Book Title: Varni Abhinandan Granth
Author(s): Khushalchandra Gorawala
Publisher: Varni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णा-अभिनंदन-ग्रंथ 2202 yooom श्री वर्णी हीरक जयन्ती महोत्सव समिति सागर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी मिदन-ग्रंथ सम्पादक खुशालचन्द्र गोरावाला सिद्धान्तशास्त्री, साहित्याचार्य, एम० ए०, आदि प्रकाशक श्री वर्णी हीरक जयन्ती महोत्सव समिति सागर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य, संयुक्त-मंत्री श्री वर्णी हीरक जयन्ती महोत्सव समिति, सागर मूल्य पन्द्रह रुपया आश्विन २४७६ वी. नि. मुद्रक पं० पृथ्वीनाथ भार्गव भार्गव भूषण प्रेस, बनारस Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिस स्वयंबुद्धने सत्यकी शोध, सतत साधना, सार्वजनीन सेवा, परदुःख कातरता तथा बहुमुखी विद्वत्ता द्वारा अज्ञानतिमिरान्ध जैन समाज का ज्ञान- लोचन उन्मीलित करके, लोकोत्तर उपकार किया है उन्ही श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी जी के कर कमलों में Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची सब .° प्रकाशककी ओर से सम्पादकीय आभार १. आद्य मंगल श्रद्धांजलि-संस्मरण-- २. प्रणाम ३. शुभाशंसनम् ४. वर्णीजी-जीवनरेखा ५. 'तुम्हारा ही वह पौरुष धन्य' ६. श्रद्धांजलि ७. गीत ८. 'तुम्हें शत शत बन्दन मतिमान्' ९. जय युग के अभिमान १०. बाबाजी ११. मैं बौद्ध कैसे बना १२. वर्णी जी १३. सागरमें आयी एक लहर १४. प्रथम प्रभाव १५. गुरु गणेश १६. मानवताका कीर्तिस्तम्भ १७. स्मृतिकी साधना १८. झोलीके फूल १९. वर्णी महान् २०. खतौलीकी आंखें २१. 'इनको गणेश हम कैसे कहें' २२. महान् सचमुच महान् २३. 'वीरकी देन' २४. बुन्देलखण्ड सद्गुरु श्रीवर्णीच २५. श्रीबन्ध राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त श्री पं. पन्नालाल 'वसन्त', साहित्याचार्यादि... ४ , सम्पादक " हुकुमचन्द्र बुखारिया 'तन्मय' सर्वश्री विविध ...२१-४० श्री पुरुषोत्तमदास कठल , बी. ए. " धरणेन्द्रकुमार 'कुमुद' , राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश' लक्ष्मणप्रसाद 'प्रशान्त' प्रा. भिक्षु जगदीश काश्यप, एम. ए. ... यशपाल जैन, बी. ए., एलएल. बी. ... -मती कमलादेवी जैन , सुमेरुचन्द्र कौशल, बी.ए., एलएल. बी. रवीन्द्रकुमार बी. एल. शर्राफ, बी. ए. एलएल. बी. ... सबाई सिंघई धन्यकुमार वि० ज्ञानचन्द्र 'आलोक' , फूलचन्द्र 'मधुर' , -मती महादेवी श्री बाबूलालजैन ... ५८ वि. नरेन्द्र धनगुंवा , पं. स्वराज्यप्रसाद त्रिवेदी, बी. ए. ... ६१ हीरालाल पाण्डे, बी. ए., साहित्याचार्य ... ६५ , पं. गोविन्दराय, शास्त्री, काव्यतीर्थ ... ६६ , प्रा. राजकुमार, शास्त्री, साहित्याचार्य,... ६८ दर्शन तथा धर्म१. अस्ति-नास्ति वाद २. शब्द नय ३. स्याद्वाद और सप्तभंगी ,, डा० ए० चक्रवर्ती, एम. ए. , पं. कैलाशचन्द्र, सिद्धान्तशास्त्री " , चैनसुखदास, न्यायतीर्थ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ४. जैनदर्शनका उपयोगितावाद-- एवं सांख्य तथा वेदान्त दर्शन ५. जैन प्रमाण चर्चामें आचार्य कुन्दकुन्दकी देन ६. जैन न्यायका विकास ७. आत्म और अनात्म ८. बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन समीक्षा ९. जनदर्शन १०. जैनधर्म तथा दर्शन ११. जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध १२. मानव जीवनमें जैनाचारकी उपयोगिता १३. अनन्तकी मान्यता १४. अहिंसाकी पूर्व परम्परा १५. जैनधर्ममें अहिंसा १६. जैनाचार तथा विश्व समस्याएं १७. जैनधर्मकी ओर एक दृष्टि १८. वेदनीय कर्म और परीषह १९. अहिंसाकी साधना २०. जीव और कर्मका विश्लेषण २१. शिक्षाकी दृष्टिसे समाधिमरणका महत्त्व २२. प्रत्येक आत्मा परमात्मा है २३. जैन प्रतीक तथा मूर्तिपूजा २४. जैनधर्ममें काल द्रव्य २५. जैनधर्म तथा सम्पत्ति श्री , वंशीधर, व्याकरणाचार्य , , दलसुख मालवणिया ,, , दरबारीलाल, न्यायाचार्यादि ___... ४६ " , ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, एम. ए. ,, प्रा० हरिमोहन भट्टाचार्य, एम, ए. ... ,,, मधवाचार्य, एम० ए. ... ,, अम्बुजाक्ष सरकार, एम. ए., बी. एल. ... ८६ स्व० बाबू सूरजभानु वकील श्री पं. जगमोहनलाल सिद्धान्तशास्त्री ., रा. ब. प्रा. ए० चक्रवर्ती, एम. ए. स्व. आचार्य धर्मानन्द कौशाम्बी श्री स्वामी सत्यभक्त ___... १२४ स्व. डा. वेणीप्रसाद, एम. ए., डी. लिट. ... १३२ श्री प्रा. सीताराम जयराम जोशी, एम.ए.,आदि...१४२ , पं. इन्द्रचन्द्र, शास्त्री ... १४६ , दौलतराम मित्र .... १५२ , पं. बाबूलाल गुलझारीलाल ... १५८ __ मा. दशरथलाल कौशल " अमृतलाल चंचल , प्रा०अशोककुमार भट्टाचार्य,एम.ए.काव्यतीर्थ १६७ , य. ज. पद्मराजैय्या, एम० ए. ... १७२ । प्रा. खुशालचन्द्रगोरावाला, एम.ए., साहित्याचार्य इतिहास-साहित्यV१. जैनधर्मका आदि-देश २. जैनाचार्य और बादशाह मोहम्मदशाह ३. राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्म ४. कौलधर्मका परिचय V५. भगवान महावीरकी निर्वाण भमि ६. तामिल प्रदेशमें जैन धर्मावलम्बी ७. मथुराके प्राचीन टीले ८. मथुरासे प्राप्त दो नवीन जैनाभिलेख ९. पुरातत्त्वकी शोध और जैनोंका कर्त्तव्य १०. महावीर स्वामीकी पूर्व परम्परा ,, प्रा. एस. नीलकण्ठ शास्त्री, एम. ए. ... १९३ महामहोपाध्याय पं. विश्वेश्वरनाथरेऊ ... १९८ , डाक्टर अ. स. आल्तेकर, एम.ए., डी. लिट.... १९९ , डाक्टर आ.ने. उपाध्ये, एम.ए., पीएच.डी. २०७ ,,, राजबलि पाण्डेय, ,, डी. लिट. ... २११ , प्रा० एम.एस.रामस्वामी आयंगर, एम.ए. ... २१५ " , भगवतशरण उपाध्याय, एम. ए. ... २२३ , कृष्णदत्त वाजपेयी, एम.ए. ... २२९ स्व. वेन्सैण्ट ए. स्मिथ, एम. ए. ... २३२ श्री प्रा० त्र्यम्बक गुरुनाथ काले, एम.ए. ... २३७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ ३५८ विषय सूची ११. भारतीय इतिहास और जैन शिलालेख स्व. डा. ए. गेरीनोट, एम. ए., डी. लिट. ... २४३ १२. कारकलका भैररस राजवंश श्री पं० के. भुजबली शास्त्री, वि. भू. ... २४७ १३. गवालियरका तोमरवंश और उसकी कला , , हरिहरनिवास द्विवेदी, एम.ए., एलएल.बी. ___ ... २५३ "१४. प्राचीन सिन्ध प्रान्तमें जैनधर्म , अगरचन्द्र नाहटा ... २५९ १५. कुण्डलपुर अतिशय-क्षेत्र सत्यप्रकाश ... २६६ १६. पौराणिक जैन इतिहास ,, डाक्टर हरिसत्त्य भट्टाचार्य, एम. ए., पीएच. डी. ... २७० १७. सार्द्ध-द्विसहस्राब्दिक वीर-शासन , कामताप्रसाद जैन, एन. आर. एस. ... २९२ १८. संस्कृत साहित्यके विकास में जैन विद्वानोंका --सहयोग ,, डाक्टर मंगलदेव शास्त्री, एम.ए., पीएच. डी...३१० १९. स्वामी समन्तभद्र तथा पाटलिपुत्र , डी. जी. महाजन "२०. तिलोयपणत्ती और यतिवृषभ ,, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार २१. जैन साहित्य और कहानी डा. जगदीशचन्द्र, एम. ए., पीएच. डी. ... २२. जैन साहित्यमें राजनीति ,, पं० पन्नालाल, साहित्याचार्यादि २३. सागारधर्मामृत और योगशास्त्र ,, हीरालाल शास्त्री, न्यायतीर्थ ३७० २४. सम्यक्त्वकौमुदीके कर्ता ,, प्रा. राजकुमार, शास्त्री, साहित्याचार्यादि... ३७५ २५. स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास ,, ज्योतिप्रसाद, एम. ए., एलएल. बी. ... ३८० २६. काव्यप्रकाश-संकेतका रचनाकाल प्रा० भोगीलाल जयन्तभाई सांडेसरा, एम.ए...३९५ २७. महाकवि रइधू ,, पं० परमानन्द शास्त्री ... ३९८ V२८. पाइय साहित्यका सिंहावलोकन ,, प्रा० हीरालाल आर. कापडिया, एम.ए.... ४१६ २९. प्रश्नोत्तर रत्नमालाका कर्ता ,, पं० लालचन्द भगवान गांधी ... ४१९ ३० जैन कथाओंकी योरूप यात्रा ,, प्रा० कालीपद मित्र, एम.ए.साहित्याचार्य... ४२३ ३१. उत्तराध्ययन सूत्रका विषय " , बलदेव उपाध्याय, एम.ए., सा. आ. ... ४२६ ३२. औपपातिक सूत्रका विषय , डा. विमलचरण लौ, एम.ए., पीएच.डी., डी.-लिट. ... ४३२ ३३. धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थोंका परिचय ,, पं० लोकनाथ शास्त्री ... ४३७ ३४. अज्ञात नाम कर्तृक व्याकरण , डा. बनारसीदास जैन,एम.ए., पीएच. डी ...४४१ ३५. कन्नड़ भाषाको जनोंकी देन , प्रा० के. जी. कुन्दनागर, एम. ए. ३६. एक अज्ञात कन्नड़ नाटककार ,, एम. गोविन्द पाइ ३७. भारतीय अश्वागम ,, पी. के. गोडे, एम. ए. ३८. जैन पुराणोंके स्त्रीपात्र ,, -मती ब्र.पं. चन्दाबाई, विदुषीरत्न ३९. संतोंका मत ,, आचार्य क्षितिमोहन सेन ४०. मध्ययुगीन सन्तसाधनाके जैन मार्गदर्शक __" , हजारीप्रसाद द्विवेदी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ ४१. भारतीय ज्योतिषका पोषक जैन ज्योतिष ४२. भारतीय गणित इतिहासके जैन स्रोत ४३. आयुर्वेदका मूल प्राणवाद ४४. स्वास्थ्य के मूल आधार ४५. धर्मप्रचार और समाजसेवा वि० ४६. जैन समाजका रूप विज्ञान बुन्देलखण्ड -- १. मातृभूमि के चरणों में विन्ध्यप्रदेशका दान २. गिरिराज विन्ध्याचल ३. खजुराहाके खण्डहर ४. बुन्देलखण्ड नौ वर्ष ५. बुन्देलखण्डका स्त्री समाज ६. स्व. पं. शिवदर्शनलाल बाजपेयी ७. स्व. बाबू. कृष्णबलदेवजी वर्मा ८. बुन्देली लोक कवि ईसुरी ९. गुरुवर गणपतिप्रसाद चतुर्वेदी १०. जीवन के खण्डहर ११. अभागा १२. मनसुखा और कल्ला १३. 'मैं मन्दाकिनिकी धवलधार १४. सुजान अहीर १५. महाभारत कालमें बुन्देलखण्ड चित्रा- श्री पं० नेमिचन्द्र, शास्त्री, ज्यौतिषाचार्य. ...४६९ डाक्टर अवधेशनारायणसिंह, एम.एससी., डी. - एससी. ... ४८५ पं० कुन्दनलाल न्यायतीचं 27 ५०५ ५०७ ५१० ५१४ 33 " 11 37 पं० बनारसीदास चतुर्वेदी कृष्ण किशोर द्विवेदी अम्बिकाप्रसाद दिव्य, एम. ए. शोभाचन्द्र जोशी राधाचरण गोस्वामी, एम. ए., एलएल. बी. 33 1. सुधाकर शुक्ल, साहित्य शास्त्री, का. तो. गौरीशंकर द्विवेदी, शंकर " " 11 " " विट्ठलदास मोदी अजितप्रसाद जैन, एम. ए., एलएल. बी. रतनलाल जैन, बी. ए. "1 ,, श्यामसुन्दर बादल " " घ " अम्बिकाप्रसाद वर्मा, एम. ए. " 2. यशपाल, बी. ए., एलएल. बी " पं० बनारसीदास चतुर्वेदी 21 17 13 पन्द्रभानु कीर्मिक्षत्रिय, विशारद पं० बनारसीदास चतुर्वेदी विष्णुप्रभाकर एम. ए. *** ... ... ... ... ... ५५७ ५६३ ५७३ ५७८ ५८३ ५८७ ५९० ५९१ ५९३ ६०५-६२८ .. ... ... ... ... ... ५१६ ५२३ ५२७ ५३७ ५४३ ५४९ ... Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओरसे मार्च सन् १९४४ की बात है। पूज्य बाबा गणेशप्रसादजी वर्णी ईसरी से ७ वर्ष बाद पैदल भ्रमण करते हुए सागर पधारने को थे। सागर ही नहीं समस्त बुन्देलखण्डमें एक विशेष प्रकार का समुल्लास छा गाया था। ग्राम-ग्राम में जैन-अजैन जनता ने उनके स्वागत की अपूर्व तयारियां की थीं। सागर की जैन समाज ने इस बात का आयोजन किया कि जब वर्णी जी सागर पधारें तब उनकी सत्तरवीं वर्षगांठ पर हीरक जयन्ती मनायी जाय। इसके लिए स्थानीय लोगों की कई उपसमितियां बना कर व्यवस्था का कार्य-विभाजन भी कर दिया। पत्रों में इस बात का प्रचार किया गया कुछ लोग अध्यक्ष का पद स्वीकृत कराने के लिए श्री साहु शान्तिप्रसादजी डालमियांनगर के पास भी गये । इस समाचार से साधारण जनता का उल्लास जहां कई गुना बढ़ा वहां कुछ विचारक लोगों ने इस आशय के भी पत्र लिखे और खास कर साहु शान्तिप्रसादजी ने उनके पास पहुंचे हुए आमन्त्रकों से अपने विचार प्रकट किये "जब पूज्य वर्णीजी समस्त भारतवर्ष की अनुपम निधि है तब उनकी हीरक जयन्ती का महोत्सव किसी केन्द्र स्थान में न मनाया जाकर सागर जैसे स्थान में मनाया जाय इसमें शोभा कम दिखती है। समस्त भारतवर्ष के प्रतिनिधियों का सहयोग लेकर केन्द्र स्थान में ही यह कार्य करना चाहिये।" साहजी की सम्मति पर जब विचार किया तब उसमें तथ्य ही अधिक दिखा। फलतः २४३-१९४४ को सागर की जैन-समाज ने अपनी एक आम सभा में निम्नलिखित प्रस्ताव द्वारा हीरक जयन्ती का आयोजन स्थगित कर दिया। 'सागरस्थ जैन समाज गम्भीरतापूर्वक अनुभव करता है कि जिन त्याग-मूर्ति प्रातःस्मरणीय पूज्य पं० गणेशप्रसाद जी वर्णी के अनिर्वचनीय उपकारों से नम्रीभूत हो कर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकाशनार्थ उनकी हीरक जयन्ती मनाने की आयोजना हमारे द्वारा की जाती है वे वास्तव में सिर्फ हम लोगों के ही गौरव एवं आदर की प्रतिमूर्ति नहीं है बल्कि अखिल दि० जैन समाज की विभूति है अतः उनके प्रति श्रद्धांजलि समर्पण करने का सबको हक है और सभी लोग इसके लिए हृदय से उत्कण्ठित है। इतना ही नहीं, इस विषय में हमारे पास अनेक माननीय सम्मतियां आयी है, कि परमपूज्य वर्णी जी जैसे महान् पुरुष की हीरक जयन्ती एक देशीय (एक स्थानीय) न बना कर सर्वदेशीय बनाइये। तदनुसार यह परामर्श सर्वथा हितकर उचित एवं सामयिक प्रतीत होता है । इसलिए सागर समाज सम्प्रति इस हीरक जयन्ती की आयोजना को स्थगित करती है परन्तु उनके शुभागमन के हर्ष में यह उत्सव सम्मान-महोत्सव के रूप में मनाया जावे।' . हीरक जयन्ती का महान् कार्यक्रम स्थगित हो गया इससे स्थानीय कार्यकर्ताओं के उत्साह में कोई न्यूनता नहीं आयी और ता० २५ को प्रातःकाल ज्यों ही वर्णी जी महाराज सागर शहर के नाके पर आये त्यों ही सहस्रों नर-नारियों का समूह गाजे-बाजे के साथ उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा। शहर के प्रत्येक प्रधान मार्ग तोरणों, पताकाओं और बन्दनमालाओं से अलंकृत किया गया था। जंगह Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-प्रन्य जगह पुष्प-वृष्टि और आरती के द्वारा जनता ने अपनी चिरभक्ति उनके चरणों में प्रकट की। जबलपुर, कटनी, दमोह, खुरई आदि स्थानों से अनेक महाशय पधारे थे । उत्सव के समय हीरक-जयन्ती का जो उत्सव स्थगित कर दिया था उसे अखिल-भारतीय रूप देने के लिए सागर-समाज की इस बीच में कई बैठकें होती रहीं। सौभाग्यवश १७-१०-१९४४ की बैठक में पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, बनारस भी उपस्थित थे। आपने इस सुझाव पर जोर दिया कि उत्सव के समय पूज्य श्री के करकमलों में एक अभिनन्दन-ग्रन्य भेंट किया जाय जिसमें अभिनन्दन के सिवाय अन्य उत्तमोत्तम सामग्री भी रहे। समिति के सभापति श्री बाबू बालचन्द्रजी मलैया, बी. एस्सी. सागर, के हृदय में अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पण की बात घर कर गयी और तबसे उसकी तैयारी के लिए प्रयत्न करना सहर्ष स्वीकार किया। इसी दिन भारत के समस्त श्रीमानों और धीमानों की एक 'वर्गी हीरक-जयन्ती-समिति' बनायी गयी जिसमें १२५ सदस्य हैं। इन महानुभावों के पास पूज्यवर्णी जी की हीरक-जयन्ती मनाने और अभिनन्दन-ग्रन्य समर्पण करने का समाचार पहुँचा तब सबने इस महत्त्वपूर्ण कार्य की सराहना की और सबने यथाशक्य अपनी सेवाएं समर्पित करने की बात लिखी। 'अभिनन्दन-ग्रन्थ तैयार होने पर ही हीरक जयन्ती का आयोजन किया जाय।' यह निश्चित होने से अभिनन्दन-ग्रन्थ की तैयारी के लिए प्रयत्न किया गया। जैन तथा जैनेतर लेखकों से सम्पर्क स्थापित कर कुछ प्रारम्भिक रूपरेखाएं बनायी गयीं । कार्यालय में जितनी रूप रेखाएं आयों में उन्हें लेकर बनारस पहुंचा और वहां के अधिकतर जैन-विद्वानों की बैठक बुला कर उनपर विचार किया। विद्वानों ने यथायोग्य सुझाव दिये। बनारस से आने पर सागर में २१ सदस्यों की अभिनन्दन-ग्रन्य व्यवस्थापक-समिति का संघटन किया जिसकी प्रथम बैठक विद्वत्परिषद् के प्रथम वार्षिक अधिवेशन के समय कटनी में ७ मार्च १९४५ को हुई। इस बैठक में अभिनन्दन-ग्रन्थ का सम्पादन करने के लिए निम्नलिखित महानुभावों का एक सम्पादक-मण्डल चुना गया । १ डा० ए० एन० उपाध्याय कोल्हापुर २ पं० कैलासचन्द्रजी शास्त्री बनारस ३ पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री ४ पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ५ पं० खुशालचन्द्रजी साहित्याचार्य, एम. ए. बनारस श्री पं० खुशालचन्द्रजी सम्पादक मण्डल के संयोजक-सम्पादक निर्वाचित हुए। कार्यभार प्रारम्भ करने के लिए श्री बालचन्द्रजी मलैया, सागर से प्राप्त एक हजार रुपयों के साथ समस्त फाइलें श्री खुशालचन्द्रजी को सौंप दी और कार्य को द्रुतगति से आगे बढ़ाने के लिए समिति ने उन्हें समग्र अधिकार दिये। उन्होंने सोत्साह कार्य प्रारम्भ कर दिया। यह किसी से छिपा नहीं है कि बौद्धिक सामग्री का प्राप्त करना द्रव्य-प्राप्ति की अपेक्षा बहुत कठिन कार्य है। इस कार्य के लिए श्री पं० खुशालचन्द्रजी को बहुत परिश्रम करना पड़ा है। उच्चकोटि के जैनेतर लेखकों से बहुमूल्य सामग्री प्राप्त कर लेना यह आपके सतत परिश्रम का ही फल है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकी ओरसे जिन महाशयों ने आभार में दत्त आर्थिक सहयोग देकर हमें आथिक चिन्ता से उन्मुक्त किया है उनका भी मैं उतना ही ऋणी हैं जितना कि विद्वान लेखकों का हं। श्री गणेश दि० जैन विद्यालय सागर की प्रबन्ध-कारिणी ने २०००) उधार देकर कार्य को नहीं रुकने दिया। विज्ञप्ति निकालने पर जिन ग्राहकों ने पांच पांच रुपया पेशगी तथा पूरा मूल्य भेजकर हमें सहयोग दिया है उनके भी हम आभारी है। आर्थिक चिन्ता के न्यूनतर होने पर भी कागज पर सरकारी नियन्त्रण रहने के कारण उसकी प्राप्ति में बहुत समय खोना पड़ा। अन्त में जब कुछ उपाय न दिखा तब श्री बालचन्द्रजी मलया ने आदमी भेज कर एक गांठ बम्बई से बनारस भिजवायी जिससे प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हो सका। बीच-बीच में प्रेस की परतन्त्रता से कार्य रुक-रुक कर हुआ। अतः ग्रन्थ के प्रकाशन में आशातीत विलम्ब हो गया। चूंकि ग्रन्थ-समर्पण खास अङ्ग था अतः उसके अभाव में हीरक जयन्ती महोत्सव भी टलता रहा। इस महान ग्रन्थ में क्या है, यह लिखने की आवश्यकता नहीं। फिर भी मेरा ख्याल है कि श्री खुशालचन्द्र जीने इसे सर्वाङ्ग पूर्ण बनाने के लिए पर्याप्त श्राम किया है और अभिनन्दन के साथ-साथं दार्शनिक, सैद्धान्तिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक ऐसी उत्तम सामग्री का संकलन किया है जो कि वर्तमान तथा आगामी पीढ़ी के लिए सदा ज्ञान-वर्धक होगी। इस गुरुतम भार को वहन करने के साथ-साथ आधे के लगभग धन इकट्ठा करना भी इनके प्रभाव और प्रयास का कार्य है। अतः मैं इनका आभारी हूं। वर्णी-हीरक-जयन्ती-समिति के क्रमशः अध्यक्ष तथा मंत्री श्री बालचन्द्रजी मलैया और श्री नाथूरामजी गोदरे ने बड़ी तत्परता और लगन के साथ इन समस्त कार्यों का प्रारम्भिक संघटन किया है जिसके लिए मैं आभारी हूँ। धन्यवाद के प्रकरण में श्री पं० मन्नालालजी रांधेलीय, सागर और पं० वंशीधरजी, व्याकरणाचार्य, बीना का नामोल्लेख करना में अत्यन्त आवश्यक समझता हैं जिन्होंने कि अपनी अमूल्य सम्मतियों द्वारा इस मार्ग को प्रशस्त बनाया है। निज की इच्छा तो यह थी कि यह ग्रन्थ अमूल्य अथवा अल्पमूल्य में ही पाठकों को सुलभ रहता परन्तु अधिकांश दूरदर्शी सदस्यों की यह सम्मति हुई कि ग्रन्थका महत्त्व न गिराने के लिए इसका मूल्य रखा ही जाय तथा जो भी द्रव्य विक्रय से आवे उसके द्वारा पूज्य श्री वर्णीजी की परम प्रिय शिक्षा-संस्थाओं-स्या० वि० बनारस तथा वर्णी विद्यालय, सागर का पोषण किया जाय। ऐसा करने से दानी महानुभावों द्वारा उदारतावश दिया हुआ द्रव्य भी सुरक्षित रह सकेगा। अन्त में अपने समस्त सहयोगियों का पुन: पुनः आभार मानता हुआ त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूं। नम्र, वर्णीभवन-सागर पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य २।१०।४९, ___ संयुक्तमंत्री, वर्णी हीरक जयन्ती-समिति। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय लम्बे कारावासके बाद बाहर आने पर जब में परिवर्तित परिस्थितियोंमें अपने आपको समन्वित करने की उधेड़-बुन में था, उसी समय भारतीय दिगम्बर जैन-संघकी कार्यकारिणीमें मेरठ तथा दिल्ली जाना पड़ा था। प्रवास तथा विचरणने वर्षोंकी बद्धतासे उत्पन्न जड़ एकतानता से मुक्ति दी। और मैं भावी जीवन-क्रम की रूप-रेखा बना कर जब काशी वापस आया तो मुझे कुछ कागजात तथा एक सूचना मिली। यह सूचना मेरे अग्रज मित्र पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य, संयुक्तमंत्री 'श्री वर्णी हीरक जयन्ती-महोत्सव-समिति-सागर' का आदेश था। उन्होंने लिखा था "श्री वर्णी ही. ज. म. स. के निर्णयानुसार मैंने यहां (काशी) आकर एक विचार समिति की। इसमें पं. फूलचन्द्रजी, पं० महेन्द्रकुमार जी, पं. राजकूमारजी प्रभति अनेक विद्वान उपस्थित थे। आप दोनों भाइयोंके परामर्श का अनुपस्थितिके कारण लाभ न उठा सके । इस विचार-समिति ने ही. ज. म. समिति के इक्कीस सदस्यों युक्त 'वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ-समिति' वाले निर्णयका स्वागत किया है और आपको उसका संपादक तथा संयोजक बना कर ग्रन्थका पूरा दायित्व आप पर रक्खा है। आशा है आप निराश न करेंगे।" इसे देखते ही २७ जुलाई, सन् १९२८ की रात्रि, मुगलसरायका जंकशन, मझे पुकारता अपरिचित युवक, ड्योढ़े दरजे में बैठे पूज्य वर्णी जी, अपनी आकुलता, उनके साथ भदैनी (काशी) आना, स्याद्वाद दि. जैन-विद्यालय और उसमें विताये जीवननिर्मापक ग्यारह वर्ष; मेरे मानस-क्षितिज पर द्रुतगति से घूम गये। यद्यपि उक्त विचार-समितिका रूप मनमें अनेक आशंकाएं उत्पन्न करता था तथापि वर्णीजी और स्याद्वाद विद्यालयका तादात्म्य भी स्पष्ट एवं आकर्षक था । मुझे इस प्रयत्न के करने में समाज-ऋण से अपनी निश्चित मुक्ति देखने में एक क्षण भी न लगा। कार्य की गुरुता, दि. जैन समाजकी शिथिल सामाजिक दायित्व-वृत्ति की स्मृति तथा परिणाम स्वरूप अपनी मान्यताके अनुरूप ग्रन्थ तयार न कर सकने का विचार उक्त विवेक पर पटाक्षेप करना ही चाहता था कि "भैआ जो को आय?" स्व. बाई जी द्वारा भेलपुर में पूछे जाने पर “अपनोइ बच्चा आय । य??? आपसें नई कई जो हमारे साथी फन्दीलाल सावको नन्नो लरका तो आय।" कहते पू० वर्णी जी याद आये और मैने नतमस्तक हो कर पं० पन्नालालजी के स्नेह-आदेश को स्वीकार कर लिया। यतः इक्कीस आदमियों की 'ग्रन्थ समिति' ग्रन्थके बौद्धिक निर्माणके लिए सरलतासे समयसमय पर नहीं मिल सकती थी अतः मैने कटनीमें इसकी प्रथम बैठक बुलायी। इसने सर्व श्री डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, कोल्हापूर, पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य तथा प्रो० खुशालचन्द्र बनारस, इन पांच सज्जनों का सम्पादक मण्डल बनाया। तथा निर्णय किया कि ग्रन्थके बौद्धिक कलेवरका पूर्ण दायित्व प्रो० खुशालचन्द्रपर हो जो कि अपने सहयोगियों से यथायोग्य सहयोग लेते हुए इस कार्य को पूर्ण करेंगे। ___ फलतः इस प्रवाससे लौटते ही मैने सम्पादक-मण्डलकी प्रथम बैठक बनारसमें बुलायी। डा० उपाध्ये यद्यपि इस बैठकम भी सम्मिलित न हो सके थे तथापि उन्होंने जो स्पष्ट एवं मैत्रीपूर्ण सम्मति दी थी उसने मुझे समय-समय पर पर्याप्त उत्साह दिया है। उन्होंने लिखा था "स्थान की दूरी तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण आपको मेरा सक्रिय सहयोग नहीं ही मिल सके गा। ऐसे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पुनीत कार्यमें मेरी सहानुभूति तो सदैव आपके साथ रहेगी । ग्रन्थ तयार होने तक एक लेख भी अवश्य भेजूंगा। संभवतः इतना ही सहयोग आपको दूसरों से भी प्राप्त हो ऐसी मेरी कल्पना है और आपको अकेले ही यह भार वहन करना पड़े....।" एकत्व भावनाकी इस ध्रुव पीठिका पर मैंने उपस्थित सहयोगियों के सामने ग्रन्थ निर्माण में उपयोगी मूल सिद्धान्त उपस्थित किये जिन्हें ग्रहण करके साधारण रूपरेखा तथा अधिकांश उन जैन विद्वानों की विषयवार तालिका तयार की गयी थी जो हमारी संभावनानुसार लेखक हो सकते थे । कार्य प्रारम्भ करने को ही था कि जुलाई '४५ में मुझे काशी छोड़कर आरा जाना पड़ा। यहां पहुंचते ही प्रियवर भाई पं० नेमिचन्द्र जी शास्त्री, निर्देशक दि. जैन सिद्धान्त भवन आरा से बड़ा सहयोग मिला। अगस्त के प्रारम्भ में ही निम्न रूपरेखाको अंतिम रूप देकर सामग्री संकलनको प्रारम्भ कर दिया था । १ जैन धर्म --प्रमाण, नय, निक्षेप, स्याद्वाद दृष्टि, तत्त्व, षड्द्रव्य, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सर्वज्ञता, सम्यक्चारित्र, श्रावकाचार, मुनिधर्म, आध्यात्म, ध्यान अथवा योग, मुक्तिमार्ग, अष्टकर्म, लोकपुरुष अथवा जैन-भूगोल, तीर्थकरत्व और अवतारवाद, जगत्कर्तृत्व, गुणस्थान, मार्गणा, दिव्यध्वनि, जैनधर्म की विशेषताएं, जैनी अहिंसा, वर्तमान विश्व की समस्याएं और जैनधर्म, परिग्रह परिमाण व्रत बनाम साम्यवाद, जैनतत्त्वज्ञान और वैज्ञानिक अन्वेषण, जैनधर्म का आदि मंत्र, धर्म-अधर्म द्रव्य-विभाजन, वेदान्त और जैन अध्यात्म, प्राचीन जैनेतर आचार्यों की जैनधर्म विषयक भ्रान्तियां, पुराणों में जैनधर्म, आदि । २ जैन साहित्य -- प्राकृत-वर्ण्य विषय, ग्रन्थ, ग्रन्थकार, परिचय, भाषा-भेद, शैली, अन्यवैशिष्ट्य, धवलादि ग्रन्थराज परिचय, आदि । संस्कृत — सैद्धान्तिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, व्याकरण, काव्य, लक्षण - शास्त्र, सुभाषित, नीति, प्रतिष्ठा, कथा, कोश, आदि । अपभ्रंश — काव्य, चरित, अध्यात्म, आदि । हिन्दी -- हिन्दी (जैन) साहित्य का क्रमिक उद्गम, विकास, वचनिकाकार, रासो साहित्य, कवि, स्फुट, हिन्दी साहित्यकी प्रगतिमें जैन लेखकोंकी देन । गुजराती - जैनसाहित्य - प्राकृत साहित्य के समान । मराठी - जैन साहित्य तामिल - जैनसाहित्य 11 बंगला - जैनसाहित्य कन्नड़ - जैनसाहित्य - अन्य प्रान्तीय भाषाओं का जैन साहित्य | स्फुट -- राजव्यवस्था, सामाजिक अवस्था, विश्व - साहित्य में जैन साहित्य का स्थान । संगीत विषथक साहित्य, जैन-पारिभाषिक शब्दकोश, विदेशी भाषाओं (जर्मन, फ्रेंच, आदि) का साहित्य | १३ जैन इतिहास -- पौराणिक इतिहास ( शलाका पुरुष, आदि), राजवंश, आचार्य कुल, संघभेद, पन्थभेद, भट्टारक परम्परा, जैन राजनीति, गोम्म्मटेशकार, अन्य नृपति-निर्माता, आदि । जैनपुरातत्त्व -- मूर्तिकला, स्थापत्यकला, अष्टमंगलद्रव्य, नन्द्यावर्त, स्वस्तिक, चित्रकला, मोहनजोदड़ो में जैन भग्नावशेष, भगवान महावीर और बुद्ध, शास्त्र भण्डारोंका परिचय, आदि । ४ जैन विज्ञान -- आयुर्वेद, ज्यौतिष, मनोविज्ञान, गणित, बन्ध विवेक, परमाणुवाद, शब्दशक्ति, जैनाचर की वैज्ञानिकता । झ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ I ५ जैन तीर्थ - तीचों की तीयताका इतिहास, तीयंता निमित्तक विभाजन, भौगोलिक स्थिति, आदि । ६ जैनसमाज -- प्राचीन कालका जैन समाज, वर्तमान युगके प्रारम्भ तक का संक्षिप्त परिचय, आधुनिक युगका प्रारम्भ, वर्तमान युगकी प्रधान प्रवृत्तियां - महासभा, परिषद्, संघ, आदि । सामाजिक संस्थाओं का इतिहास, शिक्षा संस्थाएं, मन्दिर, साहित्यिक पुनरुद्धार, सामाचारपत्र, पारमार्थिक संस्थाएं, औषधालय, धर्मशाला, भोजनालय, उदासीनाश्रम, समाजकी वैधानिक स्थिति । मातृमण्डल -स्त्रीका स्थान, जागृति आदि । ७ वर्णीजी का जीवन और संस्मरण -- (अ) संक्षिप्त जीवन चरित्र; - - प्रारम्भिक जीवन, जैनत्व की ओर झुकाव, विद्यार्थी जीवन त्याग सेवामय जीवन, शिक्षा प्रसार, सार्वदेशिक प्रवास, प्रभावना तथा स्थितिकरण तथा मुक्ति के पथपर । स्थापित शिक्षासंस्थाओं के परिचय, विशेष भाषणों तथा पत्रों के अवतरण, संस्मरण, श्रद्धाञ्जलि | ( आ ) जीवन सम्बन्धी चित्र तथा सम्बद्ध संस्था आदि के चित्र यथास्थान । तीर्थंकर आचार्य, मूर्ति मंदिर आदि के चित्र (इ) कविताएँ -- विविध विषयों तथा वर्णीजी विषयक कविताएँ यथास्थान । सामग्री तथा सहयोग प्राप्त करनेके , 1 प्रयत्नमें लगभग डेड वर्ष विताने के बाद जब सन् ०४७ के प्रारम्भ में मुझे 'श्री काशी विद्यापीठ रजत जयन्ति अभिनन्दन ग्रन्थ से अवकाश मिला तो प्राप्त समस्त सामग्रीको अपने आप ही एक बार आयन्त देखा और इस निष्क पर पहुंचा कि ऐसी सामग्री से अभिनन्दन ग्रन्थ दिगम्बर जैन, सदृश किसी सावधि पत्र के विशेषांक से अच्छा न होगा। गत्यन्तरा भावात् पुनः प्रामाणिक सार्वजनिक विद्वानोंसे विविध प्रकारसे लेख प्राप्त करनेका प्रयत्न प्रारम्भ किया। : हीरक जयन्ति महोत्सव समिति शीघ्र ही ग्रन्थ तयार करने के लिए जोर दे रही थी किन्तु प्रेस, कागज तथा समुचित सामग्री के अभावके कारण प्रतीक्षा करना अनिवार्य हो गया था । सौभाग्य से दूसरा प्रयत्न पर्याप्त सफल हुआ और इस बौद्धिक मधुकरीमें काफी अच्छे लेख मिले। इस बार पुनः प्रतीक्षा करने की अपेक्षा डा० उपाध्ये की सम्मत्यनुसार स्वालम्बी बनना ही अच्छा समझा और प्राप्त समस्त सामग्रीका सम्पादन पूज्य भाई पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी सहायता से स्वयमेव कर डाला । यतः “सात पांचकी लाकड़ी एक जनेका बोझ " ही होती है अतः कितने ही उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विषयों पर अब भी लेख न थे । ऐसे लेखोंकी पूर्ति में ने अपनी स्मृति (Notes ) के आधार पर प्राचीन प्रामाणिक विद्वानोंके लेखोंको भारती (हिन्दी) में दे कर की इस प्रकार संकलित तथा सम्पादित सामग्रीको अपने काशी निवासी साथियों तथा संयुक्त मंत्री वर्णी ही. ज. म. स. से नौम्बर ४७ में अनुमत कराके मुद्रण की व्यवस्था में लग गया और २१ जून '४८ से वास्तविक मुद्रण कार्य प्रारम्भ कर सका। यद्यपि दिसम्बर ४८ तक ग्रन्थका तीन चौथाई भाग छप गया था तवापि इसके बाद कुछ महीनों पर्यन्त प्रेसके दूसरे कार्यों में फंस जाने के कारण तथा उसके बाद अन्य कार्यों में मेरे व्यस्त हो जाने के कारण मुद्रण कार्य दिसम्बर ४९ में समाप्त हो सका । रूपरेखा के अनुसार ग्रन्थ का कलेवर एक हजार पृष्ठका होता, किन्तु वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक लेखकों की कमी, शासनका कागज नियंत्रण तथा स्वयमुपनत आर्थिक सहयोगका अभाव एवं आर्थिक सहयोग के लिए प्रार्थना न करने के आदेश और उसके निर्वाहके कारण सात सौ पृष्ठसे ही संतोष करना पड़ा। विवश होकर सामग्रीको कम किया और कई विभागोंको एक कर दिया। प्रत्यके विषय में स्वयं लिखनेकी पाश्चात्य पद्धति वर्तमान में भारतीय विद्वानों ने भी अपनायी है तथापि "आपरितोवाद्विदुषां न मन्ये साबु प्रयोग विज्ञानम्" वाक्य ही मेरा आदर्श है विशेष न कह कर ञ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय इतना ही कह सकता हूँ कि मैंने अपनी मर्यादाओं का यथाशक्ति निर्वाह किया है। यही कारण है कि . अभिनन्दन में केवल अड़सठ पृष्ठ देकर शेष ग्रन्थ पूज्य श्री १०५ वर्णीजी के जीवनके ही समान सर्व हितकी सामग्रीके लिए उत्सर्जित है । तथा उनके ही समान विद्वज्जन-संवेद्य होकर भी सरलजन मनोहारी भी है। _ विवशताओं और मर्यादाओंके कारण मुझे इस साधनामें कुछ अपनी इच्छाके प्रतिकूल भी जाना पड़ा है। यही कारण है कि वर्णीजी के कितने ही भक्तों तथा अनुरागी विद्वानोंकी कृतियों को ग्रन्थमें नहीं दे सका हूँ। इसके लिए मैं उनसे क्षमा प्रार्थी हूं। मैं इनका तथा उन सब विद्वानों का अत्यन्त आभारी हूँ जिनकी कृतियों से यह ग्रन्थ बना है। मान्यवर पं० बनारसीदास जी चतुर्वेदी की उदारता तो अलौकिक है। यद्यपि उनका ग्रन्थ के सम्पादनसे कोई वैधानिक सम्बन्ध नहीं रहा है तथापि उन्होंने बुन्देलखण्ड विभागकी पूरी सामग्री तथा चित्रावलि का संकलन और सम्पादन किया है। इस विभागके ग्रन्थमें आने का पूरा श्रेय इन्हीं को है। इतना ही नहीं इसमें दत्त कितने ही व्यक्ति-परक लेखोंको देखकर वर्णीजी की महत्ता. उनकी सेवाओं की गुरुता तथा अपने परम हितूके प्रति अपनी उदासीनता की ओर हमारी दष्टि अनायास ही जा सकेगी। अतः मैं चतुर्वेदीजीका सविषेश आभारी हैं। ग्रन्थ की 'चित्रा' के विषय में हम अपने संकल्प को पूर्ण नहीं कर सके। इसके दो कारण रहे प्रथम--प्रामाणिक एवं ख्यात कलाकार जैन मान्यता तथा भावों से अपरिचित हैं, दूसरे मेरी उदासीनता। तथापि वर्णीजी के जीवन सम्बन्धी चित्रों को लेने में मुझे श्री डा० ताराचन्द्र, प्रो० निहालचन्द्र नजा, डा. शिखरचन्द्र, विद्यार्थी नरेन्द्र धनगुंवा, श्री वर्णी ग्रन्थमाला तथा यशपालजी का पर्याप्त सहयोग मिला है। इसके लिए ये सज्जन धन्यवादाह है। बाबू यशपालजीका तो और अनेक प्रकार से भी सहयोग मिला है अतः केवल धन्यवाद देना उसका महत्त्व घटाना है। वर्णी हीरक जयन्ति महोत्सव समिति के संयुक्त मंत्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यके विषय में क्या कहा जाय। वे इस योजना के सृष्टा, पोषक एवं परिचालक रहे हैं। ग्रन्थकी तयारीमें लगे वर्षोंके अतीत पर दृष्टि डालने से जहां मन्दोत्साह एवं शिथिल अनेक साथी दष्टि आते है वहीं कर्तव्यपरायण एवं सतत प्रयत्नशील एकाकी इन्हें देखकर हृदय विकसित हो उठता है। आज तो हम दोनों ही परस्पर सहयोगी तथा इस श्रद्धाज्ञापन यज्ञके लिए दायी हैं। अपने घरके लोगों के प्रति सार्वजनिक रूपसे कुछ भी कहना भारतीय शिष्टाचारके प्रतिकल है। अतः जिनके उद्बोधन, प्रेरणा तथा सर्वाङ्ग सहयोगके विना में शायद इस दायित्वको पूर्ण ही न कर सकता, उन पूज्य भाई ( पं. कैलाशचन्द्र, सिद्धान्तशास्त्री ) के विषय में मौन ही धारण करता हूँ। बौद्धिक सहयोग दाता; धीमानों के समान उन श्रीमानों का भी आभारी हैं जिन्होंने मेरे संकेत करने पर ही हमें आर्थिक सहयोग प्रदान किया है । श्री भार्गव भूषण प्रेस के स्वामी श्री पृथ्वीनाथ भार्गव तथा प्रेस के समस्त कर्मचारियों को हार्दिक धन्यवाद है जिनके सहयोग से यह ग्रन्थ छपा है। अन्तमें पूज्य श्री वीजी के उस सातिशय पुण्य को प्रणाम करता हूँ जिसके प्रतापसे यह कार्य पूर्ण हआ और उनकी दीर्घायु की कामना करता हैं। श्री काशी विद्यापीठ, बनारस । विनीत, पौष कृष्णा ११-२००६ ] गो० खुशालचन्द्र Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बालचन्द्र मलैया " साहू धेयान्त प्रसाद शान्ति प्रसाद " कुन्दनलाल सिंघई " भगवान्दास शोभाराम सेठ 21 " मुन्नालाल वैशाखिया स्व. श्रीधर्मदास सिंघई श्री हीरालाल चौधरी " " " सेठ मगनलाल हीरालाल पाटणी " लाला नन्दकिशोर जैनेन्द्रकिशोर जौहरी " 21 33 12 33 ,” कपूरचन्द्र धूपचन्द्र रईश सिप कन्हैयालाल गिरधारीलाल , सेठ महावीरप्रसाद केदारप्रसाद चान्दमल जी रईश दीनानाथ ठेकेदार " رد 11 श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्र श्रीमन्त सेठ वृद्धिचन्द्र सेठ बैजनाथ सरावगी " " राजकृष्ण रईश 33 " मनोहरलाल नन्हें मल रईश 33 डालचन्द्र सर्राफ " बाबू रामस्वरूप सेठ अमरचन्द्र पहाडया भागचन्द्र सोनी आभार सागर बम्बई डालमियांनगर सांगर 11 सतना छतरपुर भेलसा सिवनी कलकत्ता मरोठ दिल्ली " " कानपुर कटनी रांची मुरार ( गवालियर) सागर बरुआसागर पलासवारी अजमेर १०००१ ५००) १००१) ५००१ ५००) ५००१ ५००१ ५००१ ५००१ ५०१) ५००) ५०१) ५०१) २५०) २५१) २५१) २५१) २५१) २५१) २५१) १०१) १०१) १०१५ १०१) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राद्य-मंगल णमो अरहताणं, गामो सिद्धाणं. गामो प्राइरियाण, णामो उक्झायाणं, णमो लोये सहक साहूर्ण । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरगांव ] - मेरे जिनवरका नाम राम । हे सन्त ! तुम्हें सादर प्रणाम ॥ तीन ( राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशंसनम् चञ्चच्चन्द्रिकचन्द्रचारुचरिता प्राचान्त चिन्ताचया श्चेतश्चिन्तितचिन्त्यचक्र निचयाः सच्चितचित्राचराः । उच्चाचार विचार चार चतुराः सत्कीर्तिसाराञ्चिता स्ते जीवन्तु चिरं गणेशचरणाः श्रीचुञ्चुवृन्दार्चिताः ।। उद्यदिव्यदिनेश दीधितिचयप्राग्भारभाभासुरा दृप्यत्कामकलापलायनपराः सच्छान्तिकान्त्याकराः । संतोषामृतपान दिग्धवपुषः कारुण्यधाराधराः श्रीमन्तो गुणिनो जयन्तु जयिनः श्रीवर्णिपादाश्चिरम् ।। शास्त्राम्भोधिवगाहनोत्थित लसत्सद्वोधभानूद्भव--- दिव्यालोक विलोकितावनितलाः सत्कीर्तिकेलीकलाः । पापातापहरा महागुणधराः कारूण्यपूराकरा जीयासुर्जगतीतले गुरुवराः श्रीमद्गणेशाश्चिरम् ।। पीयूषनिष्यन्दनिभा यदीया वाणी बुधानां हृदयं धिनोति । दीर्घायुषः सन्तुतरां महान्त-- स्ते वन्द्यपादा वरवर्णिनाथाः ।। (पं०) पन्नालाल 'वसन्त', साहित्याचार्य, सागर चार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा कौन जानता था-- 'समय एव करोति बलाबलम्' का साक्षात निदर्शन, आल्हा ऊदलके कारण श्राबाल गोपालमें सुरव्यात, तथा पुण्यश्लोका, भारतीय जोन अोफ आर्क, स्वतंत्र भारत माताका अवतार महारानी लक्ष्मीबाईके नेतृत्वमें लड़ने वाले अन्तिम विद्रोहियोंकी पुण्य तथा पितृभूमि बुन्देलखंडपर भी जब सारे भारतके दास हो जाने पर अन्तमें दासता लाद ही दी गयी, तो कूटनीतिज्ञ गोरे विजेता उसे सब प्रकारसे साधन विहीन करके ही संतुष्ठ न हुए अपितु उन्होंने अनेक भागोंमें विभाजित करके पवित्र बुन्देलखड नाम तक को लुप्त कर दिया। स्वतंत्रताके पुजारियोंका तीर्थस्थान झांसी सर्वथा उपेक्षित होकर ब्रिटिश नौकरशाहीका पिछड़ा हुआ जिला बना दिया गया । पर इससे बुन्देलखण्डका तेज तथा स्वतंत्रता-प्रेम नष्ट न हआ और वह अलख आज भी जलती है। इसी जिलेके मडावरा परगने में एक हंसेरा नामका ग्राम है। इस ग्राममें एक मध्यवित्त असाठी वैश्य परिवार रहता था। इस घरके गृहपतिके ५० वर्षको अवस्थामें प्रथम सन्तान हुई जिसका नाम श्री हीरालाल रक्खा गया था। इनकी यद्यपि पर्याप्त शिक्षा नहीं हुई थी तथापि वे बड़े सूक्ष्म विचारक तथा स्वाभिमानी व्यक्ति थे । परिस्थितियोंके थपेड़ोंने जब इनकी आर्थिक स्थितिको बिगाड़ना शुरू किया तब भी ये शान्त रहे । इन्हीं परिस्थितियों में वि० सम्वत् १९३१में इनके घर एक पुत्रने जन्म लिया जिसका नाम गणेशप्रसाद (आज पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी ) रक्खा गया। ज्योतिषियोंने यद्यपि चालकको भाग्यवान बताया था किन्तु उसके जन्मके बाद छह वर्ष तक घरकी आर्थिक स्थिति हीयमान ही रही । फलतः कर्नल ह्यूरोज द्वारा मडावरा-विजयके २२ वर्ष बाद ( १८८० ई० ) यह परिवार भी श्रा कर मड़वारामें बस गया। यद्यपि प्रतिशोध लेनेमें प्रवीण गोरोंने भारतीय शासकोंके सरदारों तथा अनुरक्त नागरिकोंका कसके दमन किया था तथापि शाहगढ़ राजकी राजधानी मड़ावरा उस समय भी पर्याप्त धनी थी। नगरवासी सैकड़ों सम्मान्य श्रीमानोंके धर्म प्रेमको दो वैष्णव तथा ग्यारह जैनमन्दिर शिर उठा कर कहते थे । फलतः इस ग्राममें आते ही श्री हीरालालजी सम्मान पूर्वक जीवन ही न विताने लगे अपितु बालक गणेशको भी यहां के प्राईमरी तथा मिडिल स्कूलोंकी शिक्षाका सहज लाभ हो गया । इतना ही नहीं जैन-पुरामें रहने के कारण चिन्तन शील बालक गणेशके मन में एक अस्पष्ट जिज्ञासा भी जड़ जमाने लगी। उसकी लौकिक एवं आध्यात्मिक शिक्षाएं साथ साथ चल रही थी । एक ओर वह अपने गुरूजीके साथ पांच Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिदिन संध्या समय शाला (वैश्णव मन्दिर) में आरती देखने, रामायण सुनने तथा प्रसाद लेने जाते थे तो दूसरी ओर घरके सामने स्थित गोरावालोंके जैनमन्दिरके चबूतरे पर होने वाली शास्त्रसभा तथा पूजा श्रादिसे भी अनाकृष्ट नहीं रह पाते थे । जैन मन्दिरकी स्वच्छता, पूजाकी प्राञ्जल विधि, पूजनपाठकी संगीतमयता, पुराणों में हनुमानजी को बानर न बता कर वानरवंशी राजा कहना, आदि वर्णन जहां विवेकी बालकके मन पर अपनी छाप डाल रहे थे, वहीं पड़ोसी जैनियोंका शुद्ध आहार विहार उन्हें अपने कुलके रात्रिभोजन, अनछना पानी, महिनों चलने वाले दहीके जोवन, अादि शिथिल अाचार से खिंचता जा रहा था । यतः दृढ़ श्रद्धानी पिता सामनेके जैन मन्दिर में होने वाली सभामें जाते थे अतः बालक गणेशको भी माता वहां जानेसे न रोक सकती थीं। संयोगवश १० वर्षकी अवस्थामें किसी ऐसी ही सभामें प्रवचन के बाद जब श्रोता नियम ले रहे थे तभी बालक गणेशने भी रात्रिभोजनके त्यागका नियम ले लिया। "सांचो देव कौन है इनमें ?"---- बालक गणेशके मनमें प्रश्न उठता था कि किस धर्म पर श्रद्धा की जाय ! कौल-धर्म तथा दृष्ट धर्म में किसे अपनाया जाय ! द्विविधा बढ़ती ही जा रही थी कि एक रात शालामें प्रसादके पेड़े बटे । इन्हें भी पुरोहित देने लगे, पर इन्होंने इंकार कर दिया । फिर क्या था सामने बैठे हुए गुरूजी दुर्वासा ऋषि हो गये और डट गया प्रहलादकी तरह बालक गणेश; "मैं रातको नहीं खांऊगा और न सम्यक्दृष्टि वानर वंशी राजा हनूमानको बानर मानूंगा। इतना ही नहीं अब मैं कालसे शाला भी नहीं श्राऊंगा।" प्रकृत्या भीरू शिष्यसे गुरुजी को ऐसी आशा न थी, पर हुम्का फोड़कर हुक्का न पीनेकी प्रार्थना करने वाले शिष्यकी ये बातें व्यर्थ तो नहीं ही मानी जा सकती थी। फलतः 'समझने पर सब करेगा के सिवा चारा ही क्या था। . दूसरी परीक्षा-माताके मुखसे "लड़का विगरत जात है, देखत नइयां बारा बरसको तो हो गत्रो, जनेऊ काये नई करा देत ।" सुनकर पिताने श्राजाकी अनुमति पूर्वक कुलगुरु बुडेराके पुरेतको बुलाया तथा यज्ञोपवीत संस्कारकी पूरी तयारी कर दी । संस्कारके अन्तमें पुरेतजी ने मंत्र दिया और आज्ञा दी 'किसीको मत बताना।' तार्किक बालककी समझमें न आया कि हजारोंको स्वयं गुरुजी द्वारा दिया गया मंत्र कैसे गोप्य है ? शंका की, और कुलगुरु उबल पड़े । माताके पश्चाताप और खेदकी सीमा न रही । मुहसे निकल ही पड़ा "ईसें बिना लरकाकी भली हती।" जब प्रौढा माता उत्तेजित हो गयी तो बारह वर्षका लड़का कहां तक शान्त रहता ? मनकी श्रद्धा छिपाना असंभव हो गया और कह हो उठा "मताई आपकी बात बिल्कुल ठीक आय, अब मोय ई धर्ममें नई रैने। आजसे जिनेन्द्रको छोड़कर दूसरेको नई मानूं गो। मैं तो भौत दिननसे जाई सोच रो तो के जैन धर्म मोरो कल्याण करै ।" माता पुत्रके इस मतभेदमें भी सेठ हीरालाल अवचलित थे। पत्नीको समझाया कि जोर जबरदस्तीसे काम विगड़े गा लड़केको पढ़ने लिखने दो। पढ़ाई चलती रही। स्कूल में जो वजीफा मिलता था उसे अपने छह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा ब्राह्मण साथी तुलसीदासको दे देते थे। इस प्रकार १४ वर्ष की उम्रमें हिन्दी मिडिल पास करनेपर लोगोंने नौकरी या धंधा करने को कहा पर अान्तरिक द्विविधामें पड़ा किशोर कुछ भी निश्चित न कर सका । चार वर्ष बीत गये, धीरे धीरे छोटा भाई भी विवाह लायक हो रहा था फलतः १८ वें वर्षमें इनका विवाह कर दिया गया। यौवन प्रभातमें संसारमें भूल जाना स्वाभाविक था पर प्रकृतिका संकेत और था। यह वर्ष बड़े संकट का रहा । पहिले विवाहित बड़े भाईकी मृत्यु हुई, फिर पिता संधातिक वीमार हुए जिसे देखकर ११० वर्षकी अवस्थामें श्राजाको इच्छामरण प्राप्त हुश्रा और अगले दिन पिता भी चल बसे । विधवा जीवितनृत युवती भाभी और बिलखती वृद्धामाताने सारे वातावरणको संसारकी क्षणभंगुरतासे भर दिया । सिर पर पड़े दायित्वको निभाने के लिए मदनपुरके स्कूल में मास्टरी शुरू की । ट्रेनिंगका प्रश्न उठा और नार्मल पास करने आगरा गये । किन्तु प्रारम्भ हो गयी सत्यकी खोज । किसी मित्रके साथ जयपुर गये और वहांसे इन्दौर पहुँचे । फिर माता पत्नीके भरण पोषण को चिन्ता हुई और शिक्षा विभागमें वहीं नौकरी कर ली। पर ये थपेड़े किनारे पर न ला सके अतः फिर घर लोट आये। तीसरी परीक्षा--घर पाते ही पत्नीका द्विरागमन हो गया। अवस्थाने विजय पायी। कारीटोरन ग्रामके स्कूल में अध्यापकी करने लगे। पत्नीको बुला लिया, सुखसे समय कट रहा था। ककेरे छोटे भाईका विवाह था अतः उसमें गये। पंक्तिमें सबके साथ बैठकर जीमनेका मौका आया किन्तु भोजन जैनियों जैसा नहीं था अतः पांतमें बैठनेसे इंकार कर दिया । जाति वाले आग बबूला हो गये, जातिसे गिराने की धमकी दी गयी । माताने समझाया 'अब तुम लरका नौंइ हो, समझझके चलो अपनो धरम पालो, काये मोय लजाउत हो ।' पत्नी भी अपने संस्कार तथा सासके समझानेसे अपना वैष्णव धर्म पालनेका आग्रह करने लगी । फलतः उससे मन हठ गया । सोचा जो करना है उसे कहां तक टाला जाय और किस लिए? "आप सब जनों की बात मंजूर है. मैं अपने आप अलग भयो जात ।" कह कर घरसे निकल पड़े। "तैसी मिले सहाय--- घरसे चलकर टीकमगढ़ ओरछा पहुंचे । सौभाग्यसे वहां श्रीराम मास्टरसे भेंट हो गयी और इन्होंने जताराके स्कूल में नियुक्ति करवा दी । यहां पहुंचने से श्री कडोरेलाल भायजी, पं० मोतीलाल वर्णों तथा रूपचन्द्र बनपुरयाका समागम प्राप्त हुआ। खूब धर्म चर्चा तथा पूजादि चलते थे। बढ़ती आस्था के साथ साथ धर्मका रहस्य जाननेकी अभिलाषा भी बढ़ती जा रही थी । जवानीका जोश त्यागकी तरफ झुका रहा था फलतः भायजीने समझाया पहिले ज्ञान सम्पादन करो फिर त्याग करना । उन्होंने यह भी बार बार कहा कि माता पत्नी को बुला लो अब वे अनुकूल हो जांय गी। किन्तु आत्म-शोधके लिए कृतसंकल्प युवक गणेश प्रसादको कहां विश्वास था। उनके मनमें शृद्धा बैठ गयी थी कि सब जैनी अच्छे होते हैं। अतःउनकी सात. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ही संगति करनी चाहिये शेष लोगोंसे बचना चाहिये । तथापि भायजी की बात न टाल सके और माताजी को चले पानेके लिए निवदेनात्मक पत्र डाल दिया, किन्तु इसमें स्पष्ट संकेत था कि यदि आपने जिनधर्म धारण न किया तो आप दोनोंसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा।' पर कौन जानता था कि कुछ ही दिनमें वे माता मिल जाने वाली हैं जो युवक गणेशको शीघ्र ही पंडित गणेशप्रसाद वर्णांके रूपमें जैन समाज को दें गी। __ जताराके पासके सिमरा गांवमें एक क्षुल्लक जी विराजमान थे फलतः अपने साथियोंके कहने पर वर्णी जी भी वहां गये । शास्त्र वांचा तथा भोजन करने सम्पन्न विधवा सिधैन चिरोंजाबाई जीके यहां गये। भोजनके समय वर्णीजीका संकोच देखकर निसन्तान विधवाका मातृत्व उभर आया और मनसा उन्होंने इन्हें अपना पुत्र उसी क्षुणसे मान लिया। किन्तु वर्णीजी श्रात्म रहस्य जानने के लिए उतावले थे । सोचा क्षुल्लक जी अधिक सहायक हो सकें गे, पर निकट सम्पर्कने श्राशाको निर्मूल कर दिया। किन्हीं लोगोंको स्वाध्याय कराते हुए आजीविका करनेकी सम्मति दी । इस प्रकार जब वर्णाजी अपनी धुनमें मस्त थे, उन्हें क्या पता था कि उनकी धर्म-माताको यह सब नागवार गुजर रहा है। अन्तमें 'बेरा घरे चलो"कह कर वे उन्हें अपने घर ले गयीं । उनको घर रखा और पयूषण पर्व बाद जयपुर जा कर जैन शास्त्रोंके अध्ययनकी सम्मति दी। फलतः पर्व समाप्त होते ही जयपुरको चल दिये । इनके चले जाने के बाद मातापत्नी आयीं और इन्हे न पाकर भग्न-मनोरथ हो कर फिर महावरा को लौट गयीं। किन्तु अभी समय नहीं आया था मार्गमें गवालियर ठहरे तो वहां पर चोरी हो गयी फलतः पासमें कुछ न रहा । वर्णी जीने यद्यपि जयपुर यात्राका विचार छोड़ दिया तथापि जिस प्रकार कष्ट सहते हुए जतारा लौटे और लजा संकोचवश धर्ममाताके पास न गये, उसने ही बाईजी (सिंधैन चिरोंजाबाईजी) को आभास दे दिया था कि यह ज्ञान प्राप्त किये विना रुकने वाले नहीं हैं । कुछ समय बाद इनके मित्र खुरई धर्म चर्चा सुनने के लिए निकले उनके श्राग्रहसे यह भी चल दिये । यद्यपि टीकमगढ़ में ही गोटीराम भायजी की उपेक्षाने इन्हें शास्त्रज्ञ बननेके लिए कृत-संकल्प बना दिया था तथापि यह श्रेय तो खुरईको ही मिलना था। जहां खुरई के जिनमन्दिर, श्रावक, शास्त्र प्रवचन, श्रादिने वर्णोजी को आकृष्ट किया था वहीं खुरईकी शास्त्र सभामें प्राप्त 'यह क्रियातो हर धर्म वाले कर सकते हैं....तुमने धर्मका मर्म नहीं समझा। आजकल न तो मनुष्य कुछ समझे और न जाने केवल खान पानके लोभसे जैनी हो जाते है । तुमने बड़ी भूल की जो जैनी हो गये।" व्यङ्ग तथा तिरस्कार पूर्ण समाधानने वर्णीजीके सुप्त आत्मा को जगा दिया । यद्यपि अंतंरगमें कड़वाहट थी तथापि ऊपरसे "उस दिन ही आपके दर्शन करुगा जिस दिन धर्मका मार्मिक स्वरूप आपके समक्ष रख कर आपको संतुष्ट कर सकूगा।" मिट उत्तर देकर अध्ययनका अटल संकल्प कर लिया था । तथापि तुरन्त कोई मार्ग न सूझनेके कारण उस समय वे पैदल ही मड़ावराको चल दिये और तीन दिन बाद रातमें घर पहुंचे। पाठ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा द्वितीय यात्रा-माताने सोचा जगकी उपेक्षाने शायद आंखें खोल दी हैं और अब यह घर रह कर काम करेगा। पर अन्तरग में प्रज्वलित ज्ञानतृषाकी शान्ति कहां थी ? तीन दिन बाद फिर बमरानेको चल दिये और वहांसे रेशन्दीगिरकी यात्राको पैदल ही चल दिये । वहांसे यात्रा करके कुण्डलपुर गये । इस प्रकार तीर्थयात्रासे परिणाम तो विशुद्ध होते थे पर ज्ञानवृद्धि न थी। बहुत सोचकर भी युवक वर्णी दिग्भ्रान्तसे चले जा रहे थे । रामटेक, मुक्तागिरि, आदि क्षेत्रों की यात्रा की किन्तु मन्दिरोंकी व्यवस्था और स्वच्छताने रह रह कर एक ही प्रश्नको पुष्ट किया-'क्या यहां आध्यात्मिक लाभ (ज्ञान चर्चा) की व्यवस्था नहीं की जा सकती १ उसके विना इस सबका पूर्ण फल कहां ?' प्रतीत होता है कि मार्गकी कठिनाइयां पूर्व बद्ध ज्ञानवरणीको समाप्त करनेके लिए पर्याप्त न थों फलतः खुजलीने शरीर पर आक्रमण किया । और बढ़ते शारीरिक कष्ट तथा घटते हुए पैसेने कुछ क्षणों के लिए विवेक पर भी पर्दा डाल दिया। फलतः पैसा बढ़ानेकी इच्छासे वेतूलमें ताशके पत्ते पर दाव लगाया और अवशेष तीन रुपया भी खो दिये। फिर क्या था शारीरिक कष्ट चरम सीमा पर पहुंच गया, उदर भरण के लिए मिट्टी खोदनेका काम भी करना पड़ा । किन्तु इस संयं गने उन्हें भूलकर भी अकार्य करनेसे विरत कर दिया । ___“ज्ञानीके छनमें त्रिगुप्तिसे सहज टरेते" -गजपंथमें आरवीके सेठसे भेंट हुई और बम्बई पहुंचे । बस यहांसे विद्वान वर्णीका जीवन प्रारम्भ होता है। खुरजाके श्रीगुरुदयालसिंहसे भेंट हुई उन्होंने इनके स्थानादिकी व्यवस्था जमवा दी । इन दिनों वर्णी जी कापियां बेच कर श्राजीविका करते थे तथा पं० जीवारामसे कातन्त्र व्याकरण तथा पं० बाकलीवालसे रत्नकरण्ड पढ़ते थे । संयोगवश इसी समय श्री माणिकचन्द्र दि० जैन परीक्षालयकी स्थापना हुई और परीक्षामें ससम्मान उत्तीर्ण होनेके कारण वर्णीजी को पं० गोपालदास जी ने छात्रवृत्ति दिला कर जयपुर भेज दिया। यहां आने पर अध्ययनका क्रम और व्यवस्थित हो गया और वे सर्वार्थसिद्धि, आदि ग्रन्थोंको पढ़ सके । जिस समय कातन्त्रकी परीक्षा दे रहे थे उसी समय पत्नीकी मृत्युका संवाद मिला। वर्णी जी ने इसे भी अपने भावी जीवनका पूर्व चिन्ह समझा और शान्त भावसे निवृत्ति मार्गको अपनानेका ही संकल्प किया। जैन समाजमें भी सांस्कृतिक जागरण हो रहा था फलतः मथुरामें महा विद्यालयकी स्थापना हुई और वर्तमान में प्राच्य शिक्षित जैन समाजके महागुरु पं० गोपालदासजी वरैयाने वर्णीजीको मथुरा बुला लिया। यहां आनेसे पं० पन्नालालजी वाकलीवालका समागम पुनः प्राप्त करके वर्णी जीने 'अपने प्राणों को ही पाया था । अध्ययनका क्रम अब व्यवस्थित हो रहा था, तथा पूर्ण शिक्षा प्राप्त करनेका संकल्प दृढ़तर । फलतः गुरूभक्तिसे प्रेरित होकर वह कार्य भी कर देते थे जो नहीं करना चाहिये था । यही कारण था कि पं० ठाकुरप्रसादजी के लिए चौदशके दिन बाजारसे आलू-वेंगनकी तरकारी लानेसे इंकार भी न कर सके तथा अत्यन्त भयभीत भी हुए। लक्ष्य के प्रति स्थिरता तथा भीरूताके विचित्र समन्वयका यह अनूठा निदर्शन था। वर्णीजी अपने विषयमें स्वयं एकाधिक बार यह कह चुके हैं कि मेरी प्रकृति बहुत डरपोक थी, नौ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जो कुछ कोई कहता था चुप चाप सुन लेता था।" किन्तु यह ऐसा गुण सिद्ध हुआ कि वर्णीजी सहज ही उस समयके जैन नेताओं तथा गुरु गोपालदासजी, पं. बलदेवदासजी, आदिके विश्वासभाजन बन सके । इतना ही नहीं, इस गुणने वर्णीजीको आत्म-आलोचक बनाया जिसका प्रारम्भ सिमरा भेजे गये जाली पत्रको लिखनेकी भूलको स्वीकार करनेसे हुआ था। तथा हम देखते हैं कि इस अवसरपर की गयी गुरूजीकी भविष्यवाणी "अाजन्म आनन्दसे रहोगे" अक्षरशः सत्य हुई है सच तो यह है कि इसके बाद ही श्राजके न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादका प्रारम्भ हुआ था, क्योंकि इसके बाद दो वर्ष खुरजामें रहकर वर्णी जी ने गवर्नमेंट संस्कृत कालेज बनारसकी प्रथमा तथा न्यायमध्यमा का प्रथम खण्ड पास किया था। "एक बार बन्दे जो कोई...."-खुरजामें रहते समय एक दिन मृत्युका स्वप्न दिखा । वर्णीजी की अटल जैन धर्म श्रद्धाने उन्हें सम्मेदशिखर यात्राके लिए प्रेरित किया। क्या पता जीवन न रहे ? फिर क्या था गर्मी में ही शिखरजीके लिए चल दिये । प्रयाग आकर अक्षयवट देखकर जहां भारतीयोंकी श्रद्धालुताके प्रति आदर हुआ वहीं उनकी अज्ञताको देखकर दया भी आयी। वर्णी जीने देखा अज्ञ श्रद्धालु जनताको गुण्डे पण्डे किस प्रकार ठगते हैं फलतः उनकी वैदिक रीति रिवाजों परसे बची खुची श्रद्धा भी समाप्त हो गयो । शिखरजी पहुंचने पर गिरिराजके दर्शनसे जो उल्लास हुआ वह गर्मी के कारण होने वाली यात्राकी कठिनाईका ख्याल आते ही कम होने लगा। उनके मन में पाया “यदि हमारी बन्दना नहीं हुई तो अधम पुरुषोंकी श्रेणीमें गिना जाऊगा। किन्तु उनकी अटल श्रद्धा फिर सहायक हुई और वे सानन्द यात्रासे लौट कर इस लोकापवाद-भीरुतासे सहज ही बच सके। वर्णीजी परिक्रमाको जाते हैं और करके लौटते हैं, पर इस यात्रा में जो एक साधारण सी घटना हुई वह उनके अन्तरंगको ‘करतलामलक' कर देती है । वे मार्ग भूलते हैं और प्याससे व्याकुल हो उठते हैं । मृत्युके भय और जीवनके मोहके बीच झूलते हुए कहते हैं “यद्यपि निरीह वृत्तिसे ही भगवानका स्मरण करना श्रेयोमार्गका साधक है। हमें पानीके लिए भक्ति करना उचित न था। परन्तु क्या करें ? उस समय तो हमें पानीकी प्राप्ति मुक्तिसे भी अधिक भान हो रही थी। ........तृषित हो प्राण त्यागू?........जन्मसे ही अकिञ्चत्कर हूं। आज निःसहाय हो पानीके विना प्राण गमाता हूँ। हे प्रभो एक लोटा पानी मिल जाय यही विनय है ।........ भाग्यमें जो बदा वही होगा फिर भी हे प्रभो ? आपके निमित्तने क्या उपकार किया ?" वर्णोजी जब इन संकल्प विकल्पोंमें डूब और उतरा रहे थे उसी समय पानी मिल जाता है। पूर्व पुण्योदयसे प्राप्त इस घटनाने उनमें जो श्रद्धा उत्पन्नकी उसकी प्रशंसा करते हुए वे स्वयं कहते हैं "उस दिनसे धर्ममें ऐसी श्रद्धा हो गयी जो कि बड़े बड़े उपदेशों और शास्त्रोंसे भी बहुत ही श्रमसाध्य है।" "काय वा साघयामि शरीरं वा पातयामि" ___सम्मेदशिखरसे सिमरा वापस गये। टीकमगढ़ रहकर ही अध्ययन चालू रखनेका प्रयत्न किया किन्तु अध्यापक दुलार झासे पशुबलिको ले कर विवाद हो गया और अहिंसाके पुजारी वर्णीजीने तय किया 'मूर्ख रहना अच्छा किन्तु हिंसाको पुष्ट करने वाले अध्यापकसे विद्यार्जन करना अच्छा नहीं।" दश Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णीजी : जीवन रेखा पर जिसकी जीवन-साध ही पांडित्य थी वह कैसे पढ़ना छोड़ कर शान्त बैठता ? फलतः धर्ममाता से आज्ञा लेकर हरिपुर ( इलाहाबाद ) ० ठाकुरप्रसाद के यहां चले आये | अध्ययन सुचारु रूप से चल रहा था किन्तु 'संगात् संजायते दोषः ।' एक दिन साथी के साथ भग पी ली । नशा हुआ, पंडितजी ने रात्रिमें खटाई खानेको कहा, पर आतं पाल्यं प्रयत्नः फलतः निशिभोजन त्याग व्रतको निभाने के लिए नशे में भी जागरूक रहे । 'भंग खानेको जैनी न थे' सुन कर गुरूजीके पैरों में गिर पड़े और अपने अपराध के लिए पश्चाताप किया तथा अपने जैनत्वको ऐसा दृढ़ किया कि 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैन मन्दिरम् के गढ़ काशी में भी विजय पायी । वर्णीजी ऊंची शिक्षा के लिए काशी पहुंचे । अन्य विद्यार्थियों के समान पोथी लेकर पं० जीवनाथ मिश्र के सामने उपस्थित हुए । नाम कुल घर्म पूछा गया । प्रकृत्या भीरू पं० गणेश प्रसादने साहसके साथ कह दिया 'मैं ब्राह्मण नहीं हूं ।" पंडित आग बबूला हो गया अब्राह्मण और उसपर भी वेदनिन्दक ' कदापि नहीं, मेरे यहां त्रिकाल में नहीं पढ़ सकता। वर्णीजी भी शमीतरू हैं । उनके भीतर छिपा नैयायिक जाग उठा और बोले “ईश्वरेच्छा विना कार्य नहीं होता, तब क्या हम इश्वरकी इच्छा के विना ही हो गये ? नहीं हुए; तब आप जाकर ईश्वरसे झगड़ा करो।" विचारे काशी के पंडितके लिए ही यह नूतन अनुभव न था अपितु वर्णों जीके अन्तरंग में भी नूतन प्रयोगका संकल्प उदित हो चुका था । नागरिकता एवं सभ्यताकी रंग रंगमें भिदी साम्प्रदायिकता ने क्षण भरके लिए वर्णीजीको निराश कर दिया । वे कोठीमें बैठ कर रुदन करने लगे और सो गये । स्वप्न देखा, बाबा भागीरथीजीको बुलाओ और श्रुतपञ्चमीको काशी में पाठशालाका मुहूर्त करो । फलतः यह प्रयत्न प्रारम्भ किया और दूसरे अध्यापक की खोज में लग गये । तथा बड़ी कठिनाइयोंको पार करते हुए पंडित अम्बादास शास्त्रीके शिष्यत्वको प्राप्त कर सके । इस समय तक परम तपस्वी बाबा भागीरथ जी आ चुके थे। संयोगवश अग्रवाल सभा में वर्णोंजी चार मिनट बोले जिससे काशी के लोग प्रभावित हुए । विद्यालय के प्रयत्नकी चर्चा हुई तथा पं० झम्मनलालजी सा० से एक रुपया प्रथम सहायता मिली। वर्णोजी तथा बाबाजी निरुत्साह न हुए अपितु चौंसठ कार्ड लेकर समाजके विशेष व्यक्तियोंको लिख दिये । विशुद्ध परिणामोंसे कृत प्रयत्न सफल हुआ । स्व० बाबू देवकुमार रईश आरा, सेठ माणिकचन्द जवेरी बम्बई, बाबू छेदीलाल रईश बनारस आदिने प्रयत्नकी प्रशंसा की और सहायताका वचन दिया । यद्यपि निरुत्साहक उत्तर भी आये थे तथापि ज्यों ही सौ रूपया मासिक सहायताका वचन मिला त्यों ही पं० पन्नालालजी बाकलीवालको बुला लिया । पं० बादाestat - अध्यापक तथा पं० वंशीधरजी इन्दौर, पं० गोविन्दरायजी तथा अपने आपको आदि छात्र करके वर्णीजीने काशीके श्री स्याद्वाद दिगम्बर जैन विद्यालयका प्रारम्भ किया जिसने जैन समाजकी सांस्कृतिक जाग्रति के लिए सबसे उत्तम और अधिक कार्य किया है । कह सकते हैं कि स्याद्वाद ग्यारह Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-प्रन्थ दि. जैन विद्यालयने जैन समाजको वही सेवा कि है जो श्री सय्यद अहमदके अलीगढ़ विश्वविद्यालयने मुसलमानोंकी, पूज्य मालवीयजीके काशी विश्वविद्यालयने वैदिकोंकी तथा पूज्य गांधीजीके विद्यापीठोंने पूरे भारतकी की है। प्रथम दो शिक्षा संस्थानोंकी अपेक्षा स्याद्वाद विद्यालयकी यह विशेषता रही है कि इसने कभी भी जैन साम्प्रदायिकता को उठने तक नहीं दिया है। माना कि उपरि लिखित सजनोंके सिवा स्याद्वाद विद्यालयको उन्नतिके शिखर पर ले जानेमें परमपूज्य बाबा भागीरथ जी वर्णी, श्री दीपचन्दजी वर्णी, स्व०७० ज्ञानानन्दजी, वावा शीतलप्रसादजी,श्री निर्मलकुमार रईस(बारा) वर्तमान मंत्री बाबू सुमतिलालजी, प्रधानाध्यापक पं० कैलाशचन्द्रजी, सुपरि०बाबू पन्नालाल चौधरी, आदिका हाथ प्रधान रूपसे रहा है, तथापि यह एक संस्था वर्णीजीको अमर करनेके लिए पर्याप्त है, क्यों कि वे इसके संस्थापक ही नहीं हैं, अपितु आज जैन समाजकी विविध संस्थानोंके पोषक हो कर भी उन्हें सदैव इसके स्थायित्वकी चिन्ता रहती है । ऐसा लगता है कि वे अपनी इस मातृ-पुत्रि संस्थाको क्षण भर नहीं भूलते हैं। इस संस्थाके आदि प्रधानाध्यापक पं० अम्बादास शास्त्रीको आधुनिक जैन नैयायिकोंका कुलगुरु कहना ही उपयुक्त होगा । आश्चर्य तो यह है कि इस महान संस्थाका प्रारम्भ कितना साधारण था । वटबीजसे भी लघुतर, क्यों कि सबसे पहिले श्री मूलचन्द्र सर्राफ बरुआसागरने दो हजार गजरशाही काया सहायतामें दिये थे । किन्तु अाधुनिक युगों जैनत्वके स्थितिकारक उक्त महाशयोंके सत्प्रयत्नका ही यह फल है कि इस विद्यालयने विविध विषयोंके विशषेज्ञ अनेक विद्वान जैन समाज तथा देशको दिये हैं । स्याद्वाद विद्यालयके विद्यार्थी रहते हुए वर्णीजीने अद्भुत आत्मशोधन किया था यह निम्न घटनाओंसे स्पस्ट हो जाता हैरामनगरकी सुप्रसिद्ध रामलीला देखने वर्णाजी गृहपतिको अनुमति विना चले गये । लौटनेपर विचार हुआ। जवानीका जोश, वर्णीजी भी कुछ कह गये । कठोर विनयी (डिसिप्लेनरी) बावाजीने इन्हें पृथक कर दिया। विदायीकी सभा हुई । प्रकृत्या विनम्र वर्णीजीको आत्मबोध हुआ। उनके पश्चाताप तथा दृढ़तापूर्ण भाषणने बाबाजीको पिघला दिया। बाबाजीने अनुभव किया कि सर्व साधारण उनके समान अकम्प विनयी नहीं हो सकता। फलतः अपने श्रादर्श तथा लोक शक्तिका विचार करके उन्होंने अधिष्ठातृत्व को त्याग दिया । सबसे रोचक बात तो यह थी कि दूसरेके द्वारा लादे गये दण्डके विरुद्ध खड़े होने वाले वींजीने एक मास पर्यन्त मधुर भोजनका स्वयमेव त्याग कर दिया। यह आत्मदण्ड वर्णीजीके लिए साधारण नहीं था क्योंकि वे कहा करते हैं कि जब ब्रह्मचारी उमरावसिंहने अपना नाम ज्ञानानन्द रक्खा तो गोष्ठीमें चर्चा हुई और वर्णीजीने कहा 'भैया मैं यदि अपनो नाम बदलों तो भोजनानन्द' रखों काये कि वो अधिक सार्थक होगा।' वर्णीजी राजर्षि हैं, कहां कौन उत्तम भोज्य पदार्थ होता या बनता है यह सब जितना वे जानते है उससे भी बढ़कर उनकी इसके प्रति उदासीनता है। बारह Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णोजी: जीवन-रेखा लाला प्रकाशचन्द्र सहारनपुर वर्णीजीके साथ छेदीलालजी की धर्मशालामें रहते थे । यौवन, धन तथा स्वच्छन्दताने इन्हें विगाड़ दिया था । अपने अवगुण छिपानेके लिए इन्होंने वर्णीजी को घूस देनी चाही, पर वर्णीजीने सौ रुपयाके नोटपर नजर भी न डाली । गो कि 'दोषवादे च मौनम्' को पालन करते हुए दूसरेसे न कह कर वर्णीजी ने उन्हीं को समझाया । संसारको जितना अधिक वर्णीजी समझते हैं उतना शायद ही कोई जानता हो तथापि इतने गम्भीर हैं कि उनकी थाह पाना असंभव है। किन्तु विशेषज्ञता तथा गाम्भीर्यने उनकी शिशु सुलभ सरलतापर रंचमात्र प्रभाव नहीं डाला है। आज भी किसी बातको सुनकर उनके मुखसे आश्चर्य सूचक प्लुत "अरे" निकल पड़ता है । यही कारण है कि स्व० बाईजी तथा शास्त्रीजी बहुधा कहा करते थे "तेरी बुद्धि क्षणिक ही नहीं कोमल भी है । तूं प्रत्येकके प्रभावमें आ जाता है।" मनुष्यके स्वभावका अध्ययन करनेमें तो वर्णीजीको एक क्षण भी नहीं लगता । यही कारण है कि वे विविध योग्यताओंके पुरुषोंसे सहज ही विविध कार्य करा सके है । यह भी समझना भूल होगी कि यह योग्यता उन्हें अब प्राप्त हुई है । विद्यार्थी जीवनमें बाईजीके मोतियाबिन्दकी चिकित्सा कराने किसी बंगाली डाक्टरके पास झांसी गये । डाक्टरने यों ही कहा यहांके लोग बड़े चालाक होते हैं फिर क्या था माता-पुत्र उसकी लोभी प्रकृतिको भांप गये और चिकित्साका विचार ही छोड़ दिया। बादमें उस क्षेत्रके सब लोगोंने भी बताया कि वह डाक्टर बड़ा लोभी था । किन्तु धर्ममाता की व्यथाके कारण वर्णीजी दुःखी थे,उन्हें स्वस्थ देखना चाहते थे। तथापि उनकी श्राज्ञा होने पर बनारस गये और परीक्षामें बैठे गोकि मन न लगा सकनेके कारण असफल रहे । लौटनेपर बागमें एक अंग्रेज डाक्टरसे भेंट हुई। वर्णीजी को उसके विषयमें अच्छा ख्याल हुआ। उससे बाईजी की आंखका श्रापरेशन कराया और बाईजी ठीक हो गयीं। इतना ही नहीं वह इतने प्रभावमें पाया कि उसने रविवारको मांसाहारका त्याग कर दिया तथा कपड़ोंकी स्वच्छता आदिको भोजन-शुद्धिका अंग बनानेका इनसे भी आग्रह किया । . वर्णीजीका दूसरा विशेष गुण गुणग्राहकता है, जिसका विकास भी छात्रावस्थामें ही हुआ था । जब वे चकौतो ( दरभंगा ) में अध्ययन करते थे तब द्रौपदी नामकी भ्रष्ट बालविधवामें प्रौदावस्था आने पर जो एकाएक परिवर्तन हुश्रा उसने वर्णीजी पर भी अद्भुत प्रभाव डाला था । वे जब कभी उसकी चर्चा करते हैं तो उसके दूषित जीवनकी अोर संकेत भी नहीं करते हैं और उसके श्रद्धान की प्रशंसा करते हैं । विहारी मुसहर की निर्लोभिता तो वर्णीजीके लिए आदर्श है । अल्प वित्त, अपढ़ होकर भी उसने उनसे दश रुपये नही ही लिये क्यों कि वह अपने औषधिज्ञानको सेवार्थ मानता था। घोरसे घोर घृणोत्पादक अवसरोंने वर्णीजीमें विरक्ति और दयाका ही संचार किया है प्रतिशोध और क्रोध कभी भी उनके विवेक और सरलताको नहीं भेद सके हैं । नवद्वीपमें जब कहारिनसे मछलीका आख्यान सुना तो वहाँके नैयायिकोंसे विशेष ज्ञान प्राप्त करने के प्रलोभनको छोड़ कर सीधे कलकत्ता पहुंचे। और वहांके विद्वानोंसे तेरह Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ भी छह मास अध्ययन किया । इस प्रकार यद्यपि वर्णीजीने तब तक न्यायाचार्य के तीन ही खण्ड पास किये थे तथापि उनका लौकिक ज्ञान खण्डातीत हो चुका था। तथा उन्होंने अपने भावी जीवन क्षेत्र-जैन समाजमें शिक्षा प्रचार तथा मूक सुधारके लिए अपने आपको भली भांति तयार कर लिया था। . 'जानो और जानने दो-' माशा कलकत्तेसे लौटकर जब बनारस होते हुए सागर आये तो वर्णी ने देखा कि उनका जन्म जनपद शिक्षाकी दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ है । जब नैनागिर तरफ विहार किया तो उनका आत्मा तड़प उठा । बंगाल और बुन्देलखण्ड की बौद्धिक विषमताने उनके अन्तस्तलको आलोडित और आन्दोलित कर दिया । रथयात्रा, जलयात्रा, आदिमें हजारों रुपया व्यय करने वालोंको शिक्षा और शास्त्र-दानका विचार भी नहीं करने देखकर वे अवाक रह गये। उन्होंने देखा कि भोजन-पान तथा लैङ्गिक सदाचार को दृढ़तासे निभाकर भी समाज भाव-आचारसे दूर चला जा रहा है। साधारण सी भूलोंके लिए लोग बहिष्कृत होते हैं और आपसी कलह होती है। प्रारम्भमें किसी विधवाको रख लेने के कारण ही 'विनैकावार होते थे पर हलवानीमें सुन्दर पत्नीके कारण वहिष्कृत, दिगौडेमें दो घोड़ोंकी लाड़ाई में दुर्बल घोड़ेके' मरने पर सबल घोड़े वालेका दण्ड, आदि घटनाओंने वर्णीजीको अत्यन्त सचिन्त कर दिया था। हरदीके रघुनाथ मोदी बाली घटना भी इन्हीं सब बातोंकी पोषक थी। उनके मन में पाया कि ज्ञान विना इस जड़तासे मुक्ति नहीं। फलतः आपने सबसे पहिले बंडा (सागर, म० प्रा०) में पाठशाला खुलवायी। इसके बाद जब आप ललितपुरमें इस चिन्तामें मग्न थे कि किस प्रकार उस प्रान्त के केन्द्र स्थानों में संस्थाएं स्थापित की जाय उसी समय श्री सबालनवीसने सागरसे आपको बुलाया । संयोगकी बात है कि आपके साथ पं० सहदेव झा भी थे । फलतः श्री कण्डयाके प्रथम दानके मिलते ही अक्षय-तृतीयाको प्रथम छात्र पं० मन्नालाल रांधेलीयकी शिक्षासे सागरमें श्री सत्तर्क सुधा तरंगिणी पाठशाला' का प्रारम्भ हो गया । गंगाकी विशाल धाराके समान इस संस्थाका प्रारम्भ भी बहुत छोटा था। स्थान प्रादिके लिए मोराजी भवन आनेके पहिले इस संस्थाने जो कठिनाइयां उठायों वास्तव में वे वर्णीजी ऐसे बद्धपरिकर व्यक्तिके अभावमें इस संस्थाको समाप्त कर देनेके लिए पर्याप्त थीं। आर्थिक व्यवस्था भी स्थानीय श्रीमानों की दुकानोंसे मिलने वाले एक आना सैकड़ा धर्मादाके ऊपर अश्रित थी। पर इस संस्थाके वर्तमान विशाल प्राङ्गण, भवन, श्रादिको देखकर अनायास ही वर्णीजीके सामने दर्शकका शिर झुक जाता है। आज जैन समाजमें बुन्देल खण्डीय पंडितोंका प्रबल बहुमत है उसके कारणोंका विचार करने पर सागरका यह विद्यालय तथा वर्णी जी की प्रेरणासे स्थापित साह्मल, पपौरा, मालथौन, ललितपुर, कटनी, मड़ावरा, खुरई, बीना, बरुआसागर, श्रादि स्थानोंके विद्यालय स्वयं सामने आ जाते हैं । वस्तुस्थिति यह है कि इन पाठशालाओं चौदह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा ने प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा देने में बड़ी तत्परता दिखायी हैं । इन सबमें सागर विद्यालयकी सेवाएं तो चिरस्मरणीय है । बर्णी जाने पाठशाला स्थापना के तीर्थ का ऐसे शुभ मुहूर्त में प्रवर्तन किया था कि जहांसे वे निकले वहीं पाठशालाएं खुलती गयीं। यह स्थानीय समाजका दोष है कि इन संस्थाओं को स्थायित्व प्राप्त न हो सका । इसका वर्णीजी को खेद है । पर समाज यह न सोच सका कि प्रान्त भरके लिए व्याकुल महात्माको एक स्थानपर बांध रखना अनुचित है । उनके संकेतपर चलकर आमोद्धार करना ही उसका कर्त्तव्य है । तथापि वर्णित्रय सतत प्रवास तथा विशुद्ध पुरुषार्थने बुन्देलखण्ड ही क्या अज्ञान अन्धकाराच्छन्न समस्त जैन समाजको एक समय विद्यालय पाठशाला रूपी प्रकाश स्तंभों से आलोकित कर दिया था । इसी समय वर्णीजीने देखा कि केवल प्राच्य शिक्षा पर्याप्त नहीं है फलतः योग्य अवसर आते ही श्रापने जबलपुर 'शिक्षामन्दिर' तथा जैन विश्व विद्यालयकी स्थापनाके प्रयत्न किये। यह सच है कि जबलपुरकी स्थानीय समाज fat कारणों से प्रथम प्रयत्न तथा समाजकी दलबन्दी एवं उदासीनता के कारण द्वितीय प्रयत्न सफल न हो सका,तथापि उसने ऐसी भूमिका तयार कर दी है जो भावी साधकोंके मार्गको सुगम बनावेगी । आज भी वर्णांजी बौद्धिक विकास के साथ कर्मठताका पाठ पढ़ाने वाले गुरु कुलों तथा साहित्य प्रकाशक संस्थानोंकी स्थापना व पोषण में दत्तचित्त हैं। ऊपर के वर्णन से ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वर्णीजीने मातृमण्डल की उपेक्षा की, पर ध्रुव सत्य यह है कि वर्णोजीका पाठशाला श्रान्दोलन लड़के लड़कियोंके लिए समान रूपसे चला है । इतना ही नहीं ज्ञानी त्यागी मार्गका प्रवर्तन भी आपके दीक्षागुरू बाबा गोकुल चन्द्र ( पितुश्री पं० जगमोहनलालजी सिद्धान्तशास्त्री ) तथा आपने किया है । "वर स्वारथ के कारने" आश्चर्य तो यह है कि जो वर्णीजी अधिक पैसा पास न होने पर हफ्तों कच्चे चने खाकर रहे और भूखे ही रह गये, अपनी माता ( स्व० चिरोंजा - ) बाईजीसे भी किसी चीजको मांगते शरमाते थे, उन्हींका हाथ पारमार्थिक संस्थाओंके लिए मांगनेको सदैव फैला रहता है । इतना ही नहीं संस्थाओं का चन्दा उनका ध्येय बन जाता था । यदि ऐसा न होता तो सागर में सामायिकके समय तन्द्रा होते ही चन्देकी लपकमें उनका शिर क्यों फूटता। पारमार्थिक संस्था की झोली सदैव उनके गले में पड़ी रही है । आपने अपने शिष्यों के गले भी यह झोली डाली है । पर उन्हें देखकर वणी जीकी महत्ता हिमालय के उन्नत भालके समान विश्व के सामने तन कर खड़ी हो जाती है। क्योंकि उनमें " मर जाऊं मांगूं नहीं अपने तनके काज ।' का वह पालन नहीं है जो पूज्य वर्गीजीका मूलमंत्र रहा है । वर्गीजीकी यह विशेषता रही है कि जो कुछ इकट्ठा किया वह सीधा संस्थाधिकारियोंको भिजवाया या दिया और स्वयं निर्लिप्त । बर्णीजीके निमित्त से इतना अधिक चन्दा हुआ है कि यदि वह केन्द्रित हो पाता तो उससे विश्व पन्द्रह Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ विद्यालय सहज ही चल सकता । तथापि इतना निश्चित है कि असली (ग्रामीण) भारत में ज्योति जगानेका जो श्रेय उन्हें है वह विश्व विद्यालय के संस्थापकोंको नहीं मिल सकता, क्योंकि वर्णीजी का पुरुषार्थं नदी, नाले और कूप जलके समान गांव, गांवको जीवन दे रहा है । वर्णीजीको दयकी मूर्ति कहना अयुक्त न होगा । उनके हृदयका करुणास्रोत दीन दुःखीको देखकर अवाधगति से बहता है । दीन या आक्रान्तको देखकर उनका हृदय तड़प उठता है । यह पात्र है या अपात्र यह बे नहीं सोच सकते, उसकी सहायता उनका चरम लक्ष्य हो जाता है । यही कारण है कि नगद रुपया, चांदी के गहने तथा भरपेट भोजन करने वाले गृहस्थ भिखमंगे ने इनसे 1 भोजन वसूल कर लिया और बादमें इनकी सरलतापर रीझ कर "केवल उपरी वेश देखकर ठगा न जाना” उपदेश दिया था । गो कि उसका उपदेश व्यर्थ ही रहा और लोग वेश बनाकर वर्णीजीको आज भी ठगते हैं, पर बाबाजी "कर्तु वृथा प्रणयमस्य न पारयन्ति ।" के अनुसार "अरे भइया हमें वो का ठगै जो अपने आपको ठग रहो ।” कथनको सुनते ही श्राज भी दयामय वर्णोंके विविध रुप सामने नाचने लगते हैं । यदि एक समय लुहारसे संडसी मांग कर लकड़हारिनके पैरसे खजूरका कांटा निकालते दिखते हैं तो दूसरे ही क्षण बहेरिया ग्राम के कुआंपर दरिद्र दलित वर्ग के बालकको अपने लोटेसे जल तथा मेवा खिलाती मूर्ति सामने आ जाती है, तीसरे क्षण मार्ग में ठिठुरती स्त्रीकी ठंड दूर करने के लिए लंगोटीके सिवा समस्त कपड़े शरीर पर से उतार फेकती श्यामल मूर्ति झलकती है, तो उसके तुरन्त बाद ही लकड़हारे के न्याय प्राप्त दो आना पैसों को लिए, तथा प्रायश्चित रुपसे सेर भर पक्वान्न लेकर गर्मी की दुपहरी में दौड़ती हुई पसीने से लथपथ मूर्ति आंखों के आगे नाचने लगती है । कर्रापुर के कुंएपर वणींजी पानी पी कर चलना ही चाहते हैं कि दृष्टि पास खड़े प्यासे मिहतर पर ठिठक जाती है। दया उमड़ी और लोटा कुएंसे भर कर पानी पिलाने लगे, लोकापवादभय मनमें जागा और लोटा डीर उसीके सिपुर्द करके चलते बने । स्थिति - पालन और सुधार का अनूठा समन्वय इससे बढ़कर कहां मिलेगा ? " जो संसार विषै सुख होतो" इस प्रकार विना विज्ञापन किये जब वर्णांजी का चरित्र निखर रहा था तभी कुछ ऐसी घटनाएं हुई जिन्होंने उन्हें बाह्य त्याग तथा व्रतादि ग्रहण के लिए प्रेरित किया। यदि स्व ० ( सिंघैन चिरोंजा - ) बाईजीका वर्णीजी पर पुत्र स्नेह लोकोत्तर था तो वर्गीजीकी मातृश्रद्धा भी अनुपम थी । फलतः बाइजी के कार्यको कम करने के लिए तथा प्रिय भोज्य सामग्री लानेके लिए वे स्वयं ही बाजार जाते थे । सागर में शाक फलादि कूजड़िनें बेचती हैं। श्रौर मुहकी वे जितनी अशिष्ट होती हैं अचरणकी उतनी ही पक्की होती हैं । एक किसी ऐसी ही कूजड़िनकी दुकानपर दो खूब बड़े शरीफा रखे थे। एक रईस इनका मोल कर रहे थे और जड़नका मुंह मांगा मूल्य एक रुपया नहीं देना चाहते थे, आखिरकार ज्यों ही वे दुकान से आगे बढ़े सोलह Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा वर्णाजीने जाकर वे शरीफे खरीद लिए । लक्ष्मी-वाहनने इसमें अपनी हेठी समझी और अधिक मूल्य देकर शरीफे वापस पानेका प्रयत्न करने लगे । कूजडिनने इस पर उन्हे आड़े हाथों लिया और वर्णीजीको शरीफे दे दिये । उसकी इस निलोभिता और वचनकी दृढ़ता का वर्णीजी पर अच्छा प्रभाव पड़ा और बहुधा उसीके यहांसे शाक सब्जी लेते थे। पर चोर यदि दुनियाको चोर न समझे तो कितने दिन चोरी करेगा ? फलतः स्वयं दुर्बल और भोग लिप्त समाजमें इस बातकी कानाफूसी प्रारम्भ हुई, वर्णाजीके कान में उसकी भनक आयी । सोचा संसार १ तूं तो अनादि कालसे ऐसा ही है, मार्ग तो मैं ही भूल रहा हूं, जो शरीरको सजाने और खिलाने में सुख मानता हूं। यदि ऐसा नहीं तो उत्तम वस्त्र, पाठ रुपया सेरका सुगंधित चमेलीका तेल, बड़े बड़े बाल, आदि विडम्बना क्यों ? और जब स्वप्नमें भी मनमें पापमय प्रवृत्ति नहीं तो यह विडम्बना शतगुणित हो जाती है । प्रतिक्रिया इतनी बढ़ी कि श्रीछेदीलाल के बगीचेमें जाकर श्राजीवन ब्रह्मचर्यका प्रण कर लिया । मोक्षमार्गका पथिक अपने मार्गकी ओर बढ़ा तो लौकिक बुद्धिमानोंने अपनी नेक सलाह दी । वे सब इस व्रतग्रहणके विरुद्ध थीं तथापि वणींजी अडोल रहे । इस व्रत ग्रहण के पश्चात् उनकी वृत्ति कुछ ऐसी अन्तर्मुख हुई कि पतितोंका उद्धार, अन्तर्जातीय विवाह, आदिके विषयमें शास्त्र सम्मत मार्ग पर चलनेका उपदेशादि देना भी उनके मनको संतुष्ट नहीं करता था । यद्यपि इन दिनों भी प्रतिवर्ष वे परचार सभाके अधिवेशनोंमें जाते थे तथा बाबा शीतलप्रसादजीके विधवा विवाह आदि ऐसे प्रस्तावोंका शास्त्रीय आधारसे खण्डन करते थे । बुन्देलखण्डके अच्छे सार्वजनिक आयोजन उनके विना न होते थे । तथापि उनका मन वेचैन था। इन सबमें आत्मशान्ति न थी। व्यक्तिगत कारण से न सही समष्टिगत हितकी भावनासे ही विरोध और विद्वेषको अवसर मिलता था। ऐसे ही समय वीजी बाबा गोकुलचन्द्रजीके साथ कुण्डलपुर (सागर म० प्रा०) गये यहां पर भी बाबाजीने उदासीनाश्रम खोल रखा था। वणींजीने अपने मनोभाव बाबाजीसे कहे और सप्तम 'प्रतिमा' धारण करके पदसे भी अपने आपको वर्णी बना लिया । ज्ञान और त्यागका यह समागम जैन समाजमें अद्भुत था । अब वीजी व्रतियोंके भी गुरु थे । और सामाजिक विरोध तथा विद्वेषसे बचने की अपेक्षा उसमें पड़नेके अवसर अधिक उपस्थित हो सकते थे किन्तु वणींजीकी उदासीनतासे अनुगत विनम्रता ऐसे अवसर सहज ही टाल देती थी। तथा वर्णी होकर भी उनके सार्वजनिक कार्य दिन दूने रात चौगुने बढ़ते जाते थे। "पुण्य तो" लोग कहते हैं “वणोजी न जाने कितना करके चले हैं । ऐसा सातिशय पुण्यात्मा तो देखा ही नहीं।" क्योंकि जब जो चाहा मिला, या जो कह दिया वही हुआ ऐसी अनेक घटनाएं उनके विषयमें सुनी हैं। नैनागिर ऐसे पर्वतीय प्रदेश में उनके कहने के बाद घंटे भरमें ही अकस्मात् अंगूर पहुंच जाना, बड़गैनीके मन्दिरको "प्रतिष्ठाके समय सूखे कुत्रोंका पानीसे भर जाना, आदि ऐसी घटनाएं हैं जिन्हे सुनकर मनुष्य आश्चर्य में पड़ जाता है। सत्रह Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ "काहे को होत अधीरा रे" - जब वर्णी जी उक्त प्रकारसे समाजका सम्मान और पूजा तथा मातुश्री बाईजी के मातृस्नेहका श्रविरोधेन रस ले रहे थे उसी समय बाईजीका एकाएक स्वास्थ्य बिगड़ा | विवेकी वर्गीजीकी आखोंके धागे श्राद्यमिलनसे तब तककी घटनाएं धूम गयीं । और कल्पना आायी प्रकृत्या विवेकी, बुद्धिमान, दयालु तथा व्यवस्था प्रेमी बाईजी शायद अब और मेरे ऊपर अपनी स्नेह छाया नहीं रख सकेंगी। उनका सरल हृदय भर आया और श्रांखें छलछला आयीं, विवेक जागा, 'माता ? तुमने क्या नहीं दिया और किया अपने उत्थानका उपादान तो मुझे ही बनना है। आपके अनन्त फलदायक निमित्त को न भूल सकूंगा तथापि प्रारब्धको टालना भी संभव नहीं ।' फलतः अनन्त मातृ-वियोगके लिए अपनेको प्रस्तुत किया । बाईजीने सर्वस्व त्याग कर समाधिमरण पूर्वक अपनी इहलीला समाप्त की । विवेकी लोकगुरु जी भी रो दिये और अन्तरंग में अनन्तवियोग दुःख छिपाये सागर से अपने परम प्रिय तीर्थक्षेत्र द्रोणगिरिकी ओर चल दिये । पर कहां है शान्ति ? मोटरकी अगली सीटके लिए कहा सुनी क्या हुई; राजर्षिने सवारीका ही त्याग कर दिया । सागर वापस आये तो बाईजीकी "भैया भोजन कर लो" आवाज फिर कानोंमें श्राने सी लगी । सोचा मोहनीय अपना प्रताप दिखा रहा है । फिर क्या है अपने मनको दृढ़ किया ौर अबकी बार पैदल निकल पड़े वास्तविक विरक्तिकी खोज में। फिर क्या था गांव, गांवने बाइजी के लाड़ले से ज्योति पायी । यदि सवारी न त्यागते पैसेवाले भक्त लोग आत्म-सुधारके बहाने उन्हें वायुयान पर लिये फिरते, पर न रहा वांस, न रही वांसुरी । वर्णांजी झोंपड़ी झोंपड़ी में शान्तिका सन्देश देते फिरने लगे और पहुंचे हजारों मील चलकर गिरिराज सम्मेदशिखर के अंचल में । शायद पूजनीया बाईजी जो जीवित रहकेन कर सकती वह उनके मरणने संभव कर दिया। यद्यपि वर्णीजीको यह कहते सुना है "मुझे कुछ स्वदेशका ( स्वजनपद ) अभिमान जग्रत हो गया और वहांके लोगोंके उत्थान करनेकी भावना उठ खड़ी हुई। लोगों के कहने में आकर फिरसे सागर जानेका निश्चय कर लिया। इस पर्याय में हमसे यह महती भूल हुई जिसका प्रायश्चित्त फिर शिखरजी जानेके सिवाय अन्य कुछ नहीं, चक्रमें आ गया । " तथापि श्राज वर्णीजी न व्यक्तिसे बंधे हैं न प्रान्त या समाजसे, उनका विवेक और विरक्तिका उपदेश जलवायु के समान सर्वसाधारण के हिताय है । अठारह Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारा ही वह पौरुष धन्य ! श्री हुकमचन्द्र बुखारिया, 'तन्यय' सम्प्रति युग हे एक श्रेष्ठतम पुरुष वृद्ध ! मुट्ठी भर दुर्बल हाड़ोंके हे स्तूप !! जियो तुम अविचल जब तक -- भलै सुख्यात या कि बदनाम, दूर क्षितिज पर तप्त दिवाकर, स्वार्थमय या कि परम निष्काम, शीतल शशि, नक्षत्र अनेकानेक— प्रकाशित हैं जगमग जगमग ! माना विकृत प्रति या कि पूर्ण अभिराम ! सहन गम्भीर वही इतिहास किन्तु शनैः शनै भयभीत अत्र तक इतिहास हुआ जाता यह सोच-विचार बहन करता आया है भारअनेकों का-लघु या कि महान - कि निकटागत में तुम जब प्राप्त उन्नीस उसे होओ गे ही अनिवार्य, संभालेगा तब कैसे भार तुम्हारा वह १ हे गहन महान् ! अनेकों शिशु भोले सुकुमार, शिक्षित बने भूमिके भार, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ डोलते थे जीवनके अर्थ, किन्तु असफल होते थे व्यर्थ ! तुम्हारा मानव करूणा-स्रोतसुकोमल-ममता अोनप्रोतन सह पाया यह त्रास महान, महामनु-वंशज का अपमानहो उठा पाहत-सा कटि-बद्ध, प्रतिज्ञा-बद्ध, वज्र-संकल्प, विश्व-कल्याण-भावना साथ ! तुम्हारा ही वह पौरूष धन्य ! तुम्हारा ही वह साहस धन्य !! कि स्थापित करा दिए सर्वत्र बड़े-छोटे अनेक वे स्थान जहां विद्या करती है हास संस्कृति करती समुद विलास; जहां की पावन रज में लोट दुध मुहे शिशु भोले नादान शनैः बनते सक्वेिक जवान ; और यौवन-मय नारी-प्राण-- तरूण पाकर विद्याका दान सहज ही बन जाते विद्वान् , सीख जाते संस्कृतिका ज्ञान-- कि कैसे लायी जा सकती कठिन सूनी घड़ियों में भी मनोहर मन्द मन्द मुस्कान ! किया जा सकता है कैसे सुखी जीवनका शुभ अाह्वान !! और लाया जा सकता है अनिशि में भी स्वर्ण-विहान !!! श्रीस Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि श्रीमान् त्यागी गणेशप्रसाद जी वर्णीका आत्मा पवित्र है। धर्मरस से और धर्मप्रभावनाकी सद्भावनात्रों से परिप्लुत है । आत्माकी शुद्धि-विशुद्धि उनका अटल ध्येयविन्दु रहा है। लौकिक आशा आकांक्षा उनके चित्तमें स्थान पाती नहीं । पूर्व जीवन के विषयमें जो जो बातें सुनने को मिली सुनकर उनकी उदार हृदयताका, धर्मभावनाओंका परिचय प्राप्त कर हृदयको सन्तोष ही हुआ । लोभ और प्रलोभनोंकी अधिकतर सामग्रीके बीचमें घिर जाने पर भी अपनी अटल आत्म विशुद्धि और आत्मैकाग्रभावनाके बल पर ही आत्मा अधिकाधिक विशुद्धिको प्राप्त हो सकता है । लौकिक दृष्टि से कहा जाय तो "आध्यात्मप्रवणता" ही वर्णीजीका अन्तश्चर प्राण है और समाज में सद्धर्म के प्रचारकी जागृत भावना यह बहिश्चर प्राण है। धर्मोन्नतिके साधनों और धर्मायतनोंके निर्माण में उनके मन-वचन-काय सदा ही लगे रहे हैं । श्री वर्णीजी जैसे श्रद्धासे निर्मल, ज्ञानसे प्रभावशाली और चारित्रसे विकसनशील भव्यात्मा बिरल हैं। यह हार्दिक कामना है कि वर्णीजी चिरकाल के लिए जीवित रहें। कारंजा ] -(क्षुलक ) समन्तभद्र पूज्य गुरुवर्य के किन किन गुणोंका स्मरण कसं ? भक्तिके अतिरेकसे भावोंमें पूर आ रहा है। उनके वचन मेरे लिए पागम हो गये हैं। उनका संकलन और प्रचार मेरे जीवनकी साध बन चुके हैं। मैं उनके चरण चिन्हों पर चल सकू यही हार्दिक भावना है। जबलपुर]-- -(ब्र. ) कस्तूरचन्द्र नायक पूज्य वणोंजी आजके जैन शलाका-पुरुष हैं। आप सबसे बड़े समयज्ञ हैं अतः आप सर्वप्रिय और मान्य हैं । सरल जीवन और “जान दो अपनेकोका करने” उन्हें विरक्त जीवनकी मूर्ति बना देते हैं । 'जियो और जीनो दो' तो आपके जीवनका मूलाधार है। मैं उनसे अत्यन्त उपकृत हूं एक्कीस Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ अतः निकटका होनेके कारण मेरे द्वारा उनका गुणगान कैसा ? वे चिरायु हों इसी भावनाको भाता हुआ उनके चरणों में प्रणाम करता हूं। गया ] -(ब्र.) गोविन्दलाल जिन्होंने जन्मसे ही उदासीन रहकर त्यागपूर्ण जीवन बिताया है, शिक्षा और ज्ञान प्रधान त्यागका मार्ग चलाया है, पैदल ही चलकर गांव गांव जाकर अज्ञान और कलहमें पड़ी जनता का उद्धार किया है उनके विषयमें मैं क्या कह सकता हूं क्योंकि मेरी विरक्ति और ज्ञानवृत्तिके भी तो वही वर्णीजी मूलस्रोत हैं। बरुआसागर ] --(भगत ) सुमेरचन्द्र 卐 मुझमें जो कुछ त्याग और विवेक है उसके कारणका विचार करने पर वर्णीजीकी सरल मूर्ति सामने आ जाती है । अतः उनके चरणोंमें प्रणाम करनेके सिवा कुछ और कहना धृष्टता होगी। रेशन्दीगिरि ]-- ___-(ब्र.) मंगलसेन तुच्छ 卐 श्री वर्णीजी की मेरे निवास स्थान जबलपुरपर बहुत वर्षों से कृपा रही है। परन्तु मुझे उनके दर्शन करने का अवसर १६४५ में जेलसे निकलनेके पश्चात ही प्राप्त हुआ। उनकी विद्वत्ता तो असंदिग्ध है ही, परन्तु मुझ पर उनके सरल स्वभावका अत्यधिक प्रभाव पड़ा। वृद्धावस्थाको अंग्रेजीमें लोग द्वितीय बाल्यकाल कहते हैं, परन्तु इसका कारण उस अवस्था में उत्पन्न होने वाली शारीरिक तथा मानसिक दुर्बलता है। परन्तु वर्णीजी मुझे बालकके समान भोले लगे, अपने चरित्र-बल के कारण । अपने ग्रन्थ 'कृष्णायन' में मैंने जीवन्मुक्तका जो वर्णन किया है उसकी निम्नलिखित चौपाइयां मुझे वर्णीजी को देखते ही याद आ जाती है जिमि वितरत अनजाने लोका, सुमन सुरभि, तारक आलोका, तिमि जीवन-क्रम तासु उदारा, सौख्य चतुर्दिक वितरन-हारा । नागपुर - (पं०) द्वारका प्रसाद मिश्र, मंत्री, विकास तथा निर्माण, मध्यप्रान्त बाईस Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हें शत शत बन्दन मतिमान् । (१) अपने अथक यत्नके बल पर, की उन्नति बाधाएं सह शर, बने विरोधी भी अनुयायी आज तुम्हें पहिचान ।। (४) रहा सदा यह ध्येय तुम्हारा, बनें समाज विवेकी सारा, क्रिया काण्ड अरु कुरीतियां सब हो जायें निष्प्राण ॥ (५) संस्था सागर के निर्माता, आत्म तत्व के अनुपम ज्ञाता, है अगाध पाण्डित्य तुम्हारातुम गुरुवर्य महान् ॥ (३) जैनागम के वृद्ध पुजारी, हैं सेवाएं अमूल्य तुम्हारी, कैसे हो सकते हम ऊऋण कर किञ्चित् गुणगान ॥ (६) फिर भी हम सब होकर प्रमुदित, करते श्रद्धाञ्जली समर्पित, करो इन्हें स्वीकार; तपस्वी ! हो तुमसे उत्थान ॥ तुमने ज्ञान प्रसार किया है, विद्वानों को जन्म दिया है, दूर विवादों कलहों से रह__ किया आत्म कल्याण । रुड़की]-- (शास्त्री) धरर्णन्द्रकुमार 'कुमुद तेईस Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ. जैनधर्मको मैं भारत भूमिपर त्याग और तपोमय जीवनके लिए किये हुए अनुभवों में उच्च स्थान देता हूं और इसी कारण उसके प्रति मेरी सहानुभूति है। जैन प्राकृत और संस्कृत एवं अपभ्रंश साहित्यमें भारतीय संस्कृतिके लिए अत्यधिक सामग्री भरी हुई है। जिन पूर्वज विद्वानोंने इस साहित्यके निर्माणमें अपने व्रतपूर्ण जीवनका सदुपयोग किया है उनके प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना हमारा कर्तव्य है ! पूज्य वर्णीजी ऐसी ही विभूति हैं, उनका तथा जैन साहित्यसे भारतीय संस्कृतिकी व्याख्या के सब प्रयत्नोंका मैं अभिनन्दन करता हूं। नयी दिल्ली ] ___ (डा०) वासुदेवशरण अग्रवाल, एम० ए०, डी० लिट पूज्यवर वर्णोजी से मेरा सम्बन्ध ४० वर्ष से है। मेरे गांव बरुआसागर में ४० वर्ष पूर्व आपका दो वर्ष मुकाम रहा। तब मुझे भी आपके सम्पर्कमें आनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपके उपदेशसे मेरी पढ़ने में रुचि हुई और मेरे ऊपर आये हुए सब प्रकारके विनोंको टाल कर मेरी शिक्षाकी आपने ही व्यवस्था की। जैन समाजके इस महोपकारी महात्माकी मनोवृत्ति जैनदर्शन, जैनतत्त्वज्ञान और जैनधर्मके प्रचार और उद्योतनमें ही निरन्तर रहती है। बुन्देलखण्ड प्रान्तका तो आपके द्वारा कल्पनातीत उपकार हुआ है । आपने सैकड़ों गरीबों को पूंजीपतियोंके चंगुलसे बचाया, ऋणमुक्त कराया । स्थान स्थान पर छोटी बड़ी पाठशालाएं और संस्कृत विद्यालय खोले। अापने परस्परके वैमनस्योंका सैकड़ों जगह कालामुंह किया, सैकड़ों गरीब भाई पञ्चायती प्रथाके दुरुपयोगसे छोटी छोटी अशास्त्रीय बातोंके ही ऊपर जातिच्युत कहे जाते थे उनका शुद्धिकरण कराया और वह सब तत्तत् पञ्चायतोंने पूर्ण मान्य किया । उनके सम्बन्ध में किसीमें भी कोई मतभेद पैदा नहीं हुआ। आपको अष्टसहस्री पढ़नेकी बड़ी उत्कण्ठा थी—कोई पढ़ाने वाला नहीं था, अपना कोई विद्यालय नहीं था। इसीलिए अापने प्रतिज्ञा ले ली थी कि जब तक मैं उस ग्रन्थको पूर्ण नहीं पढ़ लूंगा, सिले हुए कपड़े नहीं पहनूंगा। इसी प्रतिज्ञाने काशीमें स्याद्वाद महाविद्यालयकी नींव आपसे डलवायी और जैन न्यायके पठन पाठनका प्रमुखतासे प्रचार कराया। पूज्य वर्णीजीने सागरमें और बुन्देलखण्डमें अनेक स्थानों पर जैसे बीना, पपौरा, खुरई, बरुआ सागर, नैनागिर, द्रोणगिर बामौरा, साढूमल, आदिमें विद्यालय खुलवाये। इनमें बहुतसे तो छात्रावास युक्त हैं । आपने सामाजिक सुधारके लिए कई छोटी मोटी सभात्रोंकी स्थापना करायी। श्रापने संस्कृत शिक्षा प्रचारकी बड़ी लहर उत्पन्न की, जिसके परिणाम स्वरूप आज बुन्देलखण्डमें आपके कृपापात्र अनेक योग्य विद्वान पाये जाते हैं। आपकी वाणीमें करुणा रसकी प्रधानता है। आपकी दयावृत्तिका मुकाव असमर्थकी ओर अधिक चौबीस Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि रहता है । आपको पढ़ानेकी अपेक्षा पढ़ना अधिक पसन्द है । आप संस्था स्थापित करते हैं वरन् अधिकार नहीं चाहते अतएव आप सर्व सस्थात्रोंके स्वयम्भू अधिकारी हैं। आचरणपर आपका वचपनसे ही अधिक ध्यान रहा है। श्रापका स्वभाव ही ऐसा प्रभावक है कि दश पांच त्यागी हमेशा साथमें रहा ही करते हैं, अतः स्वयं श्राप एक प्रकारके संघपति हैं। समाजमें जितने पक्ष हैं, वर्णीजीको उनमें किसीका भी अनुगामित्व पसन्द नहीं, न किसीको अनुगामी बनाना पसन्द है। आप लोकप्रिय नेता हैं, आपका उल्लेख करते समय कोई भी 'पूज्य' पद लगाये विना सन्तोष नहीं मानता। आपके भाषणमें मधुरता और व्यक्तित्व में महान आकर्षण है। ब्रह्मचर्यका प्रताप आपके अतिवृद्ध कायमें भी प्रत्यक्ष दिखता है । बत्तीसों दांत मौजूद हैं, सब इन्द्रियां काम कर रही हैं। आजकल आपकी दृष्टि कन्या-शिक्षणकी ओर झुक रही है। पहले आप समन्तभद्र स्वामीके ग्रन्थोंका अवलोकन करते थे और अब कुन्दकुन्द स्वामीके ग्रन्थोंका मनन करते हैं। आपने जो प्राध्यात्मिक पत्र अपने प्रेमियोंको लिखे हैं वे कालान्तर ग्रन्थका रूप धारण करेंगे। ऐसे पूज्य, परोपकारी, वस्तुस्वरूपचिन्तक, त्यागी एवं विद्वान् पुरुषके सम्बन्धमें क्या लिख सकता हूं ! लेखक स्वयं उनके असाधारण उपकारके कारण अपने जीवन में पूर्ण परिवर्तन मानता है और अपने परसे अनुमान लगाता है कि इसी प्रकार हजारों भाइयों का जीवन परिवर्तित हुश्रा होगा। इन्दौर]-- (पं०) देवकीनन्दन, सिद्धान्तशास्त्री है ज लोग कभी कभी कहते हैं कि पूज्यश्री वर्णीजीमें सरलता तथा दयाकी इतनी अधिकता है कि वे अनुशासनको नहीं बना सके। किन्तु ऐसे लोग सोचें कि 'स्वैराचार विरोधिनी' जैनी दीक्षाको क्या अस्त-व्यस्त व्यक्ति पाल सकता है। सागार और अनगार-अाचार क्या हैं ? क्या विश्वके अत्यन्त अनुशासन प्रिय जर्मन नागरिक भी उस ऊंचाई तक पहुंच सके हैं ? स्पष्ट है कि बहुलतासे व्यवसायी होनेके कारण हम गृहस्थ ही क्षत्रियों द्वारा प्राचरित तथा प्रसारित जिनधर्मके अयोग्य हो गये हैं। इसीलिए हम अनायक या बहुनायक हैं । पूज्य श्री बाबाजी तो अनुशासन क्या आत्मानुशासन और एकताके आदर्श हैं । यही कारण है कि दर्शनार्थी उनके पीछे चलता है और विविध विचारोंके लोग उनके पास जाकर विरोध भूल जाते हैं। संसारके दुःखसे बचने तथा लौकिक और लोकोत्तर सुखको पानेके लिए चले इस महा समरके महा सेनानी वर्णोजी से यदि कोई वस्तु जैनसमाज तथा मानवसमाजको सीखनी है तो वह है अात्मानुशासन, जिसके आते ही लौकिक अनुशासन स्वयमेव प्राप्त हो जाता है। मुझे जब जब उनका ध्यान आता है तो मुख से यही निकलता है 'चिरायु हों हमारे बाबाजी ।' सागर] (पं०) मुन्नालाल रांधेलीय, न्यायप्तीथ पचीस Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ली - अभिनन्दन ग्रन्थ बौद्धिक अहिंसाका विशुद्ध रूप स्याद्वाद, विश्वशान्ति समृद्धिका एक मात्र साधन अहिंसा और अपरिग्रह तथा स्वतन्त्रताका सर्वोत्कृष्ट स्वरूप कर्मवाद अथवा अनीश्वरवाद ये तीनों जैनधर्मकी असाधारण विशेषताएं हैं। इनका मूर्तिमान् उदाहरण मैं पूज्य श्री बाबाजी को मानता हूं ! फलतः मैं उनके चरणों में नत हूं । सागर ] (पं०) दयाचन्द्र, सिद्धान्तशास्त्री 卐 बड़ौत ] 5 5 श्रद्धेय वर्णीजी महोदय मेरे जीबनके सर्वप्रथम और सर्वोत्तम उपकारी हैं । (पं०) तुलसीराम, वाणीभूषण 卐 卐 சு पूज्यवर वर्णीजी भारतकी उन विभूतियों में से हैं जिन्होंने अहर्निश श्रविश्राम जन हित करनेमें अपने जीवनका क्षणक्षण विताया है । अध्यात्म प्रेमी होते हुए भी आपने जनताकी समस्त आवश्यक सेवाओं में योगदान दिया है । पथ बिचलितों को सुपथ पर लाना आपका व्रत है । वर्गीजीकी जीवन घटनाओंसे प्रत्यक्ष है कि श्राप बने हुए सन्त नहीं हैं बल्कि स्वभावतः साधुप्रकृति महात्मा हैं । वर्तमान समय में ज्ञान और चरित्र एक साथ नहीं रहते । भोले भाले त्यागी चरित्र धारण करते हैं और विद्वान दूसरोंके सूक्ष्म दोषोंकी प्रत्यालोचना करनेमें ही अपना समय निकाल देते हैं । निर्मल चरित्र धारण नहीं करते, परन्तु वर्णीजीने सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तीनोंको एक ही साथ अपना कर त्यागियों तथा विद्वानों के लिए पुनीत पथ प्रदर्शित किया है । आपकी प्रगाढ़ देशभक्ति, सन् १९४५ में जबलपुर में आजाद हिन्द फौजके सैनिकों की रक्षार्थ आयोजित सभा में कहे गये "जिनकी रक्षा के लिए ४० करोड़ मानव प्रयत्नशील हैं उन्हें कोई शक्ति फांसीके तख्ते पर नहीं चढ़ा सकती, आप विश्वास रखिये; मेरा अन्तःकरण कहता कि आजादहिन्द सैनिकोंका बाल भी बांका नहीं हो सकता" शब्दोंसे स्पष्ट है । अपनी भगिनी पू० चन्दावाईजीको दत्त सरल सुबोध अनुभूत दृष्टान्त श्राज भी ज्योंके त्यों स्मरण हो आते हैं । 