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प्रकृतिकत्त त्ववादः
१५१. बीजादेः कारणभावाच्च सत्कार्य कार्यासत्त्वे तदयोगात् । तथाहि-न कारणभावो बीजादे: अविद्यमानकार्यत्वात्खरविषारणवत् । तत्सिद्धमुत्पत्ते : प्राक्कारणे कार्यम् । तच्च कारणं प्रधानमेवेत्यावेदयति हेतुपञ्चकात्
"भेदानां परिमाणात्समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद्वैश्वरूप्यस्य ।।"
[ सांख्यका० १५] लोके हि यस्य कर्त्ता भवति तस्य परिमाणं दृष्टम् यथा कुलाल: परिमितान्मृत्पिण्डात्परिमितं प्रस्थग्राहिणमाढकग्राहिणं च घटं करोति । इदं च महदादि व्यक्त परिमितं दृष्टम्-एका बुद्धिः, एकोऽहङ्कारः, पञ्च तन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि, पञ्चभूतानीति । अतो यत्परिमितं व्यक्त नुत्पादयति तत्प्रधानमित्यवगमः।
वह कारण प्रधान ही है ऐसा पांच हेतुअोंसे प्रतिपादन करते हैं-महदादि भेदोंका परिमाण होनेसे, भेदोंका समन्वय होनेसे शक्तिके अनुसार प्रवृत्ति होनेसे, कार्यकारणका विभाग होनेसे एवं वैश्वरूपका अविभाग होनेसे कारणमें कार्यका सद्भाव सिद्ध होता है । लोकमें देखा जाता है कि जो जिस कार्यका कर्ता होता है वह उसके परिमाणका होता है, जैसे कुभकार परिमित मृत् पिंडसे परिमित ही प्रस्थग्राही या आढक ग्राही घटको बनाता है । यह महदादि व्यक्त भी परिमित है, एक बुद्धि है, एक अहंकार है, पांच तन्मात्रायें हैं, ग्यारह इन्द्रियां हैं एवं पंचभूत हैं । अतः निश्चय होता है कि जो परिमित व्यक्तको उत्पन्न कराता है वह प्रधान है।
भेदोंका समन्वय दिखायी देनेसे भी प्रधान तत्व का अस्तित्व जाना जाता है, जो जिस जातिसे समन्वित उपलब्ध होता है वह तन्मयकारणसे उत्पन्न होता है, जैसे घट, सकोरा आदि भेद मिट्टीरूप जातिसे समन्वित उपलब्ध होते हैं अतः मिट्टी स्वरूप कारणसे उत्पन्न हुए माने जाते हैं यह व्यक्त भी सत्व रज तमो गुण रूप जातिसे समन्वित उपलब्ध होता है अतः तन्मय कारणसे संभूत है । सत्वगुणका कार्य प्रसाद, लाघव, उत्सव, प्रीति आदिक है, रजोगुणका ताप, शोष, उद्व गादि कार्य है, तमोगुण का कार्य दैन्य, बीभत्स, गौरवादि है । अतः महदादिका प्रसाद, दैन्य, ताप आदि कार्य उपलब्ध होनेसे उनकी प्रधानके साथ अन्वयपनेके सिद्धि होती है ।
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