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सर्वज्ञत्व वादः
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न तावदाद्यः पक्षः; अतीन्द्रियस्याप्यतीतकालादेरुपलम्भाभ्युपगमात् । नाप्यविद्यमानत्वात्; भाविधर्मादेरतीतकालादेरिवाविद्यमानत्वेप्युपलम्भसम्भवात् । अविशेषणत्वं तु तस्यासिद्ध सकललोकोपभोग्यार्थजनकत्वेन द्रव्यगुणकर्मजन्यत्वेन चास्याखिलार्थविशेषणत्वसम्भवात् । अतीताद्यतीन्द्रियकालादेरिवास्यापि विशेषणग्रहणप्रवृत्तचक्षुरादिना ग्रहणोपपत्त: कथं धर्म प्रत्यस्यानिमित्तत्वसाधने प्रसङ्गविपर्ययसम्भवः ? प्रश्नादिमन्त्रादिना च संस्कृतं चक्षुर्यथा काल विप्रकृष्टार्थस्य द्रव्यविशेषसंस्कृतं च निर्जीवकादिचक्षुर्जलाद्यन्तरितार्थस्य ग्राहकं दृष्टम्, तथा पुण्य विशेषसंस्कृतं सूक्ष्माद्यशेषार्थग्राहि भविष्यतीति न कश्चिदृष्टस्वभावातिक्रमः । 'स्वात्मनि च यावद्भिः कारणैर्जनितं यथाभूतार्थग्राहि प्रत्यक्ष प्रतिपन्नं तथा सर्वत्र सर्वदा प्राण्यन्तरेपि' इति नियमे नक्तञ्चराणामनालोकान्धकारव्यवहितरूपाद्य पलम्भो न
मौजूद हैं, अर्थात् यह अदृष्ट इस प्राणी का है क्योंकि इसको यह उपभोग्य वस्तु प्राप्त है इत्यादि रूप से अनेकों विशेषण धर्मादि में हो सकते हैं। जैसे अतीत आदि अतीन्द्रिय काल आदि का ग्रहण होता है (प्रत्यभिज्ञान के द्वारा) वैसे ही विशेषण ग्रहण करने में प्रवृत्त चक्षु आदि इंद्रियों से धर्म-अधर्म का ग्रहण होना संभव है, अतः आपने सर्वज्ञज्ञान के प्रति धर्मादिक निमित्त नहीं हैं, धर्मादि को सर्वज्ञ ज्ञान नहीं जानता, इत्यादि कहा था तथा प्रसंग विपर्यय दोष उपस्थित किया था वह कैसे घटित हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। विप्रकृष्ट, सूक्ष्म आदि पदार्थ का सर्वज्ञ साक्षात्कार कर लेते हैं इस विषय में समझाने के लिये आपके प्रति और भी दृष्टांत उपस्थित करते हैं । प्रश्न, यंत्र आदि से जब कोई व्यक्ति संस्कारित होते हैं अर्थात् किसी ज्योतिषी से किसी ने अतीतादि विषय में प्रश्न करने पर या किसी मंत्र वादी के द्वारा मंत्र करने पर उस ज्योतिषी या मंत्रवादी के नेत्र अतीत आदि काल विप्रकृष्ट वस्तु को देखने में समर्थ होते हैं, अंजन आदि द्रव्य विशेष से संस्कारित नेत्र वाले मल्लाह जल से अंतरित पदार्थ को देख लेते हैं, यह सब संभव है तो वैसे ही पुण्य विशेष से संस्कारित योगीजन की दिव्य चक्षु सूक्ष्मादि अशेष पदार्थों की ग्राहक होती है । इसमें कोई स्वभाव अतिक्रम नहीं होता। इतने उदाहरण दिखाने पर भी सूक्ष्मादि पदार्थों को विषय करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार नहीं करे मात्र वर्तमान में हम जैसे को अपने स्वयं में जितने कारणों से जनित जैसा यथार्थ वस्तु का ग्राहक जितना प्रत्यक्ष होता है वैसा ही हमेशा सभी जगह अन्य प्राणी में भी प्रत्यक्ष होता है, इस तरह का नियम बनायेंगे तो नक्त चर-सिंह ग्रादि प्राणियों को बिना प्रकाश के अंधकार आदि से व्यवहित रूप आदि का ज्ञान होना संभव नहीं रहेगा क्योंकि हमारे में वैसा
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