'कभी कभी भाव हिंसा होकर कर्मबन्ध हो जाता है परन्तु द्रव्यहिंसा नहीं होती वल्कि इसके विपरीत उस हिंस्य प्राणी का भला हो जाता है।' इस जटिल सिद्धान्तको आपने म० प्रा० में एक गृहस्थ पति-पत्नी रहते थे उनके एक पुत्र बड़ी प्रतीक्षाके पश्चात् उत्पन्न हुआ परन्तु चार वर्षका होने पर भी दैवयोगसे नहीं चल सकता था, दोनों पैर उसके जुड़े हुए थे । डाक्टर कहते थे कि बड़ा हो जाने पर श्रपरेशन होगा तब शायद ठीक हो जायेगे । पुत्रके इस रोगसे दम्पति चिन्तित रहते थे । एक दिन रात्रि में उनके घर में चोरोंने श्राक्रमण किया और खोज करने पर भी जब माल हाथ न लगा तब क्रोधित होकर छब्बीस Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि उस बालकको छत परसे नीचे गिरा दिया। माता पिता हाय हाय करने लगे, नीचे दौड़े बालकको उठाकर देखते हैं तो उसके पैर खुल गये हैं और जुड़ा चमड़ा फट गया है, बालक मजेसे चलने लगा ।" दृष्टान्त द्वारा हिंसक चोर भी पुण्यवान बालकका कुछ नहीं विगाड़ सके उन्होंने हिंसाके भाव करके अपना ही बुरा किया और हिंस्य बालकका भला । ऐसे सरल हितोपदेष्टा पूज्यश्री के लिए मैं करबद्ध श्रद्धाञ्जलि समर्पित करती हूं। बाला विश्राम, आरा] (पं०) ब्रजवालादेवी जैन पूज्य श्री १०५ सु० गणेशप्रसादजी वर्णीका ध्यान आते ही भरतेश वैभवम्' के यशस्वी लेखक रत्नाकर वर्णी मेरे मानस क्षितिजपर उदित होते हैं । वर्णीजीको यदि 'धरती सुत' कहें तो शायद उनके अनेक गुणोंका कुछ संकेत मिले ? कहां विन्ध्याटवीके अञ्चलमें जन्म, कहां साधारण शिक्षा, कहां वह निसर्गज सद्धर्मानुराग, कैसी वह ज्ञान पिपासा और दारुण महानिष्क्रमण तथा परिभ्रमण, कहां वह अनवद्य पांडित्य, कहां वह शिक्षा-संस्था-तीर्थ प्रवर्तन, कैसी अद्भुत लोकसंग्राहकता तथा सर्व-नेतृत्व और फिर कैसा वह गांव, गांव झोपड़ी, झोपड़ीविहार । सचमुच यह वर्णी भी 'भारत वैभव निर्माता' वर्णी हैं । उनके चरणोंमें साष्टाङ्ग सप्रणाम वन्दना । शोलापुर ] ( पं० ) वर्द्धमान पार्श्वनाथ, शास्त्री, आदि भूखेको रोटीकी प्राप्ति परम पुरुषार्थ-सिद्धि है । दारिद्रय तथा अज्ञान शत्रुत्रोंसे पदाक्रान्त वन्य बुन्देलखण्ड भूमिवासी हम लोंगोंकी आज शिक्षितोंमें गणना पूज्य श्री के ही कारण है । उन्होंने ज्ञानाञ्जन शलाकासे अज्ञान तिमिरान्ध हम लोगोंके नेत्र खोल दिये हैं, यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम उनसे केवल धन-मकान-स्त्री देखें या समाज तथा धर्म देखें । यदि दूसरे पक्षको ग्रहण कर सके तो 'तस्मै श्री गुरवे नमः' कहनेके अधिकारी हो सकें गे । सागर ] (पं०) मूलचन्द्र बिलौवा __पूज्यपाद वर्णाजी संसारके उन महापुरुषोंमें से हैं जिन्होंने जनताके उपकारके लिए अपने बड़ेसे बड़े ऐहिक स्वार्थका त्याग किया है । आपमें प्रारम्भसे ही ज्ञान निष्ठा और परोपकार वृत्ति आकण्ठ भरी हुई है । जैन समाजमें जो आज प्राचीन शिक्षाका प्रसार है जिस पर कि हमारी संस्कृतिका आधार है उसका बहुत बड़ा श्रेयोभाग आपको है। जो भी सम्पर्कमें आया वह अन्तरंगमें मायाशून्यता, सत्यनिष्ठा, प्रकाण्ड पाण्डित्य, विद्वत्ताके सत्ताईस Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ साथ चरित्र सहयोग, प्रभावक वाणी, परिणामोंमें अनुपम शन्ति, एवं आत्मिक और शारीरिक चरित्रकी उज्ज्वलता, आदि गुणराशिसे प्रभावित हुए विना नहीं रहा है । आपने ही जैनसमाजको तो सत्पथ दिखलाया है । अतः मैं पुज्यपाद श्रद्धेय वर्णीजी के प्रति श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हुआ आपके नैरोग्यपूर्ण दीर्घजीवनके लिए अनन्त महिम भगवानका स्मरण करते हुए कामाना करता हूं। जयपुर] (पं०) इन्द्रलाल, शास्त्री, विद्यालङ्कार 卐 जैनसमाज ही नहीं भारत भर में अज्ञान और त्याग का गठबन्ध है । त्यागी ज्ञानी नहीं, ज्ञानीमें अतृप्त वासनाओंका नर्तन है फलतः त्याग नहीं । पूज्य श्री वर्णीजी वह महाविभूति हैं जिन्होंने त्यागकी उत्कट भावना होते हुए भी पहिले ज्ञानार्जन किया, फिर स्वर्गीय मातु श्री (चिरोंजा-) बाईजी ऐसी निसर्ग विदुषीकी तीक्ष्ण एवं स्नेहालु देख रेखमें क्रमशः त्याग मार्ग पर पग रखे। यही कारण है कि ये जैनसमाजकी अनुपम सेवा कर सके हैं । हे राजर्षि ! शतशःप्रणाम । ईसरी-विहार ] (पं०) कस्तूरचन्द, शास्त्री काश ! भरतमें वह परम्परा फूलती फलती जिसे स्याद्वादसे प्रभावित हो उपनिषत्कारोंने अपनाया था तो 'हरिस्तना ताडयमानोऽपि न गच्छेज्जैन मन्दिरम्" ऐसी संकुचित मनोवृत्ति विद्वानोंमें घर न करती । और न जैनियोंमें ही सभ्यक दर्शनके दोष आठ मद ही आते । तब वणोजी जैनसमाजके क्षेत्रमें ही सीमित न रहते अपितु 'विश्व विभूति' होते । सहारनपुर ] नोमिचन्द्र, बी० कोम०, एल-एल० बी० त्यागमूर्ति न्यायाचार्य पण्डित गणेशप्रसाद वर्णीजी जैन समाजके अद्वितीय रत्न हैं । अपने अनुपम ज्ञानार्जन करके उसके साथ जी अनुपम वैराग्य भावना को अपनाया है वह हम सबोके लिए गौरव की वस्तु है। ___ आप जैनसमाजकी दशा सुधारने और उसमें जागृति उत्पन्न करनेके लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे हैं । उनकी प्रोजमयी मूर्तिके दर्शन करने व आपसे सद्धर्ममय-देशनाकी प्राप्ति होने से प्रत्येक मुमुक्षुकी आत्माको जो शान्ति प्राप्त होती है वह केवल अनुभवकी ही बात है । ____ आप संसारमें जैन वाङ्मय के प्रचारार्थ सदैव उत्सुक रहते हैं और सारा जीवन आपने जैन धर्म और जैन वाणीकी सेवा में लगाया है । केवल धार्मिक ही नहीं सामाजिक उन्नतिके लिए भी आप प्रयत्नशील हैं। कई स्थानोंपर जटिल समस्याएं उत्पन्न हुई अोर भिन्न तथा एक जातिमें भी संघर्ष के. अट्ठाईस Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि वातावरण उत्पन्न हुए, उनको आपने अपने प्रभाव और न्यायसे ऐसा सुलझाया है कि वह सब उदाहरण की बातें बन गयीं हैं । इससे आपका प्रशस्त सुधारक स्वरूप सामने आ जाता है जिसकी आधुनिक समयमें अत्यन्त आवश्यकता है। . इसी प्रकार इस नश्वर शरीरको अायु पर्यन्त धर्म साधन के लिए दृढ़ और नीरोग रखनेके लिए भी जैन विद्वानोंको आपने आयुर्वेद शास्त्र पढ़नेके लिए उत्साहित किया और उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया है। किन्तु आप स्वयं बड़े भारी वैद्य हैं क्योंकि हम तो त्रिफला आदि ही बांटते रह गये, और आपने व्रत संयम ग्रहण करने का उपदेश देकर शारीरिक तथा आध्यात्मिक रोगों की उत्पत्तिकी साधन सामग्री ही दूर कर दी है। आप चिराय हों यही भावना है । कानपुर ] (हकीम) कन्हैयालाल जैन, राजवैद्य विद्यार्थी कृतज्ञके सिवा क्या कुछ और भी हो सकता है ? फिर उस महागुरूके प्रति जिसका वात्सल्य विद्यार्थी मात्रके लिए सदा खुला रहा है । इतना ही नहीं अप्रिय अनिष्टकारी छात्रोंपर उन्हें जो रोष आता था वह उनके मुख मण्डलका रक्तवर्ण करके विद्यार्थी हृदयको द्रुत कर देता था। जतारा निवासी होने के कारण मुझपर उनका भ्रातृस्नेह रहा क्योंकि इस ग्राम के पास सिमरामें उन्हें अपनी धर्ममाता मिली थीं । अतएव अधिक न लिखकर चरणोंमें विनयावनत प्रणाम । कानपुर] ___ (पं०) बंशीधर, न्या० ती० पूज्य वर्णीजीसे साक्षात् अध्ययन करनेके कारण मैं तो उनका चरण चञ्चरीक हूं। आपमें कषाय, मरुस्थल में जलरेखा वत् समा जाती है। उनके सान्निध्यमें आनेवालोंको अनायास ही शान्ति, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा, आदि की प्राप्ति होती है । उनके 'दृष्टि निर्मल बनाओ, निकट आनेवालोंको डांटो मत, भाग्यपर विश्वास रखो, संसार में सुख चाहते हो तो बुद्ध से बनकर रहो' श्रादि वाक्य सदैव याद आते हैं । पारसनाथ ] (पं०) शिखरचन्द्र, शास्त्री, न्याय-काव्यतीर्थ जब जब पूज्य श्री १०५ वर्णीजीका ध्यान करता हूं तब तब वह शीतकाल याद आता है जिसमें उस बुढियाने कहा था "बड़ी भली आदमन हो बऊ ! कडाकेकी ठंड पर रई है और मौड़ाकों पतरीसी कतैया पैरा राखी है । अबई से साधु बनाउने है का ? सम्हारर्के राखो ‘जो धूरा भरो हीरा आय ।' वर्णीजीकी जीवन सरिताके किनारे चलिये; स्कूल गये पंडितजीने देखा डरपोक सीधा लड़का है कहा हुक्का भर लामो, देर लगी, बुलाया देखा खाली हाथ, क्योंरे गणेश ? "पंडितजी कौन अच्छी आदत आय, उन्तीस Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण-अभिनन्दन-ग्रन्थ हाथसे छिटक गो, फूट गरो।" चलो छुट्टी भई अब नई पियें ।' सहयोगियोमें चर्चा अायी, शासन और स्कूल गये नहीं भाई 'धूलि पड़ा हीरा है।' x X __काशी आये विद्वनों के यहां गये उन्होंने अब्राह्मण कहकर ठुकरा दिया। शास्त्रीजीके यहां पहुंचे विनम्रता पूर्वक विनयकी अांखें उठायी सामने दुर्वासा ऋषि हैं । अपमान और भत्सना धारापात, लौट आये। विद्यार्थी-वत्सल शास्त्रीजीका क्रोध शान्त हुआ कैसा सौम्य लड़का है, मैं व्यर्थ कुपित हुआ, नहीं उसे पढ़ाऊंगा 'वह धूलि भरा हीरा' है। x पपौरा में परवार सभा होने वाली थी। किसे अध्यक्ष बनाया जाय ? पैसे का नेतृत्व जो ठहरा 'ये सिंघई, वे सेठ, आदि शुरू हो गया। किसी कोनेसे आवाज आयी जिसने स्याद्वाद, सर्तक, आदि अनेक विद्यालय खोल कर विद्वत्सरिता वहा दी है उस 'धूलि भरे हीरा' को। फिर क्या था बहुत ठीक, बहुत ठीक का समा बंध गया। जबलपुरके नेता आजाद हिन्द फौजकी रक्षाके लिए चन्दा करनेको सभा करनेके लिए चिन्तित हैं,जैनियोंसे कहो ।'जाने भी दो अपने साधुनोंको सब कुछ मानते हैं,और वे साधु न जाने क्या बोलते हैं । वही बोलें वही जानें । "इससे क्या मतलब पैसा तो यहां वही दे सकते हैं । अच्छा करिये । ठसाठस भरी सभा मञ्चपर एक मझौले कदका सांवला वृद्ध किन्तु तेजस्वी साधु दो चादर श्रोढ़े आ बैठा। लोग बोले, बाबासे पं० द्वारकाप्रसादने कहने के लिए आग्रह किया। बाबा दो चार वाक्य बोला और उसी कड़ाके की ठंड में उसने अपनी एक चादर उतार कर भेंट कर दो। ठिठुरते सिकुड़ते लोगोंकी शारीरिक ही नहीं आन्तरिक ठंड भी विदा हो गयी । वह चद्दर ही तीन हजार में विका और लग गयी वर्षा रुपयों,गहनों,आदि की । पं० मिश्र बोले महाराज ! श्रांखे श्राज खुली हैं, धन्य हैं, आप 'धूलि भरे हीरा हैं।' अतः हे ! हीरा गुरु हम शिष्य धूलि कणोंका आपसे अनादि सम्बन्ध मोक्षान्त हो । स्या० दि० जैन विद्यालय काशी - (वि०) नरेन्द्र, धनगुंवा काश! मैं पढ़नेका लक्ष्य आत्मसुधार करता तथा अपने ज्ञानपर अमल कर सकता तो पूज्यश्रीके चरण कमलों में श्रद्धाञ्जलि समर्पित करनेका अधिकारी होता। रायपुर - (पं०) बालचन्द्र, शास्त्री, का० ती० तीस Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीत सागर में आयी एक लहर वह नव उमंग का मृदुल-लास, लहराती लेकर नया हास वह ज्ञान-ज्योतिकी स्वर्ण किरण, तम में भी देती दिवि-प्रकाश __ बिखराती मुक्ता छहर-छहर ! वह सब लहरोंमें चिर-नवीन; भीतर सुस्थिर, बाहर प्रवीण जिसका दर्शन कर; अंतर में, बज उठती सहसा मधुर वीन प्रतिध्वनि करती प्रत्येक पहर ! वह बुद्ध-मूर्ति-सी जंगल की; सबकी, जल-थल-नभ मंडल की रवि से आलोकित- कुसुमाकर, किरणें विखेरती मंगल की प्रस्तुत करती नव-संवत्सर ! तट - जनके रीते - से मनकी, पूरक बन कर वह कण-कण की झंकृत करती स्वर-लहरी से, ध्वनि एक उसी, मनमोहन की पल-पल करती शीतल, अंतर ! सागर में आयी एक लहर सागर ] (पं०) पुरुषोत्तम दास कठल, बी० ए० इकतीस Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ आति वाचक होकर भी वर्णी शब्द आज व्यक्ति वाचक हो गया है , कारण उसके सुनते ही पूज्य पं० गणेशप्रसाद वर्णीकी श्यामल कृश सरल मूर्ति सामने आ जाती है। उनकी दृष्टिमें मानव मात्र समान है। अपने सरल त्यागी रूपके कारण ही आप भावुक जैनेतर जनताके भी वन्द्य हुए हैं । श्राप करुणा-पावस हैं जिसके श्रासारमें पात्र अपात्रका विचार ही नहीं रहता है । अभी आप ७४ वर्षके हैं । यही भावना है कि आप सैकड़ों ७४ वर्ष जैन समाज और विशेष कर विद्वद्वर्गपर अपना करुणा रस बरसाते रहें। सूरत ] (मास्टर) ज्ञानचंद्र 'सवतंत्र' मैं सागर विद्यालयमें पढ़ता था और स्याद्वाद विद्यालय काशीमें प्रविष्ट होना चाहता था,लेकिन दुर्भाग्य वश भूलसे पत्रोंसे मेरी अनुत्तीर्णता प्रकाशित हो गयी, अतः स्या० वि० काशीके लिए अयोग्य साबित हो गया । सागरसे भी ट्रान्सफर सर्टीफिकेट ले चुका था, अतः पुनः प्रविष्ट होना टेढ़ी खीर थी। इस समय मैं घरका न घाटका था। अनुनय विनय सभी शक्य उपायोंका प्रयोग कर चुका था, लेकिन सब बेकार; अन्तमें पूज्य वर्णीजीकी शरण ही सरल सुगम एवं श्रेयस्कर समझी । उनके पास पहुंचकर मैंने अपना रोना रोया, वे बोले, "भैया, तुम लोग पढ़त लिखत तो हो नहीं,और फेल होके हमारे पास रोउत आ जात हो, भैया अपन तो कछू नहीं जानत तुम जानों तुमानो काम जाने" क्षण भर ऐसा लगा कि यहां भी सुनवायी न होगी ये भी औरोंके समान कठोर हैं तथापि मैं अपनी सफाई पेश करने में लगा रहा ! वन्दनीय महामना को पात्र अपात्रका विचार भी बहा देने वाली अपनी करूणाधारा रोकना असम्भव हो गया । व्यवस्थाभंगने क्षण भर रोका, किन्तु बेकार, पेन्सिल उठायी और अपने दया-चालित करकमलों द्वारा स्या० वि० काशीको लिख दिया “यदि रिक्त स्थान हो इसे दे दिया जाय।'' मुझे स्थान मिल गया। अङ्कानुसन्धान कराने पर मैं उत्तीर्ण भी हो गया। जैनसमाजके मुकुटमणि विद्यालयके व्यापक एवं विकासशील वातावरणमें अपनी अपूर्णताओंको भी पूर्ण कर सका। जिस वन्दनीय महापुरुषकी दयासे यह सम्भव हुआ उसका स्मरण आते ही 'नारिकेल समाकारों' मुखसे निकल पड़ता है । चौरासी मथुरा - (विद्यार्थी) कुन्दनजैन पू० श्री वर्णीजीका जब ध्यान अाता है तो यह सोचना असंभव हो जाता है कि उनमें क्या नहीं है ? उन सब योग्यतारोंमें दुर्बल और पतितके प्रति उनकी शरणागत-वत्सलता सर्वोपरि है। वे चिरकाल तक हमारा पथ प्रदर्शन करें यही भावना है। वर्णी संध] (६०) चन्द्रमौलि, शास्त्री बत्तीस Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि पूज्य वर्णी जी महाराजके दर्शन करनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ । उनकी शान्तमुद्राका अवलोकन कर अलौकिक शान्तिका लाभ होता है। श्रद्धेय वर्णाजी महाराजकी मधुर वाणीसे भगवान् कुन्दकुदाचार्य के अध्यात्मप्रधान समयसारके सार गर्भित धाराका प्रवाह श्रोताको मन्त्रमुग्ध कर देने वाला अन्तस्तलस्पर्शी विवेचन सुन कर तो आनन्दकी सीमा ही नहीं रहती । मैं तो उन्हें विक्रमकी इक्कीसवीं शतीका सर्वोपरि जैन तत्ववेत्ता विद्वान और अध्यात्मवादका अनुपम रसिक और परम सम्यग्दृष्टि मानता हूं । वे समाजकी अनुपम निधी हैं, उन्होंने समाजके कल्याणार्थं अपने अतुल अमूल्य जीवनका बहु भाग विताया है जो कृतज्ञ समाजसे अविदित नहीं है । उन जैसा निरीह, मृदुल परिणामी, मधुरभाषी, मन्दकषायी, उदारहृदय, स्वानुभूति निरत, निश्छल व्यवहारी, परहित व्रती, परमज्ञानी उत्कृष्टत्यागी, वर्तमान त्यागीवर्गमें उपलब्ध होना कठिन ही नहीं प्रत्युत दुर्लभ है। ऐसे महापुरुष के चरणों में श्रद्धाअर्पण करते हुए मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूं और भगवान् वीर के चरणों को ध्याता हुआ उनकी चिरायुष्यता की कामना करता हूं । इन्दौर ]— 卐 சு श्री वर्णीजीका व्यक्तित्व महान् है । महान्का शब्दों में वर्णन करना उसे सीमित बनाना तथा ( सर सेठ ) हुकुमचन्द स्वरूपचन्द 卐 महान्की महत्ताको ठेस पहुंचाना है । श्री वर्णोजीका जीवन जैनसमाज रूपी संसार के लिए सचमुच ही एक सूर्य है । आपने अपने बढ़े हुए विद्या और तपोबल से जैनसमाजका जो मार्ग प्रदर्शन किया है वह जैनसमानके इतिहासकी एक अमर कहानी होगी। वर्णाजी ज्ञानबल में जितने बढ़े हुए हैं चारित्रबल में उससे भी कहीं आगे हैं । यही आपके जीवनकी अनुपम विशेषता है। ज्ञान और चरित्रका जो सुन्दर समन्वय यहां है वह अन्यत्र बहुत कम मिल सकेगा। आपके विद्याप्रेमका यह ज्वलन्त उदाहरण है कि जैनसमाजकी अनेक शिक्षण संस्थाएं साक्षात् एवं श्रसाक्षात रूपसे आपसे पोषण प्राप्त कर रही हैं। श्री जी जैसे व्यक्तिका नायकत्व जैनसमाजके लिए एक गौरव और शोभाकी वस्तु है । मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि यह ज्ञान ज्योति सतत जागती रहे और जैन समाज तथा देशके कल्याण के लिए एक चिरस्मरणीय वस्तु बन जावे । देहली ]-- 卐 वर्तमान समाजका प्रत्येक व्यक्ति है। उनकी सरल प्रकृति, गम्भीर मुद्रा, ठोस ( बा. ) राजेन्द्र कुमार जैन फ 卐 श्री १०५ न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी से परिचित धार्मिक ज्ञान, अटल श्रद्धानादि गुणोंके द्वारा लोग सहज तैंतीस Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ ही उनके अनन्य भक्त बन जाते हैं। उपदेश देनेकी शैली अनुपम है। आप बिल्कुल निस्पृह हो प्राणि मात्रके कल्याण को सदैव कामना करते हैं । यदि कोई विवादास्पद विषय आपके समक्ष उपस्थित किया जाता है तो आप अपनी प्रकाण्ड विद्वत्ता द्वारा दोनों ही पक्षोंको युक्तियुक्त आगमिक उत्तर द्वारा सन्तुष्ट कर देते हैं। आपको विद्या प्रसारका व्यसन है, जिसकी साक्षी समाजके महाविद्यालय हैं, आपने विद्यादानके लिए जो अपनी निजी सम्पत्तिका उत्सर्ग किया है वह वह विद्याप्रेमी विद्वानोंके लिए भी अनुकरणीय है । आप चिरायु होकर जैनधर्मकी सेवा करते हुए श्रात्मोद्धारके साथ साथ लोकहित भी करते रहें यही मेरी भावना है। अजमेर - -(सर सेठ ) भागचन्द्र सोनी पूज्य श्री १०५ वाजीके निकट आनेका जिन्हें भी अवसर मिल सका है वे उनकी विशालता और सौजन्यसे मुग्ध हुए बिना नहीं रह सके । उनकी विदवत्ता और प्रतिभाशाली व्यक्तित्वसे कौन ऐसा है जो कि प्रभावित और चमत्कृत न हुआ हो ? उनकी कल्याणी वाणीने हमारे जनमनको शुद्ध और संस्कृत करनेमें जो अमूल्य सहायता की है उसके हम सभी चिर अाभारी रहेंगे। युग प्रवर्तक जैनधर्मके प्रकाश स्तम्भ श्री १०५ वर्णाजी की स्मृति सामाजिक जीवनमें सदैव जगमग रहेगी। उन्हें स्मरण कर हम सदैव पुलकित प्रोत्साहित होते रहे हैं और होते रहे गे । बम्बई ] ( शाहु ) श्रेयान्सप्रसाद प्रातः स्मरणी पूज्यपाद पण्डित गणेगप्रसाद जी वर्णी न्यायाचार्य के अभिनन्दन समारोहके शुभ अवसर पर उनके प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए मैं अपना अहोभाग्य समझता हूं। पूज्य वर्णीजी ने जैनसमाजके अज्ञान तिमिरको दर करनेका अहर्निश प्रयत्न किया है। आपके द्वारा संस्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी आदि विद्यालय और गुरुकुल आदि संस्थाएं जैनसमाजमें शिक्षा प्रचारका श्रादर्श कार्य कर रही हैं । इन संस्थानोंमें शिक्षा प्राप्त करके तयार हुए अनेक विद्वान् जैन समाज और देशकी जो अनुपम सेवा कर रहे हैं उससे भारतवर्षमें जैनसमाजका मस्तक सदैवके लिए ऊंचा हो गया है। पूज्य वणोंजी जन्मजात अजैन होते हुए भी अपनी तीक्ष्ण दृष्टि द्वारा जिस प्रकार जैनधर्मको खोज सके तथा उसके प्रतिभाशाली विद्वान त्यागी पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं वह सबोंके लिए अनुकरणीय होते हुए भी एक श्रद्धाकी वस्तु है । वांजीके दर्शन मात्रसे जो अानन्द पाता है वह उस समय और भी अकथनीय हो जाता चौतीस Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि है जब आप धाराप्रवाह वैराग्यमय उपदेशसे हृदयको आनन्द विभोर कर देते हैं । मैं पूज्य वर्णोजीको अपनी विनय युक्त श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हुआ, उनके चिरजीवी होने की शुभकामना करता हूं जिससे विश्वका कल्याण हो । कानपुर ] (बाबू ) कपूरचन्द्र धूपचन्द्र जैन 卐 'गतानुगतिको हिलोकः' बहुत समयसे मेरे मनमें धर्मकार्य करनेकी इच्छा रहती थी। मेरे प्रान्त तथा वंशमें रथयात्रा, श्रादिकी प्रथा है । मनमें संकल्प किया रथ चलाऊ और श्रीमन्त सेट बनकर पिताजी के धरकी शान बढ़ाऊं । भगवान् वीरको इस क्षेत्रकी जनता स्वयमेव जान जायगी जब पंच कल्याणकोंकी झड़ी लगे गी। याद आये वर्णोजी कहते हुए 'शास्त्र दान सब दानोंसे बड़ा है ।' वही करू, वर्णीजी ठीक ही कहते हैं 'नाम पै मत मरो, काम करो।' मेरा परम सौभाग्य जो मुझ ऐसे व्यक्तिके पैसेके निमित्तसे 'वे धवल सिद्धान्त ग्रन्थ' प्रकाशमें आये जिनके दर्शन के लिए लोग तरसते थे । लडका हा. फिर दान करनेकी इच्छा हुई। बाबाजीसे मिला "अरे ए भैया काये को संकल्प विकल्प करत हो पाठशाला हैई स्कूल और खोल दो।" आज वह स्कूल कौलेज हो गया मुझे समाज, राज तथा देशमें सम्मान मिल रहा है। धर्मका सार क्या है यह तो वर्णीजीने ही बताया है। उनकी विद्वत्ता, सभा चातुर्य, भाषण शैली, दया-माया, आदिकी मैं क्या तारीफ कर सकता हूं। मेरे लिए तो “वलिहारी गुरु आपकी जिन गुरू दियो बताय ।" मेरे सवर्गीय बाबाजीके आदेश पर चलें और बाबाजी चिरकाल तक हमारे बचे रहैं यही वीर प्रभुके चरणोंके स्मरण पूर्वक भावना है। दानवीर-कुटीर भेलसा ] ( श्रीमन्तसेठ) सितावराय लक्ष्मीचन्द 卐 पूज्य पं. गणेशप्रसादजी वर्णी बुन्देलखण्डकी पवित्र देन हैं इसलिए बुन्देलखण्डको अभिमान नहीं है, किन्तु बुन्देलखण्डी भाषाके लालित्य और सरलताका सामञ्जस्य जिस प्रकार पूज्यवर के गहन तत्त्व-पूर्ण उपदेश की शैलीमें चमका है उसका अवश्य हो बुन्देलखण्ड उतना ही अभिमान कर सकता है जितना गुजरात विश्ववन्द्य महात्मा गांधी पर करता है । चन्दनके वृक्षसे चिपटे हुए सर्प जिस प्रकार मधुर ध्वनि सुनकर हठात् शिथिल हो जाते हैं उसी प्रकार मनुष्यसे लिपटे क्रोध-मान माया-लोभादि कषाय रूपी सर्प उपदेश सुनते ही क्षण भरके लिए स्वयं ही शान्त हो जाते हैं। इसमें वर्णीजीकी सरल विद्वत्ता पूर्ण भाषा ही मुख्य कारण है। चूंकि वीजी स्व-पर कल्याण की भावनामें अधिक व्यस्त रहते हैं इसलिए भले ही कोई उनकी भोलो शकल परसे गलत और तदनुसार पांडित्यपूर्ण दलीलें देकर अपना काम निकालनेका पंतीस Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वक्तव्य या पत्र लेकर चला जावे किन्तु यह ख्याल कर लेना कि 'वर्णीजी बहुत भोले हैं, बड़े सीधे हैं, इसलिए मैंने उन्हें ठग लिया' विल्कुल भ्रमपूर्ण ख्याल है । यथार्थ स्थिति, वर्तमान वातावरण, समयकी उपयुक्तता एवं भविष्यको सम्भावनाअोंको मद्दे नजर रखते हुए, सही सूचनाओं के आधार पर जब भी कभी वर्णाजी कोई व्यवस्था देते हैं तब वह पूर्ण उपयुक्त तो होती ही है सर्वमान्य भी हो जाती है। यही कारण है कि दलबन्दीमें पड़े लोग ( सुधारक स्थिति पालक और मुखिया शाही वाले ) उन सब मसलोंका मुकम्मिल फैसला हमारे वर्णीजी से करानेको राजी नहीं होते हैं; जिनके कारण जैन समाजमें फूटका साम्राज्य छाया हुआ है क्योंकि उन्हें भय बना रहता है कि कहीं वर्णीजीकी व्यवस्थाके विरुद्ध हमारा प्रचार निरर्थक न हो जाय ! ऐसे प्रसंगों पर अच्छी तरह समझने वाले विद्वान वर्णीजीको भोले-भाले सीधे-साधे, सच्चे धार्मिक, आदि, खिताबात देकर विषय टाल देते हैं। लोग अपने स्वार्थसे वर्णीजीके नामका उपयोग कर लेते हैं पर उनकी पूरी सम्मतिको कभी नहीं मानते हैं। वर्णीजीके अपूर्व-प्रभावको सब ही महसूस करते हैं । उनके विरुद्ध सफल आवाज उठाना टेढ़ी खीर है; यह भी मानते हैं फिर क्यों उनका पूरा लाभ नहीं उठाया जाता है ? क्यों उनके आदेश नहीं माने जाते ? उत्तर है, जैन समाज संसारका छोटा रूप है, उसमें भी सव शक्तियां और कमियां हैं । इसीलिए तब बहुत बेचैनी होती है जब हम यह सोचते हैं कि पूज्य वर्णीजी अब काफी वृद्ध हो चुके हैं उनके शरीरमें शिथिलता आ रही है, वे हमारा साथ कब तक दे सकेंगे। इनके बाद भी क्या हमारे बीच में कोई ऐसा प्रभावक नेता है जिसके भाग्यमें ऐसी सर्वमान्यता पड़ी हो । श्री जिनेन्द्र के स्मरण पूर्वक प्रार्थना है कि हम सैकड़ों वर्षों तक पूज्य वर्णीजीका सहयोग प्राप्त कर सकें। सिवनी] (श्रीमन्त सेठ) विरधीचन्द वर्णीजी केवल जैन समाजकी विभूति नहीं, वे समस्त मनुष्य व जीवमात्रके लिए हैं। मैं जयसे उनको जानता हूं तभीसे आज तक मैंने उन्हें आदर्श, सच्चे व निर्मल विद्यार्थी के रूप में पाया है। वे सदैव इस खोजमें लगे रहे कि जीव मात्र व विशेषतः मनुष्य मात्रका सुख किस मार्गमें है व उसी मार्गको उज्वल व प्रकाशमान बनाने का प्रयास हमेशा करते रहे हैं। यह तो किसीसे छिपा नहीं कि वे सरलताके सागर हैं आदर्श मनुष्य जीवनके उदाहरण हैं । द्रव्योपार्जनके लिए ही मनुष्य बुद्धि उपार्जनमें लगा रहता है, जीवन भर धन के पीछे दौड़ता है, मार्ग भूल जाता है, धन भी छल कपटसे उसके आगे आगे भागता है । पर इस धनने वर्णीजीसे तो हार छत्तीस Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि मान ली है वह पीछे पड़ता है पर वे उसे मार्गमें ही छोड़ते जाते हैं । कहते हैं उसे ग्रहण करनेमें नहीं परन्तु त्यागमें ही सच्चा कल्याण है। भी वर्णीजीके आदेशानुसार मनुष्य वर्गसे यही प्रार्थना की जा सकती है कि सभी सच्चे ज्ञान को प्राप्त करें व त्याग मार्गको अपनायें । जीवन भर प्रयास करके भी मनुष्य सच्चे सुख तक नहीं पहुंच पाते हैं । वर्णीजी कहते हैं कि त्यागको समझो और उसे अपनाओ, सच्चा सुख तुरन्त तुम्हारे पास आ पहुंचे गा। गांधीजीने जिस सत्यको ईश्वर कहा है, वणीजी उस सत्य और अहिंसाके व्यवहार हैं। वण जीके जीवनने हमें वह सुलभ मार्ग दिखाया है, जिस पर मनुष्य मात्र चलना सीख ले तो अपना, अपने समाजका, अपने देशका व सारे संसारका कल्याण करे गा, ऐसी मेरी आस्था है। सागर] ( सेठ) बालचन्द्र मलैया, बी० एस-सी० पूज्य वींजीके सम्पर्क में रहकर समाज सेवा करने में सबसे अधिक आनन्दानुभव हुआ । मेरे जीवन पर उनके चरित्र और ज्ञानकी अमिट छाप पड़ गयी। ४० वर्षोसे अधिक समय व्यतीत हुश्रा जब कि जबलपुर में एक कृश देहधारी किन्तु शुभ्र हृदय तथा आकर्षक मानवसे मिलनेका शुभ अवसर प्राप्त हुश्रा। उस मानवकी बोलीमें अपनाने और लुभानेकी शक्ति विद्यमान थी। सैकड़ों भक्तोंको पत्र लिखकर आत्मस्थ करनेका इनका प्रकार तो अद्भुत है । वे लिखते हैं-"अब तो सर्वतः चित्तवृत्ति संकोच कर कल्याण मार्गकी अोर ही लगा देना उचित है क्योंकि मानवीय पर्यायकी सफलता इसीमें है और यही इस पर्यायमें प्रशस्थता है जो मोक्षमार्गके द्वारका कपाट खुलता है तथा मूर्छाका पूर्णरूपसे प्रभाव भी यहीं होता है............ यद्यपि जैनधर्म में श्राश्रम नहीं फिर भी लोकाचार तो है ही।" लगभग तीन साल तक शिक्षामन्दिरके प्रचार कार्यमें मुझे उनके साथ रहनेका सतत सौभाग्य रहा है । मैंने देखा, कि 'यशःकीर्ति' नामकर्म नौकरकी भांति सदा ही उनकी सेवा करता रहा। मैंने नहीं जाना कि कोई भी व्यक्ति वर्णीजीसे विना प्रभावित हुए रहा हो । शिक्षामन्दिरका ध्येय सफलताकी श्रोर ही अग्रसर होता गया, परन्तु दुर्भाग्यसे कई अन्य कारणोंकी वनहसे हमारी श्राशा फलवती न हो पायो । उसी दौरानमें कई मधुर प्रसंग आये। एक दिन कहने लगे "भैया' उमरावसिंहने ब्रह्मचारी होनेपर अपना नाम ज्ञानानन्द रखा, मैं मौका पड़ा तो अपना नाम भोजनानन्द रखूगा" कैसी सरलता और स्वीकारोक्ति है। तारीफ यह कि भोजन अथवा व्यक्ति श्रादिका ममत्त्व उन्हें सैंतीस Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ आत्मानुभवसे विमुख करनेमें कभी भी समर्थ न हो सका । उनका आत्मध्यान सदा वृद्धिंगति ही रहा है। जब मैं वणाजी के बारेमें सोचता हूं तभी मुझे इस बात पर अटल श्रद्धा होती है कि 'पूवोंपार्जित पुण्य निश्चय ही अपना रस देता है. ..........' नहीं तो इस पंचम-काल में अजैनके घरमें जन्म प्राप्त व्यक्तिको सच्चा जैनी बननेका सद्भाग्य क्यों कर मिलता,"जब कि जैनकुलोत्पन्न व्यक्ति निकृष्टों जैसा हीनाचरण करते दृष्टि गोचर होते है ।" मर्यादाका सुन्दर निभाना तो उनकी अपनी खासियत है ।' दिगम्बर जैन मुनियोंके प्रति उनकी क्या आस्था है ? इस सामाजिक शंकाका उत्तर क्या "हे विभो ! वह दिन कब आवेगा जब मैं भी मुनि होऊंगा।" उद्गारसे नहीं होता ? आगन-प्रणीत मुनिमुद्राका क्यों न इच्छुक होगा ? और किसीका भी वीतरागताका उपासक व्यक्ति आत्मधर्म दिल दुखाकर अप्रसन्न न करने वाला साधु क्यों कर दिगम्बर साधुनोंके प्रति सविनय न होगा ! भगवान जिनेन्द्र के स्मरण पूर्वक सदा यही भावना भाता हूं कि पूज्यवर्णीजी चिरायु हों और उनके द्वारा संसारका कल्याण हो । सिवनी ] (सिंधई) कुंवरसेन दिवाकर पूज्यवर्णीजी जैनसमाजके उन रत्नोंमेंसे हैं जिनका प्रकाश वर्तमान में ही नहीं वरन सदा ही समाजके नौजवान कार्यकर्ताओंका पथप्रदर्शन करता रहेगा। उनका विमल शान, उनका श्रादर्श चरित्र और समाजके प्रति उनकी सेवाएं हमारे लिए अमूल्य देन हैं। अकेले उन्होंने समाजमें जो काम किया है वह सौ कार्यकर्ता मिलकर भी कठिनाईसे कर सकेंगे । परमात्माके ध्यानपूर्वक यही भावना है कि वे चिराय हो । आगरा ] महेन्द्र, सम्पादक, साहित्य सं० सुनते हैं पूज्यवणीजी महराजने बड़े बड़े काम करे हैं पर अपन तो अपने परसे सोचत हैं कि वे 'अांधरेकी लठिया' हैं। अज्ञान और गरीबीके मारुस्थल में पड़े हम बुन्देलखण्डीनको ये मतीरा होकर भी सागर से बड़े हैं। ईसे उनके चरणोंमें सैकड़ों प्रणाम । वांसखेडा ] (से०) मणिकचन्द्र अड़तीस Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय युग के अभिमान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो (१) वीर-देशनाका उर में अनुराग लिये हो, सत्य अहिंसा का प्रतीक वह त्याग किये हो । हो धार्मिक अभिवृद्धि निरन्तर उत्सुक साधक पाप होम के हेतु ज्ञान की आग लिये हो ॥ जय अलभ्य वरदान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो, जय युय के अभिमान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो । (२) तुम निश्चय में मग्न; किन्तु व्यवहार लिये हो, तुम जागृति के नित्य नये त्योहार लिये हो । तुम बिखरे से लक्ष्य-हीन इन वीस लक्ष्य में -- जान लाने ऐक्यवेणु केतार लिये हो || जय समाज के प्राण ! तुम्हारा अभिनन्दन हो, अभिमान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो । (३) जय युग आत्म शक्तिसे सत्त्वर पुनरुत्थान करोगे, नव विकास का यत्न अरे आह्वान करोगे । दर्शन ज्ञान चरित्र इन्हीं के बल पर तुम तो, मानव की लघुता को आज महान करोगे || जय समर्थ विद्वान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो, जय युग के अभिमान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो । (४) जय जिनके जयनाद ! तुम्हारा अभिनन्दन हो, जय सदगुरु की याद ! तुम्हारा अभिनन्दन हो । जय जीवित स्याद्वाद ! तुम्हारा अभिनन्दन हो, जय गणेश परसाद ! तुम्हारा अभिनन्दन हो || जय गौरव गुण खान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो, जय युग के अभिमान ! तुम्हारा अभिनन्दन हो । राजेन्द्रकुमार 'कुमरेश' आयुर्वेदाचार्य उनतालीस Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वर्णीजी महराजके प्रथम दर्शनका सौभाग्य १९२२ में मिला था। आपकी सारगर्भित सरल वाणी ने हृदय मोह लिया तभीसे मैं तो श्रद्धा में पग गया । सेठ मूलचन्द्र शराफकी पात्रता तथा जताराकी नजदीकीके कारण बरुअासागरमें आपके चरण पड़े । एकान्तमें ध्यान प्रेमी होनेके कारण पासकी छोटी पहाड़ीके भाग्य खुले और सराफजीके धनका कुटीरमें लग कर सदुपयोग हुआ। तथा भोले अशिक्षित, निर्धन, अतएव सबसे ठगे गये इस प्रा-तके लोगोंको उनका सच्चा हितू मिला । यहांके मनुष्य मात्रको आपसे सदाचार और शिक्षाकी प्रेरणा मिली है। अतः मैं उनके चरणोंमें श्रद्धा जलि अर्पित करता हूं। वरुणासागर ] - ( बाबू ) रामस्वरूप जैन बाबाजी आज ७५ वर्षकी उम्रके बाद भी उनमें युवकों जैसा उत्साह है, बालकों जैसी सरलता हैं; परन्तु वृद्धों जैसा प्रमाद उनके पास लेशमात्र भी नहीं है। उनकी लगन अद्भुत है। वे वक्ता नहीं स्वान्तःसुखाय कार्यकर्ता हैं और हैं, समाजके नेता भी । वह महात्मा हैं। वाणीमें जहां जादू जैसा असर है वहां चुम्बक जैसा अाकर्षण भी है। उनका क्षेत्र व्रतियों जैसा संकुचित नहीं । क्या आध्यात्मिक क्या सामाजिक क्या राजनैतिक सभी कार्यों में लोक संग्रहकी अभिरुचि रखते हैं । यदि राजनीतिकी श्रोर उनका झुकाव हुआ होता तो वे दृढ़तापूर्वक कार्य करके जैनसमाजका ही कायाकल्प न करते अपितु राजनैतिक क्षेत्रमें विशेष स्थान पाते । ___ वह दयाकी प्रतिमूर्ति हैं । कपट तो उनको एक नजर भी नहीं देखने पाया है । नियमित और सधे हुए वाक्य ही बोलते हैं। उनके कथनमें बनावटीपनकी गन्ध भी नहीं होती है। उसमें एक प्रेरणा होती है क्योंकि वह उनकी स्वकीय अनुभूतिका सच्चा निखार है। मित्रके प्रति उनकी जहां प्रेम भावना होती है वहीं शत्रुके प्रति केवल उदासीनता रहती है। वे स्वप्नमें भी शत्रुका बुरा नहीं चाहते । कहते हैं "अरे भैया ऐसो करें से पैले अपनो इहलोक परलोक बिगड़े। शत्रुके विनाशकी भावना हमें नहीं करना चाहिए अपितु उसको सुबुद्धि प्राप्ति की कामना करनी चाहिए। जी से वह भी अनुकूल होके हमें शान्ति दे और स्वयं भी आपतसे मक्ति पाए।" दया आजाद हिन्द फौजकी सुरक्षाके लिए अर्थ-संचयार्थ म० प्रा० के प्रधान नेता दुर्गाशङ्कर मेहता जबलपुर आये हुए थे । एक सभाका आयोजन हुआ, वक्ताओंके मुखसे उनकी व्यथाको सुन कर चालीस Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण बाबाजीका हृदय दुःखी हो उठा, अाखोंसे दो बूंद आंसू टपक पड़े। कड़ाकेकी ठण्ड पड़ रही थी तो भी बाबाजीने तनपर लपटे हुए दो चद्दरों में से एक उतारकर श्रा० हि० फौ० के चन्देमें अर्पित कर दिया; दश मिनटके बाद ही वह तीन हजार रुपयेमें विक गया। महत्त्वकी बात तो यह थी कि उन्होंने अपने भाषण में अंग्रेजोंके लिए एक भी कड़ा शब्द न कहकर 'आजाद हिन्द फौजवालोंका कोई बाल बांका नहीं कर सकेगा' ऐसी दृढ़ घोषणा की थी । कैसी दया और अात्म विश्वास है। सत्यनिष्ठा व दया धर्ममाता सी० चिरोंजाबाईजीने कहा "भैया लकड़ी नइंआ, जाश्रो ले आवो" बाबाजी बाजार पहुंचे, लकड़हारेसे पूछा “मोरी ( गट्ठा) कितेकमें देय ।” उसने जवाव दिया “जो समझो सो दे दियो मराझ" । बाबाजी, "चार थाना लेय !" वह राजी हो गया, घर तक पहुंचानेकी मजदूरी भी दो आने कह दी। घर पहुंचे बाईजी बड़ी नाराज हुई', 'दो आनेकी लकड़ीके छह आने दे आये, बड़े मूरख हो।" बाबाजीने लकड़हारेकी वकालत की, पर माताजी भी लौकिकताका पाठ पढ़ानेका इरादा कर चुकी थी, एक न सुनी तीन अाने ही दिलवाये । भोजन बना, बाबाजी भोजनको बैठे पर भोजन अच्छा न लगा। बाईजीने पूछा “भैया भूख नंइया का, काये नई खात ।" बाबाजीने जबाव नहीं दिया, "अभी श्राता हूं, कहकर जल्दी ही बाहर चले गये। उस लकड़हारेको ढूंढना प्रारम्भ किया, वह मिला, उसे शेष पैसे दिये और वापस घर लौट आये। बाईजीके पूछने पर स्पष्ट कह दिया कि बाईजी ! लकड़हारेके पैसे देने गया था। मां का हृदय इस सरलता और सत्य पर लोट पोट हो गया। प्रेम व आकर्षण गर्मीका समय था पूज्य बाबाजी द्रोणगिरिमें प्रवासकर रहे थे । गांवमें शुद्ध दूधका प्रबन्ध न था इसलिए एक गाय रक्खी गयी थी परन्तु वह मरकऊ थी। धनीके सिवा किसीको भी पास नहीं आने देती थी। लोग उसकी चर्चा कर रहे थे कि इसी बीच में बाबाजो आ अहुंचे और उन्होंने भी बात सुनी, बोले, चलो देखें कैसे मारती है। लोगोंने रोका, महाराज श्राप न जायें, परन्तु वह न माने और हाथमें एक पाव किसमिस लेकर उसके आगे पहुंच गये। गायने एकटक दृष्टि से बाबाजीको देखा और सिर झुका लिया । बाबाजी उसके सिरपर हाथ रखकर खड़े हो गये । लोग चकित हो देखते रह गये, मैत्रीपूर्ण हृदयने दुष्ट पशुको सहज ही मित्र बना लिया था। इतना ही नहीं उसने बाबाजीको दूध भी पिलाया तथा महाराजने भी उसे कभी-कदाच मिष्टान्न खिलाये । पशु भी पशुता भूल सकता है यह उस दिन पता लगा जब बाबाजीके चले जानेपर वह वियोगाकुल गाय इधर-उधर रम्हाती फिरती थी और अन्तमें बाबाजी की कोठरीके सामने आकर खड़ी हो रही और कई दिन तक घास इकतालीस Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पानी छोड़ रही। सचमुच बाबाजीका प्रेम व आकर्षण विस्मयजनक है। "भैया निवृत्तिमें ही सुख है प्रवृत्तिमें नहीं"। एक समय बाबाजीने किसी स्थानके लिए एक हजार रुपये दान में लिखवा दिये। रुपया पासमें नहीं। सोचा,लिखवा तो दिये पर देगें कहांसे ? कुछ रूपया मासिक कलके लिए बाईजी देती थीं। बाबाजीने फल लेना बन्दकर रुपया पोस्ट आफिसमें जमा कराना प्रारम्भकर दिया । बाईजीकी नजर अनायासही पासबुक पर पड़ गयी, पूछा 'भैया रुपया कायेको इकटठे करत हो, का कोउ कर्ज चुकाउने हैं ।” रहस्य न छिपा सके। तब बाईजीने कहा “काये तुमसे जा सोई कई है कै दान जिन करो, नई तो फिर छिपाश्री काय ?" बबाजीने कहा 'बाई जी दान मैंने किया है आपने नहीं। दान अपनी ही चीजका होना चाहिए इसीलिए मैं ये रुपये इकट्ठ कर रहा था । यदि मैं आपको बता देता तो आप अपने रुपये देकर मुझे ये रुपये न बचाने देतीं।" सुज्ञ बाईजीने आदर्श को समझा और प्रसन्न हुई। कैसी कोमल कठोर आस्म निर्भरता थी। सागर] लक्ष्मणप्रसाद "प्रशांत" में बौद्ध कैसे बना आजसे प्रायः पन्द्रह वर्ष पूर्वकी बात है । मैं काशी विश्वविद्यालयमें दर्शनका विद्यार्थी था । उन दिनों एक प्रसिद्ध विद्वानका भाषण हो रहा था। सुना कि अगले दिन जैनधर्म पर व्याख्यान होगा। मुझे तो जैनधर्मका कोई ज्ञान न था। किन्तु उस समय अपने धर्मपुस्तक सत्यार्य-प्रकाशके अमुक समुल्लासमें जैनधर्मके सभी खंड न याद थे। विचार हुआ कि उसीके आधारपर कल के भाषणके बाद वक्ताको सभामें परास्त कर वैदिकधर्मका श्रेष्ठय स्थापित करूंगा। दूसरे दिनयः सभापति थे स्वयं आचार्य ध्रुव। प्रारम्भमें उन्होंने वक्ताका परिचय अत्यन्त श्रद्धापूर्ण शब्दों में दिया ! व्याख्यानको आदिसे अन्ततक बहुत ध्यानपूर्वक सुना । इतना साफ और प्रबल व्याख्यान हुआ कि मुझ आर्यसमाजोके सुतर्ककी नोंक कहीं न गड़ी । तो भी आर्यसमाजी चुलबुलाहटसे मैंने कुछ छेड़ ही दिया, और जैनधर्मके अपने अज्ञान के कारण मुझे सभामें वेतरह लजित होना पड़ा। सत्यार्थ-प्रकाशकी अपनी प्रामाणिकताका बुरी तरह भंडाफोड़ कराकर मुझे बड़ा क्षोभ हुआ । मुंह छिपाकर निकल पाया । श्रद्धेय वणी जीसे वह मेरी पहली भेंट थी। उनके मधुर भाषण और प्रभावशाली सौन्यका आकर्षण इतना अधिक रहा कि चार पांच बयालीम Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण XX दिनोंके बाद उनके दर्शनार्थ स्थाद्वाद विद्यालय गया। आर्यसमाजके वर्णाश्रम धर्मपर बात चली । मुसकरा कर उनने पूछा--अच्छा, श्राप किस वण के हैं ? मैंने कहा-स्वामीजी, मैं जन्मसे तो कायस्थ हूं। पढ़ लिख कर विद्वान् हो जानेके कारण सिद्धान्तके अनुसार मैं ब्राह्मण हो जाऊंगा । प्र०-क्या तब ब्राह्मणलोग आपके साथ रोटी-बेटी करनेको तयार होंगे ? उ०--वे भले न तैयार हों, किन्तु आर्यसमाज तो मुझे वैसा सम्मान अवश्य देगा । प्र०-अच्छा, आर्यसमाजमें जो ब्राह्मण हैं क्या वे भी आपके साथ रोटी-बेटीके लिए तैयार होंगे? उ.-मैं कह नहीं सकता । प्र०-तब, क्या आर्यसमाजकी वर्णव्यवस्था केवल बातों ही में है, व्यवहारमें नहीं ? वीजीसे मिलकर जब मैं विश्वविद्यालय लौट रहा था तो यह खूब अनुभव कर रहा था कि आर्यसमाजका मेरा उत्साह मन्द हो गया था। मेरे मनमें पश्न हो रहा था-स्वामी दयानन्दजीने अन्य धर्मों के विषयमें विना जाने केवल हिंसात्मक प्रेरणासे अमुक समुल्लासमें ऐसा क्यों लिख दिया ? क्या यह सत्यकी बात है ! xx XX दो वर्ष के बाद एम. ए. पास करके मैंने अपनी सेवा गुरुकुल महाविद्यालय (आर्यसमाज) वैद्यनाथधाम (बिहार) को अर्पित की। गुरुकुलका मैं श्राचार्य बना । आर्यसमाजकी प्रणालीके अनुसार मुझे लोग पंडितजी कहने लगे। मुझे यह गौरव पाकर बड़ा आनन्द आया-और कुछ नहीं तो आर्यसमाजने मुझे इतना सम्मान तो दिया । प्राचार्य पदधर रहने के कारण लोग मेरा भय मानते थे, किन्तु मुझे ऐसा लगा कि ब्राह्मण अध्यापकोंके मेरे प्रति आदर नहीं है । शायद कायस्थ होनेके कारण !! एक दिन कमरेके भीतरसे सुना गुरुकुलके एक अध्यापक श्री ....... "तिवारीजी पुकार रहे थे-यो, पण्डित टाइगर ! यो पण्डित बाइगर !! मैं बाहर आया और पूछा कि यह पण्डित टाइगर कौन है ? श्री.......... तिवारीजीने गुरुकुलके एक कुत्तेकी ओर इशारा करते हुए कहा-श्राचार्यजी, यही पण्डित टाइगर है, आर्यसमाजमें सभी पण्डित हैं । बस, आर्यसमाजकी वर्णव्यवस्था अच्छी तरह समझ गया। वर्णीजीकी बातें झट याद आ गयीं । सिद्धान्तमें तो पहले ही हलचल पैदा हो गयी थी । १९३३ में फिरसे बनारस आया--संस्कृतमें एम, ए. परीक्षा देने । दूसरे ही दिन स्याद्वाद तैंतालीस Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ विद्यालय गया। किन्तु यह जानकर बड़ी निराशा हुई कि वर्णीजी काशी छोड़ कर चले गये हैं । मुझे उनके सामने अपनी कितनी समस्याए रखनी थी । जैनधर्म पर वहांके कुछ अन्य लोगोंसे बात हुई । जानकर बड़ा दुःख हुअा कि भगवान महावीरके श्रादर्शके विरुद्ध जैनसमाजमें भी वर्ण भेद अपनी संकीर्णताओंके साथ आ गया है ! शताद्वियों तक ब्राह्मण-समाजके सम्पर्क में रहनेके कारण जैनसमाज को मौलिक शुद्धता पर प्रभाव पड़ ही गया है । इसी बार सारनाथ गया और बौद्ध-धर्मका अध्ययन करने लगा। ‘पालिके विशेष अध्ययनके लिए लङ्का चला गया। वर्ण-भेदको संकीर्शताओंसे सर्वथा मुक्त बौद्ध-समाजने विशेष रूपसे आकृष्ट किया । फिर तो, बौद्ध दीक्षा और उपसम्पदा भी ले ली। ___ इतने वर्ष पूर्व एक विद्यार्थीसे हुआ वार्तालाप आज वर्णीजीको स्मरण हो या न, किन्तु उसके जीवनकी दशा बदलने में उसका बड़ा हाथ है । काशी विश्वविद्यालय ]---- (भिक्षु) जगदीश काश्यप, एम. ए. 卐 वर्णीजी अादरणीय वर्णीजी उन इने गिने महापुरुषों में से हैं, जिन्होंने अपनी साधना और त्यागसे कुछ ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है कि जो भी उनके सम्पर्कमें आता है, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । वर्णीजीने किसी विश्वविद्यालयकी ऊंची उपाधि प्राप्त नहीं की: पर तप और त्यागके क्षेत्रमें वे जिस उच्चासन पर विराजमान हैं, बह बिरलोंको ही मिल पाता है। उनके आदेश पर गतवर्ष जब मैं अहार पहुंचा तो वहीं उनके प्रथम बार दर्शन हुए, पर उनकी आत्मीयताको देख कर मुझे ऐसा लगा, मानों वर्षोंसे उनके साथ मेरा घनिष्ट परिचय रहा हो । वर्णीजी बचपनसे ही अध्ययनशील रहे हैं। मड़ावराकी पाठशालामें छः वर्षकी अवस्थामें बालक गणेशने अध्ययनका जो श्रीगणेश किया वह आज तक जारी है। स्वाध्यायमें जाने कितने ग्रन्थोंका उन्होंने पारायण नहीं किया होगा। विभिन्न धर्मोका उन्होंने तुलनात्मक अध्ययन किया है और एक ऐसी उदार दृष्टि प्राप्त की है, जिसमें किसी के प्रति कोई भेदभाव या विद्वेष नहीं । वर्णीजीकी आकृति और वेशभूषाको देख कर सहज ही भ्रम हो सकता है कि वे अधिक पढ़ेलिखे नहीं हैं। पर उनके सम्पर्कसे, उनके भाषण और शास्त्र प्रवचनसे पता चलता है कि वे कितने गहरे विद्वान हैं । सच यह है कि उनकी विद्वत्ता उन पर हावी नहीं होने पाया है, जैसे कि प्रायः लीगों पर हो जाती है । उनके जीवन में सहजता है और उन्हें यह दिखानेका जैसे अवकाश ही नहीं कि वे चवालीस Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण इतने विद्वान हैं। मीठी बुन्देलीमें सीधे-सादे उच्चारणसे जब वे बात करते हैं तो सुननेमें बड़ा आनंद आता है । और बीच-बीचमें अत्यन्त स्वाभाविक ढंगसे 'काए भैया' का प्रयोग करते हैं तो उनकी आत्मीयता एवं आडम्बर हीनतासे श्रोता आभिभूत हो जाता है । साधारण बातचीतमें देखिये, कैसे कैसे कल्याणकारी और शिक्षा-प्रद सूत्र उनके मुखसे निकलते हैं -आदमी जैसा भीतर है, वैसा ही बाहर होना चाहिए । --शिक्षाका ध्येय हृदय और मस्तिष्ककी व्यापकता और विशालता है। --अपनी आत्माको मलिन न होने देना हमारा धर्म है। -जीवनमें सहजता होनी चाहिए। शिक्षाके प्रति वर्णीजीके मनमें अगाध प्रेम है और उनकी हार्दिक आकांक्षा है कि शिक्षाका व्यापक रूपसे प्रचार हो । कोई भी व्यक्ति निरक्षर न रहे । यही कारण है कि उन्होंने अनेक शिक्षालयोंकी स्थापना की है। काशीका स्याद्वाद महाविद्यालय, सागरका गणेश महाविद्यालय, जबलपुरका वर्णी गुरुकुल तथा अनेक छोटे-बड़े विद्यालयोंकी नींव उन्होंने डाली है और उनके संचालनके लिए पर्याप्त साधन जुटाये हैं । पर स्मरण रहे, वर्णीजीका ध्येय वर्तमान शिक्षा प्रणालीके ध्येयसे सर्वथा भिन्न है। आजकी शिक्षा तो आदमीको बहिर्मुखी बनाती है । ऊंची डिगरी पाकर आदमी नौकरी, भौतिक ऐश्वर्य और सांसारिक वैभवकी ओर दौड़ता है और उन्हींके पीछे भटक कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देता है; पर वर्णीजी उस शिक्षाको कल्याणकारी मानते हैं जो आदमीको अंतर्मुखी बनाती है, जिसमें अपनेको और अपने प्रात्माको पहचानने की शक्ति है और उसके विकासके लिए श्रादमी निरंतर प्रयत्नशील रहता है । अहारमें बातचीतके बीच उन्होंने कहा था, "भैया ! हम तो चाहते हैं कि दुनियाका सुख-दुख आदमीका अपना सुख-दुख बन जाय और आदमी स्वार्थ लिप्त होकर अपना ही लाभ-लाभ न देखे ।" इस एक वाक्यमें शिक्षाका ध्येय अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। और यह वर्णीजीका कोरा उपदेश ही नहीं है. इसे उन्होंने अपने जीवन में उतारा भी है। मेरा चिरा यह सुन कर गद्गद् हो गया कि अहार आते समय मार्गमें एक जरूरत भरे भाईको उन्होंने अपनी चादर यह कह कर दे दी थी कि मेरा तो इसके बिना भी काम चल जाय गा; लेकिन इस भाईकी जाड़ेसे बचत हो जायगी। चौहत्तर वर्षकी आयुमें वर्णीजीका स्वास्थ्य और उनकी स्फूर्ति किसी भी युवकके लिए स्पृहणीय हो सकती है। उनमें प्रमादका नाम नहीं और उनके गठे और चमकते शरीर, भरी हुई अांखें और उन्नत ललाटको देखकर प्राचीन ऋषियोंका स्मरण हो आता है। वर्णीजीकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी सरलता, सात्त्विकता और आत्मीयता है । वे सबसे समान रूपसे मिलते हैं और छोटे बड़ेके बीच भेद करना उनके स्वभावके विपरीत है। अहारसे हम पैंतालीस Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ लोग जब चलनेको हुए तो दोपहरका एक बज रहा था । वर्णीजी स्वाध्याय समाप्त करके हमारे साथ हो लिये । मैंने कहा--आप विश्राम कीजिए। बोले, “नहीं जी, चलो थोड़ी दूर तुम लोगोंको पहुंचा आऊँ" और कोई मील भर हम लोगोंके साथ आये बिना वे नहीं रह सके। आजकलके दो भयंकर रोग पद और प्रतिष्ठाके मोहसे वर्णीजी एक दम मुक्त हैं। जहां कहीं जाते हैं वहीं साधन जुटाकर कोई शिक्षण अथवा अन्य जन--सेवी संस्था खड़ी कर देते हैं और बिना किसी मोह या लिप्साके आगे बढ़ जाते हैं । जिसने समूची वसुंधराको स्वेच्छा पूर्वक अपना कुटुम्ब मान लिया हो, वह एकसे बंध कर क्यों बैठेगा। ... वर्णीजीको प्रकृतिसे बड़ा प्रेम है और यह स्वाभाविक ही है। बुन्देलखण्डकी शस्य श्यामला भूमि, उसके हरे भरे वन, ऊंचे पहाड़, विस्तृत सरोवर और सतत् प्रवाहित सरिताएं किसी भी शुष्क व्यक्तिको भी प्रकृति प्रेमी बनासकती है। इसी सौभाग्यशाली प्रांतको वर्णीजी को जन्म देनेका गौरव प्राप्त हुआ है। अहारके लम्बे-चौड़े महासागरके बांधपर जब हम लोग खड़े हुए तो सरोवरके निर्मल जल और उसके इर्दगिर्दकी हरी-भरी पहाड़ियों और बनोंको देखकर वर्णीजी बोले, "देखो तो कैसा सुन्दर स्थान है। सब चीज बना लोगे; लेकिन मैं पूछता हूं ऐसा तालाव, ऐसे पहाड़ और एसे बन कहांसे लाभोगे?" बुन्देलखण्डकी गरीबी और उससे भी अधिक वहांके निवासियोंकी निरक्षरताके प्रति उनके मनमें बड़ा क्षोभ और वेदना है। प्रकृति जहां इतनी उदार हो, मानव वहीं इतना दीन हीन हो, यह घोर लज्जाकी बात है इसीसे जब लोगोंने उनसे कहा कि बुन्देलखण्डकी भूमि और वहां के नर-नारी अपने उद्धारके लिए आपका सहारा चाहते हैं तो ईसरीको छोड़ते उन्हें देर न लगी, वे बुन्देलखण्डमें चले आये और उसकी सेवामें जुट गये। वर्णीजीका पैदल चलनेका नियम है। बड़ी-बड़ी यात्राएं उन्होंने पैदल ही पूर्ण की है। शिखरजीकी सात सौ मीलकी यात्रा पैदल करना कोई हंसी-खेल नहीं था; पर वर्णीजीने विना किसी हिचकिचाहटके वह यात्रा प्रारंभ की और पूरी करके ही माने । ___ जिसने अपने स्वार्थको छोड़ दिया है, जिसे किसीसे मोह नहीं, जिसकी कोई निजी महत्त्वाकांक्षा नहीं, उसका लोगोंपर प्रभाव होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । जैन तथा जैनेतर समाजपर आज वर्णीजीका जो प्रभाव है, वह सर्व विदित है। उनके इस प्रभावका लाभ उठा कर यदि कोई ऐसा व्यापक केन्द्र स्थापित किया जाय जो समस्त राष्ट्रके आगे सेवाका श्रादर्श उपस्थित कर सके तो बड़ा काम हो। वैसे छोटे-छोटे केन्द्रोंका भी महत्व कम नहीं है और हमारे राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी तो स्वयं इस बात के पक्षपाती थे छियालीस Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण कि एक ही स्थान पर सब कुछ केन्द्रित न करके भारतके सात लाख गावोंको आत्म-निर्भर और आत्म-पूरित बनाया जाय । वर्णीजी शतंजीवी हों और उनके द्वरा भारतके कोटि-कोटि जनको श्रात्म- विकास और सेवाकी प्रेरणा मिलती रहे। . .. ७८, दरियागंज दिल्ली ]--. .. यशपालजैन, बी० ए, एलएल, बी० सागरमें आयी एक लहर विद्वर विलियमके समान, विद्या सीखी जिस योगी ने । फिर खोले विद्यालय अनेक, जिस न्याय-धर्मके भोगीने ॥ आया है वही गणेश इधर । सागरमें आयी एक लहर ॥ थे गये मेघ बन सागरसे, ईसरी मरुस्थल में बरसे। कर दिया वहां पर हरा भरा, पर सागरके जन थे तरसे . . . देखा तब उनने तनिक इधर । सागरमें आयी एक लहर ॥ थे सात बरस जब वीत गये, मनमें हिलोर उनके आयी। चल दिये यहां को पैदल ही, जनता उनको लेने धायी ॥ - हर्षित हो उठे बुंदेला नर। सागरमें आयी एक लहर ॥ । सूरत]--..... ..--कमलादेवी जैन सैंतालिस भाया। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगणेशप्रसादजी वर्णीके दर्शनका प्रथम प्रभाव मंझोला कद, दुबला पतला शरीर उसपर लंगोटी और भगुवा रंगका एक चद्दर, घुटा हुआ सिर, उभरा हुआ मस्तिष्क, लंबी नुकीली नासिका, धवल दन्त-पंक्ति, सुन्दर सांवला वर्ण । ऐसे ७२ वर्षके बूढ़े महापुरुषके उन्नत ललाट तथा नुकीली लम्बी नासिकाके सम्मिलनके आजू बाजू, यदि कोई अत्यन्त आकर्षक वस्तु है तो वे हैं, छोटी छोटी मोनसम दो आवदार अांखें । इन आंखोंसे जो विद्युत स्फुलिंग निकलते हैं वह मानव को अपनी ओर सहसा आकर्षित किये बगैर नहीं रह सकते, और तब प्रथम दर्शन ही में पुरुष इस महापुरुषसे प्रभावित हो उसके अत्यन्त समीप खिंचा चला जाता है । तभी तो क्या बालक, क्या वृद्ध क्या युवक और क्या युवती अर्थात् प्रत्येक स्त्री-पुरुष वर्णीजीसे एक बार; यदि अधिक नहीं तो वार्तालापका लोभ संवरण नहीं कर सकता । विगत ग्रीष्म ऋतुमें इस डेढ़ पसलीके महापुषके प्रथम दर्शनका लाभ-जिसकी चर्चा बाल्यकालसे सुनता चला आता था-प्राप्त हुआ। प्राथमिक प्रभावसे हृदयमें 'वास्तवमें यह कोई महान् व्यक्ति होना ही चाहिये' भाव सहसा उत्पन्न हुआ। चाहे उस महानताकी दिशा जो कोई और चाहे जैसी हो, अच्छी अथवा बुरी। वे चमकीली नन्ही नन्ही आंखें कह रही थीं, इन छोटी छोटी आंखोंने ही विषद वस्तु स्वरूपके अन्तस्तलमें प्रवेश कर आत्माको पहचाना है ; महान बनाया है। श्राज ७२ वर्षके अनन्त परिश्रमका फल है ; अत्यन्त सरल, मृदुभाषी, अन्तर्मुखी, अध्यात्म प्रवक्ता पूज्य श्री १०५ गणेशप्रसाद वौँ । ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुरुष पुंगव महान ही उत्पन्न हुआ है, । केवल किसी उस दिशाने जिसमें वह लगा है उसे महान नहीं बनाया है। यह जिस किसी भी दिशामें जाता महान ही होता । इनकी आंखों में जो सरलता खेलती है उसका स्थान यदि क्रूरता ले पाती तो वैराग्यजन्य विरोध और विवादसे भागनेकी वृत्ति की जगह भिड़ जाने की प्रकृति पड़ती तब यह संसार का बड़ा भारी आधिभौतिक निर्माता या डाकू अथवा पीड़क होता अर्थात् जिधर झुकता उधर अन्तिम श्रेणी तक ही जाता, परन्तु जिस ओर इनकी दृष्टि है उसने इन्हें महान नहीं; महानतम बना दिया है। आज संसारको राजनीति नहीं, धर्मनीतिकी आवश्यकता है। पदार्थ विज्ञानकी नहीं आत्म विज्ञानकी आवश्यकता है। वास्तविक धर्म उन्नतिआत्मोन्नतिके सिवाय आज की दुनिया प्रत्येक दिशामें अधिकसे अधिक उन्नति कर चुकी है, और भागे बढ़नेकी कोशिशमें है । फिर भी संसार संत्रस्त है, दुःखी है । एक महायुद्धके पश्चात् दूसरा महायुद्ध । फिर भी शान्ति नहीं, चैन नहीं । क्यों ? इसी शान्ति प्राप्तिके अर्थ पुनः तीसरे महायुद्ध की आशंका है। क्या अड़तालिस Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण आगसे आग कभी बुझती है। आज संसार के लोग जो बहिर्मुख हो रहे हैं, बाह्य साधन सामग्री ही में सुख मान कर उसके जुटाने का अहिर्निश प्रयत्न कर रहे हैं उससे क्या शान्ति मिली ? नहीं, फिर दुनियां जो सच्चे सुखका रास्ता भूल कर पथ भ्रष्ट हो चुकी है उसे सुपथपर लाना होगा । वह रास्ता है धर्मका, अाध्यात्मका । इसी प्रकाशको देनेके लिए गणेशप्रशाद वर्णीकी ज्योति प्रगट हुई है । जो स्वयं प्राध्यात्मिक आनन्दमें सराबोर हैं वही दूसरोंको उस ओर अग्रसर कर सकता है। जो स्वयं प्रकाशमान नहीं वह दूसरोंको क्या प्रकाशित करेगा ? किशोरावस्था ही तो थी । एक लकड़हारे से लकड़ी की गाड़ी ठहरायी कुछ अधिक मूल्यमें । धर्ममाताने जब कीमत सुनी, तो कहा कि 'भैया ठगे गये' । इन्हें लगा कि इसे जो अधिक दाम दिये हैं यह 'येन केन प्रकारेण' वसूल करने चाहिए। वह गाड़ीवाला जब खाली कर चुका तब आपने कहा 'तैने पैसे अधिक लिये है, लकड़ी चीर कर भी रख, नहीं तो उठा अपनी गाड़ी।' गरीब गाड़ीवान कुछ ही पैसे अधिक मिलने पर भी, यह कष्ट न उठा सका कि गाड़ी फिर भरता और वापस ले जाता । उसने कुल्हाड़ी उठायी, जेठकी गरमीके दोपहरका समय, पसीने से लथपथ हो गया तो भी लकड़ियां चीर कर उतने ही पैसे लेकर चला गया। ध्यान आया “मैंने बहुत गलती की। जब ठहरा हो लिया था तो उससे अधिक काम नहीं लेना था। चार आठ आने ही की तो बात थी, बेचारा भूखा प्यासा चला जा रहा होगा।" झट एक आदमीके लायक मिठाई और चिराईके पैसे ले उस रास्ते पर बढ़े जिससे लकड़हारा गया था, ढूंड़ते चले चिलचिलाती धूपमें । एक मीलके फासले पर वह मिला, कहा "भैया हमसे बड़ी भूल भई जो हमने तुमसे लकड़ी चिरायीं और भूखा रखा। लो जा मिठाई खात्रो और चिराईके दाम लो।" उस भोले भालेको यह सब देखकर लगा कि वह इस लोकमें नहीं है। लकड़ी बेचनेके साथ साथ उन्हीं दामों पर लकड़ी चीरना, ठहराये दामोंसे कम दाम पाना, थोड़े दामों पर अधिक मूल्यकी लकड़ी बेचना, लकड़ी घरमें रख देनेके साथ साथ घरका और काम करना, आदि साधारण बातें थीं। उसने इनके चरण छुए और कहा, 'अपन ऐसे चिल्लाटेके घाममें इतनी दूर काय आये १रोजई करत पण्डत जू अपनने कौन सी नई ज्यादती करी हती । बस, मैं सब पा गरो।" परन्तु पण्डित न माना, जब उसने वह मिठाई और पैसे ले लिये तभी शान्ति और निश्चिन्ता की सांस ली। . ___ साधारण पुरुषकी जो कमजोरी होती है वह यदि महापुरुषमें हो तो वह उसका गुण हो जाती है । संसारमें रहते हुए भी संसारमें न रहने वाला यह महान पुरुष जलमें कमलके समान संसारसे अलित है। इसीलिए तो विरोध और विवादका मौका नहीं आने देता, और उस रास्ते पर आगे आगे बढ़ा जा रहा है जिसे पूर्ण कर वह “वह' ही रह जायगा। आत्मानन्दकी ज्योति विखेरता हुआ उनचास Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ यह महान आत्मा जब विहार करता है, तो 'यत्र तत्र सर्वत्र' ही जन समूह इसकी ओर खिंचा चला आता है । तब यह आत्मा उन्हें ज्ञानका दान देकर, ज्ञानस्तम्भ ( विद्यालय पाठशाला) वहां स्थापित कर आगे बढ़ जाता है। जिसके प्रकाशमें लोग अपना मार्ग खोजें और आगे बढ़े। लोग कहते हैं - वर्णीजी अस्थिर हैं, कोई एक कार्य पूर्ण नहीं करते । यह संस्था खुलवा, वह संस्था खुलवा, इस कार्य के लिए भी हां, और उस कार्य के लिए भी हां, पर पूरा कोई भी कार्य नहीं करते । परन्तु यही तो उनकी विशेषता है। जिसने संसार छोड़नेकी ठान ली है तथा जो उसे पूर्ण रूपेण त्यागनेके मार्ग पर अग्रसर हो रहा है वह एक स्थान पर एक संस्थासे चिपटा कैसे बैठा रह सकता है ? उसे तो श्रात्मज्योति जो उसने प्राप्त की है उसे ही लोगोंको देते देते एक दिन उसी ज्योतिमय ही हो जाना है। सिवनी] सुमेरचन्द कौशल बी. ए., एलएल० बी. गुरु गणेश (१) री ? अरी लेखनी तू लिख दे तुम नहीं परिस्थिति के वश में मेरे गुरु की गुरुता महान्, तुमने ही उसको किया दास चित्रित कर दे वह सजग चित्र अपमानों अत्याचारों में जिसमें उनकी प्रभुता महान् ॥. पल कर तुमने पाया प्रकाश । सान्त्वना पूर्ण तेरी वाणी मावव मानस की परिचित सी कुछ कह देती समझा देती सत्पथ दर्शाती परिमित सी॥ ओ ! दृढ़ प्रतिज्ञ, ओ सन्यासी ओ आर्षमार्ग के उन्नायक, ओ विश्व हितैषी, लोक प्रिय ओ आदि भारती के गायक ॥ (३) वात्सल्य-मूर्ति सच्चे साधक ओ नाम मात्र अंशुक धारी, - ओ भूले युग के मान - पुरुष .. - जन-मन में 'समता संचारी स्या० दि० जैनविद्यालय ]-. मानस-सागर कितना निर्मल है राग द्वेष का लेप नहीं . तुम निःसंकोची सत्य - प्रिय है. छद्म : तुम्हारा वेश नहीं (वि० ) रवीन्द्र कुमार पचास Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवताका कीर्तिस्तम्भ __ मैं वर्णीजीको सन् '१४-१५में नन्हूलाल जी कंडयाके यहां एक प्रौढ़ विद्यार्थी तथा पण्डितके रूपमें कभी कभी देखता था। जैन समाजकी उन पर उस समय भी श्रद्धा थी किन्तु संभवतः केवल एक ज्ञानाराधक विद्वान के रूपमें। सन् '२४-२५ में जब कि परवार समाजके सागर अधिवेशन में मुझे बोलनेका सौभाग्य वीजीकी कृपाके कारण प्राप्त हो सका था तब विषयके सम्बन्ध में पूछे जाने पर मैंने कहा कि 'मैं जैनधर्मका अकिञ्चन विद्यार्थी हूं, विषय मैं क्या बताऊं? तथापि आपने १५ मिनट बोलनेका अवसर दिया था। मुझ पर उस कृपाने जो प्रभाव किया वह मैं भुला नहीं सकता। आज वर्णीजी केवल जैन समाजकी ही विभूति नहीं है, यद्यपि जैन समाजका ऋण भार उनके भाल प्रदेश पर अंकित है । अजैन कुटुम्बमें जन्म लेकर उनके द्वारा व्यवहार जैनधर्मने कूपमण्डकत्व को त्याग दिया। उनकी ओर देखकर जैनी कौन है इस भावनाकी एक स्पष्ट रूप-रेखा गैरजैनी व्यक्तिके हृदयमेंभी अंकित हो जाती है । अाजकी जैन समाजकी संकुचित भावना उनकी ओर देखने मात्रसेतिरोहित हो जाती है और मानव समझता है कि जैनधर्म वास्तवमें मानवताके हृदयको झंकृत कर सकता है । - यह पुण्य कमाया जैन समाज तथा अजैन समाजने क्रमशः अपने एक छोटेसे लालको खोकर और एक महानताके सिंहासनपर बैठा कर । कौन कह सकता है कि वोजी आज मानवताकी जिस तह तक पहुंच पाये उसका कारण; किसी भी रूपमें सही उनका जैन समाजके बाहरका प्राथमिक विचरण नहीं ही है ? जहां रहते हुए उन्होंने कल्पना की होगी कि जैन-तत्त्व किस तरह सर्वोपकारक हो सकता है। इस दृष्टि से वर्णीजी जैन तथा अजैन समाजके बीचकी एक कड़ी हैं जिसमें दोनों धर्मोकी महानता खिल उठी है। वर्णीजी तपस्विनी चिरोंजाबाईके मूर्तिमान् स्मारक हैं। उनके त्याग विद्याव्यासंग और सम्पत्तिके सदुपयोगकी भावनाने वर्णी जीमें अमरता पायी है। 'स्वयंबुद्ध जैन' पर व्यय की गयी रकमने अतिकृतज्ञ अतिमानवका जन्म दिया है ।। . आजके पैदल यात्रा करने वाले उस परिव्राजक के मुखपर न केवल जैनधर्मकी विद्वत्ता अंकित है किन्तु दुःख दलित मानवताकी कसक भी विराज रही है। सारी सांसारिक निम्न प्रवृत्तियों से सन्यस्त इस यतिकी उदात्त वृत्तियां असहाय मानवताके आर्त चीत्कारके प्रति सदा सहानुभूतिसे मुखरित होती हैं और यथाशक्ति मार्ग दर्शन करती हैं। आजके युगमें वैरागियोंका उपयोग लोकहिताय कैसा होना चाहिए इसके श्राप मूर्त रूप हैं। इकावन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ आपके आजके प्रवचनोंमें जैनधर्मकी पारिभाषिक शब्दावलिका घटाटोप नहीं किन्तु सीधे रूपसे मानवके भीतर खिरकर बैठने वाली वह सरस वाणी है जो महान आत्माओंका भूषण रही है। उन सीधे और गंवई शब्दोंमें न जाने कैसा जादू है ? किन्तु समयकी पुकार भी उसके साथ ही वहां विराज रही है । मन्दिरों तक ही धर्मको सीमित रखने वाले जैनी क्या समझे कि जैनधर्म कितना महान है और उसकी महानता समझाने वाला भी कितना महानतम है। जैन समाजकी उदारताके 'प्रसाद' में हिन्दु समाजका मंगलमय 'गणेश' भी अपने आपमें विराजमान हो सका है । ___ हम देखते हैं कि आपके अंग प्रत्यंगसे प्रतिध्वनित होने वाली भारतीयता जैनत्वकी धारामें गोता लगा कर कैसी निखर उठी है, काश जैनी ही नहीं भारतीय भी इस समन्वयको समझते और बनते उसके अनुरूप । तो पूज्य राष्ट्रपिताका स्याद्वाद प्रेरित 'सर्वधर्म समानत्वम्' केवल प्रार्थनाका पद न रह जाता। सागर] बी. एल. सराफ, बी. ए., एलएल. बी. स्मृतिकी साधना "संसारमें शान्ति नहीं। शान्तिका मूल कारण आत्मामें पर पदार्थोंसे उपेक्षा भी नहीं हम लोग जो इन्हें आत्मीय मान रहे हैं इसका मूल कारण हमारी अनादि कालीन वासना है । यदि मानव ऐसे स्थान पर पहुंच गया तो, एक आदमीके सुधारमें अनेकोंका सुधार है । दृष्टि बदलना चाहिए। यही तो सुधारका फल है। "मेरा यह दृढ़तम श्रद्धान है, कि कल्याणका प्रारम्भ श्रापमें ही होता है ......."उसी समय जो कालादि होते हैं उन्हें निमित्त कारण कहते हैं । श्री आदिनाथ भगवानके अन्तरंगसे मूर्छा (लोभादि) गयी, निमित्त मिला नीलाञ्जनाकी श्रायुके अन्त होनेका । इसी प्रकार सर्वत्र व्यवस्था है। यदि इस हीन दशापन्न प्रान्तका उदय अच्छा होना होगा, तब इस प्रान्तकी मानव समाजके भी सद् अभिप्राय हो जावेंगे । अन्यथा ९९ का फेर है ही-रहेगा और प्रायः था।" ___ उक्त पंक्तियां पूज्य वर्णीजीने एक पत्रमें लिखी हैं। पत्रकी प्रत्येक पंक्ति स्व-पर कल्याणकी भावनासे श्रोत-प्रोत है । आत्मोद्धारकी गहरी निष्ठा और अनुभूतिके साथ साथ जगतके मार्गनिदर्शनकी स्पष्ठ झलक भी मिलती है। उनकी लेखनी और श्रीजमयी सरस भाषामें सदैव यह उत्कट इच्छा निहित रहती है कि संसारके समस्त प्राणी सच्चे मानव धर्मका अनुसरण कर आत्मकल्याण करनेके साथ साथ संसारके समस्त दिग्भ्रान्त मानव समाजका भी उद्धार करें । बावन Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण वीजी लोकोत्तर पुरुष हैं । उनका सम्पूर्ण जीवन साधनामय रहा है। वे मुमुक्षु हैं । उनके जीवनपर जैन संसकृति और दर्शनकी गहरी छाप है । अध्यात्मवादके वे अपनी कोटिके एक ही पण्डित हैं । उत्तरोत्तर साधनाके विकास और चरम उत्कर्षको जिज्ञासाने, उन्हें मानवके अत्यधिक निकट ला दिया है। उनकी सतत ज्ञान पिपासा कभी विराम नहीं लेती । वह उनके जीवनकी चिर-संगिनी है। यही कारण है कि उनमें मानवताके समस्त गुणोंका अप्रतिम सामञ्जस्य मूर्तिमान हो उठा है । उदारशील, प्रचारकार्य, शिक्षा संस्था स्थापन एवं द्रव्य संग्रह जैसी उनकी बाह्य क्रियात्रोंकी पृष्ठभूमिमें, उनका विशुद्ध ब्रह्मचर्य-जन्य तेज, हृदयकी शालीनता, असीम सरलता परोपकारी वृत्ति, पतितपावनताकी उच्चाभिलाषा और युक्तियुक्त मिष्ट संभाषण जैसे आकर्षण गुण चमक उठे हैं । ये ही उनके जीवनको इस आदर्श स्तर पर ले आये हैं। ये सम्राट भरतके समान लौकिक व्यवहारिक कार्यों में प्रवृत्त रहते हुए भी उससे अलिप्त हैं और हैं आत्मोद्धारके प्रति सदैव जागरूक और सचिन्त । वे अन्तरङ्गमें प्रभाव या भावुकतामें बहनेवाले जीव नहीं हैं । उनकी सरल किन्तु सूक्ष्म वीक्षणी दृष्टि किसी भी व्यक्तिके मनोभावोंको परखने या वस्तुस्थितकी गहराई में पहुंचनेमें जरा भी विलम्ब नहीं लगातो । उनका विशाल हृदय दरिद्र, दुःखी, क्षुधात, पीड़ित, दलित, तिरस्कृत, पतित और असहायोंके लिए सतत संवेदनशील है । इन्हें देखते ही वह द्रवित हो उठते हैं और हो जाते हैं अत्यन्त व्याकुल । कष्ट निवारण ही उन्हें स्वस्थ कर पाता है। भारतीय प्राचीन श्रमण संस्कृति और मानव धर्मके यथार्थ दर्शन इनमें ही मिलते हैं । भीषण परिस्थितियोंमें जीवन निर्वाह कर आपने जो शिक्षा प्राप्त की उसीका यह सुफल है, जो आज हम भारतवर्ष में बोसों शिक्षा संस्थानोंको फूलते फलते देख रहे हैं । उनकी वाणीमें जो मिठास और प्रभाव है उसका वैज्ञानिक मूल कारण है अन्य प्रान्तोंमें रहनेके बाद भी अपनी मधुर मातृभाषा-बुन्देलखण्डीका न छूटना । विशाल शिक्षाके क्षेत्रमें जब अपने पदार्पण किया तब उनके कण्ठ में जन्मभूमिकी वाग्देवीका निश्चित निवास हो चुका था । इस दृढ़ संस्कारने उनकी जन्मजात मीठी बोलीके रूपको नहीं बदलने दिया और चूड़ान्त प्रतिभा सम्पन्न होकर जव वे संसार के सामने आये तो सहज ही वह सरल भाषा मुखसे झरने लगी। वर्णीजीने एक राजयोगीकी तरह पढ़ा लिखा है । उनके रहन-सहन और भोजनका मापदण्ड सदा काफी ऊंचा रहा है । इस सम्बन्धमें अगणित जनश्रुतियां हैं । आपको साधारण भोजनपान और वेशभूषा कभी नहीं रुचा । बाईजी अविकल रूपसे उनकी तृप्तिके लिए सदैव साधन सामग्री जुटाने में तत्पर रहीं और वणींजीकी भावनाएं सदैव बढ़ चढ़कर सामने आयीं। वाईजी व्यवहार कुशल थों इसी लिए बढ़िया चांवलोंको दूधमें भिगो कर बादमें पकाती थीं, तो भी "बाईजी तिरपन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उस दिनका चावल बहुत सुस्वादु था" यह सुनकर भी ऊबती न थीं। बहुमूल्य शाल दशालों, रेशमी दुपट्टों, चादरों, रेशमी साफों, कुर्तों और अंगूठियोंको अनायास किसी गरीब याचकको देखकर वहीं कहीं दे देनेकी तो न जाने कितनी घटनाएं हैं। यह प्रवृत्ति आज भी उनमें बनी हुई है। हरिपुर ग्राममें पं० ठाकुरप्रसाद द्विवेदीजी के पास पढ़ते थे। एक जड़ बुद्धि ब्राह्मण विद्यार्थी साथ था। पठन-पाठनसे ऊब कर और विद्यार्थी जीवनसे अपना और किसी प्रकार पिण्ड छूटता न देखकर, उसने एक दिन कहा--"पढ़ने में क्या रखा है ? दोनों जने गंगाजीमें डूबकर कष्टप्रद जीवन समाप्त कर दें और तमाम झंझटोंसे मुक्ति पा लें ।" वव वर्णीजीका अनन्य मित्र था। सखाको कोई मानसिक कष्ट न हो अपनी इस दयावृत्ति और बन्धुत्व भावसे वे उसके प्रस्तावसे सहमत हो गये। दोनों व्यक्ति गुप चुप एक इक्का करके झूसी आये। मनमें उठते हुए नाना विकल्पों और भयने ब्राह्मण विद्यार्थीको हठसे पीछे ढकेल दिया और वह छिपकर वर्णीजीको सोता छोड़ कर न जाने कहां चम्पत हो गया। सुबह उठते ही मित्रको गायब पाकर मन में आया 'भला गुरुदेवको अपना मुह कैसे दिखाता। क्योंकि वहांसे बिना आज्ञाके भागकर जो आये थे। यदि गये तो बहुत लजित होना पड़ेगा और जो भी सुनेगा वह भी उपहास करेगा। इस हंसी ठिठोली और शर्मनाक स्थितिसे तो अब कायोत्सर्ग ही भला । इसी उधेड़-बुनमें मस्त हम गंगा घाट पर चले गये ।' अंटीके पचास रुपये और सारे वस्त्र घाट पर रख दिये और नग्न होकर श्रावण की गंगामें कूद पड़े। आधा मील बहनेके बाद होश आया कि पैर पान में चल रहे हैं। गंगाका दूसरा किनारा पास दिखायी पड़ा तथा वे पानी काटते हुए उस ओर पहुँच गये । खड़े हुए तो अपनेको नग्न देख कर शर्म मालूम हुई । उसी प्रकार घाटकी तरफ लौट पड़े। बीचमें तीव्र धाराओंकों पार करना शक्तिसे बाहर था। "मैं धाराको न काट सका और वहां पानीमें गुटके खाने लगा। जीवन और मरणके हिंडोलेमें झूलते हुए मुझे एक मल्लाहने देख लिया और साधुको डूबता समझ मुझे सहारा देकर अपनी नौकामें चढ़ा लिया। मैं थकान और घबड़ाहटसे अचेत सी अवस्था में घाट पर पहुंचा । देखा वस्त्र सब यथास्थान रखे हुए हैं। चित्तमें यह विचार आया कि कर्म-रेखाएं अमिट हैं, किसी के कुछ करनेसे क्या होता है । जो होनहार और भवितव्य है वह होकर ही रहता।" इस प्रकार लोक हास्यसे बचनेकी भावना तथा भावुकताके पूरमें वर्णीजी ने 'पूर्वोपार्जित कर्म अपरिहार्य हैं, भाग्य साथ नहीं छोड़ता' इस अडिग आस्थाको पाया। किन्तु इस संकल्पने उन्हें पुरुषार्थसे विरत नहीं किया । वे पुरुषार्थ करते हैं और विश्वास रखते हैं कि पुण्योदय होगा तो इच्छित कार्य अवश्य ही होगा। इसीलिए तो लिखा था “यहां लोग नाना प्रकारसे रोकनेकी चेष्टा कर रहे हैं। मैं प्रकृतिसे जैसा हूं आप लोगोंसे छिपा नहीं। जो चाहे सो मुझे बहका लेता है। मैं अन्तरंगसे तो कटनी आना चाहता हूं। जबलपुर और सागर दो इस मार्गमें प्रतिबन्धक हैं, शरीरकी शक्ति इतनी प्रबल नहीं जो स्वयं आ सकू' । देखें कौन सा मार्ग निकलता चौवन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण है--भैया, संसार विडम्बनामय है और हमारी मोह लहर ही हमें इन झंझटोंमें उलझा रही है। सबसे उत्तम मार्ग स्वतंत्रवृत्ति होकर विहार करनेका था, परन्तु वह परिणाम भी नहीं और न शारीरिक शक्ति भी इस योग्य है। अन्यथा इस मध्यम मार्गमें कदापि जीवन व्यतीत न करता । पराधीनताके सदृश कष्ट नहीं। मेरा (पं0 जमन्मोहन लालजी की) इच्छाकार तथा अपनी माताजीको दर्शन विशुद्धि" गणेश वर्णी यह पत्र गुरुदेवकी आत्माका चित्रपट है। उनमें कुछ वैयक्तिक कमजोरियां भी हैं । उनमें से एक तो जिसने जैसा कहा उसकी हां में हां मिला देना । दूसरी है व्यवस्था शीलताका अभाव । किन्तु वास्तविक वस्तु स्थिति पर विचार करने से भली भांति समझमें आता है कि उनमें अपनी कोई त्रुटि नहीं है। किन्तु वह भी 'लोक हिताय' है। वे अपने द्वारा कभी किसीको क्षुब्ध या व्याथित नहीं करना चाहते । जो व्यक्ति उनके एक बार भी निकट सम्पर्क में आ जाता है वह उनका स्नेह भाजन बन जाता है। फिर वह उनके प्रति अपनी प्रत्यासक्तिसे उनसे सदा धर्मज्ञान लाभ और मार्ग दर्शन मिलता रहे, इस लोभसे उनके मार्गमें बाधक बन जाता है तथा समाजके लाभको दृष्टिको भल जाता है। इतने संकोच शील हैं कि लोगोंके किसी कार्य के लिए अत्यन्त आग्रह करने पर वे किंकर्तव्य विमूढसे हो जाते हैं। इनमें सीमासे अधिक सरलता और नम्रता है। वे सबको साम्यदृष्टि से देखते हैं । उनपर सबका अधिकार है। यदि किसीका थोड़ा भी भला हो सकता है तो उस कार्यसे वे कभी रुकते नहीं चाहे वह व्यक्तिका काम हो या समाजका। गुरुदेव सार्वजनीन लोक प्रिय हैं । अतः संसार उन्हें वन्दना करता है । वर्तमान युगके वे आदर्श मानव हैं । उन्होंने जितनी लोक सेवाएं की हैं, उनका जैन समाजके बाहर विज्ञापन नहीं हुअा अन्यथा वे अनुपम माने जाते । उनका व्यक्तित्व महान् है। वे दिग्विमूढ़ मानव समाजकी दिशा और भाव परिवर्तनके लिए सचिन्त, सजग और सचेष्ट हैं। वृत्तानि सन्तु सततं जनता हितानि-इस आदर्श भावनाका सुन्दर समन्वय पूज्य वर्णीजीमें जितना मिलता है उतना अन्यत्र देखने में नहीं आता। पश्चिमी मादक मलय मारुतने अपनी मोहिनी सुरभिसे संसारको विलासिता और लिप्सा की रंग-रेलियोंमें सराबोर कर जगत्को उस मृग मरीचिकाके किरण जालमें उलझा कर, मानवधर्मसे दिग्भ्रान्त बना दिया, किन्तु भरतसा यह दृढव्रती योगी, इस अनित्य अशरण संसारसे उदासीन हो कर विरक्ति के अभीष्ट राजपथपर आगे ही बढ़ा रहा है । विषयका एश्वर्य और विभूति उनके समक्ष सदैव मृतवत् रही । आज वे अपने जीवनके परम शिखरके इतने सन्निकट हैं और उनका अाकुल अन्तर इतना अधीर है कि वे अब निर्ग्रन्थ अवस्थाको - पचपन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ग्रहणकर उसमें अपनेको आत्मसात् कर देना चाहते हैं। वे सांसरिक स्नेह बंधनसे दूर, बहुत दूर जाकर अब किसी निर्जन प्रकृतिके सुरम्य अञ्चलमें बैठकर काययोग द्वारा एकाग्रचित्त हो एकाकी जीवन विताना चाहते हैं । जहां माया मोह बन्धनसे चिर संतप्त आत्माको विराट शान्ति मिले. प्रबल श्रात्मोद्धारकी जिज्ञासा सफल हो और वे कर्म शत्रुओंके भीषण रणक्षेत्रमें सतत युद्ध कर उनपर विजय प्राप्त कर रणधीर बन सकें। ऐसे युग पुरुषकी पुण्य स्मृतिमें उनके पुनीत पादपद्मोंमें श्चद्धाकी यह सुमनाञ्जलि अर्पित है। वे चिरंजीव हों, और सबके मध्यमें सुधाकरकी भांति प्रकाशमान रहकर अमृत वरसाते रहें। कुमार कुटीर, कटनी ] ( स० सिं० ) धन्यकुमार जैन झोली के फूल फूलों से भरी हुई झोलीमेरी, मैं इन्हें चढ़ाऊंगा । जब तक शरीर में शक्ति शेष तब तक मैं तुम्हें मनाऊंगा ॥ 'भारत भू' की रक्षा करते मर मिटें न पीछे हटें कभी । 'होगी रक्षा तेरी स्वदेश उद्दाम तान से कहें सभी॥ हिमगिर कांपे भू डोल उठे, चाहे सुन कर के सिंहनादवर वीरों का, चिन्ता न किन्तु फैले युगान्त तक यह निनाद ॥ हे देव अधिक कुछ चाह नहीं नव-जीवन-ज्योति जगा देवें । स्वर्णिम अङ्कों में 'भारत' का इतिहास पुनः लिखवा देगें ।। हम चढ़ा रहे हैं फूल देव । श्रद्धा पूर्वक, झोली खालीहो गयी, प्रभुवर वर दो भर सके इसे फिर से माली॥ स्या० वि० काशी] (वि०) ज्ञानचन्द्र 'आलोक' छप्पन Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी महान ! वर्णी महान् ! वर्णी महान् ! युग युग तक श्रद्धा से मानव गावेगा तेरा यशोगान वर्णी महान् ! वर्णी महान् !! सिखाया युग धर्म जीवन का म बताया गुमराह युगों के मानव को फिर जीवन पथ दिखलाया लघुमानव है कितना समर्थ बतलाता तेरा स्वाभिमन वर्णी महान् ! वर्णी महान् !! कहना जग हम स्वछन्द नहीं टूटे जीवन के बन्ध नहीं इस पर बोले गुरूवर्य ? आप "मानव इतना निष्पन्द नहीं तोड़ विवशता के बन्धन बन जाओ अब भी युगप्रधान । वर्णी महान् ! वर्णी महान् !! तुम जगा रहे हो निखिल विश्व लेकर के कर में ज्ञान दीप वह ज्ञान कि जिससे मानव का अन्तस्तल है बिलकुल समीप युग युग तक अनुप्राणित होगा पा कर जग तेरा ज्ञान दान | वर्णी महान् ! वर्णी महान् !! उज्वल यश-किरणों से तेरी हो रहा व्याप्त यह धरा धाम तू इस युग का योगी महान् युग का तुझको शत शत प्रणाम् श्रद्धा से नत हो उठे आज चरणों में तेरे प्राण प्राण | वर्णी महान् ! वर्णी महान् !! सामर ] संतावन --फूलचन्द 'मधुर' Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खतौली की आंखें मुजफ्फरनगर जिलेके इस खतौली उपनगरमें जैनधर्मके अनुयायियोंकी अच्छी संख्या तथा सामाजिक स्थिति है। लौकिक कार्योंके साथ-साथ आत्माराधनकी प्रवृत्ति यहां पं० हरगूलाल जी, मलजी आदिके समयसे चली आयी है। तो भी काल दोषसे यहांके लोग भी केवल बाह्य प्रभावनामें मस्त रहने लगे थे। ऐसे ही समय सन् १९२४में पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी हस्तिनापुरसे लौटने पर यहां रुके । मझौले कदका श्याम शरीर, खद्दरका परिधान तथा माथेके श्वेतप्राय केश देखकर लोगोंकी दृष्टि ठिठक गयी ! लोगोंको लगा सिद्धि देवी (स्व० पू० माता चिरोंजाबाईजी) ज्ञानबालकको लिये घूम रही हैं । महाराज एक सप्ताह रुके 'परमात्म प्रकाश का स्वाध्याय चला। लोगोंने समझा कि उनके सुपरिचित पूज्य आदर्श तपस्वी बाबा भागीरथजीका कथन ही ठीक है । ऐसा न होता तो ज्ञानमूर्ति वर्णीजी मूर्तिमान तप बावाजी ही की बात--केवल बाह्य आचरण से ही पार न लगे गी–का, साफ-साफ व्याख्यान क्यों करते। सन् १९२५ में गतवर्षकी प्रार्थना स्वीकार कर पूज्य बाबाजी तथा वर्णीजीने खतौलीमें चतुर्मास किया। पं० दीपचन्द्र जी वर्णी भी आगये थे । चतुर्मास भर ज्ञान-वृष्टि चली। बाबा वणी के मुखसे धर्मका मर्म सुनकर लोग अपने आपको भूल जाते थे। किन्तु वर्णीजीको ध्यान था कि साधन विन यह धर्मचर्चा अधिक दिन न चलेगी। बोले "सम्यग्ज्ञान दायी विशाल संस्कृत विद्यालय होता तो कितना अच्छा होता।" और चुप हो गये । लोग सम्हले,-न चतुर्मास सदा रहेगा, न साधु समागम और न यह ज्ञानवर्षा भी रहेगीबातकी बातमें दश हजार का चन्दा हुआ और 'कुन्द कुन्द विद्यालय' की स्थापना हो गयी। सबलोग गुरुओं के सामने सरल तथा समझदार मालूम पड़ते थे । जन्म और कुलका घमंड भी दबासा लगा। किन्तु ; दस्से-किसी सामाजिक भूल या अपराध वश बहिष्कृत लोग-मन्दिर में आयेंगे ? मन्दिर अपवित्र हो जायगा, मूर्तियोंपर उपसर्ग आ पड़ेगा, नहीं ये कभी भी मन्दिरकी देहली न लांघ सकेंगे। चिर उपेक्षित दस्सा भाई भी इस धार्मिक दंडको सहते सहते ऊब गये थे पर लाचार थे। दुर्भाग्य वश कुछ मन चले स्थानकवासी साधु आ पहुंचे । दस्सा भाईयोंने सोचा 'चलो क्या बुराई है जैनी तो रहेंगे, कौन सदा अपमान सहे । सप्रदाय परिवर्ननकी तयारियां चल रहो थी । युवक इस धर्महठसे दुखी थे । वृद्धोंसे अनुनय विनय की 'तुम्हें तो धर्म डुवाना ही है। हमारी जिन्दगी भर तो अंटावन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण बखसो, के सिवा दूसरा जबाब ही न था । याद पड़े बाबा-वर्णी । पत्र लिखा ( महादेवीजीने ), उत्तर मिला "....दस्सा भाइयोंके ऊपर जो धर्म संकट आया पढ़कर बहुत दुखी हुआ, वीसा भाइयोंको उचित है जो उन्हें पूजनादि कार्यमें कोई बाधा उपस्थित न करें........मेरी हृदय से सम्मति है जो दस्सा समाजको वीसाकी तरह पूजनादि करनेमें कोई आपत्ति न होनी चाहिए। जिनके आचरणमें किसी प्रकारका दोष नहीं उन्हें पूजनसे रोकना उनकी जड़ है ....बाबाजी महाराजतो उद्योग करते ही होंगे किन्तु आप भी खतौली दस्सा समाजकी अोरसे ऐसा प्रयास करना जिसमें समाजका पतन न हो जाये । मैं तो बहुत ही दुखी इस समाचारसे हूं जो मेरठ आदि प्रान्त के भाई श्वेताम्बर हो रहे हैं।" इसे पाते ही भ्रान्त धर्म ध्वजोंकी अांखे खुली और त्यागमूर्ति बाबाजीकी उपस्थितमें दस्सा भाइयोंका स्थितीकरण हुआ तथा उत्तर भारत को साधर्मी वात्सल्यका मार्ग मिला । ___ स्वर्गीय पं० गोपालदास बरैयाने जैन धर्मपर आक्रमण करने वालोंसे शास्त्रार्थ किये थे किन्तु दूसरी पीढ़ी उसे न निभा सकी । फलतः आर्य समाजियों के आक्रमण और बढ़े । इसी समय जैन समाज के भाग्यसे अभिनव जैन शंकराचार्य (पं०राजेन्द्रकुमारजी ) अपने साथ संघ (दि. जैन शास्त्रार्थ संघ) लिये समाजके सामने आये । सन्, ३३ में खतौलीपर वार हुअा और सौभाग्यसे वर्णीजीके नायकत्वमें पं० राजेन्द्रकुमारजीने ऐसा मारा कि कितने ही शास्त्रार्थों आर्य समाजियोंको ही वैदिक धर्मको समझकर माननेकी सूझी। पानी पड़नेपर जब विपक्षके विद्वानोंने शास्त्रार्थ सभा स्थगित करानी चाही तब "कैसा विराम, कैसा विश्राम, शास्त्रार्थ चाहिए, शास्त्रार्थ लीजिये" शब्द वर्णीजीके मुखसे सुनकर वे चकित रह गये और समझे कि जैन धर्म में कैसा तपोबल है। __ संम्भव नहीं कि हम बाबा-वर्णी के पूरे उपकारांका स्मरण भी कर सकें । इतना ही जानते हैं कि वे खतौलीकी अांखें थे, हैं और रहेंगे । त्यागमूर्ति बाबाजीकी तो अबपुण्यस्मृति ही पथप्रदर्शन करती है, किन्तु समाजके पुण्य प्रताप से वर्णीजी आज भी हमारे मसीहा हैं । वे चिरायु हों और हमारा मार्ग दर्शन करते रहें । महादेवी खतौली ] बाबूलाल जैन उनसठ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनको गणेश हम कैसे कहें ! (१) तनपर है धर्म धूलि खासी, मृगछाल महाव्रत ओढ़े हैं । जिन-वृष पर हैं आरूढ़, उमा अनुभूति से प्रीती जोड़े हैं । तिरसूल सदा रत्नमय ले, सम्मेद शिखर-कैलाश बसें । गुरुवर तव सच्चे महादेव, इनको गणेश हम कैसे कहें ? पुरूषार्थ चतुष्टय भुजा चार शशिकला कीर्ति छवि छायी है। उपदेशामृत पावन गङ्गा भी वसुधा पर आज वहायी है। पी लिया कषाय कठिन विष को शल्य त्रय त्रिपुर भी धू धू दहे गुरूवर तव सच्चे महादेव इनको गणेश हम कैसे कहें ? ( ३) सुज्ञान सुतीक्ष्ण तृतीय नेत्र -की ज्योति मदनको दहती है। गल माल भुजङ्ग परीषह हैं, ओंनमः सुमरनी लसती है ॥ सन्देह नहीं शङ्कर ही हैं। आबाल वृद्ध जब यही कहें । गुरुवर तुम सच्चे महादेव । तुमको गणश हम कैसे कहें ? स्या० वि० काशी] (वि०) नरेन्द्र साठ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् सचमुच महान् तर्कशास्त्र विद्वान कहते हैं कि कार्य-कारण तथा परिणाम इनमें परस्पर बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है । एक साहित्यिक होनेके नाते तो मैं शायद ही इसपर विश्वास कर सकता किन्तु....। यह एक किन्तु विगत कुछ वर्षोंके इतिहासके पृष्ठ खोल कर रख देता है । स्मरण कर उठता हूं एकाएक बड़ोंका वह उपदेश कि महापुरुषोंके दर्शन कदाचित् विगत कई जन्मों के पुण्यकर्म स्वरूप ही सुलभ होते हैं । सो इसे अपने सौभाग्यका मैं प्रथम चरण ही अभी तक मान सका हूं कि जब अति अस्वस्थ होने पर भी मुझे जैन हाईस्कूल सागर में एक शिक्षक की भांति जाना पड़ा था । यों तो प्रवास मेरे जीवनका एक अंश रहा है किन्तु सन् १९२४ के प्रारम्भ से ही मन में प्रवासके प्रति एक विरक्ति सी उभर उठी है। फिर भी छत्तीसगढ़ छोड़ कर जीविका अर्जन के हेतु मुझे सागर जाना पड़ा । इस प्रवासके पूर्व सागरके सम्बन्ध में कई बातें सुना करता था । सागरकी प्राकृतिक छटा, वहां की स्वास्थ्यकर जलवायु इनके विषय में बहुत कुछ सुन चुका था । अतएव रखते हुए मुझे सागर में ही रहना रुचिकर एवं हितकर प्रतीत हुआ । अपने हीन स्वास्थ्यका ख्याल तब मुझे यह पता नहीं था कि सागरका जैन समाज एक महत्त्व पूर्ण मात्रा में सागर के सार्वजनिक जीवनमें प्रवेश कर गया है। तो, एक प्रश्न मेरे सामने अवश्य था मैं कान्यकुब्ज कुलोत्पन्न ब्राह्मण हूं। सुन रक्खा था 'न गच्छेत् जैन मन्दिरम्', यादि और उसके प्रतिकूल मैं उसी स्थान पर चाकरी करने जा रहा था । मेरे समाज वालोंको यह बात खटक गयी। लेकिन मैं स्वभावतः ही विद्रोही रहा हूं गुण ग्रहण करने में मैंने रूढ़िका ध्यान कभी नहीं किया । सो जैन हाईस्कूल में एक शिक्षककी हैसियत से कार्य शुरू करनेके कुछ समय पश्चात् ही यदा-कदा मेरे कान में मोराजी संस्कृत विद्यालय के विद्यार्थियों द्वारा सम्बोधित शब्द 'बाबाजी' पड़ जाया करते थे। और मनमें यह भावना उठती थी कि आखिर वह कौनसा व्यक्तित्व है जो इन विद्यार्थियोंके बीच 'बाबाजी' के रूपमें सदैव चर्चाका विषय बन जाता है ! जिज्ञासा यद्यपि मन ही में थी पर उभरने लगी थी। फिर एक दिन जैनसमाजके कुछ वयस्क व्यक्तियोंको मैंने 'वर्णीजी' का नाम लेते सुना अत्यन्त आदर एवं समुचित श्रद्धा के साथ ! तत्क्षण मेरा मन दुहरा उठा -- बाबाजी, वर्णीजी ये दोनों एक ही तो नहीं हैं ! आखिर वह कौन व्यक्तित्व है जो सम्पूर्ण जैनसमाजके द्वारा इतनी श्रद्धाके साथ पूजनीय है ! श्रतएव एक दिन संस्कृत पाठशालाके भाई पन्नालालजीसे मैंने इस सम्बन्ध में प्रश्न किया एकसठ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ उनके उत्तरसे मुझे ज्ञात हुआ कि वे जैनसमाजकी एक महान् श्रादरणीय विभूति हैं । विरक्त होते हुए भी जनहिताय, लोक मंगलकारी भावनाओंके प्रसारमें जुटे हुए हैं शिक्षा उनका प्रियतम विषय है। इस अल्प परिचयके बलपर मेरे मनकी कल्पना उनके स्वरूपका ताना-बाना बुनने लगी काफी वृद्ध होंगे, ऊंचे पूरे, श्मश्रु-युक्त, साथमें अनेकों व्यक्ति होंगे, बड़ी शान के साथ रहते होंगे, वस्त्रोंका सम्भवतः त्याग कर दिया होगा, आदि-आदि । ऐसा ही कुछ उनका काल्पनिक स्वरूप मेरे मन में उभर उठा था। और उसी समय एक नहीं अनेक प्रश्न उठ पड़े थे। क्या ये वैसे ही विरक्त साधुओं में नहीं हैं जैसे कि वर्तमान कालमें भारतवर्ष में पाये जाते हैं ? इस जिज्ञासाका भला कौन उत्तर दे? नवागन्तुक अथवा यों कहिए कि प्रवासी होने के नाते किसीसे कुछ पूंछनेमें हिचक लगती थी। फिर अपने एक स्वजातीय बन्धुसे उपरोक्त प्रश्न उपस्थित करने पर मुझे उत्तर मिला था-अच्छा तो क्या आप भी जैन धर्ममें दिक्षित होना चाहते हैं ? सच कहूं, यह उत्तर बड़ा बेढंगा सा लगा मुझे । क्या वर्णीजी के बारेमें जानना एक अन्य जातीय व्यक्तिके लिए गुनाह है ? कौन उत्तर देता इन प्रश्नों का ? फिर जनवरीके महिने में मुझे सुननेको मिला कि मार्चमें वर्णीजी सागर पधार रहे हैं । यह समाचार मेरे लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। उनकी अनुपस्थितमें जैनसमाजके श्राबाल वृद्धकी अखण्ड निष्ठाको देखकर मेरे मनमें उनके प्रति उस समय अादर तो नहीं कुतूहल अवश्य हुआ था । किन्तु उसी दिन कक्षामें पढ़ाते समय जब मेरे एक प्रिय जैन छात्रने कहा कि मास्टर साहेब, वर्णाजी गयासे पैदल पा रहे हैं । वे आवागमनके आधुनिक साधनोंका प्रयोग नहीं करते और न जता ही पहनते हैं-तब जैसे आप ही आप किसीने उनके प्रति श्रद्धाका बीज मेरे मन में अंकुरित कर दिया । मन हो मन ऐसी विभूतिके दर्शन के लिए व्याकुल हो उठा था मैं । इसी बीच नगरके जैनसमाजमें एक अद्भुत जागृतिके लक्षण मुझे दृष्टिगोचर हुए । विशाल पैमानेपर तयारियां प्रारंभ हो गयीं-मुझे लगा कि जैसे किसी अखिल भारतीय संस्थाका अधिवेशन होने जा रहा हो। और इसी प्रकार दिन व्यतीत होते गये-जैसे जैसे तयारियां बढ़ती गयीं वैसे वैसे मेरा मन आश्चर्य से भरता गया । कौन सा ऐसा व्यक्तित्व है कि जिसके लिए ऐसा शाही प्रबन्ध ? कौन से ऐसे विशेष गुण हैं जिनके कारण ये विशाल तयारियां ? हो सकता है. .... नहीं, नहीं, होगा कोई परम पावन श्रादर्श व्यक्तित्व ! होगी निश्चय ही कोई महान् प्रेरक विभूति ! तभी; तभी तो यह सब कुछ हो रहा है। .. एक दिन संध्याकाल यह सुननेको मिला कि वर्णीजी निकटस्थ ग्राममें आ गये हैं और बासठ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण प्रातःकाल वे नगरमें प्रवेश करेंगे। बचपनसे राष्ट्रीय प्रवृत्ति मुझमें प्रधान रही है, अतएव सभा, आयोजन आदिमें सदैव जाया करता था । उसी दृष्टिकोणसे प्रातःकालको लगभग आठ बजे मैंने समझ रक्खा था। सो दूसरे दिन आठ बजेके लगभग जब मैं अपने एक मित्रके साथ उस स्थान पर पहुंचा जहां उनका स्वागत होनेको था तो पता चला कि सूर्यकी प्रथम रश्मियोंके साथ ही वे उस स्थानसे चल पड़े थे। समयकी यह नियमित पाबन्दी विरलोंमें ही पायी जाती है । परोक्षरूपसे उनके इस प्रथम गुणने मुझे आकर्षित किया । खैर, बढ़ चले आगे, और हीरा आयल मिल्सके पास मैंने देखा विशाल जन समूह-तिल रखेनेकी जगह नहीं । 'वर्णीजीकी जय' की ध्वनि प्र:येक कोनेमें गूंज रही थी। और मेरी आंखें चुप चाप विकलतासे खोज रही थी, उस महान व्यक्तित्वको । कुछ मिनट और, .....और मैंने देखा सफेद चादर लपेटे एक छोटे कदका श्यामल व्यक्ति नंगे पैर बड़ी तेजीके साथ मीलके प्रवेशद्वारसे निकल कर आगे बढ़ गया--। सिरपर कुछ श्वेत केश, नयनोंमें एक अपूर्व ज्योति, हंसता हुआ चेहरा, आजानु बाहु, रक्त कमल सी हथेलियां। विशाल जनराशि पागल हो कर चिल्ला उठी-'वर्णीजीकी जय'। उस महान् विभूतिके दो जुड़े हुए हाथ ऊपर उठ गये..... ..............तो यही वर्णीजी हैं ! और मनमें कोई बोल उठा-'महान् सचमुच महान् !' वह एक झलक थी लेकिन ऐसी झलक जो दिलमें घर कर गयी हो, जीवन भरको अपनी अमिट छाप छोड़ गयी । 'सादा रहना उच्च विचार' यह भारतीय आदर्श जैसे वणीजीके व्यक्तित्वमें मूर्तिमन्त हो उठा था। मेरा मन एक नहीं कई बार उस 'जय-ध्वनि' को दुहरा गया। कवि होते हुए भी मैंने नर-काव्य नहीं किया । लेकिन उस दिन मध्यान्हमें जैसे किसीने मेरे कविको प्रेरित कर दिया उनके प्रति श्रद्धांजलि प्रगट करनेके लिए । और आप ही आप कुछ पंक्तियां कागज पर उभर उठी थीं । उसी दिन बहुत निकटसे उन्हें देखनेका मौका मिला। मैंने सुना वे कह रहे थे, 'आज एक वृद्धाने मुझे यह एक रुपया दिया है । शिक्षा के प्रसार हेतु मुझे एक लाख रुपया चाहिये"। और फकीरकी चादर फैल गयी । अधिक देर नहीं लगी, एक लाखके वचन प्राप्त हो गये। मैं सोच रहा था-कौन सा जादू इस व्यक्ति ने जैनसमाज पर डाल दिया है ? मनने उत्तर दिया-त्याग. तपस्या और निस्वार्थ सेवा । हां, सचमुच ये वर्णीजीके सेवा-पथके ज्योति-स्तम्भ हैं । फिर सुननेको मिला 'आजाद हिन्द फौज के लिए. एक सभाका आयोजन किया गया। लोगोंसे दान देनेकी अपील की गयी। साधु वर्णीजीके पास क्या था ? फिर भी उन्होंने अपनी चादर उतार कर में देनेकी घोषणा की । और यह सब पढ़ कर मेरा मन कह रहा था-- काश हमारा साधु समाज यदि ऐसा ही हो पाता तो जाने आज भारत कहां रहता। वीजीके इस स्वल्प परिचयने मनकी उत्कंठा बढा दी। उनके बिगत जीवनसे मैंने परिचय त्रेसठ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- श्रभिनन्दन ग्रन्थ ! प्राप्त किया। जन्मना वे एक अजैन है किन्तु कर्मणा वे जैनसमाजके आदर्श है। जैनसमा में सचमुच शिक्षाका भारी अभाव है ने उस समाजकी कमजोरीको पहचान कर उसे दूर करने का व्रत ले लिया । फलस्वरूप आज बनारस, कटनी, जबलपुर, दमोह, स.गर आदि अनेक स्थानों में अनेक संस्थाएं चल रही हैं। अजैन होते हुए भी अपनी तपस्या एवं उद्देश्यको पवित्रता के बल पर वे जैनसमाजके आदर्श मनोनीत हुए पूज्य और महान होकर भी वे व्यवहारमें साधारण मानवकी भांति हो रहे सचमुच यह उनकी महानता है । | सच कहूं तो आज तक बहुत ही कम मैं किसी धार्मिक विभूतिके प्रति आकर्षित हो सका, किन्तु वर्णीजीके स्वल्प दर्शनने मेरी धारणा में परिवर्तन कर दिया और आज भी मन सोचने लगता है कि धर्म क्षेत्रमें यदि ऐसे ही कुछ और भारतमाता के सपूत पैदा हुए होते तो आज हम भारतीय न जाने उन्नति के किस उच्च शिखर पर पहुंच गये होते । रायपुर ] चौसठ - ( पं० ) स्वराज्यप्रसाद त्रिवेदी, बी० ए०, सम्पादक 'महाकोशल' Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर की देन -x यौवनके प्रस्तर खण्डोंमें निर्झर बन बहना सिखलाया। दानवता को चीर सहृदयता का हमको पाठ पढ़ाया ॥ राजाओंके सिंहासन को जनताका प्रतिनिधि बतलाया । गगनचुम्बिनी ज्वालमालमें जगहित जलना हमें सिखाया॥ सत्य अहिंसा ही जीवन का शिव सुंदर सन्देश सुनाया। दो-विरोध की प्रतिद्वंद्विनी माया को सिकता समझाया ॥ अनेकान्त समदृष्टि हमारी एक ध्येय हो एक हमारा । न्याय बने अन्याय कहीं तो केवल हो प्रतिकार हमारा ॥ मृग ढूढ़े बनमें कस्तूरी तुम तो बनो न यों दीवाने । मानव वह जो मानवता सा रत्न जौहरी बन पहिचाने ॥ तमस्तोम में छिपी चांदनी प्रियतम से दुहराया करती। कहां वीर के पतित पूत रत्नत्रय ? कह अकुलाया करती ॥ तारे क्या हैं उसी चाँदनी की आंखों की मुक्ता माला। अंधकार है धूम्र और आविर्भावक है अन्तर्जाला ॥ जैनमन्दिरों में मुसकाया करती निर्मलता की धारा । निज उपासकों का निवास शिमला पाया वैभव की कारा ॥ कहां धर्म की आन कहां अकलङ्क और निकलङ्क पुजारी। कहां धर्मबन्धुत्व और वह कहां प्रेम के आज भिखारी ।। वैभव बोला करुणा स्वर में मन्दिर मम सोने की कारा पंचभूत में हम विलीन हैं और यही अस्तित्त्व हमारा । स्या० विद्या० काशी]-- -हीरालाल पाण्डे, साहित्याचार्य, बी. ए. पैंसठ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डं सद्गुरु श्रीवर्णी चयस्यारण्येषु शार्दूला, नरसिंहाः पुरेषु च । वसन्ति तत्प्रियं भाति, विन्ध्येला (बुन्देला) मण्डलं भुवि ॥१॥ नैसगिकी यत्र कवित्वशक्ति-विलोक्यते ग्राम्यजनेष्वपूर्वा । उपात्तविद्या यदि 'काव्यवित्ता, भवन्ति तत्रास्ति किमत्र चित्रम् ।।२।। सर्वत्र लभ्य मधुरैः पयोभि-रनोकहैः पुष्पफलद्धिपूर्णैः । हृद्यश्च सात्म्यैः शिशिरैः समारै-विभात्यसौ देशमणिर्दणि':॥३॥ गिरिव्रज रुन्नतसानुमद्भिर्या रक्ष्यते रक्षिसमै रजस्रम् । दु मेषु यस्या विविधा विहङ्गाः, कूजन्ति सा चारु दशार्णभूमिः ।।४।। अन्येषु देशेषु जना व्यथन्ते, दिवानिशं प्राप्य निदाधकालम् । संजायते किन्तु दशार्णभूमौ विभावरीयं शिशिरा तदापि ।।५।। *वन्योपसर्गान् बहुदुःखपूर्णान्, शृण्मः पठामश्च परत्र देशे। एतैश्च भूकम्पनिभैर्न किन्तु, पीडा भवत्यत्र दशार्णदेशे ।।६।। य वीक्षित प्रत्यह माव्रजन्ति देशाद्विदेशाच्च जना अनके। रेवाप्रपातः स हि धूमधारः सत्यं दशाणे रमणीय वस्तु ।।७।। चर्मण्वती, वेत्रवती, दशार्णा, श्रीपार्वती, सिन्धु, कलिन्दकन्याः। श्रीटोंस, रेवा, जमनार, केनाः, सिंचन्ति नीर विमल र्दशार्णम् ।।८।। प्रसादमाधुर्यगुणोपपेता, गीतप्रबन्धाः प्रचुराश्च शब्दाः । मिलन्ति यस्यां जननीनिभां तां, विन्ध्येलभाषामनिशं नमामि ॥९॥ तुल्सी, विहारी, "रइधू कवीशाः, श्रीमैथिली, केशवदासतुल्याः । अके हि यस्या नितरां विभान्ति सरस्वती सा सफलैव यत्र।।१०।। यस्य प्रतापतपनात् किल शत्रुवर्गो, घूकोपमः समभवद् गिरिग ह्वरस्थः । वीराग्रणी: सुभटसंस्तुत युद्धकारी, यत्राभवज्जनमतो नृपतुङ्ग धुङ्गः ॥११॥ यस्यैव पावें भटवर्यमान्या, आल्हादिवीराः सुभटा बलाढ्याः । आसन स भूत्या जगति प्रसिद्धो, बभूव देवः परमदि रत्र ।।१२।। कीर्त्या महत्या सह कर्मनिष्ठः प्रतापसंतापित वैरिवर्गः। स्वयं गुणी सन् गुणिनाञ्च भक्तः श्रीछत्रसालोऽजनि यत्र भूपः ॥१३॥ सुवर्णदानस्य कथेह लोके, नैव श्रुता केन जनेन यस्य ? स वीरवर्यो नृपवीरसिंहो, विन्ध्येलभाले तिलकेन तुल्यः ।।१४।। मातेव रक्षां परितः प्रजानां विधाय याजौ निजघान शत्रुन् । दुर्गावती सा पुरुषातिवीरा बभूव यत्र त्रिपुरी-प्रशास्त्री ।।१५।। जनेषु यस्यास्ति विशालकीर्ति-धनेषु दाने च कुबेरतुल्यः । "आहारदानेश्वर" इत्युपाधि-विभूषितो देवपतिः सुभव्यः ।।१६।। १ कवि कर्मणि प्रसिद्धाः,२ विन्ध्येलखण्डस्य प्राचीन नाम, ३ प्रहरिक तुल्यः, ४ भाषायां वाढ़ इति। ५ रइधू देवगढ़-निवासी प्राकृत भाषायाः महाकविः । ६ भाषायां परमाल इति। छयासठ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डं सद्गुरु श्रीवर्णी च अजायतात्रैव दशाणदेशे, विपन्नलोकस्य शरण्यभूते। सत्यं हि लोके सुकृताग्रभाजां, स्याज्जन्मना क्षेत्रमपि प्रशस्तम् (यामम्) ॥१७।। आहारक्षेत्र प्रतिमासु यस्य, सुपाटव हृष्यति बीक्ष्य चेतः । स पप्पटो मुर्तिकलाविदग्धो, दशार्णरत्नेषु न पश्चिमः स्यात् ।।१८।। स्वातन्त्र्यमूर्तिः कुलजावरेण्या, लक्ष्मी' भवानीव विचित्रवीर्या । प्रदर्शयामास कृपाणहस्ता, स्वातंत्र्यमार्ग सुखदं यदीया ॥१९।। पत्र प्रतापे किल सिंहनाद, यस्यालभन्त प्रतिबद्धलोकाः । क्रान्ते विधाता स हि राष्ट्रवीरो, विन्ध्ये लवासी जयताद्गणेश": ।।२०।। अत्राकरोऽप्यस्ति महामणीना-मनेकपानां जनिकाननञ्च । व्यायामिको विश्वजयी स गामा प्राप्नोति जन्मात्र दशार्णदेशे ॥२१॥ सुवर्ण, देवव्रज, चित्रकूट, चेदि, प्रपौरा, खजुराह, नैनाः । तीर्थालया यत्र विनष्टपापाः सन्ति, प्रियोऽसौ सततं दशार्णः ।।२२।। अयं मुमुक्षुर्विदुषां वरेण्यो, गणेशपूर्वो जयतात्प्रसादः । ज्योतिष्मता त्यागबलेन येन, प्रभाविहीन विभवं प्रणीतम् ॥२३॥ अतुल्यरूपा प्रकृति गरिष्ठा, यथार्थरूपा च विनोदमात्रा-- अत्रास्ति, शिक्षा सदशी तथैव, चेतहि नूनं त्रिदिवो दशार्णः ।।२४।। स्वदेश भक्त्येति विचिन्त्य पूर्व, त्वयेह सर्वत्र 'विबोधसंस्थाः । संस्थापिता लोकहितङ्करेण, प्रत्यक्षरूपाणि फलानि यासाम् ॥२५।। पाश्चात्यशिक्षा खलु शिक्ष्यचित्ते, भोगाधिकारद्वयमेव धत्ते । पूर्वीयशिक्षा विपरीतमस्मात्, त्यागेन साकं किल कर्मयोगम् ।।२६।। इत्थं विचिन्त्यैव दयार्द्रचेतसा, पूर्वीयशिक्षा भवतादृता भृशम् । तस्याः प्रचारोऽपि समर्थवाचया', प्रान्ते समस्ते भवता विधीयते ॥२७॥ त्वज्जन्मदानेन जनाय किन्न, दत्तं दशाणन सूवृद्धिदानिन् ??? । अहं कृतज्ञो भशमेवमीप्से, नित्यं भवेत्ते वयसः सुवतिः ॥२८॥ श्रुतेन शाली, तपसांच मूर्ति-विन्ध्येलखण्डस्य विभूतिरूपः । विद्वत्प्रियश्चारुतर स्वभाव-स्त्वत्कीर्तिमित्थं गुणिनो गदन्ति ।।२९।। यद्यस्ति किचिन्ननु दैवयोगा-माधुर्य मिष्टं सुमते ! ! ! फलेऽस्मिन् । तत्रास्ति सत्य कृतिनस्तवैव, पूर्णों गुणो हे गुरुरूपशाखिन् ! ! ! ॥३०॥ सद्गुरोस्तस्य माहात्म्यं किमन्यद्वर्ण्यतेऽधिकम् । तुच्छोऽपि शीकरो यस्माज्जायते सिन्धुसन्निभः ॥३१॥ महरौनी -(पं०) गोविन्दराय, शास्त्री काव्यतीर्थ १ अकबर सैनिकान् २ देवपति खेड्पतिरिति नाम्ना प्रसिद्धः । ३ झांसी नगरस्य राज्ञी ४ शिक्षितजनाः ५ मुंगावलीनिवासी कानपुरप्रवासी गणेशशंकर विद्यार्थी । ६ पन्नाराज्ये हीरकखनि रोजानामुत्पत्तिवनञ्च विद्यते । ७ अत्रत्य दतियानगरे ८ विद्यालयाः ९ हलन्तानां शब्दानामावन्तत्व स्वीकाराद् यथा वाचा निशा दिशा। सड़सठ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জ্ঞী জুক্স व प्रामाति 4 44वसाय शिक च्य व 서석을 여시섬 씤 या चारु ले २९ मा CI UIT स्या र | 4 या चारुलेख महिता शशि रुच्य वर्मा, रम्या रमा जनमनः जयति स्वभासा। सा भावभासित रसा मति मजुलाभा, प्रभाति भास्वरगुणामर वणि वाणी ॥ बड़ौत-- -(प्रा.) राजकुमार, सिद्धान्तशास्त्री, साहित्याचार्य अड़सठ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन-धर्म Page #89 --------------------------------------------------------------------------  Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अास्तिनास्तिवाद श्री डाक्टर प्रो० ए० चक्रवर्ती अस्तिनास्तिवादको जैन तत्त्वज्ञानकी आधारशिला कहा जा सकता है । तथापि यही वह जैन मान्यता है जिसे दुर्भाग्यवश अधिकांश अजैन विद्वानोंने ठीक नहीं समझा है। जैनेतर विद्वानोंको यह सरलतासे स्वीकार करना कठिन होता है कि एक ही सत् वस्तुमें दो परस्पर विरोधी अवस्थाएं एक साथ संभव हो सकती हैं । आपाततः यह असंभव है । प्रकृतिके किसी पदार्थके विषयमें "है, नहीं है" कैसे कहा जा सकता है । ऐसा कथन सहज ही भ्रामक प्रतीत होता है अतएव जैनेतर विचारक बहुधा कहा करते हैं कि 'अस्तिनास्तिवाद' जैन तत्त्वज्ञानकी बड़ी भारी दुर्बलता है। श्री शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ऐसे दिग्गजोंने भी इसे ठीक ग्रहण करनेका प्रयत्न नहीं किया और 'पागलका प्रलाप' कहकर इसकी अवहेलना कर दी । अतएव जैन वाङ्मयके जिज्ञासुका कर्तव्य हो जाता है कि इस सिद्धान्तको स्वयं सावधानीसे स्पष्ट समझे और इसका ऐसा प्रतिपादन करे कि 'श्राबाल गोपाल' भी इसे समझ सकें । परिभाषा किसी भी वास्तविक पदार्थके विषयमें 'अस्ति' है तथा 'नास्ति' नहीं के व्यवहारको ही अस्तिनास्तिवाद कहते हैं । जैनाचार्योंने यह कभी, कहीं नहीं लिखा है कि एक ही पदार्थका दो परस्पर विरोधी दृष्टियोंसे निर्मर्याद रूपसे कथन किया जा सकता है। जैन अस्तिनास्तिवादसे केवल इतना ही तात्पर्य है कि एक दृष्टिसे किसी पदार्थको 'है' कहा जाता है और दूसरी दृष्टिकी अपेक्षा उसे ही 'नहीं' कहा जाता है । इस प्रकार जैनाचार्योंने तत्त्वज्ञानके गहन सिद्धान्तोंकी व्याख्यामें भी व्यावहारिकतासे काम लिया है। एक चौकीको लीजिये -यह साधारण लकड़ीसे बनी होकर भी ऐसी रंगी जा सकती है कि गुलाबकी लकडीसे बनी प्रतीत हो । आपाततः जो ग्राहक उसे खरीदना चाहेगा वह ठीक मूल्य समझनेके लिए यह जानना ही चाहेगा कि वास्तवमें वह किस लकड़ीसे बनी है। यदि वह बाह्य रूपपर विश्वास करेगा तो अधिक मूल्य देगा । अतएव वह इस विषयके किसी विशेषज्ञसे पूछेगा कि क्या वह चौकी गुलाबकी लकड़ी की है । विशेषज्ञका उत्तर निश्चयसे 'नहीं' ही होगा। बाह्यरूप गुलाबका होनेपर भी चौकी गुलाबकी तो है नहीं, रंग तो पुतायीके कारण है जो कि लकड़ीका वास्तविक रूप छिपाने के लिए किया गया है। फलतः विशेषज्ञ इस बातको पुष्ट करेगा कि चौकी गुलाबकी नहीं है। लकड़ीकी वास्तविकताको प्रकट करनेके Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ लिए यदि विशेषज्ञ चौकीके किसी कोनेको खरोंच देगा तो स्पष्ट हो जायगा कि चौकी किसी साधारण लकड़ीकी है । तब ग्राहकको विशेषज्ञसे अपने प्रश्नका ठीक उत्तर मिल जायगा कि चौकी अामकी साधारण लकड़ीसे बनी है ! इस प्रकार एक ही चौकीके विषयमें दो कथन-एक निषेधात्मक (गुलाबकी लकड़ीकी नहीं है ) और दूसरा विध्यात्मक ( अामकी लकड़ीकी है )-सर्वथा न्याय्य और सत्य है । अर्थात् जब हम जानना चाहें 'क्या यह चौकी वास्तवमें गुलाबकी है ?' तो 'नहीं' उत्तर सत्य है, तथा वास्तव में किस लकड़ीकी बनी है ? इसका उत्तर चाहें तब 'श्रामकी हैं' सत्य है । अतः कह सकते हैं कि निषेधात्मक दृष्टिका उदय तब ही होता है जब वस्तुमें परकी अपेक्षासे कथन होता है । वास्तवमें लकड़ी तो आमकी है किन्तु जिसकी अपेक्षा नहीं कहा गया है वह गुलाबकी लकड़ी चौकोसे पर (अन्य ) है। इसी स्थितिको जैनाचार्योंने निश्चित शब्दावलि द्वारा व्यक्त किया है। स्व और पर ___ दो विरोधी दृष्टियोंमें 'स्वद्रव्य' यानी अपनेपनकी अपेक्षा विधिदृष्टि न्याय्य है तथा 'पर द्रव्य' यानी दूसरेपनको लेकर निषेधदृष्टि भी सत्य है । इसके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं- हमारे पास शुद्ध सोने का गहना है । प्रश्न होता हैं 'गहना किस वस्तुका है ? ठीक उत्तर होगा 'सोने का' । यदि यही गहना अशुद्ध सोनेका होता तो उत्तर होता 'नहीं, यह सोने का नहीं है। यहां पर भी स्वद्रव्य-शुद्ध सोने-की अपेक्षा विधिदृष्टि है, पर द्रव्य नकली सोने-की अपेक्षा निषेधदृष्टि है। इसी प्रकार जब आप जानना चाहते हैं कि आपकी गाय गौशालामें है या नहीं। नौकरसे पूंछा; गाय कहां है ? यदि गाय गौशालामें हुई तो, उसका उत्तर विधिरूप होगा । यदि ऐसा न हुअा तो निषेधरूप होगा वह उत्तर दे गा गौशालामें गाय नहीं है। यदि ग्वाला उसे चराने ले गया होगा तो गौशालाकी अपेक्षा निषेधात्मक दृष्टि ही सत्य होगी। किन्तु यदि जिज्ञासा हो कि क्या गाय हार ( मैदान) में है ? तो उत्तर विधिरूप ही होगा; क्योंकि गाय हारमें चर रही है और गोशालामें बंधी नहीं है। इस प्रकार किसी भी वस्तुके दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। हम किसी पुस्तकको खोजते हैं, वह पुस्तकोंकी पेटीमें नहीं है तब हमें यही कहना होगा “पुस्तक पेटीमें नहीं है।" और यदि पेटीमें हो तो "हां, है" यही उत्तर होगा। क्षेत्र ऐतिहासिक घटनाओंकी सत्य प्रामाणिकता अपने स्थानकी अपेक्षा होती है। जैसे शतक्रतु (Socrates ) एथेनियन दार्शनिक था। यह विध्यात्मिक दृष्टि सत्य है क्योंकि इतिहास प्रसिद्ध दार्शनिक शतक्रतु एथेनमें रहता था। किन्तु यदि कोई अन्वेषक कहे 'शतक्रतु रोमन दार्शनिक था' तो यह वाक्य असत्य होगा क्योंकि शतक्रतुका रोमसे कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। इसके लिए ही निश्चित शास्त्रीय शब्द 'क्षेत्र' है । किसी सत् वस्तुके विषयमें कोई विशेष दृष्टि 'स्वक्षेत्र' (अपने स्थान ) की अपेक्षा सत्य है और Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रस्ति नास्तिवाद परक्षेत्र ( दूसरे स्थान या आधार ) की अपेक्षा निषेध दृष्टि कार्यकारी है। जैसे उपरिलिखित दृष्टान्त में एथेन शतक्रतुका स्वक्षेत्र है और रोम परक्षेत्र है । काल इसी प्रकार एक ही सत् वस्तुको लेकर कालकी अपेक्षा दो परस्पर विरोधी दृष्टियां हो सकती हैं । कोई भी ऐतिहासिक घटना अपने समयकी अपेक्षा सत्य होगी । यदि कोई कहे खारवेल १९ वीं शती में लिंगका राजा था तो यह कथन इतिहास विरुद्ध होगा, कारण, खारवेल १९ वीं शतीमें नहीं हुआ है 1 . इसी प्रकार यदि कोई कहे शतक्रतु दार्शनिक ४ थी शती में ग्रीस में हुआ था तो यह असत्य कथन होगा | वह ईसाकी ४ थी शतीमें नहीं हुआ यह निषेधात्मक कथन उतना ही प्रामाणिक होगा जितना कि वह ईसा पूर्व ४ थी शती में हुआ था यह विध्यात्मक कथन सत्य है । इस प्रकार के दृष्टि भेदके कारणको शास्त्र में निश्चित शब्द 'काल' द्वारा स्पष्ट किया है । कोई भी ऐतिहासिक तथ्य 'स्वकाल' की अपेक्षा विध्यात्मक दृष्टिका विषय होता है और 'परकाल' की अपेक्षा निषेध पक्ष में पड़ जाता है । भाव यही वस्था किसी भी सत् वस्तुके आकार ( भाव ) की है; अपने आकार विशेषके कारण उसे है या नहीं कहा जा सकता हैं। जलके कथन के समय आप उसे द्रव या घन रूपसे ही कह सकते हैं । हिम जलका घन रूप है । यदि कोई हिमके रूपमें जलको कहना चाहता है तो उसे यही कहना होगा कि 'स्वभाव' की अपेक्षा जल घन है । किन्तु यदि उसे तपाया जाय तो उसका आकार (भाव) बदलकर तरल हो जायगा । तब कहना पड़ेगा कि हिम न द्रव है और न भाप है । स्वभावकी अपेक्षा पदार्थका कथन विधि रूपसे होता है और परभावकी अपेक्षा उसका ही वर्णन निषेधमय होता है । कहा ही जाता है कि हिम न द्रव है, न वाष्प है और न कुहरा है क्योंकि वक्ताका उद्देश्य जलके घनरूपसे ही है । व्याख्या ये चारों दृष्टियां अस्तिनास्तिवादके मूल आधार हैं। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल तथा स्वभावकी अपेक्षा किसी भी पदार्थका विधि रूपसे कथन किया जाता है । तथा वही वस्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा पूर्ण प्रामाणिकता पूर्वक निषेध रूपसे कही जाती है । जब स्थिति को इस प्रकार समझा जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि क्यों एक ही पदार्थ के विषयमें विधिदृष्टि सत्य होती है तथा उसी प्रकार निषेध दृष्टि भी कार्यकारी होती है । इसमें न भ्रान्तिकी सम्भावना है और न तत्त्वज्ञान सम्बन्धी कोई रहस्यमय गुत्थी ही सुलझानेका प्रश्न उठता है। हम सहज ही कह सकते हैं कि यह ज्ञानप्रणाली इतनी सर्व- श्राचरित होकर भी न जाने क्यों बड़े बड़े विचारकोंको भली भांति समझमें नहीं आयी और इसमें उन्हें अनिश्चय तथा भ्रान्ति दिखे । यह सत्य है कि यह सिद्धान्त वास्तविक पदार्थों के ज्ञानमें ही साधक है ५ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ ! यथा, गायके सींग होते हैं । किन्तु जब वह बलिया होती है तब तो सींग नहीं होते; अतः बछियाके सीगों का कथन नहीं होना चाहिये । अतएव एक ही पशुके विषयमें कहा जाता है कि एक समय इसके सींग नहीं थे और बादमें इसके सींग हो गये । इसकी जीवनगाथाके क्रमसे सीगों का निषेध तथा विधि की गयी है । बलिया अवस्था में सींग नहीं थे, जब बढ़कर गाय हो गयी तो सींग हैं । अतः श्राप कह सकते हैं -- ' सींग हैं' 'सींग नहीं हैं' अथवा एफ ही गायके सीगों की सत्ता की विधि तथा निषेध उसकी वृद्धिकी अपेक्षा करते हैं अतः हम घोड़े तथा शृगाल के सीगोंकी भी विधि तथा निषेध करेंगे। किंतुऐसा नहीं किया जा सकता, यद्यपि ऐसी आपत्ति जैन विचारकोंके सामने उठायी जाती है:-यतः श्राप एकही पशुके सोगों की विधि तथा निषेध करते हैं तो क्या एक ही घोड़ा या शृगालके सींगोंकी भी विधि-निषेध कर सकेंगे ? किन्तु प्रतिपक्षीकी यह शंका निराधार है । घोड़े या शृगालके सीगों की सत्ता ही प्रसिद्ध है अतः उनका विचार सत् वस्तुके समान नहीं किया जा सकता । अस्तिनास्तिवाद संसारके पदार्थोंकी वास्तविक स्थितिकी अपेक्षा ही प्रयुक्त होता है, कल्पना जगत् इसके परे है । असत् पदार्थों में इसका प्रयोग नहीं हो सकता । सैण्टौर अथवा यूनीकोर्न' ऐसे पौराणिक जन्तुओं का विचार भी इसके द्वारा नहीं किया जा सकता । अतएव उक्त प्रकारकी आपत्ति प्रसंगिक तथा व्यर्थ है । सापेक्षता एक ही सत् वस्तुका कथन परस्पर विरोधी नित्य नित्यवाद, भेद-भेदवाद के सिद्धान्तों के अनुसार करना स्तिनास्तिवाद के ही समान है । आपातत: परस्पर विरोधी होनेपर भी नित्यानित्यादि दृष्टियों का प्रयोग एकही वस्तुमें पक्षभेद को लेकर होता है। स्वद्रव्यकी अपेक्षा कोई भी वस्तु नित्य कही जा सकती है, उसी वस्तुकी भावी पर्यायवर दृष्टि डालें तो उसे ही अनित्य कह सकते हैं। सोनेका एक गहना (कटक) गलाकर दूसरा गहना (केयूर) बन जाता है अर्थात् इस स्थितिमें निश्चित ही कटकको नित्य कहना होगा क्योंकि सुनार स्वामीकी इच्छानुसार कभी भी इसे गला सकता है और इसकी सत्ताको मिटासकता है । किन्तु सुनारकी कुशलता और स्वामी की इच्छा सोनेका सर्वथा लोप नहीं कर सकते। सोनेका विनाश नहीं हो सकता वह स्थायी है, अतः यहां सोने को नित्य कहना ही पड़ेगा। अतः व्यापक द्रव्य की अपेक्षा किसी भी वस्तुको नित्य कहते हैं तथा पर्याय विशेष की अपेक्षा से अनित्य ही कहना पड़ता है । अतएव उक्त प्रकारसे एक ही पदार्थ में नित्य नित्य दृष्टियां प्रामाणिक तथा कार्यकारी होती हैं । द्रव्य-पर्याय यह दृष्टि और भी विशद हो सकती है यदि हम वृक्ष या पशु ऐसे किसी अंग अंग पदार्थ को देखें । बृक्षका जीवन वीजसे प्रारम्भ होता है और वह ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है त्यों त्यों उसमें परिवर्तन होते जाते १. पौराणिक जन्तु जो कमर के नीचे घोड़ा और ऊपर आदमी होता है। २. पौराणिक अश्व दैत्य जिसके शिरपर एक सींग होता है । ६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिनास्तिवाद हैं। बीजसे अंकुर, अंकुरसे छोटा पौधा, पौधेसे बढ़कर वृक्ष होता है । प्रत्येक अवस्थामें वृद्धि और विकास है तथा इसके साथ-साथ प्रत्येक अंगके कार्य में परिवर्तन भी है । यहां एकही अंगि वृक्षमें सतत परिवर्तन है किन्तु अंगि अपरिवर्तित और अवस्थित ही रहता है। कोई भी जामुनका वृक्ष अपनी सब पर्यायोंको पूर्ण करता हुआ परिपूर्ण जामुन वृक्ष हो सकता है किन्तु अपनी वृद्धि के समयमें ऐसा परिवर्तन नहीं ही कर सकता.कि अकस्मात् जामुनसे अामका वृक्ष हो जाय । देखा जाता है कि आमके बीजसे श्राम और जामुनके बीजसे जामुनका ही वृक्ष होता है । फलतः कह सकते हैं कि प्रत्येक वस्तु अपनी वृद्धिके क्रमसे पर्याएं बदलकर भी अपने विशेष व्यापक रूपको स्थायी रखती है, जो कि अस्थायी नहीं होती है । यदि जामुनकी वृद्धि रुक जाय, नये अंकुर न निकलें, पुरानी पत्तियां न गिरें तथापि उसके जीवनमें उस अवस्था को स्थायी रखनेका प्रयत्न होता रहेगा। किन्तु स्थायित्व प्राप्तिका यह प्रयत्न भी मृत्युमें परिणत हो जाता है । क्योंकि यदि कोई भी सजीव अंगी जब किसी विशेष अवस्थाको सुदृढ़ करना चाहता है तो यह प्रयत्न मृत्युका आमन्त्रण ही होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सजीव अंगीमें प्रतिपल परिवर्तन (पर्याय) होते हैं, प्रत्येक पर्याय पूर्व तथा आगामी पर्याय से भिन्न होती है तथापि अंगीकी एकता स्थायी रहती है। वृद्धिकी प्रक्रिया द्वारा मूल प्रकृति नहीं बदली जा सकती है । फलतः एक ही वृक्षके जीवनमें अभेद ( एकता ) और भेद (विषमता ) देखते हैं । वास्तव में यही वस्तु स्वभाव है जिसे जैनाचार्यों ने उचित रूपसे समझा था। पर्यालोचन प्रत्येक सत् वस्तुमें व्यापक तथा स्थायी रुपसे भेद या परिवर्तन होता है तथा सब पर्यायोंमें एक अभेद सूत्र भी रहता है । पदार्थों के स्वभावका ही यह वैचित्र्य है कि हम उन्हें अस्तिनास्ति, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य, आदि ऐसी परस्पर विरोधी दृष्टियोंसे देखते हैं । यह मौलिक तत्त्व दृष्टि ही जैन-चिन्ताकी आधार शिला है तथा यही जैन दर्शनको भारतीय तथा योरुपीय दर्शनोंसे विशिष्ट बनाती है। किसी भारतीय दर्शनने इसे अंगीकार नहीं किया है। प्रत्येक भारतीय दर्शन वस्तु के एक पक्षको लिये है तथा अन्य पक्षों की उपेक्षा करके उसीका समर्थन करता है । वेदान्त ब्रह्मके नित्य रूपका ही प्रतिपादन करता है, उसे परिवर्तनहीन नित्य कहता है। इसका प्रतिद्वन्दी बौद्ध क्षणिकवाद है जो सब सत् पदार्थोंको अनित्य ही कहता है तथा पदार्थों में व्याप्त एकताकी उपेक्षा करता है । बौद्धके लिए प्रत्येक पदार्थ क्षणिक या अनित्य है,उसके अनुसार वस्तु एक क्षणमें उत्पन्न होती है तथा दूसरेमें नष्ट । उनकी दृष्टि से बाह्य संसार या अन्तरंग चेतनामें ऐसी कोई अवस्था नहीं है जो स्थायी या नित्य हो । एक पक्षको प्रधान करके अन्य पक्षोंके लोपकी इस विचारधाराको जैनाचार्यों ने 'एकान्तवाद' माना हैं तथा अपनी क्रियाको अनेकान्तवाद ( सब पक्षोंसे विचार ) कहा है वस्तुतः अस्ति नास्तिवाद सत् पदार्थों का स्वभाव हैं क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अनेक गुण तथा पर्यायोंका समूह है अतः उसे जाननेके लिए उसके विविध पक्षों (अनेक-अन्तों) को Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जानना अनिवार्य है। इस वास्तविक सिद्धान्तकी उपेक्षा करके यदि सत् वस्तुका विवेचन किया जायगा तो वही हाल होगा जो उस हाथीका हुआ था जिसे अनेक अन्धोंने जाना था। तथा हाथीको खम्भा, सूपा, बिटा, आदि कहकर सर्वथा विकृत कर दिया था। निष्कर्ष यदि पदार्थके जटिल स्वभावको ठीक तरहसे जानना है तो उसे अनेकान्त दृष्टि से ही देखना चाहिये । इस प्रकार कहा जा सकता है कि तत्त्वज्ञानके लिए जैनदृष्टि अन्य दर्शनोंकी अपेक्षा अधिक युक्तिसंगत तथा व्यापक है । अन्य दर्शनोंने एक निश्चित सांचा बना दिया है जिसमें डालकर वे सत पदार्थों के ज्ञानको निचोड़ लेना चाहते हैं । जिसकी तुलना प्रक्रिसयिन' पलंगसे की जा सकती है जिस पर डालकर वे सत्पदार्थरूपी पुरुषके अन्य पक्षरूपी अंगोंको काटनेमें नहीं सकुचाते हैं; क्योंकि ऐसा किये विना वह एकान्तके सांचेमें नहीं आता है | इस प्रकार पदार्थके अंगच्छेदको न विज्ञान कहा जा सकता है न दर्शन; यह तो अपने अन्धविश्वासका दुराग्रह ही कहा जा सकता है जिसका उद्गम पदार्थों की एकरूपतासे होता है। यह दृष्टि तत्त्वज्ञानके विपरीत है यह स्वयं सिद्ध है। मनुष्यको वस्तु स्थिति जानना है, वस्तुस्थितिको इच्छानुकूल नहीं बनाना है । इस दृष्टि से विचार करने पर विश्वके दर्शनोंमें जर्मन दार्शनिक हीगलका द्वन्द्व सिद्धान्त ही जैन दृष्टिके निकट पहुंचता है । हीगलकी तत्त्वज्ञान दृष्टि जैनदृष्टिके समान सी है। उसका पक्ष, प्रतिपक्ष तथा समन्वयका सिद्धान्त अस्तिनास्तिवादसे मिलता जुलता है क्योंकि वह भी विरोधियोंमें एकता या भेदका परिहार करता है। किन्तु अन्य बातोंमें हीगलका आदर्शवाद जैन तत्त्वज्ञानसे सर्वथा भिन्न है अतः इस एक सिद्धान्तकी समताके अतिरिक्त दूसरी किसी भी समानताका हम समर्थन नहीं कर सकते । इस दार्शनिक प्रक्रियाको ही हम दार्शनिक ज्ञानका प्रकार कह सकते हैं जो कि वस्तु स्वभावके प्रकाशके लिए उपयुक्त तथा पर्याप्त है क्योंकि सर्वाङ्गसुन्दर वस्तु स्वभाव ही तो ज्ञानका साध्य या लक्ष्य है। इसीलिए जैनाचार्योंने प्रत्येक तत्त्वको जाननेमें व्यापक सिद्धांतका सफल प्रयोग किया है और तत्त्वज्ञान प्राप्तका किया है। १. क्रश्चियन पुराणों में प्रोक्रष्टियन' शय्या का वर्णन है जिसपर लेटते ही लम्बा आदमी कट कर तथा छोटा आदमी खिंच कर पलंगके बराबर हो जाता था इसीके आधार पर बलवत् घटाने बढ़ाने के अर्थमें इस शब्दका प्रयोग होने लगा है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दनय श्री पं० कैलाशचन्द्र, सिद्धान्तशास्त्री प्रास्ताविक इतर दर्शनोंसे जैनदर्शनोंमें जो अनेक विशिष्ट बातें है, उन्हीमें से नय भी एक है। यह नय प्रमाणका ही भेद है । स्वार्थ और परार्थके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका माना गया है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं क्यों कि इनके द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जान सकता है। किन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ भी होता है और परार्थ भी होता है । जो ज्ञानात्मक श्रुत है वह स्वार्थं प्रमाण है और जो वचनात्मक श्रुत है वह परार्थ प्रमाण है। ज्ञानात्मक श्रुतसे ज्ञाता स्वयं जानता है और वचनात्मक श्रुतसे दूसरोंको ज्ञान कराता है। उसी श्रुत प्रमाणके भेद नय हैं । नयका लक्षण द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुके जानने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । और केवल द्रव्य दृष्टि या केवल पर्यायदृष्टिसे वस्तुके जानने वाले ज्ञानको नय कहते हैं । इसीसे नयके दो मूल भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नयके तीन भेद हैं—नैगम, संग्रह और व्यवहार । तथा पयार्थिक नयके चार भेद हैं -ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सात नयोंमें से शुरूके तोन नयोंको अर्थनय और शेष चार नयोंको शब्दनय भो कहते हैं क्योंकि वे क्रमशः अर्थ और शब्दकी प्रधानतासे वस्तुको ग्रहण करते हैं । एक बार मेरे एक विद्वान् मित्रने नयोंके उक्त सात भेदोंमें से पांचवें भेद शब्दनयके लक्षण की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया । उनका पत्र पढ़कर मुझे इस दिशामें खोज करने की उत्सुकता हुई । अनेक ग्रन्थोंके देखनेसे मुझे मालूम हुआ कि शब्दनयके लक्षणको लेकर कुछ टीकाकारोंमें मतभेद है । विद्वानोंसे पूछा गया तो वे भी इस विषयमें एकमत न थे । अतः पूर्वाचार्योंके वचनोंका आलोडन करके कुछ निष्कर्ष निकालना ही उचित प्रतीत हुआ। प्रश्न और समाधान मित्रका प्रश्न था कि शब्दनय व्याकरण सिद्ध प्रयोगोंका अनुसरण करता है या नहीं? अनेक Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थोंके आलोडनके बाद मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि, शब्दनय व्याकरण सिद्ध प्रयोगोंका अनुसरण तो करता है किन्तु एकान्तवादी वैयाकरणोंका अनुसरण नहीं करता । शब्दार्थ मीमांसा— इस निर्णयकी मीमांसा करनेके लिए शब्दशास्त्र के सम्बन्ध में कुछ कहना आवश्यक है । संसारमें दो वस्तुएँ मुख्य हैं— अर्थ और शब्द । इन दोनोंको क्रमशः वाच्य और वाचक कहते हैं । हम जितने अथको देखते हैं उनके वाचक शब्दों को भी सुनते ही हैं। अर्थ तो हो किन्तु उसका वाचक शब्द न हो, यह आज तक न तो देखा गया और न सुना गया । श्राजकल जितने श्राविष्कार होते हैं उनका नाम पहले से ही निर्धारित कर लिया जाता है । सारांश यह; कि संसारमें कोई चीज विना नामकी नहीं है, इसीसे दार्शनिक क्षेत्रमें प्रत्त्येक दर्शनके मूलतत्त्व अर्थ न कहे जाकर पदार्थ कहे जाते हैं । मध्ययुगके दार्शनिक टीकाकारोंमें यह एक नियम सा हो गया था कि ग्रन्थके प्रारम्भ में शब्दार्थ सम्बन्धकी मीमांसा करना आवश्यक है । शब्द और अर्थके इस पारस्परिक सहभावने 'अद्वैत' का रूप धारण कर लिया जो शब्दाद्वैतके नामसे ख्यात हुआ । पाणिनि व्याकरण के रचयिता श्राचार्य पाणिनिके नाम पर इसे परिणनिदर्शन भी कहा जाता है । जैसे अद्वैतवादी वेदान्ती दृश्यमान संसारके भेदको 'मायावाद' कहकर उड़ा देते हैं उसी प्रकार शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणों का मत है कि घट, पट, आदि शब्द एक अद्वैत तत्त्वका ही प्रतिपादन करते हैं । दृश्यमान घट, पट, आदि अर्थ तो उपाधियां हैं; असत्य हैं। जैसा कि कहा है 'सत्यं वस्तु तदाकारै रसत्यैरवधार्यते । असत्योपाधिमिः शब्दैः सत्यमेवाभिधीयते ॥' पाणिनीका मत यद्यपि सब शब्द एक अद्वैततत्त्वका ही प्रतिपादन लौकिक वाच्य मानना ही पड़ता है, अतः पाणिनि मानते हैं । ( सर्वदर्शन संग्रह - पाणिनि दर्शन ) करते हैं फिर व्यवहारके लिये शब्दों का व्यक्ति और जातिको पदका अर्थ पदार्थ पाणिनिके मत अनुसार एक शब्द एक ही व्यक्तिका कथन करता है, अतः यदि हमें बहुत से व्यक्तियोंका बोध कराना हो तो बहुतसे शब्दों का प्रयोग करके “सरूपाणामेकशेष एक विभक्तौ " (१-२-६४) सूत्रके अनुसार एक शेष किया जाता है। जैसे यदि बहुतसे वृक्षोंका निर्देश करना हो तो वृक्ष, वृक्ष, वृक्ष में से रूक ही शेष रह जाता है और उसमें बहुवचनका बोधक प्रत्यय लगाकर 'वृक्षाः' रूप बनता १० १ किं पुनराकृतिः पदार्थः अहोस्त्रिद् द्रव्यम् ? उभयमित्याह । कथं ज्ञायते ? उभयथा हि आचार्येण सूत्राणि पठितानि आकृतिं पदार्थं मत्वा ‘जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनम-व्यतरस्याम्' इत्युच्यते द्रव्यं पदार्थं मत्वा 'सरूपाणाम्' इति एक शेष आरम्यते । पातञ्जल महाभाष्य पृ० ५२-५३ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दनय है किन्तु यदि जातिका निर्देश करना हो तो एक वचनमें भी काम चल सकता है। यह एकान्तवादी वैयाकरणोंका मत है । अब अनेकान्तवादी वैयाकरणोंके मतका भी दिग्दर्शन कीजिये । जैन वैयाकरणोंका मत जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता प्राचार्य पूज्यपाद अपने व्याकरणका प्रारम्भ ‘सिद्धिरनेकान्तात्' सूत्रसे करते हैं । हैम-शब्दानुशासनके रचयिता श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने भी 'सिद्धिः स्याद्वादात्' सूत्रको प्रथम स्थान देकर पूज्यपादका अनुसरण किया है जो सर्वथा स्तुत्य है । इन श्राचार्योंका मत है कि अनेकान्तके विना शब्दकी सिद्धि नहीं हो सकती, एक ही शब्दका कभी विशेषण होना, कभी विशेष्य होना, कभी पुलिंगमें व्यपदेश होना, कभी स्त्रीलिङ्गमें कहा जाना, कभी करणमें प्रयोग करना, कभी कर्नामें प्रयोग होना, आदि परिवर्तन एकान्तवादमें नहीं हो सकते । इसीलिए शब्दनयका वर्णन करते हुए अकलंक देवने लिखाहै-'कि एकान्तवादमें षट्कारकी नहीं बन सकती । जैसे प्रमाण अनन्त धर्मात्मक वस्तुका बोधक है अतः उसका विषय सामान्य विशेषात्मक वस्तु कही जाती है, इसी तरह शब्द भी अनन्त धर्मात्मक वस्तुका वाचक है अतः उसका वाच्य न केवल व्यक्ति है और न केवल जाति किन्तु जाति व्यक्त्यात्मक या सामान्य विशेषात्मक वस्तु शब्दका वाच्य है । यह अनेकान्तवादकी दृष्टि है । अतः पाणिनिने व्यक्ति और जातिको स्वतंत्र रूपसे पदका अर्थ मानकर जो 'एक शेष' का नियम प्रचलित किया, पूज्यपाद उसकी कोई श्रावश्यकता नहीं समझते । वे लिखते हैं-शब्द स्वभावसे ही एक दो या बहुत व्यक्तियोंका कथन करता है अतः एक शेषकी कोई आवश्यकता नहीं है । पाणिनि और पूज्यपादके इस मतभेदसे यह न समझ लेना चाहिये कि दोनोंके सिद्ध प्रयोगोंमें भी कुछ अन्तर पड़ता है। शब्द सिद्धि में मतभेद होते हुए भी दोनोंके सिद्ध प्रयोगोंमें कोई अन्तर नहीं है। शब्दका जैसा रूप एकान्तवादी वैयाकरण सिद्ध करते हैं वैसा ही अनेकान्तवादी सिद्ध करते हैं केवल दृष्टिका अन्तर है । इस दृष्टि वैषम्यको दूर करनेके लिए ही शब्दनयकी सृष्टि हुई है । इतर वैयाकरण वाच्य-वाचक सम्बन्धको मानकर भी दोनोंको स्वतंत्र मानते हैं । वाचकके १-एकस्यैव हस्त दीघादि विधयोऽनेककारक सन्निपातः सामानाधिकरण्यं विशेषण विशेष्यभावादयश्च स्याद्वाद मन्तरेण नोपपद्यते" । सिद्ध हैम०। २-'तन्नैकान्ते षटकारकी व्यवतिछत' । न्याय कुमुद पृ० २११ । ३-'जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु ततोऽस्तु ज्ञानगोचरः । प्रसिद्ध बहिरन्तश्च शब्दव्यवहृतीचणात् ॥५॥' . तत्त्वार्थश्लोक वा० पृ० ११०।। ४-स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैव शेषानारम्भः, । १।१।९९। जैनेन्द्र सूत्र । ११ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ रूपमें परिवर्तन हो जाने पर भी वाच्यके रूपमें कोई परिवर्तन नहीं मानते । किन्तु जैन शब्दिकोंका मत' है-"वाचकमें लिंग, संख्या, श्रादिका जो परिवर्तन होता है वह स्वतंत्र नहीं है किन्तु अनन्त धर्मात्मक बाह्य वस्तुके ही आधीन है। अर्थात् जिन धर्मोंसे विशिष्ट वाचकका प्रयोग किया जाता है वे सब धर्म वाच्यमें रहते हैं। जैसे यदि गंगाके एक ही किनारेको संस्कृतके 'तटः' 'तटी' और 'तटम' इन तीन शब्दोंसे कहा जाय-इन तीनों शब्दोंका मूल एक तट शब्द ही है इनमें जो परिवर्तन हम देखते हैं वह लिंगभेदसे हो गया है--यतः ये तीनों शब्द क्रमशः पुलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंगमें निर्देश किये गये हैं अतः इनके वाच्यमें तीनों धर्म वर्तमान हैं । क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है अतः उसमें तीनों धर्म रह सकते हैं । ( यदि कोई व्यक्ति स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसकलिंग इन तीनों धर्मोंको परस्परमें विरुद्ध मानकर एकही वस्तुमें तीनोंका सद्भाव माननेसे हिचकता है तो उसे अनेकान्तकी प्रक्रियाका अध्ययन करना चाहिये ) इसी तरह एक दो या बहुत व्यक्तियोंके वाचक दारा, श्रादि शब्दोंमें नित्य बह्वचनका प्रयोग होना और बहत सी वस्तुअोंके वाचक वन, सेना, आदि शब्दोंके साथ एक वचनका प्रयोग करना असंगत नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वस्तुके अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्मकी अपेक्षा से शब्द व्यहार किया जा सकता है।" जैन और जैनेतर वैयाकरणोंके इस संक्षिप्त मतभेद प्रदर्शनसे उक्त निर्णयकी रूपरेखाका आभास चित्रित हो जाता है । अतः अब प्राचार्योंके लक्षणों पर विचार करना उचित होगा। शब्दनयके लक्षणों पर विचार ऐतिहासिक परम्पराके अनुसार शब्दनयके स्वरूपका प्रथम उल्लेख सर्वार्थसिद्धि टीकामें पाया जाता है। उसके बाद दूसरा उल्लेख अकलंकदेवके तत्त्वार्थ राजवार्तिकमें है जो प्रायः सर्वार्थसिद्धिके उल्लेखसे अक्षरशः मिलता है । इसे हम 'पूज्यपादकी परम्परा' के नामसे पुकार सकते हैं । पूज्यपादने शब्दनयका जो लक्षण लिखा था वह स्पष्ट होते हुए भी अस्पष्ट था-खींचातानी करके उसके शब्दोंका विपरीत अर्थ भी किया जा सकता था, जैसा कि आगे चलकर हुआ भी और जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे सामने उपस्थित है । अतः इस लक्षणको दार्शनिक क्षेत्रमें कोई स्थान न मिल सका । प्रातः स्मरणीय अकलंकदेवने इस कमीका अनुभव किया । यद्यपि उन्होंने अपने राजवर्तिकमें सर्वार्थसिद्धिका ही अनुसरण किया, किन्तु अपने स्वतंत्र प्रकरणोंमें उसकी शब्दयोजनाको बिल्कुल बदल दिया। आर्ष पद्धतिके अनुकूल १-लिङ्ग संख्यादियोगोऽपि अनन्तधात्मक वाद्यवस्त्वाश्रित एव । न चैकस्य 'तटः तटी तटम्' इति स्त्रीपुनपुस काख्यं स्वभावत्रयं विरुद्ध, विरुद्धर्माध्यासस्य भेदप्रतिपादकत्वेन निषिद्धत्वात् अनन्तधर्माध्यासितस्य च वस्तुनः प्रतिपादितत्त्वात् । अतएव दारादिध्वर्थेषु बहुत्वसंख्या वनसेनादियु च एकत्वसंख्याऽविरुद्धा यथाविवक्षमनन्तधर्माध्यासिते वस्तुनि कस्यचिद्धर्मस्य केनचिच्छब्देन प्रतिपादनाविरोधात्। सन्मतिः टीका पृ० २६५ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दनय इस परिवर्तनका विद्वत्-समाजने अादर किया-अकलंकदेवके बादमें होने वाले प्रायः समस्त दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दार्शनिकोंने अपने ग्रन्थों में उसे स्थान दिया। अतः अकलंक देवकी दृष्टि से ही हम इस विषय पर विचार करना उपयुक्त समझते हैं। अकलंकदेव अपने 'लधीयस्त्रय' प्रकरणमें लिखते हैं कालकारक लिंगानां भेदाच्छब्दोऽर्थ भेदकृत् । अभिरूढ़स्तु पर्यायै रित्थं भूतः क्रियाश्रयः ॥ स्वोप० विवृति-कालभेदात् तावद् 'अभूत्' 'भवति' 'भविष्यति' इति । कारकभेदात् , 'करोति' 'क्रियते' इत्यादि । लिंगभेदात् 'देवदत्तः' 'देवदत्ता' इति । पर्यायभेदात् इन्द्रः, शक्रः, पुरन्दर इति । तथा एतौ कथितौ। क्रियाश्रय एवंभूतः । ___अर्थ-"काल, कारक और लिंगके भेदसे शब्दनय वस्तुको भेदरूप स्वीकार करता है । 'हुश्रा' होता है, होगा' यह कालभेद है । 'करता है, किया जाता है' यह कारक भेद है । 'देवदत्त, देवदत्ता' यह लिंगभेद है, समभिरूढनय शब्दके भेदसे अर्थको भेदरूप मानता है और एवंभूतनय क्रियाके अश्रित है। जैन दृष्टि से वस्तु अनन्त धर्मात्मक-अनन्तधर्मोंका अखण्ड पिण्ड-है । स्याद्वाद् श्रुतके द्वारा उन धौंका कथन किया जाता है । अतः जैसे ज्ञानका विषय होनेसे वस्तु ज्ञेय है उसी तरह शब्दका वाच्य होनेसे अभिधेय भी है। हम जिन जिन शब्दोंसे वस्तुको पुकारते हैं वस्तुमें उन उन शब्दोंके द्वारा कहे जानेकी शक्तियां विद्यमान हैं । यदि ऐसा न होता तो वे वस्तुएं उन शब्दोंके द्वारा न कहीं जाती और न उन शब्दोंको सुनकर विवक्षित वस्तुओंका बोध ही होता । जैसे 'पानी' भिन्न भिन्न भाषाओंमें भिन्न भिन्न नामोंसे पुकारा जाता है या एक ही भाषाके अनेक शब्दोंसे कहा जाता है । अतः उसमें उन शब्दोंके द्वारा कहे जानेकी शक्तियां विद्यमान हैं । यह समभिरूढ़ नयकी दृष्टि है । इस नयका मन्तव्य है कि 'पानी शब्द पानो के धर्मकी अपेक्षासे व्यवहृत होता है जल शब्द उस ही धर्मकी अपेक्षासे व्यवहत नहीं होता है। संस्कृतमें पानीको 'अमृत' भी कहते हैं और 'विष' भी। प्यासेको जिलाता है अतः अमृत है और किसी, किसी रोगमें विषका काम कर जाता है अतः विष है। इसलिए अमृत और विष यह दो शब्द पानीके एक ही धर्मको लेकर व्यवहृत नहीं होते। भिन्न भिन्न शब्दोंके विषयमें जो बात ऊपर कही गयी है वही बात एक शब्दके परिवर्तित रूपोंके विषयमें भी कही जा सकती है । कालभेदसे एक ही वस्तु तीन नामोंसे पुकारी जाती है। जब तक कोई वस्तु नहीं उत्पन्न हुई तब तक उसे 'होगी' कहते हैं । उत्पन्न होने पर होती है' कहते हैं । कुछ समय बीतने पर 'हुई' कही जाती है । यह तीनों शब्द 'होना' धातुके रूप हैं और वस्तुके तीन धर्मोकी ओर संकेत करते हैं। इसी तरह कारक और लिंगके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये । भिन्न भिन्न कारकोंकी विवक्षासे एक ही वृक्ष 'वृक्षको' 'वृक्षसे' 'वृक्षके लिए' 'वृक्षमें' आदि अनेक रूपोंसे कहा जाता है। अतः ये शब्द वस्तुके Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ भिन्न धर्मोंकी ओर संकेत करते हैं। एक बच्चा पुरुष होनेके कारण देवदत्त कहा जाता है वह यदि लड़कियों का सा वेश कर ले तो कुटुम्बी जन उसे देवदत्त' न कहकर 'देवदसा' कह उठते हैं। अतः लिंग भेदसे भी अर्थभेदका सम्बन्ध है । यह सब शब्दनयकी दृष्टि है । यहां इतना विशेष जानना चाहिये, यदि एक ही अर्थके वाचक भिन्न भिन्न शब्दों में भी लिंगभेद या वचनभेद हो तो यह नय उनके वाच्यको भिन्न भिन्न दृष्टिकोणोंसे ही स्वीकार करेगा । शब्दनयके उक्त लक्षण के समर्थन में अब हम कुछ ग्रन्थकारों का मत देते हैं अनन्तवीर्य लिखते हैं— 'कारक' श्रादिके भेद से अर्थको भेदरूप समझने वाला शब्दनय है" । विद्यानन्दि खुलासा करते हुए लिखते हैं- "जो वैयाकरण व्यवहारनय के अनुरोधसे काल, कारक, व्यक्ति, संख्या, साधन, उपग्रह, श्रादिका भेद होने पर भी पदार्थ में भेद नहीं मानते हैं परीक्षा करने पर उनका मत ठीक नहीं जंचता, यह शब्दनयका अभिप्राय है, क्योंकि काल, आदिका भेद होने पर भी अर्थमें भेद न माननेसे अनेक दोष पैदा होते है" । ६ आचार्य श्री देवनन्दि प्रभाचन्द्र वादिराज" अभयदेव और अनन्तवीर्य द्वितीय भी उक्त मतका अनुसरण करते हैं । و १ - [भेद:- विशेषैः शब्दस्यार्थः वजन पर्यायः तस्य भेद-जानाल, नयः प्रविपतुरभिप्रायः वाच्यः कथनीयः किंभूतेदेरिति आह कारक या लिखित सिद्धिविनिश्चय टीका 1 २- कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं यः प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनयः शब्दप्रधानत्वादुदाहृतः ।। ६८ ।। विश्वश्वा अनिता सुनुरित्येकमाहृताः पदार्थ कामेदेऽपि व्यवहारानुरोधताः । ६९ ।। करोति क्रियते पुण्यस्तारकाऽऽर्पोऽभ इत्यपि । कारक व्यक्ति संख्यानां भेदेऽपिं च परे जनाः ॥ ७० ॥ एहि मन्ये रथेनेत्यादिक साधनभयपि संतिष्ठेतापतिष्टे वायुपद्मभेदने॥ ६१ ॥ 1 तन्न श्रेयः परीक्षायामिति शब्दः प्रकाशयेत् । कालादिभेदनेऽप्यर्थभेदनेऽति प्रसंगतः ||७२ || - श्लोकहाकि ० १७१ १३- जो वट्टणं णा मणणइ एयत्थे भिण्णलिंगआईणं । सोसद्दणाओं भणिओ ओ पसाइआण जहा || १३ || नयचक्र पृ० ७७ । ४-काल कारक लिंग संख्या साधनोपग्रह भेदादभिन्नमर्थं शपतीति शब्दनयः ततोऽपस्तं वैयाकरणानां मतम् । ते ० २०६ पूर्वी । हि कामेऽप्येक पदार्थमादृताः इत्यादि प्रमे ५-कासादिमेदादर्थभेदकारी शब्दः कालभेदात् अभूत् देहि । न्यायविनिश्चयटीका लि० पृ० ५९७ उत्त० । भवति भविष्यति कारकभेदात्-पृश्च पश्य वृक्षाय ६- तत्र काल कारक लिंगभेदादर्शभेदकृद् शब्दनयः । लघीयत्रयवृत्ति पृ० २२ । ७- काल कारक लिंगानां भेदाच्छब्दस्य कथञ्चिदर्थभेदकथनं शब्दनयः । प्रमेयरन० पृ० ३०७ । * Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दनय श्वेताम्बर आचार्य भी शब्दनयके उक्त स्वरूपके विषयमें एकमत हैं । वादिदेव' कहते हैं''काल आदिके भेदसे जो पदार्थ भेदको स्वीकार करता है वह शब्दनय है। जैसे-'सुमेरु था, है और रहेगा' । जो काल, आदिके भेदसे सर्वथा अर्थभेद को ही स्वीकार करता है वह शब्दाभास है"। ____मल्लिषेण लिखते हैं-शब्दनय एक अर्थके वाचक अनेक शब्दोंका एक ही अर्थ मानता है । जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्द एक 'देवराज' अर्थ का ही कथन करते हैं। यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि जिस प्रकार यह नय पर्याय शब्दोंका एक ही अर्थ मानता है उसी प्रकार लिंगादिके भेदसे वस्तुके भेदको भी स्वीकार करता है । भिन्न भिन्न धर्मों के द्वारा कही जाने वाली वस्तुमें धर्मभेद न हो, यह नहीं हो सकता"। सिद्धर्षिगणि और उपाध्याय यशोविजयजी का भी यही मत है। सर्वार्थसिद्धिका लक्षण शब्दनयके विषयमें अकलंकदेवकी परम्पराका अनुशीलन करनेके बाद अब हम पूज्यपादकी परम्पराका विश्लेषण करेंगे। इस परम्परामें हमें तीन ही विद्वान् दृष्टिगोचर होते हैं—एक स्वयं पूज्यपाद दूसरे राजवार्तिकके रचयिता भट्टाकलंक और तीसरे तत्त्वार्थसारके कर्ता अमृतचन्द्रसूरि, श्वेताम्बर विद्वानोंमें सन्मतिकी टीकाके रचयिता श्री अभयदेवसूरि पर भी पूज्यपादकी परम्पराकी कुछ छाप लगी सी जान पड़ती है। ___ सर्वार्थसिद्धि में लिखा है-"लिंग संख्या, साधन, आदिके व्यभिचारको जो दूर करता है उसे शब्दनय कहते हैं' । राजवार्तिक' में मामूलीसे हेर फेरके साथ यही लक्षण किया गया है । इस लक्षण में 'व्यभिचार निवृत्तिपरः' पद स्पष्ट होते हुए भी अस्पष्ट है । लक्षणकार और उसके अनुयायियोंने व्यभिचारकी परिभाषा तो स्पष्ट कर दी किन्तु निवृत्तिपरः को अस्पष्टसा ही छोड़ दिया । एकवचनके १-कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः ।। ३३ । यथावभूव, भवति, भविष्यति सुमेरुरित्यादि ॥ ३४ ॥ तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः ।। ३४ ॥ प्रमाणनयतत्त्वालोक परि०७। २-शब्दस्तु रूढितो यावन्तो ध्वनयः करिमश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते यथा इन्द्र शक पुरन्दरादयः सुरपती तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रेति किल प्रतीतिशाद् । 'यथा चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रेति तथा तटः,तटी, तटम् इति विरुद्धलिंग लक्षण धर्माभिसम्बन्धाद् वस्तुनो भेदं चाभिधते । नहि विरुद्धाकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मा योगो युक्तः।-स्याद्वादमज्जरी पृ० ३१३ । ३ कालादि भेदेन ध्वनेरर्थभेद प्रतिपद्यमानः शब्हुं। एतस्दार्थः-सकेताद्व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययसमुदायेन सिद्धः काल कारक लिंग संख्या पुरुषोपसर्गभेदेनार्थ पर्यायमात्र प्रतीयते स शब्दनयः । कालभेद उदाहरणम्-यथा बभूव, भवति. भविष्यति सुमेरुरिति अत्रकालत्रत्वं यविभेदात् सुमेरोरपि भेदाशब्दनयेन प्रतिपाद्यते । -नयप्रदीप पृ०१०३ ४ सर्वार्थ० पृ० ८० ५ लिंग संख्या साधनादिव्यभिचार निवृत्तिपरः शब्दनयः । सर्वार्थ पृ० ७९ १५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ स्थानमें बहुवचन और पुलिंगके स्थानमें स्त्रीलिंग शब्दका प्रयोग करना आदि व्यभिचार कहा जाता है। शब्दनय उस व्यभिचारकी निवृत्ति करता है। कैसे करता है ? इस प्रश्नको लेकर विद्वानोंमें दो मत हो गये हैं । एकमत कहता है कि शब्दनय व्याकरण द्वारा किये जाने वाले परिवर्तनको उचित समझता है “एवं प्रकारं व्यवहारनयं न्याय्यं १ मन्यते" । दूसरा मत इसके विपरीत है। प्रथम मत हम प्रथम मतसे किसी अंशमें सहमत हैं किन्तु सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिकके जिन वाक्योंके आधार पर उक्त मतकी सृष्टि हुई है उनकी समीक्षा करना आवश्यक जान पड़ता है । कल्लापा भरमाप्पा निटवेके जैनेन्द्र प्रेससे प्रकाशित सर्वार्थसिद्धि में उक्त पाठ मुद्रित है। तथा शब्दनयके एक दो स्थलों पर कुछ टिप्पणी भी दी गयी है । पहिली टिप्पणी 'निवृत्तिपरः' पद पर है। उसका आशय है कि, लिंग श्रादिका व्यभिचार दोष नहीं माना जाता, यह शब्दनयका अभिप्राय है। सम्भवतः 'न्याय्य' पदको शुद्ध मान कर ही उक्त टिप्पणी दी गयी है। किन्तु, यह पद अशुद्ध है इसके स्थान पर 'अन्याय्य' होना चाहिये । सर्वार्थसिद्धि के प्रथम संस्करण से बा. जगरूपसहाय जी वाली प्रति में तथा काशी विद्यालयके भवन की लिखित प्रतिमें 'अन्याय्य' पाठ ही दिया हुआ है। पं. जयचन्द जी कृत वचनिकामें भी 'अन्याय्य' ही है। यदि न्याय्य' पद को शुद्ध मानकर उक्त वाक्य का अर्थ किया जाय तो इस प्रकार होगा- 'इस प्रकार के व्यवहारनय को शब्दनय उचित मानता है' । अर्थात् व्याकरण द्वारा शब्दों में जो परिवर्तन किया जाता है और जिसे प्राचार्य 'व्यभिचार' के नाम से पुकारते हैं वह व्यवहारनय का विषय है। उस व्यवहारनय को शब्दनय उचित माने यह एक आश्चर्य की बात है क्योंकि नयों का विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता जाता है । व्यवहारनय से ऋजुसूत्र का विषय सूक्ष्म है और ऋजुसूत्र से शब्दनय का यिषय सूक्ष्म है। यदि शब्दनय व्यवहारनय के विषय का ही समर्थक हो जाय तो नयों के क्रम में तो गड़बड़ी उपस्थित होगी ही, उनकी संख्या में फेरफार करना पड़ेगा। ___ श्राचार्य विद्यानन्दिने अपने श्लोकवार्तिकमें व्यवहारनय पद का अच्छा स्पष्टीकरण किया है । वे कहते हैं “जो वैयाकरण व्यवहारनयके अनुरोधसे कालभेद, कारकभेद, वचनभेद, लिंगभेद, श्रादिके होने पर भी अर्थभेद को स्वीकार नहीं करते, परीक्षा करने पर उनका मत ठीक नहीं जान पड़ता यह शब्दनय का अभिप्राय है"। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वैयाकरणों का उक्त व्यवहार शब्दनय की दृष्टिमें 'अन्याय्य' ही है 'न्याय्य' नहीं है। अतः मुद्रित सर्वार्थ सिद्धि का पाठ अशुद्ध है। तथा यदि 'न्याय्य' पाठ को ही १ शपति अर्थमाह्वयति प्रख्यापयति इति शब्दः स च लिंग सख्यां साधनादि व्यभिचारनिवृतिपरः । २ लिंगादीनां व्यभिचारो दोषो नास्ति इत्यभिप्रायपरः । राज० वा० पृ० ६७ । ३ श्लोकवार्तिक पृ० २०२ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दनय शुद्ध माना जाय तो आगे का वाक्य–'अन्यार्थस्य अन्यार्थेन सम्बन्धाभावात्' विल्कुल असंगत हो जाता है। अगर 'न्याय्य' पाठके अनुसार एकवचनान्त और बहुवचनान्त शब्दों का एक ही अर्थ माना जाय तो अन्य अर्थ का अन्य अर्थके साथ सम्बन्ध हो ही गया । क्योंकि 'जलम्' शब्द और 'आपः' शब्द दोनों का एक ही अर्थ मान लिया गया । अतः 'अभावात्' शब्द व्यर्थ ही पड़ जाता है । किन्तु जब उक्त व्यभिचारों को शब्दनय 'अन्याय्य' कहता है तब इस हेतुपरक वाक्य की संगति ठीक बैठ जाती है । इस प्रकार का व्यवहार अनुचित है क्योंकि अन्य अर्थका अन्य अर्थके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता" । राजवार्तिकके शब्द स्पष्ट होते हुए भी कोई उनका अनर्थ करके 'न्याय्य' पद का समर्थन करते हैं । वे शब्द इस प्रकार हैं-"लिंगादीनां व्याभिचारो न न्याय्यः इति तन्निवृतिपरोऽयं नयः ।.."एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः, अन्यार्थस्यान्यार्थेन सम्बन्धाभावात् ।" सर्वार्थसिद्धि की तरह यहां पर भी 'तन्निवृत्तिपरः' शब्दको लेकर मतभेद हो गया है । किन्तु इतना स्पष्ट है कि यह नय व्यभिचारको उचित नहीं मानता । जो महानुभाव 'व्यभिचारो न न्याय्यः' या 'व्यभिचारा अयुक्ता' का यह अर्थ करते हैं कि; शब्दनय लिंगादिकके परिवर्तनको व्यभिचार नहीं मानता तो उनसे हमारा नम्र प्रश्न है कि फिर लिंगादिकका परिवर्तन किसकी दृष्टिमें व्यभिचार समझा जाता है जिसे दूर करनेके लिए शब्दनयकी सृष्टि करनी पड़ी ? व्याकरण शास्त्रकी दृष्टिमें तो यह व्यभिचार है ही नहीं क्यों कि व्याकरणने ही इस प्रकारके परिवर्तन और प्रयोगकी सृष्टि की है । लौकिक दृष्टि से भी दोष नहीं है । क्यों कि लोक तो स्थूल व्यवहारसे ही प्रसन्न रहता है। इसी बातको दृष्टिमें रखकर उक्त दोनों ग्रन्थोंमें व्यवहारनयावलम्बीने तर्क किया है कि, यदि आप इन्हें व्यभिचार समझकर अयुक्त ठहराते हैं तो लोक और शास्त्र (व्याकरण) दोनोंका विरोध उपस्थित होगा इस तर्कका समाधान दोनों प्राचार्योंने एक सा ही किया है । सर्वार्थसिद्धिकार कहते हैं-'विरोध' होता है तो हो यहां तत्वकी मीमांसा की जाती है। तत्त्वमीमांसाके समय लौकिक विरोधोंकी पर्वाह नहीं की जाती कहावत प्रसिद्ध है कि औषधिकी व्यवस्था रोगीकी रुचिके अनुसार नहीं की जाती, रोगीको यदि दवा कडुवी लगती है तो लगने दो' । राजवार्तिककार कहते हैं- 'यहां तत्वकी मीभासा की जा रही है दोस्तोंको दावत नहीं दी जा रही' । सन्मति तर्कके टीकाकार अभयदेवसूरिने भी प्रकारान्तरसे इस अापत्तिका निराकरण किया है । वे कहते हैं- 'व्यवहारके लोपका भय तो सभी नयोंमें वर्तमान है'। विज्ञ पाठकोंको मालूम होगा कि ऋजुसूत्र नयका विवेचन करते हुए भी व्यवहार लोपका भय दिखाया गया है और उसका उत्तर यह दिया गया है कि लोक व्यवहार सर्व नयोंके श्राधीन है । अभयदेवके १ "लोकसमयविरोध इति चेत् विरुद्धयताम् तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवति ।" सवार्थ० पृ० ८० । २ "लोकसमयविरोध इति चेत् विरुद्ध्यताम्, तत्त्वं मीमांस्यते (न) सुहृत्सूपचारः" । राजबा० पृ. ६८ । मुद्रित राजवार्तिकमें (न) नहीं है किन्तु होना चाहिये । ३ "न चैवं लोकशात्र व्यवहार विलोप इति वक्तव्यम्, सर्वत्र व नयमते तद्विलोपस्य समानत्वात् ।“ पृ० ३१६ । ३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उत्तरसे भी यही प्रतिध्वनि निकलती है। अतः यदि शब्दनय एकान्तके समर्थक व्याकरण शास्त्र और लौकिक व्यवहारका समर्थक होता तो इस भयकी अाशंका न रहती। इसलिए यही निष्कर्ष निकलता है कि मुद्रित सर्वार्थसिद्धि में न्याय्यं' के स्थानपर 'अन्याय्यं' पाठ होना चाहिये । .. मुद्रित सर्वार्थसिद्धि में 'न्याय्यं' पदपर एक टिप्पणी दी हुई है । न्याय्यं पदका समर्थक मानकर ही उस टिप्पणको वहां मुद्रित किया गया है ऐसा मैं समझता हूं। टिप्पणीका आशय इस प्रकार है-"जलं पतति' के स्थानपर 'श्रापः पतति यह व्यवहार होता है। यहां अप् शब्दके आगे बहुवचनका वाचक प्रत्ययका लगाना वास्तवमें व्यर्थ ही है..............."फिर भी शब्दानुशासन शास्त्र (व्याकरण शास्त्र) के प्रभावसे ऐसा करना पड़ता ही है । इस आशयको यदि दो भागोंमें विभाजित कर दिया जाय तो हम देखेंगे कि पहिली दृष्टि शब्दनयकी है वह एकवचनके स्थानमें बहुवचनका प्रयोग नहीं स्वीकार करता किन्तु दूसरे हिस्सेको पढ़नेसे हमें मालूम होता है व्याकरणके नियमके अनुसार ऐसा प्रयोग करना पड़ता है, अर्थात् इस प्रकारका व्यवहार शब्दानुशासन शास्त्रकी दृष्टि में न्याय्य है शब्दनयकी दृष्टिमें नहीं। शब्दानुशासन शास्त्र शब्दनयका विषय नहीं है व्यवहार नयका विषय है। अतः यह टिप्पण भी न्याय्य पदका समर्थन नहीं करता। इस विस्तृत विवेचनसे हम इसी निर्णयपर पहुंचते हैं कि व्याकरण सम्मत व्यवहार या वैयाकरणोंका मत शब्दनयकी दृष्टिमें दूषित है और इसलिए वह उचित नहीं माना जा सकता। दोनों परम्पराओं और शब्दानुशासन तथा शब्दनयका समन्वय-- शब्दनयके सम्बन्धमें जिन दो परम्पराअोंका दिग्दर्शन ऊपर कराया गया हैं उनमें प्राचार्य पूज्यपाद शब्दनयका विषय न बताकर कार्य बतलाते हैं । जब कि अकलंकदेव शब्दनयका विषय प्रदर्शित करते हैं । पूज्यपाद कहते हैं कि शब्दनय व्याकरण सम्बन्धी दोषोंको दूर करता है। कैसे करता है ? इस प्रश्नका उत्तर अकलंक देवके 'लधीयस्त्रय' में मिलता है । वैयाकरणोंके मतके अनुसार एकवचनके स्थानमें बहुवचनका, स्त्रीलिंग शब्दके बदले में पुलिंग शब्दका उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यमपुरुषका प्रयोग किया जाता है। ये महानुभाव शब्दोंमें परिवर्तन मानकर भी उनके वाच्यमें कोई परिवर्तन नहीं मानते हैं। जैसे कूटस्थ नित्यवादी कालभेद होनेपर भी वस्तुमें कोई परिवर्तन नहीं मानता। इसीलिए वैयाकरणोंका यह परिवर्तन व्यभिचार कहा जाता है । यदि वाचकके साथ साथ वाच्यमें भी परिवर्तन मान लिया जाय तो व्यभिचारका प्रसंग ही उठ जाय । अतः यदि वैयाकरण शब्द भेदके साथ साथ अर्थभेदको भी स्वीकार कर लें तो शब्दनय शब्दानुशासन शास्त्रका समर्थक बन सकता है। ऐसी दशामें पूज्यपादका यह कहना कि, शब्दनय व्यभिचारोंको दूर करता है और अकलंकदेवका व्यभिचारोंको दूर करनेके लिए काल, कारक, आदिके भेदसे अर्थभेदका स्वीकार करना, दोनों कथन परस्परमें घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं । अतः पूज्यपादने जिस शब्दनयके कार्यका उल्लेख करके उसके विषयको अस्पष्ट ही छोड़ दिया था उसके विषयका स्पष्टी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दनय करण करके अकलंकदेवने अपनी अपूर्व प्रतिभाका परिचय दिया। इसके लिये जैनदर्शन उनका सर्वदा ऋणी रहेगा। आलापपद्धतिकारका समन्वय दो परम्पराअोंका समन्वय करनेके बाद एक तीसरे प्राचार्यका मत अवशिष्ट रह जाता है जिसकी शब्दयोजना उक्त दोनों मतोंसे विलक्षण है, पालापपद्धतिके कर्ता लिखते हैं-'शब्दात् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दनयः' । यह शब्दनयकी लक्षण परक व्युत्पत्ति है। इसका श्राशय है कि, जो व्याकरणसे सिद्ध हो उसे शब्दनय कहते हैं । अर्थात् शब्दनय व्याकरण सिद्ध प्रयोगोंको अपनाता है । शब्दनय और व्याकरणके पारस्परिक सम्बन्धका स्पष्टीकरण हम ऊपर कर चुके हैं अतः हमारे श्राशयमें इस मतका भी अन्तर्भाव हो जाता है । आधुनिक हिन्दी ग्रन्थोंमें शब्दनय-- ___जैन दर्शनके मान्य ग्रन्थोंके अाधारपर शब्दनयका स्पष्टीकरण करनेके बाद अाधुनिक हिन्दी ग्रन्थोंमें वर्णित शब्दनयके स्वरूपके सम्बन्धमें दो शब्द कहना अनुचित न होगा। एक ख्यातनामा टीकाकार लिखते हैं-व्याकरणादि मतसे शब्दोंमें जो परिवर्तन हो जाता है उसका यदि उस परिवर्तनकी प्राकृतिके अनुसार अर्थ किया जावे तो अशुद्ध सा मालूम होगा। अतएव व्याकरणकी रीतिसे उस परिवर्तनको केवल शब्दाकृतिका परिवर्तक एवं अर्थका अपरिवर्तक मानने वाला शब्दनय है। मालूम होता है टीकाकार महोदय एकान्तवादी वैयाकरणोंकी तरह शब्दनयका सम्बन्ध केवल शब्दों तक ही सीमित करना चाहते हैं। शायद उन्होंने अर्थनय और शब्दनयको सर्वथा स्वतंत्र मान लिया है । शब्दनयका यह श्राशय नहीं है कि उसकी सीमा शब्द तक ही परिमित रहे किन्तु शब्दकी प्रधानतासे अर्थका निर्णय करनेके कारण ही उत्तरके तीनों नय शब्दनय कहे जाते हैं ? यदि शब्दनयको केवल शब्दाकृतिका ही परिवर्तक मान लिया जाय तो ऋजुसूत्र समभिरूढ तथा एवंभूत नयसे उसकी संगति कैसे बैठायी जा सकती है । पता नहीं किस शास्त्रके आधारसे इस लक्षणकी कल्पना की गयी है ? Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी श्री पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्याद्वाद की महत्ता दुनियामें बहुतसे वाद हैं स्याद्वाद भी उनमें से एक है, पर वह अपनी अद्भुत विशेषता लिये हुए है । दूसरे वाद, विवादोंको उत्पन्न कर संघर्षकी वृद्धिके कारण बन जाते हैं तब स्याद्वाद जगतके सारे विवादोंको मिटाकर संघर्षको विनष्ट करनेमें ही अपना गौरव प्रगट करता है। स्याद्वादके अतिरिक्त सब वादोंमें श्राग्रह है । इसलिए उनमेंसे विग्रह फूट पड़ते है किन्तु स्याद्वाद तो निराग्रह-वाद है, इसमें कहीं भी श्राग्रहका नाम नहीं है। यही कारण है कि इसमें किसी भी प्रकारके विग्रहका अवकाश नहीं है । स्याद्वाद का लक्षण ? स्याद्वाद शब्दमें 'स्यात्' का अर्थ अपेक्षा है अपेक्षा यानी दृष्टिकोण। 'वाद' का अर्थ है सिद्धान्त-. इसका अर्थ यह हुआ कि जो अपेक्षाका सिद्धान्त है उसे स्याद्वाद कहते हैं। किसी वस्तु, किसी धर्म, अथवा गुण, घटना एवं स्थितिका किसी दृष्टिकोणसे कहना, विवेचन करना या समझना स्याद्वाद कहलाता है । पदार्थमें बहुतसे आपेक्षिक धर्म रहते हैं, उन आपेक्षिक धर्मों अथवा गुणोंका यथार्थ ज्ञान अपेक्षाको सामने रखे विना नहीं हो सकता। दर्शन शास्त्रमें प्रयुक्त नित्य अनित्य, भिन्न-अभिन्न, सत्-असत्, एक-अनेक, अादि, सभी आपेक्षिक धर्म हैं । लोक व्यवहारमें भी छोटा-बड़ा, स्थूल-सूक्ष्म, ऊंचा-नीचा, दूर-नजदीक, मूर्ख-विद्वान्, आदि सभी श्रापेक्षिक हैं। इन सभीके साथ कोई न कोई अपेक्षा लगी रहती है । एक ही समयमें पदार्थ नित्य और अनित्य दोनों हैं । किन्तु जिस अपेक्षासे नित्य है उसी अपेक्षासे अनित्य नहीं है । और जिस अपेक्षासे अनित्य है उसी अपेक्षासे नित्य नहीं है । कोई भी पदार्थ अपने वस्तुत्वकी अपेक्षासे नित्य और बदलती रहनेवाली अपनी अवस्थात्रोंकी अपेक्षा अनित्य है; इसलिए उनलोगोंका कहना किसी भी तरह उचित नहीं जो केवल अनित्य अथवा केवल नित्य ही मानते हैं । इसी तरह सत् और असत्, आदि भी हैं । छोटे-बड़े आदिमें भी यही बात है । श्राम फल कटहलके फलकी अपेक्षा छोटा किन्तु बेर की अपेक्षा बड़ा होता है। इसलिए आम एक ही समयमें छोटा बड़ा दोनों है । इसमें कोई विरोध नहीं है किन्तु अपेक्षाका भेद है। ऐसी अवस्थामें केवल उसके छोटे होने अथवा बड़े २० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी होनेके विवादमें अपनी शक्ति क्षीण करनेवाला मनुष्य कभी समझदार नहीं कहलाय गा। यहां यह बात हमेशा याद रखने की है कि यह अपेक्षावाद केवल आपेक्षिक धर्मों में ही लगेगा । वस्तुके अनुजीवी गुणोंमें इसका प्रयोग करना उचित नहीं है । श्रात्मा चेतन है, पुद्गल रूप-रस-गंध स्पर्श वाला है, आदि पदार्थों के आत्मभूत लक्षणात्मक धर्मों में स्याद्वादका प्रयोग नहीं हो सकता, क्योंकि ये आपेक्षिक नहीं है। यदि इन्हें भी किसी तरह आपेक्षिक बनाया जा सके तो फिर इनमें भी स्याद्वाद प्रक्रिया लागू होगी। सप्तभंगीका स्वरूप-- इस ( स्याद्वाद) प्रक्रिया में सात भंगोंका अवतार होता है इसलिए इसे सप्तभंगी न्याय भी कहते हैं । किसी वस्तु अथवा उसके गुण-धर्म आदिके विधि ( होना) प्रतिषेध ( न होना) की कल्पना करना सप्तभंगी कहलाती है । वे सात भंग ये हैं-अस्ति, नास्ति, अतिनास्ति, अवक्तव्य, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति-अवक्तव्य, अस्तिनास्ति-श्रवक्तव्य । अर्थात् है, नहीं है, हैऔरनहीं है, कहा नहीं जा सकता है, है तो भी कहा नहीं जा सकता, नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता तथा है और नहीं है तो भी कहा नहीं जा सकता। क्रमभेद-- कोई कोई प्राचार्य इन भंगोंके क्रमभेदका भी उल्लेख करते हैं। वे अवक्तव्यको तीसरा और अस्ति नास्तिको चौथा भंग कहते हैं । इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायके प्राचार्य सम्मिलित हैं किन्तु इस क्रम भेदसे तत्त्व विवेचनामें कोई अन्तर नहीं आता। अवक्तव्यको तीसरा भंग माननेका यह कारण है कि इन सात भंगोंमें अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन भंग प्रधान हैं । इन्हींसे द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भंग बनते हैं अतः अवक्तव्यको तीसरा भंग भी मान लिया जाय तो कोई हानि नहीं है। नित्य, श्रादि प्रत्येक विषयोंमें इसी प्रकार सात सात भंग होंगे । इन सात भंगोंमें मुख्य भंग दो हैं-अस्ति और नास्ति । दोनोंको एक साथ कहनेकी इच्छासे, अवक्तव्य भंग बनता है, क्योंकि दोनोंको एक साथ कहनेकी शक्ति शब्दमें नहीं है। इस तरह तीन प्रधान भंग हो जाते हैं । १-असंयोगी (आस्ति नास्ति, अवक्तव्य ) २-द्विसंयोगी (आस्तिनास्ति, अस्ति-अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य ) और ३- त्रिसंयोगी (अास्ति नास्ति-अवक्तव्य) इनसे ही सात भंग बन जाते हैं। प्रयोग-- ___ पदार्थ स्वद्रव्य क्षेत्र कालकी अपेक्षा अस्ति रूप, और परद्रव्य क्षेत्र कालकी अपेक्षा नास्ति रूप है। द्रव्यका मतलव है गुणोंका समूह अपने गुण समूह की अपेक्षा होना ही द्रव्यकी अपेक्षा आस्तित्व कहलाता है । जैसे घड़ा, घड़े रूपसे अस्ति है और कपड़े रूपसे नास्ति, अर्थात् धड़ा; धड़ा ही है, कपड़ा नहीं है । अतः कहना चाहिये हर एक वस्तु स्वद्रव्यकी अपेक्षासे है, पर द्रव्यकी अपेक्षासे नहीं है। . २१ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ द्रव्यके अंशोंको क्षेत्र कहते हैं । धड़ेके अंश अवयव ही घड़ेका क्षेत्र हैं। घड़ेका क्षेत्र वह नहीं है जहां घड़ा रखा है, वह तो उसका व्यावहारिक क्षेत्र है । इस अवयव रूप क्षेत्रकी अपेक्षा होना ही घड़ेका स्वक्षेत्रकी अपेक्षा होना है। पदार्थके परिणमनको काल कहते हैं । हर एक पदार्थ का परिणमन पृथक् पृथक् है । घड़ेका अपने परिणमनकी अपेक्षा होना ही स्वकालकी अपेक्षा होना कहलाता है। क्योंकि यही उसका स्वकाल है । घंटा, घड़ी, मिनिट, सैकण्ड, आदि वस्तुका स्वकाल नहीं है । वह तो व्यावहारिक काल है । वस्तुके गुणको भाव कहते हैं । हर एक वस्तुका स्वभाव अलग अलग होता है। घड़ा अपने ही स्वभावकी अपेक्षा है, वह अन्य पदार्थों के स्वभाव की अपेक्षा कैसे हो सकता है। इसप्रकार स्वद्रव्य क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षा पदार्थ है और परद्रव्य क्षेत्र-कालकी अपेक्षा नहीं है। इस स्व-पर चतुष्टयके और भी अनेक अर्थ हैं। __ जब हमारी दृष्टि पदार्थ के स्वरूपकी ओर होती है तब अस्ति भंग बनता है। और जब उसके पररूप की अपेक्षा हमें होती है तब दूसरा नास्ति भंग बनता है। किन्तु जब हमारी दृष्टि दोनों ओर होती है तब तीसरा आस्ति-नास्ति भंग उत्पन्न होता है और यही दृष्टि एक साथ दोनों ओर से हो तो अवक्तव्य नामका चौथा भंग हो जाता है क्योंकि एक समयमें दो धर्मोंको कहनेवाला कोई शब्द नहीं है । किन्तु यह तो मानना ही होगा कि अवक्तव्य होने पर भी वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा तो है ही और पर रूपकी अपेक्षा वह नास्ति भी है। इसी तरह वह अवक्तव्य वस्तु क्रमशः स्वपर चतुष्टयकी अपेक्षा आस्ति नास्ति होगी ही। इसलिए कथंचित् आस्ति अवक्तव्य वस्तु क्रमशः स्वपर चतुष्टयकी अपेक्षा अास्ति नास्ति होगी हो । इसलिए कथंचित् अस्ति श्रवक्तव्य कथंचित नास्ति वक्तव्य और कथंचित् अास्ति नास्ति अवक्तव्य नामक पांचवा, छठा और सातवां भंग बनेगा। स्पष्टीकरण यदि मूलके दो भंग अस्ति नास्तिमें से केवल कोई एक भंग ही रखा जाय और दूसरा न माना जाय तो क्या हानि है ? इसी से काम चल जाय तो दूसरे भंगोंकी संख्या भी न बढ़ेगी। ___ नास्ति भंग नहीं माननेसे जो वस्तु एक जगह है वह अन्य सब जगह भी रहेगी। इस तरह तो एक घड़ा भी व्यापक हो जायगा, इसी प्रकार यदि केवल नास्ति भंग ही माना जाय तो सब जगह वस्तु नास्ति रूप हो जानेसे सभी वस्तुओंका अभाव हो जायगा इसलिए दोनों भंगोंको माननेकी आवश्यकता है । इन भंगोंका विषय अलग अलग है, एकका कार्य दूसरेसे नहीं हो सकता । देवदत्त मेरे कमरेमें नही है इसका यह अर्थ कभी नहीं होता कि अमुक जगह है। इसलिए जिज्ञासुके इस सन्देह को दूर करनेके लिए ही वह कहां है अस्ति भंगकी जरूरत है । इसी तरह अस्ति भंगका प्रयोग होने पर २२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी भी नास्ति भंगकी अावश्यकता बनी ही रहती है। मेरी थालीमें रोटी है यह कह देने पर भी तुम्हारी थालीमें रोटी नहीं है इसकी आवश्यकता रहती ही है क्योंकि यह दोनों चीजें भिन्न भिन्न हैं। इस प्रकार अस्ति, नास्ति दोनों भंगोंको मानना तर्कसे सिद्ध है। ____ अस्ति-नास्ति नामक तीसरा भंग भी इनसे भिन्न स्वीकार करना पड़ेगा। क्योंकि केवल अस्ति अथवा केवल नास्ति द्वारा इसका काम नहीं हो सकता । मिश्रित वस्तुको भिन्न मानना प्रतीति एवं तर्क सिद्ध है। शहद और घी समान अनुपातमें लेनेसे विष बन जाता है। पीला और नीला रंग मिलानेसे हरा रंग हो जाता है अतः तीसरा भंग पहले दोसे भिन्न है। चौथा भंग अवक्तव्य है । पदार्थके अनेक धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते, इसलिए एक साथ स्वपर चतुष्टयके कहे जानेकी अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है । वस्तु इसलिए भी प्रवक्तव्य है कि उसमें जितने धर्म हैं उतने उसके वाचक शब्द नहीं है । धर्म अनन्त है और शब्द संख्यात । एक बात यह भी है कि पदार्थ स्वभावसे भी अवक्तव्य है । वह अनुभवमें आ सकता है, शब्दोंसे नहीं कहा जा सकता। मिश्रीका मीठापन कोई जानना चाहे तो शब्दसे कैसे जानेगा ? वह तो चखकर ही जाना जा सकता है । इस प्रकार कई अपेक्षाओंसे पदार्थ अवक्तव्य है। किन्तु वह अवक्तव्य होने पर भी किसी दृष्टिसे वक्तव्य भी हो सकता है। इसलिए अवक्तव्यके साथ अस्ति, नास्ति और अस्ति-नास्ति लगानेसे अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, और अस्तिनास्ति अवक्तव्य इस प्रकार पांचवा छठा और सातवां भंग हो जाता है। प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी-- यह सप्तभंगी दो तरह से होती है । प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी। वस्तु को पूरे रूप से जानने वाला प्रमाण और अंश रूप से जानने वाला नय है। इसलिए वाक्य के भी दो भेद है—प्रमाण वाक्य और नय वाक्य । कौन प्रमाण वाक्य और कौन नयवाक्य है ? इसका पता शब्दोंसे नहीं भावोंसे लगता है । जब किसी शब्दके द्वारा हम पूरे पदार्थ को कहना चाहते हैं तब वह सकलादेश अथवा प्रमाण वाक्य कहा जाता है और जब शब्द के द्वारा किसी एक धर्म को कहा जाता है तब विकलादेश अथवा नय वाक्य माना जाता है । वैसे तो कोई भी शब्द वस्तु के एक ही धर्म को कहता है फिर भी यह बात है कि उस शब्द द्वारा सारी वस्तु भी कही जा सकती है और एक धर्म भी । जीव शब्द द्वारा जीवन गुण एवं अन्य अनन्त धर्मोंके अखण्ड पिण्ड रूप अात्माको कहना सकलादेश है और जब जीव शब्दके द्वारा केवल जीवन धर्मका ही बोध हो तो विकलादेश होता है । अथवा जैसे विषका अर्थ जल भी है। जब इस शब्द द्वारा जल नामका पदार्थ कहा जाय तब सकलादेश और जब केवल इसकी मारण शक्तिका इसके द्वारा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ बोध हो तो विकलादेश होता है। इस वक्तव्यका यह अर्थ हुअा कि पदार्थ प्रमाण दृष्टिसे अनेकान्तात्मक और नय दृष्टि से एकान्तात्मक है । किन्तु सर्वथा अनेकान्तात्मक और सर्वथा एकान्तात्मक नहीं है । इस आशयको प्रकट करनेके लिए हमें उपर्युक्त प्रत्येक वाक्यके साथ 'स्यात्' कथंचित अथवा किसी अपेक्षासे, आदिमें से किसी एक का प्रयोग करना चाहिए। यदि हम किसी कारण प्रयोग न भी करें तो भी हमारा अभिप्राय तो ऐसा रहना ही चाहिए। नहीं तो यह सब व्यवस्था और इनमें उत्पन्न होने वाला ज्ञान मिथ्या हो जायगा। स्याद्वाद छल अथवा संशयवाद नहीं-- स्याद्वादकी इस अनेकान्तात्मक प्रक्रियाको कभी कभी लोग छल अथवा संशयवाद कह डालते हैं । किन्तु यह भूल भरी बात है । क्योंकि संशयमें परस्पर विरोधी अनेक वस्तुत्रोंका शंकाशील भान होता है, पर स्याद्वाद तो परस्पर विरुद्ध सापेक्ष पदार्थोंका निश्चित ज्ञान उत्पन्न करता है और छलकी तो यहां संभावना ही नहीं है । छलमें किसीके कहे हुए शब्दोंका उसके अभिप्रायके विरुद्ध अर्थ निकालकर उसका खण्डन किया जाता है पर स्याद्वादमें यह बात नहीं है । वहां तो प्रत्येकके अभिप्रायको यथार्थ दृष्टिकोण द्वारा ठीक अर्थमें समझनेका प्रयत्न किया जाता है। इसी तरह विरोध वैयधिकरण्य, आदि अाठ दोष भी स्याद्वाद में नहीं आते जो सारे विरोधों को नष्ट करने वाला है उसमें इन दोषो का क्या काम ? स्याद्वाद और लोक व्यवहार स्याद्वादका उपयोग तभी है जब व्यावहारिक जीवनमें उतारा जाय । मनुष्य के प्राचार-विचार और ऐहिक अनुष्ठानोंमें स्याद्वादका उपयोग होनेकी आवश्यकता है । स्याद्वाद केवल इसीलिए हमारे सामने नहीं पाया कि वह शास्त्रीय नित्यानित्यादि विवादोंका समन्वय कर दे। उसका मुख्य काम तो मानवके व्यावहारिक जीवन में आजानेवाली मूढ़ताओंको दूर करना है। मनुष्य परम्पराओं व रूढियों से चिपके रहना चाहते हैं । यह उनकी संस्कारगत निर्बलता है। ऐसी निर्बलताओंको स्याद्वादके द्वारा ही दूर किया जासकता है। स्याद्वादको पाकर भी यदि मनुष्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा होनेवाले परिवर्तनोंको स्वीकार न कर सके, उसमें विचारों की सहिष्णुता न हो तो उसके लिए स्याद्वाद विल्कुल निरुपयोगी है। दुःख है कि मानवजातिके दुर्भाग्यसे इस महामहिमवादको भी लोगोंने अाग्रह-भरी दृष्टिसे ही देखा और इसकी असली कीमत अांकनेका प्रयत्न नहीं किया। हजारों वर्षों से ग्रन्थोंमें आरहे इसको जगत अब भी आचारका रूप दे दे तो उसकी सब आपदाएं दूर हो जाय । भारतमें धर्मों की लड़ाइयां तब तक बंद नहीं होगी जब तक स्याद्वादके ज्योतिर्मय नेत्रका उपयोग नहीं किया जायगा। उपसंहार-- स्याद्वाद सर्वाङ्गीण दृष्टि कोण है। उसमें सभी वादोंकी स्वीकृति है, पर उस स्वीकृतिमें अाग्रह नहीं है । आग्रह तो वहीं है जहांसे ये विवाद आये हैं । टुकड़ोंमें विभक्त सत्यको स्याद्वाद २४ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी ही सङ्कलित कर सकता है । जो वाद भिन्न रहकर पाखण्ड बनते हैं वे ही स्याद्वाद द्वारा समन्वित होकर पदार्थकी संपूर्ण अभिव्यक्ति करने लगते हैं । ___ स्याद्वाद सहानुभूति मय है, इसलिए उसमें समन्वयकी क्षमता है । उसकी मौलिकता यही है कि वह पड़ौसी वादोंको उदारताके साथ स्वीकार करता है पर वह उनको ज्योंका त्यों नहीं लेता। उनके साथ रहनेवाले अाग्रहके अंशको छांटकर ही वह उन्हें अपना अङ्ग बनाता है। मनुष्यको कोई भी स्वीकृतिजिसमें किसी तरहका आग्रह या हट न हो-स्याद्वादके मन्दिर में गौरवपूर्ण स्थान पा सकती हैं। तीन सौ तरेसठ प्रकारके पाखण्ड तभी मिथ्या हैं जबतक उनमें अपना ही दुराग्रह है। नहीं तो वे सभी सम्यग्ज्ञानके प्रमेय हैं। स्याद्वाद परमागमका जीवन है। वह परमागममें न रहे तो सारा परमागम पाखण्ड होजाय । उसे इस परमागमका बीज भी कह सकते हैं। क्योंकि इसीसे सारे परमागमकी शाखाएं ओत प्रोत हैं। स्याद्वाद इसीलिए है कि जगतके सारे विरोधको दूर कर दें । यह विरोधको वरदाश्त नहीं करता इसीसे हम कह सकते हैं कि जैन धर्म की अहिंसा स्याद्वादके रग रगमें भरी पड़ी है। जो वाद विना दृष्टिकोणके हैं, स्याद्वाद उन्हें दृष्टि देता है कि तुम इस दृष्टिकोणको लेकर अपने वादको सुरक्षित रखो, पर जो यह कहनेके श्रादी हैं कि केवल हमारा ही कहना यथार्थ है, स्याद्वाद उनके विरुद्ध खड़ा होता है, और उनका निरसन किये विना उसे चैन नहीं पड़ती, इसलिए कि वे ठीक राह पर आ जावें और अपने अाग्रह द्वारा जगतमें सङ्घर्ष उत्पन्न करनेके कारण न बने । awar AS TRENDS Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वादएवं सांख्य तथा वेदान्त दर्शन। श्री पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य, आदि जैनसंस्कृतिका विवेचन विषयवार चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दिया गया है-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग । इनमें से प्रथमानुयोगमें जैनसंस्कृतिके माहात्म्यका वर्णन किया गया है अर्थात् 'जैनसंस्कृतिको अपना कर प्राणी कहांसे कहां पहुंच जाता है" इत्यादि बातोंका दिग्दर्शक प्रथमानुयोग है । प्रथमानुयोगको यदि अथर्ववाद नाम दिया जाय, तो अनुचित न होगा । शेष करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगको क्रमसे उपयोगितावाद, अस्तित्ववाद ( वस्तुस्थितिवाद) और कर्तव्यवाद कहना ठीक होगा, क्योंकि करणानुयोगमें प्राणियोंके लिए प्रयोजनभूत उनके संसार मोक्षका ही सिर्फ. विवेचन है, द्रव्यानुयोगमें विश्वको वास्तविक स्थिति बतलायी गयी है और चरणानुयोगमें प्राणियोंका कर्तव्य मार्ग बतलाया गया है। सामान्यतया करणानुयोग और द्रव्यानुयोगका विषय दार्शनिक है इसलिए इन दोनोंको जैनदर्शन नामसे पुकारा जा सकता है । विशिष्ट तत्त्व-पदार्थ व्यवस्था-- विश्वके रंगमंच पर कई दर्शन आये और गये तथा कई इस समय भी मौजूद हैं । भारतवर्ष तो संस्कृतियों और उनके पोषक दर्शनों के प्रादुर्भावमें अग्रणी रहा है। सभी दर्शनोंमें अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार पदार्थों की व्यवस्थाको अपनाया गया है लेकिन किसी दर्शनकी पदार्थ व्यवस्था उपयोगितावाद मूलक है, किसी दर्शनकी अस्तित्ववाद मूलक और किसी दर्शनकी उभय वाद मूलक है । जैनदर्शनमें उपयोगितावाद और अस्तित्ववादके आधार पर स्वतंत्र, स्वतंत्र दो पदार्थ व्यवस्थात्रोंको स्थान प्रात है उपयोगिता वादके आधार पर जीव, अजीव, श्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षये सात तत्त्व पदार्थ व्यवस्थामें अन्तर्भूत किये गये हैं और आस्तित्ववादके आधार पर जीव,पुद्गल, धर्म,अधर्म,अाकाश और काल ये छः द्रव्य पदार्थ व्यवस्थासे अन्तर्भूत किये गये हैं। यदि हम सांख्य, वेदान्त, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्था पर दृष्टि डालते हैं तो मालूम पड़ता है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्थाका अाधार उपयोगितावाद ही माना जा सकता है तथा न्याय और २६ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद वैशेषिक दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्थाका आधार अस्तित्ववादको ही समझना चाहिये अर्थात् सांख्य और वेदान्त दर्शनों की तत्त्व व्यवस्था प्राणियोंके संसार और मोक्ष तक ही सीमित है और न्याय और वैशेषिक दर्शन अपनी पदार्थ-व्यवस्था द्वारा विश्वकी वस्तुस्थितिका विवेचन करनेवाले ही हैं। जिन विद्वानोंका यह मत है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्था न्याय और वैशेषिक दर्शनोंकी तरह अस्तित्व वाद मूलक ही है उन विद्वानोंके इस मतसे मैं सहमत नहीं हूं क्योंकि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंका गंभीर अध्ययन हमें इस बातकी स्पष्ट सूचना देता है कि पदार्थ व्यवस्थामें इन दोनों दर्शनोंके अाविष्कर्ताओंका लक्ष्य उपयोगिता वाद पर ही रहा है । इस लेखमें इसी बातको स्पष्ट करते हुए मैं जैनदर्शनके उपयोगितावादपर अवलम्बित संसार तत्त्वके साथ सांख्य और वेदान्त दर्शनकी तत्त्व व्यवस्थाका समन्वय करनेका ही प्रयत्न करूगा। सांख्यका उपयोगिता वाद श्रीमद्भगवद्गीताका तेरहवां अध्याय सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्था उपयोगितावाद मूलक है, इसपर गहरा प्रकाश डालता है और इस अध्यायके निम्नलिखित श्लोक तो इस प्रकरणके लिए अधिक महत्त्वके हैं “इदं शरीरं कौन्तेय ! क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ १॥" इस श्लोकमें श्रीकृष्ण अर्जुनसे कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! प्राणियोंके इस दृश्यमान शरीरका ही नाम क्षेत्र है और इसको जो समझ लेता है वह क्षेत्रज्ञ है । "तत्क्षेत्रं यच्च याक् च यद्विकारी यतश्च यत् । स च यो यत् प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥ ३॥" इस श्लोकमें श्रीकृष्ण ने अर्जुनको क्षेत्र रूप वस्तु, उसका स्वरूप और उसके कार्य तथा कारणका विभाग, इसी तरह क्षेत्रज्ञ और उसका प्रभाव इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेकी प्रतिज्ञा की है। "महाभूतान्यहंकारो बुद्धिव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥५॥ इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं, संघातश्चेतना धृतिः। एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ६॥" इन दोनों श्लोकोंमें यह बतलाया गया है कि पञ्चभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त ( प्रकृति ), एकादश इन्द्रियां, इन्द्रियोंके पांच विषय तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना और धृति इन सबको क्षेत्रके अन्तर्गत समझना चाहिये । यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि पहिले श्लोकमें जब शरीरको ही क्षेत्र मान लिया गया है और पांचवे तथा छठे श्लोकोंमें क्षेत्रका ही विस्तार किया गया २७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी - अभनन्दन ग्रन्थ है तो इन श्लोकोंका परस्पर सामञ्जस्य बिठलाने के लिए यही मानना उपयुक्त है कि उपर्युक्त विस्तार कार्य और कारणके रूपमें शरीरके ही अन्तर्गत किया गया है। इसका फलितार्थ यह है कि सांख्यदर्शनकी प्रकृति और पुरुष उभय तत्त्वमूलक सृष्टिका अर्थ भिन्न-भिन्न पुरुषके साथ संयुक्त प्रकृतिसे निष्पन्न उन पुरुषोंके अपने अपने शरीरकी सृष्टि ही ग्रहण करना चाहिये । यह फलितार्थ हमें सरलता के साथ इस निष्कर्ष पर पहुंचा देता है कि सांख्य दर्शनकी पदार्थ व्यवस्था उपयोगितावाद मूलक ही है । सांख्य सृष्टिक्रम सांख्य दर्शनकी मान्यतामें पुरुष नामका चेतनात्मक श्रात्मपदार्थ और प्रकृति नामका चेतना शून्य जड़ पदार्थ इस तरह दो अनादि मूल तत्त्व हैं, इनमें से पुरुष अनेक हैं और प्रकृति एक है। प्रत्येक पुरुषके साथ इस एक प्रकृतिका अनादि संयोग है, इस तरह यह एक प्रकृति नाना पुरुषोंके साथ संयुक्त होकर उन पुरुषों में पाये जाने वाले बुद्धि, अहंकार, श्रादि नाना रूप धारण कर लिया करती है अर्थात् प्रकृति जब तक पुरुषके साथ संयुक्त रहा करती है तब तक वह बुद्धि अहंकार आदि नानारूप है और जब इसका पुरुषके साथ हुए संयोगका प्रभाव हो जाता है, तब वह अपने स्वाभाविक एक रूपमें पहुंच जाती । प्रकृतिका पुरुषके संयोग से बुद्धि, अहंकार आदि नाना रूप हो जानेका नाम ही सांख्य दर्शन में सृष्टि या संसार मान लिया गया 1 सांख्य दर्शन में प्रकृतिका पुरुषके साथ संयोग होकर बुद्धि, अहंकार, आदि नाना रूप होनेकी परम्परा निम्न प्रकार बतलायी गयी है – “प्रकृति पुरुषके साथ संयुक्त होकर बुद्धि रूप परिणत हो जाया करती है यह बुद्धि अहंकार रूप परिणत हो जाया करती है और यह अहंकार भी पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन तथा पांच तन्मात्राएं इस प्रकार सोलह तत्त्व रूप परिणत हो जाया करता है । इन सोलह तत्त्वोंमें से पांच तन्मात्राएं अन्तिम पांच महाभूतका रूप धारण कर लिया करती हैं । इसका मतलब यह है कि प्राणियों में हमको जो पृथक् पृथक् बुद्धिका अनुभव होता है वह सांख्य दर्शनकी मान्यता के अनुसार उस उस पुरुष के साथ संयुक्तं प्रकृतिका ही परिणाम है । प्राणियोंकी अपनी अपनी बुद्धि उनके अपने अपने कारकी जननी है और उनका अपना अपना अहंकार भी उनकी अपनी अपनी ग्यारह ग्यारह प्रकारकी इन्द्रियों को पैदा किया करता है, अहंकारसे ही शब्द तन्मात्रा, स्पर्श तन्मात्रा, रूप तन्मात्रा, रस तन्मात्रा और गन्ध तन्मात्रा ये पांच तन्मात्राएं पैदा हुआ करती हैं और इन पांच तन्मात्राओंोंमें से एक एक तन्मात्रा से एक एक भूतकी सृष्टि होकर पांच स्थूल भूत निष्पन्न होते रहते हैं । यद्यपि सांख्य दर्शनकी मान्यता के अनुसार शब्द तन्मात्रा से श्राकाश तत्त्वकी, शब्द और स्पर्श तन्मात्राओं से वायु तत्त्वकी, शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्राओं से अग्नि तत्त्वकी, शब्द स्पर्श रूप और रस तन्मात्राओं से जल तत्त्वकी और शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध तन्मात्राओं से पृथ्वी तत्त्वकी सृष्टि हुआ करती है, परन्तु हमने ऊपर जो एक एक २८ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद तन्मात्रासे एक एक भूतकी सृष्टिका उल्लेख किया है वह उस उस भूतकी सृष्टिमें उस उस तन्मात्राकी प्रमुखताको ध्यानमें रख करके ही किया है और इस तरह जैन दर्शनकी इस विषयकी मान्यताके साथ इस मान्यताका समन्वय करनेमें सरलता हो जाती है । दो समस्याएं सांख्य दर्शनकी इस मान्यताका जैनदर्शनकी मान्यताके साथ समन्वय करनेके पहिले यहां पर इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि सांख्य दर्शनमें मान्य सृष्टिके इस क्रममें उसके मूल ष्कर्ताका अभिप्राय पांच स्थूल भूतोंसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंको ग्रहण करनेका यदि है तो इस विषयमें यह बात विचारणीय होजाती है कि जब पुरुष नाना हैं और प्रत्येक पुरुषके साथ उल्लिखित एक प्रकृतिका अनादि संयोग है तो भिन्न भिन्न पुरुषके साथ संयुक्त प्रकृतिके विपरिणाम स्वरूप बुद्धि तत्त्वमें भी अनुभवगम्य नानात्व मानना अनिवार्य है और इस तरह अनिवार्य रूपसे नानात्वको प्राप्त बुद्धि तत्त्वके विपरिणाम स्वरूप अहंकार तत्त्वमें भी नानात्व, नाना अहंकार तत्त्वोंके विरिणाम स्वरूप पांच ज्ञानेन्द्रियां पांच कर्मेन्द्रियां मन तथा पांच तन्मात्राएं इन सोलह प्रकारके तत्त्वोंमें भी पृथक् पृथक् रूपसे नानात्व और उक्त प्रकारसे नानात्त्वको प्राप्त इन सोलह प्रकारके तत्त्वोंमें अन्तर्भूत नाना पांच तन्मात्राोंके विपरिणाम स्वरूप पांचों महाभूतोंमें पृथक् पृथक् नानात्व स्वीकार करना अनिवार्य होजाता है। इनमेंसे भिन्न भिन्न पुरुषके साथ संयुक्त प्रकृतिसे भिन्न भिन्न प्राणीकी भिन्न भिन्न बुद्धिका, भिन्न भिन्न प्राणीको भिन्न भिन्न बुद्धिसे उन प्राणियोंके अपने अपने अहंकारका और उन प्राणियोंके अपने अपने अहंकारसे उनकी अपनी अपनी ग्यारह ग्यारह प्रकारकी इन्द्रियों ( पांच ज्ञानेन्द्रियों; पांच कर्मेन्द्रियों और मन ) का सृजन यदि सांख्यके लिए अभीष्ट भी मान लिया जाय तो भी प्रत्येक प्राणीमें पृथक् पृथक् विद्यमान प्रत्येक अहंकार तत्त्वसे पृथक् पृथक् पांच पांच तन्मात्राओंका सृजन प्रसक्त होजाने के कारण एक एक प्रकारकी नाना तन्मात्राओंसे एक एक प्रचारके नाना भूतोंका सृजन प्रसक्त हो जायगा। अर्थात् नाना शब्द-तन्मात्राोंसे नाना आकाश तत्त्वोंका, नाना स्पर्श तन्मात्रात्रोंसे नाना वायु तत्त्वोंका, नाना रूप तन्मात्राोंसे नाना अग्नि तत्वोंका, नाना रस तन्मात्राओं से नाना जल तस्वोंका और नाना गन्ध तन्मात्राोंसे नाना पृथ्वी तत्त्वोंका सृजन मानना अनिवार्य होगा, जोकि सांख्य दर्शनके अभिप्रायके प्रतिकूल जान पड़ता है। इतना ही नही आकाश तत्त्वका नानात्व तो दूसरे दर्शनोंकी तरह सांख्य दर्शनको भो अभोष्ट नहीं होगा। पांच स्थूल भूतोंसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंका अभिप्राय ग्रहण करनेमें एक आपत्ति यह भी उपस्थित होती है कि जब प्रकृति पुरुषसे संयुक्त होकर ही पूर्वोक्त क्रमसे पांच स्थूल भूतोंका रूप धारण करती रहती है तो जिसप्रकार बुद्धि, अहंकार और ग्यारह प्रकारकी इन्द्रियोंकी सृष्टि प्राणियोंसे पृथक् रूपमें नहीं जाती है Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उसीप्रकार पांच महाभूत और उनकी कारणभूत पांच तन्मात्राओंकी सृष्टि भी प्राणियोंसे पृथक् रूपमें होना संभव नहीं हो सकता है। ये आपत्तियां हमें इस निष्कर्षपर पहुंचा देती हैं कि सांख्यके पच्चीस तत्त्वोंमें गर्भित पांच स्थूल भूतोंसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच तत्त्वोंका अभिप्राय स्वीकार करना अव्यवस्थित और अयुक्त ही है इसलिए यदि श्रीमद्भगवद्गीताके अाधारपर श्रीकृष्ण द्वारा स्वीकृत प्राणियोंके अपने अपने शरीरको ही क्षेत्र और प्रकृति से लेकर पंचभूत पर्यन्तके तत्वोंको इस शरीररूप क्षेत्रका ही विस्तार स्वीकार कर लिया जाय तो जिस प्रकार इतर वैदिक दर्शनोंमें शरीरको पंचभूतात्मक मान लिया गया है उसी प्रकार सांख्य दर्शनके सृष्टि क्रममें भी पांच स्थूल भूतोंसे तदात्मक शरीरका ही उल्लेख समझना चाहिये और ऐसा मान लेने पर पूर्वोक्त दोनों अापत्तियोंकी भी संभावना नहीं रह जाती है । सांख्य और जैन तत्त्वोंका सामञ्जस्य जैनदर्शन और सांख्यदर्शन दोनोंमें से कौनसा दर्शन प्राचीन है और कौनसा अर्वाचीन है इसकी विवेचना न करते हुए हम इतना निश्चित तौरपर कहनेके लिए तैयार हैं कि इन दोनोंके मूलमें एक ही धाराकी छाप लगी हुई है । प्राणियोंका संसार कहांसे बनता है ? इस विषयमें जैन और सांख्य दोनों दर्शनोंकी मान्यता समान है। इस विषयमें दोनों ही दर्शन दो अनादि मूल तत्त्व स्वीकार करके आगे बढ़े हैं । उन दोनों तत्त्वोंको सांख्य दर्शन में जहां पुरुष और प्रकृति कहा जाता है वहां जैनदर्शनमें पुरुषको जीव (आत्मा) और प्रकृतिको अजोव ( कार्मण वर्गणा ) कहा गया है और सांख्यदर्शनमें पुरुषको तथा जैनदर्शनमें जीव (आत्मा) को समान रूपसे चित् शक्ति विशिष्ट, इसोप्रकार सांख्य दर्शनमें प्रकृतिको तथा जैनदर्शन में अजीव ( कार्माण वर्गणा) को समान रूपसे जड़ (अचित् ) स्वीकार किया गया है। दोनों दर्शनोंकी यह मान्यता है कि उक्त दोनों तत्त्वोंके संयोगसे संसारका सृजन होता है, परन्तु सांख्य दर्शनकी मान्यताके अनुसार संसारके सृजनका अर्थ जहां जगत् के समस्त पदार्थों की सृष्टि ले लिया जाता है वहां जैन मान्यताके अनुसार संसारके सृजनका अर्थ सिर्फ प्राणीका संसार अर्थात् प्राणीके शरीरकी सृष्टि लिया गया है । यदि हम जैनदर्शनकी तरह सांख्य दर्शनकी दृष्टि से भी पूर्वोक्त आपत्तियोंके भयसे संसारके सृजनका अर्थ प्राणोके शरीरकी सृष्टिको लक्ष्यमें रखते हुए आगे बढ़ें, तो कहा जासकता है कि इसके मूल में जैन और सांख्य दोनों दर्शनोंकी अपेक्षासे सबसे पहिले बुद्धिको ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है अर्थात् बुद्धि ही एक ऐसी वस्तु है जिसके सहारेसे प्राणी जगत्के चेतन और अचेतन पदार्थों में राग, द्वेष और मोह किया करता है सांख्य दर्शनके पच्चीस तत्त्वोंके अन्तर्गत अहंकार तत्त्वसे राग, द्वेष और मोह इन तीनोंका ही बोध करना चाहिये। राग, द्वेष और मोह रूप यह अहंकार ही प्राणीको शरीर परंपराके बंधनमें जकड़ देता है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद इतनी समानता रहते हुए भी बुद्धि और अहंकार इन दोनों तत्त्वोंकी उत्पत्तिके विषय में सांख्य दर्शन और जैन दर्शनकी विल्कुल अलग अलग मान्यताएं हैं- सांख्य दर्शनकी मान्यता यह है कि प्रकृति ही पुरुष के साथ संयुक्त हो जाने पर बुद्धि रूप परिणत हो जाया करती है और यह बुद्धि अहंकार रूप हो जाती है । परन्तु जैन दर्शनकी मान्यता यह है कि प्रकृति श्रर्थात् कार्माण वर्गणा के संयोगसे पुरुष अर्थात् श्रात्माकी चित् शक्ति ही बुद्धिरूप परिणत हो जाया करती है और इस बुद्धि के सहारे जगत्के चेतन और अचेतन पदार्थों के संसर्गसे वही चित् शक्ति राग, द्वेष और मोह स्वरूप अहंकारका रूप धारण कर लेती है । तात्पर्य यह हैं कि सांख्यदर्शन में बुद्धि और अहंकार दोनों जहां प्रकृतिके विकार स्वीकार किये गये हैं वहां जैन दर्शन में ये दोनों ही श्रात्माकी चित् शक्तिके विकार स्वीकार किये गये हैं । सांख्य दर्शनकी मान्यता के अनुसार यह अहंकार पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन तथा पांच तन्मात्राएं इस प्रकार सोलह तत्त्वोंके रूपमें परिणत हो जाया करता हैं और जैन दर्शनकी मान्यता के अनुसार श्रात्मा इसी प्रकार के सहारे एक तो शरीर रचनाके योग्य सामग्री प्राप्त करता है दूसरे उसके ( आत्माके) चित् स्वरूपमें भी कुछ निश्चित विशेषताएं पैदा हो जाया करती हैं। इसका मतलब यह है कि आत्मा जगत्के पदार्थों में अहंकार अर्थात् राग, द्वेष और मोह करता हुआ शरीर निर्माणके पहिले पुद्गल परमाणुत्रों के पुञ्जरूप शरीर निर्माणकी सामग्री प्राप्त करता है इस सामग्रीको जैन दर्शन में 'नोकर्मवर्गणा' नाम दिया गया है । शरीर निर्माणकी कारणभूत नोकर्म वर्गणारूप यह सामग्री सांख्य दर्शनकी पांच तन्मात्राओं की तरह पांच भागों में बिभक्त हो जाती है क्योंकि जिस प्रकार वैदिक दर्शनोंमें शरीरको पांच भूतो में विभक्त कर दिया गया है उसी प्रकार जैन दर्शन में भी शरीरके पांच हिस्से मान लिये गये हैं । शरीरका एक हिस्सा वह है जो प्राणीको स्पर्शका ज्ञान कराने में सहायता करता है, दूसरा हिस्सा वह है जो उसे रसका ज्ञान कराने में सहायता करता है, तीसरा हिस्सा वह है जो उसे गंधका ज्ञान कराने में सहायता करता है, चौथा हिस्सा वह है जो उसे रूपका ज्ञान कराने में सहायता करता है और पांचवां हिस्सा वह है जो उसे शब्दका ज्ञान कराने में सहायता करता है। जैन दर्शनमें शरीरके इन पांचों हिस्सोको क्रमसे स्पर्शन द्रव्येन्द्रिय, रसना द्रव्येन्द्रिय, घ्राण द्रव्येन्द्रिय, चक्षु द्रव्येन्द्रिय और कर्ण द्रव्येन्द्रिय इन नामोंसे पुकारा जाता है और शरीर के इन पांचों हिस्सों की सामग्री स्वरूप जो नोकर्म वर्गरणा है उसको भी पांच भागों में निम्न प्रकार से विभक्त किया जा सकता है । पहिली नोकर्म वर्गणा वह है जिससे प्राणीको स्पर्शका ज्ञान करनेमें सहायक स्पर्शन द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको स्पर्शन-द्रव्येन्द्रिय नोकर्मवर्गणा अथवा स्पर्श नोकर्मवर्गणा नामसे पुकारा जा सकता है, दूसरी नोकर्मवर्गणा वह है जिससे प्राणीको रसका ज्ञान करनेमें सहायक रसना द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको रसना द्रव्येन्द्रिय नोकर्म वर्गणा अथवा रसना नोकर्म वर्गणा नामसे पुकारा जा सकता है, तीसरी नोकर्म वर्गणा वह है जिससे प्राणीको गन्धका ज्ञान करनेमें सहायक प्राण द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको प्राण द्रव्येन्द्रिय नोकर्म वर्गणा अथवा गन्ध नोकर्मवर्गणा नामसे ३१ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पुकारा जा सकता है, चौथी नोकर्मवर्गणा वह है जिससे प्राणीको रूपका ज्ञान करनेमें सहायक चक्षुर्द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको चक्षुर्द्रव्येन्द्रिय नोकर्मवर्गणा अथवा रूप नोकर्मवर्गणा नामसे पुकारा जा सकता है और पांचवीं नोकर्मवर्गणा वह है जिससे प्राणीको शब्दका ज्ञान करने में सहायक कर्ण द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको कर्ण द्रव्येन्द्रिय नीकर्म वर्गणा अथवा शब्द नोकर्म वर्गणा नामसे पुकारा जा सकता है। इस तरह विचार करनेपर मालूम पड़ता है कि सांख्यदर्शनकी पांच तन्मात्राओं और जैन दर्शनकी पांच नोकर्मवर्गणाओंमें सिर्फ नामका सा ही भेद है अर्थका भेद नहीं है, क्यों कि जिस प्रकार जैन दर्शनमें प्राणीके शरीरकी अवयवभूत पांच स्थूल द्रव्येन्द्रियोंके उपादान कारण स्वरूप सूक्ष्म पुद्गल परमाणु पुञ्जोंको नोकर्मवर्गणा नामसे पुकारा गया है उसी प्रकार सांख्यदर्शनमें पूर्वोक्त प्रकारसे प्राणीके शरीरके अवयवभूत पांच स्थूल भूतोंके उपादान कारण स्वरूप सूक्ष्म परमाणु पुञ्जोंको ही तन्मात्रा नामसे पुकारा जाता है। तात्पर्य यह है कि उस उस स्थूल भूतके उपादान कारण स्वरूप सूक्ष्म परमाणु पुञ्जोको ही सांख्य दर्शनमें उस उस तन्मात्रा शब्दसे व्यवहृत किया जाता है और पांचों स्थूल भूत पूर्वोक्त प्रकारसे प्राणीके स्थल शरीरके अवयव ही सिद्ध होते हैं । इसलिए शरीरके अवयवभूत अाकाश तत्त्व अर्थात् प्राणीको शब्द ग्रहणमें सहायक स्थूल कर्मेन्द्रि यके उपादान कारणभूत सूक्ष्म परमाणु पुञ्जोंको ही शब्द तन्मात्रा, शरीरके अवयवभूत वायुतत्त्व अर्थात् प्राणीको स्पर्श ग्रहणमें सहायक स्थूल स्पर्शनेन्द्रियके उपादान कारणभूत सूक्ष्म परमाणु पुञ्जोंको ही स्पर्श तन्मात्रा, शरीरके अवयवभूत जलतत्त्व अर्थात् प्राणीको रस ग्रहण में सहायक स्थूल रसनेन्द्रियके उपादान कारणभूत सूक्ष्मपरमाणु पुञ्जोंको ही रस तन्मात्रा, शरीरके अवयवभूत अमितत्त्व अर्थात् प्राणीको रूप ग्रहणमें सहायक स्थूल चक्षुरिन्द्रियके उपादान कारणभूत सूक्ष्मपरमाणु पुञ्जों को ही रूप तन्मात्रा और. शरीरके अवयवभूत पृथ्वीतत्त्व अर्थात् प्राणीको गंध ग्रहणमें सहायक स्थूल घ्राणेन्द्रियके उपादान कारणभूत सूक्ष्मपरमाणु पुंजोंको ही गन्ध तन्मात्रा मान लेना चाहिये । तन्मात्रा शब्दके साथ जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध शब्द जुड़े हुए हैं वे उक्त अर्थका ही संकेत करनेवाले हैं । ___ इस प्रकार पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, पांच तन्मात्रा, और पांच स्थूल भूत इन चौदह तत्वोंका जैनदर्शनकी मान्यताके साथ सामंजस्य बतलानेके बाद सांख्य दर्शनके ग्यारह तत्त्व ( पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और मन ) और शेष रहजाते है। जिनके विषयमें जैनदर्शनके मंतव्यको जाननेकी आवश्यकता है। जैनदर्शनमें अात्माकी चित् शक्तिको बुद्धि तथा अहंकारके अलावा और भी दस हिस्सोंमें विभक्त कर दिया गया है और इन दस हिस्सोंका पांच लब्धीन्द्रियों और पांच उपयोगेन्द्रियों के रूपमें वर्गीकरण करके स्पर्श लब्धीन्द्रिय और स्पर्शनोपयोगेन्द्रिय, रसनालब्धीन्द्रिय और रसनोपयोगेन्द्रिय,प्राणलब्धीन्द्रिय और प्राणोपयोगेन्द्रिय, चक्षुर्लब्धीन्द्रिय और चक्षुरुपयोगेन्द्रिय, तथा कर्णलब्धीन्द्रिय और कर्णोपयोगेन्द्रिय इसप्रकार उनका नामकरण करदिया गया है। सांख्य दर्शनमें ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियोंमें जिन ३२ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद दस इन्द्रियां को गिनाया गया है उन दस इन्द्रियोंको ही यद्यपि जैनदर्शन में उक्त लब्धीन्द्रियों में नहीं लिखा गया है परन्तु सांख्य दर्शनके ज्ञानेन्द्रिय पदका जैनदर्शन के लब्धीन्द्रिय पदके साथ और सांख्य दर्शन के कर्मेन्द्रिय पदका जैनदर्शन के उपयोगेन्द्रिय पदके साथ साम्य अवश्य है; क्योंकि लब्धीन्द्रिय पदमें पठित लब्धिशब्दका ज्ञान और उपयोगेन्द्रिय पद में पठित उपयोग शब्दका व्यापार अर्थात् क्रिया अथवा कर्म अर्थ करनेपर भी जैनदर्शनका अभिप्राय अक्षुण्ण बना रहता है । और यदि सांख्य दर्शनके पांच भूतोंसे प्राणी के शरीर की श्रवयवभूत पांच स्थूल इन्द्रियोंका अभिप्राय ग्रहण कर लिया जाता है तो फिर जैनदर्शन की तरह सांख्य दर्शनमें भी पांच ज्ञानेन्द्रियोंसे पांच लब्धीन्द्रियों तथा पांच कर्मेन्द्रियोंसे पांच उपयोगेन्द्रियांका अभिप्राय ग्रहण करना ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है। बुद्धि और अहंकारका आधार स्थल जैनदर्शन में मनको माना गया है और इसे भी प्राणी के शरीरका अन्तरंग हिस्सा कहा जासकता है। तथा इस मान्यताका सांख्य दर्शनके साथ भी कोई विशेष विरोध नहीं है । एक बात जो यहां स्पष्ट करने के लिए रह जाती वह यह है कि सांख्य दर्शनकी पांच ज्ञानेन्द्रियों के स्थान पर जैनदर्शनकी पांच लब्धीन्द्रियोंकी, पांच कर्मेन्द्रियोंके स्थानपर पांच उपयोगेन्द्रियोंकी और पांच भूतोंके स्थान पर शरीर के अवयवभूत पांच द्रव्येन्द्रियोंकी जो मान्यताएं बतलायी गयी हैं उनकी सार्थकता क्या ? इसके लिए इतना लिखना ही पर्याप्त है कि स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्दका ज्ञान करनेकी श्रात्मशक्ति का नाम लब्धीन्द्रिय है इसके विषयभेदकी अपेक्षा स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और कर्ण ये पांच भेद होजाते हैं । उक्त श्रात्मशक्तिका पदार्थज्ञानरूप व्यापार अर्थात् पदार्थज्ञान रूप परिणतिका नाम उपयोगेन्द्रिय है | इसके भी उक्त प्रकारसे विषय भेदकी अपेक्षा पांच भेद हो जाते हैं । इसके साथ साथ उक्त श्रात्मशक्तिकी पदार्थज्ञानपरिणतिमें सहायक निमित्त शरीर के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच अवयव हैं इन्हें ही जैनदर्शन में द्रव्येन्द्रिय नाम दिया गया है । इसप्रकार जब हम सांख्य दर्शन की पच्चीस तत्त्ववाली मान्यता के बारेमें जैनदर्शन के दृष्टिकोणके आधारपर समन्वयात्मक पद्धतिसे विचार करते हैं तो सांख्य और जैन दोनोंके बीच बड़ा भारी साम्य पाते हैं । इसके साथ ही यह बात भी बिल्कुल साफ होजाती है कि सांख्य दर्शनकी यह मान्यता जैनदर्शनकी तरह उपयोगिता वाद मूलक है, अस्तित्व-वाद मूलक नहीं । वेदान्त दर्शनसे समन्वय पुरुष और प्रकृतिको आदि देकर बुद्धि, आदि तत्त्वोंकी सृष्टि परंपरा सांख्य दर्शन की तरह वेदान्त दर्शनको भी अभीष्ट है । सिर्फ इन दोनों दर्शनों की मान्यता में परस्पर यदि कुछ भेद है तो वह यह है कि वेदान्त दर्शन पुरुष और प्रकृतिके मूलमें एक, नित्य और व्यापक सत्, चित् और श्रानन्दमय पर - ५ ३३ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ब्रह्म नामक तत्त्वको भी स्वीकार करता है। इस कथनका यह अर्थ है कि सांख्य दर्शनकी तरह वेदान्त दर्शन की तत्त्व विचारणा भी प्राणियोंके पञ्च महाभूतात्मक स्थूल शरीरके निर्माण तक ही सीमित है अर्थात् वेदान्त दर्शनकी तत्त्व विचारणामें भी सांख्य दर्शनकी तरह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंकी सृष्टिका समावेश नहीं किया गया है; क्योंकि सांख्य दर्शनकी तत्त्व मान्यतामें भी पंचभूतका अर्थ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ग्रहण करने से पूर्वोक्त बाधाएं आ खड़ी होती हैं । सृष्टिके मूलभूत वेदान्त दर्शनके परब्रह्म नामक तत्त्वके विषयमें जैनदर्शनकी आध्यात्मिक मूल मान्यताके साथ समन्वयात्मक पद्धतिसे विचार करनेपर इन दोनोंके साम्यका स्पष्ट बोध होजाता है पूर्वोक्त कथनसे इतना तो स्पष्ट होजाता है कि प्रकृति और पुरुषको श्रादि देकर जो संसारका सृजन होता है उसके विषयमें सांख्य, वेदान्त और जैन तीनों दर्शनोंका प्राणीके शरीरकी सृष्टि के रूपमें समान दृष्टिकोण मान लेना आवश्यक है । परंतु वेदान्त दर्शनमें प्रकृति और पुरुषके मूलमें जो परब्रह्म नामक तत्त्व माना गया है उसका भी जैनदर्शन विरोध नहीं करता है। इसका श्राशय यह है कि जैनदर्शनके आध्यात्मिक दृष्टिकोणका प्रधान पात्र अात्मा ही माना गया है। क्योंकि अात्मा प्रकृति अर्थात कर्म वर्गणासे संबद्ध होकर पूर्वोक्त पांच प्रकारकी नोकर्म वर्गणाओं द्वारा निर्मित पंचभूतात्मक शरीरसे संबन्ध स्थापित करता हुश्रा जन्म-मरण परम्परा एवं सुख-दुःख परंपराके जालमें फंसा हुआ है । इसकी यह अवस्था पराधीन और दयनीय मान ली गयी है इसलिए इससे छुटकारा पाकर आत्माका स्वतंत्र स्वाभाविक स्थायी स्थितिको प्राप्त कर लेना दर्शन के आध्यात्मिक दृष्टिकोणका उद्देश्य है । जैनदर्शनमें भी वेदान्त दर्शनके परब्रह्मकी तरह अात्माको सत्, चित् और आनन्दमय स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त ज्ञाता, दृष्टा और अनन्त शक्तिसंपन्न भी उसे जैनदर्शनमें माना गया है और यह नित्य ( सर्वदा स्थायी ) है अर्थात् भिन्न-भिन्न अवस्थाअोंके बदलते हुए भी इसका मूलतः कभी नाश नहीं होता है । ऐता अात्मा ही अपनी वैभाविक शक्तिके द्वारा प्रकृतिके साथ संबद्ध होकर संसारी बना हुआ है । यह संसारी आत्मा जब मुमुक्षु हो जाता है तो अपने शुद्ध स्वरूपको लक्ष्यमें रखता हुआ बहिर्गत पदार्थोंके संसारको धीरे धीरे नष्ट करके शुद्ध वेदान्ती (जैनदर्शनको दृष्टिमें अात्मस्थ ) होजाता है और तब वह अपने वर्तमान शरीरके छूटनेपर मुक्त अर्थात् सत्-चित्-अानन्दमय अपने स्वरूपमें लीन होजाता है । वेदान्त दर्शनका परब्रह्म भी अपनी माया शक्तिके द्वारा प्रकृतिके साथ संबद्ध होकर संसारी बनता है और वह मुमुक्षु होकर जब बहिर्गत पदार्थोंसे पूर्णतः अपना संबन्ध विच्छेद करके अात्मस्थ होजाता है तब वर्तमान शरीरके छूट जानेपर सत्-चित्-अानन्दमय परब्रह्मके स्वरूपमें लीन होजाता है । इसप्रकार इस प्रक्रियामें तो जैनदर्शनका वेदान्त दर्शनके साथ वैमत्य नहीं हो सकता है। केवल वेदान्त दर्शनको मान्य परब्रह्मकी व्यापकता और एकमें ही नाना जीवोंकी उपादान ३४ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद कारणताके संबन्धमें जैनदर्शनका वैमत्य रह जाता है। लेकिन इससे वेदान्त दर्शनकी तत्त्व मान्यताकी उपयोगितावाद मूलकतामें कोई अन्तर नहीं आता है। ___शंका-यदि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंको मान्य पदार्थ व्यवस्थामें पंच भूतका अर्थ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश नहीं तो इसका मतलब यह है कि ये दोनों दर्शन उक्त पांचों तत्त्वोंके अस्तित्वको मानना नहीं चाहते हैं । लेकिन अदृश्य होनेके सबबसे आकाश तत्त्वके अस्तित्वको यदि न भी माना जाय तो भी पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चारों दृश्य तत्त्वोंके अस्तित्वको कैसे अस्वीकृत किया जा सकता है ? समाधान-ऊपरके कथनका यह अर्थ नहीं है कि सांख्य और वेद न्त दर्शनोंको पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंकी सत्ता ही अभीष्ट नहीं है । इसका अर्थ तो सिर्फ इतना है कि इन दोनों दर्शनोंके मूल-श्राविष्कर्ताओंने उक्त पांचों तत्त्वोंको स्वीकार करके भी अपनी पदार्थ व्यवस्थामें उनको इसलिए स्थान नहीं दिया है कि पदार्थ व्यवस्थामें उक्त दोनों दर्शनोंकी दृष्टि उपयोगिता वाद मूलक ही रही है इसलिए इन पांचों तत्त्वोंका आत्म कल्याण में कुछ भी उपयोग न होनेके कारण इन दोनों दर्शनों की पदार्थ व्यवस्थामें इनको स्थान नहीं मिल सका है। लेकिन किसी भी वस्तुका विवेचन न करने मात्रसे उसका यह निष्कर्ष निकाल लेना अनुचित है कि अमुकको अमुक वायुकी सत्ता ही मान्य नहीं है । साथ ही श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें अध्यायके निम्न लिखित श्लोकपर ध्यान देनेसे यह पता चलता है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंमें अदृश्य आकाश तत्त्वका पुरुष और प्रकृति अथवा परब्रह्म से स्वतंत्र अनादि अस्तित्व स्वीकार किया गया है "यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाश नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥" इस श्लोकका अर्थ यह है कि जिस प्रकार सर्वगत होकर भी सूक्ष्मताकी वजहसे अाकाश किसोके साथ उपलिप्त नहीं होता है उसी प्रकार (संख्य मतानुसार ) सब जगह अवस्थित अात्मा ( पुरुष ) और ( वेदान्त मतानुसार ) सब जगह रहने वाला अात्मा ( परब्रह्म ) भी देहके साथ उपलित नहीं होता है। _यहां पर सांख्य मतानुसार पुरुष और वेदान्त मतानुसार परब्रह्म स्वरूप आत्माको निर्लेपता . को सिद्ध करनेके लिए सर्वगत और सूक्ष्म आकाश तत्त्वका उदाहरण पेश किया गया है । परंतु प्रकरण को देखते हुए उक्त स्वरूप आकाश तत्त्वका पुरुष और प्रकृति अथवा परब्रह्मसे अतिरिक्त जब तक अनादि अस्तित्व नही स्वीकार कर लिया जाता है तब तक उसे उक्त स्वरूप प्रात्माकी निलेपता सिद्ध करनेमें दृष्टान्त रूपसे कैसे उपस्थित किया जा सकता है? ३५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ इस प्रकार जब सांख्य और वेदान्त दर्शन श्राकाशको स्वतंत्र श्रनादि पदार्थ स्वीकार कर लेते हैं तो उन्हीं की मान्यता के अनुसार उसकी प्रकृति अथवा परब्रह्मसे उत्पत्ति कैसे मानी जा सकती ? तथा जिस प्रकार उक्त दोनों की दृष्टिमें आकाश स्वतंत्र पदार्थ है ? उसी प्रकार उक्त पत्तियोंकी वजहसे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुको भी प्रकृति और पुरुष अथवा पर ब्रह्मसे पृथक् स्वतंत्र पदार्थ मानना ही उचित है । उपसंहार उपर्युक्त विवेचनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि सांख्य और वेदांत दोनों दर्शनों की तत्त्व विचारणा में जिन पांच स्थूल भूतोंका उल्लेख किया गया है वे जैन दर्शनमें वर्णित प्राणीके शरीरकी अवयवभूत पांच स्थूल इद्रियोंके अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु नहीं हैं। इसी प्रकार पांच तन्मात्राएं उक्त इन्द्रियोंकी उपादान कारणभूत पांच नोकर्म वर्गणाओंके अतिरिक्त, पांच ज्ञानेन्द्रियों पांच लब्धीन्द्रियोंके अतिरिक्त और पांच कर्मेन्द्रियां पांच उपयोगेंद्रियों के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु तर्क संगत नहीं रहती है । इनके अतिरिक्त जैनदर्शन तथा नैयायिक आदि दूसरे वैदिक दर्शनों में जिन स्वतंत्र पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंका विवेचन पाया जाता है उन पांचों तत्वों का सांख्य तथा वेदान्त दोनों हो दर्शनों में निषेध नहीं किया गया है। अर्थात् दोंनों ही दर्शनों को उनकी तत्त्व व्यवस्थामें आये हुए तत्वोंके अतिरिक्त उन तत्त्वोंकी स्वतंत्र सत्ता भी है। केवल उन तत्त्वों को उन दोनों दर्शनोंने अपनी तत्त्व व्यवस्था में इसलिए स्थान नहीं दिया है कि उन तत्त्वों का वस्तु स्थिति वादसे ही उपयुक्त संबंध बैठता है सांख्य और वेदान्त दर्शनों के आधारभूत अध्यात्म वाद से उनका कोई संबंध नहीं । स्पष्ट है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनों की जैन दर्शनके उपयोगिता वाद (अध्यात्मवाद) के साथ काफी समानता है । इसी तरह यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि नैयायिक और वैशेषिक दर्शनोंकी जैन दर्शन के अस्तित्ववाद (वस्तुस्थिति वाद ) के साथ काफी समानता है । ३६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रमाण चर्चामें-- प्राचार्य कुन्दकुन्दकी देन श्री प्रा० दलसुख मालवणिया प्रास्ताविक-- प्राचार्य कुन्दकुन्दने अपने ग्रन्थोंमें स्वतन्त्र भावसे प्रमाणकी चर्चा तो नहीं की है और न उमास्वातिकी तरह शब्दतः पांच ज्ञानोंको प्रमाण संज्ञा ही दी है। फिर भी ज्ञानोंका जो प्रासाङ्गिक वर्णन है वह दार्शनिकोंको प्रमाण-चर्चासे प्रभावित है हो । अतएव ज्ञान चर्चाको ही प्रमाण चर्चा मान कर प्रस्तुतमें वर्णन किया जाता है। यह तो किसोसे छिपा हुअा नहीं है कि वाचक उमास्वातिकी ज्ञानचर्चासे प्राचार्य कुन्दकुन्दकी ज्ञानचर्चा में दार्शनिक मौलिकताकी मात्रा अधिक है । यह बात अागेकी चर्चासे स्पष्ट हो सकेगी। अद्वैतदृष्टि--- प्राचार्य कुन्दकुन्दका श्रेष्ठ ग्रन्थ समयसार है । उसमें उन्होंने तत्त्वोंका विवेचन निश्चय दृष्टिका अवलम्बन लेकर किया है। खास उद्देश्य तो है आत्माके निरुपाधिक शुद्धस्वरूपका प्रतिपादन; किंतु उसीके लिए अन्य तत्त्वोंका भी पारमार्थिक रूप बतानेका प्राचार्यने प्रयत्न किया है । आत्माके शुद्ध स्वरूपका वर्णन करते हुए श्राचार्य ने कहा है कि व्यवहार-दृष्टिके श्राश्रयसे यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणोंमें पारस्परिक भेदका प्रतिपादन किया जाता है। फिर भी निश्चय दृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त है कि जो ज्ञाता है वही आत्मा है, या आत्मा ज्ञायक है, अन्य कुछ भी नहीं। इस प्रकारकी अभेद गामिनी दृष्टिने आत्माके सभी गुणोंका अभेद ज्ञान गुणमें कर दिया है और अन्यत्र स्पष्टतया समर्थन भी किया है कि सम्पूर्ण ज्ञान ही ऐकान्तिक सुख है । इतना ही नहीं किंतु द्रव्य और गुणमें अर्थात् ज्ञान और ज्ञानीमें भी कोई भेद नहीं है ऐसा प्रतिपादन किया है । उनका कहना है कि अात्मा कर्ता हो, ज्ञान करण हो यह बात भी नहीं, किंतु "जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा ।" १ समयसार ६,७। २ प्रवचन० ५९, ६० । ३ समयसार १०, ११,४३३ । पंचा०४०, ४९ । ४ प्रवचन० १, ३५। .. ३७ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ उन्होंने प्रात्माको ही उपनिषदकी भाषामें सर्वस्व बताया है और उसीका अवलम्बन मुक्ति है ऐसा प्रतिपादन किया है। श्राचार्य कुन्दकुन्दकी अभेद दृष्टिको इतनेसे भी संतोष नहीं हुआ। उनके सामने 'विज्ञानाद्वैत तथा अात्माद्वैतका भी आदर्श था। विज्ञानाद्वैत वादियोंका कहना है कि ज्ञानमें ज्ञानातिरिक्त बाह्य पदार्थोंका प्रतिभास नहीं होता, 'स्व'का ही प्रतिभास होता है । ब्रह्माद्वैतका भी यही अभिप्राय है कि संसारमें ब्रह्मातिरिक्त कुछ नहीं है । अतएव सभी प्रतिभासोंमें ब्रह्म ही प्रतिभासित होता है । इन दोनों मतोंके समन्वयकी दृष्टि से प्राचार्यने कह दिया कि निश्चयदृष्टि से केवलज्ञानी अात्माको ही जानता है; बाह्य पदार्थोंको नहीं । ऐसा कह करके तो श्राचार्य ने जैनदर्शन और अद्वैतवादका अन्तर बहुत कम कर दिया है और जैनदर्शनको अद्वैतवादके निकट रख दिया है। प्राचार्य कुंदकुंदकृत सर्वज्ञकी उक्त व्याख्या अपूर्व है और उन्हींके कुछ अनुयायियों तक सीमित रही है । दिगम्बर जैन दार्शनिक अकलंकादिने भी इसे छोड़ ही दिया है। ज्ञानकी स्वपर प्रकाशकता-- दार्शनिक में यह एक विवादका विषय रहा है कि ज्ञानको स्वप्रकाशक, परप्रकाशक या स्वपर - प्रका शक माना जाय । वाचकने इस चर्चाको ज्ञानके विवेचनमें छेड़ा ही नहीं है। सम्भवतः प्राचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम प्राचार्य हैं जिन्होंने बौद्ध-वेदान्त सम्मत ज्ञानकी स्वपर-प्रकाशकतापरसे इस चर्चाका सूत्रपात जैनदर्शनमें किया। श्रा• कुन्दकुन्दके बादके सभी प्राचार्योंने प्राचार्य के इस मन्तव्यको एक स्वरसे माना है। आचार्यकी इस चर्चाका सार नीचे दिया जाता है जिससे उनकी दलीलोंका कम ध्यानमें श्रा जायगा-(नियमसार १६०-१७०) प्रश्न-यदि ज्ञानको परद्रव्यप्रकाशक, दर्शनको स्वद्रव्यका (जीवका) प्रकाशक और आत्माको स्वपरप्रकाशक माना जाय तब क्या दोष है ? (१६०) उत्तर-यही दोष है कि ऐसा मानने पर ज्ञान और दर्शनका अत्यन्त वैलक्षण्य होनेसे दोनोंको अत्यन्त भिन्न मानना पड़ेगा। क्योंकि ज्ञान तो परद्रव्यको जानता है, दर्शन नहीं। (१६१) ___ दूसरी आपत्ति यह है कि स्व-परप्रकाशक होनेसे आत्मा तो परका भी प्रकाशक है अतएव वह दर्शनसे जो कि परप्रकाशक नहीं है, भिन्न ही सिद्ध होगा । ( १६२) अतएव मानना यह चाहिए कि ज्ञान व्यवहार नयसे परप्रकाशक है और दर्शन भी । आत्मा भी व्यवहारनयसे ही परप्रकाशक है और दर्शन भी (१६३) १. समयसार १६-२१ । नियमसार ९५-१०० २. नियमसार १५७ । ३८ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्दकी देन किंतु निश्चयनयकी अपेक्षासे ज्ञान स्वप्रकाशक है और दर्शन भी । तथा आत्मा स्वप्रकाशक है और दर्शन भी १६४) प्रश्न-यदि निश्चयनयको ही स्वीकार किया जाय और कहा जाय कि केवलज्ञानी अात्म स्वरूपको ही जानता है, लोकालोकको नहीं तब क्या दोष है ? ( १६५) उत्तर -जो मूर्त अमूर्तको, जीव-अजीवको, स्व और सभीको जानता है उसके ज्ञानको अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है। और जो पूर्वोक्त सकल द्रव्योंको उनके नाना पर्यायोंके साथ नहीं जानता उसके ज्ञानको परोक्ष कहा जाता है। अतएव यदि एकान्त निश्चयनयका आग्रह रखा जाय तब केवलज्ञानीको प्रत्यक्ष नहीं किंतु परोक्ष ज्ञान होता है यह मानना पड़ेगा । (१६६-१६७) प्रश्न-और यदि व्यवहारनयका ही अाग्रह रखकर ऐसा कहा जाय कि केवलज्ञानी लोकालोकको तो जानता है किंतु स्वद्रव्य आत्माको नहीं जानता तब क्या दोष होगा ? (१६८) उत्तर-ज्ञान ही तो जीवका स्वरूप है । अतएव परद्रव्यको जाननेवाला ज्ञान स्वद्रव्य श्रात्माको नहीं जाने यह कैसे संभव है ? और यदि ज्ञान स्वद्रव्य आत्माको नहीं जानता है ऐसा आग्रह हो तब यह मानना पड़ेगा कि ज्ञान जीव-स्वरूप नहीं किंतु उससे भिन्न है। वस्तुतः देखा जाय तो ज्ञान ही अात्मा है और अात्मा ही ज्ञान है अतएव व्यवहार और निश्चय दोनोंके समन्वयसे यही कहना उचित है कि ज्ञान स्वपरप्रकाशक है और दर्शन भी । ( १६९-१७०) सम्यग्ज्ञान वाचक उमास्वातिने सम्यग्ज्ञानका अर्थ किया है अव्यभिचारि, प्रशस्त और संगत । किंतु आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यग्ज्ञानकी जो व्याख्या की है उसमें दार्शनिक प्रसिद्ध समारोपका व्यवच्छेद अभिप्रेत है। उन्होंने कहा है "संसय बिमोह विब्भम विवज्जियं होदि सण्णाणं' ।" अर्थात्-संशय, विमोह और विभ्रमसे वर्जित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। - एक दूसरी बात भी ध्यान देने योग्य है, खासकर बौद्धादि दार्शनिकोंने सम्यग्ज्ञानके प्रसङ्गमें 'हेय और उपादेय शब्दका प्रयोग किया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द भी हेयोपादेय तत्त्वोंके अधिगमको सम्यग्ज्ञान कहते हैं । स्वभाव और विभावज्ञान-- वाचकने सर्वपरम्पराके अनुसार मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञानोंको क्षायो.