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प्रमेयकमलमार्तण्डे
त्वलक्षणत्वात्; इत्यप्यसाम्प्रतम्; सहकारिसव्यपेक्षो हि कार्यजननस्वभावः तस्यादृष्टा दिसहकारिसन्निधानाद्यदि प्रागप्यस्ति तदोत्तरकालभाविसकलकार्योत्पत्तिस्तदैव स्यात् । तथाहि-यद्यदा यज्जननसमर्थं तत्तदा तज्जनयत्यव यथान्त्यावस्थाप्राप्त बीजमंकुरम्, प्रागप्युत्तरकालभाविसकलकार्यजननसमर्थश्चैकस्वभावतयाभ्युपगतो महेश्वर इति । तदा तदजनने वा तज्जननसामर्थ्याभावः, यद्धि यदा यन्न जनयति न तत्तदा तज्जननसमर्थस्वभावम् यथा कुसूलस्थं बीजमंकुरमजनयन्न तज्जननसमर्थस्वभावम्, न जनयति चोत्तरकालभावि सकलं कार्य पूर्वकार्योत्पत्तिसमये महेश्वर इति ।
___ तज्जननसमर्थस्वभावोप्यसौ सहकार्यऽभावात्तथा तन्न जनयति; इत्यपि वार्तम्; समर्थस्वभावस्यापरापेक्षाऽयोगात् । 'समर्थस्वभावश्चापरापेक्षश्च' इति विरुद्धमेतत्, अनाधेयाऽप्रहेयातिशयत्वात्तस्य ।
पहले भी है, तो आगामी काल में होने वाले जितने कार्य हैं वे सारे उसी समय हो जायेंगे इसका खुलासा-जो जिस समय जिसको उत्पन्न करने में समर्थ होता है वह उस समय उस कार्य को अवश्य करता है, जैसे-अंतदशा को प्राप्त हुआ बीज अंकुर को उत्पन्न करा देता है, ईश्वर में पहले से ही उत्तरकालीन सकल कार्यों को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रहती है, क्योंकि वह सदा एक सा स्वभाव वाला है, यदि उस समय सकल कार्यों को उत्पन्न नहीं करता है तो ईश्वर में कार्योत्पत्ति के सामर्थ्य का अभाव हो जायगा । क्योंकि जो जिस समय जिसको उत्पन्न नहीं करता है उस समय उसके वह सामर्थ्य नहीं रहती है, जैसे कुशूल में रखा हुआ बीज अंकुर को उत्पन्न नहीं करता है तो उसके सामर्थ्य का अभाव ही है, ईश्वर भी पूर्व कार्योत्पत्ति के समय उत्तरकालीन सकल कार्यों को नहीं करता है अतः उसमें उन कार्यों को उत्पन्न कराने की सामर्थ्य नहीं है।
यौग-ईश्वर में सकल कार्योत्पत्ति की सामर्थ्य रहती है किन्तु सहकारी का अभाव होने से उत्पन्न नहीं करता है ।
जैन-यह बात असंगत है, जो स्वयं समर्थ स्वभाव वाला है वह पर की अपेक्षा नहीं रखता है, समर्थ स्वभावी हो और पर की अपेक्षा भी रखने वाला हो यह विरुद्ध बात है । ईश्वर तो अनाधेय और अप्रहेय अतिशयवान है । [ अर्थात् प्रारोपित करने में नहीं आना अनाधेयता है और भेद नहीं कर सकना अप्रहेय है, यौग मत में ईश्वर को ऐसे अतिशय से युक्त माना जाता है ] तथा ये अदृष्टादिक सहकारी ईश्वर के अधीन होकर उत्पन्न होते हैं या बिना अधीन हुए उत्पन्न होते हैं ? प्रथम पक्ष कहो तो
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