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सर्वज्ञत्ववादः
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न चान्यार्थप्रधानस्तैस्तदस्तित्वं विधीयते । न चानुवदितु शक्यः पूर्वमन्यैरबोधितः ।। ३ ।। प्रनादेरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान् । कृत्रिमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ।। ४ ।। अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽन्यः प्रतीयते । प्रकल्पेत कथं सिद्धि रन्योन्याश्रययोस्तयोः ? ॥ ५॥ सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्थिता । कथं तदुभयं सिद्ध्येत सिद्धमूलान्तरादृते ।।६।। असर्वज्ञप्रणोतात्तु वचनान्मूलवजितात् । सर्वज्ञमवगच्छन्तः स्ववाक्यात्किन्न जानते ? ।। ७ ।। सर्वज्ञसदृशं कश्चिद्यदि पश्येम सम्प्रति । उपमानेन सर्वज्ञ जानीयाम ततो वयम् ।। ८ ।।
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अन्य अन्य अनुष्ठान आदि प्रधान अर्थ वाले वाक्य हैं, उन वाक्यों से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, जब तक अन्य प्रत्यक्षादि प्रमारणों से सर्वज्ञ का अस्तित्व ज्ञात नहीं है तब तक उन वाक्यों का अनुवादन कर उससे सर्वज्ञ सिद्धि का अर्थ निकालना भी अशक्य है ॥३॥ नित्य आगम तो अनादि है और सर्वज्ञ पुरुष आदिमान है, इसलिये भी उससे सर्वज्ञ सिद्ध होना संभव नहीं है। कृत्रिम-अनित्य पागम तो असत्य है, उससे सर्वज्ञ का प्रतिपादन कैसे हो सकता है ? ॥४॥
सर्वज्ञ के वचन से अर्थात् सर्वज्ञ प्रणोत आगम से हम जैसे को सर्वज्ञ प्रतीति में आता है ऐसा कहना भी दोष भरा है ऐसे तो सर्वज्ञ और सर्वज्ञ प्रणीत आगम की सिद्धि में अन्योन्याश्रय दोष प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है ॥५॥
अन्योन्याश्रय दोष कैसे है सो बता रहे हैं कि सर्वज्ञ का कहा हुआ होने से उनके वचन प्रमाणभूत कहलायेंगे और वचन प्रमाणिक होने से सर्वज्ञ का सद्भाव सिद्ध होगा ? जब तक स्वयं सिद्ध नहीं है तब तक उससे अन्य की सिद्धि करना शक्य नहीं है ॥६॥ मूल रहित अर्थात् प्रामाण्य रहित ऐसे असर्वज्ञ प्रणीत आगम से सर्वज्ञ की सिद्धि करेंगे तो, अपने मन चले वाक्यों से भी सर्वज्ञ की सिद्धि क्यों नहीं होगी ? ॥७॥ सर्वज्ञ के समान यदि कोई पुरुष वर्तमान में देखा जाता तो उपमा प्रमाण के द्वारा उस सर्वज्ञ की सिद्धि कर सकते थे ॥८॥ धर्म अधर्मरूप अदृष्ट का प्रतिपादन सर्वज्ञ बिना
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