शमिक १ नियमसार ५१ २. “अधिगमभावो णाणं हेयोपादेयतच्चाणं ।” नियमसार ५२ । सुत्तपाहुड ५ । नियमसार ३८ । ३९ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ और केवल ज्ञानको क्षायिक कहा है किंतु आचार्य कुंदकुंदके दर्शनकी विशेषता यह है कि वे सर्वगम्य परिभाषाका उपयोग करते हैं । अतएव उन्होंने क्षायोपशमिक ज्ञानोंके लिए विभावज्ञान और क्षायिक ज्ञानके लिए स्वभावज्ञान इन शब्दों का प्रयोग किया है । उनकी व्याख्या है कि कर्मोपाधि वर्जित जो पर्याय हों वे स्वाभाविक पर्याय हैं और कर्मोपाधिक जो पर्याय हों वे वैभाविक पर्याय हैं । इस व्याख्या के अनुसार शुद्ध आत्माका ज्ञानोपयोग स्वभावज्ञान है और शुद्ध आत्माका ज्ञानोपयोग विभावज्ञान है । प्रत्यक्ष-परोक्ष श्राचार्य कुंदकुंदने पूर्व परम्परासे श्रागत प्राचीन श्रागमिक व्यवस्था के अनुसार ही ज्ञानोंमें प्रत्यक्षत्व-परोक्षत्वकी व्यवस्था की है। पूर्वोक्त स्व पर प्रकाशकी चर्चाके प्रसङ्गमें प्रत्यक्ष-परोक्ष ज्ञानकी जो व्याख्या दी गयी है वह प्रवचनसार ( १ - ४०.४१, ५४-५८ ) में भी है। किंतु प्रवचनसार में उक्त व्याख्याको युक्ति से भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इनका कहना है कि दूसरे दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष मानते हैं किंतु वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? क्यों कि इन्द्रियां तो अनात्मरूप होने से परद्रव्य हैं । श्रतएव इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्ध वस्तुका ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इन्द्रिय जन्य ज्ञानके लिए परोक्ष शब्द ही उपयुक्त है । क्यों कि परसे होनेवाले ज्ञान ही को तो परोक्ष कहते हैं । ज्ञप्तिका तात्पर्य -- ज्ञानद्वारा अर्थ जाननेका मतलब क्या है ? क्या ज्ञान अर्थ रूप होजाता है अर्थात् ज्ञान और ज्ञेयका भेद मिट जाता है ? या जैसा अर्थका आकार होता है वैसा आकार ज्ञानका हो जाता है ? या ज्ञान में प्रविष्ट हो जाता है ? या अर्थ ज्ञानमें प्रविष्ट हो जाता है ? या ज्ञान अर्थसे उत्पन्न होता है ? इन प्रश्नोंका उत्तर श्राचार्यने अपने ढंग से देनेका प्रयत्न किया है । आचार्यका कहना है कि ज्ञानी ज्ञान स्वभाव है और अर्थ ज्ञेय स्वभाव । श्रतएव भिन्न 'स्व' वाले ये दोनों स्वतन्त्र हैं एककी वृत्ति दूसरे में नहीं है । ऐसा कह करके वस्तुतः श्राचार्यने यह बताया है कि संसार में मात्र विज्ञानाद्वैत नहीं, बाह्य अर्थ भी है। उन्होंने दृष्टान्त दिया है कि जैसे चक्षु अपने में रूपका प्रवेश न होने पर भी रूपको जानती है वैसे ही ज्ञान बाह्यार्थीको विषय करता है । दोनोंमें विषय-विषयीभाव रूप सम्बन्धको छोड़कर और कोई सम्बन्ध नहीं । अथोंमें ज्ञान है इसका तात्पर्य बतलाते हुए आचार्य इन्द्रनील मणिका दृष्टान्त दिया है और कहा है कि जैसे दूध के बर्तन में रखी हुई इन्द्रनील मणि अपनी दीति से १, नियमसार १०, ११, १२ । २, नियमसार १५ । ३, प्रवचनसार ५७ ५८ ४. प्रवचन. १ २८ । ५. प्रवचन. १ २८, २९ । ४० Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य कुन्दकुन्दकी देन दूधके रूपका अभिभव करके उसमें रहती है वैसे ज्ञान भी प्रथों में है । तात्पर्य यह है दूधगत मणि स्वयं द्रव्यतः संपूर्ण दूधमें व्याप्त नहीं है, फिर भी उसकी दीतिके कारण समस्त दूध नीलवर्ण दिखायी देता है । इसीप्रकार ज्ञान संपूर्ण अर्थ में द्रव्यतः व्याप्त नहीं होता है तथापि विचित्र शक्ति के कारण अर्थको जान लेता है इसलिए अर्थ में ज्ञान है ऐसा कहा जाता है । इसीप्रकार यदि अर्थ में ज्ञान है तो ज्ञानमें भी अर्थ है यह भी मानना उचित है । क्योंकि यदि ज्ञानमें अर्थ नहीं तो ज्ञान किसका होगा ? इसप्रकार ज्ञान और अर्थका परस्पर प्रवेश न होते हुए भी विषय विषयी भावके कारण 'ज्ञानमें अर्थ' और 'अर्थ में ज्ञान' इस व्यवहारकी उपपत्ति आचार्यने बतलायी 1 ज्ञान दर्शन यौगपद्य- वाचक उमास्वामि द्वारा पुष्ट केवलीके ज्ञान और दर्शनका यौगपद्य श्र० कुन्दकुन्दने भी माना है । विशेषता यह है कि आचार्यने यौगपद्य के समर्थन में दृष्टान्त भी दिया है कि जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप युगपद् होते हैं वैसे ही केवलीके ज्ञान और दर्शनका यौगपद्य है । "जुगवं वट्टइ गाणं केवलणाणिस्स दंसणं तहा । दियर पयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥” सर्वज्ञका ज्ञान- आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी अभेद दृष्टिके अनुरूप निश्चय दृष्ठिसे सर्वज्ञकी नयी व्याख्या की है । और भेददृष्टिका अवलंबन करनेवालों के अनुकूल होकर व्यवहार दृष्टिसे सर्वज्ञकी वही व्याख्या की है जो श्रागमोंमें तथा वाचकके तत्त्वार्थ में भी है । उन्होंने कहा है "जादि पस्सदि सव्वं वत्रहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पा" ॥४ र्थात् व्यवहारदृष्टिसे कहा जाता है कि केवली सभी द्रव्योंको जानते हैं किंतु परमार्थतः वह श्रात्माको ही जानते हैं । सर्वज्ञके व्यावहारिक ज्ञानकी वर्णना करते हुए उन्होंने इस बातको बलपूर्वक कहा है कि त्रैका लिक सभी द्रव्यों और पर्यायोंका ज्ञान सर्वज्ञको युगपद होता है ऐसा ही मानना चाहिये ।" क्योंकि यदि वह त्रैकालिक द्रव्यों और उनके पर्यायोंको युगपद न जानकर क्रमशः जानेगा तब तो वह किसी एक द्रव्यको भी १. प्रवचन० १ ३० । २. बडी ३१ । ३. नियमसार १५९ । ४, नियमसार १५८ । ५. प्रवचन० १ ४७. ४१ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उसके सभी पर्यायों के साथ नहीं जान सकेगा । और जब एक ही द्रव्यको उसके अनंत पर्यायोंके साथ नहीं जान सकेगा तो वह सर्वज्ञ कैसे होगा। दूसरी बात यह भी है कि यदि अर्थों की अपेक्षा करके ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होता है, ऐसा माना जाय तब कोई ज्ञान नित्य क्षायिक और सर्व विषयक सिद्ध होगा नहीं । यही तो सर्वज्ञज्ञानका माहात्म्य है कि वह नित्य त्रैकालिक सभी विषयोंको युगपद् जानता है। किन्तु जो पर्याय अनुत्पन्न हैं और विनष्ट हैं ऐसे अद्भुत पर्यायोंको केवलज्ञानी किस प्रकार जानता है इस प्रश्नका उत्तर उन्होंने दिया है कि समस्त द्रव्योंके सद्भूत और असद्भूत सभी पर्याय विशेष रूपसे वर्तमान कालिक पर्यायों की तरह स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं । यही तो उस ज्ञानकी दिव्यता है कि वह अज्ञात और नष्ट दोनों पर्यायोंको जान लेता है। मतिज्ञान प्राचार्य कंदकुंदने मतिज्ञानके भेदोंका निरूपण प्राचीन परंपरा के अनुकूल अवग्रहादि रूपसे करके ही सन्तोष नहीं माना किन्तु अन्य प्रकारसे भी किया है। वाचकने एक जीवमें अधिकसे अधिक चार ज्ञानोंका यौगपद्य मानकर भी कहा है कि उन चारोंका उपयोग तो क्रमशः ही होगा' । अतएव यह तो निश्चित है कि वाचकने मतिज्ञानादिके लब्धि और उपयोग ऐसे दो भेदोंको स्वीकार किया ही है। किंतु आचार्य कुन्दकुन्दने मतिज्ञानके उपलब्धि, भावना और उपयोग ये तीन भेद भी किये हैं। प्रस्तुतमें उपलब्धि, लब्धि-समानार्थक नहीं है । वाचकका मतिउपयोग ही उपलब्धि शब्दसे विवक्षित जान पड़ता है। इन्द्रिय जन्य ज्ञानोंके लिए दार्शनिकोंमें उपलब्धि शब्द प्रसिद्ध ही है। उसी शब्दका प्रयोग प्राचार्यने उसी अर्थमें यहांपर किया है। इन्द्रिय जन्य ज्ञान के बाद मनुष्य उपलब्ध विषयमें संस्कार दृढ करनेके लिए जो मनन करता है वह भावना है। इस ज्ञानमें मनकी मुख्यता है । इसके बाद उपयोग है। यहां उपयोग शब्द का अर्थ सिर्फ ज्ञान व्यापार नहीं किन्तु भावित विषयमें आत्माकी तन्मयता ही उपयोग शब्दसे आचार्यको इष्ट है । ऐसा जान पड़ता है। श्रुतज्ञान वाचक उमास्वामि ने 'प्रमाणनयैरधिगमः” इस सूत्रमें नयीको प्रमाणसे पृथक रखा है। .१ प्रबचन. १-४८. । २. प्रवचन. १४९। ५. ,. ४-३७,३८.। ६- , १-३९. । ७ तत्वार्थ. भाग १-३१ । ८ पंचास्ति. ४२,। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य कुन्दकुन्दकी देन वाचकने पांच ज्ञानोंके साथ प्रमाणोंका अभेद तो बताया ही है किन्तु नयोंको किस ज्ञानमें समाविष्ट करना, इसकी चर्चा नहीं की है। प्राचार्य कुन्दकुंदने श्रुतके भेदोंकी चर्चा करते हुए नयोंको भी श्रुतका एक भेद बतलाया है उन्होंने श्रुतके भेद इस प्रकार किये हैं लब्धि, भावना, उपयोग और नय । श्राचार्यने सम्यग्दर्शनको व्याख्या करते हुए कहा है कि प्राप्त-अागम और तत्त्वकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है 3 अापके लक्षण में अन्य गुणों के साथ क्षुधा, तृषादिका अभाव भी बतलाया है अर्थात् उन्होंने प्राप्तकी व्याख्या दिगंबर मान्यताके अनुसारकी है । अागमकी व्याख्यामें उन्होंने वचनको पूर्वापर दोष रहित कहा है । उससे उनका तात्पर्य दार्शनिकोंके पूर्वापर विरोध दोष राहित्यसे है । निश्चय-व्यवहार नय-- __ श्राचार्य कुंदकुन्दने नयोंके नैगमादि भेदोंका विवरण नहीं किया है । किन्तु श्रागमिक व्यवहार और निश्चय नयका स्पष्टीकरण किया है और उन दोनों नयोंके अाधारसे मोक्षमार्गका और तत्त्वोंका पृथक्करण किया है । निश्चय और व्यवहारकी व्याख्या प्राचार्य ने आगमानुकूल ही की है किन्तु उन नयों के अाधारसे विचारणीय विषयोंकी अधिकता प्राचार्य के ग्रंथों में स्पष्ट है। उन विषयों में यात्मादि कछ विषय तो ऐसे हैं जो आगममें भी हैं किन्तु प्रागमिक वर्णनमें यह नहीं बताया गया कि यह वचन अमुक नयका है । प्राचार्य के विवेचन के प्रकाशमें यदि अागमोंके उन वाक्योंका बोध किया जाय तब यह स्पष्ट होजाता है कि श्रागममें वे वाक्य कौनसे नयके आश्रयसे प्रयुक्त हुए हैं । उक्त दो नयोंकी व्याख्या करते हुए प्राचार्यने कहा है "ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणयो" अर्थात् व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्ध अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है । तात्पर्य इतना ही है कि वस्तुके पारमार्थिक तात्त्विक शुद्ध स्वरूपका ग्रहण निश्चय नयसे होता है और अशुद्ध अपारमार्थिक या लौकिक स्वरूपका ग्रहण व्यवहार नयसे होता है । वस्तुतः छ द्रव्यों में से जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंके विषयमें सांसारिक जीवोंको भ्रम होता है। जीव संसारावस्था में प्रायः पुद्गलसे भिन्न उपलब्ध नहीं होता है । अतएव साधारण लोग जीवमें कई ऐसे धर्मोंका अध्यास कर देते हैं जो वस्तुतः उसके नहीं होते । इसी प्रकार पुद्गलके विषयमें भी विपर्यास कर देते हैं। इसी विपर्यासकी दृष्टिसे व्यवहारको अभूतार्थग्राही कहा गया है अोर निश्चयको भूतार्थग्राही। परन्तु प्राचार्य इस बातको १ तत्वार्थ. भाग १-१०,। २ पचास्ति- ४३ । ३. नियमसार ५०। ५ ,८,१०६. ७. समयसार १३ । ४३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ भी मानते ही हैं कि विपर्यास भी निर्मूल नहीं है । जीव अनादिकालसे मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति इन तीन परिणामोंसे परिणत होता है । इन्हों परिणामोंके कारण यह संसारका सारा विपर्यास है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि हम संसारका अस्तित्व मानते है तो व्यवहार नयके विषयका भी अस्तित्व मानना पड़ेगा। वस्तुतः निश्चयनय भी तब तक एक स्वतन्त्र नय है जब तक उसका प्रतिपक्षी व्यवहार नय मौजूद है। यदि व्यवहार नय नहीं तो निश्चय भी नहीं । यदि संसार नहीं तो मोक्ष भी नहीं। संसार और मोक्ष जैसे परस्पर सापेक्ष हैं उसी प्रकार व्यवहार और निश्चय भी परस्पर सापेक्ष हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्दने परम तत्वका वर्णन करते हुए इन दोनों नयोंकी सापेक्षताको ध्यानमें रखकर ही कह दिया है कि वस्तुतः तत्त्वका वर्णन न निश्चयसे हो सकता है न व्यवहारसे क्योंकि ये दोनों नय अमर्यादितको, अवाच्यको,मर्यादित और वाच्य बना कर वर्णन करते हैं । अतएव वस्तुका परमशुद्ध स्वरूप तो पक्षातिकान्त है । वह न व्यवहार ग्राह्य है न निश्चय ग्राह्य । जैसे जीवको व्यवहारके श्राश्रयसे. बर कहा जाता है और निश्चयके आश्रयसे अबद्ध कहा जाता है । साफ है कि जीवमें अबद्धका व्यवहार भी बद्धकी अपेक्षासे हुआ है अतएव श्राचार्य ने कह दिया कि वस्तुतः जीव न बद्ध है और न अनद्ध किन्तु पक्षाति क्रान्त है । यही समयसार है, यही परमात्मा है 3 व्यवहार नयके निराकरण के लिए निश्चय नयका अवलंबन है किन्तु निश्चय नयावलम्बन ही कर्तव्यको इतिश्री नहीं है । उसके आश्रयसे आत्माके स्वरूपका बोध करके उसे छोड़ने पर ही तथ्यका साक्षात्कार संभव है । प्राचार्य के प्रस्तुत मतके साथ नागार्जुनके निम्नमतकी तुलना करना चाहिए । शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता निःसरणं जिनैः । येषां तु शून्यता दृष्टिस्तान साध्यान् बभाशिरे ॥ माध्य. १३.८॥ शून्यमिति न वक्तव्यमशून्यमिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्रज्ञप्त्यर्थं तु कथ्यते ॥ माध्य. २२-११॥ प्रसंगसे नागार्जुन और प्रा. कुंदकुंदकी एक अन्य बातभी तुलनीय है जिसका निर्देश भी उपयुक्त है । प्राचार्य कुंदकुंदने कहा है १-सयसार ९६ । २ समयसार तात्पर्य. पृ. ६९ ३. कम्मं बद्धमबद्ध जीवे एवं तु जाण नय पक्खं । पक्कंखातिकतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥ समयसार १५२. । ४४ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ये ही शब्द नागार्जुन के कथन में भी हैं— ८ १. समयसार ७, १९, ३०० से । २ ३२ से । ९ समय- १५३ । ज्ञानादिगुण और आत्माका सम्बन्ध', श्रात्मा और देहका सम्बन्ध, जीव और अध्यवसाय, गुणस्थान यादिका सन्बन्ध 3, मोक्षमार्ग ज्ञानादि ४, श्राध्मा", कर्तृत्व, ग्रात्मा और कर्म, क्रिया, भोग, बद्धत्व और अबद्धत्व' मोक्षापयोगी लिंग, बंध विचार, सर्वज्ञत्व ११, पुद्गल १२ । माध्य पृ ३७० | कुछ आचार्यने अनेक विषयों की चर्चा उक्त दोनों नयों के श्राश्रयसे की है, जिनमें से दोववि णयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिवद्धो । दु णयपक्खं गिरहदि किचि वि णयपक्ख परिहीणो ॥ ३ ६१ से । ४ पचा० १६७ से, नियम० ५४ से दर्शनप्रा० २० । ५ समय० ६.१६ इत्यादि, नियम० ४९ | ६ "" " जहणवि सक्कमणजो श्रणजभासं विणाहुगा हेहुं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥ समयसार ८ । " 39 नान्यथा भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितुं यथा । न लौकिकमृते: लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा ॥ دو ४४४ श्राचार्य कुन्दकुन्दकी देन २४-९ आदि, ,, १८ । ३८६ से । १५१ । १० प्रवचन० २-९७ । ११ नियम० १५८ । १२ " २९ ४५ ये हैं- Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-न्यायका विकास श्री पं० दरबारीलाल न्यायाचार्य कोठिया, आदि जन न्यायकी भूमिका, जैनन्यायके विकासपर विचार करनेके पहले उसके प्राक् इतिहास और उद्गमपर एक दृष्टि डाल लेना उचित एवं आवश्यक है । जैन-अनुश्रुतिके अनुसार जैन धर्ममें इस युग-सम्बन्धी चौबीस तीर्थङ्कर ( अर्हत्-धर्म प्रवर्तक महापुरुष ) हुए हैं । इनमें पहले तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव हैं, जिन्हें आदिब्रह्मा, आदिनाथ अोर वृषभ भी कहा जाता है और जिनका उल्लेख भागवत, श्रादि वैदिक पुराण-ग्रन्थोंमें भी हुअा है एवं जिन्हें जिनधर्मप्रवर्तक बतलाया गया है । इनके बाद क्रमशः विभिन्न समयोंमें बीस तीर्थङ्कर और हुए' पार जो महाभारत कालसे बहुत पूर्व हुए हैं । इनके पश्चात् महाभारतकालमें श्रीकृष्ण के समकालीन बाईसवें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि हुए, जो उनके चाचा समुद्रविजयके राजपुत्र थे । इनके कोई एक हजार वर्ष पीछे तेईसवें तीर्थङ्ककर पार्श्वनाथ हुए, जो काशीनरेश विश्वसेनके राजकुमार थे । इनके अढाई सौ वर्ष बाद चौबीसवे तीर्थङ्कर वर्द्धमान-महावीर हुए, जो म० बुद्ध के समकालीन हैं और जिन्हें अाज लगभग अढाई हजार वर्ष हो गये हैं। ये सभी तीर्थङ्कर एक दूसरेसे काफी अन्तराल पर हए हैं। जैनधर्मकी अत्यन्त प्रामाणिक मान्यता है कि ये तीर्थङ्कर जो धर्मोपदेश देते हैं उसे उनके गणधर (योग्यतम प्रधान शिष्य) बारह अङ्गोमें निबद्ध करते हैं, जिन्हें जैन शास्त्री भाषामें द्वादशाङ्ग श्रुत' कहा जाता है । इस द्वादशाङ्गश्रुतका जैन लोक आर्ष, आगम सिद्धान्त, प्रवचन, आदि संज्ञाओं द्वारा भी उल्लेख करते हैं । इस तरह ऋषभदेवसे लेकर वर्द्धमान महावीर तकके सभी ( चौबीसों ) तीर्थ १ उनके नाम ये हैं-अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श, चन्द्र पम, पुष्पदन्त, शातल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मटिल, मुनिसुव्रत और नाम । २ इन सबका विस्तृत स्वरूपादि विवेचन अकलकदेव (वि. ७ वीं शती ) कृत तत्त्वार्थवार्तिक और 'पखण्डागम' (वि. १ ली शती) की विशाल टीका वीरसेना वार्य (वि. ९ वीं शती) कृत 'धवला' की १ जिन्द (पृ. ९६---१२२) में देखिए। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - न्यायका विकास ङ्करोंका उपदेश 'द्वादशाङ्ग श्रुत' कहलाता । यह 'द्वादशाङ्ग श्रुत' १ अङ्ग प्रविष्ट ( द्वादशाङ्ग ) और २ श्रृङ्गबाह्यके भेदसे दो प्रकारका है । इन दोनोंके भी उत्तर भेदोपभेद विविध हैं । प्रविष्ट अर्थात् द्वादशाङ्गश्रुतके बारह भेद हैं । वे इस प्रकार हैं-१ श्राचार, २ सूत्रकृत्, ३ स्थान, ४ समवाय, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ नाथधर्मकथा, ७ उपासकाध्ययन, ८ श्रन्तकृद्दश, ९ अनुत्तरौपपादिक दश, १२ प्रश्नव्याकरण, ४१ विपाकसूत्र और १२ दृष्टिवाद । दृष्टिवादके भी पांच भेद हैं-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वंगत और ५ चूलिका । इनमें परिकर्मके ५, पूर्वगतके २४ और चूलिका ५ उत्तरभेद भी हैं । परिकर्मके ५ भेद ये हैं- १ चन्द्रप्रज्ञप्ति, २ सूर्यप्रज्ञप्ति, ३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४ द्वीपसागर प्रज्ञप्ति चौर ५ व्याख्या प्रज्ञप्ति ( यह पांचवें अङ्ग व्याख्या प्रज्ञप्तिसे अलग है ) । पूर्वगत के १४ भेद निम्न प्रकार हैं-१ उत्पाद, २ श्राग्रायणीयपूर्व, ३ वीर्यानुप्रवादपूर्व, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ श्रात्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यातनामधेय १० विद्यानुवाद ११ कल्याणनामधेय, १२ प्राणावाय, १३ क्रियाविशाल, और १४ लोकविन्दुसार । चूलिकाके ५ भेद इस प्रकार हैं -१ जलगता, २ स्थलगता, ३ मायागता, ४ रुपगता और ५ श्राकाशगता । श्रुतका दूसरा भेदजो अङ्ग बाह्य है उसके १४ भेद हैं । वे ये हैं – १ सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ वैनयिक, ६ कृतिकर्म, ७ दशवैकालिक, ८ उत्तराध्ययन, ९ कल्पव्यवहार, १० कल्याकल्प्य, ११ महाकल्प, १२ पुण्डरीक, १३ महापुण्डरीक और १४ निबिद्धिका । यह अङ्गबाह्यश्रुत अङ्गप्रविष्ट श्रुतके श्राधारसे आचार्यों द्वारा रचा जानेसे 'अङ्गबाह्य' कहलाता है और अङ्गप्रविष्ट तीर्थङ्कर सर्वज्ञ देवके साक्षात् उपदेशोंको सुनकर विशिष्टबुद्धि गणधरों द्वारा संकलित किया जाता है और इसलिए उसे ङ्ग प्रविष्ट कहा जाता । श्रुत बहुविध शाखा, उपशाखा और प्रशाखाओं में भी विभक्त है और बहुत विशाल तथा समुद्रकी तरह गम्भीर एवं अपार है । इस द्वादशाङ्ग श्रुतके श्राधारसे ही उत्तरकालीन आचार्य विविध विषयक ग्रन्थराशि रचते हैं । इन बारह अङ्गों में जो बारहवां 'दृष्टिवाद' श्रृङ्ग है उसमें विभिन्न वादियोंकी मान्यताओंका निरूपण और समालोचन रहता है । यह 'दृष्टिवाद' श्रुत ही जैन मान्यतानुसार 'जैनन्याय' का उद्गम स्थान है । अतएव श्रुतप्रवाहकी अपेक्षा जैनन्यायका उद्गम भगवान् ऋषभदेवके द्वादशाङ्ग श्रुतगत दृष्टिवाद तक पहुंच जाता है । यद्यपि भगवान् ऋषभदेवसे लेकर भगवान् पार्श्वनाथ तक का द्वादशाङ्ग श्रुत विच्छिन्न और लुप्त हो जाने से वर्तमानमें अनुपलब्ध एवं अप्राप्त है तथा वर्द्धमान महावीरका द्वादशाङ्ग श्रुत भी आज पूरा उपलब्ध नहीं है केवल उसका बारहवां दृष्टिवाद अङ्गही अंश रूपमें पाया जाता है, शेष ग्यारह अङ्ग और बारहवें अङ्गका बहु भाग नष्ट और लुप्त हो चुके हैं । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ग्यारह की उपलब्धि और बारहवें अङ्गका विच्छेद स्वीकार करती है । तथापि प्रामाणिक श्राचार्य १ “... एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां षष्ट्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते " -धवला जिल्द १ पृ० १०८ । ४७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ परम्परा, जैन-अनुश्रुतियों और जैन पुराणोंके विश्वसनीय आख्यातोंसे प्रकट है कि भगवान् महावीरके पहले सुद्र कालमें भी श्रुत प्रवाह प्रवाहित था और मुख्यतः वह मौखिक था-दृढ धारण-शक्तिके अाधारपर उसे स्थिर रखा जाता था ! भगवान महावीरका द्वादशाङ्ग श्रुत भी बहुत काल तक लगभग उनके पांच सौ वर्ष बाद तक प्रायः मौखिक ही रहा और बहुत पीछे उसे अांशिक रूपसे निबद्ध-ग्रन्थरचना रूपसे संकलित-किया गया है। अाज भी जो हमें दृष्टिवादका अंशरूप श्रुतावशेष प्राप्त है और जो लगभग दो हजार वर्ष पूर्वका रचित है उसमें भी जैनन्यायके उद्गमबीज मिलते हैं। श्रा० भूतबलि और पुष्पदन्तकृत 'पटखण्डागम' में 'सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता', 'मणुस अपजत्ता, दब्ब पमाणेण केवडिया ? असंखेजा' तथा प्राचार्यमूर्धन्य कुन्दकुंद स्वामीके प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, आदि अागम ग्रंथोंमें 'जम्हा', 'तम्हा', 'सिय अस्थि णत्थि उहयं' जैसे युक्ति प्रवण शब्दप्रयोग और प्रश्नोत्तर प्रचुरतासे उपलब्ध होते हैं । जिनसे स्पष्ट है कि जैनन्यायका उद्गम द्वादशाङ्ग श्रुतगत 'दृष्टिवाद' अङ्ग है। श्वेताम्बर अागमोंमें भो 'से केणठेणं भंते, एवमुच्चई', 'जीवाणं भंते ? किं सासया असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया । गोयमा ! दव्वट्टयाए सासया भावट्टयाए असासया' जैसे तर्क गर्ने प्रश्नोत्तर जगह जगह पाये जाते हैं । इसलिए हम कह सकते हैं कि जैनन्यायके उनमें भी बीज निहित हैं । श्री उपाध्याय यशोविजय' (ई० १५ बी शती ) ने तो स्पष्टतया कहा है कि "स्याद्वादार्थो दृष्टिवादार्णवोत्थः" अर्थात् स्याद्वादार्थ-जैनन्याय, दृष्टिवादरूप अर्णव ( समुद्र) से उत्पन्न हुआ है । वस्तुतः 'स्याद्वाद-न्याय' ही जैनन्याय है और इसीलिए प्रत्येक जैन तीर्थङ्करके उपदेशको 'स्याद्वादन्याय' युक्त कहा गया है। स्वामी समन्तभद्र ( वि. सं. २ री, ३ री शती) जैसे युगप्रवर्तकाचार्योंने भ० महावीर और उनके पूर्ववर्ती सभी तीर्थङ्कारोंको 'स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तम् २ 'स्याच्छब्दस्तावके न्याये', 'स्याद्वादन्याय विद्विषाम्'४ अादि पदप्रयोगों द्वारा स्याद्वादन्याय प्रतिपादक उद्घोषित किया है। अतः यह मानने योग्य है कि जैनन्यायका उद्भव 'दृष्टिवाद' से हुआ है। ___ कुछ लोगोंका रत है कि जैनन्याय, ब्राह्मणन्याय और बौद्ध न्यायके पीछे प्रतिष्ठित हुआ है इसलिए उसका उद्भव उन्हीं दोनों न्यायोंसे हुआ प्रतीत होता है। परन्तु उनका यह मत अभ्रान्त नहीं है; क्योंकि जब हमें भगवान् महावीरके उपलब्ध उपदेशोंमें विपुल मात्रामें जैनन्यायके बीज मिलते हैं और खासकर इस हालतमें, जब उनके उपदेशोंका संग्रहरूप एक दृष्टिवाद नामका स्वतंत्र अङ्ग ही ऐसा मौजूद १ देखो, अष्टसहली टीका पृ. १ । २ स्वयम्भूस्तोत्र गत शम्भव जिन स्तोत्र श्लोक १४ । ३ अरजिन स्तोत्र श्लो १०२ । ४ आप्तमी० श्लो. १३ । ४८ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-न्याय विकास है जिसमें विभिन्न दृष्टियों, मतों, सिद्धान्तोंका खण्डन-मण्डन किया जाता है और यह खण्डन-मण्डन, पक्ष प्रतिपक्ष, युक्ति-प्रतियुक्ति तथा हेतु-तर्क-प्रमाणोंके विना असम्भव है । तब यह सुतरां सिद्ध है कि जैनन्यायका उद्गम स्थान जैन श्रुत ही है अन्य नहीं । हमारे इस कथनकी पुष्टि एक अन्य प्रमाणसे भी होती है । जैन न्यायके समुद्धारक महान् जैन तार्किक भट्टाकलङ्कदेवके पहले, उनके उल्लेखानुसार प्रायः कुछ गुण-द्वेषी तार्किकोंने जैनन्यायको छल, जाति, निग्रहस्थानादि कल्पनारूप अज्ञानतमके महात्म्यसे मलिन कर दिया था, इस मैलको उन्होंने किसी प्रकार धोकर उसे निर्मल बनाया था। इससे स्पष्ट है कि जैन न्यायका उद्भव अन्य (ब्राह्मण और बौद्ध ) न्यायोंसे नहीं हुआ, बल्कि उनके द्वारा जैनन्याय मलिन बना दिया गया था और जिस मलिनताको अकलङ्क जैसे महान् जैनन्याय समुद्धारकों अथवा पुनः प्रतिष्ठापकोंने दूर किया है । ____ यद्यपि छान्दोग्योपनिषद (अ० ७) में एक 'वाको वाक्य' शास्त्र-विद्याका उल्लेख है, जिसका अर्थ तर्कशास्त्र, उत्तर-प्रत्युत्तरशास्त्र, युक्ति प्रतियुक्ति शास्त्र किया जाता है । और इसी तरह आन्वीक्षिकी नामकी एक विद्याका, जिसे न्याय विद्या अथवा न्यायशास्त्र कहा जाता है, ब्राह्मण साहित्यमें कथन मिलता है तथा तक्षशिलाके विश्वविद्यालयमें दर्शनशास्त्र एवं न्यायशास्त्र अध्ययनअध्यापनके संकेत मिलते बतलाये जाते हैं । तथापि हमारा कहना यह नहीं है कि जैनन्यायके समयमें अन्य न्याय नहीं रहे | हमारा कहना तो इतना ही है कि जैनन्यायका उनसे उद्भव नहीं हुअा-उसका उद्भव अपने 'दृष्टिवाद' श्रुतसे हुआ है। यहाँ हम यह भी उल्लेख कर देना चाहते हैं कि जैनेतर न्यायोंमें बहुत कुछ विशिष्टता एवं उत्तमता (अनेकान्तका समर्थन जैसी वस्तु ) इसी दृष्टिवादसे आई प्रतीत होती है; क्योंकि वह महान् रत्नाकर है-उस विषयका सबसे बड़ा समुद्र अथवा श्राकर है । प्राचार्यसिद्ध सेन, अकलंक और विद्यानन्द भी यही कहते हैं। प्राचार्य प्रवर सिद्धसेन एक जगह तो यह भी कहते हैं १ "बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितः, माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात्प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते, सम्य ज्ञानजलैचोभिरमलै तत्रानुकम्पापरैः ।। --न्यायविनि० श्लो० २। २ देखो, डाक्टर भगवानदासकृत-'दर्शनका प्रयोजन' पृ. १। ३ कः पुनरय न्यायः ? प्रमाणैरर्थपरीक्षण न्यायः । आन्वीक्षिकी-न्यायविद्मा--न्यायशास्त्रम् । न्यायभाष्य (वात्स्यायनकृत) पृ०४ । ४ देखो, 'प्राचीन भारतके शिक्षाकेन्द्र' शीर्षक निबन्ध (श्रीकृष्णदत्त वाजपेयी लिखित ) विक्रमस्मृतिग्रन्थ पृ० ७१८॥ ५ "सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिषु स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसम्पदः। तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता जगत्प्रमाणं जिन वाक्यविपुषः ।।" द्वात्रिंशत्का १-३०। ६ देखो, तत्वार्थवार्तिक पृ० २९५ । ७ देखो, अष्टसहस्त्री पृ. २३८ । ८ "उदधाविव सर्वसिंधवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः । न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधेः ।।' -द्वात्रिंशत्का ४-१५ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ कि “जिस प्रकार समुद्रमें समस्त नदियां अवतरित होती हैं उसी प्रकार तुम्हारे ( स्याद्वादशासन ) में समस्त एकान्त दृष्टियां अवतीर्ण हैं । परन्तु जिस प्रकार पृथक् पृथक् नदियोंमें समुद्र नहीं देखा जाता उसी तरह पृथक् पृथक् एकान्त दृष्टियोंमें तुम्हारा स्याद्वादशासन ( अनेकान्तशासन ) नहीं देखा जाता।" फलितार्थ यह हुआ कि जैनन्याय ( स्याद्वाद ) का उद्गम इतर न्यायों (नित्यत्वादि एकान्त समर्थक दृष्टियों ) से न होकर सुदूरवर्ती स्याद्वादात्मक दृष्टिवाद नामके बारहवें श्रुताङ्ग ( सूत्र) से हुआ है। हां, यह जरूर है कि पिछले कुछ कालोंमें उक्त न्यायोंके क्रमिक विकासके साथ जैन न्यायका भी क्रमिक विकास हुश्रा है और उनकी विविध शास्त्र रचना जैन न्यायकी विविध शास्त्ररचनामें प्रेरक हुई है। . जैनन्यायका विकास जैनन्यायके विकासको तीन कालोंमें बांटा जा सकता है और उन कालोंके नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं: १. समन्तभद्र-काल (ई० २०० से ई० ६५० तक)। २. अकलंक-काल (ई० ६५० से ई० १०५० तक)। ३. प्रभाचन्द्र-काल (ई० १०५० से ई० १७०० तक)। १. समन्तभद्र-काल-जैनन्यायके विकासके प्रथमकालका नाम समन्तभद्रकाल है । स्वामी समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्रके जैनदर्शनक्षेत्रमें युगप्रवर्तकका कार्य किया है । उनके पहले जैनदर्शनके प्राणभूत तत्त्व स्याद्वादको प्रायः आगमरूप ही प्राप्त था और उसका यागमिक तत्त्वोंके निरूपणमें ही उपयोग होता था और सीधी सादी विवेचना कर दी जाती थी-विशेष युक्तिवाद देनेकी उस समय आवश्यकता न होती थी; परन्तु समन्तभद्रके समयमें उसकी अत्यन्त आवश्यकता महसूस हुई क्यों कि ऐतिहासिक विद्वान् जानते हैं कि विक्रमकी दूसरी, तीसरी शताब्दीका समय भारत वर्षके इतिहासमें अपूर्व दार्शनिक क्रान्तिका समय रहा है । इस समय विभिन्न दर्शनोंमें अनेक क्रान्तिकारक विद्वान पैदा हुए हैं । यद्यपि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध के कालमें यज्ञप्रधान वैदिक परम्पराका बढ़ा हुअा प्रभाव काफी कम हो गया था और श्रमण-जैन तथा बौद्ध परम्पराका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो चुका था; लेकिन कुछ शताब्दियोंके बाद ही वैदिक परम्पराका प्रभाव पुनः प्रस्तुत हुअा और वैदिक विद्वानों द्वारा श्रमण परम्पराके सिद्धांतोंकी नुक्ता-चीनी और काट-छांट प्रारम्भ हो गयी । फलस्वरूप श्रमणपरम्परा-बौद्धपरम्परामें अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन प्रभृति विद्वानोंका प्रादर्भाव हुआ और उन्होंने भी वैदिक परम्पराके सिद्धान्तों एवं मान्यताओंका सबलताके साथ खण्डन और अपने सिद्धांतोंका मण्डन, प्रतिष्ठापन तथा परिष्कार करना १ "सुत्तं अट्ठासीदि-लक्ख-पदेहि ८८००००० अबंधी अवलेवओ अकत्ता अभोत्ता णिग्गुणो सवगओ अणुमेत्तो णत्थि जीवा जीवो चेव अत्थि पुढवियादीणं समुदएण जीवो उप्पज्जइ णिच्चेयणो णाणेण विणा सचेयणो णिच्चो अणिच्चो अप्येति वण्णेदि । तेरामिय णियदिवाद विण्णाणवादं सद्दवादं पहाणवादं दववादं पुरिसवाद च वष्णेदि ।--धवला, जिल्द १. पृ०११० । ५० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनन्यायका विकास शुरू कर दिया । उधर वैदिक परम्परामें बादको कणाद, गौतम (अक्षपाद ), वादरायण, जैमिनि, आदि महा उद्योगी वैदिक विद्वानोंका आविर्भाव हुआ और उन्होंने भी अपने वैदिक सिद्धांतों एवं मान्यताओं का संरक्षण प्रयत्न करते हुए अश्वघोषादि बौद्ध विद्वानांके खण्डन मण्डनका सयुक्तिक जवाब दिया । इसी संघर्षमें ईश्वरकृष्ण, असंग, वसुबन्धु, विन्ध्यवासी, वात्स्यायन प्रभृति कितने ही विद्वान् दोनों परम्पराश्रो में और हुए । इस तरह उस समय सभी दर्शन अखाड़े बन चुके थे और एक दूसरे दर्शनके विद्वानको परास्त करनेके लिए तत्पर ही नहीं, बल्कि जुट चुके थे । इस सबका आभास हमें उस कालमें रचे गये अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम, जैमिनि, वादरायण, प्रभृति विद्वानोंके उपलब्ध साहित्यसे स्पष्टतया होता है। जब ये विद्वान् अपने अपने दर्शनके एकान्त पक्षों और मान्यताअोके समर्थन तथा पर-पक्ष निराकरणमें लगे हुए थे तब इसी समय दक्षिण भारतके क्षितिजपर जैन परम्परामें समन्तभद्र का उदय हुश्रा । ये प्रतिभाकी मूर्ति और क्षात्रतेजसे सम्पन्न थे । उनका सूक्ष्म और अगाध पाण्डित्य तथा समन्वयकारिणी प्रतिभा ये सब बेजोड़ थे। इसीसे उन्होंने विद्वानोंमें सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया था' । अतएव श्रीयुत एस० एस रामस्वामी अाय्यंगर, एम० ए. जैसे विश्रुत विद्वानोंको भी निम्न उद्गार प्रकट करने पड़े हैं 'दक्षिण भारतमें समन्तभद्रका उदय, न सिर्फ, दिगम्बर सम्प्रदायके इतिहासमें ही, बल्कि संस्कृत साहित्यके इतिहासमें भी एक खास युगको अंकित करता है२ समन्तभद्रके समयमें जिन एकान्तवादोंका अत्यधिक प्राबल्य था और जिनका समन्वय करनेके लिये उन्हें अभूतपूर्व लेखनी उठानी पड़ी वे प्रायः निम्न थे भावैकान्त, अभावैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यकांत, अनित्यकांत, भेदैकांत, अभेदैकांत, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, आदि । भावैकान्तवादीका कहना था कि सब भावरूप ही है.-अभावरूप कोई भी वस्तु नहीं है 'सर्वे सर्वत्र विद्यते'-सब सब जगह है न कोई प्रागभावरूप है, न प्रध्वंसाभावरूप है, न अन्योन्याभावरूप है, और न अत्यंताभावरूप है । इसके विपरीत अभाववादी कहता था कि सब जगत अभावरूप है-शून्यमय है, जो भावमय समझता है वह मिथ्या है। यह दाशनिकोंका पहला संघर्ष था। - दूसरा संघर्ष था एक और अनेकका । एक (अद्वैत ) वादी कहता था कि वस्तु एक है, अनेक नहीं, अनेकका दर्शन केवल माया विजृम्भित है। इसके विरुद्ध अनेकवादी सिद्ध करता था कि पदार्थ अनेक हैं—एक नहीं है । यदि एक हो तो एकके मरनेपर सबका मरना और एकके पैदा होनेपर. सबके पैदा होनेका प्रसङ्ग अावेगा जोकि न दृष्ट है और न इष्ट है। १ जसा कि आचार्य जिनसेन ( ई० ९ वीं शती) ने आदि पुराणमें कहा है "कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि । यशः समन्तभद्रीय मूर्षिन चूडामणीयते ।।" २ रेखों. 'स्टेडीज इन साऊथ इण्डियन जैनिज्म' । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ तीसरा द्वन्द्व था नित्य और अनित्यका । नित्यवादी कथन करता था कि वस्तु नित्य है । यदि वह अनित्य हो तो उसके नाश होजानेके बाद फिर यह दुनिया और स्थिर विविध वस्तुएं क्यों दिखती है ? अनित्यवादी कहता था कि वस्तु प्रतिसमय नष्ट होती है वह कभी स्थिर नहीं रहती। यदि नित्य हो तो लोगोंका जन्म, मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं होना चाहिये । चौथा संघर्ष था सर्वथा भेद और सर्वथा अभेदको स्वीकार करनेका । सर्वथा भेदवादीका कहना था कि कार्य-कारण, गुण-गुणी और सामान्य-सामान्यवान् आदि सर्वथा पृथक् पृथक् हैं, अपृथक नहीं । यदि अपृथक् हों तो एकका दूसरेमें अनुप्रवेश होजानेसे दूसरेका भी अस्तित्व टिक नहीं सकता। इसके विपरीत सर्वथा अभेदवादी प्रतिपादन करता था कि कार्य-कारण आदि सर्वथा अपृथक् हैं; क्योंकि यदि वे पृथक् पृथक् हों तो जिसप्रकार पृथक् सिद्ध घट और पटमें कार्य-कारणभाव या गुण गुणीभाव नहीं है उसी प्रकार कार्य-कारणरूपसे अभिमतों अथवा गुण गुणीरूपसे अभिमतोंमें कार्य-कारण भाव और गुण गुणीभाव कदापि नहीं बन सकता है । पांचवां संघर्ष था अपेक्षकान्त और अनपेक्षकान्तका। अपेक्षकान्तवादी कहता था कि वस्तुसिद्धि अपेक्षासे होती है । कौन नहीं जानता कि प्रमाणसे ही प्रमेय की सिद्धि होती है और इसलिए प्रमेय प्रमाणापेक्ष है ? यदि वह उसकी अपेक्षा न करे तो प्रमेय सिद्ध नहीं हो सकता। अनपेक्षावादीका तर्क था कि सब पदार्थ निरपेक्ष हैं कोई भी किसीकी अपेक्षा नहीं रखता । यदि रखे तो परस्पराश्रय होनेसे एक भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। छठा संघर्ष था हेतुवाद और अहेतुवादका । हेतुवादी कहता था कि हेतु-युक्तिसे सब सिद्ध होता है प्रत्यक्षादिसे नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षसे देख लेनेपर भी यदि वह हेतुको कसौटीपर नहीं उतरता तो वह कदापि श्रदधेय नहीं है-"युक्त्या यन्न घटमुपैति तदहं दृष्टापि न श्रदधे । अहेतु-आगमवादीका कथन था कि अागमसे हरेक वस्तुका निर्णय होता है। यदि आगमसे वस्तुका निर्णय न माना जाय तो हमें ग्रहोपरागादिका कदापि ज्ञान नहीं होसकता है क्योंकि उसमें हेतुका प्रवेश नहीं है । सातवां संघर्ष था दैव और पुरुषार्थका । दैववादीका मत था कि सब कुछ भाग्यसे होता है । यदि तुम्हारे भाग्यमें न हो तो वह तुम्हें नहीं मिल सकती। पुरुषार्थवादी घोषित करता था कि पुरुषार्थसे ही सब कुछ होता है विना पुरुषार्थके भोजनका ग्रास भी मुहमें नहीं आ सकता। . इसतरह कितने ही संघर्ष दार्शनिकोंमें उस समय चल रहे थे। ये दार्शनिक अपने अपने दृष्टिकोणको तो बड़ी ताकतसे उपस्थित करते थे और उसका जी तोड़ समर्थन भी करते थे, परन्तु दूसरेके दृष्टिकोणको समझने और उसका समन्वय करनेका प्रयत्न नहीं करते थे । जैनतार्किक समन्तभद्रने इन दार्शनिकोंके दृष्टिकोणोंको न केवल समझनेका ही प्रयास किया, अपितु उनके समन्वयका भी अभूतपूर्व प्रयत्न किया । उन्होंने स्याद्वाद न्याय और उसके फलित सप्तभङ्गीवादकी विशद योजना द्वारा उक्त ५२ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - न्यायका विकास संघर्षोंका बुद्धिमत्तापूर्ण ढंगसे शमन किया और भारतीय दर्शनक्षेत्र में न केवल अद्भुत क्रान्ति पैदा की किन्तु उत्तरवर्ती जैनतार्किकोंके लिए एक प्रशस्त मार्गका निर्माण भी किया और इसीसे कलङ्क, विद्यानन्द जैसे महान् जैनतार्किकोंने उन्हें इस कलियुगका स्याद्वादतीर्थ प्रभावक, स्याद्वादाग्रणी, आदि रूपसे स्मृत किया है । हम पहले कह आये हैं कि यद्यपि स्याद्वाद और सप्तभङ्गों का प्रयोग श्रागमों में तदीय विषयोंके निरूपणमें होता था परन्तु अपेक्षा अनपेक्षा, दैव- पुरुषार्थ, हेतुवाद- अहेतुवाद जैसे विषयों में भी स्याद्वाद और सप्तभङ्गों का प्रयोग और उनकी अत्यन्त विशद योजना सर्वप्रथम समन्तभद्रके ग्रन्थोंमें ही दृष्टिगोचर होते हैं । उन्होंने 'नययोगान्न सर्वथा', 'नयैर्नयविशारदः' ४ जैसे पदप्रयोगों द्वारा नयवादसे वस्तु व्यवस्था होनेका विधान बनाया ओर 'कथञ्चित्ते सदेवेष्टं "", 'सदेव सर्वेको नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् ६ जैसे वचनों द्वारा उस विधानको व्यवहार रूप दिया । उन्होंने उक्त संघर्षों का शमन किसप्रकार किया ? और लोगोंके एकान्त ग्रहको दूर करके उन्हें वस्तुव्यवस्था के साधनभूत अमोघ औषध स्याद्वादका दर्शन किस प्रकार कराया ? पहले संघर्षके बारेमें वे कहते हैं कि वस्तुको कथंचित् भावरूप और कथंचित् अभावरूप मानिये । दोनोंको सर्वथा - सब प्रकार से केवल भावात्मक ही माननेमें दोष हैं'; क्योंकि केवल भावरूप ही वस्तुको माननेपर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन प्रभावोंका लोप हो जायगा और उनके लोप होनेपर वस्तु क्रमशः अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और स्वरूपहीन हो जावेगी । इसीप्रकार केवल अभावरूप वस्तुको माननेपर भावका लोप होजायगा और उसके लोप होजानेपर प्रभाव का साधक ज्ञान अथवा वचन रूप प्रमाण भी नहीं रहेगा तब किसके द्वारा तो प्रभावैकान्तका साधन किसके द्वारा भावैकान्तका निराकरण किया जासकेगा ? विरुद्ध होनेसे दोनों एकान्तोंका मानना एकान्तवादियों के लिए संभव नहीं है और श्रवाच्यतैकान्त श्रवाच्य होनेसे ही युक्त है । अतएव वस्तु कथंचित् – स्व- द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्वभावकी अपेक्षा से अस्तित्व - भावरूप ही है और कथंचित्पर-द्रव्य, पर क्षेत्र, पर-काल और पर भावकी अपेक्षा से नास्तित्व- भावरूप ही है । घड़ा अपनी अपेक्षा से १. 'तीर्थं सर्व पदार्थ तच्च विषय- स्याद्वाद- पुण्योदधेभव्यानामकलंकभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्यं समन्तभद्रयतिना तस्मै नमः सन्ततं ॥ ' - अष्टश, पृ १ २. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि || ' - पंचास्तिकाय गा. १४ । ३. आ. मी. का. १४ । ४ आ. मी. का. २३ । ५ आ. मी. १४ । ६ आ. मी. १५ । ७ देखो. आ० मी० १४, १५ । ८ देखो, आ० मी. ९, १०, ११, १२. १३ । ५३ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ तो स्वरूप है और वस्त्रादि पर पदार्थों की अपेक्षा से नास्तित्व- अभावरूप है और इस तरह उसमें अपेक्षाभेद से दोनों विधि निषेध धर्म मौजूद हैं । यही समस्त पदार्थों की स्थिति है । अतः भाववादी का कहना भी सच है और प्रभाववादीका कथन भी सच है । सिर्फ शर्त यह है कि दोनोंको अपने अपने एकान्तग्रहको छोड़ देना चाहिये और एक दूसरेकी दृष्टिका आदर करना चाहिये । दूसरे संघर्षको दूर करते हुए वे प्रतिपादन करते हैं कि वस्तु ( सर्व पदार्थ समूह ) सत्सामान्य ( सत् रूप ) से तो एक है और द्रव्य आदिके भेदसे अनेकरूप है । यदि उसे सर्वथा एक ( अद्वैत ) मानी जाय तो प्रत्यक्ष दृष्ट क्रिया-कारकभेद लुप्त होजायेगा; क्योंकि एक ही स्वयं उत्पाद्य और उत्पादक दोनों नहीं बन सकता - उत्पाद्य और उत्पादक दोनों अलग अलग होते हैं। इसके सिवाय, सर्वथा अद्वैत स्वीकारमें प्रतीत पुण्य-पापका द्वैत, सुख-दुःखका द्वैत, इहलोक - परलोकका द्वैत, विद्या श्रविद्याका द्वैत और बन्ध-मोक्षका द्वैत नहीं बनसकते हैं । इसीतरह यदि वस्तु सर्वथा अनेक हो तो सन्तान ( पर्यायों और अतएव दोनों एकान्तोंका समुच्चय ही वस्तु है और इसलिए दोनों एकान्तवादियों को त्यागकर दूसरेके अभिप्रायका मान करना चाहिये । तभी पूर्ण वस्तु सिद्ध होती है अन्य कोई दोष उपस्थित नहीं होता । अनुस्यूत रहनेवाला एक द्रव्य ), समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव आदि कुछ नहीं बन सकेगा । अपने एकान्त हठको और विरोध अथवा तीसरे संघर्षका समाधान करते हुए वे कहते हैं कि वस्तु कथंचित् नित्य भी है और कथंचित् अनित्य भी । द्रव्यकी अपेक्षासे तो वह नित्य है और पर्यायकी अपेक्षा से अनित्य है । वस्तु न केवल द्रव्यरूप ही है क्योंकि परिणामभेद और बुद्धि भेद पाया जाता है । और न केवल पर्यायरूप ही है क्योंकि 'यह वही है जो पहले था' इस प्रकारका अभ्रान्त प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय होता है । यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उनमें विकार ( परिवर्तन ) नहीं बन सकता है। इसके साथही पुण्य-पापकर्म और उनका प्रेत्यभाव फल ( जन्म-मरण सुख दुःख आदि ) एवं बन्धमोक्ष यदि कुछ नहीं बनते हैं । इसीतरह यदि वस्तु सर्वथा अनित्य हो तो प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय न हो सकनेसे बद्धको ही मोक्ष आदि व्यवस्था तथा कारणसे ही कार्योत्पत्ति आदि सब गड़बड़ होजायगा । जिसने हिंसाका अभिप्राय किया वह हिंसा नहीं कर सकेगा और जिसने हिंसाका अभिप्राय नहीं किया वह हिंसा करेगा । तथा जिसने न हिंसाका अभिप्राय किया और न हिंसा की वह कर्मबन्धसे युक्त होगा और उस हिंसा के पाप से मुक्त कोई दूसरा होगा, क्योंकि वस्तु सर्वथा अनित्य- दाणिक है | अतएव वस्तुको, जो द्रव्य-पर्यायरूप है, द्रव्यकी अपेक्षासे तो नित्य और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य दोनों रूप स्वीकार करना चाहिये । और तब हिंसा के अभिप्रायवाला ही हिंसा करता है और वही हिंसक, हिंसा फल भोक्ता एवं उससे मुक्त होता है, यदि व्यवस्था सुसंगत होजाती है | अतः १ देखो. आ० मी. का. ३४, २४, २५, २८, २९, आदि। यहाँ भी सप्तभङ्गीकी योजना प्रदर्शित की गयी है । २ देखो, आ. मी. का. ५६, ३७, ४०, ४१, ५१ आदि । ५४ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-न्यायका विकास इन नित्य-अनित्य-एकान्तवादी दार्शनिकोंको 'सर्वथा' एकान्तके अाग्रहको छोड़कर दूसेरेकी दृष्टिको भी समझना और अपनाना चाहिये । इस तरह समन्तभद्रने उपस्थित सभी संघर्षोंका शमन करके तार्किकोंके लिए एक नई दिशाका प्रदर्शन किया और उन्हें स्याद्वादन्यायसे वस्तुव्यवस्था होनेकी अपूर्व दृष्टि बतलायी। उनका स्पष्ट कहना था कि 'भाव-अभाव, एक-अनेक, नित्य-अनित्य अादि जो नय (दृष्टिभेद ) हैं वे 'सर्वथा' माननेसे तो दुष्ट ( विरोधादि दोषयुक्त ) होते हैं और 'स्यात्'-- कथंचित् (एक अपेक्षासे ) माननेसे वे पुष्ट होते हैं—वस्तुस्वरूपका पोषण करते हैं । अतएव सर्वथा नियमके त्यागी और अन्य दृष्टिकी अपेक्षा करनेवाले 'स्यात्' शब्दके प्रयोग अथवा 'स्यात्' की मान्यताको जैनन्यायमें स्थान दिया गया है । और निरपेक्ष नयोंको मिथ्या तथा सापेक्ष नयोंको वस्तु (सम्यक् ) बतलाया गया है।' लेखका कलेवर बढ़जानेके भयसे हम अन्य संघर्षों के समन्तभद्रोदित समन्वयात्मक समाधानोंको इच्छा न होते हुए भी छोड़ते हैं और गुणज्ञ पाठकांसे उनके प्राप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थोंसे उक्त समाधानोंको जाननेका नम्र अनुरोध करते हैं । __ यहां एक बात और उल्लेख योग्य है वह यह कि समन्तभद्रने प्रमाण-लक्षण, नयलक्षण, सप्तभङ्गीलक्षण, स्याद्वादलक्षण, हेतुलक्षण, प्रमाणफलव्यवस्था आदि जैनन्यायके कतिपय अङ्गों-प्रत्यङ्गोंका प्रदर्शन किया, जो प्रायः अब तक नहीं हुअा था अथवा अस्पष्ट था। अतएव समन्तभद्रको जैनन्यायविकासके प्रथम युगका प्रवर्तक कहना अथवा इस प्रथम युगको समन्तभद्रकालके नामसे उल्लेखित करना सर्वथा उचित है । समन्तभद्रके इस महान् कार्य में श्रीदत्त, पूज्यपाद, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति और । पात्रत्वामी प्रभृति जैन विद्वानोंने अपनी महत्त्वपूर्ण रचनात्रों द्वारा उल्लेखनीय गति दी है । सन्मतितर्क तो समन्तभद्रके सूत्रात्मक कथनांका विशद और अनुपम भाष्य है। समन्तभद्रने जिस बातको संक्षेपमें अथवा संकेतरूपमें कहा था उसको सिद्धसेनने उसी समन्तभद्रप्रदर्शित पद्धतिसे पल्लवित एवं सुविस्तृत करके अपनी अनोखी प्रतिभाका प्रदर्शन किया है और समस्त एकान्तवादोंका समन्वय करके अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। श्रीदत्तका जल्पनिर्णय, पूज्यपादका सारसंग्रह और सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेन, १. सदेक-नित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ सर्वथानियमत्यागी यथादृष्टिमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ।। स्वयं० १०१, १०२ ॥ य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेचाःस्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः खपरोपकारिणः ।। स्वयं० ६१ । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् । आ० मी० १०८। मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थ हेतु नशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः । परस्परक्षा पुरुषार्थ हेतुदृष्टा नयास्तद्वदसि क्रियायाम् ।। युक्त्य० ५१ । १५० अजितकुमारजी शात्री आदि विद्वानोने भी यह स्वीकार किया है, देखो उनका 'स्याद्वादको न्यायके ढांचेमें टालनेवाले आद्य विद्वान्' शीर्षक निबन्ध, जैनदर्शन-स्याद्वादाक (पृ. १७०) वर्ष २, अंक ४--५ । ५५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ का सन्मतितर्क, मल्लवादिका नयचक्र और पात्रस्वामीका त्रिलक्षण-कदर्थन प्रभृति जैनन्यायरचनाएं इस कालकी महत्त्वपूर्ण कृतियां है। इनमें जल्पनिर्णय, सारसंग्रह और त्रिलक्षणकदर्थन अनुपलब्ध हैं और शेष अाज भी उपलब्ध हैं । मेरा ख्याल है कि इस कालमें और भी अनेक न्याय-ग्रन्थ रचे गये होंगे, क्योंकि जैन विद्वानोंमें पठन-पाठन, उपदेश और ग्रन्थरचनाकी प्रवृत्ति सबसे ज्यादा और मुख्य रहतो थी। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान शान्तरक्षित ( ई० ७ वी ८ वीं) और उनके शिष्य कमलशीलने तत्वसंग्रह और उसकी विशाल टीकामें जैनतार्किक सुमति, पात्रस्वामी आदिके ग्रन्थ-वाक्योंको उधृत करके उनका अालोचन किया है। परन्तु उनके वे ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। इस तरह इस समन्तभद्रकालमें जैनन्यायकी एक योग्य और उत्तम भूमिका तैयार हो गई थी। २ अकलङ्क काल--इस भूमिकापर जैनन्यायका उत्तुंग और सर्वांग सुन्दर महान् प्रासाद जिस कुशल और तीक्ष्ण बुद्धि शिल्पीने खड़ा किया वह है अकलङ्क । समन्तभद्रकी तरह अकलङ्कके कालमें भी जबर्दस्त दार्शनिक क्रान्ति हो रही थी। एक तरफ शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि, प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात उद्योतकर प्रभृति वैदिक विद्वान थे तो दूसरी तरफ धर्मकीर्ति और उनके तर्कपट शिष्य एवं व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि आदि बौद्ध तार्किक थे । शास्त्रार्थों और शास्त्रोंके निर्माणकी पराकाष्ठा थी। प्रत्येक दार्शनिककी हर चन्द कोशिश प्रायः यही होती थी कि किसी तरह अपने पक्षका साधन और परपक्षका निराकरण करके अपनी विजय और अपने सिद्धान्तकी प्रतिष्टा की जाय, तथा प्रतिवादी विद्वानकी पराजय और उसके सिद्धान्तकी मखौल उड़ायी जाय । यहां तक कि विरोधी विद्वानके लिए 'पश', वह्नीक' जैसे अशिष्ट और अश्लील पदोंका प्रयोग करना साधारण सी बात हो गयी थी। वस्तुतः यह काल जहां तर्कके विकासका मध्यान्ह है वहां इस कालमें न्यायका बड़ा विरूप और उपहास हा है । अनुमानके उत्कृष्ट नियमों द्वारा छल, जाति, निग्रह स्थानोंको वस्तुनिर्णयमें उपयोगी बतलाकर सारोप समर्पित करना, केवल हेतुको ही शास्त्रार्थका अङ्ग मानना, क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद आदि ऐकान्तिक वादोंका समर्थन करना इस युगका कार्य रहा है। अकलंकने देखाकि न्यायका पवित्र मार्ग बहुत कुछ मलिन होचुका है और समन्तभद्रकी अनूठी स्याद्वादन्यायकी भूमिका अनय विशारदोंने दूषित एवं विकृत करदी है तो उन्होंने दो कार्य किये- एक तो न्यायमार्गको निर्मल बनाया और दूसरा कितना ही नया निर्माण किया। यही कारण है कि उन्होंने अपने प्रकरणों ( ग्रन्थों ) में १ देखो, तत्त्वसंग्रह पृ. ३७९, ३८६ ३८३ आदि । २ श्रवण बेलगोलाके चन्द्रगिरि पर्वतपर शक सं १०५० में उत्कर्ण शिलालेख न. ५४।६७में सुमतिदेवके 'सुमति सप्तक' नामके एक महत्वपूर्ण तर्क ग्रन्थका उल्लेख मात्र मिलता है ।--ले०। ३ देखो, न्यायविनिश्चयकी पहली कारिका जो पहले, फुटनोटमें उद्धृत की जाचुकी है। ४ तत्वार्थवार्तिक, आप्तमी- मांसा भाज्या (अष्टशती), सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह और लघीयत्रय ये छह ग्रन्थ । ५६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-न्यायका विकास चार निबन्ध तो केवल न्याय शास्त्रपर ही लिखे हैं। इन चार निबन्धोंमें न्याय विनिश्चय बड़ा है और सिद्धि विनिश्चय, प्रमाण संग्रह तथा लघीयत्रय उससे छोटे हैं । न्याय विनिश्चयमें ४८०, सिद्धिविनिश्चयमें (अज्ञात), प्रमाणसंग्रहमें ८७६ और लघीयस्त्रयमें ७८ मूलकारिकाएं हैं । इनकी स्वोपज्ञ वृत्तियोंका परिमाण उनसे अलग है। यहां हम अकलङ्कदेवके उक्त दोनों कार्योंका कुछ दिग्दर्शन करा देना आवश्यक समझते हैं। अकलङ्कदेवका दृषणोद्धार (क ) समन्तभद्रने प्राप्त मीमांसामें मुख्यतः प्राप्तकी सर्वज्ञता और उनके स्याद्वाद उपदेशकी संसिद्धि की है और सर्वज्ञता -- केवल ज्ञान तथा स्याद्वादमें साक्षात् असाक्षात् सर्वतत्त्व प्रकाशनका भेद बतलाया है । कुमारिलने सर्वज्ञतापर और धर्मकीर्तिने स्याद्वाद (अनेकान्त सिद्धान्त ) पर क्रमशः मीमांसा श्लोकवार्तिक और प्रमाणवार्तिक में आक्षेप किये हैं। कुमारिलने लिखा है ‘एवं यैः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यानपेक्षिणः। सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ॥ नर्ते तदागमात्सिद्धयेन च तेनागमो विना ।'- मीमां. पृ. ८७ । अर्थात् जो सूक्ष्मादि विषयक अतीन्द्रिय केवलज्ञान पुरुषके माना है वह जैन मान्यतानुसार आगमके विना सिद्ध नहीं होता और उसके विना अागम सिद्ध नहीं होता और इसलिए सर्वज्ञताके मानने में अन्योन्याश्रय दोष अाता है । अकलङ्कदेव कुमारिलके इस दूषणका परिहार करते हुए जवाब देते हैं: एवं यत्केवलज्ञान मनुमानविजृम्भितम् । नर्ते तदागमात् सिद्ध्येत् न च तेन विनाऽऽगमः ॥ सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः । प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥- न्यायविनि. ४१२, ४१३ । अर्थात् 'यह सच है कि केवलज्ञान आगमके विना और आगम केवलज्ञानके विना सिद्ध नहीं होता तथापि अन्योन्याश्रय दोष नहीं; क्योंकि पुरुषातिशय ( केवलज्ञान ) अर्थबल (प्रतीतिवश ) से ही माना जाता है और इसलिए बीजाकुरकी तरह उनका (अागम और केवल ज्ञानका) प्रबन्ध अनादि ( सन्तान प्रवाह रूप ) बतलाया गया है । (ख) धर्मकीर्तिका स्याद्वाद–अनेकान्त-सिद्धान्तपर यह श्राक्षेप है१ देखो, आप्तमीमांसा कारिका ५ और ११३ । २. 'स्याद्वाद-केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यस्त्वन्यतमं भवेत् ॥'--आ. मी. १०५ । ५७ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः। चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नामिधावति ॥- प्रमाणवा. १-१८३ । अर्थात् 'यदि सब पदार्थ उभयरूप-अनेकान्तात्मक हों तो उनमें कोई भेद न रहनेसे किसीको 'दही खा' ऐसा कहनेपर वह क्यों ऊंटपर नहीं दौड़ता ?' इस श्राक्षेपका जवाब अकलङ्कने निम्न प्रकार दिया दध्युष्ट्रादेरभेदत्वप्रसङ्गादेकचोदनम् । पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः ॥ सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगतः स्मृतः। तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ॥ ----न्यायविनि. ३७२, ३७३, ३७४ । अर्थात् 'दधि और ऊंटमें अभेदका प्रसंग देकर उन्हें एक बतलाना धर्मकीर्तिका पूर्वपक्ष (अनेकान्तमत) को न समझना है और ऐसा करके वह दूषक होकर भी विदूषक हैं। वह इस बातसे कैसे इन्कार कर सकता है कि सुगत भी पहले भृग थे और मृग भी सुगत हुअा माना गया है । फिर भी जिस प्रकार सुगतको वन्दनीय और मृगको भक्षणीय कहा जाता है और इस तरह पर्यायभेदसे वन्दनीय भक्षणीयकी भेद व्यवस्था तथा सुगत व मृगमें एक चित्तसन्तान (जीव द्रव्य ) की अभेदव्यवस्था की जाती है उसी प्रकार वस्तुबल (पर्याय और द्रव्यकी अपेक्षा ) से भेद और अभेदकी व्यवस्था है। और इसलिए किसीको 'दही खा' यह कहनेपर वह क्यों ऊंटपर दौड़ेगा ? क्योंकि उनमें द्रव्यकी अपेक्षा अभेद होने पर भी पर्यायकी अपेक्षा भेद है । अतएव भक्षणीय दही पर्यायको ही वह खावेगा ऊंट पर्यायको जो भक्षणीय नहीं है, नहीं खानेको दौड़ेगा। भेदाभेद (अनेकान्त ) तो वस्तुका स्वभाव है उसका निषेध हो ही नहीं सकता।' ____ अकलङ्कदेवके ये जवाब कुमारिल और धर्मकीर्तिपर कितनी सीधी और मार्मिक चोट करते हैं ? इस तरह अकलङ्कने दूषणोद्धारके अनिवार्य कार्यको बड़ी योग्यता और सफलताके साथ पूर्ण किया है। जैनन्यायका नवनिर्माण-- दूसरा कार्य उन्होंने यह किया कि जैनन्यायके जिन अङ्गों प्रत्यङ्गोंका तब तक विकास नहीं हो सका था उनका उन्होंने विकास किया अथवा उनकी प्रतिष्ठा की। हम पहले कह पाये हैं कि उन्होंने अपने चार निबन्ध मुख्यतः न्यायशास्त्र पर लिखे हैं । अतएव उन्हें इनमें जैनन्यायको सर्वाङ्गपूर्ण प्रतिष्ठित ५८ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-न्यायका विकास करना ही चाहिये था । न्यायका अर्थ है-जिसके द्वारा वस्तु तत्त्व जानाजाय और इसलिए वह न्याय प्रमाण नयात्मक है क्योंकि प्रमाण और नयके द्वारा ही वस्तुतत्त्व जाना जाता है । अकलङ्कने विभिन्न दार्शनिकों की विप्रतिपत्तियोंके निरसन पूर्वक इन दोनोंके स्वरूप, संख्या ( भेद ), विषय, फलका विशद विवेचन, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य इन दो भेदोंकी प्रतिष्ठा, परोक्ष प्रमाणके रति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान, अागम इन पांच भेदोंकी इयत्ताका अवधारण, उनका सयुक्तिक साधन और लक्षणनिरूपण, तथा इन्हींके अन्तर्गत उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव, अादि पर-कल्पित प्रमाणोंका समावेश, सर्वज्ञत्वका अपूर्व युक्तिमय साधन, अनुमानके साध्य-साधक अङ्गोंके लक्षणों और भेदोंका विस्तृत प्ररूपण तथा कारणहेतु, पूर्वचरहेतु, उत्तरचरहेतु, सहचरहेतु, अादि अनिवार्य हेतुओंकी ही प्रतिष्ठा, अन्यथानु पत्तिके अभावसे एक अकिंचित्करात्मक हेत्वाभासका स्वीकार और उसके भेदरूपसे असिद्धादिका प्रतिपादन, दृष्टान्त, धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थानके स्वरूपादिका जैन दृष्टि से व्याख्यान, जयपराजयव्यवस्था, आदि कितना ही निर्माण करके जैनन्यायको न केवल समृद्ध और परिपुष्ट किया है अपितु उसे और भारतीय न्यायोंमें वह गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है जो प्रायः बौद्धन्यायको धर्मकीर्तिने दिलाया है । इस तरह अकलङ्क जैनन्यायके मध्ययुग प्रवर्तक हैं और इसलिए इस युगको 'अकलङ्ककाल' के नामसे कहना उचित ही है। श्रकलङ्कने जैनन्यायकी जो दिशा और रूपरेखा निर्धारित की उसीपर उनके उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किक चले हैं। हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, सिद्धसेनगणी, वादिराज, माणिक्यनन्दि, आदि इन मध्ययुगीन उत्तरवर्ती श्राचार्योंने उनके कार्यको बढ़ा करके उसे सुविस्तृत, सुप्रसारित और स्पुष्ट किया है । हरिभद्रके अनेकान्त जयपताका, शास्त्रवार्ता समुच्चय, वीरसेनकी तर्क बहुल धवला-जयधवला टीकाएं, कुमारनन्दिका वादन्याय, विद्यानन्दके विद्यानन्द महोदय, तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक, अष्टसहस्री, यातपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनालंकार आदि, अनन्तवार्यकी सिद्धिविनिश्चय टीका, प्रमाणसंग्रहभाष्य, सिद्धिसेनगणीकी गन्धहस्ति-तत्त्वार्थभाष्यटीका, वादिराजके न्यायविनिश्चयविवरण, प्रमाणनिर्णय र माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख इस कालकी अनूठी तार्किक रचनाएं हैं । यह काल जैनन्याय विकासका पूर्ण मध्यान्ह काल है । 'प्रभाचन्द्रकाल-इसके बाद प्रभाचन्द्रकाल आता है जो जैनन्याय-विकासका मध्यान्होत्तर अथवा अन्तिमकाल है । प्रभाचन्द्रने जैनन्यायपर जो विशालकाय व्याख्या ग्रन्थ लिखे-प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र, उनके बाद जैनन्यायपर वैसा व्याख्याग्रंथ दिगम्बर परम्परामें फिर नहीं लिखा गया । हां, श्वेताम्बर परम्परामें अभयदेवने सन्मतितर्कटीका और वादी देवसू रिने स्यावादरत्नाकर अवश्य लिखे हैं फिर १ 'प्रमाणनयैरधिगमः '-तत्वार्थसूत्र १-६ । 'नितरामियते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्यायः अर्थपरिच्छेदकोपायो न्याय इत्यर्थः । स च प्रमाणनयात्मक एव'-न्यायदीपिका पृ० ५ (टिप्पण ) । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ भी ये दोनों ग्रन्थ प्रभाचन्द्रकी पद्धति अनुस्यूत हैं और उनपर प्रभाचन्द्रके व्याख्याग्रंथोंका खासा प्रभाव है । इस काल में लघु अनन्तवीर्य, अभयदेव, वादी देवसूरि, अभयचन्द्र, हेमचंद्र, मल्लिषेणसूरि, श्राशाधर, भावसेन त्रैविद्य, अजितसेन, अभिनव धर्म भूषण, चारुकीर्त्ति, विमलदास, उपाध्याय यशोविजय, आदि विद्वानोंने अपनी रचनाओं द्वारा जैनन्यायको संक्षेप और विस्तारसे सुपुष्ट किया है। इस युगकी रचनात्रों में लघु अनन्तवीर्यं की प्रमेयरत्नमाला, अभयदेवकी सम्मतितर्कटीका, वादी देवसूरिका प्रमाणनयतत्त्वा लोकालंकार और उसकी स्वोपज्ञटीका स्याद्वादरत्नाकर, अभयचंद्रकी लघोयस्त्रयवृत्ति, हेमचंद्रकी प्रमाणमीमांसा, मल्लिषेणसूरिकी स्याद्वादमंजरी, श्राशाघरका प्रमेयरत्नाकर, भावसेन त्रैविद्यका विश्वतत्त्वप्रकाश, अजित सेनकी न्यायमणिदीपिका, चारुकीर्त्तिकी अर्थप्रकाशिका और प्रमेयरत्नमालालंकार ( प्रमेयरमालाकी टीकाएं ) विमलदासकी सप्तभंगितरंगिणी और उपाध्याय यशोविजयके, जो ई० १७ वीं शतीके अन्तिम तार्किक हैं, सहस्त्री टिप्पण, ज्ञानबिन्दु, जैनतर्कभाषा विशेषरूप से उल्लेखयोग्य जैनन्यायग्रंथ हैं। अंतिम तीन विद्वानोंने अपने न्याय ग्रंथों में नव्यन्यायशैलीको भी, जो गङ्ग शउपाध्याय प्रभृति मैथिल नैयायिकों द्वारा प्रचलित की गयी थी, अपनाया है और उससे अपने न्याय ग्रंथोंको सुवासित एवं समलंकृत किया है । इनके बाद जैनन्यायकी धारा प्रायः बन्द सी हो गयी और उसमें आगे कोई प्रगति नहीं हुई । इस तरह जैनविद्वानोंने जहां जैनन्यायका उच्चतम विकास करके भारतीय ज्ञानभण्डारको समृद्ध बनाया है वहां जैन साहित्यकी सर्वाङ्गीण समृद्धि और विपुलश्रीको भी परिवर्द्धित एवं सम्पुष्ट किया है, यह प्रत्येक भारतीय विशेषकर जैनोंके लिए गौरव और गर्वकी वस्तु है । ६० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म और अनात्मश्री ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी एम० ए०, एल० एल० बी०, सृष्टिमें हम साधारणतया जड़ और चेतन, इसप्रकार दो प्रकारकी अस्तियोंपर विश्वास करते हैं । एक वे अस्तित्व, जो प्राणवान हैं—जिसमें मति, गति, धृति, चिन्तना, अनुभूति जैसी प्रक्रियाएं विद्यमान हैं । दूसरी वे, जिनमें इस तरहकी किसी हरकतको स्थान नहीं है। पौर्वात्य और पाश्चात्य, सभी विचारकोंने एक सीमातक किसी न किसी रूपमें इन दो प्रकारके अस्तित्वोंको स्वीकार किया है । किसीने दोनोंको सम्पूर्णतया पृथक माना है तो किसीने एक दूसरेको सम्बद्ध स्वीकार किया है । शक्तिको ही सब कुछ माननेवाले अाधुनिक वैज्ञानिकने भी स्वरूपको मान्यता दी है और वस्तुके अस्तित्वको साकार करनेवाले अवयवोंको स्वीकार किया है । कठोरसे कठोर अद्वैतवादी भी स्थूल विश्वकी व्यावहारिक सत्ताको स्वीकार करते हैं और विश्वके स्वरूप, गुण आदि की सत्ताको अस्थाई भले ही कहें, पर उसे स्वीकार तो करते ही हैं। अस्तु, अात्म और अनात्म इन दोनों तत्त्वोंपर सृष्टिके सभी विचारक सुदीर्घ कालसे विश्वास करते आये हैं । इन दोनोंमें उन्होंने एकत्व, पृथकत्व अथवा अन्योन्याश्रयत्व, कुछ भी क्यों न माना हो, लेकिन उनके अस्तित्वको स्वीकृत अवश्य किया है । और आज हमारे सामने प्रश्न है—ये अात्म और अनात्म तत्त्व हैं क्या ? वे वास्तवमें दो पृथक तत्त्व हैं अथवा किसी एक तत्त्वके दो पृथक गुणमात्र हैं ? प्रश्न बहुत पेचीदा है और उसका उत्तर सहज ही नहीं दिया जा सकता। स्थूल दृष्टिसे देखनेसे सृष्टिमें कुछ ऐसे पदार्थ दिखते हैं जो चेतनासे सर्वथा शून्य हैं । उन्हें हमपूर्ण रूपेण जड़ पाते हैं । कुछ ऐसे हैं जिनमें सशरीरताके साथ सचेतनता भी है और इनसे दूर हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं, जहाँ स्थूलताका कोई स्थान नहीं-जहां सम्पूर्णतया चेतनाका ही साम्राज्य है । और तब हमारा प्रश्न और भी जटिल होजाता है। लेकिन सृष्टिकी दृश्यमानता ही तो सम्पूर्ण सत्य नहीं है । एक प्याले पानीमें एक चम्मच शक्कर डालिये । आप देखेंगे कि मीठा शर्बत तैयार होगया। इस शर्बतको एक ग्लास पानीमें डाल दीजिये। आप अनुभव करें गे—मिठास फीका पड़ गया है । और अब इस फीके शर्बतको कुंएमें छोड़ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दीजिये । कुंएका पानी चखिये । देखिये! क्या आप अब भी कुंएमें उस एक चम्मच शक्करके मिठासका अनुभव कर सकते हैं ? क्या हुआ उस शक्करका ? कहां गयी उसकी मिठास ? निश्चय ही हम इंद्रियों द्वारा उस मिठासका अनुभव नहीं कर सकते । लेकिन क्या यह सच नहीं है कि मिठास अब भी जलमें मौजूद है ? वह कुएं के सारे जलके साथ एक रस-एक प्राण होगयी है ! शक्ति और पदार्थ के अविनाशपर विश्वास करनेवाला कोई भी व्यक्ति स्वीकार करेगा कि मिठास नष्ट नहीं हुई । उसका विकास इतना व्यापक होगया है कि उसके अस्तित्वको हमारी जिह्वा अनुभव नहीं कर पा रही है। वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा उसके अस्तित्वको जाना जासकता है--सिद्ध किया जासकता है । हमारी इंद्रियां ज्ञानप्राप्तिका एक अत्यंत स्थूल साधन हैं। कुएं के जलमें शक्करके उपस्थित होते हुए भी वे उसके अस्तित्वका ज्ञान प्राप्त न कर सकीं। हमारे प्रयोग भी इसीप्रकार एक सीमाके परे अत्यंत बोथरे हैं । रहस्यके श्रावरणको चीरकर सत्यको सामने करदेनेमें वे एक निश्चित दूरी तक ही हमारा साथ देते हैं । और तब क्या यह सम्भव नहीं है कि अात्म और अनात्मके बीच हमने जो विभाजक रेखा खींची है वह पूर्णतया हमारे अज्ञान और हमारी असमर्थताका ही प्रतीक हो ? क्या यह सम्भव नहीं है कि जिन वस्तुओं को हमने जड़ताकी संज्ञा दे रखी है उनमें चेतनाका अनन्त सागर हिलोरें मार रहा होमुश्किल केवल इतनी ही है कि हमारी स्थूल इंद्रियां और बौनी प्रयोगवीरता उस सागरके तट तक पहुंचने में अक्षम हो ? - अात्म और अनात्म मेरे मतमें किसी एक तत्त्वके दो अंग है-उसकी दो प्रक्रियाएं हैं। यदि शब्दोंको रूढ न किया जाय तो मैं उस तत्त्वको 'महात्म' कह दूं ! वस्तु अपने आप क्या है ? गुणों और व्यापारोंके समुच्चयसे पृथक उसकी क्या कल्पना हो सकती है ? मैं हूं। मैं लिख रहा हूं। मैं बोल सकता हूं। मैं दौड़ सकूगा ! उपरोक्त वाक्यों द्वारा एक व्यक्ति और उसके द्वारा सम्पन्न होनेवाले अथवा हो सकने वाले कुछ व्यापारोंका बोध होता है। व्यापार वह क्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति करता है। अस्तित्वके साथ व्यापारका घना सम्बन्ध है । व्यापारके बिना अस्तित्वकी कल्पना भी सम्भव नहीं है । जब हम गाय शब्दका उच्चारण करते हैं, तब उस शब्दका हमारे लिए कोई अर्थ नहीं होता जबतक कि गायके किसी व्यापारका भी बोध न हो। गाय पायी ! गाय गयी ! गाय चाहिये ! अर्थ यह कि गायसे सम्बन्धित किसी न किसी व्यापारके विना गाय शब्द स्वयं अर्थहीन है। शब्द और स्वरूपके बीच युगोंसे स्थापित सम्बन्ध हमारे मानस पटलपर एक चित्र विशेष अंकित करता है। उस चित्रके अर्थ मौन रहते हैं उसके भाव अव्यक्त रहते हैं। अंगोंके विना अंगीकी जिस प्रकार कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार व्यापारके विना किसी अस्तित्वकी कल्पना सम्भव नहीं है। और क्या है व्यापार १ अस्तित्वकी चैतन्यमयी अभिव्यक्ति ही न ? अात्म और अनात्मको हमने जिस 'महात्म' की दो प्रक्रियाएं कहा वह "महात्म" अपने आपको रूपों, रंगों, गुणों, अनुभूतियों और न जाने कितने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष व्यापारों द्वारा ही तो अभिव्यक्त कर Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्म और अनात्म रहा है। हम शक्करके मिठासकी शक्करसे पृथक क्या कोई कल्पना कर सकते हैं ? और शक्करके स्वरूपको वह परिवर्तित स्वरूप ही क्यों न हो-पृथक करके भी क्या शक्करके मिठासका अाभास पाया जासकता है ? कोई कहे कि नमकके दृढ़ फड़कीले ठोस स्वरूपको खोकर उसके सलोनेपनको हमारे सामने लाइये ! क्या सम्भव है ऐसा होना किसी भी वैज्ञानिक प्रक्रिया द्वारा ? ___और शक्ति-चैतन्य-श्रात्म-क्या इसे भी हम स्थूल–ठोस-अचेतन कहे जानेवाले पदार्थोंसे पृथक निकालकर कहीं रख सकते हैं ? विद्युत शक्तिको वैज्ञानिक शक्तिका एक अत्यंत उग्रस्वरूप मानता है। लेकिन क्या ईथरके-अाकाशके ठोस परिमाणु के विना भी उसका अस्तित्व हो सकेगा? जड़ और चेतन--यात्म और अनात्म, मैंने ऊपर लिखा- महात्मकी अभिव्यक्तिकी दो साधनाएं, एक कलाकारको दो कृतियाँ हैं । एक गद्य तो दूसरी पद्य ! और भावोंके विचारों के सामंजस्यके रूपमें कलाकारके व्यक्तित्वकी जो अभिव्यक्ति है वह क्या गद्य और पद्य दोनोंमें व्यक्तरूपोंके मेलसे ही परिपूर्ण नहीं होती ? कवीन्द्रकी अात्मा केवल डाकघरमें हो–केवल गोरामें हो केवल गीतांजलिमें हो-उसे कौन कहेगा ? वह तो गोरा, गीतांजलि और उर्वशी सभीकी सीमा में हिलोरें मारती हुई अपने समस्त कृतित्वमें व्यक्त होती है ! श्रात्म और अनात्म, गोरा और गीतांजलि जैसी स्थूल रूपमें पृथक दिखनेवाली चीजें नहीं ! यों गोरा और गीतांजलि भी पृथक चीजें नहीं हैं !-वे एक व्यक्तित्वकी अभिव्यक्तिकी परम्परा की दो कड़िया हैं । जिसे हम अनात्म कहते हैं उसके वह 'महात्म' की अभिव्यक्ति हैं और जिसे आत्म कहते हैं वह भी वही चीज है । हमारी इन्द्रियोंमें--हमारे प्रयोगोंमें अाज यह शक्ति नहीं है कि हम उनकी अभिन्नताको समझ सकें, लेकिन वस्तुतः ये दोनों एक हैं। एक लौह दण्डको लीजिये । चुम्बकके एक सिरेको लेकर लोह दण्डके एक छोरसे लेकर दूसरे छोर तक अनेक बार सीधा चलाइये । अब देखेंगे कि लौह दण्डमें चुम्बककी शक्ति आगयी। अाखिर यह शक्ति अायी कहाँ से ? क्या चुम्बकने यह शक्ति लौह दण्डको देदी ? जरा चुम्बककी परीक्षा कीजिये । वया उसकी आकर्षण शक्तिमें कोई कमी श्रागयी ? हम देखते हैं कि उसकी शक्ति ज्यों की त्यों मौजूद है । फिर यदि शक्तिके अविनाशकत्वका सिद्धान्त सही है तो लौह दण्डमें यह शक्ति कहांसे अायी ? अब लौह दण्डको जरा गर्मकर दीजिये कायवा पूर्व पश्चिम रखकर हथौड़ेसे पीट दीजिये। देखिये क्या अब भी आकर्षण शक्ति विद्यमान है ? यदि नहीं तो वह गयी कहां ? क्या हथौड़ेने उस शक्तिको ग्रहण कर लिया ? परीक्षा करनेसे ज्ञात होगा कि उसने शक्ति नहीं पायी ! तब आखिर यह है क्या ? विज्ञानका छोटेसे छोटा विद्यार्थी भी जानता है कि लौह दण्डके प्रत्येक परमाणुमें चुम्बकीय शक्ति विद्यमान है। चुम्बक द्वारा बार बार स्पर्शित किये जानेसे वह शक्ति नियंत्रित होजाती है अतएव Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ हमें उसके अस्तित्वका बोध होजाता है । हथौड़ेसे पीटे जानेपर अथवा श्रागसे तपाये जानेपर परमाणु विखलित होजाते हैं अतएव शक्ति अनियंत्रित होजाती है, फलतः हमें उसका बोध नहीं होता। अनियंत्रितके समुद्र में शक्तिकी बूंदे घुल जाती हैं और जिसप्रकार चीनीका मिठास कुएंके जलमें खोगया था, उसीप्रकार शक्ति भी हमारी बोधकताकी दृष्टिसे अोझल होजाती है। __अस्तु, हमारा स्थिर मत है कि चेतन और अचेतन दो तत्त्व नहीं, वे एक तत्त्वके दो गुण हैं और कम या अधिक विकसित अवस्थामें प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान हैं । जिसप्रकार प्रत्येक पदार्थमें सभी रंगों के ग्रहण करनेकी शक्ति मौजूद है उनके खुदके कोई रंग नहीं हैं रंग सारे सूर्य की किरणोंके हैं-उन्हें ग्रहण करके वे किसी रंग विशेषको परिवर्तित करते हैं, इसलिए वे उस रंगसे रंजित दिखते हैं-उसीप्रकार चेतन अथवा अचेतनके कम व ज्यादा परावर्तनके कारण जड़ अथवा चेतन दिखता है। पीले दिखनेवाले पदार्थ केवल पीले नहीं उनमें सूर्यकी किरणों द्वारा प्रदत्त सारे रंग मौजूद हैं । वह पदार्थ अन्यान्य रंगोंकी तुलनामें पीले रंगको अधिक परिमाणमें परावर्तित कर रहा है। इसीलिए हमें पीला दिखता है। उसीप्रकार प्रत्येक वस्तु किसी महात्म द्वारा प्रकाशित हो रही है । कहीं जड़त्वकी किरणोंका अधिक परिमाण में परिवर्तन होरहा है, कहीं चेतनाकी किरणोंका । इसीलिए हमें कहीं जड़ता तो कहो चेतनाके दर्शन होरहे हैं । हमारी दृष्टिमें, जो चैतन्यको सर्वस्व माने हैं वे भी सृष्टिके रहस्यसे दूर रहे हैं और जिन्होंने जड़को ही सबकुछ समझा वे भी जीवनके वास्तविक तख तक नहीं पहुंच सके। उपनिषदमें जहां विद्या और अविद्याकी व्याख्या करते हुए दोनोंको अपनाकर चलने की बात कही गयी है, वहां हमारी समझमें जड़ और चेतनकी एकताका आभास पाकर ही परम-दृष्टाने दोनोंकी सम्यक् अाराधनाको जीवनका लक्ष्य प्रतिष्ठित किया है । अात्म और अनात्मको पृथक समझकर बहुत कुछ खोया है। जरूरत है कि उनके एकत्वकी प्रतिष्ठा करके उस खोयेको पुनः प्राप्त किया जावे। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा श्री प्रा० हरिमोहन भट्टाचार्य, एम. ए०, आदि बौद्ध दर्शनके सुविख्यात चार सम्प्रदायोंमें से वैभाषिक, सौत्रान्तिक तथा योगाचारके विद्वानों का भारतीय प्रमाण चर्चा में पर्याप्त योगदान है। यहां इन तीनों सम्प्रदायोंकी प्रमाण विषयक मान्यताओंका विचार करके हम जैन प्रमाण दृष्टि से उनका मूल्याङ्कन करेंगे। सब ही बौद्ध सम्प्रदायोंके अनुसार प्रत्येक वस्तु अनित्य है, एक क्षण रहती है, दूसरे क्षण नष्ट होती हुई दूसरेको उत्पन्न होने देती है । अर्थात् आत्माका ज्ञान भी नित्य नहीं है। यह सब ज्ञान सन्तान है। इनमें प्रत्येकका कार्य; अर्थात् अात्म सदृशकी उत्पत्तिमें कारणतासे-निश्चय होता है, जिसे बौद्ध 'प्रतीत्यसमुत्पाद' कहते हैं जिसका तात्पर्य धारावाही ( आश्रित ) उत्पत्ति होता है अथात् ज्ञानमें इन्द्रियां निमित्त नहीं है, सब कुछ छाया ( संस्कार ) मात्र है ज्ञान तथा ज्ञेयमें कोई अन्तर नहीं है। इन मूल मान्यताओंपर दृष्टि रखने पर बौद्ध तत्त्वज्ञानको समझना सरल हो जाता है। वैभाषिक प्रमाण सिद्धान्त तथा समीक्षा-- वैभाषिक वास्तविकताको मानता है उसके अनुसार प्रत्येक पदार्थका ज्ञान साक्षात्कारसे होता है किन्तु उसका प्रमाण निराकार बोध स्वरूप है । किन्तु यह सुविदित है कि प्रमाणकी प्रामाणिकताके विशेष लक्षण होते हैं जो कि इसे साधारण बोधसे पृथक् सिद्ध करते हैं। अतएव निराकार बोध रूपसे की गयी प्रमाण परिभाषा उसके अभीष्टको सिद्ध नहीं करतो। किसी पदार्थकी परिभाषाका तात्पर्य ही असाधारण धर्मोंको बताना है जो कि उसे सजातोय तथा समानसे पृथक् सिद्ध करते हैं । किन्तु प्रमाणकी 'निराकार बोध' परिभाषा करके वैभाषिक हमें विशेष लक्षणहान साधारण बोधको बताता है और अपनी परिभाषाका अतिव्यात ' कर देता है । इस प्रकार संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, श्रादि प्रमाणाभासोंका भी ग्रहण हो जाता है । प्रमाण तथा प्रमाणाभासका भेद तो लुप्त हो ही जाता है । इसका दूसरा परिणाम यह भो होगा कि इन्द्रिय, श्रादि बोधके साधारण कारण भी प्रमाण हो जायगे जैसे कि साधारणतया कहा जाता है-दीपकसे घड़ी देखी, अांखसे पहिचाना, धुएसे भागको जाना, आदि । इन सबकी प्रामाणिकता १ बोधप्रमाणमिति वदन्तो वैभाषिकाः पर्यानुयोज्याः । त बो. विधा. पृ ४५८ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ रूढिमूलक' है क्योंकि उसका प्रधान हेतु तो कुछ मानसिक तथा तात्त्विक प्रक्रियाएं हैं । अतएव जैनाचार्य कहते हैं कि स्व-पर-ज्ञापक बोधको प्रमाण मानना चाहिये अर्थात् वह ज्ञान जो आत्मप्रकाशके द्वारा स्वयं प्रमाणभूत है तथा ज्ञेय पदार्थके आकार और स्वभावसे भिन्न है आपाततः प्रमाणाभासोसे पृथक् है । कोई भी स्वपर-प्रकाशक ज्ञान अपनी प्रामाणिकताके लिए किसी भी बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं करता । यदि प्रमाणके स्वरूपको अव्यभिचारी बनानेके लिए उसमें किसी विशेष नैमित्तिकताकी कल्पना की जाय तो वह विशेष निमित्त व्यर्थ ही नहीं होगा अपितु अन्योन्याश्रय दोषको भी जन्म देगा। पदार्थका सम्यक ज्ञान ही प्रमाणकी प्रामाणिकताका सच्चा निमित्त हो सकता है और यदि सम्यकज्ञान प्रमाण अर्थात् अव्यभिचारी हो तो हम उसे प्रमाण या प्रमिति माने गे । किन्तु प्रमिति रूप परिणामको अर्थ जन्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि अर्थका बोध और प्रमिति एक साथ उत्पन्न होते हैं, जो सहभावि होते हैं उनमें कार्य कारण भावकी कल्पना नहीं की जा सकती है क्योंकि उनमें वह कम नहीं होता जो कार्य कारणमें आवश्यक है । परिणाम स्वरूप यह समझना कठिन होगा कि अर्थसे बोध हुआ या बोधसे अर्थ, फलतः वैभाषिकका निराकार बोधको प्रमाण मानना असंभव है। इसके अतिरिक्त निराकार बोधमें प्रमाण कल्पना वैभाषिककी मूल मान्यतापर आघात करती हुई अनवस्थाको उत्पन्न करती है । सत्वादी होनेके कारण वह बाह्य पदार्थ तथा उनका साक्षात्कार मानता है। अब बाह्य पदार्थके साक्षात्कारका अर्थ होगा कि पदार्थ अपने आकारको अपने ग्राहक ज्ञानमें दे देता है। फल यह होगा कि निराकार बोध अर्थके श्राकारसे युक्त होकर साकार हो जायगा। एक और आपत्ति है, धारावाहिक ज्ञानमें यदि प्रथम क्षण में पदार्थ अपने अाकारको देकर लुप्त हो जाय गा । तब द्वितीयक्षणमें दूसरे पदार्थकी कल्पना करनी होगी जो इसी प्रकार अपना श्राकार देकर लुप्त हो जाय गा । अतएव धारावाहिक ज्ञानकी धाराको बनाये रखनेके लिए अनन्त पदार्थों की कल्पना करनी पड़ेगी। तब वैभाषिकको धरावाहिक ज्ञानके प्रतिक्षणमें निराकार ज्ञानको साकार बरबश करना पड़ेगा तथा अनवस्थापत्तिसे बचनेके लिए अपनी मूल मान्यताको छोड़नेको बाध्य होना ही पड़ेगा । किन्तु जैन इस अापत्तिको ज्ञानको 'स्वपरावभासी' मानकर सहज ही दूर कर देता है । यतः ज्ञान ज्ञेय-वाह्य पदार्थके साथ अपनी प्रामाणिकताका भी प्रकाशक है और सदा साकार ही होता है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि बाह्य पदार्थ ज्ञानकी उत्पत्तिकी प्रामाणिकतामें साधक है। सतत अथवा धारावाही ज्ञानके कारणभी जैनमान्यतामें अनवस्थाको अवकाश नहीं है। कारण, वैभाषिकके समान आकार समर्पणके लिए जैनमान्यतामें अनन्त क्षणिक पदार्थोंकी कल्पनाकी आवश्यकता नहीं है । प्रत्येक पदार्थमें अपनी एक विशिष्ट एकता तथा नित्यता रहती है फलतः श्राकार मिलता ही रहता है। प्रश्न होता है कि सतत स्थायी प्रथम क्षणमें आकार देने पर द्वितीय आदि क्षणमें उसका पुनः ग्रहण होगा अर्थात् “ग्रहीत १-त. वो. विधा. पृ. ४५९ तथा प्र. क. म, पृ. २६ । ६६ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा ग्रहिता" दोष अाया। प्रथम ज्ञानके साथही प्रमाणका कार्य समाप्त हो जाय गा फलतः उत्तर कालीन बोध व्यर्थ होंगे तथा धारावाही ज्ञानकी उपयोगिता स्वयं समाप्त हो जायगी । जैन इस आपत्तिका युक्ति-युक्त परिहार करते हैं--पदार्थका वास्तविक स्वरूप ही धारावाही बोधकी प्रामाणिकता और उपयोगिता सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त है । संसारका प्रत्येक पदार्थ द्रव्य (स्थायि रूप ) तथा पर्याय (परिवर्तन ) मय है अर्थात् पर्याय रूपसे सतत परिवर्तन शील होकर भी द्रव्यरूपसे नित्य है । अतएव कह सकते हैं कि कोई भी पदार्थ बोधके प्रथम क्षणमें जिस रूपमें था उत्तर क्षणमें वैसा ही नहीं रहेगा । किसी भी पदार्थके उदाहरणार्थ 'घट'के धारावाही ज्ञानमें सर्वथा एकही प्रकारका अथवा सर्वथा भिन्न घट कभी भी दो क्षणोंमें सामने नहीं आता है । इस प्रक्रियाके अनुसार धारावाही ज्ञानमें भी हम द्वितीयक्षणमें उसीका ग्रहण नहीं करते जिसे पूर्व क्षणमें ग्रहणकर चुके हैं । श्रापाततः ग्रहीत-ग्राहिताका दोष धारावाही ज्ञानसे परे हो जाता है और उसकी प्रामाणिकता पर आघात नहीं करता है। नैयायिक भी ग्रहीत-ग्रहिताको बोधकी प्रामाणिकतामें बाधक नहीं मानता है। जयन्त भट्टने अपनी न्यायमंजरीमें' इसका विवेचन किया है और यही निष्कर्ष निकाला है कि ग्रहीत-ग्राहिता अधिकांश साक्षात्कारों में होती है तथा स्मृतिका तो यह असाधारण धर्म है। किन्तु जयन्त भट्टके अनुसार भी एक ऐसी स्थिति है जहां ग्रहीत-ग्राहिता अप्रामाण्यकी जननी होती है। नैयायिक ग्रहीत-ग्रहिताके कारण नहीं, अपितु वस्तु साक्षात्कारके उत्तर कालमें ही उत्पन्न न होनेके कारण स्मृतिकी प्रामाणिकताका निषेध करते हैं । जयन्त भट्टका मत है कि साक्षात्कार जन्य बोधमें हम विषैले सर्प, सिंह, विषाक्त मछली ( Shark ) श्रादि घातक जन्तुअोंको बारम्बार देखते हैं, और विश्वास करते हैं कि हमारा बोध प्रमाण है, उक्त प्राणियोंको घातक मानते हैं और सुरक्षाके स्थानपर चले जाते हैं । इसी प्रकार माला, चन्दन, कपूर, आदिको बारम्बार देखते हैं, और आत्मबोधमें प्रामाणिकताका विश्वास रहनेके कारण ही इन्हें उपादेय मानते हैं । जयन्त भट्टका तर्क है कि इन पदार्थों के धारावाही ज्ञानमें ग्रहीत ग्राहित्व इसलिए नहीं है कि प्रतिक्षण इन पदार्थों में नये वैशिष्टयोंका उदय होता है, क्योंकि ऐसी कल्पना करने से प्रतिक्षण विशिष्ट अवस्था हो जाती है । सच तो यह है कि इसप्रकारके बोधकी प्रामाणिकताकी ग्रहीत ग्राहिता अनिवार्य कारण नहीं है । इस कथनमें एक मनोहरमनोवैज्ञानिक तथ्य निहित है-साधारणतया ऐसा विश्वास है कि नवीन विशेषताओंका उदय ही एक पदार्थको सतत ज्ञानका विषय बनाता है किन्तु सूक्ष्म निरीक्षणने स्पष्ट कर दिया है कि सतत जिज्ञासा अथवा बोधके लिए नूतन विशेषताएं अनावश्यक है । जैसा कि जयन्तभट्टके “मनुष्यके असंख्यवार दृष्ट अपने हाथमें नूतन लक्षणोंका अविर्भाव कभी नहीं होता" कथनसे स्पष्ट है । इस क्रमसे जैनों द्वारा स्वीकृत प्रत्यभिज्ञानकी सत्य-ज्ञानता असंभव होजाती है । पुनर्बोधको सत्य ज्ञान माननेका जैन कारण यह है कि यह ज्ञात पदार्थका पुनरुत्थापन है, जिसमें पूर्वज्ञात पदार्थका अाभास मिला रहता है और उसे पुनः ज्ञेय बना देता १. न्यायमञ्जरीका प्रमाण लक्षण प्रकरण । