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प्रमेयकमलमार्तण्डे सर्वेषामेव हि परस्परमव्यतिरेके कार्यत्वं कारणत्वं वा प्रसज्येत । आपेक्षिकत्वाद्वा तद्भावस्य, रूपान्तरस्य चापेक्षणीयस्याभावात्सर्वेषां पुरुषवत्प्रकृतिविकृतित्वाभावः । अन्यथा पुरुषस्यापि प्रकृतिविकृतिव्यपदेशः स्यात् ।
__ यच्चेदम्-हेतुमत्त्वादिधर्मयोगि व्यक्त विपरीतमव्यक्तम्; तदपि बालप्रलापमात्रम्; न हि यद्यस्मादभिन्नस्वभावं तत्तद्विपरीतं युक्त भिन्नस्वभावलक्षणत्वाद्विपरीतत्वस्य । अन्यथा भेदव्यवहारोच्छेद्यः (दः) स्यात् । सत्त्वरजस्तमसां चान्योन्यं भिन्नस्वभावनिबन्धनो भेदो न स्यादिति विश्वमेकरूपमेव स्यात् । ततो व्यक्तरूपाव्यतिरेकादव्यक्तमपि हेतुमत्त्वादिधर्मयोगि स्यात् व्यक्तस्वरूपवत् । व्यक्त वाऽहेतुमत्त्वादिधर्मयोगि स्यादव्यक्तस्वरूपाव्यतिरेकात्तत्स्वरूपवदित्येकान्तः।।
किञ्च, अन्वयव्यतिरेकनिश्चयसमधिगम्यो लोके कार्यकारणभावः प्रसिद्धः । न च प्रधानादिभ्यो महदाधु त्पत्तिनिश्चयेऽन्वयो व्यतिरेको वा प्रतीतोस्ति येन प्रधानान्महान्महतोऽहङ्कार इत्यादि सिद्धयेत् ।
होता है वह उससे विपरीत नहीं होता, क्योंकि भिन्न स्वभावी होना ही विपरीत का लक्षण है । यदि ऐसा न हो तो भेद का व्यवहार ही समाप्त होगा। तथा विपरीत [भिन्न स्वभावी] न हो तो सत्व रज और तमका परस्परमें भिन्न स्वभावके निमित्तसे होने वाला भेद नहीं रहेगा और संपूर्ण विश्व एक रूप हो जावेगा। अतः व्यक्तरूपसे अभिन्न जो अव्यक्त है उसके भी व्यक्त स्वरूपके समान हेतुमत्व, अनित्यत्वादि धर्मोंका योग स्वीकार करना होगा । अथवा व्यक्तके अहेतु मत्व आदि धर्मोंका योग स्वीकार करना होगा, क्योंकि वह अव्यक्त स्वरूपसे अव्यतिरिक्त है जैसे उसका स्वरूप अव्यतिरिक्त है, इसप्रकार एक ही व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप प्रधानको माननेका प्रसंग अाता है।
तथा लोकमें कार्यकारण भाव अन्वय व्यतिरेक द्वारा ज्ञात होता है, किन्तु प्रधानादि से महदादिके उत्पत्ति के निश्चयमें अन्वय अथवा व्यतिरेक प्रतीत नहीं होता है जिससे प्रधानसे महान उत्पन्न होना, महानसे अहंकार उत्पन्न होना इत्यादि सिद्ध हो सके।
कूटस्थ नित्य पदार्थ में कारणभाव भी प्रसिद्ध है, क्योंकि नित्यमें क्रम अथवा अक्रमसे अर्थ क्रिया होने में विरोध है ।
शंका-जिसप्रकार कुडलादि आकारका [ आंटा देकर समेटकर बैठना ] कारण सर्प है ऐसा कहा जाता है उसप्रकार महदादिरूपसे परिणामको प्राप्त होते हुए
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