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[ तत्त्वार्थसू० ५। ३० ] इत्यखिलार्थविषयोपदेशस्या विसंवादिनो ज्ञानस्य च सामान्यतः सम्भवात् । न च तज्ज्ञानवत एवाशेषज्ञत्वाद्वयर्थोभ्यासः, तस्य सामान्यतोऽस्पष्टरूपस्यैवाविर्भावात् श्रभ्यासस्य तत्प्रतिबन्धकापायसहायस्याशेष विशेष विषय स्पष्टज्ञानोत्पत्तौ व्यापारात् । नाप्यन्योन्याश्रयः, अभ्यासादेवाखिलार्थविषय स्पष्टज्ञानोत्पत्ते रनभ्युपगमात् ।
सर्वज्ञत्ववादः
शब्दप्रभवपक्षेप्यन्योन्याश्रयानुषङ्गोऽसङ्गतः कारकपक्षे तदसम्भवात् । पूर्व सर्वज्ञप्रणीतागमप्रभवं ह्य ेतस्याशेषार्थज्ञानम्, तस्याप्यन्यसर्वज्ञागमप्रभवम् । न चैवमनवस्थादोषानुङ्गः, बीजांकुरवदनादित्वेनाभ्युपगमादागमसर्वज्ञपरम्परायाः ।
तथा उस उपदेश से सामान्य रूप से अविसंवादी ज्ञान होता हुआ भी देखा जाता है, अभिप्राय यह है कि गुरुपदेश से अखिलार्थ का सत्य ज्ञान होना संभव ही है । जिसको उपदेश से ज्ञान हुआ है वह उस ज्ञान से ही अशेषज्ञ बन जायगा, उसे अभ्यास की क्या आवश्यकता है ? ऐसा भी नहीं कहना, उपदेश से सामान्यरूप ज्ञान हुआ है वह अस्पष्ट है, पुनः अभ्यास विशेष के कारण संपूर्ण विषयों के स्पष्ट ज्ञान को रोकने वाले कर्म का नाश होता है और इस तरह अशेष पदार्थों में बिल्कुल स्पष्ट ज्ञान की उत्पत्ति होती है, इसका भावार्थ यह हुआ कि प्रथम तो कोई मुमुक्षु श्रीगुरु के उपदेश से संपूर्ण तत्त्व संबंधी ज्ञान प्राप्त करता है जिसे श्रुतज्ञान या श्रागमज्ञान कहते हैं, फिर उसमें मनन, चिन्तन आदि रूप अभ्यास करते रहने से उस ज्ञान तथा वैराग्य संपन्न अर्थात् रत्नत्रय से युक्त पुरुष के सकल पदार्थ का ग्राहक ऐसा जो स्पष्ट ज्ञान है उसको रोकने वाले कर्मों का नाश होता है और वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ इस प्रकार संपूर्ण पदार्थ का उपदेश, अभ्यास और स्पष्ट ज्ञान होते हैं ।
अभ्यास से अशेषार्थ का ज्ञान होना मानेंगे तो अन्योन्याश्रय होगा सो भी बात नहीं है, हम जैन मात्र अभ्यास से ही अशेषार्थ ग्राही ज्ञान होता है ऐसा नहीं मानते हैं । भाव यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप आदि भी सकलार्थ ग्राही ज्ञान की उत्पत्ति में कारण है अकेला अभ्यास ही नहीं, अतः अन्योन्याश्रय दोष नहीं आता है कि अभ्यास होवे तब प्रशेषार्थ ग्राही ज्ञान होवे और शेषार्थ ग्राही ज्ञानी का उपदेश होवे तो अभ्यास होवे ।
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बन जाता है, तीनों ही सिद्ध
आगम से अशेषार्थ ग्राही ज्ञान हुआ है ऐसा मानने में अन्योन्याश्रय दोष देना भी अयुक्त है, कारक पक्ष अर्थात् सर्वज्ञ आगम का कर्त्ता है ऐसा माने तो अन्योन्याश्रय
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