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प्रकृतिकर्तृत्ववादः
१४७ लोके हि यदात्मकं कारणं तदात्मकमेव कार्यमुपलभ्यते यथा कृष्णस्तन्तुभिरारब्धः पटः कृष्णः । एवं प्रधानमपि त्रिगुणात्मकम्, तथा बुद्ध्यहङ्कारतन्मात्रेन्द्रियभूतात्मकं व्यक्तमपि । तथाऽविवेकि-'इमे सत्त्वादय इदं च महदादि व्यक्तम्' इति पृथक्कत्तु न शक्यते । किन्तु 'ये गुणास्तव्यक्त यव्यक्त ते गुणाः' इति । तथा व्यक्ताव्यक्तद्वयमपि विषयो भोग्यस्वभावत्वात् । सामान्यं च सर्वपुरुषाणां भोग्यत्वात्पण्यस्त्रीवत् । अचेतनात्मकं च सुखदुःखमोहावेदकत्वात् । प्रसवर्मि तथाहि-प्रधानं बुद्धि जनयति, बुद्धिरप्यहङ्कारम्, अहङ्कारोपि तन्मात्राणीन्द्रियाणि चैकादश, तन्मात्राणि च महाभूतानीति। प्रकृतिविकृतिभावेन परिणामविशेषाल्लक्षणभेदोप्यविरुद्धः । यथोक्तम्
"हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । सावयवं परतन्त्रं व्यक्त विपरीतमव्यक्तम् ॥"
[ सांख्यका० १० ]
लोकमें देखा जाता है कि जिसरूप कारण होता है उसीरूप कार्य उपलब्ध होता है, जिसप्रकार कृष्ण तंतुओंसे बना हुआ पट कृष्ण रहता है । इसीप्रकार प्रधान भी त्रिगुणात्मक है, तथा व्यक्त प्रधान भी बुद्धि, अहंकार, तन्मात्रायें, इन्द्रियां पंचभूत इन रूप है । ये सत्वादि गुण हैं और यह महदादि व्यक्त है ऐसा विभाग करना अशक्य होनेसे प्रधान को अविवेकी कहते हैं । प्रधानमें जो गुण है वही व्यक्त है और जो व्यक्त है वही गुण है अतः विवेचना रहित होनेके कारण यह अविवेकी है । सर्व पुरुषोंको भोग्य होनेसे पण्य स्त्री (वेश्या) के समान प्रधान को सामान्य कहा जाता हैं । सुख, दुःख एवं मोह का वेदन नहीं करने से प्रधान अचेतन है । प्रधान प्रसव धर्मी भी है, अर्थात् प्रधान बुद्धिको उत्पन्न करता है, बुद्धि अहंकारको, अहंकार तन्मात्राओं को और ग्यारह इन्द्रियोंको उत्पन्न करता है, और तन्मात्रायें ही पंच महाभूतों को [पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश को] उत्पन्न करती हैं।
___ इन महदादिमें प्रकृतिका विकृतिभाव होनेके कारण परिणाम विशेषसे लक्षणों का भेद होना भी अविरुद्ध है, जैसा कि कहा है-व्यक्त प्रधान हेतुमत् है, अनित्य, अव्यापि, क्रियावान, अनेक, आश्रित, लिंग, सावयव, एवं परतन्त्र है, इससे विपरीत अव्यक्त प्रधान है । व्यक्त प्रधान ही कारणवान् [हेतुमान] है, आगे इसीको स्पष्ट करते हैं-प्रधानसे हेतुमान बुद्धि आविर्भूत होती है, बुद्धिसे अहंकार, अहंकार से पंच
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