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ईश्वरवादः
११६ साधनविकलो दृष्टान्तः । तृतीयेप्युभयदोषानुषङ्गः; इत्यप्यसारम्; कारणमात्रजन्यतालक्षणस्य कृतकत्वस्य विपक्षे बाधकप्रमाणबलादनित्यत्वमात्रव्याप्तत्वेनाऽवधारितस्य शब्देप्युपलम्भात् तत्रोक्तदूषणस्यासदुत्तरत्त्वाज्जात्युत्तरत्वम् । न चैवं कार्यसामान्यं बुद्धिमत्कारणत्वमात्रव्याप्त क्षित्यादावुपलभ्यते, विपक्षे बाधकप्रमाणाभावेन सन्दिग्धानकान्तिकत्वात्तस्य, अन्यथाऽक्रियादशिनोपि कृतबुद्धिप्रसङ्गः। यदि च घटादिलक्षणं विशिष्टकार्यं तन्मात्रव्याप्त प्रतिपद्याऽविशिष्टकार्यस्यापि क्षित्यादेस्तत्पूर्वकत्वं साध्यते; तर्हि पृथ्वीलक्षणभूतस्य रूपरसगन्धस्पर्शवत्त्वं प्रतिपद्य भूतत्वादेव वायोरपि तत्साध्यताम् । अथाऽत्र प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधः, सोन्यत्रापि सम्मानः ।
दूसरा पक्ष कहें तो दृष्टांत साधन विकल बनता है, अर्थात् घट दृष्टांत में शब्दगत कृतकत्व धर्म नहीं पाया जाता उभयगत कृतकत्व धर्म को हेतु माने तो उभय पक्ष के दोष पावेंगे।
जैन-यह कथन असार है कारण मात्र से उत्पन्न होना है लक्षण जिसका ऐसा कृतकपना विपक्ष में बाधक प्रमाण होने के कारण अनित्यत्व के साथ ही व्याप्त है। इस प्रकार अनित्य के साथ जिसकी व्याप्ति निश्चित हो चुकी है उस कृतकत्व की शब्दों में भी उपलब्धि पायी जाती है, उसमें पूर्वोक्त दूषण देना असत् है । अतः इसमें असत् उत्तर होने से जात्युत्तर दोष युक्त है, किन्तु ऐसा कार्यत्व हेतु में नहीं है, कार्य सामान्य बुद्धिमान कारण मात्र के साथ व्याप्त होता हुआ पृथ्वी आदि में उपलब्ध नहीं होता है क्योंकि विपक्ष में बाधक प्रमाण का अभाव होने से कार्यत्व हेतु सन्दिग्ध अनैकान्तिक होता है, अन्यथा पृथ्वी आदि पदार्थों में भी प्रक्रियादर्शी होने पर कृत बुद्धि उत्पन्न होने का प्रसंग आता है । यदि घटादि लक्षणभूत विशिष्ट कार्य की प्रक्रियादी पुरुष के कृत बुद्धि उत्पादक के साथ व्याप्ति होती हुई देखकर अविशिष्ट कार्यभूत पृथ्वी आदि में भी उस व्याप्ति को सिद्ध किया जाय तो पृथ्वी रूप भूत में रूप, रस, गंध और स्पर्शवानपने की व्याप्ति देखकर उसी भूतत्व हेतु द्वारा वायुरूप भूत में स्पर्शादि चारों की व्याप्ति सिद्ध करनी चाहिये । यदि कहा जाय कि वायु में रूपादि को मानने में प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधा आती है तो पृथ्वी आदि में भी बुद्धिमान पूर्वकत्व की व्याप्ति करने में प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधा आती है।
पहले कहा था कि व्युत्पन्न बुद्धि वालों को कार्यत्व हेतु असिद्ध नहीं होता है सो वह अयुक्त है, व्युत्पन्न पुरुषों की व्युत्पत्ति अविनाभाव सम्बन्ध को जानन रूप होती है, अथवा इससे अतिरिक्त कोई होती है ? प्रथम पक्ष कहो तो प्रकृत साध्य
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