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प्रमेयकमलमात गडे
अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम्-सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकाविषयत्वं साधनम् ; तदसिद्धम् ; तत्सद्भावावेदकस्यानुमानादेः सद्भावात् । तथाहि-कश्चिदात्मा सकलपदार्थसाक्षात्कारी तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षोणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात्, यद्यद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययं तत्तत्साक्षात्कारि यथापगततिमिरादिप्रतिबन्ध लोचनविज्ञानं रूपसाक्षात्कारि, तद्ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययश्च कश्चिदात्मेति । न तावत्सकलार्थ ग्रहणस्वभावत्वमात्मनोऽसिद्धम् ; चोदना. बलान्निखिलार्थज्ञानोत्पत्त्यन्यथानुपपत्त स्तस्यतत्सिद्ध:, 'सकलमनेकान्तात्मकं सत्वात्' इत्यादिव्याप्तिज्ञानोत्पत्त। यद्धि यद्विषयं तत्तद्ग्रहणस्वभावम् यथा रूपादिपरिहारेण रसविषयं रासनविज्ञानं रसग्रहणस्वभावम् , सकलार्थविषयश्चात्मा व्याप्त्यागमज्ञानाभ्यामिति । सोयं
"चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं विप्रकृष्टमित्येवंजातोयकमर्थमवगयितुमल पुरुषान्" [ शाबरभा० १।१।२ ] इति स्वयं ब्र वाणो विधिप्रतिषेधविचारणानिबन्धनं साकल्येन व्याप्तिज्ञानं च प्रतिपद्यमानः सकलार्थग्रहणस्वभावतामात्मनो निराकरोतीति कथं स्वस्थः ? प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वं च प्रागेव प्रसाधितत्वान्नासिद्धम् ।
भावार्थ:-मीमांसक वेद के द्वारा संपूर्ण पदार्थों का ज्ञान होना स्वीकार करते हैं अतः आत्मा में सकल पदार्थों को साक्षात करने का स्वभाव अपने पाप सिद्ध हो जाता है, क्योंकि प्रात्मा में वैसा स्वभाव है तभी तो वेदाध्ययन से पूर्ण ज्ञान होता है, आत्मा में यह गुण नहीं होता तो वेद से क्या ज्ञान हो सकता था ? नहीं हो सकता था। “संसार के सभी पदार्थ अनेकांत स्वभाव वाले हैं, क्योंकि वे सत्यरूप हैं" इत्यादि व्याप्ति ज्ञान से भी आत्मा के सकलार्थ ग्राहक स्वभाव की सिद्धि होती है। आत्मा संपूर्ण वस्तुओं को ग्रहण करने के स्वभाव से युक्त है, क्योंकि सकलार्थ विषय वाला है, जो जिसका विषय होता है वह उसके ग्रहण करने के स्वभाव के कारण ही होता है, जैसे रस संबंधी ज्ञान रूपादि का परिहार करके मात्र रस को जानता है वह उसके जानने का स्वभाव होने के कारण ही है, अतः व्याप्ति ज्ञान और आगम ज्ञान के द्वारा ग्रात्मा सकलार्थ को जानने वाला है इतना तो मीमांसक कहते हो हैं अर्थात् वेद भूत, भावी, वर्तमान, विप्रकृष्ट इत्यादि विषयों को जानने में पुरुषों को समर्थ करता है, ऐसा स्वयं कह रहे हैं तथा व्याप्ति ज्ञान के द्वारा विधि निषेध मुख से तत् तत् विषयक साध्य साधन का पूर्ण ज्ञान होना भी बता रहे हैं, और फिर भी आत्मा में सकलार्थ ग्रहण स्वभाव का निराकरण करते हैं सो वे कैसे स्वस्थ कहलायेंगे ? आत्मा के प्रतिबंधक आवरण कर्म का क्षय होता है इस विषय को तो पहले ही सिद्ध कर चुके हैं,
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