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सर्वज्ञत्ववादः
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सिद्धिरेव स्यात् । तत्र त्राविवादान्न हैतूपन्यासः फलवान् । नाप्युभयप्रमेयत्वव्यक्तिसाधारणं प्रमेयत्वसामान्यं हेतुः, अत्यन्तविलक्षणातीन्द्रियेन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिद्वयसाधारणसामान्यस्यैवासम्भवात् । तन्नानुमानात्तत्सिद्धिः।
नाप्यागमात्; सोपि हि नित्यः, अनित्यो वा तत्प्रतिपादकः स्यात् ? न तावन्नित्यः, तत्प्रतिपादकस्य तस्याभावात्, भावेपि प्रामाण्यासम्भवात् कार्येऽर्थे तत्प्रामाण्यप्रसिद्ध।। अनित्योऽपि किं तत्प्रणीत:, पुरुषान्तरप्रणोतो वा ? प्रथमपक्षेऽन्योन्याश्रयः-सर्वज्ञप्रणीतत्वे तस्य प्रामाण्यम् , ततस्तत्प्रतिपादकत्वमिति । नापि पुरुषान्तरप्रणीतः; तस्योन्मत्तवाक्यवदप्रामाण्यात् । तन्नागमादप्यस्य सिद्धिः
नाप्युपमानात्; तत्खलुपमानोपमेययोरनवयवेनाध्यक्षत्वे सति सादृश्यावलम्बनमुदय
आगम प्रमाण से भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होता, इसीको बताते हैं, आगम प्रमाण दो प्रकार का है नित्य और अनित्य, इनमें से कौन सा आगम सर्वज्ञ का प्रतिपादन करता है, नित्य पागम सर्वज्ञ का प्रतिपादक है ऐसा कहना अशक्य है क्योंकि ऐसा कोई नित्य आगम ही नहीं है कि जो उसका प्रतिपादक हो। यदि कोई है तो प्रामाणिक नहीं होगा, क्योंकि नित्य आगम (अपौरुषेय वेद) तो कार्य में प्रमाणभूत होता है । अनित्य आगम भी कौन सा है सर्वज्ञ प्रणीत है कि अन्यजन प्रणीत है ? सर्वज्ञ प्रणीत प्रागम सर्वज्ञ की सिद्धि करता है ऐसा माने तो अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट दिखाई देता है-सर्वज्ञ प्रणीत आगम सिद्ध होने पर सर्वज्ञता सिद्ध होगी
और उसके सिद्ध होने पर सर्वज्ञ प्रणीत आगम सिद्ध होगा। अन्य किसी पुरुष के द्वारा प्रणीत आगम सर्वज्ञ को सिद्ध करता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, इस तरह के पुरुष के वाक्य प्रामाणिक नहीं होते, जैसे उन्मत्त व्यक्ति के नहीं होते हैं। इस प्रकार आगम प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हुई। उपमा प्रमाण से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती, उपमा प्रमाण कब प्रवृत्त होता है सो बताते हैं-उपमा और उपमेय इनके पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष होने पर सादृश्य का अवलंबन लेते हुए उपमा प्रमाण प्रवृत्त होता है अन्यथा नहीं होता अर्थात् उपमा और उपमेय में से किसी का ग्रहण नहीं हुआ हो तो उपमा प्रमाण प्रवृत्त नहीं होता है, यदि मानें तो अतिप्रसंग होगा, यहां उपमानभूत सर्वज्ञ है वह तो प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है, फिर उसके सदृश अन्य किसी में सर्वज्ञता उपमा प्रमाण से कैसे बताई जाय ? नहीं बता सकते ।
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