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ईश्वरवादः
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कुम्भकारादौ कार्यकारित्वं दृष्टं नान्यथा । तत्सम्बन्धोपगमे चास्य दृश्यत्वप्रसङ्गः कुम्भकारादिवत् । तच्छरीरस्य दृश्यत्वादृश्योसौ न पिशाचादिविपर्ययादिति चेत्; ननु शरीरत्वाविशेषेपि यथास्मदादिशरीरविलक्षणं तच्छरीरमभ्युपगम्यते तथा घटादिकार्यविलक्षणं भूरुहादिकार्य कार्यत्वाविशेषेप्यभ्युपगम्यताम् । तथा चानेन प्रकृतो हेतुर्व्यभिचारी । तथास्मदादेः शरीरसम्बन्धमात्रेणैव तदवयवानां प्रेरकत्वोपपत्ते परशरीरसम्बन्धस्तत्रोपयोगी 'तत्सम्बन्धमन्तरेण हि चेतनस्य स्वशरीरावयवेप्वन्यत्र वा कार्यकारित्वं नास्त्यनुपलम्भात्' इत्येतावन्मात्रमेव नियम्यत इति महेश्वरस्यापि शरीरसम्बन्धेनैव कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यम्।
तच्छरीरं च तत्कृतं यद्यभ्युपगम्यते; तर्हि शरीरान्तरं तस्याभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्थातः
योग-वृक्ष को शाखा भंग होना आदि में पिशाचादि कर्ता तथा अपने शरीर के अवयवों की प्रेरणा में आत्मा कर्ता शरीर रहित होकर भी उपलब्ध होता है।
जैन-यह कथन ठीक नहीं है, पिशाचादि के शरीर का सम्बन्ध नहीं रहेगा तो वे कार्य को नहीं कर सकते, जैसे मुक्तात्मा शरीर रहित होने से कोई कार्य नहीं करते हैं । कुम्भकारादि में शरीर सम्बन्ध से कार्यकारित्व देखा जाता है अन्यथा नहीं। यदि ईश्वर के शरीर का सम्बन्ध मानते हैं तो वह दृश्य बन जायगा जैसे कुम्हार आदि कर्ता दृश्य है।
यौग-कुम्हारादि का शरीर दृश्य है अतः वे दृश्यमान हैं, किंतु पिशाचादि इससे विपरीत हैं अर्थात् उनके शरीर दृश्य नहीं है।
___ जैन-तो शरीरपना उभयत्र समान होते हुए भी जैसे हमारे शरीर से विलक्षण ईश्वर का शरीर मान लिया जाता है वेसे कार्यपना समान होते हुए भी वृक्षादि कार्य घटादि कार्य से विलक्षण है ऐसा स्वीकार करना चाहिये ? इस प्रकार सिद्ध होने पर इसी वृक्षादि कार्यत्व द्वारा प्रकृत कार्यत्व हेतु व्यभिचारी होता है। तथा आत्मा में शरीर के सम्बन्ध बिना स्वशरीर के अवयवों में अथवा अन्यत्र कार्यकारीपना नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा उपलब्ध नहीं होता है इतना सिद्धांत निश्चित किया जाता है इसलिये महेश्वर के भी शरीर का सम्बन्ध होकर ही कार्यकारीपना होता है ऐसा मानना चाहिये।
अब यदि उस ईश्वर के शरीर को ईश्वरकृत मानते हैं तो उसके लिये अन्य शरीर स्वीकार करना होगा, इस तरह अनवस्था होने से प्रकृत कार्य में (पृथ्वी आदि
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