Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 16] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्पत्ति में निमित्त होना वर्तना है। पूर्व पर्याय का त्याग और उत्तर पर्याय का धारण करना परिणाम है। परिस्पन्दन होना क्रिया है और ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व परत्वापरत्व है। __ काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में सर्व प्राचार्य एकमत नहीं हैं। कोई प्राचार्य उसे स्वतन्त्र द्रव्य कहते हैं और कोई कहते हैं कि काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है अपितु जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का प्रवाह ही काल है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले प्राचार्यों की युक्ति है कि जिस प्रकार जीव और पुद्गल में गति-स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिए निमित्तकारण के रूप में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय माने जाते हैं, इसी प्रकार जीव-अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके लिए निमित्तकारण रूप में कालद्रव्य मानना चाहिए। अन्यथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय मानने में भी कोई युक्ति नहीं। दिगम्बर परम्परा में यही पक्ष स्वीकार किया गया है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानने वाले पक्ष की युक्ति है कि पर्याय-परिणमन जीव-अजीव की क्रिया है, जो किसी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के बिना ही हुआ करती है / इसलिए वस्तुतः जीव-अजीव के पर्याय-पुंज को ही काल कहना चाहिए। काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में दोनों ही पक्षों का उल्लेख है। . इस प्रकार धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश; अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अद्धासमय-ये दस अरूपी अजीव के भेद समझने चाहिए। रूपो अजीव-रूपी अजीव के चार भेद बताये हैं स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुपुद्गल / पुद्गल स्कन्धों की अनन्तता के कारण मूलपाठ में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। जैसा कि कहा गया है-'द्रव्य से पुद्गलास्तिकाय अनन्त है / ' स्कन्धों के बुद्धिकल्पित द्वि-प्रदेशी आदि विभाग स्कन्धदेश हैं। स्कन्धों में मिले हुए निविभाग भाग स्कन्ध-प्रदेश हैं। स्कन्धपरिणाम से रहित स्वतन्त्र निविभाग पुद्गल परमाणु है , आशय यह कि स्कन्ध या देश से जुड़े हुए परमाणु प्रदेश हैं और स्कन्ध या देश से अलग स्वतन्त्र परमाणु, परमाण पुद्गल हैं। एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही रूपी अजीव है / ये पुद्गल पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थान के रूप में परिणत होते हैं / प्रज्ञापनासूत्र में इन वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध की अपेक्षा बनने वाले विकल्पों का कथन किया गया है / संक्षेप से उनका यहाँ उल्लेख करना प्रासंगिक है / वह इस प्रकार है काला, हरा, लाल, पीला और सफेद-इन पांच वर्ण वाले पदार्थों में 2 गन्ध, 5 रस, 8 स्पर्श पौर 5 संस्थान, ये बीस बोल पाये जाते हैं अतः 2045 = 100 भेद वर्णाश्रित हुए। सुरभिगन्ध दुरभिगन्ध में 5 वर्ण, 5 रस, 8 स्पर्श और 5 संस्थान, ये 23 बोल पाये जाते हैं अतः 2342-46 भेद गन्धाश्रित हुए। 1. 'दम्वनो णं पुग्गलत्थिकाए णं प्रणते / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org