Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्वरूप और प्रकार] [15 7-8-6. आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश–आकाश सर्वसम्मत अरूपी द्रव्य है। शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार जिसमें अन्य सब द्रव्य अपने स्वरूप को छोड़े बिना प्रकाशित-प्रतिभासित होते हैं, वह आकाश है अथवा जो सब पदार्थों में अभिव्याप्त होकर प्रकाशित होता रहता है, वह आकाश है।' अवगाह प्रदान करना--स्थान देना आकाश का लक्षण है। जैसे दूध शक्कर को अवगाह देता है, भींत खूटी को स्थान देती है।। आकाश द्रव्य सब द्रव्यों का आधार है। अन्य सब द्रव्य इसके प्राधेय हैं। यद्यपि निश्चयनय की दृष्टि से सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठा हैं-अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से आकाश सब द्रव्यों का आधार है / प्रश्न हो सकता है कि जब आकाश सब द्रव्यों का आधार है तो आकाश का आधार क्या है ? इसका उत्तर यह है कि आकाश स्वप्रतिष्ठित है / वह किसी दूसरे द्रव्य के आधार पर नहीं है / आकाश से बड़ा या उसके सदृश और कोई द्रव्य है ही नहीं। आकाश अनन्त है / वह सर्वव्यापक-लोकालोक व्यापी है / स्थूल दृष्टि से आकाश के दो भेद हैं---लोकाकाश और अलोकाकाश / जिस आकाश-खण्ड में धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल और जीवरूप पंचास्तिकाय विद्यमान हैं वह लोकाकाश है। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं / जहाँ आकाश ही प्राकाश है और कुछ नहीं, वह अलोकाकाश है / वह अनन्त प्रदेशात्मक है / असीम और अनन्त है। अलोकाकाश के महासिन्धु में लोकाकाश बिन्दुमात्र है। सम्पूर्ण प्राकाश आकाशास्तिकाय का स्कन्ध है। बुद्धिकल्पित उसका अंश आकाशास्तिकाय का देश है / आकाशद्रव्य के अविभाज्य निरंश अंश आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं / 10. अद्धा-समय-प्रद्धा का अर्थ होता है-काल / वह समयादि रूप होने से श्रद्धा-समय कहा जाता है। अथवा काल का जो सूक्ष्मतम निविभाग भाग है वह अद्धासमय है। यह एक समय ही, जो वर्त रहा है, तात्त्विक रूप से सत् है / जो बीत चुका है वह नष्ट हो गया और जो आगे पाने वाला है वह अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ। अतएव भूत और भविष्य असत् हैं, केवल वर्तमान क्षण ही सत् है / एक समय रूप होने से इसका कोई समूह नहीं बनता, इसलिए इसके देश-प्रदेश की कल्पना नहीं होती। यह काल समयक्षेत्र और असमयक्षेत्र का विभाग करने वाला है। अढ़ाई द्वीप पर्यन्त ज्योति चक्र गतिशील है और उसके कारण अढ़ाई द्वीप में काल का व्यवहार होता है अतएव अढ़ाई द्वीप को समयक्षेत्र कहते हैं। उसके आगे काल-विभाग न होने से असमयक्षेत्र कहा जाता है। यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए / काल द्रव्य का कार्य वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व है। अपने अपने पर्याय की 1. आ-समन्तात् सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते-दीप्यन्तेऽत्र व्यवस्थितानीत्याकाशम् / 2. आकाशस्यावगाहः। --तत्त्वार्थसूत्र अ. 5 सू. 18 3. प्रति कालस्याख्या, प्रद्धा चासो समय प्रद्धासमयः, अथवा प्रदाया समयो निविभागो भागोऽद्धासमयः / 4. वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य। -तत्त्वार्थसूत्र प्र. 5 सू. 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org