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सर्वज्ञत्ववादः किञ्च, अस्य ज्ञानं चक्षुरादिजनितं धर्मादिग्राहकम् , अभ्यासजनितं वा स्यात्, शब्दप्रभवं वा, अनुमानाविर्भूतं वा ? प्रथमपक्षे धर्मादिग्राहकत्वायोगश्चक्षुरादीनां प्रतिमियतरूपादिविषयत्वेन तत्प्रभवज्ञानस्याप्यत्रैव प्रवृत्तः। अथाभ्यासजनितम्, ज्ञानाभ्यासादिप्रकर्षतरतमादिक्रमेण तत्प्रकर्षसम्भवे सकलस्वभावातिशयपर्यन्तं संवेदनमवाप्यते; इत्यपि मनोरथमात्रम् ; अभ्यासो हि कस्यचित्प्रतिनियतशिल्पकलादौ तदुपदेशाद् ज्ञानाच्च दृष्टः । न चाशेषार्थोपदेशो ज्ञानं वा सम्भवति । तत्सम्भवे किमभ्यासप्रयासेनाशेषार्थज्ञानस्य सिद्धत्वात् । अन्योन्याश्रयश्च-अभ्यासात्तज्ज्ञानम् , ततोऽभ्यास इति । शब्दप्रभवं तदित्यप्य युक्तम् ; परस्पराश्रयणानुषङ्गात्-सर्वज्ञप्रणोतत्वेन हि
भावार्थः-धर्मज्ञ और सर्वज्ञ के विषय में पर्याप्त चर्चा है, धर्मज्ञ शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक तो जो आत्मा के कल्याण का कारण है ऐसा क्रिया काण्ड रूप व्यवहार धर्म और दूसरा आत्मा के स्वभावरूप धर्म इस धर्म को जो जाने सो धर्मज्ञ इस अर्थ वाले धर्मज्ञ का यहां कथन नहीं है। दूसरा धर्मज्ञ शब्द का अर्थ-धर्म मायने पुण्य और उसी के उपलक्षण से उसका सहचरो अधर्म मायने पाप, इन पुण्य पाप को जो जानता है वह धर्मज्ञ है यही अर्थ यहां प्रकरण में इष्ट है, मीमांसक का कहना है कि धर्मज्ञ तो कोई बन ही नहीं सकता, क्योंकि धर्म अधर्म का ज्ञान मात्र वेद में है उस वेद को पढ़कर परोक्ष से भले ही शब्द मात्र में धर्म अधर्म को कोई जान लेवे, किन्तु इनका साक्षात ज्ञान तो किसी को भी नहीं होता, इन पुण्य पाप को छोड़कर अशेष पदार्थों को कोई जानने वाला होवे तो निषेध नहीं है उसको जैनादिक सर्वज्ञ नाम रख देते हैं तो ठीक है ऐसा सर्वज्ञ निषिध्य नहीं है, किन्तु "सर्वं जानाति इति सर्वज्ञः" इस निरुक्ति के अनुसार सर्व में धर्म अधर्म पदार्थ भी आते हैं उनका किसी पुरुष के द्वारा जानना हो नहीं सकता अतः हम मीमांसक सर्वज्ञ का निषेध करते हैं, जैन सर्वज्ञ को अतीन्द्रियदर्शी भी मानते हैं सो हमें इष्ट नहीं है क्योंकि बिना इंद्रिय के ज्ञान नहीं हो सकता । अस्तु ।
मीमांसक जैन से पूछते हैं कि सर्वज्ञ धर्म अधर्म को भी जानता है ऐसा आपका कहना है सो वह धर्मादि को जानने वाले सर्वज्ञ का ज्ञान चक्षु आदि इंद्रियों से उत्पन्न हुप्रा है, या अभ्यास से, कि शब्द प्रभव अर्थात् आगम से, अथवा अनुमान से उत्पन्न हुप्रा है ? चक्षु आदि इंद्रिय से सर्वज्ञ का ज्ञान उत्पन्न हुआ है और वह धर्मादि का ग्राहक है ऐसा कहना असंभव है, चक्षु आदि इन्द्रियां अपने प्रतिनियत रूप, रस आदि विषयों में प्रवृत्त होती हैं धर्मादि विषयों में नहीं, अतः उनसे उत्पन्न हुमा ज्ञान
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