________________
ईश्वरवाद का सारांश पूर्वपक्ष-नैयायिक वैशेषिक सृष्टि कर्ता को मानते हैं उनका कहना है कि सर्वज्ञ कर्मों का नाश करके बनता हो ऐसी बात नहीं है, एक अनादि महेश्वर है वही सर्वज्ञ है, उसकी सर्वज्ञता जगत की रचना से सिद्ध होती है पृथ्वी, पर्वत, वृक्षादि सभी पदार्थ किसी बुद्धिमान के द्वारा निर्मित है, क्योंकि वे कार्य हैं, जैसे घटादि कार्य हैं, यह अनुमान हमारे अनादि ईश्वर को सिद्ध कर देता है, पृथ्वी आदि हमेशा से रहते हैं तो उसका निर्माता भी हमेशा से रहना चाहिये । कोई जैनादि कहे कि घटादि का कर्ता सशरीरी है वैसे ही ईश्वर होना चाहिये सो बात नहीं, कार्य करने के लिये शरीर की जरूरत नहीं होती वहां तो ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न की जरूरत होती है पृथ्वी आदि कार्य है यह बात उनके अवयव युक्त होने के कारण सिद्ध होती है, जो सावयव होता है वह कार्य है जैसे प्रासाद । पृथ्वी आदि का सावयव पना और महल आदि का सावयवपना भिन्न भिन्न है ऐसा भी नहीं समझना । यदि कहे कि अकृष्ट प्रभव तृणादि का कर्ता नहीं है, सो बात भी नहीं, इनमें जो कर्ता का ग्रहण नहीं होता उसका कारण वह अतीन्द्रिय है । आप पृथ्वी आदि के परमाणुओं को कर्ता मानते हैं किन्तु ऐसा करने से इन पृथ्वी आदि का अदृष्ट नामा कारण प्रसिद्ध हो जाता है । स्थावरादि पदार्थों का बुद्धिमान कर्ता नहीं है इसलिये दिखायी नहीं देता है अथवा कर्ता है तो भी वह अनुपलब्धि लक्षण वाला है (अदृश्य) इसलिये दिखाई नहीं देता है इस तरह कर्ता के बारे में संशय रहने से कार्यत्व हेतु संदिग्ध अनेकान्तिक सिद्ध करोगे तो सभी अनुमान के हेतु इसी दोष के शिकार बन जायेंगे, जहां कहीं भी अग्नि न दिखकर धम दिखेगा तो शंका होगी कि क्या मालूम यहां पर अग्नि नहीं दिखायी देती वह नहीं है इसलिये अथवा अनुपलब्धि स्वभाव वाली है इसलिये ? इत्यादि रूप से प्रसिद्ध हेतु भी गलत ठहरेंगे । यह सर्वज्ञ करुणा के सागर हैं अतः जगत को रचता है तो सुखी प्राणी को बनाते दुखी को काहे को बनाया ? सो उसमें बड़ा रहस्य छिपा हुआ है प्राणियों का जो अदृष्ट पुण्य पाप है उनको भोगे बिना मोक्ष नहीं मिलता अर्थात् पुण्य पापादि भोग कर ही नष्ट हो सकते हैं अन्यथा नहीं, इसीलिये तो जल्दी से वे प्राणी उन्हें भोग कर नष्ट करें इस हेतु से ईश्वर भोग के साधनभूत पदार्थों को दोनों सुख दुख के रूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org