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आत्मा देह आदि से भिन्न है
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उपकरण के भी वाह्य और अभ्यंतर दो-दो विभाग है-अर्थात् वाह्य निर्वृत्ति, अभ्यंतर निरृत्ति, बाह्य उपकरण और अभ्यंतर उपकरण -- इस प्रकार हर के कुल चार विभाग होते हैं । केवल स्पर्शनेन्द्रिय को बाह्य निवृत्ति नहीं होती ।
इन्द्रिय की आकृति निरृति कहलाती है । इस प्रकार जीभ रसनेन्द्रिय की बाह्य निर्वृति है, नाक प्राणेन्द्रिय की वाह्य निरृति है, आँख चक्षुरेन्द्रिय की बाह्य निवृति है और कान श्रोतृन्द्रिय की बाह्य निवृति है । यह भिन्न-भिन्न प्राणियो में प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है ।
चमडी, जीभ, नाक, आँख, कान, आदि के ठीक संस्थानों में रहने चाले पुद्गलो के आकार विशेष को अभ्यन्तर - निरृति कहते है । उनमें सनेन्द्रिय की अभ्यतर- निरृति जुटे-जुढे प्राणियों में शरीर के अनुसार होती है । रसनेन्द्रिय की अभ्यतर- निवृति उस्तरे के आकार की होती है, प्राणेन्द्रिय की अभ्यंतर-निरृति अतिमुक्तक फूल या बड़े ढोल के आकार की होती है, चक्षुरेन्द्रिय की अभ्यतर - निरृति मसूर की दाल के आकार की होती है; और श्रोतेन्द्रिय की अन्यतर- निरृति कदम्ब के फूल सरीग्वी गोल होती है ।
अभ्यतर निर्वृति के अन्दर विषय को ग्रहण करने में समर्थ पुद्गलो की जो विशिष्ट रचना होती है, उसे बाह्य उपकरण ( इस्ट्र ूमेंट ) कहते है और उसके अन्दर रहनेवाली सूक्ष्म रचना को अभ्यतर उपकरण कहते है । उसमें आघात-उपघात द्वारा अगर कोई त्रुटि आ जाये तो इन्द्रिय अपना विषय बराबर ग्रहण नहीं कर सकती । इन्द्रियों का रक्षण करना वाह्य निति का प्रयोजन है ।
भावेन्द्रिय के भी दो प्रकार है - एक लब्धि और दूसरा उपयोग । इनमें मतिज्ञानावरणी वगैरह कार्यों का क्षयोपशम लब्धि कहलाता है और