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सर्वज्ञत्ववादः एकशास्त्रविचारेषु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तरज्ञानं तन्मात्रेणेव लभ्यते ।। ४ ।। ज्ञात्वा व्याकरणं दूरं बुद्धिः शब्दापशब्दयोः । प्रकृष्यते न नक्षत्रतिथिग्रहणनिर्णये ।। ५ ।। ज्योतिविच्च प्रकृष्टोपि चन्द्रार्क ग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ।। ६ ।। तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्गदेवताऽपूर्वप्रत्यक्षोकरणे क्षमः ॥७॥ दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति ।
न योजनमसौ गन्तुशक्तोऽभ्यासशतैरपि ।। ८ ॥" इति । प्रसङ्गविपर्ययाभ्यां चास्याशेषार्थविषयत्वं बाध्यते; तथाहि-सर्वज्ञस्य ज्ञान प्रत्यक्ष यद्यभ्युप
ज्ञान है, अभ्यास है, ठीक है, किन्तु वह अभ्यास का अतिशय उसी विषय में काम पायेगा, अन्य सिद्धांतादि शास्त्रों का ज्ञान तो उससे हो नहीं सकता ॥४॥ शब्द संबंधी ज्ञान अर्थात् ये शब्द व्याकरण से सिद्ध हैं, सत्य हैं, और ये अशुद्ध हैं असत्य हैं इत्यादि व्याकरण संबंधी ज्ञान को किसी ने प्राप्त किया है वह ज्ञान उस विषय के चरम सीमा तक भले ही पहुँचे किन्तु उस व्याकरण के ज्ञान से तिथि, नक्षत्र, ग्रहण आदि ज्योतिष संबंधी शास्त्र का ज्ञान तो हो नहीं सकता ॥५॥ तथा कोई बहुत बढ़िया ज्योतिषी है, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि का विशेष ज्ञान है, किन्तु वह ज्योतिषी "भवति" आदि पदों को सिद्धि करने में तत्संबंधि विशेष बोध करने में समर्थ नहीं हो सकेगा ॥६॥ इसी तरह जो भलो प्रकार से वेद, इतिहास, पुराणादि को अतिशयरूप से जानता है किंतु अदृष्ट स्वर्ग, देवता आदि को तो साक्षात् देख नहीं सकता ॥७॥ जो व्यायाम प्रिय व्यक्ति आकाश में दस हाथ उछलकर गमन कर सकता है, दस हाथ ऊंचाई तक जिसकी छलांग जाती है, तो क्या वह सैकड़ों अभ्यास करने पर भी एक योजन की छलांग मार सकता है ? एक छलांग में एक योजन जा सकता है ? अर्थात नहीं जा सकता ॥८।। सर्वज्ञ का ज्ञान सकल वस्तुओं को विषय करता है ऐसा जो जैन का हटाग्रह है वह प्रसंग और विपर्यय से भी बाधित होता है। सर्वज्ञ के ज्ञानको प्रत्यक्ष रूप स्वीकार करते हैं तो वह धर्म अधर्म प्रादि को जान नहीं सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष
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