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प्रकृतिकर्तृत्ववादः FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES
ननु साधूक्तमावरणापाये सर्वज्ञत्वमिति । तत्तु प्रकृतेरेव अत्रैवावरणसम्भवात्, नात्मनस्तस्यावरणाभावात् "प्रधानपरिणामः शुक्लं कृष्णं च कर्म' [ ] इत्यभिधानात् । निखिलजगकर्तृत्वाच्चास्या एवाशेषज्ञत्वमस्तु; तदेतदप्यसमीक्षिताभिधानम्; कर्मणः प्रधानपरिणामताप्रतिषेधात् सकलजगत्कर्तृत्वस्य चासिद्ध: । ननु प्रकृतिप्रभवैवेयं जगतः सृष्टिप्रक्रिया, तत्कथं तस्यास्तकर्तृत्वासिद्धिः ? तथा हि
"प्रकृतेमहांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥"
[ सांख्यका० २१]
सांख्य-जैन ने उचित ही कहा कि आवरण के अपाय होने पर सर्वज्ञता प्रगट होती है। किन्तु वह प्रकृति के होती है, क्योंकि इसी पर आवरण आना संभव है, आत्माके नहीं, उसका भी कारण यह है कि आत्माके आवरण होना असंभव है । कहा भी है कि प्रकृति के परिणाम कर्म कहते हैं, उसके कृष्ण कर्म और शुक्ल कर्म ऐसे दो भेद हैं । तथा सकल जगत का कर्ता होने से प्रकृति के ही सर्वज्ञता सिद्ध होती है।
जैन-यह कथन अविचार पूर्ण है, कर्म में प्रधान परिणाम होने का प्रतिषेध कर चुके हैं, तथा इसके सकल जगत के कर्तापन की भी असिद्धि है।
___सांख्य-यह सृष्टि की प्रक्रिया प्रधान से ही प्रसूत है, उसके कत्त त्वकी असिद्धि किसप्रकार कर सकते हैं ? सृष्टि के विषयमें कहा है कि
प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्चषोडशकः ।
तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंच भूतानि ।।१॥ .
अर्थ-प्रकृति से महान् (बुद्धि) महानसे अहंकार, अहंकार से सोलह गण सोलह गण से पंचभूत प्रादुर्भूत होते हैं । अर्थात् सर्व प्रथम प्रकृति से विषय का
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