Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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सर्वज्ञत्ववादः
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इत्यादेः प्रागेव विस्तरतो निराकरणात्सिद्धा । इत्यलमतिप्रसंगेन । न चानुमाने तत्सद्भावावेदके सत्येतत्प्रवर्तते
"प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्तुसत्तावबोधार्थं तत्राभावप्रमाणता ॥"
[ मी० श्लो० अभावप० श्लो० १ ] इत्यभिधानात् किञ्च, प्रभावप्रमाणं
"गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ।"
[ मी० श्लो० अभावप० श्लो० २७ ] इति सामग्रोतःप्रादुर्भवति । न चाशेषज्ञनास्तिताधिकरणाखिलदेशकालप्रत्यक्षता कस्यचिदस्त्यतीन्द्रियार्थदर्शित्वप्रसङ्गात् । नाप्यशेषज्ञः क्वचित्कदाचित्केनचित्प्रतिपन्नो येनासौ स्मृत्वा निषेध्येत, सर्वत्र
कहलाता है, तथा आत्मामें अपरिणमन होना अभाव प्रमाण है, और अन्यवस्तु में विज्ञान होना अभाव प्रमाण है, ये अभाव प्रमाण के भेद हैं इनके भेद तथा लक्षणों का प्रथम परिच्छेद में "अभावस्य प्रत्यक्षादावर्तभावः" इस प्रकरण में विस्तार से निराकरण कर चुके हैं । अतः इस विषय में अधिक नहीं कहते ।
__अनुमान प्रमाण अभाव प्रमाण का सद्भाव बतलाता है ऐसा कहना भी शक्य नहीं है, क्योंकि प्रमाण पंचक-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमा, अर्थापत्ति ये जिस वस्तु में प्रवृत्त नहीं होते वहां वस्तु सत्ता का अवबोध (अभाव) कराने के लिए प्रभाव प्रमाण प्रवृत्त होता है ।।१।। ऐसा कहा है अर्थात् प्रत्यक्ष या अनुमान आदि कोई भी प्रमाण जिसमें प्रवृत्त न हो उस विषयमें प्रभाव प्रमाण है इस तरह मानने से अनुमान प्रभाव प्रमाण को कैसे सिद्ध करेगा ? नहीं कर सकता । अभाव प्रमाण का लक्षण वस्तु के सद्भाव को जानकर तथा प्रतियोगी का स्मरण कर, इंद्रिय अपेक्षा से रहित मन से "नहीं है" इस प्रकार का नास्ति का ज्ञान होना अभाव प्रमाण है। इस तरह की सामग्री से वह उत्पन्न होता है ऐसा माना है सो यहां सर्वज्ञाभाव बतलाने के लिए सर्वज्ञ के नास्तिता का अधिकरण रूप संपूर्ण देश तथा काल का प्रत्यक्ष होना तो अशक्य है, यदि शक्य है तो वही अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञानी बन जायगा । सर्वज्ञ को भी किसी ने कभी कहीं पर प्रत्यक्ष नहीं देखा, जिससे कि स्मरण कर उसका निषेध कर सके । सर्वत्र सर्वदा उसका निषेध करना भी अशक्य है जब तक निषेध्य और निषेध का आधार दोनों
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