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प्रमेयकमलमात ण्डे उपदेशो हि बुद्धादेर्धर्माऽधर्मादिगोचर।। अन्यथा नोपपद्यत सार्वज्ञ यदि नाऽभवत् ।। ६ ।। बुद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां वेदादसम्भवः । उपदेशः कृतोऽतस्तैामोहादेव केवलात् ।। १० ।। ये तु मन्वादयः सिद्धा: प्राधान्येन त्रयीविदाम् ।
त्रयोविदाश्रिलग्रन्थास्ते वेदप्रभवोक्तय। ।। ११॥" इति । न च प्रमाणान्तरं सदुपलम्भक सर्वज्ञस्य साधकमस्ति ।
मा भूदत्रत्येदानीन्तनास्मदादिजनाना (नां) सर्वज्ञस्य साधकं प्रत्यक्षाद्यन्यतमं देशान्तरकालान्तरत्तिनां केषाश्चिद्भविष्यतीति चाऽयुक्तम् ;
"यज्जातीय. प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेप्यभूत् ।।"
[ मी० श्लो० चोदनासू• श्लो० ११३] इत्यभिधानात् । तथा हि-विवादाध्यासिते देशे काले च प्रत्यक्षादिप्रमाणम् अत्रत्येदानीन्तनप्रत्यक्षादिग्राह्यसजातोयार्थग्राहक तद्विजातीयसर्वज्ञाद्यर्थ ग्राहक वा न भवति प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वात् प्रत्येदानीन्तन प्रत्यक्षादिप्रमाणवत ।
नहीं बन सकता, इस प्रकार की अर्थापत्ति से बुद्धादिक में सर्वज्ञता सिद्ध करना चाहे तो भी ठीक नहीं है ॥६॥ बुद्ध आदिक पुरुष वेद को जानते नहीं अतः उनका उपदेश वेदकृत नहीं है वे तो सिर्फ व्यामोह या अज्ञानता से ही उपदेश देते हैं उस उपदेश से कुछ मतलब नहीं निकलता ॥१०॥ त्रयीवेदी पुरुष मनु आदि के ग्रन्थों को मानते हैं, सो वे ग्रंथ वेद से उत्पन्न हुए हैं अतः मान्य हैं ।।११। इन प्रत्यक्षादि पांचों प्रमाणों को छोड़कर अन्य कोई प्रमाण तो शेष नहीं रहा कि जो सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध कर सके। कोई जैन शंका करे कि वर्तमान के हम जैसे जीवों के प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सर्वज्ञ की सिद्धि मत होवे किन्तु किसी देश वाले के किसी काल में होने वाले पुरुष विशेष के प्रमाण द्वारा तो सर्वज्ञ सिद्ध होवेगा ? सो यह अमिमत भी मान्य नहीं है, कहा है कि वर्तमान में जिस प्रकार की प्रमाण की जाति द्वारा जिन वस्तुओं का ग्रहण होता है वैसे ही तो अन्य देश तथा काल संबंधी प्रमाण में होता है, और क्या विशेषता होगी ? ॥१॥ विवादास्पद किसी देश या काल में होने वाले प्रत्यक्षादि प्रमाण, यहां के वर्तमान काल के प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जानने योग्य विषयों के ही सजातीय हैं उनसे अन्य विजातीय पदार्थ जो सर्वज्ञादिक हैं उनके ग्राहक नहीं हैं, क्योंकि वे भी प्रत्यक्षादि प्रमाण हैं, जैसे वर्तमान काल के प्रत्यक्षादि प्रमाण होते हैं।
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