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ है । अतएव जैन कहते है कि धारावाही ज्ञान, पुनर्बोध तथा स्मृतिमें निहित पदार्थका बारम्बार ज्ञान अथवा ग्रहीतग्राहित्व किसी भी प्रकार से बोधकी प्रामाणिकताको दूषित नहीं करता है । सौत्रान्तिक प्रमाण सिद्धान्त विवेचन वैभाषिकके समान सौत्रान्तिक भी 'सत्'वादी है। वह मानता है कि ज्ञानके बाहर पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता है। यद्यपि इस सत्ताका प्रकाश प्रत्यक्षसे नहीं होता है जैसा कि वैभाषिकको इष्ट है, अपितु अनुमान द्वारा होता है । उसकी दृष्टि वैभाषिकके विपरीत है क्योंकि वह प्रत्यक्षज्ञानको सदैव श्राकारहीन नहीं मानता है। पदार्थ क्षणिक हैं, प्रतिक्षण प्रत्यक्ष ज्ञानमें प्राकार समर्पण के क्षणमें ही वह लुप्त हो जाते हैं तथा इस श्राकार-समर्पणके अाधारपर हमें बाह्य वस्तुका अनुमान करना चाहिये, जो कि ऐसे श्राकारका कारण होती है । फलतः सौत्रान्तिकका ज्ञान साकार है और साकार ज्ञान प्रमाण है । किन्तु श्राकार देने वाली वाह्य वस्तु बोधके क्षेत्रमें नहीं पाती वह तो अनुमेय है । ज्ञानकी साकारतामें जैन सौत्रान्तिकसे सहमत है. तथा ज्ञानको स्वसंविदित भी मानता है, किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान वस्तु प्रकाशक है, इसका अपलाप करते ही उनकी सहमति समाप्त हो जाती है । सौत्रान्तिकके विरुद्ध प्रमुख जैन आरोप यह है कि यदि ज्ञान साकार है तथा प्राकार ज्ञानमय होता है तो ज्ञान आकारकी जनक वस्तुका प्रकाश क्यों नहीं करेगा । वस्तु प्रकाशकका अपलाप आत्म संवितका ही अपलाप है जो कि मूल बौद्ध मान्यताके प्रतिकूल है । इस आपत्तिके परिहारके लिए ज्ञानमें ग्राह्य और ग्राहक भेद स्वीकार करना भी व्यर्थ है; क्योंकि विषय और ज्ञाता ही ग्राह्य तथा ग्राहक है। और बौद्ध एकज्ञान स्वरूप प्रमाता, प्रमिति तथा प्रमाणमें ऐसा कोई भेद नहीं मानते । श्रापाततः सौत्रान्तिक द्वारा प्रस्तावित ग्रा-ग्राहक भेदकरण असंभव हो जाता है । जैनोंकी प्रबल मौलिक अापत्ति तो यह है कि बाह्य वस्तुका अनुमान ही तर्क विरुद्ध तथा निस्सार है । सौत्रान्तिक तथा सभी बौद्ध सम्प्रदायोंमें जगतके पदार्थ क्षणिक, स्वलक्षित तथा पृथक हैं । उन्हें दूसरे क्षणमें बचाये रख करके सापेक्ष बनानेमें सामान्य लक्षणता भी सहायक नहीं है; क्योंकि समस्त लोक ही कल्पना विरचित है । फलतः अवभासनके दूसरे क्षणमें ही वस्तु आकार छोड़कर सदाके लिए लुप्त हो जाती है। यही आकार बोधका विषय होता है और अपने जनक पदार्थका अनुमापक कहा जाता है। किन्तु अनुमान हेतु-स्वलक्षण, साध्य-स्वलक्षण तथा व्याप्तिके रूपमें सामान्य लक्षण पूर्वक ही होता है। इस जैन तर्कसे सौत्रान्तिकके विरुद्ध कुमारिल १. त. बो. वि. समति, पृ. ४५९ । २. जयन्त भट्टने सौत्रान्तिकके विरुद्ध यही आपत्ति उठायीं है। उसका तर्क है कि ग्राहक ज्ञान तथा ग्राह्य ज्ञान प्रवृत्तिकी अपेक्षा भिन्न हैं। फलतः ये दोनों भिन्न तत्त्व एकरस ज्ञानको उत्पन्न नहीं कर सकते हैं जैसा कि बद्धोंने माना है । दृष्टव्य न्याय मंजरी १५ ( बनारस संस्करण) । ६८ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा द्वारा किये गये विवादका स्मरण हो पाता है । कुमारिलकी युक्ति यह है कि सामान्य लक्षण अथवा व्याप्तिज्ञान कल्पनाविरचित है फलतः तार्किक दृष्टि से स्वलक्षणसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । और जब उनका सत् वस्तुअोमें आरोप किया जायगा तो वे वस्तु स्वभावको भी कुछ हीन ही कर देंगे । इस प्रकार स्वलक्षणके आश्रित अनुमान वस्तु स्वभावको परिवर्तित करते हुए कैसे स्वयं ज्ञानका कारण हो सकता है ? फलतः कुमारिलके समान जैन भी श्रारोप करते हैं कि सौत्रान्तिक सम्मत प्रमाण अर्थात् साकारज्ञान हमें संसार के पदार्थों का बोध नहीं करा सकता तथा अर्थ निर्णय अथवा अर्थ संसिद्धि में असफल ही रहता है । व्याप्तिज्ञान या व्याप्ति निश्चय ही अनुमान ज्ञानकी अाधार शिला है, व्याप्तिज्ञान दृष्टान्त पूर्वक ही होता है तथा दृष्टान्त प्रत्यक्षसे ज्ञात होना चाहिये, किन्तु सौत्रान्तिककी यह स्वयं सिद्ध मान्यता है कि वाह्य वस्तुका प्रत्यक्ष नहीं होता । निष्कर्ष यह हुआ कि दृष्टान्तपर आश्रित होने के कारण व्याप्तिज्ञान तथा व्याप्ति मूलक होनेके कारण अनुमान समाप्त होजाते हैं । और साथही साथ ‘पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता अपितु वे अनुमेय हैं --, सत्रान्तिकका यह सिद्धान्त भी धराशायी हो जाता है । योगाचार प्रमाण सिद्धान्त-समीक्षा योगाचार बौद्धोंकी प्रधान मान्यता यह है कि समस्त सत् तथा ज्ञेय वस्तुओंका जोकि पृथक पृथक् परमाणु हैं, साक्षात्कार 'प्रत्यय' या 'विज्ञान' रूपसे होता है। कोई ऐसी चेतनावस्था नहीं है जिसमें उनकी उत्पत्ति और सन्बन्धकी कल्पना कीजाय, न कोई ऐसी वाह्य वस्तु है जिसपरसे उनके श्राकार प्रकारका निश्चय किया जाय । प्रत्यय या विज्ञान कल्पना तो पालम्बन प्रत्ययके लिए है जहांपर स्वतः भिन्न भिन्न प्रत्ययोंकी स्थिति तथा सम्बन्ध होता है । यह भी कहा गया है कि ऐसे विज्ञानकी कल्पनाका हेतु वह साधारण चिन्ता शैली है जो उक्त प्रकारके अाधारके विना ज्ञानकी कल्पना भी नहीं कर पाती है | साधारण चिन्ता शैली सुगम मार्ग से चलती है, और 'अभ्युपेतवाद से सकुचाती है, यद्यपि ऐसी प्रक्रिया वस्तुस्थिति ( सम्वृत्त्य ) का आवरण है क्योंकि वस्तुस्थिति समस्त प्रत्ययोंको अभ्युपेत हीन ही मानती है । अपने सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा करनेके इच्छुक योगाचारको सबसे पहिले प्रत्ययके मूलाधार अपने ही अभावको स्पष्ट दिखाना होगा । दूसरे दृश्य बाह्य जगतका अभाव सिद्ध करना पड़ेगा। क्योंकि उसके अनुसार संसारका मूलस्रोत तथा ज्ञान सन्तानकी श्रृंखला स्वरूप आत्मा तत्त्वज्ञानसम्बन्धी शुद्ध कल्पना १, श्लो. वा. श्लो ५२, शून्यवाद पृ० २८३-४ । २. तत्व. वो. वि. स. पृ, ४५९ ३, शान्तरक्षितका तत्वसंग्रह इलो २०८२--४। (कमलपूशीकी पलिका सहित) ४, परमार्थतस्तु निरालम्बनाः सर्वाः एव प्रत्ययाः इति । त० सं० पृ० ५८२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ है। जैसाकि उसकी क्षणिकवादकी प्रधान मान्यताके विवेचनसे स्पष्ट है। यहां केवल उन युक्तियोंका विचार करना है जिनके द्वारा योगाचार वाह्यार्थों का अभाव सिद्ध करता है । तर्कके लिए वाह्य जगतकी सत्ताको कल्पना करके योगचार सत्वादियोंसे शास्त्रार्थ प्रारम्भ करता है। यदि वाह्य जगत सत् है तो क्या वह स्वतंत्र, अदृश्य तथा निराकार परमाणुअोके रूपमें है अथवा ऐसे परमाणुओंसे बने पुञ्ज या अवयवियोंके रूपमें है ? इन दो विकल्पोंमेंसे प्रथम तो टिकता ही नहीं है क्योंकि परमाणु आकारका प्रतिभास न होनेके कारण साक्षात्कारके अनुकूल स्थिति ही नहीं है । निराकारका प्रत्यक्ष तो आकाश कुसुमका प्रत्यक्ष होगा। प्रत्यक्ष के विषयको साकार और सहज इन्द्रिय ग्राह्य होना चाहिये । अाकारका स्पष्ट प्रदर्शन प्रत्यक्ष ज्ञेयताका पूर्वचर है' । अतः निरपेक्ष, निराकार, अदृश्य परमाणु प्रत्यक्षका विषय नहीं हो सकते । विज्ञानवादी प्राचार्य भदन्त शुभगुप्त भी अपने मतकी पुष्टि करते हुए यह मानते हैं कि अपने पृथक् एवं अणुरूपमें परमाणु ज्ञेय नहीं है । प्रत्यक्षका विषय तभी होते हैं जब वे स्कन्ध ( समूह ) रूपमें आते हैं । किन्तु सौत्रान्तिक शुभगुप्तकी युक्तिकी उपेक्षा करता है और मानता है कि स्कन्ध रूपता भी परमाणुओंको प्रत्ययका विषय नहीं बना सकती है। उसका तर्क है कि अविभाज्य होनेके कारण परमाणु निराकार है । फलतः यदि उसे अपने अविभाज्य स्वभावसे भ्रष्ट नहीं करना है तो वह स्कन्धरूप होकर भी कोई पारिमाडल्य (आकार ) नहीं ग्रहण करेगा। परमाणुओंके स्कन्धकी कल्पना शब्द विज्ञानमें नित्य शब्द सन्तानकी भ्रान्तिके समान है । इसप्रकार सौत्रान्तिक अविभाज्य परमाणुका स्कन्ध रूपमें भी प्रत्यक्ष नहीं मानता है। अणु या स्कन्धरूपमें परमाणुओंको प्रत्यक्षका अविषय कहकर वह सिद्ध करता है कि परमाणु सिद्ध न किये जानेके कारण उससे बने अवयवी (स्कन्ध) का अनुमान भी नहीं किया जा सकता है । अवयविसाधक अनुमान निम्न प्रकार है- “वस्तु अवयवी स्थूलत्त्वात् पर्वतादिवत् ।" इस अनुमानमें हेतु 'स्थूलत्वात्' का विश्लेषण करनेपर ज्ञात होता है कि साध्य वस्तुमें तथा दृष्टान्त पर्वतमें इसकी कल्पना मात्र कर ली गयी है । वह दोनोंमें नहीं है क्योंकि 'सूक्ष्म प्रचय रूप' को छोड़कर और स्थूल है क्या ? यह भी नहीं कह सकते कि जो पर्वतादिके समान दिखते हैं वे स्थूल हैं और जो द्वथणुकादिके समान अदृश्य हैं वे सूक्ष्म हैं । क्योंकि यह धर्मी वस्तुमें द्विरूपता (द्वैत) को उत्पन्न कर देगा। फलतः भेद निरुद्देश्य है । तथोक्त स्थूल दृश्य होनेपर भी अपने निर्माता अदृश्य परमाणुओंके पुंजसे कैसे पृथक् सिद्ध किया जा सकता है ? यतः 'स्थूलत्व' हेतु 'अवयवी' साध्यमें नहीं है फलतः वह 'असिद्ध हेतु का निदर्शन होगा। ऊपरि लिखित कारणोंसे ही हेतु 'पर्वतादि' दृष्टान्तमें भी नहीं है। अतः वह 'साधन विकल' होगा। यदि 'सत्' वादी कहे कि 'रूप' अथवा साकारता जो समस्त 'देश वितान' युक्त पदार्थों में पायी १ "आत्माकारप्रतिभासित्वेन प्रत्यक्षस्य व्याप्तिवत् ।" त. सं. प. पू. ५५१ । २ त. सं. श्लो. १९७२ ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा जाती है उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। और वह सभी स्थूल पदार्थों में स्पष्ट है, तो विज्ञानवादी कहता है कि इससे भी हेतु साध्यमें सिद्ध न होगा, क्योंकि हम स्वप्न विज्ञानमें 'रूप' या अवयवित्वको देखते हैं किन्तु जागनेपर परमाणु प्रचय रूप स्थूलताका भान नहीं होता । फलतः उक्त हेतुमें 'अनेकान्त' अथवा 'संदिग्धत्व' दोष भी आता है, क्योंकि हेतुको साध्य एकान्तमें अथवा साध्याभाव रूपी दूसरे एकान्तमें ही रहना चाहिये, दोनोंमें नहीं । यदि प्रकृत हेतुके समान साध्य तथा साध्याभाव दोनोंमें हेतु रहे तो वह अनेकान्त दोषसे दुष्ट होगा। फलतः साध्य और पक्षके सम्बन्धमें सन्देह होगा । अतएव विज्ञानवादी बाह्यार्थ अवयवीको अनुमानका अविषय ही मानता है। ग्राह्य-ग्राहक द्वैत विमर्ष उक्त प्रकारसे वाह्यार्थको प्रत्यक्ष तथा अनुमानसे परे सिद्ध करके विज्ञानवादी ग्राह्य तथा ग्राहकके भेदका भी खण्डन करता है। वाह्य जगतका प्रत्यक्ष तथा अनुमानसे निषेध कर देनेके बाद उक्त कार्य विज्ञानवादीके लिए सुकर हो जाता है। ग्राह्य अर्थात् वोधके विषयकी सार्थकता ग्राहकके सद्भावमें ही है तथा ग्राहक भी ग्राह्य पदार्थोंके सद्भावमें सार्थक होता है। फलतः जब वाह्य जगत रूपी ब्राह्य समाप्त कर दिये गये तो ग्राहक स्वयं निरर्थक हो जाता है तथा इन दोनोंके भेदके लुप्त हो जानेके बाद विशुद्ध ज्ञान ( विज्ञप्तिमात्रता ) ही शेष रह जाता है जो कि स्वयं प्रकाश्य है । विज्ञान अनंश, एक और क्षणिक है फलतः मीमांसक सम्मत ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञानकी त्रिपुटी उसमें नहीं बनती है । विज्ञानका सार 'स्वसंवेदन' मात्र है। यह स्व प्रकाशक, स्वस्थ चित्तवृत्ति है, जो किसी वाह्य प्रकाशककी अपेक्षा नहीं करती । विज्ञानवादीकी दृष्टिमें बोध किसी पदार्थका बोध नहीं होता है, और न बोधके लिए वस्तुकी अावश्यकता ही है । उसके अनुसार स्थिति यह है कि ज्ञेय और ज्ञाता दोनोंमें तार्किक दृष्टि से ही भेद है अन्यथा वे दोनों बोधकी दो अभेद्य अवस्थाएं हैं। ज्ञान प्रक्रिया 'ज्ञानसे पदार्थ है. 'पदार्थसे ज्ञान' नहीं । किन्तु ज्ञान पदार्थका जनक नहीं है । यतः ज्ञान और पदार्थका बहुधा युगपत् ही बोध होता है अतः योगाचार दोनोंमें एकरूपता मानता है। 'नील और नील-ज्ञानमें भेद नहीं है क्योंकि दोनोंकी उपलब्धि एक साथ होती है | साधारण व्यक्तिको ज्ञान और ज्ञेयका जो भेद प्रतीत होता है वह भ्रान्ति है । ज्ञापक होनेका तात्पर्य वस्तुका ज्ञाता होना है पर इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि ग्राह्य और ग्रहीतामें कोई भेद या सीमा है । ज्ञान किसी विशिष्ट आकारके श्राश्रयसे होता हैं अतः ज्ञान कभी भी निराकार नहीं होता, किन्तु श्राकार ज्ञानमें पूर्णरूपसे नहीं रहता । उसका अाधार तो पुरातन अनुभवसे उत्पन्न वासना होती है; जिसका आधार दूसरी वासना और दूसरीका तीसरी इस प्रकार अनन्त सन्तान १-शुन्यबाद श्लो० ५९, न्याय रत्नाकर। २-प्रमाण समुच्चय (१.३) तथा न्यायप्रवेश । ७१ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ होती है। योगाचार इसमें अनवस्थाकी अाशंका नहीं करता क्योंकि वह 'वासना' को अनादि मानता है। निष्कर्ष यह हुआ कि किसी भी अवस्थामें बोधका निश्चय वाह. पदार्थ द्वारा नहीं होता है किन्तु वह विचारात्मक शक्ति अनादि वासनाका परिपाक और प्रवृत्ति है जिसे प्राणी पूर्व भवोंमें निःसीम रूपसे संचित करता रहा है । बोधका निर्णय भूत तथा वर्तमान वासनाओंके द्वारा होता है एवं तथोक्त वाह्य वस्तुको बोध निश्चायक मानना बृद्धि दोष है, अादि हेतु ओंका ये गाचारने अपना अादर्श सिद्ध करनेके लिए विस्तार किया है । वह कहता है कि यदि वाह्य वस्तुका कोई अपना स्वभाव है और वह बोधजनक है तो वह विविध ज्ञानकेन्द्रोंसे क्यों श्राभास देता है और एक ही इन्द्रियको भी विविध परिस्थितियों में भिन्न भिन्न रूपसे क्यों ज्ञात होता है । ज्ञानभेद वासना शक्तिजन्य तो संभव है किन्तु सत्वादीको अभीष्ट बाह्य वस्तुके स्वभाव जन्य तो नहीं ही हो सकता है । इसप्रकार स्पष्ट है कि विषय तथा बोधका भेद भ्रान्त ज्ञान या परिस्थिति जन्य है। ग्राह्य और ग्राहकका भेद भेद हीन ज्ञानमें लुप्त हो जाता । विषय तथा बोधके इस अभेदका योगाचारने प्रत्यक्षके लक्षणमें भी समावेश किया है । इसके समर्थक सन्दर्भ मध्यकालीन तार्किक गुरू दिङनागके प्रकरणों में मिलते हैं । योगाचारके प्रमाण सिद्धान्तके अनुसार बोध तथा उसकी प्रामाणिकता त्वयं-प्रकाश्य, स्वयं-उत्पन्न बौद्धिक तत्त्व हैं, वाह्य वस्तुसे निरपेक्ष है, बाह्य जगत वास्तविक नहीं है तथा ग्राह्य-ग्राहकभेद ज्ञानसरणिमें अग्राह्य है । अब इस योगाचार के प्रमाण सिद्धान्तको जैन तार्किक दृष्टि से देखिये । अपनी द्वन्द्वात्मक मान्यताके द्वारा विज्ञानवादी जो सिद्ध करना चाहता है वह यही है कि अनादि वासनासे विज्ञान सन्तान उत्पन्न होती है और वाह्य वस्तुएं उसमें थोड़ी भी सहायक नहीं हैं, क्योंकि वे अवस्तु हैं । फलतः विज्ञानवादीका बोध स्ववासी' है, अर्थात 'स्व' से उत्पन्न और स्वका प्रकाशक है। इसके उपरान्त जैनाचार्य उस दोष परम्पराको बताते हैं जो विज्ञान वादीको अभीष्ट प्रमाण सिद्धान्तमें आती है । विज्ञान वादीके मतके जैनखण्डनके दो पक्ष हैं -प्रथम तो निषेधात्मक तथा विध्वंसात्मक है क्योंकि बाहार्थों का ज्ञानमें समावेश करना प्रत्यक्ष तथा अनुमानके विरुद्ध है । तथा दूसरा विधिपरक और रचनात्मक है क्योंकि यह प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण द्वारा बाह्य पदार्थोकी परमार्थ सत्ता सिद्ध करता है। ___समन्तभद्र, अकलंक, सिद्धर्षि गणी, श्रादिने उस हेतु परम्पराको दिया है जो विशद रूपसे सिद्ध करती है कि विषयके विना बोध असंभव है। प्रथम तर्क तो यह है कि वाह्यार्थ विहीन स्वप्न विज्ञानकी समानता द्वारा यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि बोध वाह्य विषयके विना ही हो जाता है । स्वप्नमें मनुष्य वाह्यार्थके बिना वन, देवता, आदिके श्राकारका अनुभव करता है । जैनाचायोंने अाधुनिक १--त. बो. वि. पृ. ४८०-४८८ । २-न्यायवतार, कणिका १, पृ. ११, आदि। ७२ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा मनोवैज्ञानिकों : समान स्पष्ट बताया है कि स्वप्न में दृष्ट विविध पदार्थों के अाकार जाग्रत अवस्था में उन्हें जाने विना दिख ही नहीं सकते हैं । वे विविध अनुभव ज य संस्कारोंके आश्रित हैं जो चैत यमें सचित हैं । तथा शारीरिक एवं मानसिक उत्तेजन तथा संदर्भ मिलते हो जाग उठते हैं । यदि वाह्य अर्थके विना ही स्वप्न दिखते तो हमें आकाश कमल, छठा भूत, श्रादि दिखना चाहिये था । वाह्यार्थ विना प्रतिभास माननेपर ज्ञानके आकार प्रकारका निश्चय असंभव है । इस अापत्तिसे बचने के लिए समस्त ज्ञानोंके स्रोत अनादि अविद्या जन्य वासनाका योगाचार सहारा लेना चाहेगा किन्तु जैनाचार्य उसे निम्न अन्योन्याश्रयमें डाल देते हैं । यदि वासना प्रतिभासकी विविधताका कारण है तो वह ज्ञानसे भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि . भिन्न है तो विज्ञान वादोको किसो अन्य ज्ञानकी कल्पना करनी पड़ेगी जो इस भेदको ग्रहण करेगा । समत्त प्रत्यय विज्ञान हैं और विज्ञान विना कोई भी प्रत्यय संभव नहीं है, किन्तु इस भेदके माननेपर विज्ञानसे बाहर कोई प्रत्यय मानना ही पड़ेगा । यदि विज्ञान वादा कहे कि वासना पृथक् होकर भी विज्ञानसे उत्पन्न होती है तथा विज्ञानमें भ्रान्त ग्राह्य-ग्राहक सम्बन्ध होता है, तो जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका अनुमान कल्पना कराता है कि वासना तथा सम्बन्ध-विज्ञानका सम्बन्ध अवश्य होना चाहिये। योगाचार मतमें ऐसा सम्बन्ध असंभव है क्योंकि उसने उत्पत्तिके दूसरे क्षणमें विज्ञानकी सत्ता तथा सम्बन्ध करानेवाले आत्माकी स्थितिका निराकरण किया है । वासनाके इस अनुमानके निम्न तीन परिणाम और होंगे। प्रथम तो यह सर्व साधारणके अनुभव तथा व्यवहारके विरुद्ध है क्योंकि सब हो यह जानते हैं कि मन, इन्द्रिय तथा पदार्थ संयोगसे ज्ञान होता है । दूसरे वासना एक ऐसो अदृश्य तथा काल्पनिक वस्तु है जिसे किसी भी वैज्ञानिक ज्ञान सिद्धान्तसे सिद्ध नहीं किया जा सकता । तीसरे यदि वासनाके निमित्तसे साधारण विज्ञान अनन्त श्राकार प्रकार ग्रहण कर सकता है तो उसके द्वारा जड़का चेतन रूपसे प्रत्यय क्यों नहीं होगा ? क्योंकि लोकोत्तर वस्तुको कुछ असंभव तो हो ही नहीं सकता । इन कुपरिणामोंसे वचनेके लिए विज्ञान वादीको अपना मत परिवर्तन करना पड़ेगा और मानना पड़ेगा कि वाह्य अर्थ ही विज्ञानको विविधताके कारण हैं और वासना इस आकार प्रकारके वैविध्यका कारण नहीं है। यदि वासना और विज्ञान अभिन्न हों तो उसे ज्ञानरूपसे प्रत्यय करना चाहिये, वासना रूपसे नहीं ऐसी स्थितिमें पदार्थोंके श्राकार प्रकारकी विविधताका बोध सदाके लिए उलझ जायगा । आ० प्रभाचन्द्रकृत मीमांसा तार्किक गुरु सूक्ष्माति सूक्ष्म तत्त्व परीक्षक श्री प्रभाचन्द्राचार्यने भी योगाचारके वाह्य अर्थ निषेधका खण्डन किया है । प्रमाण सत् वस्तुके ज्ञानकी साधक रूपसे उपेक्षा नहीं करता है इसे ही उन्होंने १. न्यायावतार कणिका १ पृ. १२ । १० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ अन्य प्रकारसे सिद्ध किया है। । योगाचारकी उक्त मान्यताका उन्होंने ऐसी युक्ति-प्रत्युक्तियों द्वारा खण्डन किया है जिन्हें देख कर प्राच्य तथा पाश्चत्य दार्शनिक स्तब्ध रह जाते हैं । वह इस प्रकार है-सौत्रान्तिकके समान योगाचार भी ज्ञानको साकार मानता है, किन्तु योगाचारका मत है कि ज्ञान मस्तिष्कसे बाहर किसी वस्तुसे उत्पन्न नहीं होता अपितु अविद्या जन्य अनादि वासनासे प्रादुर्भूत होता है और ज्ञान एक साथ ही उपलब्ध होने वाले प्रमेय तथा प्रमितिका सारूप्य है। प्राचार्थ प्रभाचन्द्र कहते हैं कि प्रमिति तथा प्रमेयकी कल्पना ही द्वैतको सिद्ध करती है, वोध विषयका ऐक्य नहीं। क्योंकि नील-प्रत्ययका तात्पर्य नील आकारका ज्ञान ही तो है। तथा स्तम्भ प्रत्ययके समान उसकी जड़ताका भी अवभास होता ही है । यहां दो प्रश्न उठते हैं—क्या ज्ञानके स्पष्ट दो पक्ष होते हैं या एक ? यदि दो पक्ष हैं तो प्रथम नील पदार्थकी नीलताका चेतन अवभास है तथा दूसरा उसकी जड़ताका अभेद ज्ञान है। किन्तु इस अवस्था में योगाचारको अपना विज्ञानाद्वैत छोड़ना ही पड़ेगा । यदि कोई तीसरा ज्ञान मान लिया जाय जो उक्त दोनों संस्कारोंको लेकर तथा द्विविध होकर पदार्थ ज्ञान करता है तो प्रारम्भिक ज्ञान अयोग्य हो जायगा और जड़ताको प्राप्त होगा । यदि हम ज्ञानका एक ही ऐसा पक्ष माने जो नीलता और जड़ अाकारका बोध कराता है तब वह एक ही समयमें अांशिक रूपसे चेतन-अचेतन होगा। स्वात्मभूत नीलताका बोध करके वह चेतन होगा तथा अपनेसे पृथक ( अतदाकार ) पदार्थके पौद्गलिक रूपको ग्रहण करके जड़ भी होगा। फलतः ज्ञान भी 'अर्धजरतो न्याय ' का शिकार हो जायगा । योगाचारके नीलता ज्ञान सम्बन्धी कठिनताका खण्डन करते समय अभयदेवने भी तीक्ष्ण तर्क किये हैं । निम्न प्रकरणमें योगाचार व्यति-ज्ञान की स्वयं प्रतिपन्नताका श्राश्रय लेकर अपना मत पुष्ट कर सकता है, कह सकता है कि जिस प्रकार मुख दुःखका स्व प्रतिभास होता है उसी प्रकार बोध तथा सुखादि प्रकाशनके मध्यमें व्याप्तिका भी हो जायगा ठीक इसी विधिसे जड़ नील पदार्थके ज्ञान और बोधके आत्मप्रकाशके मध्यमें व्यप्तिज्ञान हो जायगा। परिणाम यह होगा कि नीलपदार्थके बोधमें जो अचेतन भाग है वह अात्मज्ञानसे सम्बद्ध हो जायगा और अर्धजरती न्यायकी आपत्ति निराधार हो जायगी । प्रा० अभयदेव पूछते हैं क्या इसमें कोई वास्तविक व्याप्ति निश्चय है। इसका अाधार या तो दृष्टान्त होगा या समान हेतु । दृष्टान्त ऐसे निश्चयका आधार नहीं हो सकता, क्यों कि ऐसा करनेके पहिले यह देखना अनिवार्य है कि विपक्षमें बाधक न हो । प्रकृत व्याप्ति निश्चयमें विपक्षका न होना अकल्पनीय नहीं है । दूसरे सुख-दुःख प्रकाशकी नीलादिप्रकाशसे तुलना उचित नहीं है क्यों कि इन दोनों ( दृष्टान्त तथा दाान्तिक) १. प्रमे. क. मार्तण्ड पृ. २७ सम्मति तर्क पृ. ४८४ । २. आधी वृद्धा आधी युवती। ३. "सुखादि प्रकाशनं ज्ञानव्याप्तम् स्वयं प्रतिपन्नत्त्वात् ।" Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तों जैन-समीक्षा में कोई सबल समता नहीं है। यह तर्क करना कि नीलके प्रकाशमें चित् अंशकी कल्पना उतनी ही अयुक्त है जितना सीमित ज्ञानके कारण किसी प्राणीको पुरुष कहना है । अभयदेव और सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं और दोनोंकी समताको निर्मूल कर देते हैं। उनका तर्क है कि “सुखादिका प्रकाशन ज्ञानव्याप्त है स्वयं प्रतिपन्न होनेसे ।" तथा "नीलादिप्रकाशन ज्ञानव्याप्त है अन्य प्रतिपन्न होनेके कारण।" में 'ज्ञानव्याप्तत्व' ही साध्य है । किन्तु पहलेका हेतु दूसरेके हेतुसे भिन्न है । प्रथमके 'स्वयं प्रतिपन्नत्व' का अर्थ है कि सुखादिका अनुभव वाह्य हेतुके विना स्वयं ही होता है। तथा दूसरे हेतु 'अन्यप्रतिपन्नत्व' का तात्पर्य है "किसी दूसरे प्रमाणसे ज्ञात होता है ।" सुखादि प्रतिभासका नीलादिप्रतिभाससे सम्बन्ध नहीं किया जा सकता है जिसके बलपर जड़ नीलादि प्रत्ययमें भी सुखादि प्रत्ययका 'त्वप्रतिपन्नत्व' सिद्ध किया जा सके । बौद्ध इन्द्रियविज्ञान में ऐसी समताको स्थान नहीं है। फलतः नीलादि प्रकाशमें स्वप्रकाशता तथा जड़ताका समन्वय नहीं होता, परिणाम यह होता है कि 'नील तथा नीलज्ञान एक हैं।' विज्ञानवादीका यह मत भी सिद्ध नहीं होता। विज्ञानवादीके द्वारा उठाये गये ज्ञान और उसके आकार ( तदाकार ) की समस्याको भी प्रभाचन्द्राचार्य ने अपनी वास्तविक दृष्टिके अनुसार नूतनरूप दिया है। ज्ञानकी उत्पत्तिमें बोध, विषय तथा ज्ञानगत श्राकार कारण नहीं हैं, ज्ञान तथा ज्ञेयके सम्बन्धका निर्णय ज्ञानके अन्तरंग आकारके द्वारा होता है यह उचित मान्यता नहीं है । तथा प्रारम्भमें ज्ञान निराकार उत्पन्न होता है और बादमें किसी प्रकार वस्तुसे सम्बद्ध होकर श्राकार धारण करता है यह भी युक्ति संगत नहीं है। प्रथम विकल्प असंगत है क्योंकि ज्ञानका कभी तथा कहीं भी अपने अन्तरंगरूप द्वारा निर्णय नहीं हुआ है प्रत्युत विषयसे सदा ही सम्बद्ध रहता है। ज्ञेयके विशेष धर्म के निश्चय द्वारा ही ज्ञान तथा ज्ञेयका सम्बन्ध पुष्ट होता है किन्तु कभी भी ज्ञान तथा ज्ञेयके मिश्रित एक रूपसे नहीं होता। दूसरा विकल्प भी इन्हीं हेतुअोंसे अग्राह्य है क्यों कि समस्त प्रत्यय अपने विशेष ज्ञेयसे सम्बद्ध होते हैं । निष्कर्ष यह हुआ कि न ज्ञान अपने अन्तरंगमें श्राकार युक्त और न निराकार ही है। किसी भी अवस्थामें ज्ञानका ज्ञेय होता ही है तथा वह उसका आकार भी ग्रहण करता है। प्राचार्य प्रभाचन्द्रने यह सब प्रतिपादन करते हुए यह भी कहा है कि ज्ञान स्वतंत्र तथा श्रात्मोद्भव है । किन्तु स्वयं उत्पन्न होते हुए भी ज्ञान इन्द्रियों तथा विषयका निमित्त लेता है तथा अर्थका आकार ग्रहण करता है । इन्द्रियां ज्ञानकी साकारताका कारण हैं इस मा यताका बौद्धोंके साथ वे भो खंडन करते हैं क्योंकि वाह्यार्थके अभावमें भी इन्द्रिय व्यापार होता है तथा विना अाकारके ज्ञान होता हो है । वैभाषिक सम्मत निराकार ज्ञानवाद भी परीक्षा करनेपर नहीं टिकता क्योंकि विशेष अर्थ के अभावमें सब प्रकारके ज्ञानकी संभावना है जो अव्यवस्था पैदा करेगी। जबकि यह सत्य है कि हमें विशेष अर्थों के १--"कुतश्चित्प्रमाणात् प्रतीयते ।” २-"स्वकारणैस्तज्जननेनार्थसम्बोधमेवोत्पद्यते । प्र. क. मा. पृ. २८ । ७५ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ आधारकी ज्ञानमें प्रतीति होती है। जैन सिद्धान्त इन्द्रियों तथा पदार्थको ज्ञान कारण मानते हुए भी यह नहीं मानता कि उन्हें ज्ञानकी उत्पत्तिमें उपादानता है । ऐसा मानना नैयायिकके 'इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष' से ज्ञान होनेके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेना है । इन्द्रियार्थ सन्निकर्षको स्वीकार करनेका तात्पर्य होगा कि स्व-पर प्रकाशक चेतन ज्ञान जड़ तथा अपराक्ष पदार्थ से उत्पन्न होता है। जैन ज्ञान पद्धति न तो योगाचारके समान 'ज्ञानसे पदार्थ है और न नैयायिकके समान 'अर्थसे ज्ञान' ही है अपितु वह अात्म परिस्पन्द द्वारा उद्भव होता है और स्वायत्त प्रकारसे पदार्थको यथाविधि ग्रहण करता है और उसका आकार भी ग्रहण करता है। प्रमाण लक्षण परीक्षण-- धर्मोत्तर कृत प्रमाणकी बौद्ध परिभाषाकी मीसांसा किये विना यह प्रकरण सर्वाङ्ग न होगा। अतएव "अविसंवादक ज्ञानही सम्यग्ज्ञान है'' पर दृष्टि देनेसे ज्ञात होता है कि सम्वादकसे उसका तात्पर्य ज्ञानकी अर्थको प्राप्त करनेकी योग्यता (प्रदर्शितार्थ प्राप्तित्वम् ) से है । किन्तु किसी पदार्थके ज्ञान तथा इच्छा शक्तिमें बड़ा अन्तर है । श्रा० धर्मोत्तरका कहना है कि प्रमाणका फल अर्थ ज्ञान है । तथा वही ज्ञान प्रमाण है जिसका विषय अब तक अनधिगत हो। इस प्रमाण लक्षणका विचार करते हुए जैनाचार्य पहिले तो 'अनधिगतार्थ' विशेषण पर आपत्ति करते हैं । इसके विरुद्ध दिये गये हेतुअोंका उल्लेख 'ग्रहीत ग्राहिता के विचारमें हो चुका है। ये पर्याप्त हैं क्योंकि उन्हींके बलपर ग्रहीत ग्राहिताको प्रमाणता प्राप्त हुई है । दूसरी विचारणीय बात प्रापण-शक्ति है। जैसाकि विज्ञानवादी कहता है कि ज्ञानके उत्तरक्षणमें पदार्थकी हेयोपादेयतासे त्याग श्रादान रूप प्रवृत्ति होती है। जैनदृष्टिसे यह मानना भ्रान्त है क्योंकि हेयोपादेयताके अतिरिक्त पदार्थ में उपेक्षणीयता भी तो होती है । वस्तुमें जैन मान्यतानुसार राग, द्वेष तथा उदासनिता होते हैं । क्यों कि प्रथम दोके समान उपेक्षाका भी स्पष्ट अनुभव होता है । फलतः उपेक्षणीयके प्रति प्रवृचि असंभव है। फलतः विज्ञानवादीका अर्थगुण विवेचन तथा तजन्य प्रवृत्तियोंका स्वरूप सर्वाङ्ग नहीं है। जैन कहते हैं कि यदि इच्छा अथवा प्रवृत्तिको प्रामाण्यका कारण माना जायगा तो फिर अनुमान को प्रामाणिकताकी भी यह कसौटी मानना अनवस्थाको उत्पन्न करेगा। क्योंकि अनुमानका विषय सामने नहीं होता, सदैव भूत या भविष्यत् होता है। १ “अविसंवादक ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् " न्यायविन्दु टीका पृ. ३ २. "अर्थाधिगतिरेव प्रमाणफलम्"। न्यायविन्दु टीका पृ. ३ । ३. न्याय० पृ. ४ । ४. न्याय मञ्जरी पृ. २२ । ५. स. त. पृ. ४६८-७१ ।। ७६ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा विज्ञानवादी कह सकते हैं कि अनुमानमें भी प्रदर्शितार्थ प्रापकत्व' संभव है क्योंकि विषयके मौलिक तथा काल्पनिक रूपके सादृश्य के कारण अनुमाता अध्यवसायकी शरण लेता है। अनुमानमें पदार्थ यद्यपि वास्तविक नहीं होता तथापि अनुमितिज्ञानमें ऐसी क्षमता है कि वह अनुमेय पदार्थको पदार्थत्व प्रदान करता है अनुमेय और दृष्ट पदार्थका जिसे अभेद अध्यास कहते हैं। इस प्रकार प्रदर्शितार्थ और दृष्ट पदार्थका प्रापकत्व अनुमानका भी लक्षण होकर उसे प्रमाणता प्रदान करता है । अभयदेव कहते है कि जिस क्षणिकवादके कारण प्रत्यक्षके विषयोंमें प्रदर्शितार्थ प्रापकता असंभव है, वही क्षणिकवाद अनुमानके विषयमें इसे सर्वथा अकल्पनीय कर देगा । यदि विज्ञानवादीमें तार्किकताका लेश भी शेष हो तो उसे ज्ञान तथा इच्छाशक्तिके तात्त्विक भेदको स्वीकार करना ही चाहिये क्योंकि दर्शन और प्रापणके क्षणमें अत्यन्त भेद होता है । इससे बचनेके लिए बौद्ध ज्ञान संतानका प्राश्रय लेगा जैसा कि वह बहुधा करता है । किन्तु यदि वह सन्तानको प्रकट ज्ञानसे पृथक् मानेगा जैसा कि यहां प्रतीत होता है तो इसका तात्पर्य होगा कि वह अपने क्षणिकवादके मूल सिद्धान्तको ही छोड़ रहा है। प्रमाणकी उक्त परिभाषा को संव्यवहारिक मानकर यदि विज्ञानवादी बचना चाहे तो उसे स्वीकार करना पड़ेगा कि वह प्रमाणकी दूसरी परिभाषा कर सकता है जो कि नित्य तथा अनित्य पदार्थों में एक रूपसे रह सकेगी, केवल अनित्यमें नहीं । इसका तात्पर्थ होगा जैनोंकी नित्या-नित्य पदार्थोंके ज्ञानरूप प्रमाणकी परिभाषाको स्वीकार करना। सिद्धर्षि गणिका उक्त परिभाषाका विवेचन अधिक विस्तृत है। वे कहते हैं कि 'अवि संवादक' के दो अर्थ हैं—प्रथम अर्थ तो यह है कि ज्ञान पदार्थको प्राप्तकरने की चेष्टा द्वारा ज्ञान प्रमाण होता है । "प्राप्तियोग्य पदार्थका निर्देश दूसरा अर्थ होता है । अब यदि हम प्रथम अर्थको सत्य माने तो जल बुदबुदका ज्ञान अप्रमाण होगा क्योंकि उन तक पहुंचते पहुंचते वे नष्ट हो जाते हैं। दूसरा अर्थ लेने पर भी हमारी पहुंचके बाहर स्थित तारा, ग्रहादिका ज्ञान प्रमाण न हो सकेगा। अतः सिद्धर्षि गणि उसका 'अविचलितार्थ विषयत्वम् ४ अर्थ करते हैं । अथ त् जब ज्ञान पदार्थको अपने निश्चित द्रव्य क्षेत्र, काल, भावादिकी अपेक्षा जानता है तब वह प्रमाण होता है जिसमें पदार्थ अनेक क्षण ठहरता है । जिसे स्वीकार करके विज्ञानवादी अपने आराध्य क्षणिकवादका ही निधन करेगा । ज्ञानका विषय स्थायी पदार्थ होनेके लिए वस्तुको अनेक क्षणों में तद्रूपसे ही ज्ञात होना चाहिये, १. "दृश्य प्राप्य क्षणयोरत्यन्त भेदात् ।" २. स. त. पृ. ४७१। ३. न्यायावतार वृत्ति पृ. १४ । ४. नयविन्दुटीका, नियतार्थ प्र. पृ. ४ । ७७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ उसमें प्रतिक्षण बाधा नहीं डालनी चाहिये जैसा कि क्षणिकवादमें होता है । फलतः विज्ञानवादीको क्षणिकवादके अतिरिक्त अन्य सिद्धान्त स्वीकार करना पड़ेगा । इस प्रकार तार्किक युक्तियों के द्वारा जैनाचार्योंने सिद्ध किया है कि बौद्ध प्रमाण परिभाषा न तो पदार्थों के यथार्थ ज्ञान करानेके उद्देश्य में सफल होती है और न उसके मान्य प्रत्यक्ष और अनुमानकी प्रमाणता ही सिद्ध करती है। अविसंवादकता' को लेकर ही विज्ञानवादी घपले में पड़ता है इसे ही प्रामाण्यकी एक मात्र कसौटी मानकर भी वह भूल जाता है कि इसके चरितार्थ होने के लिए वस्तुको कमसे कम दो क्षण रहना चाहिये जब कि वह उसे एक क्षणके बाद ठहरने देनेकी भी उदारता नहीं दिखा सकता है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन पो० माधवाचार्य, एम० ए०। यह दर्शन प्रधान रूपसे अर्हत् भगवानका उपासक है इसलिए कोई कोई दार्शनिक इसको 'अाहत-दर्शन' भी कहते हैं । संसारके त्यागी पुरुषोंको परमहंसचर्या सिखानेके लिए त्रिगुणातीत पुरुष विशेष परमेश्वरने ऋषभावतार लिया था ऐसा भागवत आदि पुराणों में वर्णित महिमा मय वर्णनसे स्पष्ट है । जगतके लिए परमहस-चर्याका पथ दिखानेवाले अापही थे। हमारे जैनधर्मावलम्बी भाई आपको 'श्रादिनाथ' कहकर स्मरण करते हुए जैनधर्मके आदिप्रचारक मानते हैं। भगवान ऋषभदेवने सुख प्राप्तिका जो रास्ता वताया था वह हिंसा, आदि भयंकर पापोंके सघन तिमिरमें अदृष्ट सा होगया। उसके शोधनके लिए अहिंसा धर्मके अवतार भगवान महावीर स्वामीका अविर्भाव हुआ जिन्हें जैन लोग श्रीवर्धमान प्रभु कहकर श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं। महावीर स्वामीके उपदेशों को सूत्रोंके रूपमें ग्रथित करनेवाले आचाोंने महावीर स्वामीके अवतरित होनेका प्रयोजन बताया है कि, "सव्व जगा रक्खण दाट अाअपवयणं सु कहियं भगवया" भगवान महावीर स्वामीने व्यथित जीवोंके करुण-क्रन्दनसे करुणाद्र चित्त होकर सब जीवोंकी रक्षा रूप दया के लिए सार्वजनीन उपदेश देना प्रारम्भ किया था। यह सर्व साधारणको ज्ञात है कि भगवान बुद्धदेवने विश्वको दुख रूप कहते हुए क्षणिक कहते समय यह विचार नहीं किया था कि इससे अनेक अनेक लाभोंके साथ क्या क्या दोष होंगे । उनका उद्देश्य विश्वको वैराग्यकी तरफ ले जानेका था जिससे अनाचार अत्याचार तथा हिंसाका लोप हो जाय। महावीर स्वामीने बुद्धदेवसे बनाये गये अधिकारियोंकी इस कमीको पूरा करने पर भी ध्यान दिया था । इन्होंने कहा कि अखिल पदार्थोंको क्षणिक समझकर शून्यको तत्त्वका रूप देना भयंकर भूल है । जब सब मनुष्य रंग रूप में एकसे ही हैं तब फिर क्या कारण हैं कि कोई राजा बनकर शासन कर रहा है और कोई प्रजा बना हुआ आज्ञा पालता है । किसी में कई विशेषताएं पायी जाती हैं तो किसी को वे बातें प्रयास करनेपर भी नहीं मिलती । इसमें कोई कारण अवश्य है। वर्तमान जगतको देखकर मेरी समझमें तो यही आता है कि शरीरसे भिन्न, अच्छे बुरे कर्मोंके शुभ अशुभ फलका भोक्ता, शरीरको धारण ७९ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ करनेवाला कोई अवश्य है । उसके रहनेसे यह प्राणी-चैतन्य रहता है, उसके छोड़ देनेसे मृतक कहलाता है । वह चैतन्य शरीरके जीवनका कारण होनेसे जीव शब्दसे बोला जाता है । क्षण क्षणमें तो इस परिदृश्यमान जगतके परिणाम हुआ करते हैं। इसलिए परिणाम ही प्रतिक्षण होनेके कारण क्षणिक कहा जा सकता है । क्षणिक कहने वालोंका वास्तविक मतलब परिणामको क्षणिक कहनेका है दूसरे किसी द्रव्य, आदिको नहीं। जो शून्य कहा जाता है उसका अर्थ कथंचित् शून्य कहनेसे हैं, केवल शून्य कहनेसे नहीं । क्योंकि परिदृश्यमान विश्व कथंचित् परिणाम या पर्यायरूपसे शू-य अनित्य अथवा असत् कहा जा सकता है, द्रव्यत्व रूपसे नहीं कहा जा सकता। . यह दर्शन एक द्रव्य पदार्थ ही मानता है । गुण और पर्यायके अाधारको द्रव्य कहते हैं । ये गुण और पर्याय इस द्रव्य के ही यात्म स्वरूप हैं, इसलिए ये द्रव्यकी किसी भी हालतमें द्रव्यसे पथक नहीं होते । द्रव्य के परिणत होनेकी अवस्थाको पर्याय कहते हैं जो सदा स्थित न रहकर प्रतिक्षणमें बदलता रहता है-जिससे द्रव्य रूपान्तरमें परिणत होता है । अनुवृत्ति तथा व्यावृत्तिका साधन गुण कहलाता है, जिसके कारण द्रव्य सजातीयसे मिलते हुए तथा विजातीयसे विभिन्न प्रतीत होते रहते हैं। ___ इसकी सत्तामें इस दर्शन के अनुयायी सामान्य विशेषके ( पृथक ) माननेकी कोई आवश्यकता नहीं समझते। द्रव्य एक ऐसा पदार्थ इस दर्शनने माना है किसके माननेपर इससे दूसरे पदार्थ माननेकी अावश्यकता नहीं रहती, इसलिए इसका लक्षण करना परमावश्यक है । श्रीमान् कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने प्रवचनसार' में द्रव्यका लक्षण यह किया है--- अपरित्यक्तस्वाभावेन उत्पादव्ययध्रुवत्वसंवद्धम् । गुणवच्चसपर्यायम् यत्तद्रव्यमिति ब्रुवन्ति ॥३॥ अर्थात् - जो अपने अस्तित्व स्वभावको न छोड़कर, उत्पाद, व्यय तथा ध्रुवतासे संयुक्त है एवं गुण तथा पर्यायका अाधार है सो द्रव्य कहा जाता है। यही लक्षण तत्त्वार्थसूत्रमें भी किया है कि “गुणपर्यय वद्रव्यम्' “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' । यह द्रव्य जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अाकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय काल इन भेदोंसे छह प्रकारका होता है । सावयव वस्तुके समूहको अस्तिकाय कहते हैं। कालको छोड़कर शेष द्रव्य सप्रदेशी हैं, इसलिए जैनन्यायमें कालको वर्जकर सबके साथ 'अस्तिकाय' शब्दका प्रयोग किया गया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यने श्रात्माको अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अरस, भूतोंके चिन्होंसे अग्राह्य, निराकार तथा चेतना गुणवाला अथवा चैतन्य माना है। १ यह शेयाधिकार में कही हुई गाथाका छायानुवाद है। ८० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन रूप, रस गंध, स्पर्श गुणवाले तेज, जल, पृथ्वी, वायुका पुद्गल शब्दसे व्यवहार होता है क्योंकि ये 'पूरण-गलन' स्वभाव वाले होते हैं । पुद्गल द्रव्य सूक्ष्म और स्थूल भेदसे दो प्रकारका होता है । उसके सूक्ष्मपनेकी अन्तिम हद परमाणु पर जाकर होती हैं । तथा परमाणुअोंके संघात भावको प्राप्त हुए पृथिवी, अादिक स्थूल कहलाते हैं । जीव और पुद्गलोंकी गतिमें सहायकको धर्म कहते हैं तथा गति-प्रतिबन्धक 'अधर्म' नामसे पुकारा जाता है। अवकाश देनेवाले पदार्थको 'श्राकाश' कहकर बोलते हैं । द्रव्यके पर्यायोंका परिणमन करनेवाला काल कहलाता है। ___ यह छह प्रकारके द्रव्योंका भेद लक्षण सहित दिखलाया गया है । सम्पूर्ण वस्तुज्ञान इन ही का प्रसार है, ऐसा इस दर्शन का मत है । जैनदर्शनका प्रमाण भी वेदान्त सिद्धान्तसे मिलता जुलता है। इनके यहां अपना और पर पदार्थका अापही निश्चय करनेवाला, स्वपर-प्रकाशक ज्ञानही 'प्रमाण' कहलाता है तथा इसके लिए आत्मा शब्दका भी व्यवहार होता है; क्योंकि यही ज्ञान प्रात्मा है। यह प्रत्यक्ष तथा परोक्ष भेदसे दो प्रकारका होता है । सांव्यवहारिक तथा परमार्थिक भेदसे प्रत्यक्ष भी दो प्रकारका कहा गया है। इन्द्रिय व मनकी सहायतासे जो ज्ञान होता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। चक्षु और मन तो विषयका दूर रहने पर भी अनुभव करलेते हैं परन्तु बाकी इन्द्रियां विषयका समीप्य प्राप्त होने पर ही विशेष संयोग द्वारा अनुभव कर सकती हैं। इसलिए जैनागम मन और चक्षुको अप्राप्यकारी तथा बाकी चारों ज्ञानेन्द्रियोंको प्राप्यकारी कहता है । इन्द्रियोंके भेदसे उनके अनुसार इसके भी भेद होते हैं । जैनी लोग व्यवहारके निर्वाह करनेवाले प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्पक्ष कहते हैं। इसका दूसरा नाम मतिज्ञान भी है । यह इसके भेदोंके साथ कह दिया गया है। अब मय भेदोंके पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। ____ जो प्रत्यक्ष किसी भी इन्द्रियकी सहायता न लेकर वस्तुका अनुभव कर ले वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाता है। यही वास्तविक प्रत्यक्ष कहने योग्य है । बाकी प्रत्यक्ष तो लोकयात्राके लिए स्वीकार किया है। यह विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष और सकल पारमार्थिक प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकारका होता है। जो प्रत्यक्ष पूर्वोक्त प्रकारसे रूपी पदार्थोंका ही अनुभव कर सकता हो वह अरूपी पदार्थोंके अनुभवसे हीन होनेके कारण विकल परमार्थिक प्रत्यक्ष कहलाता है । जो तीनों कालोंमें से किसी भी कालके रूपी अरूपी प्रत्येक वस्तुका अनुभव कर लेता है, वह सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष होता है । इसका दूसरा नाम केवलज्ञान भी है । इस ज्ञानवाले केवली कहे जाते हैं । यही ज्ञानकी चरम सीमा है । यह मुक्त पुरुषोंके सिवा दूसरोंको नहीं हो सकता । ८१ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अवधि और मनःपर्यय इन दो भेदोंसे विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष दो प्रकारका होता है। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावकी अपेक्षासे विना इन्द्रियोंकी सहायताके रूपी पदार्थों को समर्याद जाने वह अवधिको लिये हुए होनेके कारण अवधि पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है अन्य जीवोंके मानसिक विषय बने हुए रूपी पदार्थों के पूर्वोक्त प्रकारके अनुभवको मनःपर्यय विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसतरह यह पारमार्थिक प्रत्यक्ष अवधि, मनःपर्यय, तथा केवल इन तीन ज्ञानोंमें समाप्त हो जाता है। जो किसी भी रूपमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञानकी सहायतासे हो वह ज्ञान परोक्षज्ञान कहा जाता है । वह स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान और प्रागम के भेदसे पांच प्रकारका होता है। इनके जो लक्षण अन्य शास्त्रोंने किये हैं उनसे मिलते जुलते ही जैन शास्त्रोंने भी किये हैं। इसलिए वे सबमें प्रसिद्ध हैं। अतएव अनुमान आदिके लक्षण आदि यहां देनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। यही परोक्ष ज्ञान श्रुतज्ञानके नामसे भी व्यवहृत होता है । इस प्रकार प्रमाण माना हुअा ज्ञान अपने अमित भेदोंको भी साथ लेकर (१) मति (२) श्रुत (३) अवधि (४) मनःपर्यय और (५) केवल, इन पांच ज्ञानोंके अन्दर गतार्थ हो जाता है । अन्य दर्शनोंने किसीको नित्य और किसीको अनित्य माना है, पर यह दर्शन कहता है कि श्रादोपमाव्योमसमस्वभाव स्याद्वादमुद्रानति भेदि वस्तु। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् इति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापा ॥ यह बात नहीं है कि आकाश ही नित्य हो, यह और दीपक दोनों ही एकसे स्वभाव वाले हैं। दोनों ही क्यों ? कोई भी वस्तु उस स्वभावका अतिक्रमण नहीं कर सकती, क्योंकि सबके मस्तकपर स्याद्वाद यानी अनेकान्त स्वभावकी छाप लगी हुई है। जो किसीको नित्य, पुनः किसीको अनित्य कहते हैं वे अकारण जैन शास्त्रके साथ द्वेष करते हैं। स्याद्वाद शब्दमें स्यात् यह अनेकान्त रूप अर्थका कहनेवाला अव्यय है ? अतएव स्यादवादका अर्थ अनेकान्तवाद कहा जाता है। परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म, अपेक्षासे एक ही वस्तुमें प्रतीत होते हैं; जैसे द्रव्यत्व रूपसे नित्यता तथा पर्यायरूपसे अनित्यता प्रत्येक वस्तुमें प्रतीत होती है। इसीको अनेकान्तवाद कहते हैं । एकान्तसे नित्य, अनित्य आदि कुछ भी नही है किन्तु अपेक्षासे सब हैं। कोई कोई विद्वान् इसे अपेक्षावाद भी कहते हैं। यह दर्शन प्रमाण और नयसे पदार्थकी सिद्धि मानता है। प्रमाण तो कह चुके हैं अब नयका भी निरूपण करते हैं। अनन्त धर्म वाली वस्तुके किसी एक धर्मका अनुभव करने वाले ज्ञानको नय कहते हैं। क्योंकि वस्तुका मति, श्रुतज्ञान होनेपर भी उसके समस्त धर्मोंका ज्ञान नहीं हो सकता । उसके किसी एक अंशके अनुभवका निरूपण, नयसे भली भांति हो जाता है। ८२ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन द्रव्य मात्रको ग्रहण करने वाला तथा गुण और पर्यायमात्रको ग्रहण करनेवाला नय क्रमसे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक कहलाता है । नैगम, संग्रह और व्यवहार नयके भेदसे तीन प्रकारका द्रव्यार्थिक होता है इसी तरह ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत यह चार प्रकारका पर्यायार्थिक न होता है । वस्तुका प्रत्यक्ष करते समय श्रारोप तथा विकल्पको नैगम नय ग्रहण करता है । एकके ग्रहण में तजातीय सबका ग्रहण करनेवाला संग्रह नय होता है । पृथक् पृथक् व्यवहारानुसार ग्रहण करनेवाला व्यवहार नय है । वर्तमान पर्यायको ग्रहण करना ऋजुसूत्रनयका कार्य है । व्याकरणसिद्ध प्रकृति, प्रत्यय, लिंग आदि ग्रहण करनेवालेको शब्दनय कहते हैं | पर्यायवाचक शब्दोंकी व्युत्पत्तिके भेद से भिन्न प्रथको ग्रहण करनेवालेका नाम समभिरूढ़ नय है । अन्वयार्थक संज्ञावाले व्यक्तिका उस कामको करनेके क्षण में ग्रहण करनेवाला एवंभूत नय है । जब प्रमाण अपने ज्ञेय विषयों को जानते है तब ये नय उनके अंग होकर ज्ञान प्राप्तिमें सहायता पहुंचाते हैं । इसलिए तत्त्वार्थ सूत्रकारने वस्तुके निरूपण में एक ही साथ इनका उपयोग माना है । निक्षेप इसी तरह वस्तुके समझानेके लिए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपका भी उपयोग होता है । अन्त में यह सिद्धान्त व्याकरण महाभाष्यकार की 'चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः से मिलता जुलता है । साधारणतः संज्ञाको नाम' तथा झूठी सांची श्रारोपणाको स्थापना, एवं कार्यक्षमताको द्रव्य और प्रत्युपस्थित कार्य या पर्यायको भाव कहते हैं । जैन तंत्र वस्तु के निरूपण में इतने उपकरणों की अपेक्षा रखनेवाला होनेके कारण प्रथम कक्षाके लोगों के लिए दुरुह सा हो गया है। पर इसके मूल तत्त्व समझमें या जानेके बाद कोई कठिनता नहीं मालूम होती । इसी तरह क्षेत्र, काल और स्वामी श्रादिका ज्ञान भी आसान हो जाता है । लोकका स्वरूप एक हजार मनका लोहेका गोला इन्द्रलोकसे नीचे गिरकर छह मास में जितनी दूर पहुंचे उस सम्पूर्ण लम्बाईको एक राजू कहते हैं । नृत्य करते हुए भोंपाके समान श्राकार वाला यह ब्रह्माण्ड सात राजू चौड़ा और सात राजू मोटा तथा चौदह राजु ऊंचा (लम्बा ) है । अन्य दर्शनोंके समान जैन दर्शन भी स्वर्ग, नरक तथा इन्द्रादि देवताओं के जुदे जुदे लोक मानता है । जीवात्माका विस्तार — यह दर्शन जीवात्माको समस्त शरीर व्यापी मानता है । छोटे बड़े शरीरों में दीपकके समान जीवात्मा के भी संकोच विकास होते रहते हैं । परन्तु मुक्त जीव अन्तिम शरीर से कुछ कम होता है । १. लेखक महोदयने किसी ग्रन्थके आधार से तीन भाग कम लिखा है । ८३ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जीवके भेद ___पृथिवी, जल, वायु, तेज और वनस्पति शरीर वाले जीव स्थावर कहलाते हैं। इनको स्पर्शका ही विशेष रूपसे भान होता है । शेष स्पर्शादि द्वि इन्द्रियोंसे लेकर पांच इन्द्रिय वाले मनुष्य, आदि त्रस कहलाते हैं । कारण, इनमें अपनी रक्षा करने की चेष्टा होती है। मुक्त जीव ___ संवर और निर्जर।के प्रभावसे श्रास्रवका बन्धन छूटकर अात्म-प्रदेशोंमें से कर्मों के संयोगको तोड़ कर नाश कर दिया जाता है। तब जीव अपने आप ऊर्ध्व गमन करता हश्रा मुक्त हो जाता है। फिर उसका जन्म मरण नहीं होता। अहिंसा परमो धर्मः इस दर्शनके अनुयायियोंमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, अादि सार्वभौम छह व्रतोंकी उपासना प्रधान रूपसे होती है। सब धोंके मूल अहिंसा व्रतकी उपासना करनेके कारण इन्हें 'अहिंसा परमो धर्मः'का अनुयायी कहा जाता है । ___ यत्र तत्र आये श्राचयोंके ईर्षा द्वेष सूचक अक्षरोंको पृथक् करके दर्शनके मूल सिद्धान्तोंपर विचार किया जाय तो वे सिद्धान्त वेदसे परिवर्द्धित सनातन ही प्रतीत होते हैं । कारण, भगवान वेदव्यासके न्यास भाष्यसे मूल जैनदर्शन, बिलकुल मिलता जुलता है । रही अापसके खण्डन मण्डनकी बात, सो हर एक दार्शनिकको उसमें पूरी स्वतंत्रता रही है जब वेदान्त-ब्रह्मसूत्रने अपने बराबरके योग शास्त्रके सिद्धान्तोंके लिए भी कह दिया है कि 'एतेन योगः प्रत्युक्तः' इससे योग प्रत्युक्त कर दिया गया, तब हम वेदके विचारोंके अतिरिक्त दार्शनिक खण्डन मण्डनपर ध्यान नहीं देते। उसमें तत्त्व ही ढूंढते हैं। __ अहिंसाको मुख्यतया मानने वाला यह दर्शन महावीर स्वामीके निर्वाण के बाद भी अहिंसाके मुख्य सिद्धान्तोंका संग्राहक रहा इसी कारण अग्रोहाधिप महाराज अग्रसेनजीकी सन्तानोंने अपनेको इस धर्ममें दीक्षित किया था। प्रायः जब किसी दर्शनका अनुयायी समुदाय अधिक जन हो जावेगा तबही उसके जुदे जुदे मण्डल खड़े होने लग जायगे । एक दुर्भिक्षके बाद जैनोंमें भी श्वेताम्बर नाम से दूसरा सम्प्रदाय बन गया। . महाराज अग्रसेनकी जैनसन्तानोंने दिगम्बर पथका अनुसरण किया, जो अब भी जैनसमुदायमें सरावगी कह कर पुकारे जाते हैं । वे प्रायः वैदिक संस्कार तथा अहिंसा व्रत दोनों ही का पालन करते हैं । इनमें अग्रवालों की संख्या अधिक है। सरावगी लोग वैदिक विधिसे ही उपवीत धारण करते हैं। दिगम्बर सम्प्रदायमें पहिले मूर्ति पूजाको न माननेवाला लगभग हजार व्यक्तियोंका एक समुदाय निकला था पर उसकी अधिक वृद्धि न हो सकी । काल पाकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी 'संवेगी' और 'बाईस १. सब सरावगी अग्रवाल जैनी ऐसा करते हैं ; ऐसा नहीं है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन टोला' इन दो भागोंमें बट गया । संवेगी लोग अधिक सूत्र ग्रंथ माना करते हैं पर इनमें से बाइसटोलाने थोड़ेसे हो सूत्र ग्रंथोंको प्रमाण माना है । अाजसे करीब दो सौ वर्षके पहिले बाईसटोलासे निकलकर श्री भीखमदासजी मुनिने तेरह पंथ नामका एक पन्थ चलाया। इसमें सूत्रोंकी मान्यता तो बाईसटोलाके बराबर है परन्तु स्वामी दयानन्दके सत्यार्थ प्रकाशकी तरह इन्होंने भी भ्रम विध्वंसन और अनुकम्पाकी ढाल बना रखी है। इस मतने दया दानका बड़ा अपवाद किया है। जैन साधुमें सत्ताईस गुण' रहने चाहिये । उसका अाहार भी सेंतालीस दोषोंसे रहित होना चाहिये । मठधारी यतियोंको छोड़करके शेष सर्व जैनसाधुत्रोंमें कष्ट सहनेकी अधिक शक्ति पायी जाती है । तेरह पंथ तथा बाईसटोलाके साधु गण मुख पर पट्टी बांधते हैं । संवेगी साधु उसे हाथ ही में रखते हैं । बाकी साधुओंमें इसका व्यवहार नहीं है, शास्त्रोंमें इनका नाम श्रमण है । अन्य सम्प्रदायोंमें साधारण लोग यतियों के सिवा इन साधुओंको ढूंढ़िया कहकर व्यवहार करते हैं । पहले तो इसका अधिकांश प्रचार यतियोंने ही किया था। सम्प्रदायोंकी प्रतिद्वन्दित के साथ कुछ लोग यह भी समझने लग गये हैं कि हमारा सनातन धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं । कतिपय सम्प्रदायोंने तो अपना रूप भी ऐसा ही बना लिया है कि मानों इनका सनातन धर्मके साथ कभी कोई सम्बन्धी नहीं रहा था । यह भोले लोगोंकी नासमझी ही है । जैनधर्मके परिरक्षकोंने जैसा पदार्थके सूक्ष्म तत्त्वका विचार किया है उसे देखकर अाजकल के दार्शनिक बड़े विस्मयमें पड़ जाते हैं, वे कहते हैं कि महावीर स्वामी अाजकलके विज्ञानके सबसे पहिले जन्मदाता थे । जैनधर्मकी समीक्षा करते समय कई एक सुयोग्य प्राध्यापकोंने ऐसा ही कहा है । श्री महावीर स्वामी ने गोसाल जैसे विपरीत वृत्तियोंको भी उपदेश देकर हिंसाका काफी निवारण किया। भगवान बुद्ध देव व महावीर स्वामीके उपदेश उस समयकी प्रचलित भाषाओं में ही हुश्रा करते थे जिससे सब लोग सरलतासे समझ लिया करते थे। उस समयकी भाषायोंके व्याकरण हेमेन्द्र तथा प्राकृतप्रकाशके देखनेसे पता चलता है कि वह भाषा अपभ्रंशके रूपको प्राप्त हुई संस्कृत भाषा ही थी । उसी को धर्मभाषा बना लेनेके कारण श्री बुद्ध भगवान और महावीर स्वामीके सिद्धान्त प्रचलित तो खूब हुए पर भाषाके सुधारकी ओर ध्यान न जानेके कारण संस्कृतिको स्थिति और अधिक बिगड़ गयो । जिससे वेदोंकी भाषाका समझना नितान्त कठिन होकर वैदिकों की चिन्ताका कारण बन गया। १. गुणोंकी यह संख्या श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार है । दि० स० के अनुसार साधुके २८ मूलगुण हैं। इसी तरह आहार दोषोंकी संख्या भी ४६ मानी गयी है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा जैनदर्शन श्री अम्बुजाक्ष सरकार, एम. ए., बी. एल. पुण्यभूमि भारतवर्ष में वैदिक ( हिन्दू ) बौद्ध और जैन इन तीन प्रधान धर्मोंका अभ्युत्थान हुआ है । यद्यपि बौद्धधर्म भारतके अनेक सम्प्रदायों और अनेक प्रकारके आचारों व्यवहारोंमें अपना प्रभाव छोड़ गया है, परन्तु वह अपनी जन्मभूमिसे खदेड़ दिया गया है और सिंहल, ब्रह्मदेश, तिब्बत, चीन, श्रादि देशोंमें वर्तमान है । इस समय हमारे देशमें बौद्धधर्मके सम्बन्धमें यथेष्ट आलोचना होती है, परन्तु जैन धर्मके विषयमें अब तक कोई भी उल्लेख योग्य पालोचना नहीं हुई। जैनधर्मके सम्बन्धमें हमारा ज्ञान बहुत ही परिमित है । स्कूलोंमें पढ़ाये जाने वाले इतिहासोंके एक दो पृष्ठोंमें ती० महावीर द्वारा प्रचारित जैन धर्मके सम्बन्धमें जो अत्यन्त संक्षिप्त विवरण रहता है, उसको छोड़कर हम कुछ नहीं जानते । जैनधर्म सम्बन्धी विस्तृत अालोचना करनेकी लोगोंकी इच्छा भी होती है, पर अभी तक उसके पूर्ण होनेका कोई विशेष सुभीता नहीं है। कारण दो चार ग्रन्थोंको छोड़कर जैनधर्म सम्बन्धी अग णित ग्रन्थ अभी तक भी अप्रकाशित हैं; भिन्न भिन्न मंदिरोंके गुप्त भण्डारोंमें जैन ग्रन्थ छिपे हुए हैं, इसलिए पठन या आलोचना करनेके लिए वे दुर्लभ हैं। हमारी उपेक्षा तथा अज्ञता बौद्ध धर्मके समान जैनधर्मकी आलोचना क्यों नहीं हुई ? इसके और भी कई कारण हैं । बौद्ध धर्म पृथिवीके एक तृतीयांश वासियोंका धर्म है, किन्तु भारतके चालीस करोड़ लोगोंमें जैनधर्मावलम्बी केवल लगभग बीस लाख हैं । इसी कारण बौद्धधर्मके समान जैन धर्मके गुरुत्वका किसीको अनुभव नहीं होता । इसके अतिरिक्त भारतमें बौद्ध-प्रभाव विशेषताके साथ परिस्फुटित है। इसलिए भारतके इतिहासकी अालोचनामें बौद्धधर्मका प्रसङ्ग स्वयं ही अाकर उपस्थित हो जाता है । अशोकस्तम्भ, चीनी यात्री हुयेनसांगका भारतभ्रमण, आदि जो प्राचीन इतिहासकी निर्विवाद बातें हैं उनका बहुत बड़ा भाग वौद्धधर्मके साथ मिल हुअा है भारतके कीर्तिशाली चक्रवर्ती राजारोंने बौद्धधर्मको राजधर्मके रूपमें ग्रहण किया था, इसलिए किसी समय हिमालयसे लेकर कन्याकुमारी तककी समस्त भारतभूमि पीले कपड़ेवालोंसे व्याप्त हो गयी थी । किन्तु भारतीय इतिहासमें जैनधर्मका प्रभाव कहां तक विस्तृत हुअा था यह अब तक भी पूर्ण रूपसे मालुम नहीं होता है । भारतके विविध स्थानोंमें जैन कीर्तिके जो अनेक ध्वंसावशेष अब भी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा जैनदर्शन वर्तमान हैं उनके सम्बन्धमें अच्छी तरह अनुसन्धान करके ऐतिहासिक तत्त्वोंको खोजनेकी कोई उल्लेख योग्य चेष्टा नहीं हुई है। हां: कछ वर्षों से अति साधारण चेष्टा हई है। मैसूर राज्यके श्रवणबेलगोला नामक स्थानके चन्द्रगिरि पर्वतपर जो थोड़ेसे शिलालेख प्राप्त हुए हैं, उनसे मालूम होता है कि मौर्यवंशके प्रतिष्ठाता महाराज चन्द्रगुप्त जैन मतावलम्बी थे। इस बातको श्री विन्संट स्मिथने अपने भारतके इतिहासके तृतीय संस्करण ( १९१४ ) में लिखा है परन्तु इस विषयमें कुछ लोगोंने शंका की है किन्तु अब अधिकांश मान्य विद्वान इस विषयमें एकमत हो गये हैं । जैन शास्त्रोंमें लिखा है कि महाराज चन्द्रगुप्त (छट्टे ?) पांचवे श्रुतकेवली भद्रबाहुके द्वारा जैन धर्ममें दीक्षित किये गये थे और महाराज अशोक भी पहले अपने पितामह से ग्रहीत जैनधर्मके अनुयायी थे; पर पीछे उन्होंने जैन धर्मका परित्याग करके बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया था । भारतीय विचारोंपर जैन धर्म और जैन दर्शनने क्या प्रभाव डाला है, इसका इतिहास लिखनेके समग्र उपकरण अब भी संग्रह नहीं किये गये हैं । पर यह बात अच्छी तरह निश्चित हो चुकी है कि जैन विद्वानोंने न्यायशास्त्रमें बहुत अधिक उन्नति की थी। उनके और बौद्ध नैयायिकोंके संसर्ग और संघर्षके कारण प्राचीन न्यायका कितना ही अंश परिवर्तित और परिवर्तित किया गया और नवोन न्यायके रचनेकी आवश्यकता हुई थी। शाकटायन, अादि वैयाकरण, कुन्दकुन्द, उमास्वामि, सिद्धसेन, दिवाकर भट्टाकलङ्कदेव, आदि नैयायिक, टीकाकृत्कुलरवि मल्लिनाथ, कोषकार अमरसिंह, अभिधानकार, पूज्यपाद, हेमचन्द्र, तथा गणितज्ञ महावीराचार्य, आदि विद्वान जैनधर्मावलम्बी थे । भारतीय ज्ञान भण्डार इन सबका बहुत ऋणी है। __ "अच्छी तरह परिचय तथा आलोचना न होनेके कारण अब भी जैनधर्मके विषयमें लोगोंके तरह तरहके ऊटपटांग खयाल बने हैं । कोई कहता था यह बौद्ध धर्मका ही एक भेद है। कोई कहता था कि वैदिक ( हिन्दू ) धर्ममें जो अनेक सम्प्रदाय हैं, इन्हींमें से यह भी एक है जिसे महावीर स्वामीने प्रवर्तित किया था। कोई, कोई कहते थे कि जैन आर्य नहीं हैं, क्योंकि वे नग्नमूर्तिोंको पूजते हैं। जैनधर्म भारत के मूलनिवासियोंके किसी एक धर्म सम्प्रदायका केवल एक रूपान्तर है। इस तरह नाना अनभिज्ञताओं के कारण नाना प्रकारकी कल्पनात्रोंसे प्रसूत भ्रान्तियां फैल रही थी, उनकी निराधारता अब धीरे धीरे प्रकट होती जाती है। जैनधर्म बौद्ध धर्मसे अति प्राचीन यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाखा नहीं है महावीर स्वामी जैनधर्मके स्थापक नहीं हैं, उन्होंने केवल प्राचीन धर्मका प्रचार किया था। महावीर या वर्द्धमानस्वामी बुद्धदेवके समकालीन थे । बुद्धदेवने बुद्धत्व प्राप्त करके धर्मप्रचार कार्यका व्रत लेकर जिस समय धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, उस समय महावीर स्वामी एक सर्व विश्रुत तथा मान्य धर्मशिक्षक थे। बौद्धोंके त्रिपिटक ८७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ नामक ग्रन्थमें 'नातपुत्त' नामक जिस निर्ग्रन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख है, वह 'नातपुत्त' ही महावीर स्वामी हैं उन्होंने ज्ञातृ नामक क्षत्रियवंशमें जन्म ग्रहण किया था, इसलिए वे ज्ञातृपुत्र' (पाली भाषामें जा[ना]तपुत्त) कहलाते थे । जैन मतानुसार महावीर स्वामी चौबीसवें या अन्तिम तीर्थंकर थे। उनके लगभग २०० बर्ष पहले तेईसवें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ स्वामी हो चुके थे । अब तक इस विषयमें सन्देह था कि पार्श्वनाथ स्वामी ऐतिहासिक व्याक्ति थे या नहीं परन्तु डा० हर्मन जैकोवीने सिद्ध किया है कि पार्श्वनाथने ईसा पूर्व आठवीं शताब्दिमें जैनधर्मका प्रचार किया था । पार्श्वनाथके पूर्ववर्ती अन्य बाईस तीर्थकरोंके सम्बन्धमें अबतक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला है। दिगम्बर मूल परम्परा है "तीर्थिक, निर्ग्रन्थ और नग्न नाम भी जैनोंके लिए व्यवहृत होते हैं । यह तोसरा नाम जैनोंके प्रधान और प्राचीनतम दिगम्बर सम्प्रदायके कारण पड़ा है । मेगस्थनीज इन्हें नग्न दार्शनिक (Gymnosphists) के नामसे उल्लेख करता है। ग्रीसदेशमें एक ईलियाटिक नामका सम्प्रदाय हुअा है। वह नित्य, परिवर्तनरहित एक अद्वैत सत्तामात्र स्वीकार करके जगतके सारे परिवर्तनों, गतियों और क्रियात्रोंकी संभावनाको अस्वीकार करता है । इस मतका प्रतिद्वन्द्वी एक 'हिराक्लोटियन' सम्प्रदाय हुअा है वह विश्वतत्त्व (द्रव्य) की नित्यता सम्पूर्ण रूपसे अस्वीकार करता है। उसके मतसे जगत सर्वथा परिवर्तनशील है। जगत् स्रोत निरवाध गतिसे बह रहा है, एक क्षणभरके लिए भी कोई वस्तु एक भावसे स्थित होकर नहीं रह सकती । ईलियाटिक-सम्प्रदायके द्वारा प्रचारित उक्त नित्यवाद और हिराक्लीटियन सम्प्रदाय द्वारा प्रचारित परिवर्तन-वाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेक रूपोंमें नाना समस्याओंके आवरणमें प्रकट हुए हैं । इन दो मतोंके समन्वयकी अनेक बार चेष्टा भी हुई है; परन्तु वह सफल कभी नहीं हुई । वर्तमान समयके प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गसान (Bergson) का दर्शन हिराक्लीटियनके मतका ही रूपान्तर है। भारतीय नित्य-अनित्यवाद वेदान्त दर्शनमें भी सदासे यह दार्शनिक विवाद प्रकाशमान हो रहा है। वेदान्तके मतसे केवल नित्यशुद्ध-बुद्घ-मुक्त सत्य स्वभाव चैतन्य ही 'सत्' है, शेष जो कुछ है वह केवलनाम रूपका विकार 'माया प्रपञ्च'-'असत्' है । शङ्कराचार्य ने सत् शब्दकी जो व्याख्या की है उसके अनुसार इस दिखलायी देनेवाले जगतप्रपञ्चकी कोई भी वस्तु सत् नहीं हो सकती । भूत, भविष्यत् , वर्तमान इन तीनों कालोंमें जिस वस्तुके सम्बन्धमें बुद्धिको भ्रान्ति नहीं होती, वह सत् है और जिसके सम्बन्धमें व्यभिचार होता है १. दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थों में महावीर स्वामीके वंशका उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय ही "शातृ" के प्राकृत रूप 'णात' का ही रूपान्तर है। ८८ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा जैनदर्शन वह असत् है ' । जो वर्तमान समयमें है, वह यदि अनादि अतीतके किसी समयमें नहीं था और अनन्त भविष्यत्के भी किसी समयमें नहीं रहेगा, तो वह सत् नहीं हो सकता-वह असत् है। परिवर्तनशील असद्वस्तुके साथ वेदान्तका कोई सम्पर्क नहीं है ! वेदान्त दर्शन केवल अद्वैत सद्ब्रह्मका तत्त्व दृष्टिसे अनुसन्धान करता है । वेदान्तकी यही प्रथम बात है 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' और यही अन्तिम बात है। क्योंकि-"तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।” "वेदान्तके समान बौद्धदर्शनमें कोई त्रिकाल अव्यभिचारी नित्य वस्तु नहीं मानी गयी है बौद्ध क्षणिकवादके मतसे "सर्व क्षणं क्षणं?' । जगत्स्रोत अप्रतिहततया अबाध गतिसे बराबर वह रहा है-क्षणभरके लिए भी कोई वस्तु एक ही भावसे एक ही अवस्थामें स्थिर होकर नहीं रह सकती । परिवर्तन ही जगतका मूलमंत्र है ! जो इस क्षणमें मौजूद है, वह अागामी क्षणमें ही नष्ट हो कर दूसरा रूप धारण कर लेता है । इस प्रकार अनन्त मरण और अनन्त जीवनोंकी अनन्त क्रीड़ाएं इस विश्वके रंगमंचपर लगातार हुआ करती हैं । यहां स्थिति, स्थैर्य, नित्यता असंभव है। जैन-अनेकान्त-- "स्याद्वादी जैनदर्शन वेदान्त और बौद्धमतकी अांशिक सत्यताको स्वीकार करके कहता है कि विश्वतत्त्व या द्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी । वह उत्पत्ति, ध्रुवता और विनाश इन तीन प्रकारकी परस्पर विरुद्ध अवस्थात्रोंसे से युक्त है । वेदान्त दर्शनमें जिसप्रकार 'स्वरूप' और 'तटस्थ' लक्षण कहे गये हैं उसी प्रकार जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुको समझानेके लिए दो तरहसे निर्देश करनेकी व्यवस्था है । एक को कहते हैं 'निश्चयनय' और दूसरेको कहते हैं 'व्यवहार नय' । स्वरूपलक्षणका जो अर्थ है, ठीक वही अर्थ निश्चयनयका है । वह वस्तुके निज भाव या स्वरूपको बतलाता है । व्यवहारनय वेदान्तके तटस्थ लक्षणके अनुरूप है । उससे वक्ष्यमाण वस्तु किसी दूसरी-वस्तुकी अपेक्षासे वर्णित होती है । द्रव्य निश्चय नयसे ध्रुव है किन्तु व्यवहारनयसे उत्पत्ति और विनाशशील है, अर्थात् द्रव्यके स्वरूप या स्वभावकी अपेक्षा से देखा जाय तो वह नित्य स्थायी पदार्थ है, किन्तु साक्षात् परिदृश्यमान व्यवहारिक जगतकी अपेक्षासे देखा जाय तो वह अनित्य और परिवर्तनशील है। द्रव्यके सम्बन्धमें नित्यता और परिवर्तन अांशिक या अपेक्षिक भावसे सत्य है-पर सर्वथा एकान्तिक सत्य नहीं है । वेदान्तने द्रव्यकी नित्यताके ऊपर ही दृष्टि रक्खी है और भीतरकी वस्तुका सन्धान पाकर, बाहरके परिवर्तनमय जगत प्रपञ्चको तुच्छ कह कर उड़ा दिया है; और बौद्ध क्षणिकवादने बाहरके परिवर्तनकी प्रचुरताके प्रभावसे रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्शादिकी विचित्रतामें ही मुग्ध होकर इस वहिर्वैचित्र्यके कारणभूत, नित्य-सूत्र अभ्यन्तरको खो दिया है। पर स्याद्वादी जैनदर्शनने भीतर और बाहर, अाधार आधेय, धर्म और धर्मी, कारण और कार्य, अद्वैत और वैविध्य दोनोंको ही यथास्थान स्वीकार कर लिया है। "१. “यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति तत्सत्, यद्विषया बुद्धिय॑भिचरति तदसत् ।”गीता शांकरभाष्य २–१६ । १२ ८९ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ स्याद्वादकी व्यापकता "इसतरह स्याद्वादने, विरुद्ध वादोंकी मीमांसा करके उनके अन्तःसूत्र रूप आपेक्षिक सत्यका प्रतिपादन करके उसे पूर्णता प्रदान की है । विलियम जेम्स नामके विद्वान् द्वारा प्रचारित Pragmtaism वादके साथ स्याद्वादकी अनेक अंशोंमें तुलना हो सकती है । स्याद्वादका मूलसूत्र जुदे, जुदे दर्शन शास्त्रोंमें जुदे जुदे रूपमें स्वीकृत हुआ है। यहां तक कि शङ्कराचार्य ने पारमार्थिक-सत्यसे व्यवहारिक सत्यको जिस कारण विशेष रूपमें माना है, वह इस स्याद्वादके मूलसूत्रके साथ अभिन्न है। श्रीशंकराचार्यने परिदृश्यमान या दिखलायी देनेवाले जगतका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया है, उन्होंने केवल इसकी पारमार्थिक सत्ताको अस्वीकार किया है। बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवादके विरुद्ध उन्होंने जगतकी व्यवहारिक सत्ताको अत्यन्त दृढ़ताके साथ प्रमाणित किया है। समतल भूमिपर चलते समय एक तल, द्वितल. त्रितल, आदि उच्यताके नाना प्रकारके भेद हमें दिखलायी देते हैं, किन्तु बहुत ऊंचे शिखरसे नीचे देखनेपर सतखंड। महल और कुटिय में किसी प्रकारका भेद नहीं जान पड़ता। इसी तरह ब्रह्मबुद्धिसे देखनेपर जगत मायाका विकास, ऐन्द्रजालिक रचन। अर्थात् अनित्य है; किन्तु साधारण बुद्धि से देखनेपर जगतकी सत्ता स्वीकार करना ही पड़ती है । दो प्रकारका सत्य दो विभिन्न दृष्टियोंके कारणसे स्वयं सिद्ध है ! वेदान्तसारमें मायाको जो प्रसिद्ध 'संज्ञा दी गयी है, उससे भी इस प्रकारकी भिन्न दृष्टिोंसे समुत्पन्न सत्यताके भिन्न रूपोंकी स्वीकृति इष्ट है । बौद्ध दृश्यवादमें शून्यका जो व्यतिरेकमुख लक्षण किया है, उसमें भी स्याद्वादकी छाया स्पष्ट प्रतीत होती है। अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति दोनों, अस्ति-नास्ति दोनों नहीं, इन चार प्रकारकी भावनाओंके जो परे हैं, उसे शून्यत्व कहते हैं । इसप्रकार पूर्वी और पश्विमी दर्शनोंके जुदे जुदे स्थानोंमें स्याद्वादका मूल सूत्र तत्त्वज्ञानके कारण रूपसे स्वीकृत होनेपर भी, त्याद्वादको स्वतंत्र उच्च दार्शनिक मतके रूपमें प्रसिद्ध करनेका गौरव केवल जैनदर्शनको ही मिल सकता है । जैन सृष्टिक्रम-- ___जैनदर्शनके मूलतत्त्व या द्रव्यके सम्बन्धमें जो कुछ कहा गया है उससे ही मालूम हो जाता है कि जैनदर्शन यह स्वीकार नहीं करता कि सृष्टि किसी विशेष समयमें उत्पन्न हुई है । एक ऐसा समय था जब सृष्टि नहीं थी, सर्वत्र शून्यता थी, उस महाशून्यके भीतर केवल सृष्टिकर्ता अकेला विराजमान था और ऊसी शून्यसे किसी एक समयमें उसने उस ब्रह्माण्डको बनाया। इस प्रकारका मत दार्शनिक दृष्टि से अतिशय भ्रमपूर्ण है । शून्यसे ( असत्से ) सत्की उत्पत्ति नहीं हो सकती । सत्कार्य वादियोंके मतसे केवल सत्से ही सत्की उत्पत्ति होना सम्भव है | सत्कार्यवादका यह मूलसूत्र संक्षेपमें भगवद्गीतामें मौजूद है । सांख्य और वेदान्तके समान जैनदर्शन भी सत्कार्यवादी है ! १. “सदसदुभयानुभय-चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं शून्यत्वम्"--- २. "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।” Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा जैनदर्शन "जैनदर्शनमें 'जीव' तत्त्वकी जैसी विस्तृत श्रआलोचना है वैसी और किसी दर्शनमें नहीं है । "वेदान्त दर्शनमें संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध इन तीन प्रकारके कर्मोंका वर्णन है। जैनदर्शनमें इन्हींको यथाक्रम सत्ता, बन्ध और उदय कहा है । दोनों दर्शनोंमें इनका स्वरूप भो एकसा है । “सयोग केवली और अयोग केवली अवस्थाके साथ हमारे शास्त्रोंकी जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्तिकी तुलना हो सकती है । जुदे, जुदे गुणत्थानोंके समान मोक्ष प्राप्तिकी जुदी जुदी अवस्थाएं वैदिक दर्शनोंमें मानी गयी हैं । योगवाविष्ठमें शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, संसक्ति, पदार्थाभावनी और नूर्यगाः इन सात ब्रह्मविद् भूमियोंका वर्णन किया गया है । "संवर तत्त्व और 'प्रतिमा' पालन, जैनदर्शनका चारित्र मार्ग है । इससे एक ऊंचे स्तरका नैतिक श्रादर्श प्रतिष्ठापित किया गया है । सब प्रकारसे आसक्ति रहित होकर कर्म करना ही साधनाकी भित्ति है। आसक्तिके कारण ही कर्मबन्ध होता है; अनासक्त होकर कर्म करनेसे उसके द्वारा कर्मबन्ध नहीं होगा । भगवद्भीतामें निष्काम कर्मका जो अनुपम उपदेश किया है, जैनशास्त्रोंके चरित्र विषयक ग्रन्थोंमें वह छाया विशदरूपमें दिखलायी देती है। "जैनधर्मने अहिंसा तत्त्वको अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक करके व्यवहारिक जीवनको पग, पगपर नियमित और वैधानिक करके एक उपहासास्पद सीमापर पहुंचा दिया है, ऐसा कतिपय लोगोंका कथन है । इस सम्बन्धमें जितने विधि-निषेध हैं उन सबको पालते हुए चलना इस बीसवीं शतीके जटिल जीवनमें उपयोगी, सहज और संभव है या नहीं, यह विचारणीय है । जैनधर्ममें अहिंसाको इतनी प्रधानता क्यों दी गयी है ! यह ऐतिहासिकों को गवेषणाके योग्य विषय है । जैनसिद्धान्तमें अहिंसा शब्दका अर्थ व्यापकसे व्यापकतर हुअा है। तथा, अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थोंमें वह रूपान्तर भावसे ग्रहण किया गया गीताके निष्काम-कर्म-उपदेशसा प्रतीत होता है । तो भी, पहले अहिंसा शब्द साधारण प्रचलित अर्थमें ही व्यवहृत होता था, इस विषयमें कोई भी सन्देह नहीं है । वैदिक युगमें यज्ञ-क्रियामें पशुहिंसा अत्यन्त निष्ठुर सीमापर जा पहुंची थी। इस क्रूर कर्मके विरूद्ध उस समय कितने ही अहिंसावादी सम्प्रदायोंका उदय हुआ था, यह बात एक प्रकारसे सुनिश्चित है । वेदमें ‘मा हिंस्यात् सर्व भूतानि' यह साधारण उपदेश रहनेपर भी यज्ञ कर्ममें पशुहत्याकी अनेक विशेष विधियोंका उपदेश होने के कारण यह साधारण विधि (व्यवस्था) केवल विधिके रूपमेंही सीमित हो गयी थी, पद पदपर उपेक्षित तथा उल्लंघित होनेसे उसमें निहित कल्याणकारी उपदेश सदाके लिए विस्मृतिके गर्भ में विलीन हो गया था और अन्तमें 'पशु यज्ञके लिए ही बनाये गये हैं' यह अद्भुत मत प्रचलित हो गया था। * इसके फल स्वरूप वैदिक कर्मकाण्ड: बलिमें मारे गये पशोंके रक्तसे लाल होकर समस्त सात्त्विक भावका विरोधी * “यशार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । अतस्तवां घातयिष्यामि तस्माद्यशे वधोऽवधः ॥" ९१ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ हो गया था। जैन कहते हैं कि उस समय यज्ञकी इस नृशंस पशुहत्याके विरुद्ध जिस जिस मतने विरोधका बीड़ा उठाया था उनमें जैनधर्म सब से आगे था । 'मुनयो वातवसनाः" कहकर ऋग्वेदमें जिन नग्नमुनियों का उल्लेख है, विद्वानोंका कथन है कि वे जैन दिगम्बर संन्यासी ही हैं । "बुद्धदेवको लक्ष्यकरके जयदेवने कहा है 'निन्दसि यज्ञाविधेरहह श्रुतिजातं सदय हृदय दिशति पशुघातम् ?' किन्तु यह अहिंसातत्त्व जैनधर्ममें इसप्रकार अंग-अंगी भावसे संमिश्रित है कि जैनधर्मकी सत्ता बौद्ध धर्मके बहुत पहलेसे सिद्ध होनेके कारण पशुघातात्मक यज्ञ विधिके विरुद्ध पहले पहले खड़े होनेका श्रेय बुद्धदेवकी अपेक्षा जैनधर्मको ही अधिक है । वेदविधिकी निन्दा करनेके कारण हमारे शास्त्रोंमें चार्वाक, जैन और बौद्ध पाषण्ड 'या अनास्तिक' मतके नामसे विख्यात हैं । इन तीनों सम्प्रदायोंकी झूटी निन्दा करके जिन शास्त्रकारोंने अपनी साम्प्रदायिक संकीर्णताका परिचय दिया है, उनके इतिहासकी पर्यालोचना करनेसे मालूम होगा कि जो ग्रन्थ जितना हो प्राचीन है, उसमें बौद्धोंकी अपेक्षा जैनोंको उतनी हो अधिक गाली गलौज की है। अहिंसावादी जैनोंके शान्त निरीह शिर पर किसी किसी शास्त्रकारने तो श्लोक पर श्लोक ग्रथित करके गालियोंकी मूसलाधार बर्षा की है। उदाहरण के तौरपर विष्णु पुराणको ले लीजिये अभी तककी खोजोंके अनुसार विष्णु पुराण सारे पुराणोंसे प्राचीनतम न होनेपर भी अत्यंत प्राचीन है। इसके तृतीय भागके सत्रहवें और अठारहवें अध्याय केवल जैनोंकी निन्दासे पूर्ण हैं । "नग्नदर्शनसे श्राद्धकार्य भ्रष्ट हो जाता है, और नग्नके साथ संभाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता है। शतधनु नामक राजाने एक नग्न पाषण्डसे संभाषण किया था, इस कारण वह कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, गीध और मोरकी . योनियों में जन्म धारण करके अन्त में अश्वमेध यज्ञके जलसे स्नान करनेपर मुक्तिलाभ कर सका।" जैनोंके प्रति वैदिकोंके प्रबल विद्वेषकी निम्नलिखित श्लोकोंसे अभिव्यक्ति होती है "न पठेत् यावनी भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि । हस्तिना पीड्यमानोऽपि न गच्छेज नमन्दिरम् ।।" यद्यपि जैन लोग अनन्त मुक्तात्माओं (सिद्धों ) की उपासना करते हैं, तो भी वास्तवमें वे व्यक्तित्व रहित पारमात्म्य स्वरूपकी ही पूजा करते हैं । व्यक्तित्व रहित होनेके कारण हो जैन पूजा पद्धतिमें वैष्णव और शाक्तमतोंके समान भक्तिकी विचित्र तरङ्गोंकी संभावना बहुत ही कम रह जाती है । बहुत लोग यह भूल कर रहे थे कि बौद्धमत और जैनमतमें भिन्नता नहीं है पर दोनों धर्मों में कुछ अंशोंमें समानता होनेपर भी असमानताकी कमी नहीं है । समानतामें पहली बात तो यह है कि दोनोंमें अहिंसा धर्मकी अत्यन्त प्रधानता है । दूसरे जिन, सुगत, अर्हत्, सर्वज्ञ, तथागत, बुद्ध, आदि नाम बौद्ध ९२ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा जैनदर्शन और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य देवोंके लिए प्रयुक्त करते हैं । तीसरे दोनों ही धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरोंकी एकही प्रकारकी पाषाण-प्रतिमाएं बनवा कर चैत्यों या स्तूपोंमें स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते है । स्तूपों और मूर्तियोंमें इतनी अधिक सदृशता है कि कभी कभी किसी मूर्ति और स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैनमूर्ति है या बौद्ध, बिशेषज्ञोंके लिए कठिन हो जाता है। इन सब बाहरी समानताओंके अतिरिक्त दोनों धर्मोंकी विशेष मान्यतात्रोंमें भी कहीं कहीं सदृशता दिखती है, परन्तु उन सब विषयोंमें वैदिक धर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका ही प्रायः ऐकमत्य है। इस प्रकार बहुत सी समानताएं होनेपर भी दोनोंमें बहुत कुछ विरोध है । पहला विरोध तो यह है कि बौद्ध क्षणिकवादी है; पर जैन क्षणिकवादको एकान्त रूपमें स्वीकार नहीं करता । जैन धर्म कहता है कि कर्म फल रूप से प्रवर्तमान जन्मान्तरवादके साथ क्षणिकवादका कोई सामञ्जस्य नहीं हो सकता। क्षणिकवाद माननेसे कर्मफल मानना असंभव है। जैनधर्ममें अहिंसा नीतिको जितनी सूक्ष्मतासे लिया है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे हुए जीवका मांस खानेकी बौद्धधर्म मनायी नहीं करता, उसमें स्वयं हत्या करना ही मना है। बौद्ध दर्शनके पञ्च स्कन्धके समान कोई मनोवैज्ञानिक तत्त्व भी जैनदर्शनमें नहीं माना गया । बौद्ध दर्शनमें जीवपर्याय अपेक्षाकृत सीमित है, जैनदर्शनके समान उदार और व्यापक नहीं है । वैदिक धर्मों तथा जैनधर्ममें मुक्तिके मार्गमें जिसप्रकार उत्तरोत्तर सीढियोंकी बात है, वैसी बौद्ध धर्ममें नहीं है । जैन गोत्र-वर्ण के रूपमें जाति-विचार मानते हैं, पर बौद्ध नहीं मानते । "जैन और बौद्धको एक समझनेका कारण जैनमतका भली भांति मनन न करने के सिवाय औरकुछ नहीं है । प्राचीन भारतीय शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समझनेकी भूल नहीं की गयी है। वेदान्त सूत्रमें जुदे जुदे स्थलोंपर जुदे जुदे हेतुवादसे बौद्ध और जैनमतका खण्डन किया है। शंकर दिग्विजयमें लिखा है कि शंकराचार्यने काशीमें बौद्धोंके साथ और उजयनीमें जैनोंके साथ शास्त्रार्थ किया था । यदि दोनों मत एक होते, तो उनके साथ दो जुदे जुदे स्थानोंमें दो बार शास्त्रार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं थी। प्रबोधचन्द्रोदय नाटकमें बौद्ध भिक्षु और जैन दिगंबरकी लड़ायीका वर्णन है। "वैदिक ( हिन्दू ) के साथ जैनधर्मका अनेक स्थलोंमें विरोध है; परन्तु विरोधकी अपेक्षा सादृश्य ही अधिक है । इतने दिनोंसे कितने ही मुख्य विरोधोंकी अोर दृष्टि रखनेके कारण वैर विरोध बढता रहा और लोगोंको एक दूसरेको अच्छी तरहसे देख सकनेका अवसर नहीं मिला । प्राचीन वैदिक सब सह सकते थे परन्तु वेद परित्याग उनकी दृष्टिमें अपराध था । ___ "वैदिक धर्मको इष्ट जन्म-कर्मवाद जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मोंका भी मेरूदण्ड है। दोनों ही धर्मों में इसका अविकृत रूपसे प्रतिपादन किया गया है । जैनोंने कर्मको एक प्रकारके परमाणुरूप सूक्ष्म पदार्थ ( कार्माण वर्गणा ) के रूपमें कल्पना करके, उसमें कितनी ही सयुक्तिक श्रेष्ठ दार्शनिक विशेषताओंकी Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ सृष्टि ही नहीं की है, किन्तु उसमें कर्म-फलवादकी मूल मान्यताको पूर्णरूपसे सुरक्षित रखा है। वैदिक दर्शनका दुःखवाद और जन्म-मरणात्मक दुःखरूप संसार सागरसे पार होनेके लिए निवृत्तिमार्ग अथवा मोक्षान्वेषणयह वैदिक, जैन और बौद्ध सबका ही प्रधान साध्य है। निवृत्ति एवं तपके द्वारा कर्मबन्धका क्षय होनेपर अात्मा कर्मबन्धसे मुक्त होकर स्वभावको प्राप्त करेगा और अपने नित्य-अबद्ध-शुद्ध स्वभावके निस्सीम गौरवसे प्रकाशित होगा । उस समय भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशयाः। । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ यह स्पष्ट रूपसे जैन और वैदिक शास्त्रोंमें घोषित किया गया है। 'जन्म जन्मान्तरों में कमाये हुए कर्मोंको; वासनाके विध्वंसक निवृत्तिमार्गके द्वारा क्षय करके परमपद प्राप्तिकी साधना वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्मों में तर-तमके साथ समान रूपसे उपदेशित की गयी है । दार्शनिक मतवादोंके विस्तार और साधनाकी क्रियात्रोंकी विशिष्टतामें भिन्नता हो सकती है, किन्तु उद्देश्य और गन्तव्य स्थल सबका ही एक है रूचीनां वैचित्र्याजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव । महिम्नस्तोत्रकी सर्व-धर्म-समानत्वको करनेमें समर्थ यह उदारता वैदिक शास्त्रोंमें सतत उपदिष्ट होनेपर भी संकीर्ण साम्प्रदायिकतासे उत्पन्न विद्वेष बुद्धि प्राचीन ग्रन्थोंमें जहां तहां प्रकट हुई है; किन्तु अाजकल हमने उस संकीर्णताकी क्षुद्र मर्यादाका अतिक्रम करके यह कहना सीखा है यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बैद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवः कर्त्तति नैयायिकाः। अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं वो विदधातु वांछित फलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।। "ईसाकी आठवीं शतोमें इसी प्रकारके महान उदार भावोंसे अनुप्राणित होकर जैनाचार्य मूर्तिमान स्यावाद भट्ट अकलंक देव कह गये हैं “यो विश्वं वेद वेद्यं जननजलनिधे भगिनः पार दृश्वा पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलङ्क यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्धं सकल गुणनिधिं ध्वस्तदोष द्विषन्तं बुद्धं वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥" Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध स्व० बाबू सूरजभानु, वकील यह जगत् किस तरह बना और किस तरह इसका यह सब प्रबन्ध चल रहा है, इस विषयमें लोगोंमें बहुत ही ज्यादा मतभेद पाया जाता है । सभी अपने मतको 'प्राप्तवचन' या 'सर्वज्ञवाक्य' बना रहे हैं । इससे इस विषयका निर्णय शब्द प्रमाणके द्वारा होना तो बिलकुल ही असम्भव प्रतीत होता है। एकमात्र अनुमान प्रमाणसे ही निश्चय किये जानेका सहारा रह गया है । तर्क या अनुमान अर्थात् बुद्धिविचारसे किसी विषयकी जांच तथा खोज करनेका अर्थ सिवाय इसके और कुछ भी नहीं होता है कि संसारमें जो कुछ भी हो रहा है उससे उन कार्यों के नियमोंको निश्चय कर लें और फिर उन्हीं नियमोंको अपनी जांचकी कसौटी बना लें। जैसा कि गेहूंके बीजसे सदा गेहूं का ही पौधा उगता हुआ देखकर हम यह सिद्धान्त ठहरा लें कि गेहूं के बीजसे तो गेहूंका ही पौधा उग सकता है । गेहूंके सिवाय अन्य किसी भी अनाजका पौधा नहीं उग सकता । इस प्रकार यह सिद्धान्त निश्चय करके और इसे अटल नियम मानकर भविष्यमें भी गेहूं के बीजसे गेहूंका पौधा पैदा हो जानेकी बात को सही और सच्ची ठहराते रहें तथा गेहूं के बीजसे चने या मटरका पौधा पैदा हो जानेकी बातको असत्य मानते रहें । इसी प्रकार स्त्री-पुरुष द्वारा हो मनुष्यकी उत्पत्ति देखकर प्रत्येक मनुष्यका अपने मां-बाप द्वारा पैदा होना ही ठीक समझें. इसके विपरीत किसी भी बातको सत्य न मानें । इसी प्रकारकी जांच और खोजको बौद्धिक जांच कहते हैं । अनुभव द्वारा खोजे हुए इसी प्रकारके नियमोंसे अापसमें लोगोंके मतभेदका निर्णय हो सकता है और होता है । प्रधान मान्यताएं यद्यपि इस विचारणीय विषयके सम्बन्धमें इस दुनियांमें सैकड़ों प्रकारके मत चले आ रहे हैं तो भी वे सब, मोटे रूपसे तीन भागोंमें विभाजित हो जाते हैं । (१) प्रथम मतवाले तो एक परमेश्वर या ब्रह्मको ही अनादि अनन्त मानते हैं । इनमें से भी कोई तो यह कहते हैं कि उस ईश्वरमें ब्रह्मके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, यह जो कुछ भी सृष्टि दिखायी दे रही है वह स्वप्नके समान एक प्रकारका भ्रम मात्र है । कुछ यह कहते हैं कि भ्रममात्र तो नहीं है, दुनियाके सब पदार्थ सत् रूपसे विद्यमान तो हैं ९५ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ परन्तु इन सभी चेतन अचेतन पदार्थोंको उस परमेश्वरने ही नास्तिसे अस्ति रूप कर दिया है। पहले तो एक परमेश्वरके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं था; फिर उसने किसी समयमें अवस्तुसे ही ये सब वस्तुएं बना दी हैं जब वह चाहेगा तब इन सब पदार्थों को नास्तिरूप कर देगा और तब सिवाय उस ईश्वरके अन्य कुछ भी न रह जायगा। (२) दूसरी मान्यता वाले यह कहते हैं कि अवस्तुसे कोई वस्तु बन नहीं सकती वस्तुसे ही वस्तु बना करती हैं। इस कारण जीव अजीव ये दोनों प्रकारकी वस्तुएं जो संसारमें दिखायी देती हैं न तो किसीके द्वारा बनायी गयी हैं और न बनायी ही जा सकती हैं। जिस प्रकार परमेश्वर सदासे है और सदा तक रहेगा उसी प्रकार जीव अजीव रूप वस्तुएं भी सदासे हैं और सदा रहेंगी। परन्तु इन जीव अजीव रूप वस्तुओंकी अनेक अवस्थात्रों-अनेक रूपोंका बनाना बिगाड़ना उस परमेश्वरके ही हाथमें है। (३) तीसरे प्रकारके लोगोंका यह कहना है कि जीव और अजीव ये दोनों ही प्रकारको वस्तुएं अनादिसे हैं और अनन्त तक रहेंगी। इनकी अवस्था और रूपको बदलनेवाली, संसारचक्रको चलानेवाली, कोई तीसरी वस्तु नहीं है । बल्कि इन्हीं वस्तुओंके अापसमें टक्कर खानेसे इन्हींके गुण और स्वभावके द्वारा संसारका यह सब परिवर्तन होता रहता है-रंग-विरंगे रूप बनते बिगड़ते रहते हैं । सामञ्जस्य इस प्रकार, यद्यपि, इन तीनों प्रकारके लोगों के सिद्धान्तोंमें धरती अाकाशका सा अन्तर है तो भी एक अनिवार्य विषयमें ये सभी सहमत हैं; अर्थात् ये तीनों ही किसी न किसी वस्तुको 'अनादि' अवश्य मानते हैं । प्रथम वर्ग कहता है कि परमेश्वरको किसीने नहीं बनाया, वह तो विना बनाये ही सदासे चला आता है और अपने अनादि स्वभावानुसार ही इस सारे संसारको चला रहा है --- अनेक प्रकारकी वस्तुओंको बना बिगाड़ रहा है । दूसरेका यह कहना है कि परमेश्वरके समान जीव और अजीवको भी किसीने नहीं बनाया, वे सदासे चले आते हैं और सदा तक रहेंगे । इसी तरह तीसरा भी कहता है कि जीव और अजीव को किसीने नहीं बनाया, किन्तु ये दोनों प्रकारको वस्तुएं विना बनाये ही सदासे चली आती हैं । इन तीनों विरोधी मतवालोंमें यह विवाद तो उठ ही नहीं सकता कि विना बनाये सदासे भी कोई वस्तु हो सकती है या नहीं, और जब यह बात भी सभी मानते हैं कि वस्तुमें कोई न कोई गुण या स्वभाव भी अवश्य ही होता है; अर्थात् विना किसी प्रकारके गुण या स्वभावके कोई वस्तु हो ही नहीं सकती है, तब ये तीनों ही प्रकारके लोग यह बात भी जरूर मानते हैं कि जो वस्तु अनादि है उसके गुण और स्वभाव भी अनादि ही होते हैं। अर्थात् अकेले एक परमेश्वरको अनादि माननेवाले तो उस परमेश्वर के गुण और स्वभावको अनादि बताते हैं, जीव, अजीव और परमेश्वरको अनादि माननेवाले इन तीनों ही के गुणोंको अनादि कहते हैं, और केवल जीव और अजीवको ही अनादि माननेवाले इन दोनों ही के गुणोंको अनादि बताते हैं । अतः इन दो बातोंमें तो संसारके सभी मतवाले सहमत हैं कि ( १ ) संसारमें कोई वस्तु विना बनाये अनादि भी हुआ करती है और (२) ९६ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध उसके गुण और स्वभाव भी विना बनाये अनादि होते हैं । अब केवल इतनी ही बात निश्चय करना बाकी रह जाती है कि कौन वस्तु तो विना बनी हुई अनादि है और कौन वस्तु बनी हुई अर्थात् सादि है। सृष्टि नियम खोज करनेपर संसारमें तो ऐसी कोई भी वस्तु नहीं मिलती है जो विना किसी वस्तुके ही बन गयी हो, अर्थात् नास्तिसे ही अस्तिरूप हो गयी हो । और न कोई ऐसी ही वस्तु देखी जाती है जो किसी समय नास्तिरूप हो जाती हो । बल्कि यहां तो वस्तुसे ही वस्तु बनती देखी जाती है; अर्थात् प्रत्येक वस्तु किसी न किसी रूपमें सदा ही बनी रहती है । भावार्थ, न तो कोई नवीन वस्तु पैदा ही होती है और न कोई वस्तु नाश ही होती है, बल्कि जो वस्तुएं पहलेसे चली आती हैं उन्हींका रूप बदल बदल कर नवीन नवीन वस्तुएं दिखायी देती रहती हैं; जैसा कि सोना, रूपा, आदि धातुओंसे ही अनेक प्रकारके आभूषण बनाये जाते हैं । क्या कभी इनके विना भी आभूषण बना सकते हैं ? सोना रूपा श्रादिके विना ये श्राभूषण कदाचित् भी नहीं बन सकते हैं । गरज यह कि एक सोना या रूपा, आदि धातुएं यद्यपि भिन्न भिन्न प्रकारके रूप धारण करती रहती हैं परन्तु सभी रूपोंमें वे धातुएं अवश्य विद्यमान रहती हैं। : प्रकार बीज, मिट्टी, पानी, वायु, आदि परमाणुओंके संघटनसे ही वृक्ष बनता है और फिर उस वृक्षको जला देनेसे वे ही परमाणु कोयला, धुश्रां, राख, आदिका रूप धारण कर लेते हैं और फिर भविष्यमें भी अनेक रूप धारण करते रहते हैं । इस तरह जगतका एक भी परमाणु कमती बढ़ती नहीं होता। बल्कि जो कुछ भी होता है वह यही होता है कि उनका रूप और अवस्था बदल, बदल कर नवीन, नवीन वस्तुएं बनतों और बिगड़ती रहती हैं। ऐसी दशामें किसी समय कोई वस्तु विना किसी वस्तुके ही बन गयी, अर्थात् नास्तिसे अस्तिरूप हो गयी नहीं कहा जा सकता । तर्क प्रमाण तथा बुद्धिबलसे काम लेने, और दुनियाके चलते हुए कारखानोंके नियमोंको टटोलनेके बाद तो मनुष्य इसी बातके माननेपर बाध्य होता है कि नास्तिसे अस्ति हो जाना अर्थात् विना वस्तुके वस्तु बन जाना बिलकुल ही असम्भव है। इसलिए यह बात तो स्पष्ट ही सिद्ध है कि संसारकी वस्तुएं नास्तिसे अस्तिरूप नहीं हो गयी है किन्तु किसी न किसी रूपमें सदासे ही विद्यमान चली आती हैं और आगेको भी किसी न किसी रूपमें सदा विद्यमान रहेंगी। अर्थात् संसारकी सभी जीव, अजीव रूप वस्तुएं 'अनादि-अनन्त' हैं जिनके अनेक प्रकारके नवीन नवीन रूप होते रहनेके द्वारा ही यह विचित्र संसार चल रहा है। वस्तुके गुण इस प्रकार जीव और अजीवरूप संसारकी सभी वस्तुओंकी नित्यता सिद्ध हो जानेपर अब केवल यह बात निर्णय करनेके योग्य रह जाती है कि संसारके ये सब पदार्थ किस प्रकारसे नवीन रूप धारण करते हैं। इस प्रकारकी शोधमें लगते ही सबसे पहिली बात यह मालूम होती है कि मनुष्य; ९७ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ मनुष्यसे ही पैदा होता अनादि कालसे चला आता है। पशु पक्षियोंके बाबत भी जो अपने मां-बापसे ही पैदा होते देखे जाते हैं, यह मानना पड़ता है कि वे भो सन्तान अनु सन्तान सदासे ही चले आते हैं और बिना मां-बापके पैदा नहीं किये जा सकते हैं। गेहूं, चना, श्रादि पौधोंके बाबत भी, जो अपने पौधेके बीज, जड़, शाखा, आदिसे ही पैदा होते हैं, यह मानना पड़ता है कि वे भी सन्तानक्रमसे सदासे ही चले आते हैं, और किसी समयमें एकाएक पैदा होने शुरु नहीं हो गये हैं। इस तरह इन पशु, पक्षी, वनस्पति और मनुष्योंका अपने मां-बाप या बीज, आदिके द्वारा अनादि कालसे पैदा होते हए चला अाना मानकर इन सबकी उत्पत्ति और निवास स्थानके लिए इस धरतीको भी अनादि कालसे ही स्थित होना मानना पड़ता है। उनके स्वभाव भी अनादि और अनन्त ही पाये जाते हैं । अर्थात् अग्निका जो स्वभाव जलाने, उष्णता पहुंचाने और प्रकाश करनेका अब है वह उसमें सदासे ही है और सदा ही रहे गा । इनके ये गुण और स्वभाव अटल होनेके कारण ही मनुष्य इनके स्वभावोंकी खोज करता है और फिर खोजे हुए उनके स्वभावोंके द्वारा उनसे नाना प्रकारके काम लेता है। यदि वस्तुओंके ये गुण और स्वभाव अटल न होते, बदलते रहा करते- तो मनुष्यको किसी वस्तुके छूने और उसके पास जाने तकका भी साहस न होता; क्यों कि तब तो यही खटका बना रहता कि न जाने श्राज इस वस्तुका क्या स्वभाव हो गया हो, और इसके छूनेसे न जाने क्या फल पैदा हो । परन्तु संसारमें तो यही दिखायी दे रहा है कि वस्तुका जो स्वभाव अाज हैं वही कल था और वही आगामी कलको रहे गा । इसी कारण वह वस्तुओंके स्वभावके विषयमें अपने और अपनेसे पहलेके लोगोंके अनुभवपर पूरा भरोसा करता है और सभी वस्तुओंके स्वभावको अटल मानता है। इससे साफ साफ यही परिणाम निकलता है कि किसी विशेष समयमें, कोई, किसी वस्तुमें, कोई खास गुण पैदा नहीं कर सकता है, बल्कि जबसे वह वस्तु है तभीसे उसमें उसके गुण भी हैं। और यतः संसारकी वस्तुएं अनादि हैं इस कारण उनके गुण भी अनादि ही हैं-उनको किसीने नहीं बनाया है। इसी प्रकार यह भी मालूम हो जाता है कि दो या अधिक वस्तुत्रोंको किसी विधिके साथ मिलानेसे जो नवीन वस्तु इस समय बन जाती है वह इस प्रकारके मिलापसे पहले भी बनती थी और वही भविष्यमें भी बनेगी, जैसा कि नीला और पीला रंग मिलनेसे जो हरा रंग इस समय बनता है वही सदा से बनता रहा है और सदा बनता रहे गा । ऐसे ही किसी वस्तुके प्रभावसे जो परिवर्तन किसी दूसरी वस्तुमें हो जाता है वह पहले भी होता था और वही आगे भी हो गा । सारांश यह कि, संसारकी वस्तुअोंके आपसमें अथवा अन्य वस्तुओं पर अपना प्रभाव डालने या अन्य वस्तुओंसे प्रभावित होने, आदिके सब प्रकारके गुण और स्वभाव ऐसे नहीं हैं जो बदलते रहते हों या बदल सकते हों, बल्कि जांच और खोजके द्वारा उनके ये सब स्वभाव अटल दिखायी देते हैं-अनादि-अनन्त ही सिद्ध होते हैं। इसप्रकार, यह बात सिद्ध हो जाती है कि वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्षकी उत्पत्तिके समान या अण्डेसे मुरगी और मुरगीसे अंडेके Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध समान संसारके सभी मनुष्य, अनेक पक्षु, पक्षी और वनस्पतियां सन्तान-अनु-सन्तान, अनादि कालसे ही चले आते हैं, किसी समयमें इनका श्रादि (प्रारम्भ) नहीं हो सकता । और इन सबके अनादि होनेके कारण इस पृथ्वीका भी अनादि होना जरूरी है जिसपर वे अनादि कालसे उत्पन्न होते और वास करते हुए चले श्रावें । साथही, वस्तुओंके गुण, स्वभाव और आपसमें एक दूसरे पर प्रभाव डालने तथा एक दूसरेके प्रभाव को ग्रहण करनेकी प्रकृति, आदि भी अनादि कालसे ही चली आती है । अर्थात् दुनियामें जो कुछ भी हो रहा है वह सब वस्तुओंके गुण और स्वभाव के कारण ही हो रहा है । संसारकी इन सब वस्तुओंके सिवाय न तो कोई भिन्न प्रकारकी शक्ति ही इस प्रबन्धमें कोई कार्य कर रही है और न किसी भिन्न शक्तिकी किसी प्रकार की कोई जरूरत ही है । जैसा कि समुद्रके पानी पर सूरजकी धूप पड़ना, उस तापसे प्रभावित हो (तप्त हो) भाप बनना है । फिर ठण्ड पाकर पानीका पानी होना तथा बरसना, बरसे पानीका भूमिके विषम स्वभावके कारण बहना, जो पानीमें घुल सकते हैं उन्हें घोलकर बहाना, तैर सकने योग्य वस्तुओं तथा घन पदार्थों को धक्कोंसे कुछ दूर तक ले जाना, अपने मार्गकी हलकी हलकी रुकावटोंको हटाना, बलवान् रुकावटोंसे अपना मार्ग बदलना, गड्ढेमें भर जाना तथा समुद्र में फिर पहुंचनेसे स्पष्ट है। धूप, हवा, पानी मिट्टी, आदिके इन उपर्युक्त स्वभावोंसे दुनिया भर में लाखों और करोड़ों ही परिवर्तन हो जाते हैं, जिनसे फिर नवीन नवीन लाखों करोड़ों काम होने लग जाते हैं और भी जिन जिन कार्योंपर दृष्टि दौड़ाते हैं उन उनपर इसी प्रकार 'वस्तु-स्वभावके' द्वारा ही कार्य होता हुआ पाते हैं और होना भी चाहिए ऐसा ही; क्यों कि जब संसारकी सारी वस्तुएं तथा उनके स्वभाव सदासे हैं, जब संसारकी सारी वस्तुएं आपसमें एक दूसरे पर अपना अपना प्रभाव डालती हैं और दूसरी वस्तुओंके प्रभावसे प्रभावित होती हैं तब तो यह बात अनिवार्य ही है कि उनमें सदासे ही बराबर खिचड़ी सी पकती रहे और संसारको वस्तुत्रोंके स्वभावानुसार नाना प्रकारके परिवर्तन होते रहें। यही संसारका सारा कार्य-व्यवहार है जो वस्तु स्वभावके द्वारा अपने आप हो रहा है और न सोचनेवाले पुरुषोंको चकित करके भ्रममें डाल रहा है। इसप्रकार जिन वस्तुओंसे यह दुनिया बनी हुई है वे सभी जीव, अजीव तथा उनके गुण श्रीर स्वभाव अनादि अनन्त हैं । उनके इन अनादि स्वभावोंके द्वारा ही जगतका यह सब कार्य व्यवहार चल रहा है। इन जीव अजीव पदार्थों के सिवाय न तो कोई तीसरी वस्तु सिद्ध होती है और न उसके होनेकी कोई जरूरत ही मालूम होती है । यदि विचारके वास्ते कोई तीसरी वस्तु मान भी लें तो उसके विरुद्ध आक्षेपोंकी एसी झड़ी लग जाती है कि उसको हटा कर और विचार क्षेत्रमें खड़ा रहना ही असम्भव हो जाता है। हां, विचारके क्षेत्रसे दूर भाग जाने पर, पक्षपात और अन्धविश्वासकी लाठीको चारों तरफ घुमाकर किसी भी हेतु या प्रमाणको अपने पास न फटकने देनेकी अवस्थामें हम जो चाहें मान सकते हैं; पर ऐसी दशामें हमारे लिए यह बात भी जरूरी हो जाती है कि न अपनी कहें और न किसीकी सुनें Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ अर्थात् न तो अपने विश्वासको झूठा बतानेका किसीको अधिकार देवें और न स्वयं किसीके विश्वासको सत्य ठहरावें । वस्तु स्वभाव ही निर्णायक है विचारने की बात है कि जब समुद्रके पानीफी ही भाप बनकर उसका ही बादल बनता है तब यदि वस्तु स्वभावके सिवाय कोई अन्य शक्ति ही वृष्टि बरसानेका प्रबन्ध करनेवाली होती तो वह कदाचित् भी उस समुद्रपर पानी न बरसाती जिसके पानीकी भाप बनकर ही यह बादल बना था । परन्तु देखने में तो यही आता है कि बादलको जहां भी इतनी ठण्ड मिल जाती है कि भापका पानी बन जावे वहीं वह बरस पड़ता है। यही कारण है कि वह समुद्रपर भी बरसता है और धरतीपर भी वह बादल तो इस बातकी जरा भी परवाह नहीं करता कि मुझे कहां बरसना चाहिये और कहां नहीं । इसी कारण कभी तो यह वर्षा समयपर हो जाती है और कभी कुसमयपर होती है, बल्कि कभी कभी तो यहां तक भी होता है कि सारी फसल भर अच्छी वृष्टि होती है, और खेती भी उत्तम होती है किन्तु अन्त में एक अाध पानीकी ऐसी कमी हो जाती है कि सारी बरी करायी खेती मारी जाती है । यदि वस्तु स्वभाव के सिवाय कोई दूसरा प्रबन्ध करनेवाला होता तब तो ऐसी अन्धाधुन्धी कभी भी न होती इस स्थानपर यदि वह कहा जाये कि उसकी तो इच्छा ही यह थी कि इस वर्ष इस खेत में अनाज पैदा न हो या कमती पैदा हो । परन्तु यदि यही बात होती तत्र तो वह सारी फसल भर अच्छी तरह पानी बरसाकर उस खेतीको इतनी बड़ी ही क्यों होने देता ? बल्कि वह तो उस खेतके किसानको ही इतना साहस न करने देता जिससे वह उस खेत में बीज बोवे | यदि किसानपर उस प्रबन्धकर्ताका वश नहीं चल सकता था और बीज बोये जानेको वह नहीं रोक सकता था तो खेतमें पड़े हुए बीजको ही न उगने देता । यदि बीजपर भी उसका वश नहीं था तो कमसे कम वृष्ठिकी एक बूंद भी उस खेतमें न पड़ने देता जिससे वह बीज ही जल भुनकर नष्ट हो जाता । और यदि संसारके उस प्रबन्धकर्ताकी यही इच्छा होतो कि इस वर्ष अनाज पैदा ही न हो या कमती पैदा हो, तो वह केवल उन्हीं खेतोंको खुश्क न करता जो दृष्टिके ऊपर ही निर्भर हैं बल्कि उन खेतोंको भी जरूर खुश्क करता, जिनमें नहर से पानी आता है । परन्तु देखने में यही श्राता है कि जिस वर्ष वृष्टि नहीं होती या कमती वृष्टि होती है उस वर्ष उन खेतोंमें तो प्रायः कुछ भी पैदा नहीं होता जो दैवमातृक ही हैं। हां, नहरसे पानी आनेवाले खेतों में उन्हीं दिनों सब कुछ पैदा हो जाता है। इससे यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि संसारका कोई एक प्रबन्धकर्ता नहीं है; बल्कि वस्तुस्वभावके कारण ही जब बादल बरसनेका वातावरण हो जाता है तब पानी बरस जाता है और जब वैसी परिस्थितियां नहीं जुटती तब वह नहीं बरसता । वर्षाको इस बातकी कुछ भी परवाह नहीं है कि उसके कारण कोई खेती हरी होगी या सूखेगी और संसारके जीवोंकी हानि होगी या लाभ एवं सुख । इसीसे कभी कभी ऐसी गड़बड़ी