Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ईश्वरवादः
१०३ प्रयत्नाधारता हि कर्तृत्वम् न सशरीरेतरता, घटादिकार्य कत्त मजानतः सशरीरस्यापि तत्कर्तृत्वादर्शनात्, जानतोपीच्छापाये तदनुपलम्भात्, इच्छतोपि प्रयत्नाभावे तदसम्भवात्, तत्त्रयमेव कारकप्रयुक्ति प्रत्यङ्गन शरीरेतरता।
न च दृष्टान्तेऽनीश्वरासर्वज्ञकृत्रिमज्ञानवता कार्यत्वं व्याप्त प्रतिपन्न मित्यत्रापि तथाविधमेवाधिष्ठातारं साधयतीति विशेषविरुद्धता हेतोः इत्यभिधातव्यम्; बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वमात्रस्य साध्यत्वात् । धूमाद्यनुमानेपि चैतत्समानम्-धूमो हि महानसादिदेशसम्बन्धितार्गपार्णादिविशेषाधारेणाग्निना व्याप्तः पर्वतेपि तथाविधमेवाग्नि साधयेदिति विशेषविरुद्धः । देशादिविशेषत्यागेनाग्निमात्रेणास्य व्याप्त ने दोषः इत्यन्यत्रापि समानम् ।
सर्वज्ञता चास्याशेषकार्यकरणात्सिद्धा । यो हि यत्करोति स तस्योपादानादिकारणकलापं प्रयोजनं चावश्यं जानाति, अन्यथा तक्रियाऽयोगात्कुम्भकारादिवत् । तथा “विश्वतश्चक्षुः" [श्वेताश्वतरोप० ३।३ ] इत्यागमादप्यसौ सिद्धः
प्रकार ज्ञान, प्रयत्न और इच्छा ये तीन कर्ता के अंग हैं, अर्थात् कार्य कर्ता में ये तीन हों तो कार्य कर सकेगा अन्यथा नहीं । अतः शरीरी होना या अशरीरी होना कर्ता के अंग नहीं हैं।
शंका-पृथ्वी आदि ईश्वरकृत हैं ऐसा सिद्ध करने में “घटादिवत्" यह दृष्टांत दिया है । घट का कार्यत्व अधीश्वर, असर्वज्ञ, अनित्य ज्ञानी के साथ व्याप्त है अतः कार्यत्व हेतु पृथ्वी आदि में वैसे ही अनीश्वर असर्वज्ञ आदि विशेषण वाले कर्ता को सिद्ध करता है इसलिये यह हेतु विशेष विरुद्ध दोष वाला है।
समाधान-ऐसा नहीं कहना, हम यौग ने यहां पर सामान्यतः बुद्धिमत् कारण पूर्वकत्व को साध्य बनाया है शंकाकार ने हमारे कार्यत्व हेतु के विषय में जो कहा उसको धमत्व आदि हेतु के विषय में भी कह सकते हैं-धूम हेतु महानस आदि स्थानों पर तृण की अग्नि, पत्ते को अग्नि आदि विशेष आधार से व्याप्त था अतः पर्वत पर उसी प्रकार की अग्नि को सिद्ध करेगा अतः धूमत्व हेतु भी विशेष विरुद्ध होता है । यदि कहा जाय कि देश आदि विशेष से रहित मात्र सामान्य अग्नि के साथ धूम हेतु की व्याप्ति रहती है अतः कोई दोष नहीं है, तो यही बात कार्यत्व हेतु में है दोनों में समान ही दोष और परिहार है ईश्वर में सर्वज्ञता इसलिये सिद्ध होती है कि वह संपूर्ण कार्यों को करता है, जो जिसको करता है वह उस कार्य के उपादान आदि कारण कलाप को तथा प्रयोजन को अवश्य ही जानता है, अन्यथा कार्य को कर नहीं
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