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सर्वज्ञत्वबादः विशिष्ट वस्तु तदा तज्ज्ञाने तथैव प्रतिभासते नान्यथा विभ्रमप्रसङ्गात् इति कथं गृहीतग्राहित्वेनाप्यस्याप्रामाण्यम् ?
__ यच्चेदं परस्थरागादिसाक्षात्करणाद्रागादिमानित्युक्तम्; तदप्ययुक्तम् ; तथापरिणामो हि तत्त्वकारणं न संवेदनमात्रम्, अन्यथा 'मद्यादिकमेवंविधरसम्' इत्यादिवाक्यात्तच्छ्रोत्रियो यदा प्रतिपद्यते तदाऽस्यापि तद्रसास्वादनदोषः स्यात् । अरसनेन्द्रियजत्वात्तस्यादोषोयम्; इत्यन्यत्रापि समानम्। न हि सर्वज्ञज्ञानमिन्द्रियप्रभवं प्रतिज्ञायते । किञ्चाङ्गनालिङ्गनसेवनाद्य भिलाषस्येन्द्रियोद्रेकहेतोराविर्भावाद्रागादिमत्त्वं प्रसिद्धम् । न चासौ प्रक्षीणमोहे भगवत्यस्तीति कथं रागादिमत्त्वस्याशङ्कापि।
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और ज्ञान तो अनंत हैं अंत रहित हैं। जो पदार्थ प्रथम क्षण में भावी रूप था वह द्वितीय क्षण में वर्तमानरूप हो जाता है तथा जो वस्तु वर्तमान रूप थी वह प्रतीत हो चुकी वस्तु जिस समय जिस धर्म से विशिष्ट होती है वह उसी रूप से ही तो ज्ञान में झलकेगी ? अन्यथा रूप नहीं तथा प्रतिक्षण वस्तु में अपूर्वता आती है इसलिये सर्वज्ञ का ज्ञान ग्रहीतग्राही होने से अप्रमाण है ऐसा कहना भी शक्य नहीं है। सर्वज्ञ पर के रागादि को जानेगा तो स्वयं भी रागीद्वषी बन जायगा ऐसा कहा था वह भी प्रयुक्त है । उसी प्रकार परिणमन कर जाने से रागी होता है जानने मात्र से नहीं । यदि जानने मात्र से उसी रूप होना जरूरी है तब तो “मदिरा आदि में इस तरह का रस होता है" इत्यादि वाक्य कहने या सुनने या जानने मात्र से श्रोत्रिय ब्राह्मण आदि को उस मदिरा रस का स्वाद लेने का दोष आवेगा ।
शंका- मदिरा के रस का ज्ञान रसनेन्द्रिय से नहीं हुअा है अतः रसास्वाद लेने का दोष नहीं आता है ?
समाधान -यही बात सर्वज्ञ में है, सर्वज्ञ भी यह रागी है, यह द्वषी है इत्यादि रूप से मात्र जानता है, उस रूप से परिणमन नहीं करता । सर्वज्ञ का ज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न होता है ऐसा हम नहीं कहते हैं । आप सर्वज्ञ को रागी सिद्ध करना चाहते हैं, किंतु स्त्री के आलिंगन सेवन आदि की जिसके इच्छा है ऐसे कामी पुरुष के इन्द्रियों के उद्रेक के कारण उपस्थित होने पर रागीपना होता है, ऐसा रागोद्रक, मोह का नाश जिसके हुअा है ऐसे सर्वज्ञ के कैसे संभव है ? अर्थात् नहीं है।
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