Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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सर्वज्ञवाद का
सारांश
पूर्व पक्ष -मीमांसक सर्वज्ञ को नहीं मानते हैं उनका अनुमान वाक्य है कि सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह सत्ता ग्राहक पांचों प्रमाणों का विषय नहीं है । प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमा, अर्थापत्ति ये पांच प्रमाण वस्तु के सद्भाव को सिद्ध करने वाले हैं इनमें से प्रत्यक्ष के द्वारा सर्वज्ञ को सिद्ध करना शक्य नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष तो निकटवर्ती रूपादि विषय को ग्रहण करता है, प्रतीन्द्रिय सर्वज्ञ को नहीं । अनुमान के द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध तब हो जब सर्वज्ञ का अविनाभावी कोई हेतु उपस्थित हो सर्वज्ञ की सिद्धि के लिये जैन का दिया गया अनुमान ठीक नहीं है अर्थात् सूक्ष्मादि पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे प्रमेय हैं इत्यादि अनुमान का हेतु प्रसिद्धादि दोष युक्त है । ग्रागम प्रमाण से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती क्योंकि उसमें अन्योन्याश्रयादि दोष आते हैं । उपमा उपमेय की सदृशता न होने से उपमा प्रमाण भी सर्वज्ञ को सिद्ध नहीं कर सकता । अर्थापत्ति भी अन्यथानुपपद्यमानत्व शक्ति के बिना प्रवृत्त नहीं होता । आप जैन का कहना है कि अभ्यास करते करते सकल पदार्थ का ज्ञान हो जाता है । सो अभ्यास अन्य विषयक अतिशय को पैदा कर सकता है ? नहीं कर सकता, अर्थात् जिस विषय का अभ्यास करेंगे उसी का विशेष या पूर्ण ज्ञान होगा अन्य का नहीं । अनंत विषयों का न अभ्यास ही संभव है और न उसमें निपुणता रूप अतिशय भी आ सकता है । सर्वज्ञ यदि सभी को जानता है तो दूसरे के रागादि को जानते समय खुद भी रागी द्वेषी बनेगा । सर्वज्ञ अतीत कालवर्ती वस्तु को ग्रहण करता है किन्तु उस समय वस्तु नहीं होने से असत् के ग्रहण करने का प्रसंग भी होगा । इस प्रकार सर्वज्ञ की सिद्धि किसी भी प्रमाण से नहीं होती है ।
उत्तर पक्ष—जैन इस सर्व ज्ञवादी मीमांसक का खंडन करते हैं प्रत्यक्ष के द्वारा सर्वज्ञ का ग्रहण नहीं होता है । क्योंकि वह इस समय इस क्षेत्र में ( भरत क्षेत्र में पंचम काल में) नहीं हैं । अनुमान द्वारा सर्वज्ञ सिद्धि होती है - कोई आत्मा समस्त पदार्थों को साक्षात् जानने वाला है क्योंकि उसका सम्पूर्ण पदार्थों को जानने का स्वभाव है, नष्ट हो गये हैं प्रतिबंध कारण जिससे ऐसा है, जो जिसके ग्रहण रूप स्वभाव वाला होने पर प्रक्षीण प्रतिबंध कारण होता है वह उसको जानता ही है, जैसे रोग रहित नेत्र
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