भी हो जाती है कि जहां जरूरत नहीं होती वहां तो मूसलाधार पानी बरस जाता है और जहां जरूरत होती १०० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध है वहां एक बूंद भी नहीं पड़ने पाती । किसी प्रबन्धकर्ताके न होनेके ही कारण तो मनुष्य, कुएं खोदकर और नहर, आदि निकालकर, यह प्रबन्ध कर सका है कि यदि दैव न बरसे तो भी वह अपने खेतोंको पानी देकर सब कुछ अनाज पैदा कर ले । इसके सिवाय जब प्रत्येक धर्म और पथके कथनानुसार संसारमें इस समय पापोंकी ही अधिकता हो रही है और नित्य ही भारी भारी न्याय देखने में आते हैं, तब यह कैसे माना जा सकता है कि जगतका कोई प्रबन्धकर्ता भी अवश्य है, जिसकी श्राज्ञा श्रोंको न माननेके कारण ही ये सब पाप और : अपराध हो रहे हैं । सम्भव है कि यहां पर कोई भाई ऐसा भी कहने लगे कि राजाकी आज्ञा भी तो भंग होती रहती है । उनको यह विचारना चाहिये कि राजा न तो सर्व का ज्ञाता 'सर्वज्ञ' ही होता है और न सर्व शक्तिमान् । इसलिए न तो उसको सर्व प्रकार के अपराधों तथा अपराध करनेवालोंका पता लग सकता है और न वह सर्व प्रकार के अपराधों को दूर ही कर सकता है । परन्तु जो सर्वज्ञ हो, सर्व शक्तिमान हो, संसार भर का प्रबन्ध करनेवाला हो और एक छोटेसे परमाणु से लेकर धरती आकाश तक की गति -स्थिति का कारण हो, उसके सम्बन्ध में यह बात कभी भी नहीं कही जा सकती, कि, वह ऐसा प्रबन्ध नहीं कर सकता, जिससे कोई भी उसकी आज्ञाको भंग न कर सके और सारा कार्य उसकी इच्छानुसार ही होता रहे । एक ओर तो संसारके एक एक करण (अणु) का उसे प्रबन्धकर्ता बताना और दूसरी ओर अपराधों के रोकने में उसे असमर्थ ठहराना, यह तो वास्तव में उस प्रबन्धकका मखौल ही उड़ाना है; बल्कि यों कहना चाहिए कि इस तरह तो असल में उसका न होना ही सिद्ध होता है । ईश्वर कल्पना -- दुःख है मनुष्यों वस्तु स्वभावको न जानकर विना किसी हेतुके ही संसारका एक प्रबन्धकर्त्ता मान लिया है । पृथ्वीपर राजा को मनुष्यों के बीच में प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य करता हुआ देखकर सारे संसार के प्रबन्धकर्ताको भी वैसा ही कम शक्तिवाला समझ लिया है और जिस प्रकार राजा लोग खुशामद तथा स्तुति से प्रसन्न होकर खुशामद करनेवालोंके वशमें आ जाते हैं और उनकी इच्छा अनुसार ही उलटे सीधे कार्य करने लग जाते हैं उसी प्रकार दुनियाके लोगोंने संसारके प्रबन्धकर्त्ता को भी खुशामद तथा स्तुति से वश में | जाने वाला मानकर उसकी भी खुशामद करनी शुरू कर दी है और वे अपने चरणको सुधारना छोड़ बैठे हैं । यही कारण है कि संसार में ऐसे ऐसे महान् पाप फैल रहे हैं जो किसी प्रकार भी दूर होने में नहीं आते । जब संसारके मनुष्य इस कच्चे ख्यालको हृदयसे दूर करके वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तको मानने लग जावेंगे तब ही उनके दिलोंमें यह विचार जड़ पकड़ सकता है कि जिस प्रकार आँखोंमें मिरिच झोंक देनेसे या घावपर नमक छोड़ देनेसे दर्दका हो जाना अनिवार्य है और वह कष्ट किसी प्रकार की खुशामद या स्तुति के करनेसे दूर नहीं हो सकता, उस ही प्रकार जैसा हमारा श्राचरण १०१ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ होगा उसका फल भी हमको अवश्य ही भुगतना पड़ेगा, वह केवल चाटुकारिता या स्तुतिसे टाला न टलेगा जैसा बीज वैसा वृक्ष और जैसी करनी वैसी भरनीके सिद्धान्तपर पूर्ण विश्वास हो जाने पर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच जाता है और भले कृत्योंकी तरफ झुक सकता है । परन्तु उसके विरुद्ध , जबतक मनुष्यका यह विचार बना रहेगा कि खुशामद करने, स्तुतियां पढ़ने या भेट चढ़ाने, अादिके द्वारा भी मेरे अपराध क्षमा हो सकते हैं तबतक वह बुरे कृत्य करनेसे बच नहीं सकता और न वह शुभ अाचरणोंको तरफ लग सकता है । अतः लोग कारण-कार्य के अटल सिद्धान्तको मानकर वस्तु स्वभावपर पूरा पूरा विश्वास लावें, अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके वास्ते पूरी तौरसे तैयार रहें और उनका फल टल जाना बिल्कुल ही असम्भव समझें । ऐसा मान लेनेपर ही मनुष्योंको अपने ऊपर पूरा भरोसा होगा वे अपने पैरोंके बल खड़े होकर अपने आचरणोंको ठीक बनाने के लिए कमर बांध सकेंगे और तब ही दुनियांसे ये सब पाप और अन्याय दूर हो सकेंगे । नहीं तो किसी प्रबन्धकर्ता के माननेकी अवस्थामें, अनेक प्रकारके भ्रम हृदयमें उत्पन्न होते रहेंगे और दुनियाके लोग पाप करनेकी तरफ ही झुकेंगे। एक तो यह सोचने लग जायगा कि यदि उस प्रबन्धकर्ताको मुझसे पाप कराना मंजूर न होता तो वह मेरे मनमें पाप करने का विचार ही क्यों आने देता, दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकारके पाप नहीं कराना चाहता तो वह मुझे ऐसा बनाता क्यों, जिससे मेरे मनमें इस प्रकारके पाप करनेकी इच्छा पैदा होवे, तीसरा कहेगा कि यदि वह पापोंको न कराना चाहता तो पापोंको पैदा ही क्यों करता, चौथा सोचेगा कुछ ही हो अब तो यह पाप कर लें फिर संसारके प्रबन्धकर्ताको खुशामद करके और नजर भेंट चढ़ाकर क्षमा करा लेंगे, गरज यह कि संसारका प्रबन्धकर्ता माननेको अवस्थामें तो लोगोंको पाप करने के लिए सैकड़ों बहाने बनाने का अवसर मिलता है परन्तु वस्तु स्वभावके द्वारा ही संसारका संपूर्ण कार्य व्यवहार चलता हुआ माननेकी अवस्थामें सिवाय इसके और कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा करेंगे उसका फल भी हम स्वयं वैसा ही अवश्य भुगतें गे । ऐसा माननेपर ही हम बुरे अाचरणोंसे बच सकते है और अच्छे आचरणोंकी तरफ लग सकते हैं । यदि कोई प्रबन्धकर्ता होता तो क्या ऐसा ही अन्धेर रहता जैसा कि अब हो रहा है । अर्थात् किसीको भी इस बातकी खबर नहीं कि हमको इस समय जो कुछ भी सुख दुख मिल रहा है वह हमारे कौनसे कृत्योंका फल है । प्रबन्धकर्ता होनेकी हालतमें हमें वह बात प्रकट रूपसे अवश्य ही बतलायी जाती, जिससे हम भविष्यमें बुरे कृत्योंसे बचते और भले कृत्योंकी तरफ बढ़ते, परन्तु अब यह मालूम होना तो दूर रहा कि हमको कौन कौन दुःख किस किस कृत्यके कारण मिल रहा है, यह भी मालूम नहीं है कि पाप क्या होता है और पुण्य क्या । इसीसे दुनियामें यहां तक अंधेर छाया हुआ है कि एक ही कृत्यको कोई पाप मानता है और कोई पुण्य अथवा धर्म । और यही वजह है कि संसारमें सैकड़ों प्रकारके मत फैले हुए हैं । बड़े तमाशेकी बात तो यह है कि सब ही अपने अपने मतको उसी सर्वशक्तिमान प्रबन्धकर्ताका १०२ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध प्रचार किया हुअा बतलाते हैं । किन्तु ऐसा अंधेर तो मामूली राजाओंके राज्यमें भी नहीं होता । प्रत्येक राजाके राज्यमें जिस प्रकारका कानून चालू होता है उसके विरुद्ध यदि कोई मनुष्य नियम चलाना चाहे तो वह राजविद्रोही समझा जाता है और दण्ड पाता है, परन्तु सर्वशक्तिमान् परमेश्वरके राज्यमें दिनदहाड़े सैकड़ों ही मतोंके प्रचारक अपने अपने धर्मोंका उपदेश करते हैं, अपने अपने सिद्धान्तोंको उसी एक परमेश्रकी श्राज्ञा बताकर उसके ही अनुसार चलनेकी घोषणा करते हैं, और यह सब कुछ होते हुए भी उस परमेश्वर या संसारके प्रबन्धकर्ताकी तरफसे कुछ भी रोक-टोक, इस विषयमें नहीं होती। ऐसे भारी अंधेरकी अवस्थामें तो कदाचित् भी यह नहीं माना जा सकता कि कोई महाशक्तिसंपन्न प्रबन्धकर्ता इस संसारका प्रबन्ध कर रहा है, बल्कि ऐसी दशामें तो यही मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि वत्तुस्वभावपर ही संसारका सारा ढांचा बंध रहा है और उसीके अनुसार जगतका यह सब प्रबन्ध चल रहा है । यही वजह है कि यदि कोई मनुष्य वस्तुस्वभावको उलटा पुलटा समझकर गलती करता है या दूसरोंको बहकाकर गलतीमें डालता है तो संसारकी ये सब वस्तुएं उसको मना करने अथवा रोकने न जाती और न अपने अपने स्वभावके अनुसार अपना फल देनेसे ही कभी चूकती हैं। जैसे अागमें चाहे तो कोई नादान बच्चा अपने आप हाथ डाल देवे और चाहे किसी बुद्धिमान-पुरुषका हाथ भूलसे पड़ जावे, परन्तु वह भाग उस बच्चेकी नादानीका और बुद्धिमानके अनजानपनेका कुछ भी ख्याल नहीं करेगी, बल्कि अपने स्वभावके अनुसार उन दोनोंके हाथोंको जलानेका कार्य अवश्य कर डालेगी। मनुष्यके शरीरमें सैकड़ों बीमारियां ऐमी होती हैं जो उसके विना जाने बूझे दोषोंका ही फल होती हैं, परन्तु प्रकृति या वस्तुस्वभाव उसे यह नहीं बताता कि तेरे अमुक दोषके कारण तुझको यह बीमारी हुई है। इसी तरह हमारे अात्मीय दोषोंका फल भी हमको वस्तुस्वभावके अनुसार ही मिलता है और वस्तुस्वभाव हमको यह नहीं बतलाता है कि हमको हमारे किस रहस्यका कौन फल मिला, परन्तु फल प्रत्येक कृत्यका मिलता अवश्य है। उपसंहार-- इस प्रकार वस्तुस्वभावके सिद्धान्तानुसार तो यह बात ठीक बैठ जाती है कि सुख दुःख भुगतते समय क्यों हमको हमारे उन कृत्योंकी खबर नहीं होती, जिनके फलरूप हमको वह सुख दुःख भुगतना पड़ता है । परन्तु किसी प्रबन्धकर्ताको मानने की हालतमें यह बात कभी ठीक नहीं बैठती, बल्कि उलटा बड़ा भारी अन्धेर ही दृष्टिगोचर होने लगता है । यदि हम यह मानते हैं कि जो बच्चा किसी चोर, डाकू 'वेश्या' अादि पापियोंके घर पैदा किया गया है वह अपने भले बुरे कृत्योंके फलस्वरूप ही ऐसे स्थानमें पैदा किया गया है तो प्रबन्धकर्ता परमेश्वर माननेकी अवस्थामें यह बात भी ठीक नहीं बैठती, क्योंकि शराबी यदि शराब पीकर और पागल बनकर फिर भी शराबकी दुकानपर जाता है और पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब मांगता है । वस्तुत्वभावके अनुसार तो यह बात ठीक बैठ जाती है कि १०३ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ शराबने उसके दिमागको ऐसा खराब कर दिया है, जिससे अब उसको पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब पीने की इच्छा उत्पन्न हो गयी है । जगतके प्रबन्धकर्ता के द्वारा ही फल मिलने की अवस्थामें तो शराब पीनेका यही दण्ड मिलना चाहिये था कि वह किसी ऐसी जगह पटक दिया जाय जहांसे वह शराबकी दुकान तक ही न पहुंच सके और ऐसा दुःख पावे कि फिर कभी शराबका नाम तक भी नहीं लेवे इसी तरह व्यभिचार तथा चोरी श्रादिकी भी ऐसी ही सजा मिलनी चाहिये थी, जिससे वह कदापि व्यभिचार तथा चोरी न करने पाता। जो जीव चोरों तथा वैश्याश्रोके यहां पैदा किये जाते हैं उनको ऐसी जगह पैदा करना तो चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा दिलानेकी ही कोशिश करना है। संसारके प्रबन्धकर्ता के बाबत तो ऐसा कभी भी ख्याल नहीं किया जा सकता कि उसीने ऐसा प्रबन्ध किया हो अर्थात्, वही पापियों और अपराधियोंको चोरों तथा व्यभिचारियोंके घर पैदा करके चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा दिलाना चाहता हो। ऐसी बातें देखकर तो लाचार यही मानना पड़ता है कि संसारका कोई भी बुद्धिमान प्रबन्धकर्ता नहीं है बल्कि वस्तुत्वभावके द्वारा और उसीके अनुसार ही जगतका यह सब प्रबन्ध चल रहा है, अत: किसी प्रबन्धकर्ताकी खुशामद करके या भेंट चढ़ाकर उसको राजी कर लेनेके भरोसे न रहकर हमको स्वयं अपने आचरणोंको सुधारनेकी ही ओर दृष्टि रखनी चाहिये और श्रद्धान बांधे रखना चाहिये कि जगत अनादि निधन है और उसका कोई एक बुद्धिमान प्रबन्धकर्ता नहीं है। १०४ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजीवनमें जैनाचारकी उपयोगिता श्री पं० जगन्मोहनलाल जैन सिद्धन्तशास्त्री प्रकृत विषयको जाननेके पूर्व यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम मानव समाजकी पूर्वापर स्थितिको जान लें तथा अाचारकी आवश्यकता मनुष्यको कब उत्पन्न हुई ? और जैन मान्यताके अनुसार उसका मूलाधार क्या है ? इसकी भी विवेचना करें । ___ जैन मान्यता यह है कि यह जगत् अनादि कालसे है और अनन्तकाल तक रहे गा । परिवर्तनशील होते हुए भी न इसका कोई एक नियन्ता है और न विनाशकर्ता है । सर्ग स्थिति-प्रलय यह वस्तुमात्र का स्वभाव है । एक परमाणु भी इस नियमका अपवाद रूप नहीं है। प्रति समय जगत् तथा उसके प्रत्येक अंशका परिवर्तन अनिवार्य है । कोई शक्ति या कोई व्यक्ति इस स्वाभाविक प्रवृत्तिको रोक नहीं सकता । जगतकी स्थितिके साथ मानव समाजकी स्थिति है। अन्य जीवधारियोंकी अपेक्षा मनुष्य बुद्धि-वैभवशाली होनेसे श्रेष्ठ प्राणी माना गया है । माना भी जाना चाहिये, क्यों कि ज्ञान (चैतन्य ) ही तो जीवका मूल स्वभाव है, वही उसका धन है। जो प्राणी अधिक से अधिक ज्ञान रखता है उसे श्रेष्ठ कहलानेका अधिकार है । मानव समाजको हम आज जिस रूपमें देख रहे हैं वह सदासे ऐसा था यह बात नहीं है । कभी उन्नतिका और कभी अवनतिका समय अाता रहता है इसे जैन शास्त्रों में क्रमशः 'उत्सर्पिणो' काल और 'अवसर्पिणो' काल कहा है । काल क्रमसे जब उन्नति चरम सोमापर पहुंच जाती है तब अवनतिका काल प्रारम्भ हो जाता है, और जब अवनति चरम सीमापर पहुंच जाती है तब उन्नतिका काल प्रारम्भ हो जाता है । हिंडोलेको पालकीको तरह उत्सर्पिणीसे अवसर्पिणी और अवसर्पिणी से उत्सर्पिणो कालका परिवर्तन सदासे, होता आया है और सदा होता जायगा। प्रत्येक काल दो भागोंमें विभाजित है चाहे वह उन्नति काल हो या अवनति काल, एक भाग “भोग भूमि" कहलाता है, ओर दूसरा भाग "कर्मभूमि'। वर्तमान काल जिसे अाजका संसार उन्नतिका काल कहता है जैन मान्यताके अनुसार "अवसर्पिणी काल" है । अवसर्पिणी कालका प्रारम्भ का हिस्सा 'भोगभूमि' था और वर्तमानका कालांश 'कर्मभूमि' का है। इस कालके प्रारम्भमें मानव समाजकी क्या स्थिति थी ! और उसका विकास कैसे हुआ इन प्रश्नोंपर प्रकाश डालना आवश्यक है । १०५ १४ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ प्राचीन-युग इस युगका प्रारंभ भोगभूमिसे है । उस समय न केवल मानव जीवनकी किन्तु सभी प्राणियोंकी स्थिति भोग प्रधान थी । पूर्वोपार्जित कर्मफल स्वरूप प्रकृत्ति द्वारा दत्त पदार्थों का भोग ही उनके लिए पर्याप्त था, उन्हें कार्य करनेकी आवश्यकता नहीं प्रतीत होती थी । इस दृष्टि से संसार उस समय बहुत सुखी था । उस समय मनुष्य समाज अाजके रूप में नहीं था । न कोई राजा था, न कोई प्रजा । न कोई धनवान् था, न निर्धन, न कोई विद्वान् था, न कोई मूर्ख । न कोई बलवान था, न निर्बल । न कोई सुन्दर था, न असुन्दर । विषमता न थी। सभी सन्तोषी, समझदार, सुन्दर, स्वस्थ और स्वतंत्र थे । कोई किसीकी स्वतन्त्रता में बाधा देनेकी बात सोचता भी न था। वहां न कल थे, न कारखाने, न फैक्टरियां । एक देशसे दूसरे प्रदेशके लिए मालका आना जाना, श्रादि भी नहीं होता था। न उनकी कोई सभा थी, न कोई संघ । किसी भी प्रकारके अांदोलन किये जानेका वहां प्रसङ्ग ही नहीं था। वहां न साम्यवाद था, न कोई अन्यवाद, सब समान विचार, समान प्राचार तथा समान व्यवहारके व्यक्ति थे । साम्य था, पर 'साम्य-वाद' न था, 'वाद' की आवश्यकता उन्हें कभी नहीं हुई । वे धार्मिक या साम्प्रदायिक विचार के व्यक्ति न थे, और न अधार्मिक थे । उनका जो कुछ वर्तन ( जीवन प्रवाह ) था न वह त्याग और व्रत रूप था, और न पाप प्रवृत्ति रूप था। वे न मोक्षसाधन करते थे, और न नरक जाने योग्य कर्मसञ्चय करते थे । __ प्रकृतिके स्थान वनप्रदेश, नदी-नद,पुलिन-तट, आदि ही उनके विहार स्थल थे । प्रकृतिका पर्यवेक्षण करना, उसकी ही चर्चा करना, उनका एक मात्र दैनिक कृत्य था । कहीं भी नरम घास देखकर प्रकृतिकी गोदमें सो जाते थे । वस्त्राकार वृक्ष-पत्रों व छालोंसे शरीरको ढक लेते थे । विशेष आवश्यकतासे कभी वृक्षके सुन्दर अवयवोंसे घरसा बना लेते और उतने ही परम सन्तोष धारण कर आनन्दित रहते थे। इस प्रकारकी सुन्दर व्यवस्था किसो एक देशमें ही न थी बल्कि समस्त मानव समुदायको थी। उस समय सब एकदेश था, विदेश कहों न था। प्राकृतिक लक्षणोंसेहो देश विभाजन था पर मनुष्यके अनधिकृत अधिकार स्थापनके द्वारा कहीं भी देश विभाजन न था । सन्तान क्रम-- परिवर्तन या परिवर्धनकी पद्धति भी वहां विचित्र थी। माता-पिता अपने जीवन में एकबार हो सन्तानको जन्म देते थे । उनके जीवन के अन्तिम समय में ही सन्तान होती थी, और वह सन्तान अकेली नहीं "नरनारी" के युगल रूपमें होती थी । वे अाजकलको पद्धतिके समान भाई बहिन नहीं माने जाते थे । उस समय भाई-बहिन-माता-पिता-मामा भानजा-साला-वहिनोई-फूफा-फुत्रा, आदि कोई रिश्ता नहीं होता था Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजीवनमें जैनाचारकी उपयोगिता रिश्ता था तो केवल एक, नर-और नारीका, और वह भी जन्मजात । संतान उत्पन्न होते ही माता पिता स्वर्गस्थ हो जाते और वह बालक-बालिका या युगल विना माताके स्तन-पानके केवल अपने हाथ या पैरका अंगूठा चूसते चूसते ही बाल्यकाल समाप्त कर युवावस्था सम्पन्न हो जाते थे । न उसे पालक ही जरूरत होती न और कोई उसे पालने की चिन्ता करता था । युवा होनेपर दोनों पति पत्नीके रूपमें रहने लगते थे । तब वैवाहिक पद्धति नहीं थी। इस तरह उस युगमें न सामाजिक जीवन था और न सामाजिक समस्याएं ही थीं। सब सुख पूर्वक जीवन यापन करते थे। इसीसे इस युगको भोग भूमि कहते थे । भोग-भूमिसे कर्म-भूमि कालको गति विचित्र है । उसका चक्र सदा घूमता रहता है। वह किसोको भी स्थिर नहीं रहने देता। उक्त भोग भूमिका क्रम भो धीरे धीरे बदलने लगा। मनुष्यको इच्छाएं बढ़ने लगीं । उसमें सञ्चयशीलताके भाव आने लगे । प्रकृति भो अपनो असंख्य अनुपम विभूतिमें न्यूनता करने लगी। मनुष्यकी उदारताके साथ ही साथ प्रकृतिकी उदारता भी घटने लगो। अब वृक्षोंसे उतने पदार्थ नहीं मिल पाते थे जो मनुष्यकी सञ्चयशीलताकी वृत्तिका निर्वाह करते हुए भी जन साधारणको आवश्यकता की भी पूर्ति कर सके । फलतः परस्परमें झगड़े होने लगे । तब क्रमशः चौदह 'कुलकर' या 'मनु' पैदा हुए । समय समयपर उत्पन्न हुई समस्याओंका निराकरण करके ये महापुरुष जनताका मार्गप्रदर्शन करते थे अतः कुलकर कहे जाते हैं। __ जब वृक्षोंको लेकर झगड़ा होने लगा तो पांचवे कुलकरने वृक्षोंकी सीमा निर्धारित कर दी। जव सीमापर भी झगड़ा होने लगा तो छठे कुलकरने सीमाके स्थानपर चिन्ह बनाना प्रारम्भ किया । तब तक पशुअोंसे काम लेना कोई नहीं जानता था और न उसकी आवश्यकता ही प्रतीत थी। किन्तु अब अावश्यक होनेपर सातवें कुलकरने घोड़े वगैरहपर चढ़ना सिखाया। पहले माता-पिता सन्तानको जन्म देकर मर जाते थे किन्तु जब ऐसा होना बन्द हो गया तो आगेके कुलकरोंने जनताको बच्चोंके लालन पालन आदिकी शिक्षा दी। पहले इधर उधर जानेका काम न होनेसे कोई नदी पार करना नहीं जानता था । अतः बारहवें कुलकरने पुल, नाव, अादिके द्वारा नदी पार करना सिखाया । पहले कोई अपराध ही नहीं करता था, अतः दण्डनायक और दण्डव्यवस्थाकी भी आवश्यकता नहीं थी। किन्तु जब मनुष्योंमें सञ्चय वृत्ति और लालचने अपना स्थान जमा लिया और उनकी आवश्यकता पूर्तिमें बाधा पड़ने लगी तो मनुष्योंमें अपराध करनेकी प्रवृत्ति भी शुरू हो गयी । अतः दण्डनायक और दण्डव्यवस्थाकी आवश्यकता हुई । पहले केवल 'हा' कह देनेसे ही अपराधी लज्जित हो जाता था । जब उससे काम नहीं चला तो 'हा' ! अब ऐसा काम मत करन।' इतना दण्ड रखा गया। किन्तु जब उससे भी काम नहीं चला तो उसमें 'धिक्कार' शब्द और जोड़ा गया। १०७ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री ऋषभदेव-- चौदहवें कुलकरका नाम नाभिराय था । इनके समयमें उत्पन्न होने वाले बच्चोंका नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा तो उन्होंने इसको काटना बतलाया। इसी लिए इनका नाम नाभि पड़ा। नाभिरायके घर में श्री ऋषभदेवका जन्म हुश्रा । यही ऋषभ देव इस युगमें जैनधर्मके आद्य प्रवर्तक हुए । इनके समयमें ही ग्राम, नगर, आदिकी सुव्यवस्था हुई। इन्होंने ही लौकिक शास्त्र और लोकव्यवहारकी शिक्षा दी, और इन्होंने ही उस धर्मकी शिक्षा लोगोंको दी जिसका मूल अहिंसा है। भगवान ऋषभदेव के समयमें प्रजाके सामने जीवनकी समस्या विकट हो गयी थी। क्योंकि जिन वृक्षोंसे लोग अपना निर्वाह करते थे वे लुप्त हो चुके थे । और जो नयी वनस्पतियां पृथ्वीपर उगी थीं उनका उपयोग करना नहीं जानते थे। तब उन्होंने उन्हें स्वयं उगे हुए इक्षु-दण्डोंसे रस निकालकर खाना सिखाया। तथा प्रजाको कृषि, असि, मषी, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन षटकर्मोंसे भाजीविका करने की शिक्षा दी । तथा सामाजिक व्यवस्थाको चलानेके लिए उन्होंने तीन वर्ण स्थापित किये । प्रजा पालन व स्वदेश रक्षा करनेवाला एक वर्ग, कृषि, आदि उद्योग धन्धे करनेवाला दूसरा वर्ग, तथा सेवा कार्य करनेवाला तीसरा वर्ग । और उनके नाम क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र रक्खा । जैनाचार ___ प्रजा सुख और शान्तिसे रहे इसके लिए उन्होंने अहिंसा धर्मका उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि दूसरोंको सुखी देखकर सुखी होना और दुःखी देखकर दुखी होना ही पारस्परिक प्रेमका एकमात्र साधन है । प्रत्येक मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह किसी भी मनुष्य, पशु या पक्षी यहां तक कि छोटेसे छोटे जन्तु, कीट, पतंग, आदिको भी न सतावे । प्रत्येक जीव सुख चाहता है । और उसका उपाय यही है कि वह स्वयं अपने प्रयत्नसे दूसरोंको दुखी न करे । यदि प्रत्येक जन जो स्वयं सुखी होना चाहता है दूसरोंको दुखी न करे, यदि प्रत्येक जन जो स्वयं सुखी होना चाहता है दूसरोंको भी सुखी बनानेका प्रयत्न करे तो सहज ही सम्पूर्ण जनता सुखी हो जाय । अतः पारस्परिक अहिंसक व्यवहार ही सुखका एकमात्र साधन है । उसको स्थायी बनाये रखनेके लिए उसके चार उपसाधन हैं । पहला यह कि किसीको धोखा न दिया जाय, जिससे जो कहा हो उसे पूरा किया जाय । ऐसे वचन न बोले जाय जिससे दूसरोंको मार्मिक पीड़ा पहुंचे । दूसरा यह कि प्रत्येक मनुष्य अपने परिश्रमसे उपार्जित वस्तु पर ही अपना अधिकार माने । दूसरों के परिश्रम पर निर्वाह करनेवाला प्रजाके लिए घातक होता है। यद्यपि व्यवसायो व्यक्ति भी समाजके लिए उपयोगी हैं किन्तु उत्पादक और परिश्रम शील प्रजाका भाग हड़प लेनेवाले व्यवसायी नहीं हैं, घातक जन्तु हैं । ऐसे व्यवसायियोंका गरोह प्रजाकी सुख शान्तिके लिए वांछनीय नहीं है । अतः न्याय विरुद्ध द्रव्यका ग्रहण करना अशान्ति, दु:ख और कलहका बीज है । तीसरा यह कि स्त्री-पुरुषको भोगोंमें आसक्त नहीं होना चाहिये । १०८ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजीवन में जैनाचारकी उपयोगिता भोगों में श्रासक व्यक्ति जनसमुदाय के लिए एक भयंकर जन्तु है। वह न केवल अपने स्वास्थ्यकी ही हानि करता है, बल्कि भावी सन्तानको भी निर्बल बनाता है । तथा इस तरह समाजमें दुराचार और दुर्बलताको फैलानेका पाप करता है । अतः प्रत्येक स्त्रीको अपने पति के साथ और प्रत्येक पुरुषको अपनी ही पत्नीके साथ संयमित जीवन बिताना चाहिये । चौथा यह कि संचय वृत्तिको नियमित करना चाहिये; क्योंकि आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से मनुष्य की तृष्णा ही बढ़ती है तथा समाज में असंतोष फैलता है । यदि वस्तुओं का अनुचित रीति से संग्रह न किया जाय तो प्राणियोंको जीवन निर्वाहके साधनों की कमी नहीं पड़ सकती । अतः जो श्रुति संग्रह करता है वह जनता को जानबूझकर कष्ट देता है । इस तरह अहिंसाको व्यावहारिक रूप देनेके लिए सत्य, चौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह - परिमाणका पालन करना आवश्यक है । उसके विना हिंसाका ढोंग रचना व्यर्थ है तथा हिंसाको जीवनमें उतारे विना सुख शान्तिकी चाह करना व्यर्थ है। प्रत्येक प्राणीका यही आचार धर्म बतलाया था जो श्राज जैनाचार कहा जाता है । भगवान ऋषभदेवने जैनाचार का मूलाधार -- जैनाचार का मूलाधार अहिंसा है । सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हिंसा के ही — विभिन्न रूप हैं । यथार्थ बात न कहने से, दूसरे व्यक्तिको भिथ्या-परिज्ञान होने से हानि की संभावना है तथा अपने चित्त में भी कलुषता उत्पन्न हो जाती है। अतः सवचन हिंसाका उत्पादक होनेसे हिंसा ही है । इसी तरह पर धनका अपहरण अपने व परके चित्तमें कलुषता उत्पन्न करनेके कारण हिंसा है । यदि वह मालिककी राजीसे ले लिया जाता है तो उसमें हिंसा नहीं है । परस्त्री गमन भी तीव्र रागका कारण होनेसे हिंसा है । क्यों कि रागादि परिणाम हिंसा स्वरूप हैं । इसी तरह परिग्रहका श्रुति संचय दूसरे मनुष्योंको गरीब बनाता है । उनकी रोटी छीनकर उन्हें दुखी करता है इसलिए वह भी हिंसा ही है । सारांश यह है -- जिन कामोंसे दूसरोंको संक्लेश होता है और अपने गुणोंकी हानि होती है वे सम्पूर्ण कार्य हिंसा हैं । हिंसाका रूप और उसका त्याग- हिंसा दो प्रकारकी है – एब रक्षणात्मक और दूसरी आक्रमणात्मक । जो हिंसा आत्मरक्षा के लिए अनिवार्य हो वह रक्षणात्मक है । उदाहरण के लिए कोई गृहस्थ व्यापार, उद्योग और कृषि, आदि आजीविका के साधनों के विना नहीं रह सकता है। भले ही वह हिंसक व्यापारोंको छोड़ दे तो भी व्यापार में परोक्ष हिंसा अवश्य होती है। गृहस्थ इस श्रारम्भ-जनित हिंसाका त्याग नहीं कर सकता फिर भी वह आक्रमणात्मक हिंसा के द्वारा किसीका धन नीति पूर्वक नहीं छीनता । किसीको सताता नहीं और न किसीके गुणोंका घात करता है । १०९ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दूसरी युद्ध जनित हिंसा है, जो अपनी, अपने कुटुम्बकी, अपने धर्म तथा देशकी रक्षाके लिए करनी पड़ती है। कोई भी जैनाचारका पालक प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे हिंसा करना नहीं चाहता । वह किसीको मारने के इरादेसे नहीं मारता, फिर भी वह अन्यायका प्रतीकार तो करता है। उक्त स्थितिमें यदि युद्ध अनिवार्य हो जाता है तो वह उससे विमुख नहीं होता। क्योंकि गृहस्थ होनेके नाते उसपर अनेक उत्तरदायित्व हैं । धर्मके नाम पर हिंसा भारतवर्षमें धर्मके नाम पर देवी देवताओंके सामने बलिदानके रूपमें हिंसा होती है । अनेक मनगढन्त वाक्य रचकर इस हिंसाकी पुष्टि की जाती है और उसे धर्म कहा जाता है । जैनाचारमें यह हिंसा सब हिंसात्रोंसे अधिक निंद्य है। क्योंकि इस हिंसाके द्वारा केवल प्राणीका घात ही नहीं होता। बल्कि धर्म के नामपर जनताको पथभृष्ट किया जाता है । अतः यह हिंसा सर्व प्रथम त्याज्य है। जैनाचारके दो रूप-- जैनाचारके दो रूप हैं—एक गृहस्थाचार और दूसरा साधुका श्राचार । हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये सब पापोंके मूल हैं । जो इनसे पूरे तरहसे बचे हुए हैं, वे मुनि या साधु कहलाते हैं । विपत्तियोंका पहाड़ टूट पड़नेपर भी वे हिंसा या कोई अन्य पाप नहीं करते । वे परिपूर्ण ब्रह्मचारी तथा तिलमात्र भी परिग्रह अपने पास नहीं रखते । वे सदा इस बातका ध्यान रखते हैं कि हमारे किसी कार्यसे छोटे से छोटे कीट, पतङ्गको भी कष्ट न पहुंचे। ये जीव मात्रपर सम भाव रखते हैं । उनकी दृष्टिमें सभी जीवधारी समान हैं । वे सबका कल्याण चाहते हैं । उनका सारा समय ज्ञान, ध्यान और तपमें ही बीतता है। वे कभी भी अपने अपराधोंकी उपेक्षा नहीं करते । यदि उनसे कोई अपराध बन पड़ता है, तो उसका वे प्रायश्चित्त लेते हैं । जन कल्याणकी भावनासे वे सदा देश देशान्तरोंमें विचरते रहते हैं और गृहस्थोंको सुमार्ग बताते हैं । इस प्रकार लौकिक और पारलौकिक हित-साधनमें जैन मुनिश्रोंका बड़ा हाथ है। गृहस्थाचार-- पहले बताया जा चुका है कि जैन गृहस्थ अाक्रमणात्मक हिंसा नहीं करता किन्तु वह रक्षात्मक हिंसाका त्याग नहीं करता । अतः वह अहिंसा-अणुव्रतका पालक है। शेष व्रतोंका भी वह एक देशसे ही पालन करता है । क्योंकि सम्पूर्ण रूपसे पालन करना गृहस्थावस्थामें संभव नहीं है । वह हित और मित वचन बोलता है । अनैतिक ढंगपर पराये धनको गृहण नहीं करता। अपनी विवाहिता पत्नी तक ही अपनी भोग-लालसा सीमित रखता है तथा उतने ही धनका संचय रखता है जितना उसे अपने कौटुम्बिकनिर्वाहके लिए आवश्यक होता है । ये पांच गृहस्थके अणु-व्रत हैं । ईन पांच अणुव्रतोंको पूर्ण करनेकी दृष्टिसे गृहस्थके सात व्रत और भी हैं। ११० Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजीवन में जैनाचारकी उपयोगिता तीन गुणवत- गृहस्थ अपने व्यावसायिक क्षेत्रकी मर्यादा निश्चित कर लेता है। इसे 'दिव्रत' कहते हैं । यह मर्यादा जीवन भर के लिए होती है। उसके भीतर भी कुछ समयके लिए जो उस मर्यादाको सीमित किया जाता है यह दूसरा 'देशव्रत' कहलाता है तथा इस नियमित क्षेत्रके भीतर भी वह व्यर्थ के काम नहीं करता यह तीसरा 'अनर्थ- दण्डव्रत' कहलाता है। इन तीन व्रतोंके पालनेसे गृहस्थकी लोभ वृत्ति घटती है । उसका जीवन नियमित और संयमित बनता है । इसीसे इन व्रतोंको गुणत्रत कहते हैं। क्योंकि उनके पालने से गृहस्थ में गुणोंकी वृद्धि होती है । शिक्षाव्रत प्रत्येक गृहस्थका अन्तिम लक्ष्य स्व-पर-कल्याण है । इसी उद्देश्यसे वह प्रतिदिन तीनों संध्याओं को कुछ समय के लिए एकान्त में जाकर अपने स्वरूपका विचार करता है। श्रात्मा क्या है, मैं कौन हूं, मेरा क्या धर्म है, इत्यादि बातोंको वह विचारता है । इसे 'सामायिक' कहते हैं । सप्ताह में केवल एक बार नियमित दिनपर वह उपवास करता है और भोजनका त्याग करके सम्पूर्ण व्यवसायोंसे छुट्टी लेकर एकान्त स्थानमें धर्माराधना करता है । इससे उसे बड़ा लाभ होता है, इसे 'प्रोषधोपवास' कहते हैं । तीसरा शिक्षाव्रत 'भोगोपभोग - परिमाण' है, इसके अनुसार गृहस्थ अपने समस्त भोगोंको प्रतिदिन काम करता जाता है । किसी भी वस्तुका श्रावश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करता । 1 चौथा शिक्षाव्रत दान है । इस शिक्षाव्रत के दो अंग हैं – दूसरोंके हितके लिए धनका त्याग तथा सेवा । दोनोंमें ही स्वार्थ त्यागकर उदारता से वर्तनेकी शिक्षा मिलती है । इसका दूसरा नाम ' वैयावृत्य' भी है । इस तरह जैन गृहस्थको अल्पसंग्रही, मितव्ययी और निर्लोभी बनानेका विशेष ध्यान रक्खा गया है । क्योंकि उसके लिए परिग्रह त्याग, अनर्थ दण्ड त्याग, भोगोपभोग परिमाण तथा दान इस तरह चार व्रत रक्खे गये है । इतने नियमोंके रहते हुए भी धनिककी तृष्णा इतनी बलवती है कि गृहस्थ परिग्रहका संचय कर ही लेता । इसीसे संचित धनको घटानेके लिये दान नामका शिक्षात्रत कहा गया है । जो संचित धनको दूसरोंके हित के लिये त्याग देता है उसकी भावना कम ऊंची नहीं होती । ऐसी उदार वृत्ति वाले व्यक्ति ही दीन-दुखी प्राणियोंकी सेवाके लिए एक दिन अपना सब कुछ त्याग देते । इस तरह मानव जीवनमें सदाचारका बहुत महत्त्व है और जैनाचार मनुष्यकी पाशविक वृत्तियों का नियमन करके मनुष्यको उदार और लोकसेवक बनाता है । १११ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ चार भावनाएं उक्त नियमोंके सिवाय जैनाचारमें कुछ ऐसी भावनाओंका समावेश किया गया है. जिनका परिपालन मनुष्यको बहुत उन्नत बनाता है । उन भावनाओंमें चार मुख्य हैं । पहली 'सर्व-सत्त्व-समभाव' । इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य प्राणिमात्रको अपने बराबर समझे । जिन कामोंके करनेसे उसे स्वयं दुःख होता हो उनका प्रयोग दूसरे प्राणियों पर न करे। अपने ही समान दूसरों को भी ऊंचा उठानेका प्रयत्न करे । उसका यह विश्वास होना चाहिये कि प्रत्येक जीव अनन्त गुणोंका भंडार है। वह परमात्मा बन सकता है. फिर हीनता कैसी ? इस भावनाके अनुसार गृहस्थको प्रत्येक प्राणिसे मित्रकी तरह व्यवहार करना आवश्यक है। दूसरी है 'प्रमोद भावना', इसका तह तात्पर्य है कि गृहस्थ गुणीका अादर करता है। उसे देखकर उसका हृदय विकसित हो उठता है । जो गुणी जनोंका अादर करता है वह गुणोंके विस्तार करनेमें सहायक होता है । इसलिए गुणवान्का अादर करना चाहिये । ___ तीसरी भावना है दया, किसी भी प्राणीको दुखी और पीडित देखकर दयाका भाव अवश्य पैदा होना चाहिये । क्योंकि दयालुताके विना मनुष्यमें स्वार्थ त्यागकी भावना नहीं आ पाती । और स्वार्थत्यागके विना दूसरेके दुःखोंको दूर नहीं किया जा सकता है । जो व्यक्ति दूसरोंको सुखी बनाता है, संसार उसका स्वयं मित्र बन जाता है । अतः दुखी जनोंका दुःख मेटनेकी भी भावना आवश्यक है। ___ संसार में एक चौथे प्रकारके भी प्राणी होते हैं जिन्हें दुर्जन कहते हैं । दुर्जन अकारण ही विरोध कर बैठते हैं और हितकी बात कहने पर भी सन्मार्गकी ओर नहीं लगते बल्कि उल्टे असन्मार्गकी ओर ही जाते हैं । सद् गृहस्थ ऐसे व्यक्तियोंसे भी घृणा या द्वेष नहीं करता । जहां तक उसका प्रयत्न चलता है, वह उनको सुधारनेकी ही चेष्टा करता है और अपने प्रयत्नमें असफल होनेपर भी खेद खिन नहीं होता । वह सदा इस बातका प्रयत्न करता है कि विरुद्ध मार्ग पर चलनेवालोंके प्रति भी मेरे मनमें रोष उत्पन्न न हो। उसकी यह भी भावना रहती है कि संसारसे वैर और विरोधको जितना भी मिटाया जा सके मिटा दिया जाय। जैनाचारका प्रधान लक्ष्य ___ इस तरह प्राणिमात्रमें दया, क्षमा, पवित्रता, सरलता, नम्रता, उदारता, सहिष्णुता, परदुःख कातरता, सेवा परायणता, आदि सद्गुणोंको उत्पन्न करना जैनाचारका प्रधान लक्ष्य है। मानव चरित्रमें जितनी उज्ज्वलता तथा पवित्रता आवश्यक है,जैनाचारमें उसको लानेका ही प्रयत्न किया गया है। जैनाचारके उपर्युक्त संक्षिप्त परिचयसे सहज ही यह समझमें आ सकता है कि मानव जीवनमें जैनाचारका ११२ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजीवन में जैनाचारकी उपयोगिता कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है । एक प्राथमिक जैन गृहस्थ शराब, मांस, जुना, चोरी, वेश्या, परस्त्री, आदि पापोंका त्यागी होता है । ये ऐसे पाप हैं जिनसे समाज और देश रसातलको जा सकता है। सचमुच में वह एक स्वर्णयुग था जब जैनाचारका यथार्थ पालन करनेवाले सज्जन भारत में रहते थे । उस समय प्रजामें सुख, शान्ति और सन्तोष था । कलह, ईर्ष्या और दंभका नाम भी नहीं था । यदि श्राज भी विश्वके नागरिक जैनाचारको अपने जीवन में उतार सकें तो संसार सुख और शान्तिका यागार बन सकता है और इस संघर्ष युगका अन्त हो सकता है । १५ ११३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तकी मान्यता राय बहादुर प्रा. ए. चक्रवर्ती एम. ए. . आधुनिक दार्शनिकोंकी आपत्ति - दार्शनिक विद्वानोंने अपने दार्शनिक निर्णयोंको समझाने के लिए अनन्तके विषय में गणित के शब्दों का उपयोग किया है। परमेनडीज़ और जीनूसे लेकर काण्ट तथा बर्गसन तक के दार्शनिकोंने समझा है कि अनन्त शब्द में आत्म-विरोध भरा हुआ है। इस कल्पना के आधारपर उन्होंने सिद्ध किया है कि आकाश तथा काल स्व-विरोधी हैं । दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी काण्टकी उन विरुद्ध बातों (Antimolies ) से सुपरिचित हैं जिन्हें उसने स्व-विरोधी बताया है । उनकी श्रापत्तिका मुख्य आधार यह है कि श्राकाशमें प्रदेश नहीं हो सकते और कालमें क्षण ( Moments ) नहीं हो सकते । यदि कालमें क्षण पाये जावें तो थोड़े से मर्यादित कालमें गणित क्षणोंकी संख्या होगी और तब यही बात स्व-विरोधी बन उठेगी । सर्वत्र ऐसा समझकर दार्शनिकोंने श्राकाश और कालको अ यथार्थ मानकर परित्याग कर दिया और इस प्रकार अपनी केवल आदर्शवादी ( Idealistic Systems ) विचार-प्रणालीका निर्माण किया है । अनन्त का विरोध -- काण्ट ( Kant ) इस आधिभौतिक निर्णयपर पहुंचे हैं कि भौतिक वस्तु-संयुक्त बहिर्जगत में जो आकाश है वह यथार्थ और वास्तविक है । इस निर्णय का आधार यही विचार है कि अनंत विषयक गणित शास्त्रका विचार स्व-विरोधको प्रकट करता है, इसलिए वह असम्भव है । कुछ वर्ष हुए बी. रसल (B, Russel ) तथा ह्वाइटहेड ( White head ) सदृश गणितज्ञोंने स्पष्टरूपसे बतलाया है। कि विभाजन के सम्बन्ध में ऐसी कल्पना अनुचित और प्रसिद्ध है । उन्होंने अधिक स्पष्ट किया है कि अनंतकी कल्पना या उसका भाव स्व-विरोधी नहीं है और यह मान्यता सान्त और अनन्त संख्याओं के भ्रमके कारण स्व-विरोधी प्रतीत होती है । गणना के द्वारा प्राप्त सान्त संख्या में वे बातें हैं जो अनन्त संख्या में नहीं पायी जातीं । सान्त संख्या में दूसरी सान्त संख्याका योग करनेपर अथवा इसमें से दूसरी सान्त संख्या के घटाने पर हानि-वृद्धि पायी जाती है । इस प्रकार १ २ ३ ४, आदि संख्या माला बताती हैं कि ११४ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तकी मान्यता 'आगे-आगेके अंक एकके जोड़नेसे बढ़ते जाते हैं । अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस मालाकी ‘एक-सौ-एक' संख्या भी सौमें एक जोड़नेसे ही प्राप्त हो सके गी । उसका परिहार अनन्त संख्यामें यह वैशिष्ट नहीं पाया जाता । उदाहरणार्थ- १, २, ३, ४, श्रादि संख्याओंकी एक माला लिखिये और ठीक उसके नीचे २, ४, ६, ८, आदि यथा क्रम लिखिये । इनमें सान्त अंकोंकी प्रथम माला अंत रहित है, कारण, उसको विना मर्यादाके गणना कर सकते हैं । इसे ही पारभाषिकशब्दमें 'अनन्त माला' कहें गे । इसमें पाये जाने बाले अंक अनन्त हों गे । इसी प्रकार २,४,६,८, आदि अंक वाली दूसरी माला भी अंत रहित है और उसे भी अनन्त-अंक-युक्त अनन्त माला कहें गे | प्रथम मालाके प्रत्येक अंकके अनुरूप दूसरी मालामें अंकावली है इस तरह दोनों मालाएं तुल्य हैं, क्यों कि दोनों अगणित अंकावलि युक्त हैं । किन्तु द्वितीय मालामें सम-संख्या वाले अंक हैं, विषम संख्यात्रोंका अभाव है । प्रथम मालामें सम और विषम सभी अंक हैं । इसप्रकार एक दृष्टि से कह सकते हैं कि द्वितीय माला प्रथम मालाका एक अंग है, कारण; वह सब विषम संख्याओंसे शून्य है। यद्यपि, ऊपर देख चुके हैं कि गणितकी दृष्टि से दोनों मालाएं सदृश हैं क्योंकि दोनों अनन्त हैं-अन्त रहित हैं । तथापि एक पहेली-सी सम्मुख अा खड़ी होती है जो ऊपरसे देखने में जटिल ज्ञात होती है कि यदि दोनों मालाएं सान्त हैं तब तो दूसरी मालामें पहिली मालाकी अपेक्षा अल्पतर अंक होना चाहिये कारण उसमें प्रथम मालाके कुछ अंक नहीं हैं । यह निर्णय अनन्त संख्यात्रों के सम्बन्धमें नहीं लग सकता क्योंकि प्रथम मालाके प्रत्येक अंकके स्थानमें द्वितीय मालामें अन्य अंकावली है । यह उभय-गत समानता सर्वत्र पायी जाय गी। और चूंकि दोनों मालाएं अनन्त हैं इसलिए उनकी सदृशता एकताको प्रकट करेगी। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि धन और ऋण सदृश गणितकी प्रक्रिया अनन्त अकोंके सम्बन्धमें अर्थहीन है । अनन्त संख्यामें अन्य संख्याअोंके जोड़नेपर वृद्धि नहीं होती तथा अनन्त संख्या में से कुछ संख्यात्रों को घटानेपर उसमें हानि भी नहीं हो गी । वह अनन्त ही रहेगी। अनन्त माला ( Series ) का शाब्दिक अर्थ अंत-हीन माला है अर्थात् ऐसी संख्याएं जिनका कोई अंत न हो । कालकी अवधि इसी प्रकार 'अनन्त-माला' रूप है। अनंत मालाका नियमके अनुसार अंत नहीं होगा, यह प्रचलित मान्यता अाधुनिक गणित-सिद्धान्तोंके अनुसार कुछ संशोधन योग्य है, उदाहरणार्थ-१-२-३-४, आदि अंकोंकी माला अनन्त माला रूप है क्योंकि कितनी ही गणना करते जाइये, उसके अंतिम अंकको प्राप्त नहीं कर सकते । प्रचलित मान्यताके अनुसार भी यह माला अंत रहित अर्थात अनन्त है। किंतु उसका प्रारम्भ १' अंकसे होता है जो कि मालाका प्रथम अंक ११५ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ (पद) है। यहां हमारे पास प्रारंभ युक्त अनन्त माला है, उसका अंत नहीं है । साधारण मान्यता भी इस बातको विना कठिनताके स्वीकार करे गी । गणितकी दृष्टिसे इसके विपरीत क्रमवाली अनन्त मालाको भी निकाल सकते हैं। जैसे कि '१' श्रंक लिखिये और उसकी बाईं ओर से आदि भिन्न युक्त अंकों को लिखते जाइये । इस भिन्न युक्त अंकवाली मालाका आरंभ यद्यपि '१' अंक है, स्थापि यह हीयमान भिन्न-युक्त अनन्त माला है । वह भिन्न अंक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जिसे अंतिम कहा जा सके। क्योंकि सदा उस मनोतीत अंतिम भिन्नसे भी अल्पतर अर्थात् आगेकी संख्या की कल्पना कर सकते हैं । यह अनंत माला जिसका प्रारंभ '१' से होता है तथा जो पीछे की ओर बढ़ती है, अनंत माला कही जा सकती है जिसका श्रादि तो नहीं है परंतु उसका अंत या पर्यवसान '१' अंक में होता है । काण्ट तथा अन्य दार्शनिकोंने समझा था कि आदि-हीन किंतु अंत-युक्त अनंत माला स्वविरोधी हैं । परंतु गणित शास्त्रकी दृष्टिसे '१' से प्रारंभ होनेवाली माला जो अनंत पर्यंत चली जाती है, तथा वह भिन्न माला ( Series of Fractions ) जिसका आरंभ '१' है और जो पोछे अनंत तक पहुंचती है; इनमें कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार एक ऐसी अनंत संख्या प्राप्त की जाती है जिसका आदि तो हैं लेकिन अंत नहीं है । तथा दूसरी ऐसी अनंत संख्या प्राप्त होती है जिसका अंत तो है लेकिन यदि नहीं है । गणितकी दृष्टि से दोनों सम्भव हैं, इसलिए वे स्व-विरोधी और अपरमार्थ शब्द के द्वारा नहीं कही जा सकतीं । यदि श्रागे वर्धमान पद-युक्त प्रथम माला यथार्थ है तो उत्तरोत्तर होयमान- भिन्नरूपवाली द्वितीय माला भी यथार्थ है । जैन मान्यता- गणितकी इन मान्यताओंका जैन दर्शन से बहुत बड़ा सम्बन्ध है । जैन दर्शन स्पष्टतया यथार्थ - वादी है, अतः वह आकाश और काल युक्त विश्वमें वस्तुको वास्तविक मानता है। जैनदार्शनिकों ने कालको क्षणोंकी राशि रूप कहा है जिन्हें कालपरमाणु कहते हैं । कालकी परिभाषा में कहा गया है कि वह काल-परमाणुत्रोंकी राशि मालारूप वर्धमान पंक्ति स्वरूप है, ऊर्ध्व प्रचय रूप हैं अर्थात् एक-एक परमाणु रूप पंक्ति जो उत्तरोत्तर क्षण युक्त या काल परमाणु विशिष्ट है । इस काल संख्या के अनुरूप ही गणितकी धारा है । गणितकी उस धारा में श्राकाशके प्रदेश हैं । आकाश स्वयं भिन्न भिन्न दिशाओं में अंश- मालाका पुञ्ज है जो लम्बाई - मोटाई-चौड़ाईके रूपमें विविध विस्तार युक्त हैं । श्राकाश और काल इन दोनों में अंश विभाग बताया है और आधुनिक गणितज्ञ भी आकाश और कालके इस स्व-विरोधका निराकरण करते हैं। यहां गणित सम्बन्धी धाराका विचार दार्शनिकोंकी सहायता करता है । ११६ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तकी मान्यता अनन्त विभाजन (भूमिति )-- रेखागणितकी एक रेखाको लीजिये। उसे दो, दो बार विभाजित करते जाइये और अनन्त बार प्रत्येकके भाग कीजिये । प्रत्येक विभागका विभागी-करण कभी समाप्त न हो गा । इस धाराके विभागी करणकी अनन्तताकी सम्भावना पहले असम्भव और स्व-विरोधी मानी जाती थी। परन्तु अाधुनिक गणितज्ञोंने इसके प्रतिकूल संभावना और अविरोध सिद्ध कर दिया है। असम्भवता इस कल्पना पर निर्भर थी कि एक सान्त धारामें सान्त या सोमित ही अंश हों गे । परंतु स्थिति यह नहीं है। यह ऊपर बताया जा चुका है कि ससोम रेखामें सीमित अंश होते हैं । यहां श्राप अनंत अंश मालाकी व्यवस्थाका क्रम रेखागणितकी रेखा के अंतों-कोणोंमें पाते हैं जो सादि और सान्त हैं। यदि ससीम रेखामें जिसका काल मर्यादित है उसमें मर्यादातीत अर्थात् अनंत अंश हैं तथा वह अनंत संख्या वाले क्षण विशिष्ट हैं तब यह दार्शनिक-पालोचना कि काल और अाकाशमें स्वयं विरोध है, युक्तियुक्त न होगी । अतएव दार्शनिकोंको इस परिणाम पर नहीं पहुंचना चाहिये कि अाकाश और काल असत्य तथा असम्भव हैं । अनादि-अनन्त की सिद्धि-- ___ इस तरह हम जैनदर्शनके अनुसार ऐसे जगतको पाते हैं जिसका न तो अादि है और न अंत, यद्यपि उसमें परिणमन होता रहता है । यह भी सम्भव है कि संसारमें जीव सदा पर्यटन करता रहे । इसतरह एक श्रात्माकी अपेक्षा संसारका अादि नहीं है। उसी प्रकार अनंत माला भी अनादि होगी। जब आत्मा कर्मके बंधनोंको तोड़कर स्व-स्वरूपको प्राप्त करता है—मुक्त होता है, तब जीवन और मरण रूप संसार परिभ्रमणकी गति रुक जाती है । इस प्रकार इस विषयमें आदि विहीन संसारका अंत हो जायगा । यद्यपि व्यक्तिगत रूपसे आत्माएं संसार चक्रसे छूटकर मुक्ति पा जाती हैं, तथापि संसारमें विद्यमान अनंत जीवोंकी अपेक्षा संसारकी शृंखला अविच्छिन्न रूपसे चली जाती है । संसारमें विद्यमान अनंत जीवोंकी अपेक्षा संसारकी शृखला अविच्छिन्न रूपसे चलो जाय गी। संसार अनन्त जीवोंका पुञ्ज है, उसमें से कितनेही जीव चाहे वे अनन्त ही क्यों न हो, मुक्त हो जाय, तब भी वह पुञ्ज या अनंत राशि किसी प्रकार कम नहीं होगी। जिन अात्माोंने निर्वाण प्राप्त किया है वे अनंत होंगी, फिर भी संसारमें विद्यमान जीव राशिकी संख्या पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़े गा । यथार्थ में यह बहुत मनोरंजक बात है कि भौतिक विज्ञानके जैन आचार्योंने श्राकाश, काल और अनंत प्रचयके विरुद्ध उठायी गयी अनेक शंकाओंके उत्तरमें गणितकी एक पद्धतिको समुन्नत किया था, आधुनिक गणित के सिद्धान्त जिसका समर्थन करते हैं और जिसका प्रचार रसल और ह्वाइट हेड जैसे महान् गणितज्ञोंने किया है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ उपसंहार सबका निष्कर्ष यह है कि अनन्त-माला या अनन्त-प्रचय स्व-विरोधी नहीं है। यह बात उस समय सहज ही हृदयग्राही हो जाती है, जब यह स्मरण रखा जाय कि साधारण सन्त अंकोंका सम्बन्ध अनंत अंकोंसे नहीं हो सकता है। एक अनंत समुदाय कितनी ही बड़ी संख्या घटाने या जोड़नेसे न तो क्षीयमान होगा और न वर्धमान होगा। अनंत-माला सादि हो किंतु सन्त न हो अथवा वह अनादि अनंत ही हो गणितके ये निश्चय भौतिक विज्ञान के जैन-प्राचार्योंने अपने दार्शनिक सिद्धान्तोंके विशद विवेचनमें भी प्रयुक्त किये थे। ११८ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की पूर्व-परम्परा स्व० आचार्य श्री धर्मानन्द कौशाम्बी प्राचीन कालसे ही राज-संस्था हिंसाकी भित्तिपर आधारित होती अायी है । एक प्रकारकी राज्य व्यवस्था मिटाकर उसकी जगह दूसरे प्रकारकी स्थापित करनेमें रक्तपात होना अपरिहार्य है, ऐसा अब भी बहुतोंको लगता है । राजाओंसे ही देवताओंकी कल्पना निकली हो गी । राजा लोग यदि अधिक प्रिय हों, तो फिर देवता भी वैसे ही क्यों न हों ? इसीसे वैदिक कालीन भारतके समान ही मिस्र, सीरिया, ग्रीस, आदि देशोंमें भी यज्ञ यागकी प्रथा लोक प्रिय हुई । भारतमें वैदिक संस्कृति प्रथमतः सिन्धु नदीके प्रदेशमें फैली और बादमें पंजाबके मार्गसे होती हुई धीरे धीरे वह पूर्वकी ओर फैलती गयी। आदि अहिंसा संस्थापक-- अहिंसात्मक संस्कृतिकी स्थापना करनेका प्रथमतः श्रेय जैन-तीर्थङ्करों को देना चाहिये । आदिनाथसे महावीर स्वामी तक जो चौबीस तीर्थङ्कर प्रसिद्ध हैं, वे सब अहिंसा-धर्मके पुरस्कर्ता थे, ऐसा सभी जैन मानते हैं । अपनी संस्कृति वैदिक संस्कृतिसे भी प्राचीनतर है; ऐसा जैन पण्डित प्रतिपादन करते हैं । स्थानांग सूत्र में लिखा है"भरहेरवएसु णं वासेसु पुरिमपच्छिमवजा माज्झिमगा वावीसं अरहंता चाउजामं धम्मं पणणवेति । तं जहा-सव्वातो पाणातिवायाश्रो वेरमणं, एवं दाणाश्रो वेरमणं, सव्वातो अदिन्नदाणाश्रो वेरमणं सव्वाश्रो बहिद्धाणाश्रो वेरमणं ।” अर्थात् ---भरत और ऐरावत इस प्रदेशमें पहले और अन्तिम छोड़ कर बाईस तीर्थङ्कर चातुर्याम धर्म उपदेश देते हैं । वह इस प्रकार है 'समस्त प्राणघात से विरति, उसी प्रकार असत्यसे विरति, सर्व अदत्तादान ( चोरी ) से विरति, सर्व बहिर्धा उदान ( परिग्रह ) से विरति ।' ___ इस उद्धरणमें भरत और ऐरावत इन दो प्रदेशोंके नाम आते हैं । वैदिक साहित्यकी दृष्टि से भरत अाजकलका पंजाब ठहरता है । ऐरावत कौन प्रदेश है, समझमें नहीं आता । वह पंजाबके पूर्वकी ओर होगा । इन दोनों प्रदेशोंमें प्राचीन तीर्थङ्कर चातुर्याम ( चार संयम ) धर्मका प्रचार करते थे । पाश्चात्य पण्डितों के मतानुसार भी चातुर्याम धर्मका संस्थापक पार्श्वनाथ तेईसवां तीर्थङ्कर ही था। अतः सबसे पहिले अहिंसा धर्मकी स्थापना और प्रचार करनेका श्रेय तीर्थङ्करोंको मिलता है, क्योंकि पार्श्वनाथका काल बुद्ध-पूर्व २०० वर्ष है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वो-अभिनन्दन-ग्रन्थ इस समय पूर्व प्रदेशमें बहुतसे महाजन सत्ताक राज्य अस्तित्वमें थे। उनमें मगधके उत्तरकी अोर बनीका राज्य महा प्रबल था । इस राज्यमें जैनधर्मका प्रचार बहुत था। इसका कारण यह जान पड़ता है कि वहांके मुख्य वासो कृषक थे और यज्ञ-यागोंमें कृषि-उपयोगी जानवरोंकी बलि उन्हें पसन्द न थी। दूसरे जो मल्ल, शाक्य, आदि गणतन्त्र थे, उनमें भी यज्ञ यागको कोई स्थान नहीं था, ऐसा जान पड़ता है । मगध और कौशल के राजा लोग और उनके रक्षित ब्राह्मण जागीरदार लोग बीच बीचमें याग किया करते थे, परन्तु वह जनताको प्रिय न था, क्योंकि ऐसे यज्ञोंमें खेतीके जानवर ( गाय, बैल, वगैरह ) लोगों से जबर्दस्ती लिये जाते थे । इस प्रकार पूर्वको अोरसे सभी राष्ट्रोंसे अहिंसा धर्मको आपसे आप जनताका पृष्ठ पोषण मिलता था । एक उपेक्षा-- जैन साधु प्राणियोंपर दया करनेका उपदेश देते थे, तो भी मनुष्य जातिमें होने वाली लड़ाइयोंके सम्बन्धमें उदासीन रहते थे। स्त्रो-कथा, भक्त-कथा, देश-कथा, राज-कथा ऐसी कथाएं वे गर्दा मानते', अत्यन्त सूक्ष्म जन्तुओंकी रक्षाके निमित वे बड़ी चिन्ता करते । जन्तुअोंकी रक्षा करते करते एक दूसरा बड़ा दोष (?) जैन साधुत्रोंमें घुस गया वह यह कि जीवन निर्वाहके लिए वे भिक्षाटनके सिवा और कोई भी शारीरिक कर्म नहीं करते । भिक्षाटन भी नियमित जगह पर ही करते । तपस्या प्रधान नियमों के कारण जैनधर्म हिन्दुन्तानके बाहर न जा सका और इसीसे जैनधर्मको आजका संकुचित स्वरूप प्राप्त हुआ। ऐसा होने पर भी सर्वप्रथम अहिंसा धर्मका आविष्कार जैन धर्मने ही किया और हिन्दस्तानके पूर्व प्रदेशकी सामान्य जनताको मनोभूमिमें भूत-दयाका बीजारोपण किया । अतः अहिंसात्मक सत्याग्रहका श्राद्य जनकत्व पार्श्वनाथको ही देना पड़ता है। पार्श्वनाथके बाद तीसरी सदीमें अहिंसाका बड़ा पुरस्कर्ता बुद्ध हुआ। गृह त्यागके पहले वृद्ध, रुग्ण और मृत मनुष्योंको देखकर गौतमको वैराग्य हुआ और इस सम्बन्धमें बहुत सी रसभरी कथाएं बौद्ध ग्रन्थोंमें मिलती हैं । परन्तु त्रिपिटक ग्रन्थके प्राचीन विभागमें इस बातका कोई आधार नहीं । जरा, व्याधि और मरण इस विषयमें गौतमके मनमें बार बार विचार अवश्य आता होगा, ऐसा अंगुत्तर-निकायके एक सुत्तसे जान पड़ता है। परन्तु उसे सबसे भयंकर यदि कोई बात लगी तो यह कि 'फन्दमानं पज दिस्था मच्छे अरणोदके यथा । __ अंज भज्जेहि वारुद्धे दिस्वामं भयमाविसि ॥' अर्थात्--सूख चले हुए पानीमें जैसे मछलियां तड़फड़ाती हैं उसी प्रकार परस्पर विरोध करके तड़फड़ाने वाली इस मनुष्य जातिको देखकर मेरे मनमें भयका संचार हुआ। १. स्थानांग सूत्र न०२८२ । १२० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की पूर्व परम्परा इससे गौतमको मनुष्योंकी पारस्परिक हिंसा वृत्तिसे कितनी घृणा थी, यह स्पष्ट होता है। इसो कारण गृह त्याग करके उसने मनुष्य जातिके कल्याणका नया मार्ग खोज निकाला। जंगल में रहकर पानी की बूदमें रहनेवाले जन्तुपर भी दया दिखाना, पर इधर मनुष्य मनुष्यके बीचमें जब घोर संग्राम मचा हुआ हो तो भी उससे उदासीन रहना, इसप्रकारका अहिंसा धर्म बुद्धको पसन्द न था। मानवताको प्राधान्य देने के कारण बौद्ध धर्मका जैनधर्मसे अधिक फैलाव हुश्रा । परन्तु भिक्षाटन करना, जमीन खोदने, वगैरहके कामको निषिद्ध समझना और राज्य संस्थाके विषयमें उदासीन रहना, आदि कुछ दोष (१) बौद्धधर्ममें भी रह गये । राजाको कैसे वर्तना चाहिये, इस सम्बन्धमें कुछ सूत्र त्रिपिटकमें हैं। पर राजा यदि दुष्ट हुआ तो प्रजाको क्या करना चाहिये, इस विषयमें कोई विधान नहीं मिलता। वज्जियोंके गण-सत्ताक राज्यकी अभिवृद्धि के लिए बुद्ध के सात नियम बना देनेका उल्लेख महापरिनिब्बान-सुत्तके प्रारम्भमें ही है । पर प्लैटोके रिपब्लिक जैसे गण-सत्ताक राज्यकी स्थापना और विकास कैसे किया जाता है और उसमें बहुजन समाजका हित कैसे साधा जा सकता है, इसका विचार बौद्ध ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक नहीं मिलता। ईसाई अहिंसा तथा समाजवाद बुद्ध के पश्चात् छठी सदीमें प्रख्यात् अहिंसावादी ईसा हुआ | परमेश्वरका सौम्य रूप बताकर उसने मानवजातिमें अहिंसाके प्रचारका यत्न किया। जैन और बौद्ध भिक्षुओंको जमीन खोदने जैसे कामोंकी मनाही है, वैसी ईसाई साधुओंको नहीं है; परन्तु उन्हें शरीर निर्वाहके लिए शारीरिक परिश्रम करना ही चाहिये, ऐसा कोई नियम भी नहीं है । दूसरा यह कि राजकीय सत्तामें सुधार करनेका भी उन्होंने यत्न नहीं किया। सीजरको कर देना चाहिये या नहीं, यह प्रश्न पूछे जानेपर ईसाने उत्तर दिया- 'जो वस्तु सोजरको हो सो सीजरको दो, और जो वस्तु प्रभुकी हो सो प्रभुको दो' । इसका परिणाम यह हुआ कि ईसाई साधु राज्यसत्तानुवर्ती बन गये और कुछ दिनके बाद पोपने भी राज्य सत्ता लूट लो। किन्तु राज्य संस्थाको अहिंसात्मक बनानेका प्रयत्न ईसाके अनुयाइयोंने कभी नहीं किया। व्यापार-युग का पश्चिममें उदय होते ही श्रमी जनोंकी तो जैसे मृत्यु भा गयो। उनके दु:खोंका परिमार्जन करनेका जिन सत्पुरुषोंने प्रयत्न किया, वे समाजवादी कहलाये। उनमें और बौद्ध भिक्षुत्रों, ईसाई पादरियोंमें कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया तथा बौद्ध भिक्षु तथा ईसाई पादरी जहां मठ बांध कर रहा करते थे और शान्ति मार्गका उपदेश श्रावकोंको देते थे, वहां शारीरिक परिश्रम नहीं करते थे । इतना ही नहीं, बादमें ये भिक्षु और पादरी राजारोंसे इनाम, जागीरें पाकर जमीदार बन गये। इस कारण साधारण जनता तिरस्कार करने लगी। रावर्ट प्रोबेन प्रभृति सोशलिस्टोंका वतीव इनके खिलाफ था । गरीबोंके दुःख दूर करनेके लिए उन्होंने यह मार्ग स्वीकार किया। अमरीकामें जहां जमीन बहुत थी, उन्होंने जाकर एक बड़ी बस्ती १२१ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन ग्रन्थ स्थापित की । उस बस्तीमें सभीके लिए शारीरिक परिश्रम करना अनिवार्य कर दिया गया। इस प्रकार सम्पत्तिका उत्पादन होने पर प्रत्येकको अावश्यकतानुसार सम्पत्ति विभाजन किया गया और बची हुई सम्पत्ति सार्वजनिक कोषमें रक्खी गयी । परन्तु उनकी इस बस्तीकी आयु पांच-दस वर्षके आगे न बढ़ी। बाहरके लोग इन बस्तियों में आकर खलल डालते; सदत्योंमें धर्म प्रमावना और दूसरी भ्रान्त धारणाओंको प्रश्रय और उत्तेजना दिलाते, और इस कारण उनमें आपसी फूट पड़ कर अव्यवस्था मच गयी। कार्ल मार्क्स-युग-- शान्तिवादी दयालु गृहस्थोंका यह समाजवाद कार्ल मार्क्सको पसन्द न था। ऐसे लोगोंको मार्क्स नन्दनवनीय (Utopian) सोशलिस्ट कहा करता था। फिर भी मार्क्सका समाजवाद इन्ही नन्दनवनीय समाजवदियोंसे उदय हुअा, यह न भूलना चाहिये। मार्क्स के मतानुसार युद्ध बन्द करनेका उपाय था दुनियां भरके श्रमीजनोंको गठितकर पूंजीपतियों तथा जमीदारोंको नष्ट करना। उसका विचार था कि इस प्रकार सारी दुनिया के श्रमसंगठनसे युद्ध रुक जायगे और मनुष्य मात्रमें भ्रातृ-भाव फैल जावेगा। मजदूरोंका सबसे बड़ा शत्रु था राष्ट्राभिमान (Nationalism)। उसे नष्ट करनेके लिए उसने 'Workers International" नामकी एक संस्था स्थापित की वह उसके रहते ही टूट गयी। इसके बाद दूसरी इण्टर नैशनल स्थापित हुई । वह महायुद्ध के समयमें विलोन हो गयी। फिर रूसी राज्यक्रान्तिके बाद तीसरी इण्टर नैशनल भी बन गयी, पर इन यत्नोंसे भी शान्ति स्थापना न हुई। . ___ इटलीके सैनिक श्रमिकोंने अवीसीनियाको जो तहस नहस किया, स्पेनमें जर्मन और इटालियन श्रमिकों द्वारा जो अत्याचार किये गये और जापानी श्रमिकों द्वारा चीनमें सहधर्मियोंका जो करले श्राम किया गया, वह सब इसीका साक्षी है कि 'वर्करस् इन्टरनैशनल" भी एक नन्दनवनीय स्वप्न मात्र रहा। ___ मानव मात्रमें अहिंसा प्रस्थापित करने के लिए सबको शारीरिक परिश्रम करना ज़रूरी है, और अहिंसाके आध्यात्मिक बलपर हिंसा-विरोध पर कटिबद्ध हो जाना चाहिये, यही दो सिद्धान्त टालस्टायने दुनियांके सामने रक्खे । परन्तु टालस्टायका उपदेश माननेको पश्चिमी देश तैयार नहीं हुए, और महायुद्ध होकर ही रहा। महात्मा गांधीकी अहिंसा-- अहिंसाको व्यवहारिक रूप सर्वप्रथम महात्मा गांधीने ही दिया । पाश्चात्य संस्कृतिसे चकाचौंध होकर जो लोग बौद्ध और जैनधर्मके अहिंसा प्रचारको भारतके वर्तमान अधःपतनका कारण बताते हैं, उन्हें गांधीजीने अहिंसा प्रयोगसे खासा जवाब दिया । अहिंसा साधनाके बलपर कैसी तेजस्विनी हो सकती. है, यह स्वयं-कृति द्वारा गांधीजीने बताया । कितनी ही बलशाली और शस्र सम्पन्न, कोई सत्ता क्यों न हो १२२ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की पूर्व परम्परा पर सहिष्णु और अहिंसामय सत्याग्रहके आगे उसकी सत्ता हार जाती है, वह अभी अभी दुनियां फिरसे जानने, समझने और मनन करने लगी है । पार्श्व तीर्थङ्करने सूक्ष्म जन्तुओं पर भी दया दिखाना लोगोंको सिखाया। बुद्ध ने उस दयाका प्रभाव मनुष्य जातिको अोर बताया । पर इन दो महा विभूतियोंने दयाके साथ शारीरिक परिश्रमको नहीं बांधा । ईसाने अपने शिष्योंको शारीरिक श्रमके लिए मना नहीं किया। पर इन तीनोंने अहिंसाको केवल सिद्धान्तरूपमें संसारके सामने रक्खा उसे व्यवहारिक रूप नहीं दिया। शासन व्यवस्थासे उसका सम्बन्ध पहले पहल टालस्टायने किया, किन्तु इस सिद्धान्तको भी व्यवहारमें लानेका सर्वप्रथम श्रेय महात्मा गांधीको ही है। उन्होंने सर्वप्रथम संसारको दिखाया कि राजनीतिक क्षेत्रमें भी नहि वेरेन वेरानि सम्मन्ति ध कदाचन । अवेरेन च सम्मन्त ध एसधमो सनन्तनो ॥ अर्थात्-वैर से वैर बुझता नहीं, वह मैत्रीसे ही बुझता है.--यही सनातन धर्म है । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्ममें अहिंसा श्री स्वामी सत्यभक्त न्यायतीर्थ, साहित्य रत्न जो जन्म लेता है वह एक न एक दिन मरता अवश्य है। या तो एक प्राणी दूसरे प्राणीको मार डालता है अथवा प्रकृति ही उसका जीवन समात कर देती है। इनमें से प्राणोको प्रकृतिकी अपेक्षा दूसरे प्राणीका डर ज्यादा है एक प्राणी दूसरे प्राणीके खूनका प्यासा है। इसलिए नीतिवाक्य भी बन गया है-"जीवो जीवस्य जीवनम्'। अर्थात् एक जीव दूसरे जीवके जीवनका अाधार है । मनुष्य सबमें श्रेष्ठ प्राणी है ! बुद्धिमान होनेसे बलवान भी है। इसलिए यह उपयुक्त नीतिवाक्यका सबसे ज्यादा दुरुपयोग कर सका है। अपने स्वार्थके लिए वह ऐसी हिंसा भी करता है जो आवश्यक नहीं कही जा सकतो परन्तु यह कार्य प्राणीसमाज और मनुष्यसमाजकी शान्तिमें बाधक है । इससे आत्मिक उन्नति भी रुक जाती है। इसलिए प्रत्येक धर्ममें थोड़ा-बहुत रूपमें हिंसाके त्यागका उपदेश दिया गया है और इसलिए 'अहिंसा परमो धर्मः” प्रत्येक धर्मका मूल मंत्र बन गया है। अहिंसाकी सूक्ष्म व्याख्या-- लेोकेन जैन धर्मने इस मंत्रकी जैसी सूक्ष्म व्याख्या की है वह वेजोड़ है । जैन धर्मकी अहिंसा, अहिंसाका चरम रूप है । जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, आदिके अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिमें भी जीव हैं । मिट्टीके ढेलेमें कीड़े, आदि जीव तो हैं ही, परन्तु मिट्टी का ढेला स्वयं पृथ्वी-कायिक जीवोंके शरीरका पिंड है। इसी तरह जल बिन्दुमें यन्त्रोंके द्वारा दिखने वाले अनेक जीवोंके अतिरिक्त वह स्वयं जल-कायिक जीवोंके शरीरका पिंड है। यही बात अग्निकाय, आदिके विषयमें भी समझनी चाहिये । पारसी धर्म पर प्रभाव-- इस प्रकारका कुछ विवेचन पारसियोंकी धर्म पुस्तक 'श्रावस्ता' में भी मिलता है। जैसे हमारे यहां प्रतिक्रमणका रिवाज है उसो तरह उनके यहां भी पश्चात्तापकी क्रिया करनेका रिवाज है । उस क्रियामें जो मंत्र बोले जाते हैं उनमें से कुछका भावार्थ इस तरह है-"धातु उपधातुके साथ जो मैंने दुर्व्यवहार (अपराध) किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।” “जमीनके साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं ।' “पानी अथवा पानीके अन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप १२४ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्ममें अहिंसा करता हूं।" "वृक्ष और वृक्षके अन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध किया हो उसका मैं पश्चात्ताप करता हूं।" "महताब, अाफ़ताब, जलती अग्नि, अादिक साथ जो मैंने अपराध किया हो मैं उसका पश्चात्ताप करता हूं।" पारसियोंका विवेचन जैनधर्मके प्रतिक्रमण-पाठसे मिलता जुलता है जोकि पारसी धर्मके ऊपर जैनधर्मके प्रभावका सूचक है । मतलब यह है कि जैनधर्म में अहिंसाका बड़ा सूक्ष्म विवेचन किया गया है। एक दिन था जब संसारने इस सूक्ष्म अहिंसाको अाश्चर्य और हर्षके साथ देखा था और अपन या था । क्या अहिंसा अव्यवहार्य है-- यहां पर प्रश्न होता है कि जब जैनधर्मकी अहिंसा इतनी सूक्ष्म है तो उसका पालन कदापि नहीं हो सकता । वह अव्यवहार्य है इसलिए उसका विवेचन व्यर्थ है । परन्तु जैनधर्मने हिंसा और अहिंसाका विवेचन इतने अच्छे रूपमें किया है कि वह जितना ही उत्कृष्ट है उतनाही व्यवहार्य भी है ! द्रव्यहिंसा और भावहिंसा-- जैनधर्मके अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जानेसे या दखी हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती । संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्त से मरते भी रहते हैं । फिर भी जैनधर्म इस प्राणीघातको हिंसा नहीं कहता । वास्तवमें 'हिंसा रूप परिणाम' हो हिंसा है। द्रव्यहिंसाको तो सिर्फ इसलिए हिंसा कहा है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है। फिर भी यह बात याद रखना चाहिये कि द्रव्यहिंसाके होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है। अगर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसाको इस प्रकार अलग न किया गया होता तो जैनधर्मके अनुसार कोई भी अहिंसक न बन सकता और निम्नलिखित शंका खड़ी रहती जले जंतुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरेव च । जंतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ॥ जलमें जंतु हैं, स्थलमें जंतु हैं और आकाशमें भी जंतु हैं। जब समस्त लोक जंतुओंसे भरा हुआ है तब कोई भिक्षु ( मुनि) अहिंसक कैसे हो सकता है ? इस प्रश्नका उत्तर यों दिया गया है सूक्ष्मा न प्रतिवीड्यन्ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः । ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा संयतात्मनः॥ सूक्ष्म जीव ( जो अदृश्य होते हैं तथा न तो किसीसे रुकते हैं और न किसीको रोकते हैं ) तो पीड़ित नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवोंमें जिनकी रक्षा की जा सकती है उनकी की जाती है; फिर मुनिको हिंसाका पाप कैसे लग सकता है ? इसीसे मालूम होता है कि जो मनुष्य १२५ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जीवोंकी हिंसा करनेके भाव नहीं रखता अथवा उनको बचानेके भाव रखता है उसके द्वारा जो द्रव्यहिंसा होती है उसका पाप उसे नहीं लगता है । इसलिए कहा है--- वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते।। अर्थात् --प्राणोंका वियोग करदेने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता। इस बातको शास्त्रकारोंने और भी अधिक स्पष्ट करके लिखा है उच्चालदम्मि पादे इरिया समिदस्स णिगमठाणे । श्रावादेज कुलिंगो मरेज्ज तजोग्गमासेज्ज ॥ ण हि तस्स तरिणमित्तो बंधो सुहुमोवि देसिदो समये । अर्थात्-जो मनुष्य देख देखके रास्ता चल रहा है उसके पैर उठाने पर अगर कोई जीव पैर के नीचे आ जावे और कुचले जाकर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीव के मारनेका थोड़ा सा भी पाप नहीं लगता। हिंसाका पाप तभी लगता है जब वह यत्नाचारसे काम न लेता हो मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदाहिंसा । पयदस्स णत्थि बन्धो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ अर्थात्-जीव चाहे जिये चाहे मरे, परन्तु जो अत्याचारसे काम करेगा उसे अवश्यही हिंसाका पाप लगेगा। लेकिन जो मनुष्य यत्नाचारसे काम कर रहा है उसे प्राणिवध हो जानेपर भी हिंसाका पाप नहीं लगता। विश्वग्जीवचिते लोके व चरन् कोप्यमोक्ष्यत । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ॥ -सागरधर्मामृत। अर्थात-जब कि लोक, जीवोंसे खचाखच भरा है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भर न होते तो कौन अादमी मोक्ष प्राप्त कर सकता ? समाधि-मरण व्रत ___ जब जैनधर्मकी अहिंसा भावोंके ऊपर निर्भर है तब उसे कोई भी समझदार अव्यवहार्य कहनेका दुःसाहस नहीं कर सकता। जैनधर्मके समाधिमरण व्रतके ऊपर विचार करनेसे साफ मालूम होता है कि मरनेसे ही हिंसा नहीं होती। इस सल्लेखना व्रतके महत्व और स्वरूपको न समझकर किसी अादमीने एक पत्र में लिखा था कि जैनी लोग महिनों भूखों रह कर मरनेमें पुण्य समझते हैं । अगर इस भाईने सल्लेखना का रहस्य समझा होता तो कभी ऐसा न लिखता, और न सल्लेखनाको आत्महत्याका रूप ही देता । सल्लेखना निम्न अवस्थाओंमें की जाती है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे । धर्माय तनुविमोचननमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ 1. जैन धर्म में हिंसा ( स्वामी समंतभद्र ) । अर्थात् — जब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग ऐसी हालत में पहुंच जांय कि धर्मकी रक्षा करना मुश्किल हो तो धर्म के लिए शरीर छोड़ देना सल्लेखना या समाधि मरण है । समाधि ले लेने पर उपर्युक्त आपत्तियोंको दूर करनेकी फिर चेष्टा नहीं की जाती, उपचार वगैरह बन्द करके वह अंत में अनशन करते करते प्राणत्याग करता है । सम्भव है कि उपचार करनेसे कुछ दिन और जी जाता । परन्तु जिस कार्य के लिए जीवन है, जब वही नष्ट हो जाता है तब जीवनका मूल्य ही क्या रहता है ? यह याद रखना चाहिये कि आत्माका साध्य शांति और सुख है । सुखका साधन है धर्म और धर्मका साधन है जीवन, जब जीवन धर्मका बाधक बन गया है तब जीवनको छोड़कर धर्म की रक्षा करना ही उचित है। हर जगह साध्य और साधन में विरोध होने पर साधनको छोड़ कर साध्यकी रक्षा करना चाहिये । समाधिमरणमें इस नीतिका पालन किया जाता है। इसी बातको कलंकदेवने यो स्पष्ट किया है " यथा वणिजः विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः तद्धिनाशकारणे चोपस्थिते यथाशक्ति परिहरति, दुष्परिहारे च पण्याविनाशो यथा भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रतशील पुण्यसंचयप्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पातमभिवाञ्छति, तदुप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति; दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतति । कथमात्मवधो भवेत” । -- तच्चार्थराजवार्तिक । भावार्थ- कोई व्यापारी अपने घरका नाश नहीं चाहता । अगर घर में ग्राग लग जाती है। कठिन है तब वह घरकी शरीरका नाश नहीं चाहता । परन्तु जब देता है और धर्मकी रक्षा करता है । तो उसके बुझाने की चेष्टा करता है । परन्तु जब देखता है कि इसका बुझाना पर्वाह न करके धनकी रक्षा करता है । इसी तरह कोई आदमी उसका नाश निश्चित हो जाता है तब वह उसे तो नष्ट होने इसलिए यह श्रात्मवध नहीं कहा जा सकता । इस पर कहा जा सकता है कि सर्वज्ञके विना यह कौन निश्चित कर सकता है कि यह मर ही जायगा, क्योंकि देखा गया है कि जिस रोगीकी अच्छे अच्छे चिकित्सकोंने आशा छोड़ दी वह भी जी गया है; इसलिए संशयास्पद मृत्युको सल्लेखना के द्वारा निश्चित मृत्यु बना देना श्रात्मवध ही है । दूसरी बात यह है कि चिकित्सा से कुछ समय अधिक जीवनकी श्राशा है, जब कि सल्लेखनासे वह पहिले ही मर जायगा । अतः यह भी श्रात्मवध कहलाया और सल्लेखना कराने वाले मनुष्य घातक कहलाये । १२७ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- श्रभिनन्दन ग्रन्थ परन्तु काम तो ऐसे भी निःसन्देह हम लोग सर्वज्ञ नहीं हैं परन्तु दुनिया के सारे काम सर्वज्ञके द्वारा नहीं कराये जा सकते । हम लोग तो भविष्य के एक क्षणकी भी बात निश्चित नहीं जान सकते, किये जाते हैं जिनका सम्बन्ध भविष्य के क्षणोंसे ही नहीं, युगों से होता है । मनुष्यके पास जितना ज्ञान और शक्ति है उसका उचित उपयोग करना चाहिये । सर्वज्ञता प्राप्त नहीं है और थोड़े ज्ञानका उपयोग नहीं किया जा सकता, ऐसी हालत में मनुष्य बिलकुल अकर्मण्य हो जायगा । इसलिए उपलब्ध शक्तिका शुभ परिणामोंसे उपयोग करनेमें कोई पाप नहीं है । दूसरी बात यह है कि भौतिक जीवन सब कुछ नहीं है – भौतिक जीवनको सब कुछ समझनेवाले जीना ही नहीं जानते; वे जीते हुए भी मृतकके समान हैं । ऐसे भी अनेक अवसर आते हैं जब मनुष्य को स्वेच्छा से जीवनका त्याग करना पड़ता है । युद्ध में श्रात्मसमर्पण कर देने से या भाग जानेसे जान बच सकनेपर भी सच्चे वीर ये दोनों काम न करके मर जाते हैं । वह चीज जिसके लिए वे जीवनका त्याग कर देते हैं, अवश्य ही जीवनकी अपेक्षा बहुमूल्य हैं । इसलिए उनका यह काम श्रात्महत्या नहीं कहलाता। बहुत दिन हुए किसी पत्रमें हमने एक कहानी पढ़ी थी, उसका शीर्षक था " पतिहत्या में पातिव्रत्य" । उसका अंतिम कथानक यों था - युद्धक्षेत्रमें राजा घायल पड़ा था, रानी पास में बैठी थी । यवन सेना उन्हें कैद करनेके लिए आ रही थी । राजाने बड़े करुण स्वरमें रानीसे कहा “देवि ! तुम्हें पातिव्रत्यकी कठिन परीक्षा देनी पड़ेगी ।" रानीके स्वीकार करनेपर राजाने कहा कि, "मेरा जीवित शरीर यवनोंके हाथमें जावे इसके पहिले मेरे पेट में कटारी मार दो” । रानी घबरायी, किन्तु जब शत्रु बिलकुल पास श्रा गये, तब राजाने कहा ' देवि ! परीक्षा दो । सच्ची पतिव्रता बनो ।” रानीने राजाके पेटमें कटारी मार दी और उसी कटारीसे अपने जीवनका भी अंत कर दिया । यह था 'पतिहत्या में पातिव्रत्य' इससे मालूम होता है कि ऐसी भी चीजें हैं जिनके लिए जीवनका त्याग करना पड़ता है । श्रात्महत्या कायरता है परन्तु उपर्युक्त घटनाएं वीरताके जाज्वल्यमान उदाहरण हैं । इन्हीं उदाहरणों के भीतर समाधिमरणकी घटनाएं भी शामिल हैं । हां दुनिया में प्रत्येक सिद्धान्त और प्रत्येक रिवाजका दुरुपयोग हो सकता है और होता भी है। बंगाल में कुछ दिन पहिले 'तक्रिया' का बहुत दुरुपयोग होता था । अनेक लोग वृद्धा स्त्रोको गंगा किनारे ले जाते थे और उससे कहते थे 'हरि' बोलो अगर उसने 'हरि' बोल दिया तो उसे जीते ही गंगा में बहा देते थे । परन्तु वह हरि नहीं बोलती थी इससे उसे बार बार पानी में डुबा डुबाकर निकालते थे और घबराकर वह हरि बोल जब तक वह हरि न बोले तब तक उसे इसी प्रकार परेशान करते रहते थे जिससे दिया करती थी और वे लोग उसे स्वर्ग पहुंचा देते थे । 'अंतिमक्रिया' का यह कैसा भयानक दुरुपयोग था । फिर भी दुरुपयोगके डरसे अच्छे कामका त्याग नहीं किया जाता, किन्तु यथासाध्य दुरुपयोगको रोकने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं। अपने और परके प्राणत्यागके विषय में निम्न लिखित नियम उपयोगी हैं १२८ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्भमें अहिंसा (१) रोग अथवा और कोई आपत्ति असाध्य हो । (२) सबने रोगीके जीवनकी आशा छोड़ दी हो । (३) प्राणी स्वयं प्राणत्याग करनेको तयार हो। ( यदि प्राणीकी इच्छा जाननेका कोई मार्ग न हो तो इस क्रिया करने वाले को शुद्ध हृदय से विचारना चाहिये कि ऐसी परिस्थितिमें यह प्राणी क्या चाहता है । ) (४) जीवनकी अपेक्षा उसका त्याग ही उसके लिए श्रेयस्कर (धर्मादिकी रक्षाका कारण) सिद्ध होता हो। इसके अतिरिक्त और भी बहुतसे कारण हो सकते हैं जैसे परिचर्या न हो सकना, आदि; परन्तु उपयुक्त कारण तो अवश्य होने ही चाहिये । इस कार्य में एक बात सबसे अधिक आवश्यक है। वह है परिणामों की निर्मलता, निःस्वार्थता, आदि। जिस जीवको प्राणत्याग करना है उसीकी भलायी का ही लक्ष्य होना चाहिये । इससे पाठक समझे हों गे कि प्राणत्याग करने और करानेसे ही हिंसा नहीं होती--हिंसा होती है तब, जब हमारे भाव दुःख देनेके होते हैं। मतलब यह कि कोरी द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं कहला सकती । साथमें इतना और समझ लेना चाहिये कि कोरा प्राणवियोग हिंसा तो क्या, द्रव्यहिंसा भी नहीं कहला सकता । प्राणवियोग स्वतः द्रव्यहिंसा नहीं है परन्तु वह दुःखरूप द्रव्यहिंसाका कारण होता है इसलिए द्रव्यहिंसा कहलाता है। अकलंकदेवकी निम्नलिखित पंक्तियोंसे भी यह बात ध्वनित होती है-- ___"स्यान्मतं प्राणेभ्योऽन्य आत्मा अतः प्राणवियोगे न आत्मनः किञ्चिद् भवतीत्यधर्माभावः स्यात् इति । तन्न, किं कारणं ? तद् दुःखोत्पादकत्वात् , प्राण व्यपरोपणे हि सति तत्संबंधिनो जीवस्य दुःखमुत्पद्यते इत्यधर्मसिद्धिः।" ( तत्वार्थराजवार्तिक) इसमें बतलाया है कि 'श्रात्मा तो प्राणोंसे पृथक है इसलिए प्राणोंके वियोग करने पर भी श्रात्माका कुछ ( बिगाड़) न होनेसे अधर्म न होगा, यदि ऐसा कहा जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि • प्राणवियोग होने पर दुःख होता है इसलिए अधर्म सिद्ध हुअा।' इससे मालूम हुआ कि द्रव्यहिंसा तो दुःखरूप है। प्राणवियोग दुःखका एक बड़ा साधन है इसलिए वह द्रव्यहिंसा कहलाया । यह द्रव्यहिंसा भी भावहिंसाके विना हिंसा नहीं कहला सकती । जो लोग बाह्यरूप देखकर ही हिंसा अहिंसाकी कल्पना कर लेते हैं वे भूलते हैं । इस विषय में प्राचार्य अमृतचंद्रकी कुछ कारिकाएं उल्लेखनीय हैं अविधायापि हि हिंसाफल भाजन भवत्येकः । कृत्वाऽप्यपरो हिंसांहिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ १२९ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके॥ कस्यापि दिशति हिंसाफल मेकमेव फलकाले । अन्यस्य सैव हिंसा दिशयहिंसाफलं विपुलम् ॥ हिंसाफलमपरस्य तु ददायहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनर्हिसा दिरात्यहिंसा फलं नान्यत् ॥ अववुध्य हिंस्य-हिंसक हिंसा-हिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानै निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥ ( पुरुषार्थसिद्ध युपाय) 'एक मनुष्य हिंसा ( द्रव्यहिंसा ) न करके भी हिंसक हो जाता है-अर्थात् हिंसाका फल प्राप्त करता है । दूसरा मनुष्य हिंसा करके भी हिंसक नहीं होता । एककी थोड़ी सी हिंसा भी बहुत फल देती है और दूसरेकी बड़ी भारी हिंसा भी थोड़ा फल देती है। किसीकी हिंसा हिंसाका फल देती है और किसीकी अहिंसा हिंसाका फल देती है । हिंस्य (जिसकी हिंसा की जाय ) क्या है ? हिंसक कौन है ? हिंसा क्या है ? और हिंसाका फल क्या है ? इन बातोंको अच्छी तरह समझकर हिंसाका त्याग करना चाहिये ।' यहां तक सामान्य अहिंसा का विवेचन किया गया है । जिसके भीतर महाव्रत भी शामिल हैं। पाठक देखेंगे कि इस अहिंसा महाव्रतका स्वरूप भी कितना व्यापक और व्यवहार्य है। अब हमें अहिंसा अणुव्रतके ऊपर थोड़ा सा विचार करना है जिसका पालन गृहस्थों द्वारा किया जाता है । गृहस्थोंकी अहिंसा हिंसा चार प्रकारकी होती हैं—संकल्पी, प्रारम्भी, उद्योगी और विरोधी । विना अपराधके, जान बूझकर, जब किसी जीवके प्राण लिये जाते हैं या उसे दुःख दिया जाता है तो वह संकल्पी हिंसा कहलाती है, जैसे कसायी पशुवध करता है । झाड़ने बुहारनेमें, रोटी बनानेमें, आने-जाने, आदिमें यत्नाचार रखते हुए भी जो हिंसा हो जाती है वह प्रारम्भी हिंसा कहलाती है। व्यापार, आदि कार्य में जो हिंसा हो जाती है उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं; जैसे अनाजका व्यापारी नहीं चाहता कि अनाजमें कीड़े पड़ें और मरें परन्तु प्रयत्न करनेपर भी कीड़े पड़ जाते हैं और मर जाते हैं । आत्मरक्षा या श्रात्मीयकी रक्षाके लिए जो हिंसा की जाती है वह विरोधी हिंसा है। ____ गृहस्थ स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्यागी नहीं है। सिर्फ त्रस जीवोंकी हिंसाका त्यागी है। लेकिन त्रस जीवोंकी उपर्युक्त चार प्रकारकी हिंसामें से वह सिर्फ संकल्पी हिंसाका त्याग करता है। कृषि, युद्ध, श्रादिमें होनेवाली हिंसा संकल्पी हिंसा नहीं है, इसलिए अहिंसाणुव्रती यह कर सकता है । अहिंसाणुव्रतका निर्दोष पालन दूसरी प्रतिमामें किया जाता है और कृषि, आदिका त्याग श्राटवी प्रतिमामें होता है । किसी १३० Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में हिंसा भी समय जैन समाजका प्रत्येक आदमी आठवीं प्रतिमाधारी नहीं हो सकता। वर्तमान जैन समाजमें हजार पीछे एक आदमी भी मुश्किल से अणुव्रतधारी मिल सकेगा । आठवीं प्रतिमाधारी तो बहुत ही कम हैं । जैनियोंने जो कृषि, आदि कार्य छोड़ रक्खा है वह जैनी नहीं व्यापारी होनेके कारण छोड़ा है । दक्षिण प्रांत में जितने जैनी हैं, उनका बहुभाग कृषिजीवी ही है । कुछ लोगोंका यह खयाल है कि जैनी हो जानेसे ही मनुष्य, राष्ट्रके काम की चीज नहीं रहतावह राष्ट्रका भार बन जाता है । परन्तु यह भूल है यद्यपि इस भूलका बहुत कुछ उत्तरदायित्व वर्तमान जैन समाजपर भी है, परन्तु है यह भूल ही । राष्ट्रकी रक्षा के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं हैं जो जैनी न कर सकता हो, अथवा उस कार्य करने से उसके धार्मिक पदमें बाधा आती हो । जैनियोंके पौराणिक चित्र तो इस विषय में श्राशातीत उदारताका परिचय देते हैं । युद्धका काम पुराने समय में क्षत्रिय किया करते थे । प्रजाकी रक्षा के लिए अपराधियों को कठोर से कठोर दंड भी क्षत्रिय देते थे । इन्हीं क्षत्रियों में जैनियोंके प्रायः सभी महापुरुषोंका जन्म हुआ है। चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नव बलभद्र ये त्रेसठ शलाका पुरुष क्षत्रिय थे । चौदह कामदेव तथा अन्य हजारों आदर्श व्यक्ति क्षत्रिय थे । इन सभी को युद्ध और शासनका काम करना पड़ता था । धर्मके सबसे बड़े प्रचारक तीर्थंकर होते हैं । जन्म से ही इनका जीवन एक सांचे में ढला हुआ होता है। इनका सारा जीवन एक आदर्श जीवन होता । लेकिन तीर्थंकरोंमें शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथने तो आर्यखण्ड तथा पांच म्लेच्छ खण्डोंकी विजय की थी । भगवान नेमिनाथ भी युद्ध में शामिल हुए थे । इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरतका वैराग्यमय जीवन प्रसिद्ध है | लेकिन प्राणदण्डकी व्यवस्था इन्होंने निकाली थी । जैनियोंके पुराण तो युद्धोंसे भरे पड़े हैं; और उन युद्धों में अच्छे अच्छे अणुव्रतियोंने भी भाग लिया है। पद्मपुराण में लड़ायी पर जाते हुए क्षत्रियों के वर्णन में निम्न लिखित श्लोक ध्यान देने योग्य है - सम्यग्दर्शन सम्पन्नः शूरः कश्विदणुव्रती । पृष्ठतो वीक्ष्यते पल्या पुरस्त्रिदशकन्यया ॥ इसमें लिखा है कि 'किसी सम्यग्दृष्टि और अणुवती सिपाही को पीछे से पत्नी और सामने से देव कन्याएं देख रही हैं ।' गर जैन धर्म बिलकुल वैश्योंका ही धर्म होता तो उसके साहित्य में ऐसे दृश्य न होते । इसलिए यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि अपनी अपने कुटुम्बियोंकी, अपने धन और श्राजीविका की रक्षा के लिए जो हिंसा करनी पड़ती है वह संकल्पी हिंसा नहीं है, उसका त्यागी साधारण जैनी तो क्या ती भी नहीं होता। इससे साफ मालूम होता है कि जैन धर्मकी अहिंसा न तो अव्यवहार्य है, न संकुचित है. और न ऐहिक उन्नतिमें बाधक है। वर्तमानके अधिकांश जैनी अपनी कायरता या कर्मयताको छिपाने के लिए बड़ी बड़ी बातें किया करते हैं परंतु वास्तवमें अहिंसा के साधारण रूपके पालक भी नहीं होते । हां, ढोंग कई गुणा दिखलाते हैं । इन्हें देखकर अथवा इनके श्राचरण परसे जैन धर्मकी हिंसा नहीं समझी जा सकती । ४३१ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार तथा विश्व-समस्याएं [ स्व. ] डा० वेणीप्रसाद, एम ए., डी. लिट., आदि 'धर्म' शब्दकी यद्यपि अनेक परिभाषाएं की गयी हैं तथापि इसकी मनोवैज्ञानिक परिभाषा 'अनुरूप करण' अथवा 'संस्करण' शब्द द्वारा ही की जा सकती है। किन्हीं भी आध्यात्मिक सिद्धान्तोंकी श्रद्धा हो पर उनका व्यापक तथा गम्भीर क्षेत्र पूर्ण विश्व ही होता है। फलतः जहां एक ओर धर्म जीव तथा अजीवके समस्त लक्षण तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धपर दृष्टि रखता है वहीं दूसरी ओर जीवनकी उन प्रक्रियाओं तथा संस्थानोंके व्यापक आधारोंका भी विशद निरूपण करता है जिनके द्वारा मनुष्य अपने स्वरूपकी व्यक्ति करता हुआ आत्म साक्षात्कारकी अोर जाता है। इन दोनोंमें से द्वितीय श्रादर्शको लेकर यहां मीमांसा करना उचित है कि विश्व विकासके लिए मानवके वर्द्धमान अनुभवोंके आधारपर सुनिश्चित किये गये नियमोंका धर्ममें कहां तक समावेश हुअा है। अर्थात् धर्म सामाजिक न्याय, क्षेम तथा सुखमें कहां तक साधक है। १-अहिंसा सामाजिक दृष्टिसे जैन श्राचार-नियमोंका संक्षिप्त विश्लेषण करनेपर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत सामने आते हैं; अणुव्रत, गुणवत तथा शिक्षाव्रतोंके लक्षणादि पूर्वक विवेचनको छोड़कर यहां केवल इतना ही विचार करना है, कि सामाजिक-सम्बन्ध, दृष्टि तथा संगठन की अपेक्षासे अणुव्रतोंका क्या स्थान है, क्योंकि ये जैनाचारकी मूल भित्ति हैं। जीवके विकासके समस्त सिद्धांतोंमें अहिंसा प्रथम तथा महत्तम है इस सिद्धांतको प्राचीन श्राचार्यों ने जिस सूक्ष्म दृष्टि से स्वीकार किया है वह स्वयं ही उसके महत्त्वकी द्योतक है। बल-छलकी करणी-- - दूसरों को ठगने, दास बनाये रखने तथा उनसे अपनी स्वार्थ सिद्धि करानेके लिए व्यक्ति, समष्टि, वर्ग, जाति तथा राष्ट्रोंने अब तक पशुबल अर्थात् अपनी अधिकतर शारीरिक शक्तिका ही उपयोग किया है । अब तक यही मनुष्य के आपसी संबन्धों का नियामक रहा है । अर्थात् इन सबने मनुष्य होने के करण ही मनुष्य के सम्मान की तथा व्यक्तित्वके अाधारसे ही व्यक्तित्वके मूल्य की उपेक्षा की है । दूसरी ओर पशुबलसे आक्रान्त पक्षने भी छद्म और छलके आवरणमें उसकी अवहेलना तथा १३२ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार तथा विश्व समस्याएं स्थानान्तरण किया है । बल और छल पूर्व-पूरक हैं और किसी भी सामाजिक व्यवहारका विश्लेषण करने पर एक ही घटना के दो पक्षोंके रूपमें सामने आते हैं। छलके व्यवहार का क्षेत्र सीमित नहीं है । प्रभुता तथा शोषण की योजना में बल द्वारा अपूर्ण अंशों की पूर्ति के लिए प्रभु लोग बलका व्यापक प्रयोग करते हैं । दासता श्रात्मरूप ( व्यक्तित्व ) की मौलिक व्यक्ति स्वतंत्रता के विरुद्ध पड़ती है । जिसे कि 'ग्राहम वालेसन' अन्तरंग विकास, विकासकी पूर्णता तथा सरसता एवं उत्कर्षाभिलाषा और विधायकता अर्थात् श्रात्म रूप की प्राप्तिका प्रेरक सतत साधन कहा है । फलतः दासता प्रतिरोध को उत्पन्न करती है। प्रभु लोग प्रतिरोधके मूलस्रोतों को अशक्त करने तथा प्रचार द्वारा श्राज्ञाकारी बनाने का मार्ग पकड़ते हैं, अर्थात् उच्च आदर्शों की महत्ता को गिराते हैं तथा भय लोभ, अकर्मण्यता, स्वार्थपरता, आदि को उत्तेजना देते है । बल और छलके द्वारा मानव वृत्तियों का ऐसा श्रनिच्छित समन्वय हुआ है कि एक श्राधुनिक समाज विज्ञानीको यही निष्कर्ष निकालना पड़ा कि "बल छल ही वे सिद्धान्त हैं जिनपर अब तक मानव संस्कृति अवलम्बित रही है ।" वर्तमान युगकी प्रधान समस्या याधुनिक युगने उक्त निष्कर्ष की सत्यता को अधिक चरितार्थ किया है । क्योंकि विगत सौ वर्षों में दूर वर्ती अथवा निकट वर्ती विविध जातियों, राष्ट्रों, संस्कृतियों तथा विचार धाराम्रों का जैसा पारस्परिक विनाश हुआ है वही इसका प्रबल साक्षी है । समन्वय अथवा पुनर्निर्माण अनिवार्य था, किन्तु इस दिशा में किये गये प्रयत्नों का प्रेरक भी दलगत प्रतिष्ठा रही है । फलतः 'बण्डरसल' ऐसे महान् वैज्ञानिक एवं दार्शनिक तक को भी कहना पड़ा कि राजनीति में प्रभुता का सिद्धान्त उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना भौतिक विज्ञान में शक्ति - ( Energy ) सिद्धान्त है | गत दो शतियां विज्ञानके सुविदित विकासका इतिहास हैं । इस युगने उन विधायक एवं व्यवस्थापक श्राविष्कारोंको किया है जिनके फल स्वरूप संसारके स्त्री, पुरुष तथा बालकोंने सुख तथा मनोरञ्जन, ज्ञान एवं संस्कार और शान्ति तथा सुरक्षाको पर्याप्त रूप में प्राप्त किया | किन्तु शक्तियों के उक्त श्राविष्कार कतिपय देशोंके कुछ विशेष वर्गों में ही हुए हैं और वह भी युद्धोंके विराम कालमें । कारण स्पष्ट हैं, इन्हें देश, वर्ग तथा सम्प्रदाय गत वञ्चना एवं निराशा, संघर्ष तथा घृणा के प्राचीन कुभावों का दासी बनाने के कारण ही ऐसा हुआ । स्थिति यह है कि आज मानव विपुल साधन सामग्रियों से घिरा रह कर भी अकिञ्चन है तथा विशद ज्योति की सुविधाओंके सद्भावमें भी गाढ़ान्धकार से ग्रस्त 1 निराशा एवं तज्जन्य अ-भ्रान्ति निरश से उत्पन्न भ्रान्ति ही वह गुत्थी है जिसे श्राजका विश्व दार्शनिकों तथा राजनीतिज्ञों की विभिन्न योजनाओं द्वारा सुलझाना चाहता है । पच्चीस वर्ष पहिले जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ १३३ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ था उस समय भी जनतंत्र, आत्म निर्णय, अन्ताराष्ट्रिय न्याय तथा सहकार, निःशस्त्रीकरण, युद्ध की अवैधता तथा चिरस्थायी शान्ति की साधन सामग्री की शोध की उत्कट भावना विश्वके कोने कोने में दृष्टिगोचर होती थी । अमेरिकाके 'अध्यक्ष वुडरो विलसन' में ही उस युग की मनोवृत्ति मूर्तिमान हुई थी जिनकी वक्तृता और आदर्शवादिताने पूर्व तथा पश्चिमके समस्त देशोंमें नूतन ज्योति जगा दी थी। तथापि इस मृग-मरीचिकासे मुक्ति पाने तथा द्वितीय युद्धकी कल्पना करनेमें बीस वर्ष ही लगे । इस निराशाका कारण भी वही भूल थी जो विश्व दृढ़-बद्ध मूल आर्थिक एवं राजनैतिक विकारों तथा ऊपरी लक्षणोंमें भेद न कर सकनेके कारण करता आया है। राजतंत्र एवं राजनीति का व्यवहार सदैव वेग और अस्थिरता पूर्वक चलता है फलतः राजनीतिज्ञ उस कल्पनासे ही संतुष्ट हो जाते हैं जो उन्हें स्पष्ट ही सुखद दिखती है तथा बाहर दिखने वाले काल्पनिक दोषोंका ही वे प्रतीकार करते हैं । १९१९-२० में यही अखण्ड विश्वमें हुअा था, फलतः शस्त्रीकरणकी प्रतियोगिता, गुप्त राजनीति, अाक्रमण, राष्ट्रीयता, साम्राज्यवाद. सबलोंके द्वारा दुर्बलोंका शोषण, जातिमद, महासमर, अादि पुरातन दोषोंकी सन्तान चलती रही और वे अधिक विकृत रूपमें पुनः जाग उठे । विश्वकी इस असफलताका एक दुःखद परिणाम विशेष रूपसे शोचनीय है। सद्यः जात इस अ-भ्रान्तिने विश्वको अाज अधिक उद्भ्रान्त बना दिया है जबकि मानव जातिके इतिहासमें यह युग ही उच्च श्रादर्शों तथा उदार प्रेरणाओं की अविलम्ब अधिकतम अपेक्षा करता है जैसी कि पहिले कभी नहीं हुई थी। पाश्चात्य राजनीतिज्ञ आमूल पुनर्निर्माण को अविलम्ब करनेसे सकुचाते हैं उन्हें उज्ज्वल भविष्य तथा अपने पुरुषार्थ पर भरोसा ही नहीं हैं ; ऐसा प्रतीत होता है। युद्धकी सामाजिक भूमिका युद्ध, शस्त्रीकरण तथा दुर्योधन-राजनीतिमें भेद करना अाजकी स्थितिमें अत्यन्त दुरूह है, कारण वे पृथक् पृथक् पदार्थ ही नहीं प्रतीत होते हैं । प्रकट उद्देश्य और प्रयोगके अवसरोंकी चर्चाको जाने दीजिये, आज तो ये सब अधिकार-ज्ञापन, विवाद-शमन, आदि उन नीतियोंके साधक उपाय हो रहे हैं जो स्पष्ट ही हिंाकी नैतिकताका पोषण करती हैं । एक दलके द्वारा दूसरे दलपर किया गया बलात्कार ही इनका आधार है । यदि विवादोंका शमन बलात्कार द्वारा होता है तो इसका यही तात्पर्य है कि अाजका समाज पशुबधके सहचारी घृणा, असफलता तथा शोषणसे ग्रस्त है। इनके द्वारा अन्ताराष्ट्रिय सम्बन्ध, राष्ट्रिय संगठन, साहित्य तथा दृष्टि सर्वथा क्षत विक्षत हो गये हैं । समष्टिगत व्यवहार पर बल छलकी ऐसी गम्भीर एवं स्पष्ट छाया पड़ी है कि यदि हमें श्रात्मसंस्कार करना है तो प्रथम सिद्धांतको पकड़ना चाहिये । वर्तमान संघर्षके गर्तसे निकलकर शान्ति और सम्पन्नता पानेका एकमात्र उपाय मानव व्यवहारोंका ऐसा संस्कार है जिसके द्वारा 'बल' के सिंहासनपर अहिंसाकी प्रतिष्ठा हो सके। इस तथ्यको हृदयंगम करानेके लिए भगीरथ प्रयत्न करना है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार तथा विश्वसमस्याएं अन्ताराष्ट्रिय अनुभवोंसे शिक्षा ___ सन् १९१९ में स्थापित राष्ट्रसंघ तथा १९३४ तक चलाये गये निःशस्त्रीकरणके प्रयत्नोंने यह स्पष्ट कर दिया है कि गुप्त एवं बद्धमूल कारण 'हिंसा'का प्रतीकार किये विना प्रकट लक्षण 'युद्ध'का विनाश असंभव है। क्यों कि अाज हिंसा विश्वकी समस्त दलबन्दीमें व्याप्त है। अहिंसाके उत्तरोत्तर विकासका अर्थ है राजतंत्र तथा आर्थिक व्यवस्थाको दृष्टि से एक दलकी दूसरे दलपर प्रभुताका अभाव तथा यूरोप, अमेरिका, एशिया, अफ्रिका तथा समस्त राष्ट्रोंको व्यावहारिक रूपसे विकास, स्वातंत्र्य तथा अवसर समताके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेना । अन्तस्तंत्र में अहिंसा अहिंसाकी प्रतिष्ठाके बाद प्रत्येक देशकी अन्तरंग नीतिका भी नवीकरण हो जाय गा। क्योंकि रथूल पर्यवेक्षक भी यह भलीभांति जानते हैं कि अधिकांश देशोंकी आर्थिक व्यवस्थाका आधार वहांकी बहुसंख्यक जनताका विकासके अवसरोंके समान विभाजनसे वञ्चना होती है। हमारे साम्प्रदायिक तथा जातिगत विभाजनका हेतु भी अन्ततोगत्वा बल एवं बलपूर्वक विश्वास कराना ही होता है । तथा आंशिक रूपसे पूर्व परम्परा और अभ्यास भी होते हैं। अपर्याप्त साधन सामग्रीके कारण चली आयी संकुचित राष्ट्रीयताको अब स्थान इसलिए नहीं है कि जीवनोपयोगी पदार्थोंकी विपुलताकी संभावनाके कारण वह स्वयं निरस्त हो जाती है । आज तो मानव जीवनके नये श्रादर्श स्थापित करने हैं । प्रत्येक स्त्री, पुरुष तथा शिशुका योग-क्षेम अभीष्ट है, उन्हें आत्म-विकासके अधिकसे अधिक अवसर समान रूपसे जुटाने हैं । इसे अहिंसा सिद्धान्तके अतिरिक्त और कौन कर सकता है; क्यों कि यह सब उसका स्वरूप ही है। अहिंसाका विधायक रूप-- यद्यपि 'अहिंसा' [ न+हिंसा ] शब्द निषेधात्मक है तथापि उसकी शिक्षा केवल निवृत्तिपरक नहीं है अपितु व्यवहार दृष्टि से सर्वथा प्रवृत्तिपरक है तथा जिसके सुप्रभावसे सुदूर भविष्य भी अस्पृष्ट नहीं रह सकता । अहिंसा किसी भी देशकी सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओंके पारस्परिक सम्बन्धोंका पुनरुद्धार कराती हुई उसके अन्तरंग तंत्रमें आमूल परिवर्तन के लिए प्रेरित करती है । यह अनिवार्य है कि संस्थाओंके पुनर्निर्माणके साथ-साथ हमारी दृष्टि अथवा जीवन विषयक मान्यतामें भी तदनुरूप परिवर्तन हो । जैसा कि 'प्लैटो तथा एरिष्टोटल' को अभीष्ट ‘सब प्रकारकी संस्थाओं के अपने विशेष गुण तथा तदनुरूप नैतिकता होनी चाहिये' कथनसे सिद्ध है। यदि किसी संस्थाकी अपनी नैतिकता न हो तो उसकी सजीवता लुप्त हो जाती है और वह पुनर्निर्माण यन्त्रवत् जड़ हो जाता है, तथा अन्ततोगत्वा वह प्रभावहीन अथवा प्रतिगामी हो जाता है । अतः अहिंसाको आदर्श बनाना अनिवार्य है वह किसी भी सिद्धान्ताका अन्यथा बोध अथवा आचरण नहीं होने दे गी। