Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलभात ण्डे कात्यायनाद्यनुमानातिशयेन, जैमिन्याद्यागमातिशयेन वा; तस्यापी न्द्रियादिप्रणिधानसामग्री विशेषमन्तरेणासम्भवात्, अतीन्द्रियाननुमेयाद्यर्थाविषयत्वेन स्वार्थातिलङ्घनाभावात् । तथा चोक्तम्
“यत्राप्यतिशयो दृष्ट: स स्वार्थानतिलङ्घनात् । दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः (ता) ।।१।।
[ मी० श्लो. त्रोदनासू० श्लो० ११४ ] येपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ।। २।। प्राज्ञोपि हि नरः सूक्ष्मानन्दृष्टु क्षमोपि सन् ! सजातीरनतिक्रामन्नतिशेते परान्नरान ।। ३ ।।
उत्पन्न होते हैं" ऐसा साध्ययुक्त पक्ष एवं "प्रत्यक्षादि प्रमाणत्व" हेतु बाधित होता है ? इस प्रकार की आशंका करना ठीक नहीं है । तथा कात्यायनी आदि के मत का अतिशय यक्त आगम प्रमाण के साथ भी प्रत्यक्षादि प्रमाणत्व नामा हेतु व्यभिचरित नहीं होता है. क्योंकि ये सब प्रमारण इंद्रियादि सामग्री से ही उत्पन्न होते हैं, इंद्रियादि के बिना नहीं होते । वे प्रमाण भी इद्रिय से अतीत तथा अनुमान से अतीत ऐसे विषयों को ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि वे अपने विषयों का उल्लंघन नहीं करते हैं। यही बात आगम में लिखी है
जिस किसी के इन्द्रियों में अतिशयपना दिखाई देता है वह अपने विषय का उल्लंघन नहीं करते हुए ही दिखाई देता है, गृद्ध पक्षी के नेत्र दूर में स्थित वस्तु को देखते हैं, तो केवल देखने का ही काम करते हैं ? कर्ण आदि अन्य अन्य इन्द्रियों के विषयों में तो प्रवृत्त नहीं होते ? ॥१॥ जिस किसी पुरुष विशेष में प्रज्ञा, मेधा आदि का अतिशय देखा जाता है वह कुछ ही अंतर को लिये हुए रहता है, अर्थात् किसी व्यक्ति में अर्थ को समझने की शक्ति होती है उसे प्रज्ञाशालो कहते हैं, जिसमें शीघ्रता से पाठ याद करने की बुद्धि रहती है उसे मेधावी कहते हैं, किन्तु ये सब ज्ञान क्या इन्द्रियों के बिना हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते ।।२।। कोई बहुत ही बुद्धिमान पुरुष है जो कि सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थ को समझता है, किन्तु इन्द्रिय ज्ञान के सजातीयता का उल्लंघन करके अन्य पुरुष से बढ़कर नहीं होता अर्थातू उसे भी इंद्रिय जनित ज्ञान हो होता है ।।३॥ किसी पुरुष में एक व्याकरणादि विषयक शास्त्र का बहुत अधिक
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