवत् ।" तथा "द्वीन्द्रियग्राह्याग्राह्य विमतिभावापन्न बुद्धिमत्कारणपूर्वकं स्वारम्भका
अचेतन होने से अधिष्ठायक चेतन की अपेक्षा रखता है इसी का खुलासा करते हैंअदृष्ट चेतन से अधिष्ठित होकर कार्य में प्रवृत्त होता है क्योंकि वह अचेतन है, जैसे तंतु आदि पदार्थ अचेतन हैं । इस पर जैनादि परवादी शंका करते हैं कि हम जैसे प्राणियों का प्रात्मा ही अदृष्ट का अधिष्ठायक होता है, तो यह शंका गलत है, हमारे प्रात्मा को अदृष्ट परमाणु आदि विषयों का ज्ञान नहीं होता है, तथा अचेतन के बिना कारण के प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती, यदि होगी तो निष्पन्न कार्य में भी होती रहेगी क्योंकि अचेतन विवेक शून्य होता है । वार्तिककार ने भी ईश्वर सिद्धि के लिये २ प्रमाण उपस्थित किये हैं, प्रथम प्रमाण-महाभूत आदि कार्य चेतन से अधिष्ठित होकर प्राणियों के सुख दुःख का निमित्त बनता है क्योंकि वह रूपादिमान है जैसे वाद्य चेतनाधिष्ठित होकर ही बजने का कार्य करता है । दूसरा प्रमाण-पृथ्वी आदि महाभूत बद्धिमान कारण से अधिष्ठित होकर अपने धारण आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि वे अनित्य हैं, जैसे वसूला आदि अपने काटने रूप क्रिया में देवदत्त से अधिष्ठित होकर ही प्रवृत्त होता है जो बुद्धिमान कारण है वही ईश्वर है । इन दो अनुमान प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि होती है ।
अविद्धकर्ण नामा गुरु ने भी कहा है कि शरीर, जगत, इन्द्रियां आदि उपादान रूप कारण चेतन से अधिष्ठित होकर स्वकार्य का प्रारंभ करते हैं, क्योंकि वे रूपादिमान हैं, जैसे तन्तु, तन्तुवाय से अधिष्ठित होकर वस्त्ररूप कार्य करते हैं, दूसरा अनुमान द्वीन्द्रिय ग्राह्य (स्पर्शन और चक्षु से ग्राह्य) पदार्थ और इनसे अग्राह्य पदार्थ
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