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ अहिंसाका क्षेत्र उक्त विवेचनका यह तात्पर्य नहीं है कि मानव व्यवहार सर्वथा बल प्रयोगमय ही है। ऐसा होनेपर वस्तु व्यवहार संभव हो जायगा । और न समाज ऐसे वातावरण में चल सकेगा। आदर्श कुटुम्ब अथवा उससे बड़ा अन्य परिवार अथवा समाजके निर्माण के लिए पुष्कल मात्रा में पारस्परिक सहानुभूति एवं सहायता, , स्नेह एवं सान्त्वना तथा उत्सर्ग एवं बलिकी सदैव आवश्यकता होती है । विशेष ध्यान देने योग्य बात यही है कि उक्त गुण ग्राजके सामाजिक जीवन में पर्याप्त मात्रामें नहीं है, उसमें तो पशुबलकी कीट ही बहुत अधिक प्रतीत हो रही है । अतएव इस कीटको निकालकर सामाजिक गुणों के लिए स्थान करना है | समाजके आर्थिक वातावरण तथा व्यक्तिगत जीवनमें एक आवश्यक अंग-अंगिभाव है; यह भी सबके गले उतरना चाहिये । व्यक्तित्व सामाजिक वस्तु अर्थात् वह समाज से उत्पन्न होती है । फलतः वह सामाजिक संघटन में अन्तर्निहित है । केवल उपदेश और प्रेरणाही किसी समाज में नैतिक जीवनका संचार करनेके लिए पर्याप्त नहीं हैं; यह अनादि अनुभव है । यह बीज भी उपयुक्त भूमि, जलवायु एवं वातावरणकी अपेक्षा करता है, यही हिंसा के प्रस्तावकी वस्तुस्थिति है । पूर्ण मानव समाजका वास्तविक अहिंसामय जीवन तत्र ही संभव है जब कि विश्व के सामाजिक व्यवहार तथा संस्थानोंकी नींव भी अहिंसापर हो। ऐसी परिस्थिति में हिंसाका सार होगा मानवको बल प्रयोगको अपनी प्रकृति से सर्वथा मुक्त करके युक्ति, प्रेरणा, सहिष्णुता, सहायता तथा सेवाके भावोंसे श्रोत प्रोत कर देना । २- सत्य - हिंसा सिद्धान्त का यथार्थता अथवा सत्यसे घनिष्ट सम्बन्ध है । ऊपर देख चुके हैं कि आक्रमक का बल-प्रयोग आक्रान्त को छलिया बनाता है । यह भी ज्ञात है कि बल बहुधा अपनी लक्ष्य सिद्धि में असफल ही रहता है, तथा छल और भ्रमका सहारा लेना इसका स्वभाव है । यह वस्तुस्थिति "युद्ध में सब उचित है" इस लोकोक्तिको पृष्ठभूमि है । समस्त संभव सूत्रोंका उपयोग युद्ध में अंतर्निहित है | आज के युग में युद्ध 'सर्व-स्वामी' हो गया है अर्थात् बौद्धिक, नैतिक तथा भौतिक समग्र साधनों की पूर्णाहुतिका सहारा लेता है । शस्त्रीकरण का भार प्रारम्भ में जनमतको त्रस्त करके अव्यवस्थित सा कर देता है, किन्तु सर्व-स्वामित्व गुण सम्पन्न आधुनिक युद्ध बाद में जनमतके समर्थन के महत्त्वको स्वयं बढ़ाता है और वह सतत सावधानी स्पष्ट हो जाती है जिसके साथ वर्तमान राज्यों की व्यवस्थित प्रभुशक्ति मनोवैज्ञानिक प्रचार द्वारा जनता की स्वीकृति को उत्पन्न कर लेती है । फलतः "युद्ध सबसे पहले सत्यकी हत्या करता है" यह उक्ति सर्वथा चरितार्थ है । अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा उन्नीसवीं शतीका श्रेष्ठ स्थायी कार्य है । किन्तु उसका सुफल प्रचारके भूतसे दब गया है जिससे अाजका सम्पूर्ण वातावरण व्याप्त है । तथा जिसका अनुभव 'ध्वनिक्षेपक यंत्र' द्वारा जल, थल और नममें किया जा सकता है । देशों के अंतरंग शासनकी स्थिति भी इस दिशा में बहुत १३६ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार तथा विश्व समस्याएं अच्छी नहीं है । भाषण शैलीका आदर्श निर्वाचनोंमें निम्नतम रूप धारण कर चुका है और कभी कभी 'राजसभा' तथा 'दास-शासन'के नीचतम षडयन्त्रों की सीमामें प्रवेश कर जाता है। ऐसी स्थितिमें सत्यका मार्ग भी अहिंसाके समान साधक है । “सत्यमेव जयते” सूक्ति तथ्य है क्योंकि अन्तमें सत्य की ही विजय देखी जाती हैं । किन्तु मनसा, वाचा, कर्मणा पाला गया सत्य सफलता का सरल मार्ग है ऐसा अर्थ करना भ्रान्ति हो गी । आज के समय में यथार्थ अथव। सत्य का मार्ग कण्टकाकीर्ण है। इसमें विरोध, . दमन और कष्ट हैं । वह धैर्य, आत्मबल तथा मुनियों ऐसे तप की अपेक्षा करता है। असत्य मनुष्की वह दुर्बलता है जिसका उद्गम पशुबल से है, और पशुबलके विनाशके साथ ही विनष्ट हो सकती है । घरेलू जीवनमें मनुष्य आज भी सत्य बोल सकता है, किन्तु इससे विश्व की गुत्थी की एक ही पाश खुलती है । वर्तमान समस्याके दो पक्ष हैं अर्थात् १---जन साधारणको अपने घरेलू तथा सामाजिक जीवनमें शुद्ध यथार्थता, सत्यता और स्पष्टकारितासे चलने योग्य वातावरण उत्पन्न करना तथा २-सभा, राजतान्त्रिक दल तथा शासनाको भी उक्त सिद्धान्तानुकूल ढंगसे कर्तव्य पालन करना सहज कर देना । विशेषकर इन्हें परराष्ट्र नीतिमें भी उसी सत्यता एवं स्पष्ट वादितासे व्यवहार करनेका अभ्यस्त बनाना जिसे वे व्यक्तिगत जीवनमें वर्तते हैं। समाज हितकी दृष्टि से भी सत्यके उपयुक्त परिस्थितियां उत्पन्न करना आवश्यक है । इससे दूर भविष्यमें ही भला न होगा अपितु तुरन्त ही इसके सुफल दृष्टिगोचर होंगे। एक ही पक्ष जीवन नहीं है, विविध पक्ष परस्पर सापेक्ष हैं और घटनाओंका एक अपरिहार्य चक्र है, यह तथ्य पुनः हमारे संमुख श्रा खड़ा होता है। अतएव यथा संभव कुप्रवृत्तियों के चक्रको नष्ट करना हमारा धर्म है । राष्ट्रिय तथा अन्ताराष्ट्रिय व्यवहार में सत्यके उन्नत स्तरको प्राप्त करना उचित और आवश्यक है । सत्य व्यवहार की जितनी प्रगति होगी उतनी ही सरलतासे समाजको वर्तमान अधोमार्गसे निकाल करके उच्चतर युक्ति एवं नैतिकताके सुपथपर लाया जा सकेगा। ३-अस्तेय-- अहिंसा तथा सत्यमय पुनर्निर्माण इस बातकी विशद कल्पना करता है कि प्रत्येक मनुष्य परस्परके व्यवहारमें दूसरोंके स्वत्वों (अधिकारों) को स्वभावतः सुरक्षित रखे । अचौर्य (अस्तेय) अणुव्रतका श्रात्मा यही है । यद्यपि शब्दार्थ चोरीका त्याग ही होता है तथापि गूढ तथा सार अर्थ यही है कि मनुष्य दूसरेके अधिकारोंका अपहरण न करे । तथा 'सर्वभूतहिते रतः' ही रहे । इसके लिए 'स्वत्व' अथवा अधिकारोंके स्वरूपको दार्शनिक दृष्टि से समझना आवश्यक है। संक्षेप में कह सकते हैं कि व्यक्तित्वके विकासमें उपयोगी सामाजिक परिस्थितियोंका नाम ही 'स्वत्व' है । फलतः सर्व साधारणको 'स्वत्व' अर्थात् उचित सामाजिक परिस्थितियोंको समानरूपसे पानेका जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वत्वोंका सम्बन्ध केवल व्यक्तिसे नहीं है अपितु वे समष्टिकी सम्पत्ति हैं क्योंकि सामाजिक १८ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ चेष्टा ही उनकी जन्म तथा स्थितिका प्रधान कारण है। मनुष्य मात्रके लिए प्रशस्त जीवनोपयोगी परिस्थितियां यदि देनी हैं तो व्यक्तिको इन्हें अपने लिए ही नहीं जुटाना चाहिये अपितु ऐसा आचरण करना चाहिये कि दूसरेकी स्थिति भी अक्षुण्ण रहे । इतना ही नहीं प्रत्येक व्यक्तिको दूसरेके लिए अधिकतम सुविधा देनी चाहिये । जो अपना 'स्वत्व' है वही दूसरे के प्रति कर्तव्य है। इस प्रकार स्वत्व और दायित्व अन्योन्याश्रित हैं क्योंकि वे एक ही तथ्यके दो पक्ष हैं । एक ही प्रवृत्ति स्वार्थ दृष्टिसे स्वत्व और परार्थ दृष्टि से दायित्व होती है। वे सामाजिक गुण हैं और सबके प्रशस्त जीवनकी आवश्यक-भूमिका हैं । इनके 'पूर्वाऽपरत्व' की चर्चा निरर्थक है क्यों कि उनका अाधार एक ही है तथा वे 'पूर्य-पूरक' हैं । यदि सब स्वत्वोंके भूखे होकर कर्त्तव्योंकी उपेक्षा करेंगे तो सबके स्वत्व आकाश-कुसुम हो जाय गे । यह मानव जीवन की प्रथम सीढ़ी है जिसपर सबको पुनः सावधानीसे पैर रखना है। दूसरेके स्वत्वोंका ध्यान रखना भी अहिंसामय व्यवहार है; यह मुखोक्त है । ४-ब्रह्मचर्य-- स्वत्वोंका ध्यान तथा कर्त्तव्य पालन पर-प्रेरणासे ही सदैव नहीं चल सकते, 'नैतिकताकी स्थापना' इस संदर्भ में अात्मविरोध है क्योंकि नैतिक आचरणोपयोगी परोक्ष परिस्थितियां जुटाना ही तो शक्य है । सुविदित है कि अहिंसाका व्यापक व्यवहार सर्वथा बल प्रयोगहीन बातावरणमें ही हो सकता है किन्तु नैतिकताका अन्तरंग रूप वाह्य रूपसे सर्वथा भिन्न है इसकी उत्पत्ति अन्तरंगसे होती है । आत्म नियन्त्रण सामाजिक जीवनका उद्गम स्थान है जिसे हम व्यापक रूपमें ब्रह्मचर्याणुव्रतका पालन कहते हैं । चारित्र भलायी अथवा बुरायी जीवका स्वभाव नहीं है वह तो परिणमन शक्ति सम्पन्न है अर्थात् चारित्रके लिए कच्ची मिट्टी है । सरसता तथा सन्तुलनका ही नाम विकास है जो कि व्यापक तथा वर्द्धमान वातावरण के सामञ्जस्यका अंश होता है। नैतिक दृष्टिको कसौटी बनानेके निश्चित उद्देश्यसे इसमें समस्त सहज वृत्तियोंका समिश्रण हो जाता है जिसका परिणाम विवेक और प्रवृत्तिका समन्वय होता है । इसमें वृत्तियोंका पारस्परिक सन्तुलन भी होता है। इस सन्तुलन और सम्मिश्रणसे उस एकरस प्रवृत्तिका उदय होता है जिसे 'श्रात्मबल' कहते हैं । वह विविध इच्छा शक्तियोंका एक रूप होता है । सुपुष्ट निश्चित श्रात्मशक्ति ही चरित्रकी सर्वोत्तम परिभाषा है । श्रात्म-दमनकी प्राचीन परम्पराके विरुद्ध कतिपय अधकचरे लोगों द्वारा उठाया गया 'इच्छापूर्तिवाद' भी चारित्रका आधार नहीं हो सकता। क्योंकि इच्छापूर्तिवादकी विविध कोटियां है जो अनवस्थाकर हो सकती हैं और सहज ही उन मर्यादाओंको नष्ट कर सकती हैं जिनकी स्थिति चिरस्थायी सुख-शान्तिके लिए अनिवार्य है। १३८ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार तथा विश्व समस्याएं व्यक्तित्वका साध्य अर्थात् आत्मव्यक्तिका एक उद्देश्य उस उच्चतर सामाजिक सहिष्णुतासे एकतानता है जिसे परोपकारिता, बलिदान, सेवा, आदि नामोंसे कहते हैं। ये ही व्यक्तित्वका श्रेष्ठतम रूप हैं । यह अनुशासन तथा प्रात्मानुशासनका मार्ग है। इसमें तथा प्रबल बलप्रयोगमें बड़ा भेद है । जबरदस्तीके फल पतनोन्मुख नैराश्य तथा निरोध भी हो जाते हैं । किन्तु 'कलम-करने' के समान संयय मानवजीवन रूपी वृक्षमें नूतन पत्र तथा पुष्प आदि द्वारा श्रीवृद्धि ही करता है। वासना-शान्ति-- यदि मनुष्य प्रत्येक वासनाकी पूर्ति करने लगे, वातावरणसे प्राप्त प्रत्येक उत्तेजनासे श्राकुल होने लगे, तो जीवन विरोध, चंचलता तथा लघुता(उथलेपन) अवास्तविकताकी क्रीड़ास्थली बन जाय गा। जीवनके मूल स्रोत दबे ही रह जायगे और लघुताका साम्राज्य हो जाय गा । फलतः अन्य विकासोंके समान अात्म नियन्त्रण ही मानवकी एकमात्र गति है। उसे भले बुरेका विवेक करना होगा। विवेक करनेकी वृत्ति अपनानी पड़ेगी और अपने मनोवान्छितोंमें एकतानता लानी हो गी । हेय वृत्तियोंसे मनको हटा कर उपादेय वृत्तियोंमें तल्लीन करना हो गा । हेय वृत्तियोंके लिए जिस उत्साह शक्तिका उभार उठता है उसे उपादेय वृत्तियों के परिपोषणकी ओर बहाना हो गा । अतृप्त वासनात्रोंके कारण उत्पन्न उत्कण्ठाकी धाराको तृप्त वृत्तियोंके संतोषसरमें मिलाना होगा। लोकाचारको समझते ही बालकमें वासनाका उचित निकार प्रारम्भ हो जाता है। जहां पुरुषमें शक्ति, प्रेरणा तथा उत्कण्ठा बढ़ती हैं वहीं उसमें विवेक, नैतिक-निर्माण तथा आत्म-संयमका भी विकास होता है । वासना शान्ति निरोधका नैतिक व्लोम है। वासना, आकांक्षा तथा वृत्तियोंके निरोधका अभाव जीवन शक्तिको इतस्ततः बिखेर दे गा, विकासको रोकदे गा और दैहिक संघननको नष्ट कर दे गा । यदि इनका बलवत् निरोध किया जायगा तो भी जीवन जटिल हो जाय गा, अान्तरिक द्वन्द्वों तथा अनेकतानताकी सृष्टि होगी और वे स्वप्न, दूषित अभिप्राय, अाकुलता एवं विपथगामिताके रूपमें फूट पड़ेंगे। अतएव वासना-शान्ति स्वाभाविक प्रकार है जो व्यक्तित्वको अक्षुण्ण रखते हुए संयमकी ओर ले जाता है । न्यूनाधिक रूपसे सभी वासना शान्ति करते हैं किन्तु वह सर्वांग नहीं होती या किसी निश्चित सीमापर ही रुक जाती है क्योंकि न तो उसके पीछे श्रादर्श या निश्चित संकल्प रहते हैं और न उच्चतर जीवन व्यतीत करनेकी भावना तथा उसकी प्रेरणा एवं उद्देश्य होते हैं । वास्तवमें वासना-शान्ति; नैतिक अाकांक्षा तथा विकासानुगामिनी शक्ति एवं सर्वाङ्गीण वृद्धिका सम्मिश्रण है । आपाततः यह जीवन व्यापी उत्तेजनाको शान्त करता है और शुभ, अशुभ भावोंकी वृद्धि होने देता है । अादर्श स्पष्ट और और दृढ़ होते हैं। सर्वाङ्गणी जीवनमें सहज ही सजीवता आ जाती है । मनुष्यका चतुर्मुख निर्माण १३९ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ सहज हो जाता है जिसपर नैतिकता फलती फूलती है। जिसके अभाव में व्यक्ति ज्ञान, कुशलता तथा महत्त्वकांक्षा के उस स्तरपर चला जाता है जो उसकी जन्मजात योग्यताओं से बहुत नीचा होता है । वासना शान्ति स्वयमेव विकास है क्योंकि यह नैतिक स्तरको उठाती है तथा अर्धज्ञात एवं अज्ञात' वासनात्रोंको जीवनधाराको पतनोन्मुख करनेसे रोकती है । यह वर्हिमुख विवेकको अन्तरंग से संयुक्त करती है फलतः जीवनमें वासना, तीव्र भाव तथा श्रादर्शोंकी एकतानता बनी रहती है । रोधक भावों का लय अथवा रूपान्तर जीवनमें पूर्णताका प्रवेश कराता है । फलस्वरूप व्यक्तित्वके विकास और स्वातंत्र्य की धारा बनी रहती है । व्यक्तित्वमें नैतिकताका उदय होता है. गुणों की दृष्टिसे व्यक्ति सर्वथा परिवर्तित हो जाता है तथा व्यक्ति और वातावरणके बीच के खिंचावकी इतिश्री हो जाती है । सब गुणोंके विकास तथा एकतानता जन्य व्यक्तित्वका एकमात्र आधार होनेके कारण यह कुमागकी संभावनाको समाप्त कर देता है तथा श्रानन्दस्रोतको खोल देता है । क्योंकि वृत्तियों तथा अभिप्रायों की जटिलता तथा संघर्ष से ही तो औदासीन्य उत्पन्न होता है । अनुशासन वासना शान्ति अनुशासनकी सहचरी है, शक्तिकी निर्मापक साधु कर्तृत्व-वृत्तियों का समाज सेवा में समुचित उपयोग करती जिसका महत्व सर्वविदित है । अनुशासन स्वयं कृतात्मसंयमका सार है । और वाह्य निरोध के विरुद्ध है । वाह्य अभ्यास से अनुशासन नहीं होता । जब सबके भले में मनुष्य अपना भला देखता है तो वह श्रात्म-अनुशासनकी वृद्धि करता है और इस मार्ग में दृढ़ता से बढ़ता जाता है । अनुशासन विधायक गुरण है निषेधपरक नहीं । इसके द्वारा मानव शक्तियों का समुचित उपयोग होता है और वह लगन तथा दायित्व भावना से प्राप्लावित हो जाता है । इसके कारण व्यक्तिगत तथा समष्टिगत चेतनाकी एकता हो जाती है । इसमें विवेककी ही प्रधानता रहती है अर्थात् मनुष्य समझता है कि जातिसे क्या तात्पर्य है, विविध परिस्थितियों द्वारा पुरस्कृत कठिनाइयों, स्थितियों तथा विभिन्न व्यक्तियों में से किसे चुनना, और अपने निश्चित आदर्श तथा सुलभ साधन सामाग्रीका सामञ्जस्य कैसे करना । बुद्धि तथा नैतिकता की अन्योन्यरूपताका अनुशासन उत्तम दृष्टान्त है । सामाजिक मान्यताएं, संस्था का उद्देश्य तथा परिस्थितियोंका ऐसा स्पष्ट बोध होना चाहिये कि उसका जीवन में उपयोग हो सके । अनुशासनबद्ध व्यक्ति अपनी योग्यताका दान करता है और अनायास ही सामाजिक जीवनमें सदा नैतिकताका संचार करता है । आत्म नियन्त्रण [ संयम ] -- व्यवहारिक जीवन में अनुशासनको ही संयम कहते हैं । सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवन में उन्नत स्तरकी नैतिकताकी सृष्टि करता है । यदि नागरिकोंमें संयम न हो तो उनके संचालक नियम तथा प्रथाएं व्यर्थ हो जांयगी । किन्तु इसका विकास तथा पोषण आवश्यक है क्योंकि १ --- यद्यपि यह नामकरण वैज्ञानिक नहीं है । १४० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार तथा विश्व-समस्याएं उस अार्थिक व्यवस्थाका अाधार तथा पोषक संयम ही हो गा जो विश्वभरके प्राणियोंकी क्षेम कुशलकी स्थापनाका कारण हो गा। ५-अपरिग्रह-- ब्रह्मचर्य से जात संयम पंचम अणुव्रतको अनिवार्य कर देता है। अनेक दृष्टियोंसे अपरिग्रह की व्यवस्था जैनधर्मकी अपनी देन है । भोगोपभोगोंके होनेपर भी श्रात्म नियमन, प्रलोभनोंका दार्शनिक त्याग, उथलेपन तथा विषयातिरेकसे औदासीन्य ही तो तर-तम रूपसे अपरिग्रहके लक्षण हैं। लक्षणकार आचार्योंने यही कहा है कि मनुष्य अपनी वाह्य विभूतिमें अति श्रासक्त न हो, और प्रलोभनोंकी उपेक्षा करे । मनुष्य जीवनकी आवश्यकता पूर्तियोग्य सम्पत्ति तथा साधन सामग्री रखे वाह्य अर्जनमें आत्म विस्मृत न हो जाय । और पक्षपात, ईर्ष्या, लोभ, दम्भ, भय, घृणा तथा लघुताका त्याग करे। इस अणुव्रतका पालक व्यक्ति सम्पत्ति अथवा साम्राज्यके लिए घृणित एवं वासनामय प्रतियोगिता कदापि न करेगा; जो कि वर्तमान युगकी महा व्याधि है और अनेक महान आपत्तियोंकी जननी है । इस व्रतके कारण होनेवाली मनोवृत्ति वर्तमान युगके लिए अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इसीके द्वारा निष्ठुर एवं सर्वग्रासी भौतिक वादका निरोध संभव है । विज्ञानने उत्पादन बढ़ाया है तथा इतस्ततः वस्तुओंकी अतिमात्रा भी कर दी है। अाजके उद्योगों तथा व्यापारोंने नगरोंकी सृष्टि की है जहां जीवनमें शीघ्रकारिता ही नहीं है कृत्रिमता भी पर्याप्त है । मनुष्य ऐसी जड़ शक्तियोंकी पाशमें पड़ गया है जिन्हें समझना उसे कठिन हो रहा है । अाजके व्यापक रोग अर्थात् मानसिक विकार एवं अांशिक या पूर्ण शिथिलता उसे दबाते ही जा रहे हैं । प्रशस्त जीवनके लिए संग्राम अति क्लिष्ट हो गया है और उसी त्यागके बलपर लड़ा जा सकता है जिसे पंचम अणुव्रत सिखाता है । थोड़ेसे दृष्टिभेदके साथ हम इसे 'सम्यक् -विभाजन-ज्ञान' अथवा योग्यताओंकी प्रामाणिकताका मापक कह सकते हैं । चारित्रकी पूर्णता उक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि अणुव्रत अन्योन्याश्रित तथा परस्परमें पूर्य-पूरक हैं। एकके आचरणका अर्थ सबका आचरण होता है तथा दूसरोंके विना एक व्यर्थ हो जाता है। अहिंसाकी प्रधानता है क्योंकि यह प्रशस्त जीवनका मूलाधार है । जैन तथा बौद्ध धर्ममें यह मानवतासे भी व्यापक है क्योंकि इसमें चेतनमात्रका अन्तर्भाव होता है। संयत जीवनकी अहिंसक भाव तथा दृष्टि मूलकता इसकी परिपूर्णताका जीवित दृष्टान्त है। अस्तेय तथा अपरिग्रह अहिंसाके समान शब्दसे ही निषेधात्मक हैं व्यवहारमें पूर्ण रूपसे विध्यात्मक हैं । पांचों अणुव्रत एक संयत तथा आध्यात्मिक जीवनको पूर्ण बनाते हैं जो कि पूर्ण आत्मोत्थानका साधक तथा अनन्त श्रात्मगुणोंकी सत्य शोधके अनुरूप होता है। १४१ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी अोर एक दृष्टि श्री प्रा० सीताराम जयराम जोशी, एम० ए०, साहित्याचार्य ___एक समय था जब मानव समाजकी प्रगति धर्म मूलक थी । भारत पर बाहरी आक्रमण रूके अभी पूरी शती भी नहीं वीती है पर यहां धर्म या मजहबके नाम पर बड़े बड़े श्रापसी झगड़े हो चुके हैं और अभी भी उसीके नाम पर लोग एक दूसरेसे अपने दुर्भावको प्रकट करते आ रहे हैं । यह हुई मानव समाजकी भूलकी कथा । किन्तु इस संसार में धर्म किस लिए प्रवृत्त हुअा ? क्या उसने मनुष्यके कल्याण संपादनके बदले अनर्थ ही खड़े किये हैं ? अादि प्रश्न विचारणीय हैं । धर्मकी परिभाषा,-- धर्मकी यह सुन्दर व्याख्या सबके लिए माननीय है कि धर्म वह है जिसके द्वारा अभ्युदय और निःश्रेयसका लाभ होता है, अभ्युदयमें धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्गका समावेश है। निःश्रेयस यह मोक्षका अपर पर्याय है । अर्थ और काम यह इस लोकमें सर्वाङ्गीण उन्नति के मूल हैं; यदि वे दोनों धर्मके साथ बिल्कुल संबद्ध हों। यहां पर थोड़ा विचार करना होगा कि धर्मके भीतर अभ्युदय और अभ्युदयके अन्तर्गत धर्म यह कैसे संभव है ? इसका उत्तर विचारने पर यह होगा कि एकही 'धर्म' शब्द व्यापक तथा संकु. चित अर्थमें प्रयुक्त है । व्यापक शब्दका अर्थ है 'मनुष्यका चरम लक्ष्य, और संकुचित अर्थमें धर्म युक्तायुक्त विवेकसे संबद्ध है। मनुष्यका अन्तिम लक्ष्य चतुर्वर्ग पुरुषार्थ प्राप्ति है। उसमें लोकभेदसे इहलोक और परलोक माने गये हैं। जीव इस संसारमें जब तक मनुष्य देहको धारणकर विचरण कर रहा है तब तक उसका जगत इह है । मरनेके बादका लोक पर है। इसलिए यहां पर हम जो विवेचना करेंगे वह पुनर्जन्म व परलोक को गृहीत मानकर हो गी । जैनधर्म कर्म मूलक परलोक तथा पुनर्जन्म मानने वालोंमें अग्रणी है इसलिए यहां पर जो लिख रहे हैं वह उसको मान्य है ही, अस्तु । सृष्टिचक्र-- इस संसारमें प्राणिमात्रके लिए अत्यन्त आवश्यक तथा नैसर्गिक दो पुरुषार्थ हैं जो सभीको अभीष्ट हैं और सभी उन दोनोंको हृदयसे चाहते हैं वे हैं 'अर्थ और काम' । मानव जगत्की पूरी कोशिश इन दोनोंके लिए है, थी और रहेगी । अर्थ और कामके विना जीवनका एक क्षणभी वीत नहीं सकता । तब इनका स्वरूप क्या होगा यह निर्धारणीय विषय है। इस सृष्टिमें या इस निसर्गमें यह नियम स्वभावसे ही अनुस्यूत १४२ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी अोर एक दृष्टि है कि पदार्थ मात्र एक दूसरेके उपकारके लिए हैं। यह बात अाधुनिक विज्ञानने भी सिद्ध की है। विज्ञान हमें बतला रहा है कि वनस्पति वर्ग और प्राणि वर्ग परस्पर उपकार्योपकारक भावको रखते हैं । निसर्गकी शुद्ध प्राण वायुको सेवन कर प्राणिगण उसको गंदी बनाकर बाहर फेकते हैं । इस गंदे वायुका नाम पाश्चात्य विज्ञानमें कार्बोनिक गैस है। इसीका सेवन वनस्पति करते हैं । उसमें विद्यमान नैत्रोजन नाम की वायु वनस्पति वृद्धि में नितान्त आवश्यक है । वनस्पतिमें यह धर्म निसर्ग सिद्ध है कि वे नैत्रोजनको पृथक्कर उसका सेवन करते हैं । और पृथक्-करणके द्वारा प्राण वायुको फिर रिहा कर देते हैं जो कि फिर प्राणिमात्रको सदाके लिए काममें आता है यह एक चक्र है जो निसर्गको घटनामें सदाके लिए अनुत्यूत है। पेड़ अपने फलोंका उपयोग अपने लिए नहीं करते हैं । बादल समुद्रके खारा जलको लेकर हजार गुना मीठा पानी जमीन पर बरसाते हैं । इस प्रकारकी निसर्ग रचनासे हम क्या शिक्षा ले सकते हैं ? स्वार्थ त्याग तथा परोपकार एक चनिकके पास कुबेरकी संपत्ति है केवल इतने ही से क्या, वह सुखी होगा ? अपनेको कृतकृत्य मान सकेगा ? कदापि नहीं । उस धनको यदि वह अपने शरीरकी तथा मनकी इच्छाओंको तृप्त करनेके लिए काममें लावे और इस प्रकार काम पुरुषार्थका लाभ करनेकी कोशिश करे तो धनका कुछ उपयोग जरूर हुआ । अब ये मनकी इच्छाएं उसकी जिस प्रकारकी हों गी इसपर उसका सुख निर्भर होगा। उदात्त इच्छा वह मानी गयी है जिसका प्रत्येक निसर्ग हमारे सामने मौजूद है। 'परोपकाराय सतां विभूतयः' . सज्जनोंके अवतार परोपकारके लिए ही हैं । 'सन्ताः स्वयं परहिते विहिताभि योगाः' सज्जन स्वयं अपनेको दूसरेका हित करनेमें जोतते हैं । इत्यादि वचन उदात्त ध्येयकेद्योतक हैं। इस सांसारिक जीवनमें उदात्त प्रकारकी जीवन यापना प्राचीन कालसेही वह मानी गयी है जिसमें त्याग बुद्धि हो। इस प्रकारकी त्याग बुद्धिको रखनेवाले और निबाहने वाले त्यागी अर्थात् 'सन्त' पदसे संबोधित होते हैं। ऐसे महान् त्यागी पुरुष सभी धर्मोमें विद्यमान हैं चाहे वे पुनर्जन्म और परलोक माने या न माने । जैनधर्मका सार त्याग इस त्यागमें जैनधर्मके सिद्धान्त और आदेश अग्रसर हैं । बल्कि जैनधर्म दृढ़ताके साथ इस गुण को संपादन करनेका आदेश साग्रह दे रहा है । इनके चोबीस तीर्थकरोंमें तीन हमें इतिहास द्वारा ज्ञात हैं और त्यागके मूर्तिमान् प्रतीक हैं । त्यागकी उच्च श्रेणी उनके यहां वहां तक पहुंची कि उनको दिगम्बर रहनेका उपदेश दिया । शरीरको दंश करनेवाले मशक, आदि कृमियोंका भी निवारण हिंसाके भयसे निषिद्ध किया गया । इस प्रकार अपने शरीरको कष्ट देकर भी क्षुद्र प्राणियोंकी भी हिंसा टाल दी गयी तब कायिक हिंसा वा वाचिक और मानसिक हिंसाके विषयमें कहनेका कोई अवसर ही नहीं है। इस प्रवृत्तिके मूलमें जो रहस्य भरा हुआ है वह बहुत ही उच्च दर्जेका है । वह यह है कि इस नश्वर शरीरके द्वारा अनश्वर तत्त्वका लाभ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ करे जो सब प्राणिमात्र में विद्यमान है । 'कृमिकीटकों में रहनेवाला चैतन्य तथा चैतन्य एक है' यह भावना अन्यथा किस प्रकार दृढ़ हो सकती है ? यदि यह तो फिर मनुष्यको इच्छा देहमें सीमित होकर नहीं रह सकती है। उसकी वासनाएं जायगी और उस पुरुषको मोक्ष रूपी श्रेष्ठ पुरुषार्थं सुकर तथा सुलभ हो गा । जैन तप, मनुष्य शरीरमें रहनेवाला भावना दृढ़ हो जाय गी बिल्कुल निर्मूल हो उससे अधिक कोई महत्वकी चीज कष्ट देंगे जब उनको पूरा विश्वास जैनधर्मकी तीसरी उपादेय वस्तु 'तप' या 'तपस्या है। तप अर्थात् शरीरको तपाना अर्थात् कष्ट देना । शरीरको वृथा कोई कष्ट न देगा । देहकी उपेक्षा तभी होगी जब वैसा करने से प्राप्त होती हो । विद्यार्थी विद्यालाभके लिए शरीरको तभी होगा कि वैसा करनेसे वे अपना अगला जीवन सुखसे व्यतीत करने में समर्थ हों गे । स्वादिष्ठ पक्वान्न भक्षण करने की इच्छा रखनेवालोंको रसोई बनानेका शारीरिक कष्ट करना होगा। इस प्रकारके शरीर को दिये हुए कभी 'तपस्' शब्द से बोधित हो सकते हैं। खासकर विद्यार्जनके लिए किये हुए कष्ट या क्लेश तपके भीतर आते हैं । किन्तु तप या तपस्या इनसे भी अधिक महत्त्व के लाभोंकी ओर संकेत कर रहा है। लाभ वही प्रशस्त माना गया है जिसका फिर नाश नहीं होता वह है शाश्वतिक लाभ | शरीर के बाहरकी सभी चीजें चाहे वे कितनेही महत्त्वकी हों— जैसे राज्यपद अगाध सम्पत्ति, अप्रतिहत सामर्थ्य, आदि जिनका अन्तर्भाव पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा इन एषणात्रय में किया गया है । ये सब अशाश्वत हैं । सदा के लिए रहनेवाले नहीं हैं। शाश्वतिक पद एक है जिसको प्राप्त करने के बाद प्राप्तव्य ऐसी कोई चीज फिर नहीं प्रतीत होती । उसीको श्रात्यन्तिक सुख कहते हैं । अथवा जिसके प्राप्त करने से दुःखका पूर्ण अभाव हो जाता है । यही सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है । और इसीकी प्राप्ति के लिए संसारके सारे धर्म प्रवृत्त हुए हैं। किसी धर्मसे इसकी प्राप्ति देरीसे होता हो और किसीके द्वारा शीघ्र । जब चरम लक्ष्य इस प्रकार एक है तो वहां पहुंचनेके मार्गोंके लिए झगड़ा मचाना यह शुद्ध भूल है। जितने शीघ्र इस भूलको सुधारें उतना ही धिक श्रेयस्कर है | रत्नत्रय ही साध्यः - इन्हीं तीन बातोंको जीवन यापनके प्रधान साधन मानकर जैनधर्म बतला रहा है कि इस शाधतिक सुख अथवा निश्रेयस्की प्राप्ति सम्यग्ज्ञान सभ्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र के अभ्यासके द्वारा कर ले । किस धर्म के लिए ये बातें उपादेय नहीं हैं । मानव समाज के धर्मका चरम लक्ष्य जब तक यह था तब तक मान का मार्ग उन्नत रहा और साथ साथ सुख समृद्धि रही । जबसे मानव इस चरम लक्ष्यसे च्युत होकर मानव स्वभाव में रहनेवाले द्वेष, लोभ, मत्सर दिसे अभिभूत हुए और क्रोध मदादिकके सहायता से चरम लक्ष्य के १४४ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मकी अोर एक दृष्टि संपादनमें साधनीभूत उपायोंके लिए झगड़ने लगे तभीसे धर्मयुद्धका बीज बोया गया। जिसका फल महाभारतादि युद्धसे लेकर इस बीसवीं सदीके दो महायुद्धों तक परिणत हुअा । इन्ही बातों पर पूर्ण विचार कर महात्मा गांधी दृढ़ विश्वाससे कहते थे कि सत्य, अहिंसा और समता द्वारा ही संसारमें शांति स्थापित हो गी और उसका संपादन त्याग और तपस्याके द्वारा ही होगा । न कि पाशवी बलके प्रयोगसे | कौन नहीं कहता कि इस मार्ग में जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनों अग्रसर हैं। और कौन सा धर्म नहीं है जो इसे नहीं माने गा यदि उसके अनुयायी मानवीय स्वार्थ वश होकर संसारके कल्याण की ओर दृष्टि न दें। धार्मिकता का पुनरुत्थान, ___ सारा संसार त्रिगुणात्मक है । यदि हम कहें कि संसारसे रजोजुण और तमोगुण को मिटा देंगे तो हमारा यह कथन विवेकसे कोसों दूर रहे गा । हां; इतना संभवप्राय है कि यदि अथक कोशिश करें तो सत्त्वगुण समृद्ध होकर अन्य दोनों को अभिभूत करे। यह जब होगा तभी विश्वमें शान्ति स्थापित हो गी । पाशवी बलके प्रयोगसे आज तक संसार का कल्याण कभी न हुअा है; न अागे होगा। इससे यहां पर यह नहीं समझना चाहिए कि निःश्रेयस्के संपादनमें अभ्युदयसे हाथ धो बैठें । ये दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं । विना सच्चे अभ्युदयके निःश्रेयस्की कल्पना ही वृथा है । जैनधर्म करता है, त्याग तभी संभव है जब पासमें पूजी हो । अभ्युदय रूपी पूजी पर्याप्त प्रमाणमें रहनेके बाद ही निःश्रेयस् की चर्चा हो सकती है। अभ्युदयमें प्रधान अर्थ और काम हैं । उनका संपादन धर्मके साथ होना चाहिए। और इस विधि चलाने वाले प्रभावशाली पुरुष अधिकसे अधिक इस संसार में उत्पन्न हों गे तभी इसका उद्धार होगा। इस समय इसी चेष्टा की परम अवश्यकता है । और हम विश्वासके साथ कह सकते हैं कि जैनधर्म इस कार्यमें परम सहायक होगा और है। मानवताके कल्याणके लिए महात्मा गांधीके सदृश हजारों व्यक्तियों की आवश्यकता है । परंतु उसके लिए कठिन तपस्या की नितान्त आवश्यकता है । जिसपर सबसे अधिक जोर जैनधर्म ही दिया है। १४५ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनीय कर्म और परीषर श्री पं:, इन्द्र चन्द्र शास्त्री, न्यायतीर्थ ___तत्त्वार्थ सूत्रमें सात तत्त्वोंका वर्णन किया गया है। मुमुक्षु प्राणियोंको सात तत्त्वोंका बोध होना आवश्यक है । तत्वोंका वर्णन करते हुए उमात्वामीने तत्त्वार्थसूत्रके नौवें अध्यायमें संवर तत्त्वका वर्णन करते हुए गुप्ति समिति-धर्म-अनुप्रेक्षा परीषहजय, अादिको संवरमें कारण बताया है । श्रास्रवका निरोध करना ही संवर है और निरोध न होने पर श्रास्रव होता है । अर्थात् परीषहजय संवरका कारण है; इससे विपरीत परीषह श्रास्रवमें कारण है । 'श्रास्रव निरोधः संवरः' इस सूत्रकी व्याख्या श्री सिद्धसेन गणीने निम्न प्रकार की है।। 'कायादयस्त्रयः इन्द्रियकषायाऽव्रतक्रियाश्च पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविशंतिः संख्या तेषां निरोधः संवरः।" अर्थात् योग, इन्द्रिय, कषाय, अवत, क्रियाएं आस्रवमें कारण हैं । इसका निरोध करना संवर है । संवर कैसे होता है ? इसके लिए 'स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचरित्रैः' सूत्रका प्रतिपादन किया गया है । इस सूत्रक्रमसे स्पष्ट ज्ञात होता है, कि योग, आदि अास्रवके कारणोंके विरोधी गुप्ति, समिति आदि हैं । अतः परीषहको श्रास्रवमें और परीषहजयको संवरमें कारण मानना उचित है। श्रास्रवसे बंध होता है बंधका कारण मोहनीय कर्म है। अतः परीषहको श्रास्रवमें कारण मानने पर मोहनीय का साहचर्य श्रावश्यक है । विना मोहनीयके परीषह-अास्रव और बंधमें कारण नहीं हो सकतीं। परीपहका लक्षण-- “परीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थसाध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहः ।” ‘समन्तादापतिताः क्षुत्पिपासादयः सह्यन्त इति परीपहः।' (तःवाधिगम आ० ९ मू० २) परीषहके इन लक्षणों में समन्ते' इस पदसे ज्ञात होता है कि परीषह क्लेशरूप हैं। उस क्लेशके अनुभवको “सहन करना” पदसे प्रकट किया है । 'सहन करना" शब्दका प्रयोग उसी स्थान पर किया जाता है जहां दुःखरूप क्लेश होता है, जहां क्षुधा, अदि क्लेशरूप नहीं वहां सहन करना शब्द निरर्थक ही होगा । जब कुछ है ही नहीं तो सहन किसका किया जाय ? पारीषहसे क्लेश रूप परिणाम होते हैं । उन संक्लेश परिणामों पर जब विजय कर ली जाती है, तब वह परीषहजय कहलाती है और वही Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनीय कर्म और परीषह संवरका कारण है । जबतक संक्लेश रूप परिणाम रहते हैं, तब तक परीषह है, और तभी तक आव होता है | संक्लेश रूप परिणामों पर विजय होनेसे संवर होता है । अतः क्षुधाजन्य बाधा वा संक्लेश परिणामको क्षुधा परीपद कहते हैं । क्षुधाका संबंध वेदनीयसे है, बाधा जो कि दुःख रूप है, उसका संबंध मोहनीयसे है | अतः वेदनीय और मोहनीय दोनों कमसे क्षुधा परीषद हो सकती है । daare और मोहनीयका संबंध "घादिव वेदणोयं मोहस्स वलेन घाददे जीयं । ” – कर्मकाण्ड अर्थात् — वेदनीयकर्म मोहनीयके बलसे घातिया कर्मोंकी तरह जीवों के गुणोंका घात करता है । क्षुधा की बाधा बाधा वेदनीयका काम नहीं हो सकता । उसे मोहनीयकी अपेक्षाकी श्रावश्यकता है । यदि दुःख र सुख रूप वेदन केवल वेदनीयका हो कार्य माना जाय तो वेदनोयको जीव विपाकी होने के कारण घातिया कर्म स्वीकार करना चाहिये । जीव विपाकी होनेसे वेदनीयका फल मोहनीयके प्रभावमें भी जीव अवश्य होगा और दुःखरूप वेदन जीवमें होनेसे जीवके गुणों का घात भी अवश्य होना चाहिये । दुःख रूप वेदन हो और गुणोंका घात न हो यह कैसे संभव हो सकता है | वेदनीयमें जीवके गुणों को धातकी या सुख दुःख वेदनको शक्ति मोहनीय कर्मके ही कारण है । मोहनीयके प्रभावमें वह शक्ति से रहित हो जाता है । 'क्षपिताशेषघातिकर्मत्वान्निराक्तीकृतवेदनोयत्वात् । —चत्रल| टी.खं० १ पृ० १९१ | I धवला के इस प्रकरण से ज्ञात होता है कि वेदनीय कर्म स्वतंत्र सुख दुःख रूप वेदनकी शक्ति से रहित होता है । वेदनीय कर्म अपनी फलदायिनी शक्ति में सर्वथा स्वतंत्र नहीं है । जिन अघातिया कर्मोको फल देनेमें घातिया कर्मों की अपेक्षा रहती है, वे घातिया कर्मों के नष्ट हो जानेपर अपनी फल दायिनी शक्तिसे रहित हो जाते हैं । नामकर्म श्रघातिया कर्म है, नामकर्म के उदयसे इन्द्रियोंकी रचना होती है । इन्द्रियां अपने व्यापार में वीर्यान्तराय और ज्ञाना वरणके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखती हैं । जब तक वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं होता तब तक इन्द्रियां कार्य नहीं कर सकतीं । ज्ञानावरण और अंतरायके क्षय हो जानेपर इन्द्रियोंका कोई व्यापार या फल नहीं होता है । उनका अस्तित्व नहीं के बराबर है । केवली अवस्था में इन्द्रियोंका कोई फल नही है । अतः मोहनीय कर्मके अभाव में वेदनीय कर्म शक्ति रहित हो जानेके कारण फलदायक नहीं होता । केवली अवत्थामें वेदनीयका अस्तित्व द्रव्येन्द्रियकी तरह नाम मात्र के लिए रह जाता है । राजवार्त्तिकमें कलंकदेवने वेदनीय और मोहनीय के क्रमका कारण बताते हुए वेदनीयको ज्ञान दर्शन गुणका व्यभिचारी बताया है। और मोहनीयको विरोधी बताया है । इसका कारण मैं पहिले लिख चुका हूं कि मोहनीयके बल से वेदनीय कर्म सुख दुःखकी वेदना करा सकता है । इससे यह बात १४७ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ होती है कि जब वेदनीय मोहनीयका सहचारी रहता है उस समय वह अपने कार्यमें व्यापार करता ६, और ज्ञानादि गुणकाघात करता है । मोहनीयके अभाव में वेदनीय अपने कार्यमें व्यापार नहीं करता इसीलिए वह ज्ञानादि गुणका व्यभिचारी है । इसका कारण यह भी है कि वेदनीय मोहनीयके कारण ही जीव विपाकी कहलाता 1 कर्मकाण्ड में उत्तर प्रकृतियोंको जीव- विपाकी बताया है उसमें वेदनीयकी सत्ता और असाता भी जीव विपाकी हैं। इन जीव विपाकी प्रकृतियोंके उदयसे इनका फल जीवमें पड़ता है। अतः जीवके चौदयिक भावों में साता साता को भी सम्मिलित किया गया है या नहीं ? यह विचारणीय हैं। उमास्वामीने दयिक भावोंके भेद गिनाते हुए “गति कषाय लिंग मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयता सिद्व लेश्याश्चतुश्चतुरथ्ये कै कै कै - कषट् भेदा: " सूत्रका प्रतिपादन किया है। इस सूत्र में गिनाये हुए इकस भाव ही औौदयिक होते हैं । यह मान्यता श्वेताम्बरौंको भी मान्य है । इन इक्कीस औदयिक भावोंमें वेदनीयके साता साता रूप सुख दुःखको शामिल नहीं किया गया है। इसका कारण यही है कि सुख दुःख रूप परिणाम जब जीव विपाकी होते हैं तब मोहनीयके कारण कषाय रूप ही होते हैं। कषायके अभाव में वेदनीयका असर जीवमें नहीं पड़ता । इसीलिए वेदनीयको ज्ञान दर्शनादि गुणका श्रव्यभिचारी और मोहनीयको बाधक बताया है । इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि क्षुधादि परीषहों में वेदनीय और मोहनीय दोनोंका साहचर्य है । केवल वेदनीयसे परीषद नहीं हो सकती । वेदनीयका लक्षण -- “अक्खाणं अणुभवणं वेयणियं सुहसरुवयं सादं । दुखसरुव मसादं वं वेदयदीदि वेदणियं || " गो० द० १४ श्वेताम्बर आचार्य भी इन्द्रियजन्य सुख दुःखको वेदनीयके कारण मानते हैं । वेदनीय जन्य सुख दुःखकी वेदनाका प्रभाव इन्द्रियों के द्वारा ही होता है | वेदनीय जन्य सुख दुःख वास्तव में इन्द्रियों का ही सुख दुःख कहा जाता है । इन्द्रिय सुखके नामसे ही इसका व्यवहार होता है । जिस इन्द्रियका भाव होगा उस इन्द्रियजन्य सुख दुःखका भी प्रभाव उसमें पाया जाना चाहिये। जहां किसी भी इन्द्रियअनिन्द्रियका व्यापार नहीं पाया जाता है, वहां उस सम्बन्धी सुख दुःख नहीं पाया जाता। वहां वेदनीयके प्रभावसे सुख दुःखका वेदन किसी भी तरह से संभव प्रतीत नहीं होता है। इसलिए जहां इन्द्रियोंके व्यापारका अस्तित्व है और मोहनीय कर्म विद्यमान है वहीं परीषहकी परिभाषा घट सकती है। जहां मोहनीयका सद्भाव नहीं है वहां परिषहका सद्भाव कल्पना मात्र है । यह भी संभव नहीं कि मोहनीय के अभाव में शुद्ध वेदनीयका कार्य साता साता रूप रह सके। यह मैं पहिले लिख चुका हूं कि वेदनीय जीव - विपाकी है और उसका फल जीवमें पड़ना चाहिये । १४८ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनीय कर्म और परीषह क्षुधा, श्रादि अनन्त बलको विरोधी हैं । क्षुधासे अनन्त बलमें बाधा अनिवार्य है अतः हम वेदनीयका फल मोहनीयके अभावमें सक्रिय किसी भी तरह नहीं मान सकते । क्षुधाकी वेदना हो और जीवमें उसका फल न हो यह संभव नहीं है। यदि जीवमें फल स्वीकार करते हैं तो क्षुधा का कार्य अनन्त बलमें बाधा होता है, वह भी मानना पड़ेगा, ऐसा मानने पर विरोध आता है। अतः मोहनीयके विना न तो वेदनीय की प्रकृतियां जीव विपाकी होती हैं और न परीषहमें ही कारण होती हैं । वास्तवमें परीषह शब्द ही मोहनीयके साहचर्य का द्योतक है । परिषहका सम्बन्ध केवलीसे नहीं है-- इसके साथ यह भी विचारना चहिये कि उमास्वामी ने संवरके भेद प्रतिपादन करते हुए'स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परिषहजय चारित्रैः ।' सूत्र का प्रतिपादन किया है। इस संवरके प्रकरणमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षाकी अपेक्षा केवलीके नहीं है, अंतररायके क्षय हो जानेसे अनन्त बलके सद्भावसे परिषह जय करने का प्रश्न नहीं है। दूसरा सूत्र है 'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं' परिषोढव्याः परीषहाः।' इस सूत्रमें परीषह क्यों सहन करना चाहिये, इसके दो कारण बताये हैं । १संवरके मार्गसे च्युत न होनेके लिए २-निर्जराके लिए परीषह सहन करना चाहिये । परीषह सहन करनेके लिए इन दोनों कारणोंकी केवलीमें कोई अपेक्षा नहीं है । संवरके मार्गसे व्युत होने का तो वहां प्रश्न ही नहीं है। निर्जरा भी केवलीके परीषह जयसे नहीं होती है। अतः परीषह जयका जो वर्णन किया गया है वह केवली की अपेक्षासे नहीं माना जा सकता । परिषहोंका कर्मों के अनुसार विभाजन करते हुए सामान्य रूपसे वेदनीय कर्म की अपेक्षासे कुछ वर्णन किया गया है। पूर्वापर संबंधकी अपेक्षा उसका जो विशेषार्थ किया जाता है, उस अर्थ को खोंचातानी का अर्थ नहीं कहा जा सकता। इसके साथ यह भी विचारणीय है कि यतः परीषहों का संबन्ध असाता वेदनीय से है, अतः असाता वेदनीयका उदय केवली अवस्थामें कार्यकारी हो सकता है या नहीं ? असाता-वेदनीयके उदयको सफल बनानेमें अंतराय कर्मके उदयकी भी आवश्यकता होती है । यदि असाता का उदय हो और किसी तरहका अंतराय उपस्थित न हो तो उस असाताका कोई असर नहीं हो सकता । असाता अंतरायकी उपस्थितिमें ही कार्यकारी होता है, किंतु अंतरायके क्षय हो जाने पर असाता उदयका कोई वास्तविक असर नहीं हो सकता । केवलीके अंतरायका पूर्ण क्षय हो चुका है, फिर वहां असातावेदनीय जन्य क्षुधा, आदि परीषह रूपमें कैसे कार्यकारी हो सकती हैं ? परिपहोंका कर्मोंसे सम्बन्ध-- ____ तत्त्वार्थ सूत्रके नवमें अध्यायके नवमें सूत्रमें बाईस परीषहोंका वर्णन है, इसके वाद १०,११,१२ इन तीन सूत्रोंमें किन किन गुणस्थानोंमें कौन कौनसी परीषह हो सकती हैं, यह बतलाया गया है। १३ से १४९ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ १६ वें सूत्र तक कर्मों के साथ परीषहोंके विभाजनमें दूसरे कर्मोंका सम्बन्ध रहने पर भी सहायक कर्मको विभाजनमें स्थान नहीं दिया गया । जिस कर्मका जो कार्य है, उसकी मुख्यता लेकर ही परीषहोंका विभाजन किया गया है । कोई भी परीषह केवल किसी एक कर्मका फल नहीं हो सकती। प्रत्येक परीषहके साथ असाता वेदनीयका उदय होना आवश्यक है। जब तक असाता वेदनीयका उदय न होगा तब तक परीषहके कारण भी उपस्थित न हों गे। इसके लिए अन्तराय भी अ-विनाभावी है। असाताका उदय होनेपर भी यदि मोहनीयका उदय न होगा तब तक दुख रूप अनुभव भी न होगा और दुख रूप अनुभवके न होनेपर उसके सहनेका प्रश्न ही नहीं उठ सकता । फिर परीषहकी कल्पना ही निरर्थक हो गी । अतः प्रत्येक परीषह के होनेपर इन कर्मोकी अपेक्षा आवश्यक है। इन कौका परीषहोंसे सम्बन्ध कहीं सहायक रूपसे और कहीं मुख्य रूपसे वर्णन किया जाता है । किसी कर्मकी मुख्यता लेकर उस कर्मसे इतनी परीषह होती है, ऐसा वर्णन किया गया है। 'चुदादयोऽदर्शनान्ताः प्रत्यक्षीकृता द्वाविंशतिरिति न न्यूना नाधिकाः क्षमादि दशलक्षणकस्य धर्मस्य विघ्न हेतवः–अन्तरायकारणभूताः । केचिद् रागादुदयमापादयन्ति केचिद्वेषादिति, अतः सर्व एवैते प्रादुष्यन्तः समापतिताः समन्तात् परिषोढव्याः भवन्तीति।" -तत्वार्था टीका पृ० २२९ । अर्थात् क्षुधा परीषहसे लगाकर प्रदर्शन परीषह तक न एक कम न एक ज्यादा पूरी बाईस परिषह क्षमादि दश लक्षण धर्मके विघ्नमें कारण हैं । अन्तरायके कारणभूत हैं। इन बाईस परीषहोंमें से कुछ तो रागके उदयसे होती हैं और कुछ द्वपके उदयसे होती हैं इसलिए ये सब बाईस परिषह जोकि चारों तरफसे अाती हैं, वे सब सहनीय हैं ! __ श्वेताम्बर श्राचार्यकी इस टीकासे ज्ञात होता है, कि वे पूरी बाईस परीषहांको क्षमादि दश लक्षणधर्ममें विघ्न कारक मानते हैं । साथ ही मोहनीयका उदय भी श्रावश्यक बताते हैं । इसलिए यह कभी संभव नहीं हो सकता कि केवल वेदनीयके उदयसे परीषह कार्यरूपमें परिणत हो सके । यहां पर “परिषोढव्या भवन्ति" इस पदसे और भी स्पष्ट हो जाता है, कि ये परिषह सहनीय होती हैं । पहिले यह लिख चुका हूं कि मोहनीयका उदय परीषहोंमें आवश्यक है, और सुख दुखका अनुभव मोहनीय कर्मसे होता है, इसलिए परीषहोंको सहनीय शब्दसे युक्त किया गया है। परीषहजय शब्द ही वेदनीयके साथ मोहनीयका द्योतक है ? श्वेताम्बर अाम्नायमें स्वोपज्ञ भाष्यकी मान्यता है । एते द्वाविंशति धर्मविघ्नहेतवो यथोक्त प्रयोजनाभि सन्धायरागद्वेषौ निहत्य परिषोढ़व्या भवन्ति ।" -खोपशभा य पृट २२९ । यहां पर “रागद्वेषौ निहत्य परिषोढव्या” इस पदसे स्पष्ट ज्ञात होता है, कि परीषह जय राग और द्वेषको विजय करनेसे होता है। परीषह जयकी यही प्रक्रिया है । इसी भाष्यकी टीकामें श्वेताम्बर १५० Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनीय कर्म और परीषह प्राचार्य ने स्वीकार किया है, कि कुछ परीषह रागके और कुछ द्वेषके उदय होनेसे होती हैं । यदि केवल वेदनीय कर्मसे तेरहवें गुणस्थानमें परीषह मानी जाय तो फिर परिषह जयकी वहां सम्भावना ही नहीं रहे गी। असाताका उदय होनेसे असाता जन्य परीषह बराबर फल देती रहे गी। उन परीषहों पर विजय करनेका यहां कोई साधन नहीं है। अतः केवली अवस्थामें परिषह जयकी संभावना ही नहीं मानना चाहिए। फलितार्थ श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंके प्राचार्योंने परीषहके आने पर राग द्वेषको दूर करना ही परिषह जय कहा है । तेरहवें गुणस्थानमें राग द्वेषका सर्वथा अभाव होता है । अतः केवली अवस्थामें वेदनीय कर्म रहने पर भी परिषहोंकी संभावना नहीं होती। RBHA POAD १५१ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाकी साधना श्री दौलत राम 'मित्र' __ जो जितने क्षेत्रमें स्थित प्राणियोंको सुख पहुंचा सके वह उतने क्षेत्रका शासक समझा जाता है, इस दृष्टि से विचार करने पर विश्वका शासक वह हो सकता है, जो विश्वमें स्थित प्राणिमात्रको सुख पहुंचा सके । सारांश यह है कि संसारी ( भौतिक जीवन बद्ध दुःखी ) प्राणियोंको सुख रूप चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम-तथा मोक्ष ) प्राप्त करना है । इनमें से धर्म, अर्थ तथा काम ये तीन पुरुषार्थ ( भौतिक जीवन संबंधी सुख ) तो सुराज्यकी शासन नीतिके द्वारा भी प्राप्त हो सकते हैं १ किंतु चौथा नहीं । अतएव अंतिम परम पुरुषार्थ मोक्ष ( सदाके लिए दःखमक्ति ) है, वह जिसकी शासन नीतिके द्वारा प्राप्त हो सके, विश्वका शासक वही हो सकता है ! वह कौन है ? वह है-वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता । इन तीन विशेषताओंका धारक जिनदेव और उनकी शासन-नीति-संस्कृति है अहिंसाकी साधना । जो कि प्राणिमात्रको वर्तमान जीवनमें पारस्परिक अभयदान देती हुई अंतमें मोक्ष प्राप्त करा देती है । ____अंतिम जिनदेव श्री वर्द्धमान महावीरने अाजसे २५०० वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको राजगृही ( बिहार ) में भव्य जीवोंको इसी अहिंसाकी साधनाका उपदेश दिया था। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ये सब अहिंसाकी साधनाके भेद हैं । ४ वृत, संयम, धर्म, निवृत्ति, चारित्र, ये सब अहिंसाकी साधनाके नामांतर हैं।" मोक्ष इच्छुकोंको अहिंसाका सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके यथाशक्ति अहिंसाकी साधना करके मोक्षमार्ग पर लगना चाहिये। १. "धर्मार्थ कामफलाय राज्याय नमः " (नीति वाक्यामृत १७ सोमदेवमूरि) २. "मोक्षमार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातार विश्वतत्वानां वंदे तद्गुण लब्धये ॥" ( तत्वार्थसूत्र उमास्वामि ) ३. “सस्कृतिका फल है किसी निर्दिष्ट मार्ग पर सरलतासे जा सकनेकी योन्यताका प्राप्त हो जाना । संस्कृति 'सु' और . 'कु' दोनों प्रकारकी हो सकती है । सु-संस्कृति सुमार्ग पर ले जाय गी और कु-संस्कृति कुमार्ग पर ले जाय गी। संस्कार, हृदयकी तन्मयता-जीवन व्यवहार, ये सब संस्कृतिके रूप है।" (ले०) ४ आत्म परिणाम हिंसन, हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृत वचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥” (पु. सि. ४२) ५ पंचाध्यायी २, श्लो. ७५५-५८ । ७६४-६५ । १५२ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाकी साधना अब प्रश्न होता है कि क्या अहिंसाकी साधना शक्य है या अशक्य ? क्योंकि संसारी जीवोंके द्वारा हिंसा तो अनिवार्य है, कहा है, "ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसमें हिंसा न होती हो ।' “संसारमें वह कौन है जिसने पाप (हिंसा) न किया हो ? जिसने पाप न किया वह किस तरह जिया, यह तो बतायो १२ किन्तु ऐसा नहीं है कि संसारी जीवोंके द्वारा अहिंसाकी साधना एकदम असंभव है । यदि ऐसा होता तो संसारी जीवोंका मुक्त होना असंभव हो जाता तथा क्यों साधनाके बलपर गांधीजो उसी निष्कर्ष पर पहुंचते जिसे जैनाचार्योंने पुकार पुकार कर कहा था । तथा जैसा कि उनके निम्न कथनसे स्पष्ट है - “अगर अहिंसा धर्म सच्चा धर्म है तो हर तरह व्यवहारमें उसका आचरण करना भूल नहीं बल्कि कर्तव्य है । व्यवहार और धर्मके बीच विरोध नहीं होना चाहिये । धर्मका विरोधी व्यवहार छोड़ देने योग्य है । सब समय सब जगह सम्पूर्ण अहिंसा संभव नहीं, यों कहकर अहिंसाको एक अोर रख देना हिंसा है, मोह है, अज्ञान है। सच्चा पुरुषार्थ इसमें है कि हमारा आचरण सदा अहिंसाके अनुसार हो । इस तरह आचरण करने वाला मनुष्य अंतमें परमपद (मोक्ष) प्राप्त करे गा। क्योंकि वह संपूर्णतया अहिंसाका प.लन करने योग्य बने गा । और यों तो देहधारीके लिए संपूर्ण अहिंसा बीजरूप ही रहे गी। देहधारणके मूलमें हिंसा है। इसी कारण देहधारीके पालने योग्य धर्मका सूचक शब्द निषेधवाचक "अ-हिंसा" के रूपमें प्रकट हुअा है।" "बेशक किसी न किसी प्राणीकी किसी न किसी रूपमें हिंसा तो अनिवार्य है । जीव जीवों पर जीते हैं इसलिए और महज इसी लिए बड़े बड़े दृष्टानोंने उस स्थितिको मोक्ष कहा है जिसमें जीव शरीरसे मुक्त हो,--उस शरीरसे जिसका पालन-संवर्धन करनेके लिये हत्या या हिंसा अनिवार्य होती है । फिर भी मनुष्यके लिए इसी शरीरमें रहते हुए उस पदकी श्राशा करना असंभव भी नहीं, यदि बहु हिंसाकी मात्रा घटाकर कमसे कम कर दे । वह जितना ही जानबूझकर तथा बुद्धि पूर्वक अपने श्रापको ऐसी हिंसासे दूर रक्खे गा जिसमें अपने निर्वाहके लिए दूसरे प्राणियोंकी हत्या होती हो, उतना ही परमपद (मोक्ष) के नजदीक हो गा । सम्भव है मनुष्य जाति ऐसा जीवन पसंद न करेगी जिसमें कुछ भी आकर्षण (प्रवृत्ति ) न दिखायी दे, परन्तु इससे उक्त कथनको बाधा नहीं पहुंचती । वे लोग जो कि पूर्णतः ऐसा निस्वार्थ जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और प्राणिमात्रके प्रति करुणामय व्यवहार करते हैं, हमें अात्माके परमपद (मोक्ष) का माहात्म्य समझनेमें सहायता करते हैं । वे मनुष्य जातिको ऊंचा उठाते हैं और उसके आदर्श पथको भालोकित करते हैं।" १ "साक्रिया काऽपि नास्तीह यस्यां हिंसा न विद्यते” (यशस्तिलक चं० उत्तरार्ध पृ० ३३५) २ "नाकरदाह गुनाहदर जहां कीस्त बिगी । आं कसकिं गुनाह न कर्द चूजस्ति विगी ।।" १५३ २० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ "जीव तो सर्वत्र भरे हुए हैं ऐसी दशामें यदि भावोंके ऊपर बंध और मोक्ष निर्भर न होता तो • कौन कहां रहकर मोक्षको प्राप्त करता ?'१ _ “यदि राग द्वेषादि परिणाम न हो, आचरण यत्नपूर्वक हो, तो केवल प्राण पीडनसे हिंसा नहीं हो सकती है, अथवा कोई हिंसक नहीं कहा जा सकता है ।"२ "यदि शुद्ध परिणाम वाले जीवको भी केवल द्रव्य ( शरीर द्वारा होने वाली) हिंसाके संबंधसे पापका भागी माना जावेगा तो कोई अहिंसक बन ही नहीं सकेगा।"3 "सूक्ष्म जीव तो पीडित नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवोंमें से जिनकी रक्षा की जा सकती है, की जाती है। फिर संयमीको हिंसाका पाप कैसे लग सकता है ? अर्थात् नहीं ही लगता है "४ ___“जीवोंका घात न करता हुश्रा भी अधिक पापी ( हिंसक ) होता है और जीवोंका घात करता हुअा भी न्यून पापी होता है, यह केवल संकल्पका फल है, जैसे धीवर और किसान ।"५ इत बातोंपरसे यह प्रमाणित होता है कि-संसारी जीवोंके द्वारा अहिंसाकी साधना संभव है। अहिंसाके साधकोंकी योग्यता अहिंसाके साधक दो तरहके हैं, एक 'अणु' साधक दूसरे 'महा' साधक । अणु-साधक संज्ञी पचेंद्री पशु तथा मनुष्य दोनों ही हो सकते हैं और महा-साधक सिर्फ मनुष्य हो सकते हैं । ज्ञान-संहनन -- मनुष्यके पास दो उपादान शक्तियां हैं एक ज्ञान दूसरी संहनन । बस इन्हीं दो शक्तियोंके बलपर मनुष्य हिंसा या अहिंसाका साधक बनता है। जैसे १-जिसका ज्ञान ( दृष्टि विज्ञान) असम्यक् होगा और संहनन उत्तम न होगा वह हिंसाका अणु साधक होगा। १ “विश्वग्जीव चिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्षत । भावैकसाधन बधमोझी चेन्नाभविष्यताम् ।" (सागार ध० ४, २३ )। २ "युक्ताचरणस्य सतो रागद्यावेशमन्तरेगापि । न हि भवतु जातु हिंसा प्राणव्ययरोपणादेव ॥” (पु. सि. ४५) ३ "जइ सुद्धस्स य बंधो हो हिदि वहिरगवत्थुजोएण। णत्थदु अहिंसगो णाम वाउ-कायादियध हेदू ।" ४ “मूक्ष्मा न प्रतिपीड्य ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः । ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा संयतात्मनः ।" (त. जपा० ) ५ “अनन्नपि भवेत्यापी निघ्नन्नपि न पाप भाव । अभिध्यानविषेण यथा धीवरकर्षकी ।” (यश. चन्प्. ) ६. शारीरिक संगठन १५४ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाकी साधना २.जिसका ज्ञान असम्यक होगा बर संहनन उत्तम होगा वह हिंसाका महा साधक होगा। ३-जिसका ज्ञान सम्यक् होगा और संहनन उत्तम न होगा वह अहिंसाका अणु साधक (उपासक) होगा। ४—जिसका ज्ञान सम्यक होगा और संहनन उत्तम होगा वह अहिंसाका महा साधक होगा। वास्तवमें तो हिंसा या अहिंसाके साधक मनुष्यके पास मुख्य शक्ति एक 'उत्तम संहनन" है। जिसे दूसरे शब्दोंमें शूरत्त्व या वीरत्व कहते हैं । अतएव कहा है "जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा" अर्थात् हिंसा-प्रवृत्ति-में जो शूरवीर हो सकते हैं वे ही अहिंसानिवृत्ति-धर्म-में शूरवीर हो सकते हैं । ''जिनतें घर माहिं कछू न बन्योतिनते बनमाहिं कहा बनिहैं ?" "करें वह कर्म गर तो पहुंच जावे सातमें दोज़ख । करें सद कर्म पावें मोक्ष, शूरा इसको कहते हैं ।" (दौलतराम मित्र) "देखी हिस्टरी इस बातका कामिल यकीं पाया। जिसे मरना नहीं पाया उसे जीना नहीं पाया ॥" "हिंसा करनेका पूरा सामर्थ्य रखते हुए भी जो स्वेच्छासे-प्रेम भावसे-हिंसा नहीं करता है वही अहिंसा धर्म पालन करने में समर्थ होता है । "डरकर जो हिंसा नहीं करता है वह तो हिंसाकर ही चुका है। चूहा बिल्लीके प्रति अहिंसक नहीं है, उसका मन बिल्लीकी हिंसा निरंतर करता रहता है।" (महात्मा गांधी) "शूर वही है जिसकी छातीमें घाव हो, पीठमें नहीं । अर्थात् जो मैदाने जंगसे भागा न हो।" "भाग निकलनेकी-सुविधा-होते हुए भी जो छाती तानकर शत्रुके सामने खड़ा रहे वह शूरवीर है।" किंतु इस विषयमें एक बात जान लेना अत्यंत जरूरी है कि सम्यक् ज्ञान और उत्तम संहनन ( शूर वीरता ) ये दोनों बल होते हुए भी यदि मनुष्यकी परिस्थिति अनुकूल नहीं है, जैसे-मनुष्य यदि दूसरे व्यक्तियोंका अाश्रय दाता है, कुटुम्बी है या राजा है तो, वह अहिंसाका महान साधक नहीं हो सके गा । बल्कि वह कभी कभी रक्षार्थ अनिच्छापूर्वक हिंसा करता हुश्रा भी दिखायी दे गा । फिर भी १ पंचाध्यायी २, २७३.५६४ । २ पचाध्यायी २ इलो ८०९ तथा ८१९ । उत्तर पुराण इलो०४१९-२० १५५ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वह अनिवार्य हिंसाको अहिंसा और श्रापद्धर्मको धर्म नहीं मानेगा।' अस्तु, इस प्रकार अहिंसा व्रतके और उसके साधक जनके दो, दो भेद हो जाते हैंअहिंसाके दो भेद--४ १ सर्व देश ( सकल--समग्र-महा ) अहिंसा । २ एकदेश (विकल-असमग्र--अणु) अहिंसा । अहिंसा साधक जन के दो भेद-- १ सर्वदेश अहिंसा साधक ( वनस्थ साधु ) २ एकदेश अहिंसासाधक ( गृहस्थ-उपासक) अहिंसाके दो भेद यों हैं १ निर्ग्रन्थता, तीनगुप्ति, पंच समिति, दसधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, पंच चरित्र, बारह तप, ये सर्वदेश अहिंसाके निवृत्यात्मक अंश (अंग) हैं। २ यथाशक्ति औषधि, अाहार, ज्ञान और अभयदान द्वारा दूसरोंके प्राकृतिक या परजन कृत दुःख कष्ट दूर करना गुणपूजा, तथा धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्गका अविरोध रूपसे सेवन करना, ये एक देश अहिंसाके प्रवृत्यात्मक अंश ( अंग ) हैं । अहिंसा साधक जनके दो भेद यों है-- ___ सर्व देश अहिंसा साधक 'वनस्थ" किसीको दुःख नहीं पहुंचाता है क्योंकि इनके अन्दर प्रशस्त राग द्वेपका अल्पांश रह गया है । इनके लिए शत्रु मित्र समान है। क्योंकि ये लौकिक जिम्मेदारी से रहित हैं। ___एक देश अहिंसा साधक "गृहस्थ” किसीको सुख पहुंचानेका प्रयत्न करता है तो उसमें किसी को दुःख भी पहुंच जाता है, क्योंकि इनके अंदर प्रशस्त राग द्वेषका अधिकांश विद्यमान है। इनके लिए शत्रु मित्र समान नहीं है। क्योंकि ये लेकिक जिम्मेदारी सहित हैं । अहिंसाके उपदेशकोंका कर्तव्य-- विद्वान् उपदेशकोंका अथवा लोक नायकोंका कर्तव्य है कि मनुष्यकी ऊपर वर्णित शक्ति और परिस्थितिको ध्यानमें रखकर लोगोंको अहिंसा पालनका उपदेश दें । उपदेशकोंको यह उचित नहीं कि १ 'शान हिंसाकी आशा नहीं देता, परन्तु प्रसंग विशेषपर हिंसा विशेषको अनिवार्थ समझकर उसकी छूट देता है। जो मनुष्य शासकी दी हुई छूटसे लाभ नहीं उठाता है, वह धन्यवादका पात्र है। अनिवार्य हिंसा, हिंसा न रहकर अहिंसा नहीं हो जाती । हिंसाको हिंसाके ही रूपमें जानना चाहिथे ।" (म० गांधी) २ पु० सि० २०९।२११ तथा पंचाध्यायी २, ७५२ । ३ "मिस्तत्ववेद रागास्तथैव हास्यादयश्च षडदोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः । (पु० सि० ११६) १५६ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसाकी साधना पद प्राप्त गृहस्थोंको अपने सरल शुभ प्रवृत्तिरूप मार्ग से विचलित करके उन्हें उनके लिए कठिन मार्ग में लगा दें जिससे कि वे किसी ओर के न रहें । इसमें कोई शक नहीं कि अहिंसापथ के पथिककी संहनन शक्तिकी परीक्षा के लिए उसे प्रथम ऊंचा पथ दिखाया जाय जैसा कि कहा है "जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक साधु धर्मको नहीं कहकर गृहस्थधर्मका उपदेश देता है वह जिनवरके मत से दंड देने योग्य है ।" किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिये कि अहिंसापथके पथिकोंको ऊंचे पथमें ज्यों-त्यों ढकेल देनेका षड्यंत्र है। बल्कि अहिंसा पथमें पैर रखनेके पहिले पथिकको खूब सावधान कराना चाहिये । कहा है "अपना कल्याण चाहने वालोंको अपनी शक्ति देश, काल, स्थान, सहायक, आादि बातोंका अच्छी तरह विचार करके व्रत ( हिंसा मार्ग ) ग्रहण करना चाहिये ।" और इसका यह भी तात्पर्य नहीं लेना चाहिये कि ग्रहस्थ महान अहिंसा के मार्ग में बढ़नेका अभ्यास न करे । किन्तु मौके मौके पर अपने पद और शक्ति के अनुसार उचित अभ्यास अवश्य करते रहना चाहिये, क्यों कि आखिरकार मनुष्यको परम हिंसा परम पुरुषार्थ रूप जो मोक्ष या परम ब्रह्मत्व है उसे तो प्राप्त करना ही है । १ पुरुषार्थं सिद्धियुपाय श्लो० १८ । २ सागारधर्मामृत २७९ । १५७ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और कर्मका विश्लेषण श्री पं० बाबूलाल गुलजारी लाल अनन्त द्रव्योंके समुदाय स्वरूप यह लोक है इसमें पाये जाने वाले ये सम्पूर्ण द्रव्य अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहें गे। प्रत्येक द्रव्यकी रचना श्रनन्त अनन्त गुणों के सम्मिलन से हुई है । द्रव्यमें पाये जाने वाले सम्पूर्ण गुण और उनका पारस्परिक मिलाप अनादि है और अविनाशी है अतएव समुदाय स्वरूपी द्रव्य भी अविनाशी हैं । प्रत्येक गुण अपने स्वभावसे च्युत न होनेके कारण, अविनाशी होते हुए भी निरन्तर अपने स्वरूपमें परिवर्तन करता रहता है। इस परिवर्तन के कारण वह अनन्त अवस्थाको प्राप्त होता है इन अवस्थाओं का नाम पर्याय है । गुण और पर्याय के समुदाय से बना हुआ प्रत्येक द्रव्य गुणकी अपेक्षा नित्य ( ध्रौव्य ) है और पर्याय की अपेक्षा नित्य श्रर्थात् उत्पाद व्यय स्वरूप है । द्रव्यकी रचना स्वतः सिद्ध है अतएव यह लोक न तो किसी कर्त्ता के द्वारा रचा गया है और न किसी के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। द्रव्य -- लोकमें पाये जाने वाले सम्पूर्ण द्रव्य जीव और जीवके भेदसे दो प्रकार के हैं । जिन द्रव्यों में चेतना (ज्ञान, दर्शन ) गुण विद्यमान है वे जीव कहलाते हैं और जिनमें यह गुण नहीं हैं वे जीव कहलाते हैं । अजीव द्रव्यके पांच भेद हैं १ -पुद्गल २-धर्म ३ अधर्म ४-काल तथा ५ श्राकाश इन पांचों द्रव्योंमेंसे पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुणयुक्त होनेसे मूर्तिक कहलाता है और शेष द्रव्य तथा जीव द्रव्य इन गुणों से रहित होनेसे अमूर्तिक कहे जाते हैं यद्यपि वे सब आकार वाले हैं । पुद्गल द्रव्य परमाणु रूप है उनकी संख्या अनन्तनान्त हैं । ये परमाणु अपने में विद्यमान रुखाई - चिकनाई इन दो गुणों के सहारे आपस में मिलकर स्कन्ध रूप (पिंड) हो जाते हैं और बिखरकर छोटे छोटे पिंड या परमाणु हो जाते हैं । परमाणु पुद्गलकी शुद्ध अवस्था है और स्कन्ध शुद्ध अवस्था | क्योंकि परमाणु अवस्था में वह स्वाधीन होता है और स्कन्ध अवस्था में मिलने वाले परमाणुत्रों में एक दूसरेसे प्रभावित होते हैं । इससे परमाणु अवस्था स्वाभाविक और स्कन्ध अवस्था वैभाविक कही जाती है । वैभाविकी शक्ति- जैन सिद्धान्त में जीव और पुद्गल द्रव्यमें एक वैभाविकी नामकी शक्ति मानी गयी है । इस शक्तिको स्व और परका निमित्त मिलने पर जीव और पुद्गल द्रव्य विभाव रूप परिणमन करते हैं जैसे १५८ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और कर्मका विश्लेषण पुद्गलकी वैभाविक अवस्था उसका स्कन्ध रूप है वैसे ही जीवकी वैभाविक अवस्था उसका संसारी होना है, संसार अवस्थामें जीवके मन, वचन और काय योग तथा कषाय भावोंका निमित्त पाकर पुद्गल परगाणु स्कन्ध रूप होकर जीवके साथ सम्बद्ध हो जाते हैं, जिसका प्रभाव जीवके ज्ञानादि गुणोंपर पड़ता है । इस तरहसे जीवके साथ सम्बद्ध इन पुदगल स्कन्धोंको ही द्रव्य कर्म कहते हैं । इन द्रव्य कर्मोंकी शक्ति की हीनाधिकता जीवके कषाय भावों पर अवलम्बित है। यदि जीवकी कषाय तीव्र होती है तो बंधनेवाले कमौकी स्थिति और फलदान शक्ति भी अधिक होती है, और यदि कषाय मन्द होती है तो कर्मोंकी स्थिति और फलदान शक्ति भी मन्द होती है । इन कर्म स्कन्धोंका जीवके साथ एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध होता है, उसे ही बन्ध कहते हैं। कर्म सन्तति-- जीवमें अनन्त गुण हैं उन गुणोंमें कर्मपुद्गलोंके बन्धके निमित्तसे विकार उत्पन्न होता है। जैसे जीव अपने ज्ञान गुणके द्वारा प्रत्येक वस्तुको स्वतः जानता है कि प्रत्येक द्रव्य भिन्न भिन्न है और परिणत हुए पुदगल स्कन्धके प्रभावसे यह पर द्रव्यको अपना मानने लगता है तथा उनके प्रति राग या द्वेष करने लगता है इस प्रकार इसके श्रद्धान गुणोंमें परको निज मानने रूप और चरित्र गुणोंमें पर द्रव्य के प्रति राग द्वेष करने रूप विकार उत्पन्न होता है जिससे यह पर द्रव्योंसे चिपटता फिरता है इस तरह पुद्गल-कर्मोंके निमित्त से जीवके भाव विकृत होते हैं, विकृत भावोंके निमित्तसे पुद्गल द्रव्य, कर्मत्वको प्राप्त होता है । अनादि कालसे यही अवस्था तब तक चलती रहती है जब तक इसका मोह दूर नहीं होता । कभी किसी सुयोगके मिलनेसे यह सचेत होता है और अपने स्वरूपको जान कर उसपर श्रद्धा लाता है तथा अपने ही स्वरूपमें लीन होता है तब कर्मकी पराधीनतासे छुट्टी पाकर अनंत सुखको प्राप्त होता है । अतः इसे दुखोंसे छुड़ाने वाला सिवाय इसके शुद्ध परिणामोंके और दूसरा कोई नहीं है । हां, यह बात अवश्य है कि अपने शुद्ध स्वरूपका परिचय, शुद्ध स्वरूपको प्राप्त अरिहन्तों या निर्ग्रन्थ-गुरुत्रों द्वारा होता है उन्हींके द्वारा शुद्ध स्वरूपमें लीन होने की विधि, विदित हो सकती है और इसलिए निमित्त रूपसे श्री अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, श्रादि परमेष्टी इसे सुख प्राप्त कराने वाले कहे जाते हैं और दुखी बननेमें पुग्दलकर्मोंको निमित्त होनेसे दुख देने वाला माना जाता है। परन्तु वास्तवमें सुखी दुखी होनेमें जीवके अपने ही भाव उपादान कारण हैं। १५९ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा की दृष्टि से समाधिमरणका महत्व श्री दशरथलाल जैन 'कौशल' इस विज्ञान के युग में संसारकी अांखें मानव समाजके शिक्षणकी ओर बलात् श्राकर्षित हो रही हैं । विद्वान् बच्चोंके शिक्षा प्रारम्भकी अवस्था के सम्बन्ध में विचार करते हैं । पहले शिक्षा प्रारम्भकी वय १७, १८, वर्ष थी लेकिन २० वर्ष शिक्षा में बितानेका तात्पर्य होता है पंचमांश काल यों ही व्यतीत कर देना । इसलिए बालकों के शिक्षणकी उम्र ८, १० वर्ष निर्धारित की गयी । लेकिन १० वर्ष भी शिक्षामय विता देना लोगोंको असह्य मालूम होने लगा और उन्होंने निश्चय किया कि जब बच्चे साधारणतया बोलने चालने और समझने लायक हो जाते हैं तबसे शिक्षण प्रारम्भ किया जाय इस प्रकार ५ वर्षकी उम्र शिक्षण प्रारम्भके लिए उपयुक्त समझी गयी । लेकिन मनुष्य जीवनकी कीमत समझने वाले विद्वानोंको इससे भी संतोष न हुआ और वे सोचने लगे कि बच्चे जब खेलते हैं तभी खेल के द्वारा उन्हें शिक्षा देनेकी कोशिश क्यों न की जाय । फल स्वरूप 'किंडर गार्डन' द्वारा अक्षरों व अंकोंके श्राकारादिका ज्ञान करा देनेकी व्यवहारिक सूझ पेश की गयी । हमारे विचारशील शिक्षा विशारदोंको बच्चेका वह डेढ़ दो वर्ष जब कि वह माता का दूध ही पीता रहता है उस काल में भी उसे कुछ शिक्षा क्यों न दीक्षा दी जाय इसकी धुन सवार हुई है । मांके दूधके साथ उस बालकको शिक्षण प्रारम्भ करनेके लिए उन्होंने यह खोजपूर्ण निष्कर्ष दिया कि यदि शिक्षिता और सद्विचारपूर्ण हो और बच्चेको दुग्ध पान कराते समय सुन्दर भावनाएं उसके हृदय में जागृत रहें तो बच्चे पर शिक्षा के संस्कार डाले जा सकते है । इसपर भी काफी अमल किया गया और इस प्रयोगकी सफलता निसंदेह मान्य की गयी । यही कारण है कि हम प्रत्येक धर्म और जाति में जन्मके समय उनकी धारणाओं के अनुसार कुछ न कुछ संस्कारोंका रिवाज पाते हैं । शोधके कार्योंसे कभी तृप्त न होनेकी वृत्तिके कारण विद्वान् इसके भी आगे सूक्ष्म विचार में लीन रहे । इटली में भी कुछ काल पहले एक शिक्षा विशारद विद्वान्ने अपनी खोजको आगे बढ़ाया और उन्होंने अपना यह निश्चय किया कि बच्चे के जन्म के समय में शिक्षण संस्कार डालने के स्थानपर यदि जब बच्चा गर्भमें रहता है तभी उसके हृदयपर माताके हृदयका संस्कार पड़े तो बालक भी वैसा ही होना चाहिये क्योंकि गर्भावस्था में बालकका हृदय माताके हृदय से संबद्ध रहता है माताके विचार उन नौ मासमें जैसे रहेंगे जन्म होनेपर १६० Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षाकी दृष्टिसे समाधिमरणका महत्व बच्चा उन्हीं विचारोंकी साकार मूर्ति धारण करे गा । इसको उन्होंने एक उच्च कुलोत्पन्न महिलापर परीक्षा द्वारा प्रमाणित किया है। प्रथम बार जब वह माता गर्भवती हुई तो उसके कमरेमें वीर पुरुषोंके चित्र लगाये गये । उन्हींका परिचय, जीवन चरित्र, उसी ढंगकी कथा कहानियों का साहित्य उसे नौ मास तक बराबर पढ़ाया गया ताकि उस स्त्रीका समय एक विशेष वातावरणमें व्यतीत हो । कहते हैं,उसका वह पुत्र बड़ा शूरवीर निकला । दूसरी बार जब वह गर्भवती हुई तो उस स्त्रीकी इच्छा हुई कि अबकी बार उसका पुत्र अच्छा संगीतज्ञ निकले इसलिए इस बार उसके शयनागारमें दुनियांके प्रसिद्ध और निपुण गाने और बजाने वालोंके चित्र लगाये गये और उन्होंके चरित्र और गायन वादनके श्रवणमें उसने अपना समय व्यतीत किया इस बार उसका दूसरा पुत्र बड़ा संगीतज्ञ निकला। इसी तरह उसके चार पांच पुत्र हुए जो कि संस्कारों द्वारा कोई प्रसिद्ध चित्रकार, कोई कवि, कोई सफल राजनीतिज्ञ, भिन्न भिन्न विषयोंमें पारंगत हुए। इसके आगे जैनधर्म बस अाधुनिक वैज्ञानिकोंकी अंतिम खोज बालकके गर्भ में आने तक ही गयी है । इसके आगे बढ़ना उनकी बुद्धिके लिए अगम्य था लेकिन हमारे त्रिकालज्ञ तीर्थकारोंने ने अपने दिव्य चक्षुत्रोंके द्वारा इसके आगेका मार्ग खोज निकाला । उन्होंने बताया कि जीवोंका जन्म; मरणके उपरांतकी अवस्था है जिसका मरण अच्छा हो गा उसका उत्तम गर्भ में जन्म होना अनिवार्य है और जिसका मरण बुरी तरहसे हो गा उसका जन्म भी निश्चयसे बुरी योनिमें हो गा जैसा कि एक जगह पं० प्रवर श्राशाधरजीने कहा है---- काऽपि चेतपुद्गले सक्तो नियेथास्तद् ध्रुवं चरः। ___तं कृमीभूय सुस्वादु चिर्भटासक्त भिक्षुवत् ॥ ( सागार धर्मामृत ) भावार्थ-हे उपासक ! यदि तू किसा पुद्गलमें अासक्त हो कर मरणको प्राप्त हो गा तो कचरिया के भक्षणमें श्रासक्ति रखनेवाले भिक्षुके समान उसो पुद्गलमें जन्म लेकर उसका ही सदैव भक्षण करने वाला प्राणी होगा । इसलिए परद्रव्यकी आसक्तिको छोड़। __ यही कारण है कि दुनियांके तमाम धर्म और कोमोंमें मरण क्रिया को पवित्र और धार्मिक बनानेकी भिन्न भिन्न प्रकारकी क्रियाएं होती देखी जाती हैं और यही भावनाएं काम करती रहती हैं तात्माको स्वर्गमें जगह और वहांकी सहज शान्ति मिले ईसाइयोंमें जब कोई मरता है तो मुर्दे स्नान कराकर अच्छे वस्त्राभूषण पहनाकर इत्र फुलेल, आदिसे सुसज्जित करते हैं फिर पादरी साहब बाइबिलका कुछ अंश पढ़ते हैं और उस मृत पुरुषकी अात्माकी शान्तिके लिए उपस्थित लोगोंके साथ दुअा पढ़ी जाती है और मुर्दे को सन्दूकमें बन्दकर कब्र स्थानमें दफना देते हैं । इसी तरह मुसलमानोंमें भी मुर्देको कलमेका पानी छिड़क कर और दुश्रा पढ़कर दफना देते हैं। पारसियोंमें भी इसी तरहकी दुश्रा प्रार्थनाके बाद मुर्दे या तो दफना दिये जाते हैं या एक कुंएमैं पाले गये गिद्धोंको खिला दिये जाते हैं । हिन्दु धर्ममें भी मरण समय दुर्गापाठ, गीतापाठ या राम राम भजनेका रिवाज पाया जाता है और मदेंको दाहसंस्कारको ले जाते समय, 'राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत्य है की ध्वनि २१ १६१ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ की जाती है । बची हुई हड्डी, राख, आदि जिसे फूल कहते हैं गंगा, नर्मदा, आदि पवित्र नदियोंमें सिरा दी जाती हैं और प्रयाग, काशी, गया, आदि तीर्थों में पिण्डशुद्धि एवं श्राद्ध, तर्पण आदि क्रियाएं की जातीं हैं । इन तमाम क्रिया से उस मृत जीवका कल्याण हो या न हो पर करने वालोंकी सद्भावना स्पष्ट है। सल्लेखना— स्वयं जैनधर्म जीवके शरीर त्यागनेके पूर्व ही उसकी आत्माको सुधारनेका विशेष विधान करता है । जिसे सल्लेखना या समाधिमरण नाम दिया गया है । यद्यपि वैदिक, मुसलमान, ईसाई, आदि धर्मो में भी मरणके संस्कार किये जाते हैं तथापि समाधिमरणमें अपनी एक महान् विशेषता है । अन्तिमक्रियाएं प्राण निकल जाने पर होनेके कारण वैसी ही हैं जैसे सर्प के निकल जाने पर लकीरका पीटना । जैनधर्ममें मरणासन्न जीवके मनोगत विचारोंको सुधारनेका प्रयत्न किया जाता है। उससे उपकारक वस्तुसे राग अनुपकारक वस्तुसे द्वेष स्त्री पुत्र, श्रादिसे ममताका संबंध और बाह्याभ्यंतर परिग्रहको छुड़ाकर शुद्ध मन एवं मीठे वचनोंसे कुटुम्बी नौकरों चाकरोंसे दोषोंकी क्षमा याचना करायी जाती है और दूसरोंके द्वारा भी उसे क्षमा करवाया जाता है । क्रम क्रमसे भोजन, श्रादि छुड़वाया जाता है । जीने मरनेकी इच्छा अथवा उससे भय करना मित्रोंकी याद और भोगोंकी इच्छाका त्याग कराया जाता है । ऐसी सल्लेखना धारण करनेसे जीव धर्मरूपी अमृतका पान कर समस्त प्रकारके दुःखोंसे रहित हो अनंत दुष्कर और अक्षय उत्कर्षशाली अवस्थाको प्राप्त होता है । उसे समझाया जाता है कि इस समय परिणामोंमें संक्लेशता हुई तो तुमको संसारके प्रचुर दुखोंको सहना पड़ेगा । कहा भी है'विराद्धे मरणे देव दुर्गतिर्दुरचोदिता अनन्तश्चापि संसारः पुनरप्यागमिष्यति ॥ हे देव १ समाधिमरणके बिगड़ जाने पर दूर पड़ी हुई दुर्गति प्राप्त होती है और अनन्त संसार पुनः धमकता है । इस तरह उसे वैराग्यभावना के द्वारा सज्ज्ञानी और बलवान् आत्मा वाला बनाया जाता है और इस तरह उसके अगले जन्म की सुधारणा की जाती है । इसीको पंडित-मरण अथवा समाधिमरण कहते हैं । इस तरह सद्मरणके द्वारा सुसंस्कृत सद्जन्मकी श्राशा संभव है लेकिन इसके लिए भी ने बताया है कि ऐसा समाधिमरण उसीको संभव है जिसका जीवन सद् अभ्यास सच्चरित्र, सद्विचार और सज्जनोत्तम गुणोंसे परिपूर्ण रहा हो। हम जैसा जागृत अवस्था में विचार और कल्पना किया करते हैं अचेत और सुप्तावस्था में वही क्रियाएं काम करती रहती हैं। मरण भी इसी तरह अचेत अवस्था है जबकि जाग्रत अवस्थाका अभ्यास कार्य करता है । जिस तरह उत्तम जन्म के लिए समाधिमरणकी आवश्यकता है उसी तरह सद् एवं शान्त मरण के लिये जीवन में सच्चरित्र और सद्विचार की श्रावश्यकता है इस तरह हमारी उत्तरोत्तर उन्नतिकी श्रृङ्खला बनती है अर्थात् श्रेष्ठ जीवनसे श्रेष्ठ मरण और श्रेष्ठ मरण से श्रेष्ठतर जन्म और उससे श्रेष्ठतम जीवन एवं योनिकी प्राप्ति होती है । १६२ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक आत्मा परमात्मा है ! श्री अमृतलाल " चंचल" किसी सिद्ध सन्तसे एक जिज्ञासुने पूछा - " महात्मन् ! आखिर वे भाग्यवान कौन हैं, जिनके हृदय में सम्यक्त्व विरल रूपसे निवास करता हैं ? महात्माजी हंस पड़े और बोले— अरे बावरे ! सबके हृदयमें शुद्ध सम्यक्त्व समाया हुआ है - सबके हृदय शुद्ध सम्यक्त्व से जगमगा रहे हैं ! फर्क इतना ही है कि सिर्फ वीर पुरुष सिर्फ शौर्यवान पुरुष ही उसके गुणोंके प्रसूनोंकी मालिका गुथने में समर्थ होते हैं - उसके गुणोंको व्यक्त कर पाते हैं । और शेष ? शेष कापुरुष ! उनके हृदय में वह सम्यक्त्व रहते हुए भी नहीं ही रहने के बराबर होता है क्योंकि उनमें ज्ञान सामर्थ्य हो नहीं होती कि उसके प्रकाशको प्रकट कर सकें । आत्मा भी परमात्मा है और परमात्मा भी श्रात्मा ! यह बात नहीं हैं कि परमात्माकी बनावटमें किन्हीं ख़ास परमाणुत्रों का उपयोग किया गया है और आत्माकी बनावटमें किन्हीं आम का जो परमात्मा है वही और आत्मा भी है ! यहां और कुछ नहीं ! केवल एक दृष्टिमात्रका बदलना है। बूंद और लहरमें कुछ भेद नहीं; दोनों नदीसे भिन्न और कुछ वस्तु नहीं ! फर्क सिर्फ़ नामका है और वह भी एक विशिष्ट कारण से ! परमात्मा स्वयं समझाते हैं सिर्फ अपनेको जानने व न जान लेनेका सवाल ? जिसने अपनेको जान लिया उसने बाजी मारली - परमात्मा बन गया और जो अंधकार में पड़ा रहा वह पिछड़ गया, वह बना रहा बस हेय बहिरात्मा ! और यहीं पर श्रात्मा और परमात्मा के बीच एक मोटी दीवार खड़ी है । * बहिरात्मा * अंतरात्मा * परमात्मा इस दृष्टिसे हम हुए बहिरात्मा, या कितने ही अंशों में अन्तरात्मा पर परमात्मा नहीं ! और इसका एक यही कारण है कि हमने अपनेको नहीं जाना वस्तुके यथार्थं स्वरूपको नहीं पहिचाना ! स्वामी कुंदकुंदाचार्य रयणसार' में कहते हैं१६३ - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जबतक अपनी आत्माका स्वरूप नहीं जाना गया है, तबतक इस अत्माको कर्मजन्य दुखका भार है ही, और जब यह अात्मा अपने शुद्ध स्वरूप; टंकोत्कीर्ण स्वर्ण समान ज्ञायक स्वभाव को जान लेता हैअपने शुद्ध स्वभावको प्राप्त हो जाता है, उसी समय अनन्त सुखको स्वयमेव प्राप्त हो जाता है । हमने अपने अात्मस्वरूपको नहीं जाना, इसीसे हम अाजतक भव समुद्र में गोते खाते रहे । आत्मानुशासनमें श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं मामन्यमन्यं मां मत्वा भ्रान्तो भवार्णवे। नान्योहमहमेवाहमन्योऽन्योऽन्योऽहमस्ति न ॥ अर्थात्-भ्रान्तिके होनेसे जो आपको पररूप और परको श्राप रूप जाना इसीसे विपरीत ज्ञानके कारण तू भव-समुद्रमें भ्रमण करता रहा । अब तू यह जान कि मैं पर पदार्थ नहीं हूं। मैं जो हूं; सो मैं हो हूं और जो ये पर पदार्थ हैं; सो पर ही हैं। उनमें मैं नहीं हूं और वह मेरेमें नहीं हैं । श्रीमद्शुभचंद्राचार्य भी इसी तथ्यकी पुष्टि करते हुए ज्ञानार्णवमें कहते हैं मिथ्यात्वप्रतिनद्धदुर्ण यथभ्रान्तेन बाह्यानलं भावान् स्वान् प्रतिपद्यजन्मगहने खिन्नं त्वया प्राक् चिरं संप्रत्यस्त समस्त विभ्रमभव चिद्र पमेकं परम् स्वस्थं स्वं प्रविगाह्य सिद्धि वनिता वक्त्रं समालोकय ॥ अर्थात् हे अात्मन् ! तू इस संसार रूपी गहन वनमें मिथ्यात्वके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए सर्वथा एकान्त रूप दुर्जय मार्ग में भ्रमरूप होता हुआ, बाह्य पदार्थों को अपने मानकर व अंगीकार कर चिरकालसे सदैव खेद खिन्न हुअा । अब समस्त विभ्रमोंका भार दूर कर तू अपने अापहीमें रहने वाले उत्कृष्ट चैतन्य स्वरूपका अवगाहन करके उसमें मुक्तिरूपी स्त्रीके मुखका अवलोकन कर ! यद्यपि वह जीवनामका पदार्थ निश्चयनयसे स्वयं ही परमात्मा है, किन्तु अनादि कालसे कर्माच्छादित होनेके कारण यह अपने स्वरूपको नहीं पहिचान पाता है । श्राचार्य शुभचंद्रजी ज्ञानार्णव में कहते हैं अनादि प्रभवः सोऽयमविद्याविषम ग्रहः।। शरीरादीनि पश्यन्ति येन स्वमिति देहिनः ॥ अर्थात्--यह अनादि काल से उत्पन्न हुअा अविद्यारूपी विषम अाग्रह है जिसके द्वारा यह मूढ़ प्राणी शरीरादिकको अपना मानता है अर्थात् यह शरीर है, सो मैं ही हूं, यह देखता है । अयं त्रिजगतीभर्ता विश्वज्ञोऽनंत शक्तिमान् । नात्मानमपि जानाति स्वस्वरुपात्परिच्युतः। अर्थात् यह आत्म तीन जगतका स्वामी है, समस्त पदार्थोंका ज्ञाता है अनन्त शक्तिमान है, परन्तु अनादि कालसे अपने स्वरूपसे च्युत होकर अपने आपको नहीं जानता ! Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक आत्मा परमात्मा है ख्वाजा हाफ़िज सा० फरमाते हैं फाश मो गोयमो अज गुफ़्त-ए-खुद दिल शादम वंदा-ए-इश्कमो अज़ हरदो जहां आज़ादम । कोकवे-बख्त मरा हेच मुनजिम न शिनाख्त या रब ! अज मादरे-गेती बचे ताला जादम । तायरे-गुलशने-कुसुम चे विहम शहे-फ़िराक़ फि दरों दामे-गहे-हारसा चूँ उफ्तादम ॥ याने मैं खुल्लमखुल्ला कहता हूं और अपने इस कथनसे प्रसन्न हूं कि मैं इश्कका बंदा हूं और साथ ही लोक और परलोक दोनोंके बंधनोंसे मुक्त हूं। मेरी जन्मपत्रीके ग्रहोंका फल कोई भी ज्योतिषी न बता सका । हे ईश्वर ! सृष्टि-माताने मुझे कैसे ग्रहोंमें उत्पन्न किया है । स्वर्गके उद्यानका पक्षी हूं। मैं अपने वियोगका हाल क्या बताऊं कि मैं इस मृत्युलोकके जाल में कैसे या फंसा ? जिस समय यह अात्मा रागद्वेषकी परिणतियोंको ढीली कर हृदय परसे मिथ्यात्वका प्रावरण हटाता हुअा अपने स्वस्वरूपमें स्थिर होने लगता है तो पर-परिणतियोंका किला ढहने लगता है और कर्म की कड़ियां क्रमशः टूटने लगती हैं। स्वस्वरूपमें रमण करने से यह अात्मा कर्माका बंधन काटता हुअा क्रमशः अरहन्त पद पा जाता है और फिर समय पाकर स्वयं शुद्ध बुद्ध परमात्मा हो जाता है । आत्मा और परमात्मामें भेद बस इतना फ़र्क है अात्मा और परमात्मामें ! अनादि कालसे कर्मोंसे आच्छादित तेज पुञ्जका नाम आत्मा है और निर्लेप, निष्कल, शुद्ध, अविनाशी, सुखरूप और निर्विकल्पका नाम परमात्मा है ! आईना एक है सिर्फ सफाईका फर्क और वह भी पर्यायार्थिक नयसे, निश्चय नयसे अगर पूछा जावे तो अात्मा और परमात्मामें कोई भेद ही नहीं है जो अात्मा है सो परमात्मा है और जो परमात्मा है सो श्रात्मा है । आत्मानुशासनमें भी गुणभद्राचार्य कहते हैं श्राजातोऽनश्वरोऽमूतः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः । देह माया मलैर्मुक्तो गत्वोर्द्धमचलः प्रभुः। अर्थात् आत्मा अजर अमर अमूर्तीक है व्यवहार नयकी अपेक्षा कर्मोंका और निश्चयनयकी अपेक्षा अपने स्वभावका कर्ता है । व्यवहार नयसे अपने सुख दुखका व निश्चय नयसे अपने स्वभावका भोक्ता है । अज्ञानसे इन्द्रिय जनित सुखोंका भोक्ता है । पर निश्चयसे परमानन्द मय ज्ञानस्वरूप है । व्यवहार नयसे देहमात्र है पर निश्चय नयसे यह चेतन है, कर्म फलसे रहित है । लोकके शिखर पर जाकर अचल तिष्टता है इसलिए प्रभु है ! 'तत्वसार' में श्री देवसेनाचार्य कहते हैं Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो अभिनन्दन ग्रन्थ सिद्धोहं सुद्धोहं प्रांत णाणाइगुण समिद्धोहं । देहपमाणो णिच्चो सखदेसो श्रमुत्तो ण । अर्थात् मैं ही सिद्ध हूं, शुद्ध हूं, अनंत ज्ञानादि गुणोंसे पूर्ण हूं, अमूर्तिक हूं, नित्य हूं, संख्यात प्रदेशी हूं और देह प्रमाण हूं इस तरह अपनी आत्माको सिद्ध के समान वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा जानना चाहिये । श्री पूज्यवाद स्वामी समाधिशतक में कहते हैं --- यः परमात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । श्रहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥ अर्थात् - जो कोई प्रसिद्ध उत्कृष्ट आत्मा या परमात्मा है वह ही मैं हूं तथा जो कोई स्वसंवेदन गोचर मैं श्रात्मा हूं सो ही परमात्मा है । इस लिए जब कि परमात्मा और मैं एक ही हूं तब मेरे द्वारा मैं ही श्राराधने योग्य हूं कोई दूसरा नहीं। इस प्रकार अपने स्वरूपमें ही आराध्य श्राराधक भावकी व्यवस्था है। १६६ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रतीक तथा मूर्तिपूजा श्री प्रा० अशोककुमार भट्टाचार्य, एम० ए० बी० एल०, काव्यतीर्थ, आदि जैन धर्म में पूजाके आदर्श व्यक्तिकी शारीरिक सदृशता मात्र पर दृष्टि रखकर पूज्यकी प्रतिमा कभी नहीं पुजती; जैसा कि बौद्ध तथा वैदिक धर्मो में भी होता है । न जाने कबसे मानवकी बुद्धिने महत्तम देवताकी कल्पनाका आधार उसके शरीरकी सदृशताको न मानकर प्रतीक चित्रणको ही आदर्श माना है । इन बिम्बात्मक प्रत्युपस्थापनाओं के कुछ ऐसे अर्थ तथा लक्ष्यार्थ होते हैं जो इन्हें सहज ही उन कलामय कृतियोंसे पृथक् सिद्ध कर देते हैं जो केवल शोभाके लिए निर्मित होती हैं । वे चक्षु साक्षात्कार की अपेक्षा मानसिक व्यापार (विवेक) को अधिक जगाते हैं । भारतीय धर्मोंका अभीष्ट प्रतीक-पूजा अथवा आध्यात्मिक कल्पना वह इतिवृत्त है जो धर्मों के इतिहास के समान ही प्राचीन है । देवता अथवा प्रकृतिकी विविध साकार निराकार वस्तुओं का मानवीकरण ( मनुष्य की देहयुक्त समझना ) अर्थात् रूपभेद सर्वथा अर्वाचीन प्रकार है। मथुराके कंकाली टीलेसे निकले अष्ट मांगलिक द्रव्योंके प्रतीक युक्त 'आयागपटों' से जैनधर्म सम्बन्धी उक्त मान्यता भली भांति सिद्ध हो जाती है । ये श्रायागपट उतने ही प्राचीन माने जाते हैं जितनी अब तक प्राप्त प्राचीनतम जैन मूर्ति है । बौद्ध साहित्य में स्वयं महात्मा बुद्धके कुछ ऐसे वक्तव्य भी मिलते हैं जो मानवाकार मूर्तियों के प्रति उनकी विशेष घृणा के सूचक हैं । तथा मूर्तिमान से सम्बद्ध प्रतीकात्मक चैत्यकी अनुमोदना भी उसी प्रकरणमें मिलती है । जब बुद्ध दृष्टिके सामने न थे तब ही उनके व्यवहारकी विधि की गयी है । सम्बद्ध प्रतीकों की स्थापना बौद्धकलाका वैशिष्टय है जिसकी ठीक समता जैन धर्ममें नहीं मिलती । हस्तलिखित जैन ग्रन्थों अथवा जैन उत्कीर्णन कला में पाये जाने वाले प्रतीकात्मक प्रत्युपस्थापनोंका विषय पूजनीय पवित्र वस्तुएं हैं । कहीं पर इनमें से एक एकका चित्रण है और कहीं पर सबका एक १ श्री बी० ए० स्मिथकी "मथुरा के जैन स्तूप तथा अन्य प्राचीन वस्तुएं" चित्र २ " कतिमुखो भंते चैतियानीति ? ते नि आनन्द ति । कतमानि भते तेनेति ? शारीरिकम्, पारिभोगिकम्, उद्देसिकम् इति । सक्काप्ण भते तुम्हेंसु, धरतेसु येव चैत्यन, कातुति ? आनन्द शारीरिकम् न सुक्ककाष्टातुम, न हि बुद्धानां परिभूतकालयेव होति -- आदि । महाबोधिवंश पृ० ५९ । १६७ ७ तथा ९ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ साथ है । पूर्व उल्लिखित उद्धरणके आधार पर समझा जा सकता है कि गौतम बुद्ध मूर्तिपूजाके विरोधी थे फलतः बैद्ध धर्मके प्रारम्भिक युगमें मूर्तिरूपमें प्रत्युपस्थापन बहुत कम हुअ।। तथा उत्तरकालमें अत्यधिक हुआ । दिव्यावदानका' यह उल्लेख कि बौद्ध उपासक मूर्तिकी पूजा नहीं करता है किन्तु उन सिद्धान्तोंकी पूजा करता है जिन्हें प्रकट करनेके लिए मूर्ति बनी है; महत्त्वपूर्ण है। जैनपूजाका आदर्श-- वैदिकों तथा बौद्धोंके समान होते हुए भी मूर्तिपूजा विषयक जैन मान्यताकी अपनी विशेषताएं हैं । उनकी मान्यता है कि तर्थिकर, श्रादि शलाका पुरुषों अथवा जिनधर्म भक्त शासन देवतादिकी प्रतिकृति होने ही के कारण मूर्तियोंकी स्थापना नहीं की जाती है अपितु उनकी स्थापनाका प्रधान कारण वे अनन्त दर्शन, आदि विशुद्ध एवं अलौकिक गुण हैं जिनका ध्यान करणीय है तथा जो श्रात्यन्तिक प्रेय हैं। सारभूत इन गुणोंकी शोधके लिए ही श्रावश्यक है कि उनका कहों पर प्रदर्शन किया जाय, ताकि इन श्रादशौंका ध्यान करते समय भक्तोंके हृदयमें अनन्त दर्शन ज्ञान, वीर्य सुखमय गुणोंकी स्पष्ट छाया पड़े । मूर्तिपूजाका उद्देश्य, उनके द्वारा प्रत्युपस्थापित मूर्तिमानके अलौकिक गुणोंकी महत्ताको प्रचुर रूपसे बढ़ाना है। इसी सिद्धान्तको दृष्टिमें रखते हुए गंगा, आदि नदियों, तालाबोंके अधिष्ठातृ देवी-देवताओंका उद्देश्य भी समझमें श्रा जाता है । फलतः तर्थिकरकी मूर्तिको उन सब साधनाओं और गुणोंके पुञ्जके रूपमें ग्रहण करना चाहिये, जो कि किसी भी धर्म अथवा युग प्रवर्तकमें होना अनिवार्य हैं । फलतः श्राराधकके हृदयमें श्राराध्यकी श्रद्धा बढ़ती ही जाती है। प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा वह संस्कार है जिसके द्वारा श्राराध्य पुरुष अथवा वस्तुकी महत्ता तथा प्रभावकताको मान्य किया जाता है । जब कोई साधु प्रधानताको प्राप्त होता है तो उसे प्राचार्य' पदपर प्रतिष्ठित किया जाता है। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शिल्पी, आदि भी वेदाध्ययन, शासन, व्यवसाय, सेवा, कला, आदिमें प्रतिष्टित किये जाते हैं तथा सामाजिक नियमानुसार तिलक, माला, समर्पण, आदि, द्वारा इस विधिको मान्य किया जाता है। यह सर्व विदित है कि तिलक, माला अनुलेपन, आदि विधियोंकी स्वयं कोई महत्ता नहीं है। फलतः इनके कारण किसी व्यक्तिकी महत्ता नहीं बढ़ती, अपितु प्रधानताका कारण तो वह स्वीकृति या मान्यता होती है जिसकी घोषणा यह सब करके की जाती है। इसी प्रकार मूर्ति प्रतिष्ठा भी एक महान प्रतीक है फलतः उसकी दार्शनिक व्याख्या होती है। अर्थात् १ दिव्यावदान अध्याय, १६ । २-आचार-दिनकर (वर्धमान सूरि ) पृ० १४१ ।। १६८ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रतीक तथा मूर्तिपूजा साकार अथवा निराकार मूर्तिमें जो विधिपूर्वक उसके गुणोंका न्यास किया जाता है उसे ही प्रतिष्ठा' कहते हैं वह जिनदेवके गुणोंकी मूर्ति स्थापना-रूप है । धर्मका कारण होनेसे जिनदेव अथवा अन्य गुणी स्थापनीय होते हैं । इसमें या तो गुणीकी ही प्रधानता होती है गुण गौण रहते हैं अथवा गुणों ही की प्रतिष्ठा होती गुणीका उतना ध्यान नहीं रहता है। इस प्रकार पाषाणसे बनी घटित अथवा अघटित मूर्ति भी जिन, क्षेत्रपाल, बौद्ध, गणधर, विष्णु, गांधी, आदि नामको पाकर पूजी जाती है क्योंकि प्रतिष्ठा द्वारा वे वे देवता अथवा पुरुष उस मूर्तिमें समा जाते हैं ऐसी मान्यता है, क्योंकि अपनी दृढ अास्था द्वारा साधक उन्हें वहां देखता है। भवन वासी, व्यन्तर ज्योतिषी, वैमानिकादि देव अपनी अपनी अन्तःशक्तिको मूर्तियों में प्रवेश करा देते है ऐसी मान्यताका आधार भी यही है । सिद्धों तथा अर्हन्तोंकी मूर्तियों की स्थापनाका भी यही रहस्य है। इसी प्रकार तालाब कुंश्रा, आदिकी प्रतिष्ठाका भी उक्त तात्पर्य है, अर्थात् देवी देवताओंकी विभूतिकी ही स्थापना होती है अर्हन्त, इन्द्रादि स्वयं नहीं आते हैं । मूर्ति पूजा सम्बन्धी यह जैन मान्यता 'मानव-देव' प्रक्रियाकी पूर्ण समर्थक है। क्योंकि जिनदेव स्वयमेव अनन्त गुणोंके पुञ्ज मुक्त 'मानव' हैं जो फिर कभी भी संसारमें अवतार नहीं लेंगे। वे वैदिक धर्मके अलौकिक शक्ति सम्पन्न सर्वथा देव स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु, शिव अादि 'देव-मानव' के समान नहीं हैं जो स्वयं मुक्त होकर भी अवतार लेते हैं । जैनमूर्ति कलाका विश्लेषण करते समय वैदिक तथा जैन मान्यताके महत्त्वपूर्ण भेद पर दृष्टि रखना आवश्यक है । मूर्ति पूजाका विकास ईसकी प्रथम अथवा द्वितीय शतीका अन्त आते आते जैनलोग पूर्ण मनुष्य रूपकी मूर्तियोंकी पूजा करने लगे थे यह प्रमाण सिद्ध निष्कर्ष है। यद्यपि सम्राट खारवेलने अपने खंडगिरीके हस्तिगुफों शिलालेखमें अर्हत् मूर्तिका उल्लेख किया है, जिसे लोग अस्पष्ट सा मानते हैं । तथा संदिग्ध भावसे उसकी व्याख्या करते हैं । इन्हीं गुफाओंमें शिलाओंकों काटकर बनायी गयो कुछ मूर्तियां भी मिलती हैं । इन सबको छोड़कर यदि मथुराके कंकाली टीलेसे निकली पूर्ण मानवाकार सरस्वतीकी मूर्तिको ही लें। और उसपर पड़ी तिथिका विचार करें तो यह मूर्ति जैन मूर्तिकलाको कुषाण कालतक ले जाती है। १–साकार वा निराकारे विधिना यो विधीयते । न्यासस्तदिदमित्युक्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा ।। स्थाप्यम् धर्मानुवन्धाङ्ग गुणी गौग गुणोऽथवा । गुणो गौणगुणी तत्र जिनाद्यन्यतमो गुणी ।। (पडिताचार्य आशाधरकृत प्रतिसारोद्धार पृ० १.) २ "भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिकानां तत्तदधिष्ठानाद् प्रभावसिद्धिमूर्तिपु, गृहवापिकानां तथैव । सिद्धानां चाहदादीनां प्रतिविधी कृते तत्प्रतिमांयां प्रभावव्यातिर कः संघटने तत्र न तेषां मुक्तिपदवीनामतारः, किन्तु प्रतिष्ठा देवता प्रवेशादेव सम्य दृष्टिः सुराधिष्ठानाच्च प्रभावः ।" (आचार दिनकर पृ. १४१) २२ १६९ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ खण्डगिरिकी तो कहना ही क्या है । वहां पर शिलाओं पर ही दिगम्बर जिनोंकी बड़ी मूर्तियां बनी हैं जिनके दोनों पाश्वों में पद्मासन चतुर्मुख जिन मूर्तियां हैं । यह मूर्तियां दो युगोंकी मूर्तिकलाके दृष्टान्त हैं । प्रथम युगकी मूर्तियां समान हैं उनमें कोई विशेष चिन्ह नहीं है किन्तु दूसरे युगकी मूर्तियोंके आसनों पर तीर्थंकरों के चिन्ह बने हैं । मूर्ति-शास्त्र जिनमें केवल मूर्ति निर्माणका सर्वाङ्ग वर्णन है वे तथा प्रतिष्ठा ग्रन्थ, जो प्रकरण वश ही मूर्ति निर्माण पर प्रकाश डालते हैं ईसाकी नवमी तथा दसवीं शतीके बाद प्रचुर संख्या में लिखे गये हैं । इस परसे हम यही निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रारम्भिक युगमें सामान्य रूपसे मूर्ति पूजा का आदर्श जैनोंको मान्य था तथा शासन देवतादि की विस्तृत मूर्ति पूजा पर उस समय उतना अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था । संभव है कि स्वाभाविक तथा आदर्श जैनमूर्ति पूजा पर तांन्त्रिक प्रभावके कारण ही उत्तर कालमें दसवीं शतीके लगभग शासन देवतादिकी पूजा-प्रतिष्ठा प्रारम्भ हो गयी हो । इतना निश्चित है कि ईसाकी चौदहवीं शतीके लगभग जैनमूर्ति कलाका पूर्ण विकास हो चुका था। मूर्तियोंके आकार प्रकारकी समस्त बातें व्यवस्थित हो चुकी थीं। तथा इस समयकी मूर्तियां शासन देवता, आदिकी छोटी छोटी मूर्तियोंसे घिरी रहती थीं। मूर्ति निर्माण तथा उनकी विशेषता विषयक शास्त्रीय नियमोंको लिखनेकी पद्धति बहुत पहिलेसे चली आयी है। श्रीठक्कर फेरू कृत 'वत्थुसार पयरणम्' (वि सं० १३७२ १,३१५ ई०) के अनुसार विम्बके ऊपर तीन छत्र होना चाहिये । वे इतने गहरे तथा गोल होना चाहिये कि नासिकाको ढंक सके । मूर्तिके दोनों ओर यक्ष तथा यक्षिणी होना चाहिये तथा श्रासन पर नवग्रहोंके आकार खुदे रहना चाहिये। मूर्तिकी ऊंचाईका प्रमाण अंगुलों में होना चाहिये जो ग्यारहसे अधिक न हो। यदि मूर्ति पाषाणसे बनी हो तो वह सर्वथा निर्दोष (धब्बा, लकीर, आदि रहित ) एक पाषाण खण्डकी होनी चाहिये । पूर्वोल्लिखित 'श्राकार दिनकर' जिसकी रचना १५ वीं शतीमें हुई थी, भी उक्त व्यवस्थाअोंका पोषक है । उसमें लिखा है कि घरके चैत्यालयमें विराजमान मूर्ति (गृह-बिम्ब) की ऊंचाई ग्यारह अंगुलसे अधिक नहीं ही होना चाहिये । मूर्तिके लिए लाये गये पाषाण या लकड़ीकी परीक्षाके विषयमें 'विवेक-विलास, में पूरी प्रक्रिया मिलती है। उसमें लिखा है पिसे चावलोंका उबला लेप नरियलकी गिरीके साथ मिलाकर मूर्तिको लगानेसे ही उसपरकी लकीर आदि प्रकट हो जाती है । उदाहरण के लिए; यदि मूर्तिपर मधु, भस्म, गुड़, आकाश, कपोत, अत्यन्त लाल, गुलाबी, पीला, नारंगी, तथा कई रंगोंकी लकीरें हों तो समझना चाहिये कि पत्थरमें खद्योत (जुगुनू ) वालूकण, लालमेंढक, पानी, छिपकली, मेंढक, गिरगिट, नक्र, चूहा, सांप तथा बिच्छू अवश्य होंगे फलतः ऐसा पाषाण त्याज्य है। पंडिताचार्य आशाधरजो के प्रतिष्ठा सारोद्धारसे ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परा भी इस दिशामें पूर्ण जागरूक थी । उसमें लिखा है कि सुन्दर रंगका दैदीप्यमान पाषाण ही मूर्ति बनाने योग्य होता है उसमें धब्बे, लकीरें, आदि १ विवेक विलासका उद्धरण वत्थुसार, पयरणम् पृ० ८३ । २ एका दशांगुल बिम्ब सर्वकामार्थकारकम । एतत्प्रमाणंख्यातं ततो ऊर्जन कारयेत् || आचार दिनकर पृ० १४३ । १७० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रतीक तथा मूर्तिपूजा कोई दोष नहीं होना चाहिये । बजाने पर टंकारकी ध्वनि श्रनी चाहिये । यदि घरके चौत्यालय के लिए मूर्ति है तो वह एक वितस्ति ( १२ अंगुल ) से ऊंची नहीं होनी चाहिये । लेजाने योग्य मूर्तियोंको श्रासन पर मन्दिर में रक्खा जा सकता है घरू चैत्यालय में नहीं । पूजनीय मूर्तिमें कोई भी दोष नहीं होना चाहिये, अन्यथा वह अशुभ हो जाती है । कोई भी अंग खण्डित नहीं होना चाहिये विरूप भी नहीं होना चाहिये, जैनदेवोंके आकार में भ्रान्ति नहीं होना चाहिये । उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स अवश्य होना चाहिये । डाढ़ी, मूंछ, श्रादिके बालोंके चिन्ह नहीं होना चाहिये, उसके साथ अष्ट प्रातिहार्य भी होना चाहिये । विशेष चमत्कारकी बात तो यह है कि मूर्तिकी भावभंगी पर पूरा ध्यान दिया गया है, यथा-मूर्तिको नेत्रहीन नहीं होना चाहिये अपितु वे न तो अधिक खुली होनी चाहिये और न कम खुली ही, ऊपरकी और भी दृष्टि नहीं होनी चाहिये, न कटाक्ष ही होने चाहिये और न सर्वथा नीचे की ही ओर होनी चाहिये ' अपितु 'नासा - दृष्टि' ( नाकपर दृष्टि ) होनी चाहिये, ताकि उससे स्थिरता और विरक्तिका भान हो । १ 'सद्वर्णात्यन्त तेजस्का बिन्दुरे खाद्यदूषिता । सशब्दा सस्वरा चार्हद् बिम्बाय प्रवरा - शिला ||" २ वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह, अध्याय ४ | १७१ ( प्रतिष्ठा सारोद्धार पृ० ६ ) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्ममें कालद्रव्य श्री प्रा० य. ज. पद्मराजैय्या, एम. ए. जैनधर्म अनेकात्मक यथार्थ-वाद है । इसके अनुसार एक द्रव्य चेतन तथा पांच द्रव्य जड़ हैं। इसमें प्रतिपादित काल द्रव्यकी 'सत्' स्वरूपता न्याय वैशेषिकके समान होते हुए भी उससे विशिष्ट है। काल द्रव्य दो प्रकारका है १ निश्चयकाल तथा २–व्यवहार काल । निश्चयकाल लोकाकाशके प्रदेशोंमें व्याप्त काल परमाणु स्वरूप है । कालाणु परस्परमें सम्बद्ध नहीं हैं। अतः वह अस्तिकाय नहीं है । वे कालाणु एक, रत्नोंकी मालाके समान हैं। वर्गसन' के अनुसार समयके स्थानान्तरणसे उत्पन्न परिवर्तन तथा एलेक्जेण्डरके मतसे क्षेत्र-समयके संयोगसे उत्पन्न परिणाम क्षेत्रके समान; जैनदृष्टि से वर्तना निश्चय-कालद्रव्यका असाधारण लक्षण है। कालकी साक्षात् दृष्ट भिन्नता अर्थात् पृथक् पृथक् काल तथा एक काल-धाराके भेदका कारण वस्तुओंकी द्रव्य तथा पर्यायरूप अवस्थाएं ही हैं। काल द्रव्योंके परिवर्तनमें निमित्त कारण मात्र है। वस्तुअोंके 'परिणाम' तथा क्रियाके द्वारा ही व्यवहार कालका ज्ञान होता है। यथा संसारमें होनेवाला प्राचीन, नवीन ग्रादि व्यवहार। जितने समयमें पुद्गलका एक परमाणु एकसे दसरे काल प्रदेशमें पहुंचता है उतना कालका सूक्ष्मतम परिमाण ही है । घंटा, दिन, मुहूर्त, श्रादि समयके परिमाण व्यवहार कृत हैं। काल द्रव्य विषयक जैन मान्यताका असाधारण लक्षण यही है कि उसे जगतके पदार्थोंमें सारभूत • पदार्थ माना है। पदार्थ व्यवस्था-- यतः जैनधर्म द्वैतात्मक' (अनेकान्तात्मक ) यथार्थवाद है फलतः उसकी दृष्टिमें भौतिक विश्वके निर्माता पांच अजीव द्रव्य...-१-पुद्गल, २-धर्म, (गतिका निरपेक्ष निमित्त) ३-अधर्म ( स्थिति का निरपेक्ष निमित्त), ४-श्राकाश (अवकाश दाता) तथा ५-काल हैं। जीव सचेतन द्रव्य है जिसे मिलाने पर सब द्रव्य छह होते हैं । ये ही इस विश्वके निर्माता, आदि हैं। १. अनन्त जीव माननेके कारण भी यह अनेकात्मक द्वैत स्वरूप है । ब्रह्माद्वैत, आदिके समान नहीं । १७२ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में कालद्रव्य . जैन धर्मकी समस्त प्रकिया इसलिए है कि बद्ध आत्माका विकास हो और वह सिद्धत्वको प्राप्त कर सके । इस प्रक्रियामें भौतिक जगत उस क्षेत्रका काम देता है जिसमें जीवका अजीवसे संग्राम होता है और अन्तमें वह विजयी होता है। ___ जैन धर्ममें काल द्रव्यको जिस मात्रामें यथार्थता एवं अनिवार्य पदार्थता प्राप्त हुई वह भारतके अन्य किसी दर्शन में नहीं मिलती, केवल न्यायवैशेषिक ही एक ऐसा दर्शन है जिसने इसका पदार्थ रूपसे विवेचन किया है । अाधुनिक बौद्धिक जगत्में भी, दार्शनिक, भौतिक विज्ञानके पंडित, गणितज्ञ तथा मनोवैज्ञानिकोंके सामने कालकी समस्या है । फलतः स्याद्वादने काल द्रव्यको किस दृष्टि से देखा है इसका प्रकाशन आजकी विचारधारा की निश्चित ही सहायता कर सकेगा। काल द्रव्यका स्वरूप ऊपर देख चुके हैं कि जैन दार्शनिकोंने कालके निश्चय तथा व्यवहार ये दो भेद किये हैं। पूर्ण लोकाकाशके आकाश प्रदेशोंमें व्याप्त कालाणु ही निश्चय काल हैं । इन कालाणुओंमें बंधका कारण वह शक्ति नहीं है जिसके कारण ये स्कन्ध रूप धारण कर सकें। अतएव रत्नोंकी राशिसे२ इनकी तुलना की जाती है । इस उपमाका अाधार केवल इतना ही है कि कालाणु मालामें बद्ध रत्नोंके समान पृथक पृथक् ही रहते हैं और अस्तिकाय रूप धारण नहीं करते । क्योंकि अस्तिकाय वही द्रव्य कहलाता है जिसमें अस्तित्व तथा कायत्व ये दोनों धर्म हों। कालाणुत्रोंमें अस्तित्व मात्र है कायत्व नहीं है फलतः उसे अस्तिकायोंमें नहीं गिना है । शेष पांचों द्रव्य अस्तिकाय हैं क्योंकि उनमें कायत्व. अर्थात् बहु-प्रदेशित्व पाया जाता है। कालाणु ऊर्व प्रचय रूप होते हैं। इनमें अाकाश प्रदेशोंके समान तिर्यक्प्रचय नहीं होता। 'अक्रम घटनाअोंकी मालाका योग काल-द्रव्यका स्वरूप नहीं है अपितु भूतसे वर्तमान तक चली आयी स्थायित्वकी ( वर्तन। ) धारा ही उसका स्वरूप है" इस मान्यताको यहां प्रधानता दी गयी है । जगतकी वस्तुत्रोंमें ऊर्ध्वप्रचयकी मान्यताका मूलाधार संसारकी धटनाओंकी उत्तरोत्तर अग्रगामिता, वृद्धि तथा विकास ही मालूम देते हैं । तथा दूसरा हेतु कालाणुओंमें अस्तिकायताका अभाव तो स्पष्ट ही है। १ अजीव पुद्गल द्रव्य है जो कार्माण वर्गणाके रूपमें जीवसे चिपक जाता है . और उसके आत्मिक गुणोंको आवृय कर देता है। २ परमार्थकाल, मुख्खकाल तथा द्रव्वकाल निश्चयकालके नाम हैं, पर्याय काल तथा समय ये व्यवहार कालके नाम हैं। ३ द्रव्यसंग्रह-गाथा २२॥ ४ ए. चक्रवतीकृत पंचास्तिकाय समयसारकी भूमिका, तथा गाथा ४९ एवं उसकी टीका व. बी फैटगोन कृत प्रवचनसारका अनुवाद । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वर्तनाका महत्त्व स्थायित्वकी एकता (वर्तना) ही कालका प्रधान लक्षण है। यदि यह न हो तो संसार उड़ती हुई क्षणिकताका प्रदर्शन मात्र हो जायगा । यही कारण है कि अकलंकभट्ट' ऐसे महानू प्राचार्योंने कालद्रव्यमें 'वर्तना' को इतनी अधिक प्रधानता दी है! इसी स्थायित्व विशेषताके कारण जगतकी वस्तुत्रोंमें स्थायित्व तथा वृद्धि होती है । बर्गसनके अनुसार क्षेत्रविभागके कारण कालकी एकता है तथा एलेक्जेण्डरके मतसे क्षेत्र कालात्मक परिवर्तनका सांचा (प्रक्रिया) इसका कारण है किन्तु जैन दर्शन वर्तनाको ही इसका कारण मानता है। काल स्वरूपकी व्याख्या __ स्व स्वरूपकी अपेक्षा काल अणुरूप है किन्तु उसका लक्षण 'वर्तना' अथवा सातत्य है । समयमें पृथक्ता तथा एकता सहभावि हैं । यह बड़ा वैचित्र्य है किन्तु कालकी पृथकता तथा वर्तनामें समन्वय सिद्ध करनेके लिए श्री 'बर्टाण्ड रसल' द्वारा दिये गये भौतिक, मनोवैज्ञानिक तथा तार्किक हेतु जैन दृष्टिका ही समर्थन करते हैं । किन्तु इस आपत्तिको जैनधर्मकृत वस्तु स्वभाव व्यवस्था तथा कालका स्वरूप सहज ही सरल कर देते हैं । उत्पाद (नूतन पर्याय ), व्यय ( पूर्व पर्याय विनाश ) तथा प्रौव्य ( मूल द्रव्यका स्थायित्व ) ही द्रव्यका स्वरूप है। काल द्रव्यमें भी ये तीनों होते हैं । द्रव्य सामान्य ध्रुवत्व और पर्यायत्वमें कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार कालकी प्रत्येक क्षणकी पृथकता तथा वर्तनामें कोई पूर्वापर विरोध नहीं है। जैन दर्शनानुसार प्रतिक्षणकी पर्याय रूपता तथा वर्तना (स्थायित्व ) अथवा विनाश और स्थायित्व साथ ही साथ चलते हैं। परिणाम हेतुता वस्तुओंके परिवर्तन तथा कालकी जैनधर्म सम्मत सापेक्षताका सिद्धान्त जैन मान्यताकी रोचक वस्तु है । श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं 'काल वही है जो वस्तुके परिवर्तनमें सहायता करे ।" किन्तु काल परिवर्तनोंका निमित्त ही है जैसे कि कुम्भकारके चक्रके नीचेका पाषाण चक्रकी गतिमें निमित्त होता है वह गतिको उत्पन्न नहीं करता" । 'समय स्वमेव सद्भूत कारण है' बर्गसनकी इस मान्यताके यह प्रतिकूल पड़ता है । फलतः इसे हम कालकी निमित्तता तथा उपादानताका विवाद कह सकते हैं । १ "वर्तनाग्रहणमादी अभ्यर्हितत्वात् । राजवार्तिक पृ० २२९ २ 'अवर नोलेज ओफ एक्सटर्नल वर्ल्ड' पृ० १४५ ३ तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ सू० ३० । ४ द्रव्यसंग्रह गाथा ११ । ५ "स्वकीयोपादानरूपेण स्वमेव परिणममानानां पदार्थानां कुम्भकारचक्रायाघस्तन शिलावत् । ‘पदार्थपरिणते यत्सहकारित्वं सा वर्तना मन्यते ॥” (पूर्वोक्त गाथा २१ की वृत्ति) १७४ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में कालद्रव्य व्यवहार काल स्याद्वाद में व्यवहार काल तथा निश्चय कालमें क्या सम्बन्ध है ? व्यवहार कालको 'समय' शब्दसे कहा है जब कि निश्चय कालको 'काल' शब्दसे ही कहा है। वस्तुओंमें होने वाले परिणाम तथा क्रिया द्वारा ही समयका भान होता है। वह कालात्मक परश्व (दूर) तथा अपरत्व व्यवहारका मूल स्रोत है। निश्चय कालके द्वारा अपने परिणामका निश्चय कारनेके कारण समय परायत ( पराधीन) है। क्षण, घंटा, दिन, वर्ष, आदि उसके परिणाम हैं। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जानेमें ऋणुको जो समय लगता है उसे ही समय ( कालका सबसे छोटा प्रमाण ) कहते हैं । इसी इकाईसे घंटा, दिन, वर्ष, आदि बनते है । जगतकी सुघटित घटनाओं के आधारपर होने वाले घंटा, दिन, आदि भेदोंके निश्चयके समान समयकी सताका निर्णायक निकाल है। व्यवहार कालको उपचारसे काल कहते हैं। ज्योतिषी देवोंकी गति तथा वस्तूपरिणमनके आधारपर समय मेदकी मान्यता जैन दर्शनको दृष्टिमें उतनी ही भ्रान्त है जितना इस प्रकारकी गति तथा क्रियाको उनकी सत्ताका कारण मानना है । काल द्रव्यका जैन विवेचन विध्यात्मक दृष्टिसे इसलिए महत्त्वका है कि वह कालको विश्व के पदार्थोंमें अन्तरंग और मूल तत्त्व मानता है । 'न्यूटनके प्रिन्सिपा' का निम्न उद्धरण जैन मान्यता की प्रतिध्वनि मात्र है- 'शुद्ध तथा स्वस्थ समय बाहिरी वस्तुयोंकी अपेक्षा न करके अपने सहज स्वभावानुसार सम गति से चलता है जिसका दूसरा नाम स्थायित्व ( वर्तना) है" परस्य परस्य आदि आपेक्षिक, बाह्य तथा साधारण (व्यवहार) समयरूप मान वाह्य तथा इन्द्रियजन्य है जिसका निर्णय परिणाम से होता है। यद्यपि यह ठीक तथा अप्रामाणिक भी होता है। इसका शुद्ध समय (निश्चय काल ) के स्थानपर व्यवहार होता है, जैसे घंटा, दिन, मास, वर्ष, आदि । 1 १ ओदन - पाक परिणामका उदाहरण है। सूर्यका भ्रमण गतिका दृष्टान्त है। विशेष रागवार्तिक पृ० २२७ प्रवचगसार कारिका २१-२३ । २ प्रवचनसार गाथा ४७ तथा टीका | १७५ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति - श्री प्रा० गोरावाला खुशाल जैन, एम० ए०; साहित्याचार्य, आदि, धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इस चतुर्वर्ग समन्वित मनुष्य जीवनमें धर्म प्रधान है क्योंकि अन्ततोगत्वा वही मोक्षका साधक होता है । अर्थ तथा काम उसके साधक अंग हैं जैसा कि "तीनोंके परस्पर विरोधी सेवन द्वारा ही मानव जीवनके दिन सार्थक होते हैं कथन से स्पष्ट है। यही कारण है कि जैन साहित्य में जीव- उद्धार, आत्म-विद्या या धर्मशास्त्रकी बहुलता है । "" कवि कल्पना के सुकुमार विलास काव्य भी इससे अछूते नहीं हैं । किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि जैन साहित्यने मानव जीवनकी उपेक्षा करके केवल ऊपर ( स्वर्ग, मोक्ष ) अथवा नीचे (नरक) देखनेकी ही शिक्षा दी है तथा खोंके सामने खड़े संसारकी उपेक्षा की है । "अपने भले के लिए उत्सुक किसी होनहार व्यक्तिने शान्त सुन्दर वनमें बैठे मूर्तिमान दर्शन-ज्ञान- चरित्र गुरूजी से पूछा 'भगवन ! मेरा भला किसमें है ? उत्तर मिला श्रात्यन्तिक स्वतंत्रता (मोक्ष) में वह कैसे हो ? सच्ची दृष्टि, ज्ञान तथा चरित्र द्वारा । यह तीनों कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? तत्त्वोंके श्रद्धान, ज्ञान तथा श्राचरण द्वारा तत्त्व क्या हैं? चेतन तथा अचेतन, उनका श्राकर्षण, सम्बन्ध, विरक्ति, वियोग तथा श्रात्म स्वरूपप्राप्ति ये सात तत्त्व है ?" इस प्रकार जैन धर्म शास्त्रको देखने पर ज्ञात होता है कि इन्होंने "जीवकी जीविका तथा जीव उद्धार" का सांगोपांग प्रतिपादन किया है । मनुष्य संसार ही में न फंस जाय इसलिए उन्होंने अपने व्याख्यानोंमें ही मुक्तिको प्रधानता नहीं दी अपितु संसार तथा मोक्ष के प्ररूपक शास्त्रको भी धर्मशास्त्र ही नाम दिया । फलतः प्राणिशास्त्र, भूगोल, भौतिक, आदि विविध विज्ञान, जीवकी सम्पत्ति, राज्य, आदि समस्त व्यवस्थाएं धर्मशास्त्र से अनुप्राणित हैं और धर्मशास्त्र के अंग हैं। उदाहरणार्थ श्राजके युगकी प्रधान समस्या सम्पत्तिको लीजिये -स्थूल दृष्टि से देखने पर कोई 'जैन सम्पत्ति शास्त्र' ऐसी पुस्तक नहीं मिलती और कहा जा सकता है कि १ " अहानि यान्ति त्रयसेवयैव ।” सागारधर्मा० १,१५ । २ प्रत्येक काव्यमें नायक आदर्श गृहस्थ जीवनसे विरक्त होता है और तप करके ज्ञानको पूर्ण करता है तथा धर्मोपदेश देता है । दृष्टव्य पुरुषदेव चम्पू, धर्मशर्माभ्युदय, आदि अनेक काव्य । ३ आचार्य पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिका पृ० १ तथा मोक्षशास्त्र, आदि । १७६ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति धर्मशास्त्र क्यों पढ़। जाय उससे आर्थिक समस्याका हल तो होता नहीं। पर स्थिति ऐसी नहीं है । यदि मनुष्यके अन्तरंग शत्रु सहज-विश्वासकारिता, भ्रान्ति तथा अज्ञानके लिए सम्यक् दर्शन तथा ज्ञानका विशद प्रतिपादन है, युद्धादि हिंसात्रोंसे बचानेके लिए अहिंसा, असत्य व्यवहार तथा कूटनीति (डिप्लोमैसी) के लिए सत्य. व्यक्तिगत चोरी तथा राष्ट्रिय अन्ताराष्ट्रिय आर्थिक शोषणसे बचानेके लिए अचौर्य तथा स्त्रीको सम्मान और समानता जिनाकारीनिरोध एवं सुसन्तानके लिए ब्रह्मचर्यका उपदेश है तो पूंजीवादके मस्तकपर कच्चे तागेमें बंधी 'अपरिग्रह' रूपी तलवार भी लटक रही है। क्या देवपूजा, युक्ताहार-विहार, आदि करनेसे ही मनुष्यके कर्तव्य पल जाते हैं ? जैन धर्मशास्त्र उत्तर देता है 'नहीं' । धार्मिक होनेके लिए पहली शर्त यही है कि धन न्यायपूर्वक कमाये । न्यायसे भी यदि अधिक कमाये तो क्या करे ? देवपूजा गुरुसेवा, अादिके समान ही ज्ञान, औषधि, अाहारादिकी व्यवस्थामें उनके लिए उस्सर्ग कर दे जो अभावग्रस्त हैं । क्या ऐसे व्यवसाय कर सकता है जिसमें हिंसा हो अर्थात् दूसरोंकी आजीविका जाती हो, दूसरोंको अपने श्रम तथा साधनाके फलसे वञ्चित होना पड़ता हो, आदि ? उत्तर मिलता है कदापि नहीं । ऐसा व्यक्ति अहिंसक भी नहीं हो सकता 'न्यायोपात्त धनः' तो बहुत बादमें आनेवाली योग्यता है । किन्तु इसपरसे यह अनुमान करना कि “जैन धर्ममें परम्परया सम्पत्ति व्यवस्थाके संकेत हैं' शीघ्र-कारिता हो गी । क्योंकि जैनधर्म स्पष्ट कहता है कि यदि हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचारसे बचना है तो परिग्रहसे बचो। इस व्रतका विबेचन तो स्पष्ट एवं सर्वाङ्गीण सम्पत्ति शास्त्र है। आजके विकृत मानव जीवन के पांच द्वार हैं । उन पांचोंमें से एक, एकपर एक एक पाप करके ही मनुष्य प्रवेश पा सकता है । अाजके तथोक्त शिष्ट प्रथम चार द्वारोंसे प्रवेश करते हुए सकुचाते हैं । किन्तु पञ्चम द्वारपर पहुंचते ही सोचते हैं “परिग्रह कर लो इसमें हिंसादि पाप तो हैं नहीं" परिणाम वही हो रहा है जो उस पौराणिक व्यक्तिकी दशा हुई थी जिसने मांसभक्षण, मद्यपान तथा वेश्यागमनसे बचकर भी जुना खेलना स्वीकार कर लिया था और फिर उसके बाद पूर्व त्यक्त तीनों कुकर्म भी किये थे। इसी प्रकार परिग्रहका इच्छुक व्यक्ति सर्वप्रथम अ-स्वस्थ, अनुशासन हीन अर्थात् अब्रह्मचारी होता है, उसके लिए चोरी करता है, चोरीको छिपानेके लिए असत्य व्यवहार करता है और असत्यसे उत्पन्न अनर्थों को न्यायोचित सिद्ध करनेके लिए हिंसाकी शरण ली जाती है। अर्थात् पाप उत्पत्तिका क्रम व्रतक्रमका १ "न्यायसम्पन्न विभवः ...गृहिधर्मायकल्पते ।' (योगशाल १, ४७-५६) "न्यायोपात्तधनः. सागारधर्म चरेत् ।" (सागरधर्मा० १ ११) २ देवपूजा गुरूपास्ति...दानं चेति गृहस्थानो षट्कर्माणि दिने दिने ।" ३ सागारधर्मामृत ५, २१-२३ । ४ योगशास्त्र २, ११०-११ सागरधा०४,६३-६५ । २३ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पूर्ण व्लोम है क्योंकि अहिंसाकी पूर्णताके लिए ' सत्य आवश्यक होता है । सत्यके आते ही चोरी वञ्चना असंभव होती है, इसके कारण कामाचार रुक जाता है फलतः ब्रह्मचर्य पाता है और ब्रह्मचर्य के उदित होते ही उसकी मर्यादाको सुपुष्ट करनेके लिए सुतरां व्यक्ति अपरिग्रही हो जाता है । परिग्रहमें पाप कल्पना किन्तु श्राश्चर्य तो यह है कि परिग्रहको अनर्थोंका निमित्त कहकर तथा संचयकी मुक्तकंठसे निन्दा करके भी किसी धर्मने परिग्रहको स्पष्ट रूपसे पापोंमें नहीं गिनाया। अधिकसे अधिक यही किया कि उसे यमोंमें अर्थात् विशेष व्रतोंमें गिना दिया है। किन्तु जैनधर्मने परिग्रहको उतना ही बड़ा तथा घातक पाप कहा है जितने बड़े तथा भीषण हिंसा, आदि हैं। इतना ही नहीं मुक्तिको भी उन्होंने परिग्रह हीनता पूर्वक म ना जैसा अादि-जैन ( दिगम्बर ) परम्परासे सुस्पष्ट है | हिंसादि ऐसे पाप हैं जिनकी पापरूपता जगतकी दृष्टिमें स्पष्ट है, कर्ता भी सकुचाता है क्योंकि शासन व्यवस्था भी इन्हें अपराध मानती है और दण्ड देती है। किन्तु सम्पत्ति या परिग्रह ऐसा पाप है जिसे विश्व पाप तो कहे कौन बुरा भी नहीं समझता। भौतिक-समाजवादी भी इसके व्यक्तिगत-सम्पत्ति होनेके विरुद्ध हैं राष्ट्रीकरण अथवा समाजी करण करके इसकी अमर्याद वृद्धिको वे अपना लक्ष्य मानते हैं । किन्तु जैनधर्मकी दृष्टिमें प्रत्येक अवस्थामें परिग्रह पाप है जैसा कि निम्न लक्षणोंसे स्पष्ट हैपरिग्रह-परिमाण के लक्षण ___ इस युगके प्राचीनतम आचार्य कुन्दकुन्दने ग्रहस्थ धर्मका वर्णन करते हुए केवल 'परिग्गहारंभ परिमाणं" कह कर अपने युग ( ई० पू० प्रथम शती) के सहज सात्त्विक समाजको केवल सुवर्ण, श्राभरण आदि परिग्रह तथा सेवा, कृषि, वाणिज्य, आदि प्रारम्भोंको आवश्यकताके अनुकूल रखनेका आदेश दिया था । किन्तु वीरप्रभुके तथ। केवलियोंके बाद ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों लोग उनके उपदेशको भूलते गये । वह समय तथा मन्दकषायी (सरल) समाज भी न रहे जो 'साधारण संकेत को पाकर ही पापके बाप परिग्रह' से बच जाते फलतः मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी श्रावश्यक हुआ। इस श्रेणीके श्राचायों में सर्वप्रथम प्राचार्य उमास्वामि हैं जिनके तत्त्वार्थसूत्र अथवा मोक्षशास्त्रकी १ 'सत्यादीनि तत्परिषालनार्थानि, सव्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत्" सर्वा० सि० पृ० २०० तथा राजवा० पृ० २६९ २ “अहिंसा सत्यमस्तेय ब्राचया-परिग्रहाः ।" योगसूत्र २,३० । ३ तत्वार्थ सूत्र ७,१ तथा समस्त टीकाएं । ४ दृष्टण्य प्रतिमाक्रम, षष्ठगुणस्थान, परीषहादि विवेचन । ५ चरित्र प्राभृत गा० २३ । ६. दशधर्म पूजाँमें शौच धर्मका भाग । १७८ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति मूल जैनसम्प्रदायके सिवा उत्तर कालीन सम्प्रदायोंमें भी पूर्ण मान्यता है । इनके अनुसार मूर्छा (अर्थात् गाय, भैंस, मणि, मुक्ता, आदि बाह्य तथा राग, द्वेष, आदि अन्तरंग पर-पदार्थों के संरक्षण रूप स्वभाव) ही परिग्रह है ' । 'मूर्छा' शब्दका प्रयोग ही उस समयके समाजकी मानसिक स्थितिका सूचक है। सूत्र ग्रन्थ होनेके कारण इस लक्षणमें वह विशदता नहीं है जो श्रा० कुन्दकुन्दके संकेतमें है। विशेषकर उत वैज्ञानिक सावधानीका तो श्राभास भी नहीं है जो कि स्वामी कार्तिकेयके उपदेशका वैशिष्ठय है। उनकी दृष्टिमें आत्मतृप्त होकर संतोष अमृत द्वारा लोभका विनाश, संसारकी विनाश शीलताके कारण तृष्णा नागिन का हनन तथा धन, धान्य, सुवर्ण, क्षेत्र, श्रादिका परिमाण मात्र परिग्रइ परिमाण नहीं है, अपितु परिमित परिग्रही होनेके लिए उक्त त्यागके पहिले कार्यकारी उपयोग-अावश्यकता को जानना आवश्यक है। अर्थात् यथेच्छ परिमाण करना अपरिग्रह नहीं है अपितु शरीर तथा श्रात्माका प्रशस्त सम्बन्ध बनाये रखने के लिए अनिवार्य आवश्यकता अनुसार परिमाण करना ही परिग्रहपरिमाण व्रत हैं । स्वामी समन्तभद्रकी क्रान्ति-- जब हम स्याद्वादावतार स्वामी समन्तभद्रको देखते हैं तो स्वामी कार्तिकेयके संकेतको भाष्य रूपमें पाते हैं । वे धन, धान्य, आदि परिग्रहका परिमाण करके उससे अधिकमें निस्पृह रहे कहकर ही परिग्रह विरतिका उपदेश समाप्त नहीं करते अपितु 'इच्छा परिमाण' नाम देकर व्रतके साध्यको मुखोक्त कर देते हैं । अर्थात् यथेच्छ परिमाण कर लेना व्रत नहीं है अपितु इच्छाका निरोध भी आवश्यक है । आचार्यको मानव मनःस्थिति 'लाभाल्लोभः प्रपजायते' का स्पष्ट ज्ञान था। वे जानते थे कि जीवनमें सहस्र रुपया कमानेकी योग्यता न रखनेवाला भी लाखोंका नियम करेगा। 'येन केन प्रकारेण सम्पत्ति कमानेमें लीन बुद्धिमान पुरुष करोड़ों, अरवोंका नियम करेगा, खूब दान देकर त्यागमूर्ति भी बनेगा और स्वयं भी व्रतके शव ( करोड़ोंका परिमाण) को लिए हुए व्रती तथा नेता बनेगा । अपने जीवनके अनुभवों के आधार परभी उन्हें यह ज्ञान था कि मनुष्य ग्रहीत नियमके अात्माको निकालकर भी किस कुशलतासे वाह्य रूपको बनाये रखता है फलतः उन्होंने “इच्छा परिमाण' से स्वामी कार्तिकेयके कार्यकारी मात्र वस्तुओं का परिमाण अधिक अथवा विलास साधक वस्तु परिमाण नहीं, पर स्पष्ट जोर दिया । फलतः स्पष्ट है कि जैन साहित्यके प्रथम युगके प्राचार्योंने विश्व समाजमें सम्पत्तिको लेकर होनेवाली अव्यवस्थाअोंको रोकने के लिए यही व्यवस्था की थी कि मनुष्य क्षेत्र, धन, धान्य, गृह, कुप्य (सूती, ऊनी, रेशमी वस्त्र, माल्य १. "मूर्छा परिग्रहः” तत्त्वार्थसूत्र, १,७ । २. 'स्वामी कार्तिकेयानुपेक्षा "उपओग जाणित्ता अण्णुव्वयं पचमं तस्स" गा० ३३९-४० ३. “धन धान्यांदिग्रन्थ परिमायि ततोधिकेषु निःस्पृहता । परिमित परिग्रहः स्यादिच्छा परिमाण नामपि ॥" रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३१५ ' ४. रत्नखण्ड ३, १५ की व्याख्या पृ. ४६ । (मा. ग्र. मा.) १७९ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ अनुलेपन आधुनिक पाउडर क्रीम, साबुन, आदि ), शय्या, श्रासन ( मोटर, आदि), द्विपद ( मनुष्य दासी, दास ) पशु तथा भाण्ड ( सब प्रकारके बर्तन, आदि) के स्थूल भेदसे दश प्रकारके पारग्रहको उतना ही रखे जितना उसके लिए कार्यकारी' हो अर्थात् जिसके न होनेसे जीवन यात्राके रुक जानेकी आशंका हो। लक्षणोंके भाष्य श्राचार्य उमास्वामिके 'तत्त्वार्थ सूत्र' को मानव जीवनके सकल मनोरथोंका पूरक बना देनेका श्रेय पूज्यपाद स्वामीको है । परिग्रहके लक्षण का सूत्र तथा उसके विरतिपरक भाष्यको लीजिये. 'मूर्छा क्या है? गाय, भैंस, मणि, मुक्ता, चेतन-जड़ आदि बाह्य तथा मोह जन्य रागादि परिणाम रूप अन्तरंग उपाधियोंके अर्जन, संरक्षणादि स्वरूप संस्कारका न छूटना ही मूछा है । तब तो आध्यात्मिक ही परिग्रह या मूर्छा हो गी वाह्य छूट जायगा ? सत्य है, प्रधान होनेके कारण अन्तरंग परिग्रह ही परिग्रह है । क्यों कि धन-धान्यादि न होनेपर भी यह मेरा है, इस संकल्प मात्रसे जीव परिग्रही हो जाता है। अथ बाह्य परिग्रह नहीं ही होता है ? होता ही है 'ममेदम्' मूर्छाका कारण होने से । सम्यकज्ञानादिको भी रागादिके समान परिग्रहत्व आ जाय गा ? नहीं, 'प्रमत्तयोगात्' ही मूर्छा परिग्रह है । समयक दर्शन-ज्ञानचारित्रवान् अप्रमत्त होता है, उसे मोह नहीं होता अतः वह परिग्रही नहीं होता। ये आत्माके ही रूप हैं, रागादि कर्मकृत हैं । अतएव इनमें संकल्प होने से परिग्रह होता है और उसी से समस्त दोष होते हैं । 'ममेदम्' संकल्प होते ही संरक्षणादि अनिवार्य हो जाते हैं उनके समारम्भ में हिंसा अनिवार्य है । इसके लिए झूठ भी बोलता है। चोरी ( चुङ्गी, श्रायकर आदि से प्रारम्भ होकर चोर बाजारी आदि में परिणत होती है) भी करता है । तथा व्यभिचार भी करता कराता है । इस प्रकार यह भाष्य परिग्रहको सब पापों की खान तथा कायिक या बाह्य परिग्रहको ही पाप नहीं बताता अपितु उसके मनोवैज्ञानिक रूपको भी 'हाथका कंगन' कर देता है। श्राजके सर्वोत्तम अर्थशास्त्री मार्क्सवादो भी केवल 'सम्पत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व'को ही हेय समझते हैं किन्तु जैनधर्म कहता है कि सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण या समाजीकरण भी पर्याप्त नहीं है। सबसे घातक तथा निकष्ट सम्पत्ति तो यह है जो कहता है 'रूस मेरा, मार्क्सवाद मेरा, श्रादि' । अर्थात् सम्पत्तिका तथोक्त समान विभाजन (प्रत्येक से उसकी सामर्थ्य भर काम लेना और उसकी १. कार्तिकेयानु प्रेक्षा गा. ३४० की व्याख्या-''उपयोग ज्ञात्वा-कार्यकारित्वं परिज्ञाय परिग्रहाणां संख्यां करोति यः स पञ्चमाणुव्रतधारी स्यात्" ( अकलक सार० भवनकी हस्तलिखित प्रति पृ. १४९) २. तत्त्वार्थ सबकी उनके द्वारा रचित टीका यथार्थ नामा "सर्वार्थसिदिध" है। ३. सवार्थसिद्धि पृ० २०७-८। (कल्लप्पा, भरमप्पा निटवेके जैन मुद्रणालय कोल्हापुर का प्रकाशन शब्कान्द १८३९.) १८० Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति आवश्यकता भर देना ) भी पर्यात नहीं है । अपितु इस विभाजन के पूर्व 'मुझे भी इतना पानेका अधिकार है' आदि इन संकल्पोंकी समाप्ति अनिवार्य है । नहीं तो प्रथम विश्व युद्ध के बीस वर्ष बाद दूसरा विश्व युद्ध या और उसकी समाप्तिके संस्कार पूर्ण विना हुए ही तीसरेका सूत्र पात हो गया है । तथा पूज्यपाद स्वामी द्वारा घोषित; राष्ट्रियता सिद्धान्त अथवा वाद, यादि रूपी परिग्रहका त्याग न हुआ तो विश्व युद्धमय होकर स्वयं ही विनष्ट हो जायगा । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें त्वोपज्ञ भाग्य रूपसे मान्य टीका ने 'इच्छार्थना काम - अभिलाषाकांदा, गा (लोलुपता ) को ही मूर्च्छा" कहकर उक्त भाव को स्पष्टतर कर दिया है । अर्थात् अहिंसादि के पालन के लिए प्ररिग्रह विरति अनिवार्य और इसके लिए उपर्युक्त सत्रका न होना अनिवार्य है । कलंक भट्टका राजवार्तिक भाष्य जहां पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि टीका को विस्तृतकर के सुगम तथा पूर्ण कर देता है वहीं अपनी मौलिक सूझ तथा प्रतिभा के द्वारा उसे क्षेत्र कालोपयोगी भी कर देता है । 'समस्त दोष परम्परा का मूल परिग्रह है' तथा 'इस परिग्रहके ही कारण व्यसन रूपी महासमुद्र में डूबना नहीं रुकता " ये वाक्य बड़े महस्व के हैं क्यों कि जब तक परिग्रहीको हत्यारे, झूठे, चोर और जिनाकारके समान नहीं समझा जायगा तब तक संसारमें शान्ति चन्द्रिकाका उदय असम्भव है । शास्त्रार्थी कलंक भट्टने संभवतः "जिसके धन है वह साधु है, विद्वान् है, गुणी है... सब कुछ है ।" इस अनर्थकारी मनोवृत्ति पर ही उक्त प्रहार किया था। इस श्लोक का युग प्राध्यात्मिक संस्कृति प्रधान भारतके सामाजिक इतिहासका निकृष्टतम समय था । जिसकी विरासत आज भी फलफूल रही है और अपने नीचतम रूपको धारण करके मानवको भूखा और नंगा बना रही है । मानवता के इतिहास में परिग्रह पाप तथा उसकी विरक्तिके उक्त स्वरूपके प्रचारकी जितनी श्रावश्यकता श्राज है उतनी इसके पहिले कभी नहीं थी । उत्तर कालीन आचार्यों के लक्षण श्री हेमचन्द्र सूरिकी दृष्टि से " लोलुपता के फल स्वरूप असंतोष, अविश्वास तथा आरम्भको दुःखका कारण मानकर मनुष्य परिग्रहका नियन्त्रण करे" परिग्रहविरतिका लक्षण है । इसके बाद उने कारिका द्वारा परिग्रह की दृष्टान्त पूर्वक पापरूपता, दोष मूलता, संसार कारणता तथा परिग्रह १. सभाप्य तच्चार्थाधिगभ सूत्र पृ० १६१ ( परमश्रुत प्रभावकमण्डल का संस्करण वीनि. सं २४३२. ) २. राजवार्तिक पृ० २७९, " तन्मूला: सर्वदोषानुषगाः " " इहापि अनुपरतव्यसन महार्णवावगाहनम् ।" ३. पंचतंत्र, मित्रभेद, श्लो० २ से २० तक । १८९ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ त्यागकी महिमाका सांगोपांग वर्णन किया है। विवेचनको सूत्रानुसारी होते हुए भी लोकोपयोगी बना देता तो श्राचार्यकी विशेषता ही थी जो कि इसमें स्पष्ट लक्षित होती है। ___पंडिताचार्य अाशांधरजी “चेतन, अचेतन तथा चेतना-चेतन पदार्थोंमें 'मेरा है' इस संकल्पको ग्रन्थ (परिग्रह, उलझन ) कहते हैं। उसको थोड़ा करना ग्रन्थपरिमाण व्रत है। इसके बाद दो पद्यों द्वारा अन्तरंग तथा वहिरंग परिग्रहोंके भेद गिनाये हैं । पूर्वाचार्यों के समान सागारधर्मामृत कार भी 'देश, समय. जाति, आदिको दृष्टि में रखते हुए तथा इच्छाको रोक कर धन, धान्य, श्रादिका मरण पर्यन्त परिमाण करनेका उपदेश देते हैं। वैशिष्ट्य यह है कि एक बार किये गये परिमाणको भी यथाशक्ति पुनः पुनः कम करनेका भी आदेश देते हैं। इस अादेशके बलपर आजकल प्रचलित परिग्रह परिमाणकी प्रथाका कतिपय साधर्मी समर्थन करना चाहेंगे । किन्तु निर्भीक, जागरूक पं० श्राशाधारजी ऐसे धर्मनेताके वक्तव्यकी यह व्याख्या, व्याख्याताके अन्तरंगका प्रतिबिम्ब हो सकती है,पं. अाशाधरजी का संकेत नहीं । 'देश, समय, जात्यादि' पद तो परिमाणकी विगत तथा अप्रमत्तताका स्पष्ट सूचक है । अर्थात् व्रतीको वर्तमान सब क्षेत्रों, उष्ण शीतादि समयों, श्रादि सबकी अवश्यकताका ख्याल करके नियम करना चाहिये तथा इसे भी घटाना चाहिये । वढाना किसी भी अवस्था में जैनधर्म नहीं हो सकता । पंडिताचार्यका यह लक्षण सोमदेव सूरिके "कुर्याच्चेतो निकुञ्चनम् ' का विशद भाष्य सा लगता है । श्री अमृतचन्द्र सूरि का वर्णन भी श्री सोमदेव सूरिके ही समान है । आचार्य शुभचन्द्र ने अपनी महाविरक्ति प्रकाशक शैलीके अनुसार परिग्रहका पूर्वाचार्योंके ही समान होकर भी हृदय द्रुत कर देने वाला निरूपण किया है। ब्रह्मचर्य के पालनके लिए अपरिग्रह अनिवार्य है और परिग्रह होनेसे कामदेव रोका ही नहीं जासकता इस व्रत तथा पापक्रमका "सूर्य अन्धकार मय हो जाय, सुमेरु चञ्चल हो जाय किन्तु परिग्रही जितेन्द्रिय नहीं हो सकता।" तथा परिग्रह "कामरुपी सर्पके लिए वामी है" द्वारा स्पष्ट समर्थन किया है। इस प्रकार अन्य प्राचायाँके १. योगशात्र २, १०६ से ११५ तथा स्त्रोपज्ञ टीका। २. सागारधर्मामृत ४, ५९। ३. उद्यत्क्रोधादि हास्यादि षट्क वेद त्रयात्मकम् (मिथ्यात्व सहितम् ) सा. ४.६० ४. क्षेत्रं, धान्य, धनं वस्तु, कुप्यं शयनमासनम् । द्विपदा पश्वो भाण्ड वाह्या दश परिग्रहाः। (यशस्तिलक उत्त. पृ. ३६६) ५. "परिमितमपि शक्तितः पुनः कृशयेत् ।” सागरध० ४.६२ । ६. यशस्तिलक चम्पू उत्त० पृ. ३६६ । ७. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय कारिका १११-१२८ । ८. ज्ञानार्णव, प्रकरण १६ श्लो १.४२ । ९. "अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम स्थिरत्व वा सुराचलः । न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यात्संव्रतेन्द्रियः ।। २६ स्मरभोगान्द्र वल्मीकम् ।” ज्ञानार्णव पृ १८० । १८२ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति प्रतिपादन भी दिये जा सकते हैं जो कि उनके देश, काल, यादि की सामाजिक परिस्थितिके विवेक तथा साहस पूर्ण हल होंगे लक्षणों का फलितार्थ -- उक्त प्रधान लक्षणों की समीक्षा के आधार पर कहा जा सकता है कि सावधानी के साथ देश काल, आदिका विकल विचार करके इच्छा तथा मनोवृत्तिको पूर्ण नियन्त्रित करते हुए जो जविनोपयोगी वस्तुका कार्यकारी मात्र परिणाम किया जाता है वही परिग्रह परिमाण व्रत है । भ्रान्त प्रथा प्रश्न उठता है कि जब इतना सूक्ष्म विवेचन मिलता है तो यथेच्छ परिमाण करके परिग्रह परिमाण व्रती बननेकी पद्धति कैसे व्यवहार में आयी । तथा हिन्दी टीकाकारों की क्षेत्रादि, हिरण्यादि धनादि, द्विपदादि कुप्यमानातिक्रमादि २ को स्थूल सी व्याख्या में भी वर्तमान प्रथाका सैद्धान्तिक समर्थन सा क्यों प्राप्त होता है ? परिमाण स्वरूप श्राज क्यों देखा जाता है कि अनावश्यक धन, धान्यादिके स्वामी हजारों दासी दासों के परिश्रमकी कमायी पर विलास करने वाले साधर्मी केवल संख्या निश्चित कर के कारण परिमित परिग्रही कहे जाते हैं। संभवतः इस भ्रान्त मान्यता के मूल में सामाजिक-श्रार्थिक परिस्थितियां जितनी कारण हुई हैं उससे अधिक कारणता उस अज्ञानको है जो १३ व १४वीं शती बाद मौलिक विद्वानोंके न होनेके कारण जड़ जमाता गया । साथही साथ पड़ोसी धर्मोंका प्रभाव भी उदासीन कारण नहीं रहा है । इनके अतिरिक्त द्रव्य; वह भी दृष्ट हिंसा के पालक हो जाने के कारण जैन नागरिक अन्य व्यवसायोंसे हाथ खींचते गये और वाणिज्यके ही उपासक बन गये । फलस्वरूप 'दिन दूनी रात चौगुनी' सम्पत्ति के संचयको न्याय करनेके लिए उनका परिग्रह परिमाण व्रतके स्वरूपको तदनुकूल बनाना स्वाभाविक ही था । अर्थ प्रधान युग होनेके कारण धर्मोपदेशक पंडितोंने भी अपने कर्त्तव्योंका नैतिकतासे पालन नहीं किया, जिसका कि पं० श्राशावर 3 जी को स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा था फलतः परिग्रह परिमाणको विकृत होना पड़ा। क्योंकि लक्षणों तथा उनकी व्याख्या परिमित परिग्रहके 'अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्यकारी परिमाण रूपका संकेत करती है । इतना नहीं इसके पालनकी भूमिका, इसमें आनेवाले दोषों, आदिका वर्णन भी इसका समर्थक है । १ रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी भाषा वचनिका, मोक्षमार्गप्रकाश, सुदृष्टि तर गिगी आदिके व्याख्यानोंके अंश । २ "असयारम्भविणिवित्ति संजणयं । खेत्ताइहरिण्यई धगाइ दुपयाई कुप्पमानकमे । " श्रावकधर्म विधिप्रकरणम् गा० ८७-८ । ३ "पण्डितेभ्रंष्ट चारित्रै • इत्यादि । " १८३ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ परिग्रह परिमाणके पोषक प्रश्न हुआ कि अहिंसा, आदि व्रतोंके पुष्ट करनेके लिए क्या करना चाहिये ? उत्तर मिला ठीक है उनको दृढ़ करने के लिए पांच, पांच भावनाएं हैं । पञ्चम व्रतको पुष्ट करने लिए 'पांचों इन्द्रियोंके प्रिय तथा प्रिय भोग्य विषयोंके उपस्थिति होनेपर प्रिय विषयों में श्रासक्त न होना तथा प्रिय विषयोंसे श्राकुल अथवा उद्वेजित न होना इन पाचों भावनाओं का होना आवश्यक है । इसके अतिरिक्त हिंसा, दि समान परिग्रहको भी अभ्युदय तथा निश्रेयसके लिए आवश्यक क्रियायों एवं साधनों का नाशक (पाय ) निन्दनीय ( वद्य ) तथा दुःखों का कारण अथवा दुःखमय ही मानना चाहिये । प्रवृत्ति परक भी साधक हैं--प्राणिमात्रको 'मित्र समझना, गुणियोंको देखकर प्रमुदित होना, दुखियोंपर करुणा भाव रखना तथा अशिष्ट उन्मार्ग गामियों के प्रति तटस्थताकी भावना रखनेसे भी व्रत पुष्ट होता है" । 3 पोषकों की यह व्यवस्था पहिले तो यह बताती है कि “मनसा वाचा कर्मणा" सांसारिक विषयोंके प्रति कैसा भाव रखना उचित है, परिग्रही भी उतना ही पापी तथा निन्दनीय है जितना हत्यारा, ठग, चोर तथा व्यभिचारी है. परिग्रह अपने तथा दूसरोंके दुखका कारण भी है दूसरोंको दुःख न हो भाव ही मैत्री है, तब परिग्रह परिमाणके साथ साथ हजारों श्रमिकों, कृषकों श्रादिको कंकाल बना देना कैसे चलेगा ! गुणियों के प्रति भक्ति तथा अनुराग ही प्रमोद है तो परिग्रही ( जोकि 'हत्यारे' के समान भीषण आज नहीं लगता ) की प्रशंसा, श्रादर आदि ही नहीं उन्हें समाज, देशका कर्णधार बना देना कैसे वीर प्रभुका मार्ग होगा ? अनुग्रहका भाव ही कारुण्य है ऐसी स्थितिमें, तटस्थ बहुजन समुदायको जाने दीजिये किन्तु क्या परिग्रही साधर्मी अपने श्रमिकों, आदि की दीन हीन दशाको भी नहीं जानते १ यदि जानते हैं तो उनकी कमायी को अपने अहंकार की पूजा, ग्रात्म प्रतिष्ठा, आदिके कार्य में क्यों लगाते है। श्रमिककृषक तो 'पानीमें पियासी मीन' है । उस भूखे रसोइयेके समान है जो पेटपर पत्थर बांधकर ' ' छप्पन भोजन' तयार करता है तब भी परिग्रही सज्जनको अपने पर भी दया नहीं ( अर्थात् नीच पापसे बचना ) ती । यह सब करके भी उनके अज्ञान, शराब, सिनेमा, अपव्ययका राग अलापा जाता है । श्राचर्य तो यह है कि जो उनके जीवनको सर्वथा अभाव ग्रस्त करके उन्हें विपरीतवृत्ति बनानेवाले हैं वे ही उनके १. " तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च । ” ७-३ २. "मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय विषय रागद्वेषवर्जनानि पंच ।" ७,८ ३. "हिंसादिष्विहामुत्र, पायावद्य दर्शनम् । ७, ९ ४. "दुःखमेव वा।" 44 १० ५. "मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि च --सवगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु । " ७, ११ १८४ मोक्ष शात्र । 35 22 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति सबसे बड़े निन्दक हैं और अविनयी, अशिष्ट, अादि कहकर दबाना चाहते हैं। क्या यह सब भी भागमानुकूल माध्यस्थ भाव है ? परिमित-परिग्रहके अतिचार व्रतोंके अतिचारोंकी स्पष्ट व्याख्याका श्रेय सूत्रकार उमास्वामी महाराजको है । उनके अनुसार भूमि ( जमींदारी ), वास्तु ( सब प्रकारके मकान ), हिरण्य (परिवर्तन व्यवहारका कारण मुद्रा), सुवर्ण ( सोना चांदी, श्रादि ), धन ( गाय-भैंस ), धान्य ( सब अनाज ), दासीदास ( प्रधानतया घरू तथा खेत, मिलों आदिमें काम करने वाले भी ) तथा कुप्य ( कपड़े, विलास सामग्री ) के पूर्व निश्चित प्रमाणको लोभके कारण बढ़ानेसे परिग्रह परिमाण व्रतमें दोष पाते हैं । जब मर्यादाका उल्लंघन हा तो अव्रत ( व्रत-भंग ) ही हो जायगा, दोष क्यों ? प्राचार्यका अतिक्रम शब्दका प्रयोग साभिप्राय है। क्योकि कृतनिश्चयके विषयमें उल्लंघनकी इच्छा द्वारा मानसिक शुद्धिको क्षत करना ही अतिक्रम है, शील व्रतादिका उल्लंघन होनेपर व्यतिक्रम हो जाता है, त्यक्त विषयमें प्रवृत होना अतिचार है तथा कृत निश्चयका बारम्बार उल्लंघन अनाचार है । यद्यपि उत्तरकालमें प्रथम तीन शब्दोंका पूरी सावधानीसे प्रयोग नहीं हुआ ऐसा लगता है, पर प्राचार्यों को अन्यमनस्क मानना उचित नहीं। वस्तुस्थिति तो ऐसी प्रतीत होती है कि जहां 'व्यतिक्रमाः पञ्च' 3 अदि प्रयोग है वहां श्राचार्य मनोवैज्ञानिक गम्भीरताका संकेत करते हैं । इसी दृष्टि से जब हम वैयाकरण, तार्किक, धर्मशास्त्री पूज्यपादको 'अतिक्रम'का भाष्य अत्यन्त लोभके कारण उक्त पदार्थोंके प्रमाणका ‘अतिरेक'४ करते पाते हैं, तथा अकलंक भट्टको इस वाक्यको वर्तिकका" रूप देते पाते हैं तो आपाततः यह शब्द विशेष विचारणीय हो जाते हैं। प्रकृति प्रत्ययका विचार करनेपर अतिरेक शब्दका अर्थ होता है अस्वाभाविक वृद्धि अथवा खींचना । फलतः सूत्रकार तथा भाष्यकारोंको कृत प्रमाणके उल्लंघनकी भावना अथवा 'वर्तन' ही अभीष्ट नहीं है अपितु वे इनके प्रमाणकी अस्वाभाविक मर्यादाको भी अतिचार ही मानते हैं । स्वामि समन्तभद्र प्रणीत अतिचार-- समस्त तत्त्व व्यवस्थारूपी लोहेको स्याद्वाद पार्श्वपाषाणका स्पष्ट स्पर्श कराके स्वर्णमय कर देने वाले स्वामी समन्तभद्रकी चिन्ताधारामें अवगाहन करके परिग्रह परिमाणके अतिचारोंने भी अधिक १ तत्वावसूत्र ७, २९। २ "क्षति मनःशुद्धिविधरतिक्रम, व्यतिक्रमं शीलवृत्तविलंघनम् । प्रभोऽतिचार विषयेषु वर्तनं बदन्त्यनाचार मिहातिसक्तताम् || ९ ॥ ( अमितगतिसूर द्वात्रिशतिका ) ३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३, १० । ४ सर्वार्थसिद्धि पृ० २१६ । ५ 'तीव्रलोभाभिनवेशादतिरेकाः प्रमाणातिक्रमाः।" राजवर्तिक पृ० २८८ । १८५ २४ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो अभिनन्दन ग्रन्य भी उक्त बातें करना अतिचार है । हाथों पड़ते हैं मध्यान्हके सूर्य के उपयोगी रूप पाया है। स्वामीकी दृष्टिमें क्षेत्र-वस्तु हिरण्य सुवर्ण धन-धान्य, दासी दास तथा कुप्य' के कृत प्रमाणका अतिक्रम मात्र परिमित परिग्रह व्रतके प्रतिचार नहीं है अपितु प्रति वाहन, अतिसंग्रह, ति विस्मय (विषाद), अतिलोभ तथा अतिभार वहन ये पांच प्रतिचार हैं। उनकी दृष्टिसे कृत प्रमाणके अतिक्रमका तो अवसर है ही नहीं । हां; कृत प्रमाण में स्वामीकी यह मौलिक मान्यता उनके टीकाकार प्रभाचन्द्र श्राचार्यके समान तापक और प्रकाशक हो उठी है। लोभकी अत्यन्त लोलुपताको रोकने के लिए परिग्रह परिमाण कर लेने पर भी पुनः लोभके फिमें आकर जो बहुत चलाता है अर्थात् बैल, घोड़ा, आदि सहज रूपसे जितना चल सकते हैं उससे अधिक चलाना अतिवाहन है। कागज, अन्न आदि आगे विशेष लाभ देंगे फलतः लोभके वश होकर इन सबका प्रतिसंचय करता है। अथवा दुकानसे हटाकर गुत कर देता है ताकि और अधिक लाभ हो तथा अधिक भार लादता है। ये पांचो अतिचार है" | 1 स्वामी ऐसे प्रबल प्रतापी एवं पुरुषार्थी गुरुके मन्तव्योंकी इससे अच्छी टीका अन्य कोई भी नहीं कर सका है। क्योंकि जहां इसमें कृत प्रमाण में जरासा भी हेर फेर करनेका अवकाश नहीं है वहीं यह भी स्पष्ट है कि जितना सहज है स्वाभाविक है अनिवार्य है उससे अधिक कुछ भी नहीं कराया जा सकता, अन्यथा इच्छापरिमाण असंभव है । स्वामो समयको परिस्थितियों से पूर्ण परिचित न होकर भी यह कहा जा सकता है कि आजकी परिस्थितियोंके लिए तो यह व्याख्या सर्वथा उपयुक्त है - वर्तमान युगमें पशुत्रोंकी तो बात ही क्या है मानव समाजका एक बहुत बड़ा भाग ही कामके भारके प्रति वाहन ( ओवर टाइम) काम करनेके कारण समय में ही काल कवलित हो रहा है । नरवाहन ( रिकशा ) सहज हो गया है। किसानोंसे लेकर बड़े से बड़े व्यापरियोंने धान्य, वस्त्रादिका खूप संचय करनेकी ठान रखी है। शासन द्वारा थोड़ी सी भी कड़ायी किये जाते ही सार्वजनिक रूप से मानवता शत्रु ये तथोक्त सम्पत्तिशाली 'हाय तोत्रा ( श्रति विस्मय) मचा देते हैं । दैनंदिन जीवनोपयोगी वस्तुओं के दाम चतुर्गुण मिलने परभी ये इसीलिए नहीं बेचते हैं ि लाभ होगा । तथा प्रतिवहन श्रारोपणकी तो चर्चा उठना ही व्यर्थ है । फलतः कहा जा सकता है कि वर्तमान विश्वकी अन्य समस्याओं के समान श्राजकी जटिल आर्थिक वृत्तियोंका भान भी जैनाचार्योंको था तथा उन्होंके मार्गपर चलनेसे इनका स्थायी निकार हो सकता है। १ सर्वार्थसिद्धि पृ० २१६, राजवार्तिक पृ० २८८, सभाज्य तत्वार्थाधिगम पृ० १६८ । २ "अतिवाहनातिसंग्रह विस्मयलोभातिभार वहनानि । परिमितपरिग्रहस्य पंच विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते ।" रत्नकरंड ३, १६ ३ लोभातिगृद्धि (नि) वृत्यर्थं परिग्रहपरिमाणे कृते पुनर्लोभावेशवशादति वाहनं यावन्तं हि बलीवर्दादयः सुखेन गच्छन्ति ततोऽप्यतिरेकेणवाहनं करोति... आदि । दृष्टव्य रत्न० श्रा० ३, १६ को टीका पृ० ४७ १८६ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति सोमदेवसूरी' हेमचन्द्रसूरि२, पण्डिताचार्य आशाधर, अमृतचन्द्र सूरि', हरिभद्र सूरि५. आदि, प्राचार्योंने उमास्वामिका ही अनुकरण किया है । श्रीहेमचन्द्र सूरि तथा पण्डिताचार्यकी व्याख्याएं गृहस्थों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषणकी दृष्टि से बड़े महत्वकी हैं । पाप प्रवृत्तिमें मनुष्य कैसे अपने आप प्रगति करता है इसका सजीव चित्र इन व्याख्यानोंमें दृष्टिगोचर होता है। पण्डिताचार्यने स्वामी तथा सोमदेव सूरिके अतिचारोंको भी टीका में निर्देश करके अपनी तटस्थता एवं बहुश्रुतताका परिचय दिया है । सम्पत्ति त्यागका उपदेश कितनी सम्पत्ति रखे, अनिवार्य आवश्यकता पूर्ति योग्य ही सम्पत्ति रखनेका अभ्यास कैसे करे तथा सम्पत्ति बढ़ानेकी लालसा अर्थात् उसके दोषोंसे कैसे बचे, इतना प्ररूपण करके ही जैनशास्त्र संतुष्ट नहीं हुआ है ! अपितु पापमय आचरण अर्थात् दूसरेके स्वत्वोंका अपहरण करनेसे रोकनेके लिए कहा है कि संसार तथा शारीरके वास्तविक रूप पर दृष्टि रखे तो वह सुतरां मन्दकषायी अर्थात् अनासक्त रहेगा । इसी संसार शरीरके स्वभावके चिन्तवनका विस्तृत रूप बारह भावनाएं हैं। इनमें भी प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति रूपसे सम्पत्तिका वर्णन अाया है तथापि प्रारम्भिक अाठ भावनात्रोंमें सम्पत्तिके त्यागको विविध दृष्टियोंसे बताया हैं । इन अाठमें भी प्रथम अनित्य भावनामें तो सम्पत्तिकी अनर्थमलकता अनावृत रूपमें चित्रित की गयी है। अध्रुव (अनित्य ) भावना-- श्राध्यात्मरसिक युगाचार्य कुन्दकुन्द स्वामीने स्पष्ट कहा कि हे मन ? जिन माता, पिता, सम्बन्धी, अात्मीयजन, सेवक, आदिको तूं अपना समझ कर मोहरूप परिग्रह बढ़ाता है तथा जिन इन्द्र १. 'कृत प्रमाणाल्लो भेन धनादधिकसग्रहः । पन्चमाणुव्रतज्यानी करोति गृहमेधिनाम् ॥” (यशस्तिथक चम्पू उत्त० पृ. ३६७) २. योगशास्त्र, ३, ९५-९६ तथा टीका । ३. सागार धर्मामृत ४, ६४ तया टीका । ४. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय श्लो. १८७ । ५. श्रावकधर्मप्रकरणम् गा. ८८ तथा देवसूरिकी टीका । ६. सागार धर्मामृत पृ. १२५ ७. “जगत्काय स्वभावी वा सवेगवैराग्यार्थम्” (तत्त्वार्थसूत्र ७, १२) ८. “अनित्याशरण ससारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव संवर निर्जरा लोकबोधदुर्लभ धर्मस्वाख्याततत्त्वानु चिन्तन मनुप्रेक्षाः ।” (त. सु. ९, ७) १८७ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ और सम्राटों ऐसे श्रेष्ठ भवन, मोटर, वायु-जलयान आदि वाहन, शय्या कुर्सी- सोफा ( श्रासन ), आदिके जुटाने में हीं जीवन विता रहा है वे सब अनित्य हैं । १ युगाचार्य के इस सूपका भाग्य स्वामी कार्तिकेय के मुख से सुननेको मिलता है—'जन्म मरणाके साथ, यौवन वार्धक्यको प्राचलमें बांधे तथा लक्ष्मी अन्तरंग में विनाश छिपाये खाती है। लक्ष्मीमें विनाश छिपा है ? हां, यदि ऐसा न होता तो 'पुण्यात्म | पौराणिक युगके चक्रवर्ती तथा प्रतापी कैसर, हिटलर, आदिका विभव कहां गया ? तब दूसरोंकी कैसे स्थिर रहेगी । कुलीन, धीर, पंडित सुभट, पूज्य ( धर्म गुरु, आदि ) धर्मात्मा, सुन्दर, सज्जन तथा महा पराक्रमियोंकी समस्त सम्पत्तियां देखते देखते घुल जाती है।' तब इसका क्या किया जाय दो दिनकी चांदनी तथा जल तरंगके समान चञ्चला इस लक्ष्मी के दो ही उपयोग है अपनी आवश्यकताकी पूर्ति करो तथा शेष दूसरोंको दे दो।' तो लोग इतनी अधिक सम्पति क्यों कमा रहे हैं? 'वे श्रात्मवञ्चक है उनका मनुष्य जीवन व्यर्थ है क्योंकि वे लक्ष्मी उक्त दो उपयोग नहीं करते हैं । अथवा उसे ( लक्ष्मीको ) कहीं पर रखकर पत्थरके समान जड़ तथा भारभूत कर रहे हैं। इस प्रकार उनके गाढ़े पसीनेकी कमायी भी दूसरोंकी हो जाती है। क्योंकि वह जगतके ठग राजा अथवा उद्योगपति अथवा कुटुम्बियोंके काम श्रावेगी ।' तब क्या करे ? 'सीधा मार्ग है । लक्ष्मीको बढ़ानेमें आलस्य मत करो तथा सदैव उसे कुटुम्ब, ग्राम, पुर, जनपद देश तथा विश्वके प्रति अपने विविध कर्तव्योंकी पूर्ति के लिए व्यय करते रहो। लक्ष्मी उसीकी सफल है जो सम्पत्ति उक्त स्वरूपको समझकर अभावग्रस्त लोगोंको कर्त्तव्य परायण बनानेके लिए, किसी भी प्रकार के प्रतिफलकी आशा न करके अनवरत देता रहता है।' यही कारण है कि जैन श्राचार शास्त्रमें दान उतना ही आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है जितनी देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, विनय, व्रत, आहार, आदि हैं । इस व्यवस्थाका असाधारण महत्व यह है कि एक ओर मनुष्य न्यायपूर्वक अधिक से अधिक कमाने में शिथिलता नही कर सकता तथा दूसरी ओर उसे अपनी आवश्यकताओं से अधिक मात्रा में रोक नहीं सकता अन्यथा वह परिग्रही ( हत्यारे के समान पापी ) हो जायगा दान रूपसे उसे अपनी न्यायोपार्जित सम्पत्तिका उत्सर्ग करता हुआ ही वह धार्मिक (नैतिक नागरिक ) हो सकता है । १ "वरभवण जाणवाहण सयणासण देवमणुधरायाणं । मादु पिदु सजण मिश्र समधिगो व पिदिवियाणिचा ||" (वारस अगुवेखावा गा. ३) २ स्वामी कर्त्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ५ | १३ स्वामी कर्त्तिकेभानुप्रेक्षा गा० १०-३० । इनमें 'अणावरयं देहि' । "दिल लोबान तथा निरवेरवो' पद विशेष महलके हैं। ४. जो इमान छे अगवरयं देहि धम्मक " (कार्तिकेय गा० ११ ५. "अनुग्रहार्थस्वातिसग दानम् ।" "विधि-द्रव्यदातु पात्र विशेषात्तद्विशेषः " दानप्रकरण सर्व अति विस्तृत है । तत्वार्थ सूत्र ७, ३८,३९ ) १८८ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति परिग्रहके कुपरिणाम्-- ___प्रश्न उठता है कि अात्म शक्तिका पूरा उपयोग करके न्यायमार्गसे सम्पत्ति कमा कर अपनी तथा दूसरोंकी आवश्यकता पूर्ण करना धर्म ( कर्त्तव्य ) है । तथापि; यदि कोई उसका पालन न करे जैसा कि आज जैनी भी कर रहे हैं ? सूत्रकार कहते हैं “परिग्रह यहां तथा भवान्तर में भी अनिष्ट कारक है" "इस लोक में परिग्रही मांसके टुकड़ेको लिये उड़ने वाले पक्षीके समान है । उसपर दूसरे आक्रमण करते हैं । उसे कमाने तथा सुरक्षित रखने में कौन ऐसा अनर्थ है जो न होता हो ? ईधनसे अग्निके समान मनुष्य धनसे कभी तृप्त नहीं होता । लोभ में पड़कर उचित-अनुचितका ज्ञान खो बैठता है और अपना अगला जन्म भी विगाड़ता है।" शंका होती है मरने पर क्या होता है ? ''बहुत प्रारम्भ तथा परिग्रह करनेसे प्राणीको नरकायु प्राप्त होती है। क्योंकि कर्त्तव्य-अकर्त्तव्यका ज्ञान न रहनेसे श्रमिकोंकी हिंसा, भागीदारोंको धोखा ( असत्य ) एक वस्तु में दूसरी मिलाना, बहुतसा छिपाकर बेचना ( चोरी ) श्रादि सब ही पाप शिष्ट सम्पत्तिशाली करता है। तथा यदि "थोड़ा (जीवनके यापनके लिए कार्यकारी) प्रारम्भ परिग्रह हो तो पुनः मनुष्य जन्म पायेगा ।' मानव समाजको सम्पत्तिमें कोई विशेष अनौचित्य नही दिखता किन्तु पांच पापों में परिग्रह ही केवल ऐसा पाप है जिसे मनुष्यके पतनके प्रति साक्षात कारणता है। जबकि शासन एवं समाजकी दृष्टि में गुरुतर समझे जाने वाले पापोंको परम्परया ही कारणता है । वस्तु स्थिति तो यह है कि 'परिग्रहसे इच्छा उत्पन्न होती है इच्छाके अतिरेक या विघातसे क्रोध, क्रोधसे हिंसा और हिंसासे समस्त पाप होते हैं" ।' यह एक मनो वैज्ञानिक तथ्य है कि हिंसाके ही लिए हिंसा, झूठके ही लिए झूठ, चोरीके ही लिए चोरी तथा असंयमके लिए ही असंयम तो 'न भूतो न भविष्यति' हैं। निष्कर्प तात्पर्य यह कि सम्पत्ति समस्त अनर्थोंकी जड़ है । फलतः अपने असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि व्यवसायसे अर्जित सम्पत्तिमेंसे व्यक्ति उतनी ही अपने पास रखे जो उसकी जीवन यात्राके लिए अनिवार्य हो । उससे अधिक जो भी हो उसे उनके लिए दे दे जो अपनी आवश्यकता पूर्ति भरके लिए भी नहीं कमा पाते हैं । अर्थात् शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्यके लिए उपयोगी मात्र परिग्रह रखना प्रत्येक व्यक्तिका धर्म है । अर्थ तथा काम प्रधान इस युगमें यह प्रश्न किया जाता है कि जब १. "इहामुत्रापायावद्य दर्शनम् ।" ( त० सू० ७, ९) २. सर्वार्थ सिद्धि पृ. २०३, राजवत्तिक पृ० २७२, स० त० भा० पृ० १५५, आदि । ३. तत्त्वार्थ सूत्र ६, १५ । ४. , ६, १७ । ५. ज्ञानार्णव १६, १२ । १८९ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ सब देश अपने जीवन निर्वाहके स्तरको उठा रहे हैं तब श्रावश्यक वस्तुत्रोंके कार्यकारी परिमाणका उपदेश देशकी अवनतिका कारण हो सकता है । किन्तु यह संभावना दूसरी ओर ही है । उन्नत से उन्नत जीवन स्तर करनेकी भावनाका यह कुपरिणाम है कि आजका विश्व स्थायीरूपसे युद्ध के चंगुल में फंसा नजर आ रहा है । श्राकाश अनन्त है फलतः यदि उठने अथवा शिर उठानेकी प्रतियोगिताकी जाय तो उसकी समाप्ति संभव है । हां पृथ्वी सीमित है फलतः हमारे पैर एके धरातल पर रहें ( रहते ही हैं ) ऐसी व्यवस्था सम्भव है । जब तक मानव समाज अपने आप कमसे कम में संतुष्ट होनेके लिए मनसा, वाचा, कर्मणा प्रस्तुत न होगा तब तक अर्थिक गुत्थी उलझी ही रहे गी । तथा आर्थिक स्तर यदि किसी भूभागमें उठा भी तो आध्यात्मिक स्तम्भों पर खड़ा न होनेके कारण वह स्वयं धराशायी हो जायगा । यही कारण है कि साम्यवाद भी साम्राज्यवादके प्रत्येक अस्त्रसे काम ले रहा है तथा उसीके मार्ग पर बढ़ा चला जा रहा है। तटस्थ पर्यवेक्षक नाम-भेद के अतिरिक्त और कोई तात्विक अन्तर नहीं देखता है । पूंजीवादका अन्त पूंजीको एक स्थलसे दूसरे स्थल पर रखने से ही न होगा । अपितु पूंजी वीभत्स रूपका सक्रिय ज्ञान तथा पू ंजीमय मनोवृत्ति के विनाश से होगा जैसा कि विरक्त युवराज श्री शुभचन्द्राचार्य के एनः किं न धनप्रसक्तमनसां नासादि हिंसादिना, कस्तस्यार्जनरक्षण क्षयकृतै दाहि दुःखानलैः । तत्प्रागेव विचार्य वर्जय वरं व्यामूढ़ वित्तस्पृहा, कास्पदतां न यास विषयैः पापस्य तापस्य च ।। तथा परिमित परिग्रह अर्थात् संयमवादका सार है । इस कथन से स्पष्ट १९० Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास - साहित्य Page #279 --------------------------------------------------------------------------  Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मका आदि देश श्री प्रा० एस० श्रीनीलकण्ठ, शास्त्री, एम्० ए० सुप्रचलित भ्रान्ति-- 'जैनधर्म भी बौद्धधर्मके समान वैदिक कालके श्रार्योंकी यज्ञ-यागादिमय संस्कृतिकी प्रतिक्रिया मात्र था' कतिपय इतिहासकारोंका इस मतको यों ही सत्य मान लेना चलता व्यवहार सा हो गया है। विशेषकर कितने ही जैनधर्मको तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथके पहिले प्रचलित मानने में भी आनाकानी करते हैं, अर्थात् वे लगभग नौवीं शती ईसा पूर्व तक ही जैनधर्म मानना चाहते हैं। प्राचीनतम युगमें मगध यज्ञयागादि मय वैदिक मतके क्षेत्रसे बाहर था। तथा इसी मगधको इस कालमें जैनधर्म तथा बौद्ध धर्मकी जन्मभूमि होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। फलतः कितने ही विद्वान् कल्पना करते हैं कि इन धर्मों के प्रवर्तक आर्य नहीं थे । दूसरी मान्यता यह है कि वैदिक आर्यों के बहुत पहले आर्योंकी एक धारा भारतमें आयी थी और आर्य पूरे भारतमें व्याप्त हो गये थे । उसके बाद उसी आर्य वंशके यज्ञ-यागादि संस्कृति वाले लोग भारतमें आये, तथा प्राचीन अ-वैदिक आर्यों को मगधकी ओर खदेड़कर स्वयं उनके स्थान पर बस गये । आर्योंके इस द्वितीय आगमनके बाद ही संभवतः मगधसे जैनधर्मका पुनः प्रचार प्रारम्भ हुआ तथा वहीं पर बुद्ध धर्मका प्रादुर्भाव हुआ है। सिन्धु-कछार-संस्कृति ३०००२- ५०० ईसा पूर्वमें फूली फली 'सिन्धुकछार सभ्यता' के भग्नावशेषोंमें दिगम्बर मत, योग, वृषभ-पूजा तथा अन्य प्रतीक मिले हैं, जिनके प्रचलन का श्रेय आर्यों अर्थात् वैदिक आर्योंके पूर्ववर्ती समाजको दिया जाता है । 'आर्य-पूर्व' संस्कृतिके शुभाकांक्षियोंकी कमी नहीं है; यही कारण है कि ऐसे लोगोंमें से अनेक लोग वैदिक आर्योंके पहलेकी इस महान संस्कृतिको दृढ़ता पूर्वक द्रविड़-संस्कृति कहते है । मैंने अपने "मूल भारतीय धर्म' शीर्षक निबन्धमें सिद्ध कर दिया है कि तथोक्त अवैदिक लक्षण ( यज्ञ-यागादि ) का प्रादुर्भाव अथर्ववेदकी संस्कृतिसे हुआ है । तथा मातृदेवियों, वृषभ, नाग, योग, आदिकी पूजाके बहुसंख्यक निदर्शनोंसे तीनों वेद भरे, पड़े हैं। फलतः 'सिन्धु कछार संस्कृति पूर्व २५ १९३ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वैदिक युगके बादकी ऐसी संस्कृति है जिसमें तांत्रिक प्रक्रियाएं पर्याप्त मात्रामें घुल मिल गयी थीं। प्राचीन साहित्य जैन तीर्थंकरों तथा बुद्धोंकों असदिग्ध रूपसे क्षत्रिय तथा आर्य कहता है फलतः जैनधर्म तथा बौद्ध धर्मकी प्रसूतिको अनार्यों में बताना सर्वथा असंभव है। जैनधर्मका आदि-देश प्राचीन भरतखण्ड-- अतएव जैन धर्मके मूल स्रोतको आर्य संस्कृतिकी किसी प्राचीनतर अवस्थामें खोजना चाहिये, जैसाकि बौद्ध धर्मके लिए किया जाता है। अपने पूर्वोल्लिखित निबन्धमें मैं सिद्ध कर चुका हूं कि समस्त भारतीय साधन सामग्री यही सिद्ध करती है कि जम्बूद्वीपका भरतखण्ड ही आर्योंका आदि-देश था। हमारी पौराणिक मान्यताका भारतवर्ष आधुनिक भौगोलिक सीमाअोंसे बद्ध न था अपितु उसके आयाम वित्तारमें पामीर पर्वत माला तथा हिन्दूकुश भी सम्मिलित था, अर्थात् १० अक्षांश तक विस्तृत था । प्राचीनतम जैन तथा वैदिक मतोंके ज्योतिष-ग्रन्थों और पुराणोंमें भारतके उक्त विस्तारका स्पष्ट रूपसे प्रतिपादन किया गया है। जैनधर्मके ज्योतिष ग्रन्थ 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'काल लोकप्रकाश', 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' आदिमें दिया गया पञ्चाङ्ग बहुत कुछ उस पञ्जिकाके समान है जो वेदाङ्ग ज्योतिष' (ल० ९३८० ईसा पूर्व) में पाया जाता है। जैन मान्यताके दो सूर्य. दो चन्द्र, तथा सत्ताईस नक्षत्रोंको दो मालात्रोंको वैदिक साहित्यको दृष्टिमें रखते हुए ही उचित रूपमें समझ सकते हैं । सूर्यप्रज्ञप्तिके उन्नीसवे प्राभूतमें विविध मत' दिये गये हैं। ज्योतिष ग्रन्थोंका आधार- १, ३, ७, ७६, १२, १४ से लेकर १००० पर्यन्त सूर्यों की संख्याके विषयमें विविध उद्धरण वैदिक साहित्यमें भी प्रचुरतासे पाये जाते हैं । वर्ष, ग्रहण, अयन, आदिके चक्रोंके समान सूर्योकी उक्त संख्याओं को भी सन्दर्भके अनुसार समय ( व्यवहार काल ) के प्रमाण रूपमें जानना चाहिये, शब्दार्थ रूपमें नहीं । प्रकृत निबन्धमें हम ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धी समस्त मान्यताओंकी व्याख्या करनेका प्रयत्न नहीं करेंगे। यहां हमारा इतना ही उद्देश्य है कि उन असंदिग्ध वर्णनों पर विचार करें जो इस तथ्य को प्रकाशमें लाते हों कि जैन तथा वैदिक ग्रन्थोंके अाधारसे ज्योतिषके वे निष्कर्ष संभवतः किस स्थानपरं निकाले गये हों गे । स्व० डाक्टर र० शामशास्त्री द्वारा काल-लोक प्रकाशके आधार पर बतायी गयी १-"ता कति न चन्दिमसूरिया, संबलोय ओभासति, उज्जोवन्ति, तवेंति, बभासेंति य हि तेत्ति वदेजा ? तत्थ खलु इमाओ दुवालस पडिवित्तिओ पण्णत्ताओ। तत्थेमे एवमहसु । त एके चन्दे, एगे सूरे, सबलो ओभासति उज्जोएति, तवेत्ति पभासेत्ति। एगे एवं आहसु । एगे पुण एवमहांसु ता तिष्ण चन्दा तिष्ण सूरा सव्वलोयं ओभासति । एगे एवमहसु ता आउठ चन्दा ता आउट्ट सूर। सबलो ओभासंति, उज्जोवेति. तवे न्ति, पगासति एगे एवमाहसु एतेन अभिलावेण नेतव्यम् । सत्त चन्दा, सत्त सूरा, दस चन्दा, दस सूरा बारस चन्दा, बारस सूरा..." (सूर्यप्रज्ञप्ति १९ प्राभृत पृ० २७१) २--द्रप्र पृ० ११५। १९४ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मका श्रादि देश (२४ पञ्च वार्षिक युगकी व्यवस्था वैदिक पञ्चाङ्गमें भी पायी जाती है। जैन ग्रन्थोंमें ( सूर्य-घड़ी की ) कील तथा दोनों ( उत्तर, दक्षिण ) अयनोंमें होनेवाली उसकी छायाके प्रमाणका विषम वर्णन मिलता है । दक्षिणायनके प्रथम दिन चौवीस अंगुल ऊंची शंकुकी छाया भी २४ अंगुल हो गी। इसके श्रागे प्रत्येक सौरमासमें इस छायाका प्रमाण चार अंगुल बढ़ता ही जाता है। यह वृद्धि उत्तरायणके प्रथम दिन तक होती ही रहती है और उस दिन प्रारम्भिक प्रमाणसे दूनी अर्थात् अड़तालीस अंगुल हो जाती है। इसके बाद उसमें हानि प्रारम्भ होती है तथा हानि की प्रक्रिया वृद्धि के समान हो रहती है। काल लोकप्रकाशके अनुसार प्रत्येक युगके पांच वर्ष में दक्षिणायनके प्रथम दिनसे वृद्धिका क्रम निम्न प्रकार हो गाप्रथम वर्ष-श्रावण बहुल १-२ पाद (४८ अङ्गुल ) माघ , ७-४ पाद (४८ अङ्गुल ) द्वितीय वर्ष-श्रावण ,, ( २४ , ) ___ माघ शुद्ध १ तृतीय वर्ष-श्रावण , माघ बहुल १ चतुर्थ वर्ष-श्रावण शुद्ध ७ (२४ बहुल पञ्चम पर्ष-श्रावण शुद्ध ४ , (२४ , ) ___ माघ , १० , (४८ , ) वैदिक साहित्यमें युग-चक्रके वर्षों को संवत्सर, परिवत्सर, अनुवत्सर, इद्वत्सर तथा ईड़ावत्सर अथवा संवत्सर, परिवत्सर, ईड़ावत्सर, इद्वत्सर तथा वत्सर नामोंसे उल्लेख किया है। 'वृषाकपि ऋक' की व्याख्या विद्वानोंके लिए जटिल समस्या रही है। किन्तु जैसा कि मैं स्पष्ट दिखा चुका हूं कि यह ऋक् प्रातः, मध्याह्न, गोधूलि तथा रात्रि रूप दिनके चार भागोंका स्पष्ट उल्लेख करती है । इनकी स्थिति को इन्द्राणी, इन्द्र, वृषाकपि तथा वृषाकपायी' इन चार प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया गया है। इस प्रकरणमें बतायी गयी लम्बा गोधूलि तथा संध्या ४० अक्षांशके स्थान पर ही संभव है । इसका समर्थन निदानसूक्त के निम्न उद्धारणसे भी होता है—“अग्निष्टोम यज्ञमें बारह स्तोत्रा तीन मुहूर्तों को अतिक्रान्त नहीं करते हैं अतएव सबसे छोटे दिनका प्रमाण केवल बारह मुहूर्त होता है। सूर्यप्रज्ञप्तिका यह कथन कि बड़ेसे बड़ा दिन १८ मुहूर्त का होता है यह ऋक्के उक्त कथनसे सर्वथा मिलता जुलता है । ८८८८८८ (४८ माघ (४८ १ ऋक्वेद १०-७-२ । अथर्ववेद १०-१२६ । २ अध्याय ९ सू७ । ३-९ घटा ३६ मि०।४-१४ घंटा २४ मि०। १९५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी - अभिनन्दन ग्रन्थ अन्य साधक उद्धरण - १ इसके अतिरिक्त सूर्यप्रकृति में उल्लिखित कलिजोग कलियुग, द्वापर युग्म, त्रेता कृत युग्म तथा वैदिक नाम कलि, द्वापर, त्रेता तथा कृतयुगमें गाढ़ समता है। श्रार्य पञ्चांग में युग तथा पर्व पर्यायवाची रहे जिसका अर्थ प्राचीन समय में पक्ष ( शुक्ल, कृष्ण ) होता था। 'भगवती सूत्र में' भी 'कृतयुग्म शब्द आया है। डा० जैकोवीके मतसे भगवती सूत्रका रचनाकाल चौथी शती ईसापूर्व के अन्त या तीसरी शती ई० पू० होना चाहिये । वैदिक वर्षका प्रारम्भ संभवतः वर्षा ऋतुके प्रारम्भमें माघ (संभवतः एकाष्टक दिन माघ बहुल जैसा कि सूत्रसे प्रतीत होता है ) में हुआ होगा । इसका पोषण ‘मण्डूक ऋक्' तथा 'एकाष्टक ऋक् ' से स्पष्ट होता है । मध्य एशिया तथा बुखारा प्रान्त में अब भी वर्षाका प्रारम्भ उसी दिन के आसपास होता है जिस दिन शरदऋतु में दिनरात बराबर होते हैं । जब कि दक्षिणायन के साथ ही भारतमें वृष्टि प्रारम्भ हो जाती है इसी आधार पर डा० जैकोबीका अनुमान है कि मया या फाल्गुनी में दक्षिणायन के साथ वर्ष प्रारम्भ होती थी तथा उत्तरायण भाद्रपदों में होता था । जैन तथा वैदिक परम्परामें प्रचलित नक्षत्रोंके विषम अन्तरालोंको ध्यान में रखते हुए उक्त ज्योतिष सम्बन्धी घटनाका समय मोटे रूपते २२८० तथा ३२४० के बीच अथवा ४२०० ईसापूर्व निश्चित किया जाना चाहिये। उत्तर कालीन वेदाङ्ग ज्योतिष तथा जैन ग्रन्थोंमें दक्षिण यनका समय आश्लेषा का मध्य तथा उत्तरायणका समय घनिष्ठा ( १३२० ईसापूर्व ) में दिया है कहीं कहीं इससे भी पहिलेके समय की सूचक घटनाएं मिलती हैं । गर्ग तथा जैन प्रक्रिया के अनुसार समान दिनरात के चक्र की तिथि श्रवण और मघा में भी मिलती हैं जिससे ८०४० ई० पू० का संकेत मिलता है। जिस समय सूर्य विशाखा और कृत्तिका चक्र होकर मकर वा कर्क रेखा पर रहता है। सरस्वती आख्यानका महत्व - वेदोंके सरस्वती श्राख्यान में भी ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी सारगर्भित उल्लेख हैं। विशेषकर उस समय जब यह नदी समुद्र तक बहती थी तथा गंगा और यमुनासे भी अधिक पवित्र मानी जाती थी । इसके तट पर जब यश प्रारम्भ हुआ था तब वसन्तके प्रारम्भ में होने वाला सम दिनरात संभवतः मूल नक्षत्र में पड़ा था। यह नक्षत्र अब भी सरस्वती विषयक कार्योंके लिए पवित्र माना जाता है यद्यपि अव यह दशहरे पर उदित होता है । तैत्तिरीय संहितामें सरस्वती तथा अमावस्याको समान कहा है तथा सरस्वती के प्रिय सरस्वानको पूर्णिमा से अभिन्न बताया है। यतः मूल नक्षत्रमें पड़ी अमावस्या वसन्त सम दिनरातका संकेत करती है और यज्ञके वर्ष के प्रारम्भकी सूचक थी, नक्षत्र भी मूल (प्रारम्भ, जड़ ) १ सूर्य प्र० पृ० १६७ । २ ऋक्वेद ७ १०३ - ७ । वेद ३-१०। १९६ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मका श्रादि देश से गिने जाते हैं और उसके बाद ज्येष्ठा (सबसे बड़ा), अदि आते हैं। उत्तर वैदिक-युग तक नक्षत्रोंकी सूची कृत्तिकासे प्रारम्भ होती थी । इसके उपरान्त सरस्वती नदी तथा राजस्थानका समुद्र विलीन हो गया और इनकी जलराशिका बहुभाग गंगा तथा जमुनामें वह गया । इन सबके आधार पर वसन्तके सम दिन-रातके मूल नक्षत्रमें पड़नेका समय १६६८० ई० पू. का सूचक है । भूगर्भशास्त्र सम्बन्धी तथा ज्योतिषशास्त्रीय प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि आर्य लोग अत्यन्त प्राचीन युगमें भी सरस्वती देशके प्रभु थे । हिम युग ( Wurm ) जिसके विस्तारका समय अब तक प्राप्त विवेचनोंके स्थूल निष्कर्षके आधार पर ८०००० से ५०००० इ० पू० के बीच में समझा जाता है; उसके बाद एक पावसोत्तर ( वर्षा के बादका ) युग आया था जो २५००० ई० पू० तक रहा होगा। यह सब निष्कर्ष यूरोपके लिए ठीक बैठते हैं तथा भारतमें उष्ण जलवायु इससे काफी पहले प्रारम्भ हो गयी हो गी । यूरोपमें भी इस समय तक मानव समाज पूर्व-पाषण युग तथा, अधम, मध्य एवं उत्तम पाषाण-युगको पार कर चुका था । तथा ५०००० ई० पू० तक यूरोपकी मूसरिन (प्रारम्भिक पाषण), ग्रेवेशियन (मध्य पाषाण) तथा मेगडैलिनियन (अन्तिम पाषाण) संस्कृतियां भी समाप्त हो चुकी थीं । सबसे पहिले मनुष्य ( Homo Pekeniensis ) का आविर्भाव हिम प्रवाह (Glacial ) युगके प्रारम्भमें हुअा होगा जिसका समय ल० ५.००००० ई० पू० अांका जाता है, फलतः कह सकते हैं कि मानवका विकास उष्ण प्रदेशोंमें अधिक वेगसे हुआ होगा। वैदिक आर्यों, जैनों तथा बौद्धोंका पुरातत्त्व इस प्रकार हमें २०००० ई० पू० तक ले जाता है तथा इनका आदि-देश भारतवर्षमें ही होना चाहिये जोकि उस समय ४० अक्षांश तक फैला था । यह अत्यन्त आवश्यक है कि जैनधर्मके विद्यार्थी 'सुषुमा दुष्षमा' कल्पों तथा तीर्थंकरोंकी जीवनीमें आनेवाले विविध अख्यानोंका गम्भीर अध्ययन करके निम्म वाक्यको सार्थक करें । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् । १९७ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य और बादशाह मोहम्मदशाह श्री महामहोपाध्याय पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊ मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह वि० सं० १७७३ से १८०५ तक दिल्लीके तख्त पर था । इसने अपने २२ वै राज्य वर्षमें चांणोदमें प्रसिद्ध राजवैद्य भट्टारक गुरां पण्डित उदयचन्द्रजी महाराजके पूर्वाचार्यों को एक फरमान दिया था। उससे मुग़ल बादशाहोंकी जैन-धर्मके प्रति श्रद्धा और उस समयके हिन्दू और मुसलमानोंके सौहार्दका पता चलता है। यह फरमान २० जिलहिज ( अर्थात् चैत्र वदि ६ विक्रम संवत् १७९६ ) को लिखा गया था और इस समय उक्त गुरां साहबके पास विद्यमान है । अागे हम उक्त फरमानका भावार्थ उदधृत करते है "श्री बाबाजी ज्ञान सागर स्वामीजी और .... स्वामीको अजमेरके सूबेमें रहनेवाले प्रत्येक हिन्दू व मुसलमानके घरसे और खासकर हर बनिये और जतीसे हर धानकी फसल पर एक रुपया और एक नारियल लेनेका अधिकार दिया गया था; और क्यों कि यह अधिकार पीढ़ी दर पीढ़ीके लिए था, इसलिए इसे बादशाह मोहम्मदशाहने भी दिया है।" इस फरमानसे ज्ञात होता है कि यह अधिकार मोहम्मदशाहके पूर्वके बादशाहोंके समयसे ही , चला आता था और इसके विषयमें मुसलमानोंको भी कोई आपत्ति नहीं थी। इन बातोंकी पुष्टि जोधपुर नरेश महाराजा विजय-सिंहजीके फरमान से भी होती है, जिसमें परम्परा गत उक्त भेटोंको लेते रहने के अधिकारकी पुष्टि की गयी है। १. ये दोनों फरमान अभी अप्रकाशित हैं । शीघ्रही प्रकाशित करानेकी व्यवस्था हो रही है Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्मश्री डाक्टर अ० स० अल्तेकर, एम० ए०, डी० लिट० दक्षिण और कर्नाटक अब भी जैनधर्मके सुदृढ़ गढ़ हैं । यह कैसे हो सका ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए राष्ट्रकूट वंशके इतिहासका पालोचन अनिवार्य है। दक्षिण भारतके इतिहासमें राष्ट्रकूट राज्यकाल ( ल० ७५३-९७३ ई० ) सबसे अधिक समृद्धिका युग था। इस कालमें ही जैनधर्मका भी दक्षिण भारतमें पर्याप्त विस्तार हुआ था । राष्ट्रकूटोंके पतनके बाद ही नये धार्मिक सम्प्रदाय लिङ्गायतोंकी उत्पत्ति तथा तीव्र विस्तारके कारण जैनधर्मको प्रबल धक्का लगा था। राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्मका कोई सक्रिय विरोधी सम्प्रदाय नहीं था फलतः वह राज्य-धर्म तथा बहुजन-धर्मके पदपर प्रतिष्ठित था । इस युगमें जैनाचार्योने जैन साहित्यकी असाधारण रूपसे वृद्धि की थी। तथा ऐसा प्रतीत होता है कि वे जनसाधारणको शिक्षित करनेके सत्प्रयत्नमें भी संलग्न थे । वर्णमाला सीखनेके पहिले बालकको श्री 'गणेशायनमः' कण्ठस्थ करा देना वैदिक सम्प्रदायोंमें सुप्रचलित प्रथा है, किन्तु दक्षिण भारतमें अब भी जैननमस्कार, वाक्य 'श्रोम् नमः सिद्धेभ्यः [ोनामासीधं' ]' व्यापक रूपसे चलता है । श्री चि० वि० वैद्यने बताया है कि उक्त प्रचलनका यही तात्पर्य लगाया जा सकता है कि हमारे काल (राष्टकर जैनगुरुओंने देशकी शिक्षा पूर्णरूपसे भाग लेकर इतनी अधिक अपनी छाप जमायी थी कि जैनधर्मका दक्षिणमें संकोच हो जानेके बाद भी वैदिक सम्प्रदायोंके लोग अपने बालकोंको उक्त जैन नमस्कार वाक्य सिखाते ही रहे । यद्यपि इस जैन नमस्कार वाक्य के अजैन मान्यता परक अर्थ भी किये जा सकते हैं तथापि यह सुनिश्चित है कि इसका मूलस्रोत जैन संस्कृति ही थी। इसकी भूमिका राष्ट्रकूट युगमें हुए जैनधर्मके प्रसारकी भूमिका पूर्ववर्ती राज्यकालोंमें भलीभांति तयार हो चुकी थी । कदम्ब वंश (ल० ५ वी ६ ठी शती ई०) के कितने ही राजा जैनधर्मके अनुयायी तथा अभिवर्द्धक १ मध्यभारत तथा उत्तर भारतके दक्षिणी भागमें इस रूपमें अब भी चलता है । २ इण्डियन एण्टीक्वायरी ६-पृ० २२ तथा आगे। " Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ थे । लक्ष्मेश्वरमें कितने ही कल्पित अभिलेख (ताम्रपत्रादि ) मिले हैं जो संभवतः ईसाकी १० व अथवा ११ वीं शतीमें दिये गये होंगे तथापि उनमें उन धार्मिक दानोंका उल्लेख है जो प्रारम्भिक चालुक्य राजा विनयादित्य, विजयादित्य तथा विक्रमादित्य द्वितीयने जन धर्मायतनों को दिये थे। फलतः इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उक्त चालुक्य नृपति यदा कदा जैनधर्मके पृष्ठपोषक अवश्य रहे हों गे अन्यथा जब ये पश्चात्-लेख लिखे गये तब 'उक्त चालुक्य राजा ही क्यों दातार' रूपमें चुने गये तथा दूसरे अनेक प्रसिद्ध राजाओंके नाम क्यों न दिये गये इस समस्याको सुलझाना बहुत ही कठिन हो जाता है । बहत संभव है कि ये अभिलेख पहिले प्रचारित हुए तथा छीलकर मिटा दिये गये मूल लेखोंकी उत्तरकालीन प्रतिलिपि मात्र थे । और भावी इतिहासकारोंके उपयोगके लिए पुनः उत्कीर्ण करवा दिये गये थे, जोकि वर्तमानमें उन्हे मनगढन्त कह रहे हैं । तलवाड़के गंग राजवंशके अधिकांश राजा जैन धर्मानुयायी तथा अभिरक्षक थे । जैन धर्मायतनोंको गंगराजा राचमल्ल द्वारा प्रदत्त दानपत्र कुर्ग में मिले है । जब इस राजाने वल्हमलाई पर्वत पर अधिकार किया था तो उसपर एक जैनमन्दिरका निर्माण कराके विजयी स्मृतिको अमर किया था। प्रकृत राज्यकालमें लक्ष्मेश्वरमें राय-राचमल्ल वसति, गंगा-परमादि चैत्यालय, तथा गंग-कन्दर्प-चैत्यमन्दिर' नामोंसे विख्यात जैनमन्दिर वर्तमान थे । जिन राजाओंके नामानुसार उक्त मन्दिरोंका नामकरण हुआ था वे सब गंगवंशीय राजालोग जैनधर्मके अधिष्ठाता थे; ऐसा निष्कर्ष उक्त लेख परसे निकालना समुचित है । महाराज मारसेन द्वितीय तो परम जैन थे । आचार्य अजितसेन उनके गुरू थे। जैनधर्ममें उनकी इतनी प्रगाढ़ श्रद्धा थी कि उसीके वश होकर उन्होंने ९७४ ई० में राज्य त्याग करके समाधि मरण ( सल्लेखना) पूर्वक प्राण विसर्जन किया था। मारसिंहके मंत्री चामुण्डराय चामुण्डराय पुराणके रचयिता स्वामिभक्त प्रबल प्रतापी सेनापति थे । श्रवणबेलगोलामें गोम्मटेश्वर (प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवके द्वितीय पुत्र बाहुबली) की लोकोत्तर, विशाल तथा सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्तिकी स्थापना इन्हींने करवायी थी। जैनधर्मकी अास्था तथा प्रसारकताके कारण ही चामुण्डरायकी गिनती उन तीन महापुरुषों में की जाती है जो जैनधर्मके महान प्रचारक थे। इन महापुरुषोंमें प्रथम दो तो श्री गंगराज तथा हुल्ल थे जो कि होयसल वंशीय महाराज विष्णु-वर्द्धन तथा मारसिंह प्रथमके मन्त्री थे। नोलंबावाड़ी में जैनधर्मकी खूब वृद्धि हो रही थी। एक ऐसा शिलालेख मिला है जिसमें लिखा है कि नोलम्बावाड़ी प्रान्तमें एक ग्रामको सेठने राजासे खरीदा था तथा उसे धर्मपुरी" ( वर्तमान सलेम जिलेमें पड़ती है) में स्थित जैन धर्मायतनको दान कर दिया था। १ इ० एण्टी० ७, पृ० १११ तथा अगे। २ ३० एण्टी०६ पृ १०३। ३ एपीग्राफिका इण्डिका, ४ पृ १४० । ४ ६० एण्टी० ७ पृ १०५-६ । ५ एपी. इ. भा. १० पृ. ५७ । २०० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्म जैन राष्ट्रकूट राजा राष्ट्रकूट राजाओंमें भी अमोघवर्ष प्रथम वैदिक धर्मानुयायीकी अपेक्षा जैन ही अधिक था। श्राचार्य जिनसेनने अपने 'पाश्र्वाभ्युदय' काव्यमें 'अपने आपको उस नृपतिका परम गुरू लिखा है, जो कि अपने गुरू पुण्यात्मा मुनिराजका नाम मात्र स्मरण करके अपने आपको पवित्र मानता था' ।' गणितशास्त्रके ग्रन्थ 'सारसंग्रह' में इसबातका उल्लेख है कि 'अमोघ वर्ष' स्याद्वाद धर्मका अनुयायी था । अपने राज्यको किसी महामारी से बचानेके लिए अमोघवर्षने अपनी एक अंगुली की बली महालक्ष्मीको चढ़ायी थी । यह बताता है कि भगवान् महावीरके साथ साथ वह वैदिक देवताओंको भी पूजता था । वह जैनधर्मका सक्रिय तथा जागरूक अनुयायी था । स्व० प्रा० राखाल दास बनर्जीने मुझे बताया था कि बनवासीमें स्थित जैनधर्मा यतनोंने अमोघवर्षका अपनी कितनी ही धार्मिक क्रियाओंके प्रवर्तकके रूपमें उल्लेख किया है। यह भी सुविदित है कि अमोघवर्ष प्रथमने अनेक बार राजसिंहासनका त्याग कर दिया था। यह बताता है कि वह कितना सच्चा जैन था । क्यों कि सभवतः कुछ समय तक 'अकिञ्चन' धर्मका पालन करनेके लिए ही उसने यह राज्य त्याग किया हो गा। यह अमोघवर्षकी जैनधर्म-आस्था ही थी जिसने आदिपुराणके अन्तिम पांच अध्यायोंके रचयिता गुणभद्राचार्यको अपने पुत्र कृष्ण द्वितीयका शिक्षक नियुक्त करवाया था । मूलगुण्डमें स्थित जैन मन्दिरको कृष्णराज द्वितीयने भी दान दिया था" फलतः कहा जा सकता है कि यदि वह पूर्णरूपसे जैनी नहीं था तो कमसे कम जैनधर्म का प्रश्रयदाता तो था ही । इतना ही इसके उत्तराधिकारी इन्द्र तृतीयके विषयमें भी कहा जा सकता है । दानवुलपदुई शिलालेखमें लिखा है कि महाराज श्रीमान् नित्यवर्ष ( इन्द्र तृ.) ने अपनी मनोकामनाओंकी पूर्तिकी भावनासे श्री अर्हन्तदेवके अभिषेकमंगलके लिए पाषाणकी वेदी (सुमेरू पर्वतका उपस्थापन) बनवायी थी । अन्तिम राष्ट्रकूट राजा इन्द्र चतुर्थ भी सच्चा जैन था । जब वह बारम्बार प्रयत्न करके भी तैल द्वितीयसे अपने राज्यको वापस न कर पाया तब उसने अपनी धार्मिक आस्थाके अनुसार सल्लेखना व्रत धारण करके प्राण त्याग कर दिया था। जैन सामन्त राजा-- राष्ट्रकूट नृपतियोंके अनेक सामन्त राजा भी जैन धर्मावलम्बी थे । सौनदत्तिके रह शासकोंमें लगभग सबके सब ही जैन धर्मावलम्बी थे । जैसा कि राष्ट्रकूट इतिहासमें लिख चुका हूं अमोघवर्ष प्रथमका १. इ. एण्टी. भा. ७ पृ. २१६--८ । २. विण्टर नित्शका 'शीची' भा. ३ पृ. ५७५ । ३. एपी. इ. भा. १८ पृ. २४८ । ४. जर्नल ब. ब्रा. रो. ए. सो., भा. २२ पृ. ८५ । ५. , , , भा. १० पृ. १८२ । ६. आर्के० सर्वे० रि. १९०५-६ पृ. १२१-२। ७. इ. एण्टी. भा. २३ पृ. १२४ । २६ २०१ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ प्रतिनिधि शासक बङ्केय' भी जैन था । यह बनवासीका शासक था अपनी राजधानीके जैनधर्मायतनोंको एक ग्राम दान करने के लिए इसे राजाज्ञा प्राप्त हुई थी । बङ्केयका पुत्र लोकादित्य जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट धर्मका प्रचारक था; ऐसा उसके धर्म गुरू श्री गुणचन्द्र ने भी लिखा है । इन्द्र तृतीयके सेनापति श्रीविजय' भी जैन थे इनकी छत्र छाया में जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ था । उपर्युल्लिखित महाराज, सामन्त राजा, पदाधिकारी तो ऐसे हैं जो अपने दान-पत्रादिके कारण राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्म प्रसारक के रूपसे ज्ञात हैं, किन्तु शीघ्र ही ज्ञात हो गा कि इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक जैन राजा इस युगमें हुए थे । इस युगने जैन ग्रन्थकार तथा उपदेशकों की एक खण्ड सुन्दर माला ही उत्पन्न की थी । यतः इन सबको राज्याश्रय प्राप्त था फलतः इनकी साहित्यिक एवं धर्मप्रचारकी प्रवृत्तियोंसे समस्त जनपद पर गम्भीर प्रभाव पड़ा था । बहुत संभव है इस युगमें रह जनपदकी समस्त जनसंख्याका एक तृतीयांश भगवान महावीरकी दिव्यध्वनि (सिद्धान्तों) का अनुयायी रहा हो । अलबरूनीके ४ उद्धारणोंके आधार पर रशीद-उद-दीनने लिखा है कि कोंकण तथा थानाके निवासी ई० की ग्यारहवीं शतीके प्रारम्भमें समनी ( श्रमण अर्थात बौद्ध ) धर्मके अनुयायी थे । अल इदरिसीने नहरवाला (नहिल पट्टन ) के राजाको बौद्ध धर्मावलम्बी लिखा है । इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि जिस राजाका उसने उल्लेख किया है वह जैन या, बौद्ध नहीं । अतएव स्पष्ट है कि मुसलमान बहुधा जैनोंको बौद्ध समझ लेते थे । फलतः उपर्युल्लिखित रशीद उद दीनका वक्तव्य दक्षिण कोंकण तथा थाना भागों में दशमी तथा ग्यारहवीं शतके जैनधर्म- प्रसारका सूचक है बौद्ध धर्मका नहीं । रराष्ट्रकूट कालकी समाप्तिके उपरान्त ही लिंगायत सम्प्रदाय के उदयके कारण जैनधर्मको अपना बहुत कुछ प्रभाव खोना पड़ा था क्यों कि किसी हद तक यह सम्प्रदाय जैनधर्मको मिटाकर ही बढ़ा था । जैन संघ जीवन इस काल के अभिलेखों से प्राप्त सूचना के आधार पर उस समय के जैन मठोंके भीतरी जीवनकी एक झांकी मिलती है । प्रारम्भिक कदम्ब" वंशके अभिलेखोंसे पता लगता है कि वर्षा ऋतु (चतुर्मास ) अनेक जैन साधु एक स्थान पर रहा करते थे । इसीके ( वर्षा के ६ ) अन्तमें वे सुप्रसिद्ध जैन पर्व पर्या मनाते थे । जैन शास्त्रों में पर्यापणका बड़ा महत्व है । दूसरा धार्मिक समारोह फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से १. हिष्ट्री ओ० दी राष्ट्रकूटस् पृ. २७२-३ । २. एपी. इ. भा. ६ पृ. २९ । ३. एपी. ई. भा. १० पृ. १४९ । ४. इलियट, १. पू. ६८ । ५, १. एण्टी. भा. ७ पृ. ३४ ६. एन एपीटोम ओफ जैनिज्म पृ. ६७६-७ । २०२ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्म प्रारम्भ होता था और एक सप्ताह तक चलता था। श्वेताम्बरोंमें यह चैत्र शुक्ला ८ मी से प्रारम्भ होता है । शत्रुञ्जय पर्वत पर यह पर्व अब भी बड़े समारोहसे मनाया जाता है क्यों कि उनकी मान्यतानुसार श्री ऋषभदेवके गणधर पुण्डरीकने पांच करोड़ अनुयायियोंके साथ इस तिथिको ही मुक्ति पायी थी। यह दोनों पर्व षष्ठ शतीके दक्षिणमें सुप्रचलित थे फलतः ये राष्ट्रकूट युगमें भी अवश्य बड़े उत्साहसे मनाये जाते हों गे क्यों कि जैनशास्त्र इनकी बिधि करता है और ये आज भी मनाये जाते हैं । राष्ट्रकूट युगके मन्दिर तो बहुत कुछ अंशोंमें वैदिक मन्दिर कलाकी प्रतिलिपि थे । भगवान महावीर की पूजनविधि वैसी ही व्यय-साध्यतथा विलासमय हो गयी थी जैसी कि विष्णु तथा शिवकः थी । शिलालेखोंमें भगवान महावीरके 'अङ्गभोग' तथा 'रङ्गभोग' के लिए दान देनेके उल्लेख मिलते हैं जैसा कि वैदिक देवताओं के लिए चलन था । यह सब भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वाङ्ग आकिंचन्य धर्मकी विकृत व्याख्या नहीं थी? जैन मठोंमें भोजन तथा औषधियोंकी पूर्ण व्यवस्था रहती थी तथा धर्म शास्त्रके शिक्षण की भी पर्याप्त व्यवस्था थी? अमोघवर्ष प्रथमका कोन्नूर शिलालेख तथा कर्कके सूरत ताम्रपत्र जैन धर्मायतनोंके लिए ही दिये गये थे । किन्तु दोनों लेखोंमें दानका उद्देश्य बलिचरु-दान, वैश्वदेव तथा अग्निहोत्र दिये हैं । ये सबके सब प्रधान वैदिक संस्कार हैं । आपाततः इनको करनेके लिए जैन मन्दिरोंको दिये गये दानको देख कर कोई भी व्यक्ति आश्चर्य में पड़ जाता है। संभव है कि राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्म तथा वैदिक धर्मके बीच श्राजकी अपेक्षा अधिकतर समता रही हो। अथवा राज्यके कार्यालयकी असावधानीके कारण दानके उक्त हेतु शिलालेखोंमें जोड़ दिये गये हैं । कोन्नूर शिलालेखमें ये हेतु इतने अयुक्त स्थान पर हैं कि मुझे दूसरी व्याख्या ही अधिक उपयुक्त जंचती है । राष्ट्रकूट युगका जैन साहित्य-- जैसा कि पहिले आचुका है अमोघवर्ष प्रथम, कृष्ण द्वितीय तथा इन्द्र तृयीय या तो जैनधर्मानुयायी थे अथवा जैनधर्म के प्रश्रय दाता थे। यही अवस्था उनके अधिकतर सामन्तोंकी भी थी। अतएव यदि इस युगमें जैन साहित्यका पर्याप्त विकास हुआ तो यह विशेष आश्चर्यकी बात नहीं है । ८ वीं शतीके मध्यमें हरिभद्रसूरी हुए हैं तथापि इनका प्रान्त अाज्ञात होनेसे इनकी कृतियोंका यहां विचार नहीं करें गे । स्वामी समन्तभद्र यद्यपि राष्ट्रकूट कालके बहुत पहिले हुए हैं तथापि स्याद्वादकी सर्वोत्तम व्याख्या तथा तत्का १, भादों के अन्तमें पयूषण होता है । तथा चतुर्मासके अन्तमें कार्तिककी अष्टान्हिका पड़ती हैं। २. इनसाइक्लोपीडिया ओफ रिलीजन तथा इथिकस् भा. ५, पृ. ८७८ । ३. जर्नल बो. बा. रो. ए. सो; भा. १० पृ- २३७ ।। २०३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ लीन समस्त दर्शनोंकी स्पष्टतथा सयुक्तिक समीक्षा करनेके कारण उनकी प्राप्तमीमांसा इतनो लोकप्रिय हो चुकी थी कि इस राज्यकालमें ८वीं शतीके प्रारम्भसे लेकर आगे इस पर अनेक टीकाएं दक्षिणमें लिखो गयी थीं। राष्ट्रकूट युगके प्रारम्भमें अकलं कभट्टने इसपर अपनी अष्टशती टीका लिखी थो । श्रवण बेलगोलाके ६७ वें शिलालेखमें अकलंकदेव राजा साहसतुंगसे अपनी महत्ता कहते हुए चित्रित किये गये हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग द्वितीय थे । इस शिलालेखमें बौद्धोंके विजेतारूपमें अकलंक भट्टका वर्णन है। ऐसी भी दंतोक्ति है कि अकलंकभट्ट राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण प्रथमके पुत्र थे । किन्तु इसे ऐतिहासिक सत्य बनानेके लिए अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता है। प्राप्तमीमांसाकी सर्वाङ्गसुन्दर टीकाके रचयिता श्री विद्यानन्द इसके थोड़े समय बाद हुए थे। इनके उल्लेख श्रवणबेलगोलाके शिलालेखों में हैं। न्याय-शास्त्र-- __इस युगमें जैनतर्कशास्त्रका जो विकास हुश्रा है वह भी साधारण न था ? ८ वीं शतीके उत्तरार्धमें हुए श्रा० मणिक्यनन्दीने ही परीक्षामुख सूत्र' की रचना की थी। नौवीं शतीके पूर्वार्द्ध में इसपर श्रा० प्रभाचन्द्रने अपनी विख्यात 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' टीका लिखी थी । इन्होंने मार्तण्डके अतिरिक्त 'न्यायकुमुदचन्द्र' भी लिखा था। जैन तर्कशास्त्र के दूसरे प्राचार्य जो कि इसी युगमें हुए थे व मल्लवादी थे, जिन्होंने नवसारीमें दिगम्बर जैन मठकी स्थापनाकी थी जिसका अब कोई पता नहीं है १ कर्क स्वर्णवर्ष के सूरतपत्र में इनके शिष्यके शिष्यको ८२१ ई. में दत्त दानका उल्लेख है इन्होंने धर्मोत्तरा"चार्यकी न्यायविन्दु टीकापर टिप्पण लिखे थे जो कि धर्मोत्तर टिप्पण नामसे ख्यात है। बौद्ध ग्रन्थके ऊपर जैनाचार्य द्वारा टीका लिखा जाना राष्ट्रकूटकालके धार्मिक समन्वय तथा सहिष्णुता की भावनाका सर्वथा उचित फल था । . अमोघवर्षकी राजसभा तो अनेक विद्वानोंरूपी मालासे सुशोभित थी। यही कारण है कि आगामी अनेक शतियोंमें वह महान् साहित्यिक-प्रश्रयदाताके रूपमें ख्यात था । उसके धर्मगुरू जिनसेनाचार्य हरिवंश पुराणके रचयिता थे, यह ग्रन्थ ७८३ ई० में समाप्त हुअा था। अपनी कृतिकी प्रशस्तिमें उस वर्ष में विद्यमान राजाअोंके नामोंका उल्लेख करके उनने प्राचीन भारतीय इतिहास के शोधक विद्वानों पर बड़ा उपकार किया है वह अपनी कृति आदिपुराणको समाप्त करने तक जीवित नहीं रह सके थे। १ पीटरसनकी रिपोर्ट सं २,७९। ज० ब० ब्रा० रो. ए० सो० भा० १८ पृ २१३ । २ एपी० कर्ना० भा० २ सं २५४ । ३ भारतीय न्यायका इतिहास पृ० १७९ ४ एपी० इ० भा० २१ ५ भा० न्या० पृ १९४-५१ ६ इ० एण्टी० १९०४ पृ. २७ । २०४ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्म जिसे उनके शिष्य गुणचन्द्रने ८६७ ई० में समाप्त किया था; जो बनवासी' १२००० के शासक लोकादित्यके धर्मगुरु थे। श्रादिपुराण जैनग्रन्थ है जिसमें जैन तीर्थंकर, आदि शलाका पुरुषोंके जीवन चरित्र हैं । आचार्य जिनसेनने अपने पार्वाभ्युदय काव्यमें शृङ्गारिक खंडकाव्य मेघदूतके प्रत्येक श्लोककी अन्तिम पंक्ति ( चतुर्थ चरण ) को तपस्वी तीर्थकर पार्श्वनाथके जीवन वर्णनमें समाविष्टि करनेकी अद्भुत वौद्धिक कुशलताका परिचय दिया है । पार्खाभ्युदयके प्रत्येक पद्यकी अन्तिम पंक्ति मेघदूत के उसी संख्याके श्लोकसे ली गयी है। व्याकरण ग्रन्थ शाकटायनकी अमोघवृत्ति तथा वीराचार्यका गणित-ग्रन्थ 'गणितसारसंग्रह' भी अमोघवर्ष प्रथमके राज्यकालमें समाप्त हुए थे। तद्देशीय साहित्य कनारी भाषामें प्रथम लक्षणशास्र 'कविराजमार्ग' लिखे जानेका श्रेय भी सम्राट अमोघवर्षके राज्यकालको है । किन्तु वह स्वयं रचयिता थे या केवल प्रेरक थे यह अब भी विवादग्रस्त है" । प्रश्नोत्तरमालाका रचयिता भी विवादका विषय है क्योंकि इसके लिए श्री शंकराचार्य, विमल तथा अमोघवर्ष प्रथमके नाम लिये जाते हैं । डा. एफ० डवल्यू० थोमसने तिब्बती भाषाके इसके अनुवादकी प्रशस्तिके आधारपर लिखा है कि इस पुस्तिकाके तिब्बती भाषामें अनुवादके समय अमोघवर्ष प्रथम इसका कर्त्ता माना जाता था । अतः बहुत संभव है कि वही इसका कर्ता रहा हो। दसवीं शतीके मध्य तक दक्षिण कर्णाटकके चालुक्य वंशीय सामन्तोंकी राजधानी गंगधारा भी साहित्यिक प्रवृत्तियोंका बड़ा केन्द्र हो गयी थी। यहीं पर सोमदेव सूरिने अपने 'यशस्तिलकचम्पू' तथा 'नीति वाक्या नृत'का निर्माण किया था। यशस्तिलक यद्यपि धार्मिक पुस्तक है तथापि लेखकने इसको सरस चम्पू बनानेमें अद्भुत सहित्यिक सामर्थ्यका परिचय दिया है । द्वितीय पुस्तक राजनीतिकी है । कौटिल्यके अर्थशास्त्रकी अनुगामिनी होनेके कारण इसका स्वतंत्र महत्त्व नहीं श्रांका जा सकता है तथापि यह ग्रन्थ साम्प्रदायिकतासे सर्वथा शून्य है तथा कौटिल्यके अर्थशास्त्रसे भी ऊंची नैतिक दृष्टि से लिखा गया है । १ इ० एप्टी० भा० १२ पृ० २१६ । २ इसमें अपने को लेखक अमोघवर्षका 'परमगुरु, कहता है । ३ इ० एण्टी० १९१४ पृ० २०५ । ४ विण्टरनिश गजैटी भा० ३ पृ० ५७ । ५ इ० एण्टी० १९०४ पृ० १९९ । ६ ज० ब० ब्रा० रो० ए० सो- १२ पृ. ९८० । ७ यशस्तिलकचम्पू पृ० ४१९ । २०५ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ महाकवि पम्प-- __इस राज्यकालमें कर्णाटक जैनधर्मका सुदृढ़ गढ़ था। तथा जैनाचार्योंको यह भली भांति स्मरण था कि उनके परमगुरु तीर्थकरने जनपदकी भाषाओं में धर्मोपदेश दिया था। परिणाम स्वरूप १० वीं शतीमें हम कनारी लेखकोंकी भरमार पाते है । जिनमें जैनी ही अधिक थे। इनमें प्राचीनतम तथा प्रधानतम महाकवि पम्प थे इनका जन्म ९०२ ई० में हुआ था। आन्ध्र देशके निवासी होकर भी कनारी भाषाके आदि कवि हुए थे । इन्होंने अपनी कृति आदिपुराणको ९४१ ई० में समाप्त किया था, यह जैन ग्रन्थ है। अपने मूल ग्रन्थ 'विक्रमार्जुन विजय' में इन्होंने अपने अाश्रयदाता 'अरिकेशरी द्वितीय, को अर्जुनरूपसे उपस्थित किया है, अतः यह ग्रन्थ ऐतिहासिक रचना है। इसी ग्रन्थसे हमें इन्द्र तृतीयके उत्तर भारत पर किये गये उन अाक्रमणोंकी सूचना मिलती है जिनमें उसका सामन्त अरिकेशरी द्वितीय भी जाता था। इस कालके दूसरे ग्रन्थकार 'असंग' तथा 'जिनचन्द्र' थे जिनका उल्लेख पूनने किया है यद्यपि इनकी एक भी कृति उपलब्ध नहीं है । पून कवि १० शतोके तृतीय चरणमें हुए हैं । यह संस्कृत तथा कनारी भाषामें कविता करने में इतने अधिक दक्ष थे कि इन्हें कृष्ण तृतीयने उभयकुल चक्रवर्तीकी उपाधि दी थी। इनकी प्रधान कृति 'शान्ति पुराण ' है । महाराज मारसिंह द्वितीयके सेनापति चामुण्डरायने 'चामुण्डरायपुराण' को दसवीं शतीके तीसरे चरणमें लिखा था। रन्न भी प्रसिद्ध कनारी कवि थे । इनका जन्म ९४९ ई० में हुआ था। इनका 'अजितनाथपुराण४१ ९९३ ई० में समाप्त हुआ था । जैन धर्म ग्रन्थोंका पुराण रूपमें रचा जाना बताता है कि राष्ट्रकूट युगमें जैनधर्मका प्रभाव तथा मान्यता दक्षिणमें असीम थी। १ कर्णाटक भाषाभूषण, भूमिका० पृ० १३-४ ३ एपी० इ० भा० ५, पृ० १७५ । ४" " ६ " ७२ । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौल धर्मका परिचय श्री डा० प्रा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, एम० ए०, पीएच० डी० ___महाकवि राजशेखरका समय लगभग ६०० ई० माना जाता है। इनके प्राकृत नाटक 'कर्पूरमञ्जरी'' में इन्द्रजालिक भैरवानन्दके मुखसे कुछ ऐसी बातें सुननेको मिलती हैं जिनमें 'कौल धर्म' के विषयमें आकर्षक तथा निहित हैं । 'अपने गुरुओंके प्रसादसे कौलधर्मके अनुयायी मंत्र, तंत्र तथा ध्यानके लिए कष्ट नहीं करते थे । खान-पान तथा विषय भोगमें भी उनके यहां कामाचार चलता था। वे भीषण कुलटा युवतीसे विवाह करते थे, मांस भक्षण उनके लिए सहज था तथा मदिरा तो ग्राह्य थी ही। वे भिक्षान्नका भोजन करते थे, तथा चर्मखण्ड ही उनकी शय्या थी । भगवान् ब्रह्मा तथा विष्णुने ध्यान, वेद-शास्त्रोंका अध्ययन तथा यज्ञ-यागादिका मुक्ति प्राप्तिके साधन रूपसे उपदेश दिया हो गा किन्तु उनका श्रादर्श देव उमापति इस दिशामें अद्भुत है; क्योंकि उन्होंने मदिरापान तथा स्त्री-संभोग द्वारा ही मुक्तिका उपदेश दिया है । जैसा कि कर्पूरमञ्जरीके निम्न उद्धारणोंसे स्पष्ट है मंताण तंताण ण किं पि जाणे झाणं च णो कि पि गुरुप्पसाया। मज्ज पिश्रामो महिलं रमामो मोक्खं च जामो कुलमग्गलग्गा ॥ रंडा चंडा दिक्खिा धम्मदारा, मज्जं मंभं पिञ्जरा खजराश्र। भिक्खा भोज्जं चम्म खंडं च सेजा कोलो धम्मो कस्स णो-भाइ रम्भो ।। मुत्ति भणंति हरि ब्रह्ममुहा वि देवा झाणेण वेअपढणेण कउक्किाहिं । एक्केण केवल मुमादइएण दिह्रो मोक्खो समं सुरश्र केलि सुरारसेहिं ॥ 'पृथ्वी पर चन्द्रमाको ले पानेकी, सूर्यको मध्य अाकाशमें कीलित कर देनेकी तथा स्वर्गीय यक्ष, सिद्ध, देव तथा अप्सराओंको नीचे ले पानेकी' भैरवानन्दकी गर्वोक्ति भी इसी धारामें है १. कोनो द्वारा सम्पादित हरवार्ड मालाके केम्ब्रिज हस्तलिखित ग्रन्थ ( १९०१) २ कपूरमञ्जरी १, २२-२४ । किंच Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दसेमि तं पि ससिणं वसुहाबइराणं थंभेमि तस्स वि रइस्स रहं णहद्ध । आणेमि जक्ख सुर सिद्ध गणं गणाश्रो। तं णत्थि भूमिबलए मह जंण मज्झ ।। अधिक संभावना यही है कि ये सब योग्यताएं भैरवानन्दको प्राप्त विशेष सिद्धियां रही हो । तथा साधारणतया प्रत्येक कौल धर्मानुयायीमें नहीं पायी जाती रही हो । देवसेनाचार्यक वर्णन-- श्री देवसेनाचार्यने अपने दर्शनसार' को वि० सं० ९९० अर्थात् ९३३ ई० में समाप्त किया था । फलतः वे राजशेखरके समकालीन थे। अपने 'भावसंग्रहरे में उन्होंने कतिपय अजैन दर्शनों तथा धर्मों की समीक्षा की है। इसी प्रसंगसे इन्होंने भी कौलधर्मके विषयमें कुछ विस्तृत उल्लेख किया है । इन्होंने 'कौल' तथा 'कविल'3 पंथोंको एक दूसरे में मिला दिया है तथा प्राकृत और अपभ्रंशके पद्योंको एक साथ रख दिया है, इस पर से मेरे मनमें विचार आता है कि देवसेनने अपने समयके प्रचलित तथा सुविदित मन्तव्योंको केवल एकत्रित कर दिया है। उन्होंने न तो कौल धर्मके सिद्धान्तग्रन्थोंका ही अध्ययन किया है और न इस धर्मके अनुयायियोंके सम्पर्कमें आकर स्वयं उन्हें जाननेका प्रयत्न किया है। उनके अधिकांश उद्गार राजशेखरके उद्धरणोंके अत्यन्त समान हैं तथा निम्नलिखित सूचनाएं राजशेखरकी अपेक्षा अधिक हैं-'नारी शिष्योंके साथ मनमाना कामाचार कौलधर्मके अनुकुल है, इन्द्रियभोग बहुत महत्त्वपूर्ण है, मदिरापान तथा मांस भक्षणके साथ, साथ जीव-हिंसा भी इस धर्मके अनुकूल है । इस धर्ममें आराध्य देव वासनासे अाक्रान्त है तथा 'माया' एवं 'शून्य' नाम लेकर पूजा जाता है, गुरु लोग इन्द्रिय-भोगोंमें लीन रहते हैं, स्त्रीकी वय, पद, प्रतिष्ठा, आदिका कोई विचार नहीं है । वह केवल भोग विलासका साधन है । 'भाव संग्रह' के कुछ संशोधित पद्य निम्न प्रकार हैं "रंडा मुंडा चंडी, सुंडी दिक्खिदा धम्मदारा सीसा कंता कामासत्ता कामिया सा वियारा। मज्ज मांसं मिटुं भक्खं भक्खियं जहि सोक्खं कवले धम्मे विसवे रम्भे तं जि हो मोक्ख सोक्खं ॥ रत्ता मत्ता कामासत्ता दूसिया धम्म मग्गा १. 'भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट की पत्रिका प्र. १५ भा. ३. (पूना १९३४ ) २. माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई ( १९२१)। ३. कौलधर्मका विस्तृत वर्णन मेरे सांख्य विभागमें दिया है। ४. भा० सं० पृ० १८२-८५ । २०८ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौल धर्मका परिचय दुठ्ठा कट्ठा बिट्ठा झुट्ठा णिदिया मोक्खमगा। अक्खे सुक्खे अग्गे दुक्खे णिभरं दिगणचित्ता णेरइ याणं दुक्खट्टाणं तस्स सिम्सा पउत्ता ॥ मज्जे धम्मो मंसे धम्मो जीय हिसाई धम्मो राई देवो दोसी देवो माया सुराणं वि देवो । रत्ता मत्ता कंता सत्ता जे गुरु वि पुजा हा हा कट्टणट्टो लोश्रो अट्टमट्ट कुणंतो॥ धूय मायरि वहिणि अण्णा वि पुत्तस्थिणि श्रायति य वासवयणु पयडे वि विप्पे । जह रमिय कामाउरेण वेयगव्वे उप्पण दप्पे । वंभणि छिपिणि डोंवि णडि य वरुडि रज्जइ चम्मारि कवले समइ समागइ य भुत्तिम परणारि । जसहरचरिऊका वर्णन-- श्री पुष्पदन्ताचार्यके 'जसहरचरिऊ'१ ( यशोधरचरित ) के मूल में श्रीगन्धर्व (१३०८ ई०) द्वाराबादमें सम्मिलित कर दिये गये अंशोंमें भी कौलाचार्यका चमत्कार-पूर्ण वर्णन मिलता है। कौलाचार्य के शरीरका वर्णन भी रुचिकर है । जैसा कि भैरव नामसे स्पष्ट है उनका साधारण आकार प्रकार भीषण होता है । वह शिरपर रंग विरंगी टोपी पहिनते हैं जो दोनों कानोंको ढके रहती है हाथमें बत्तीस अंगुल लम्बा दण्ड रहता है जिसे पकड़नेका उनका प्रकार बड़ा विचित्र है। गलेमें योगपट्ट पहिनते हैं, अद्भुत रूपसे सुसजित रहते हैं, पैरोंमें लकड़ीकी खड़ाऊं पहिने रहते हैं तथा सुन्दर टोंटी दार पतली अावाजका बाजा (संग) लिये रहते हैं । उनके अन्य गुणोंका विवेचन करते लिखा है--वह कपटी तथा क्रूर होता है; जोरसे चिल्लाता हुआ वह द्वार, द्वार भोजन मांगता फिरता है । वह लोगोंको अपने सम्प्रदायमें दीक्षित करता है। वह इन्द्रिय भोगोंमें श्रासक्त होता है और कुछ भी खा सकता है । वह अपनेको अज तथा चिरञ्जीवि कहता है तथा चारों युगोंकी समस्त घटनाओं का साक्षात्-दृष्टा कह कर उन्हें गिनाना प्रारम्भ कर देता है । वह अपने आपको अद्भुत शक्ति सम्पन्न कहता है; वह सबको शान्त रख सकता है, वह सूर्यकी गति रोक सकता है, चन्द्रिकाको बीचमें ही ढक सकता है, वह विविध विद्य। तथा मंत्रोंका प्रभु है । वह महा शक्तिशाली पुरुष है जो कि सब कुछ कर सकता है । सम्बद्ध पंक्तियां निम्न प्रकार हैं२ -- १, कारा जैन ग्रन्थमालामें श्रीवैद्य द्वारा सम्पादित सस्करण ( १९३१ ) भूमिका पृ० १७ तथा मूल ६, आदि । २. जसहरचरिऊ प्र० ५, २०-६, १५, ६, २८-७, ३ । २७ २०९ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ "तहो रज करत हो जणुपालंत हो मंत महलि हिं परियरिउ । एत्तहिं राय उरहो धणकण पउरहो संपत्तउ कउलायरिउ ॥ तहिं जगह भयाउलु अलिय रासि भइरउ अहिं हाणि सव्वगासि । तहि भमहि भिक्खयरू देइ सिक्ख अणुगयहं जराहं कुलमग्ग दिक्ख । बहुसिक्ख हिंस हियउ डंभधारि, घरि घरि हिंडइ हुंकार कारि । सिरि टोप्पी दिगण खरण वरण सा झंपवि संठिय दोरिण करण । अगुल दुतीस परिमाण दंडु हत्थे उप्फालिवि रहई चंडु। गलि जोगवट्ट सजिउ विचित्तु पाउडिय जुम्भु पइ दिराणु दित्तु । तड तड तड तड तडिय सिंगु सिंगग्गु छेवि किउ तेण चंगु । अप्पि अप्पहो माहप्पु दप्पु अणउंछिउ जंपई थुणइ अप्पु । मह पुरउ पसप्पिय जयचयारि हर जरइ ण घिप्पमि कप्प धारि। णल णहुस वेणु मंधाय जेवि महि भुंजिवि अवरई गयई ते वि। मई दिह्र रामरावण भिडंत संगामरगि णिसियर पडत । मई दिछ जुहिट्ठिलु वंधुसहिउ दुज्जोहणु ण करइ विण्हु कहिउ । हउँचिरजीविउ माकरहु भंत्ति हउ सयलहं लोयहं करमि संति । हउ थंभिभि रविहि विभाणुजंतु चंदस्स जोण्ह छायमि तुरंतु । सव्वउ विजउ महु विप्फुरंति बहु तंत मंत अग्गइ सरंति । जोइसरु मणि तुट्ठउ चिंतइ दुठ्ठउ इंदिय सुहु महु पुज्जइ । जं जं उद्देसमि तं भुजेसमि आरासहु संपजइ । ता चवइ जोइ महु सयलु रिद्धि विप्फुरइ खणंतरि विजसिद्धि । हउं हरण करण कारण समत्थु हरं पयडु धरावलि गुण पसत्थु । जं जं तुहुँ मग्गति किं पि वत्थु तं तं हां देमि महा पयत्थु ॥" गन्धर्व तथा राजशेखरके उद्धरणोंकी सूक्ष्म समीक्षा द्वारा मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि साक्षात् अथवा परम्परया प्रथम विद्वान् द्वितीयके ऋणी हैं । 'कर्पूरमञ्जरी' में आये 'भैरव' तथा 'जोइसरु' शब्दोंका प्रयोग 'जसहर चरिऊ' में भी हुआ है । अन्तर इतना है कि प्रथममें 'भैरवानन्द' पद है। दोनों वर्णनोंमें कौलाचार्य के अधिकांश गुण समान हैं तथा 'सूर्यको मध्य अाकाशमें रोक दूर कथनका तो शब्द-विन्यास भी समान है। बहुत संभव है कि कौलधर्म तथा कौलाचार्य के उपर्यल्लिखित वर्णनों तथा उल्लेखोंको धार्मिक पक्षपातने कुछ अतिरंजित किया हो, तथापि राजशेखर तथा देवसेनके उद्धरणोंमें तथा उक्त अन्य सामग्रीमें दशमीं शतीमें प्रचलित कौलधर्मका अच्छा चित्र मिलता है जो कि उसके स्थूल ज्ञानके लिए पर्याप्त है । २१० Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरकी निर्वाणभूमि श्री प्रा० डा० राजबली पाण्डेय, एम० ए०, डी० लिट. इस बातको सभी मानते हैं कि भगवान् महावीरका निर्वाण पावा-(अ-पापा ) पुरीमें हुआ था । आज कल श्रद्धालु जैन जिस स्थानको उनकी निर्वाणभूमि समझ कर तीर्थयात्रा करने जाते हैं वह पटना जिलान्तर्गत राजगृह और नालन्दाके बीच बड़गांवमें स्थित है। प्रस्तुत लेखकके मतमें अाधुनिक पावाकी प्रतिष्ठा भावना-प्रसूत, पश्चात्-स्थानान्तरित और कल्पित प्रतीत होती है । वास्तविक पावापुरी उससे भिन्न और दूरस्थ थी। निर्वाण वर्णन-- मूल ग्रन्थों में भगवान् महावीरके निर्वाणके सम्बन्धमें निम्नलिखित वर्णन मिलते हैं१-जैन कल्पसूत्र और परिशिष्ट-पर्वन्के अनुसार भगवान् महावीरका निर्वाण (देहावसान) मल्लोंकी राजधानी पावामें हुआ। मल्लोंकी नव शाखाअोंने निर्वाणस्थान पर दीपक जला कर प्रकाशोत्सव मनाया। २-बौद्धग्रन्थ मज्झिमनिकाय (३-१-४) में यह उल्लेख है कि जिस समय भगवान् बुद्ध शाक्यदेशके 'साम' ग्राममें विहार कर रहे थे उस समय 'निगंठ-नातपुत्त' अभी अभी पावामें मरे थे । ३–बौद्धग्रन्थ अट्ठकथासे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि मरनेके समय भगवान् महावीर नालन्दासे पावा चले आये थे । ऊपरके वर्णनोंसे नीचे लिखे निष्कर्ष निकलते हैं१-जिस पावामें भगवान् महावीरका निर्वाण हुआ वह मल्लोंकी राजधानी थी। २-उपर्युक्त पावा शाक्यदेशके निकट थी; दूसरे वर्णनसे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है। ३-जिस तरह भगवान् बुद्ध अपने निर्वाणके पूर्व राजगृहसे चलकर कुशीनगर आये उसी प्रकार भगवान् महावीर भी नालन्दासे पावा पहुंच गये थे । भगवान् बुद्धका कुशीनगरके मल्लों में और भगवान महावीरका पावाके मल्लोंमें बड़ा मान था। २११ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ समस्या- प्रश्न यह है कि मल्लोंकी राजधानी पावा कहां पर स्थित थी। यह निश्चित है कि बौद्ध और जैन साहित्य में जिन गणतंत्रोंका वर्णन मिलता है उनमें से पावाके मल्लोंका भी एक गणतंत्र था । मल्लों की दो मुख्य शाखाएं थीं - - ( १ ) कुशीनगर के मल्ल और ( २ ) पावाके मल्ल । मल्लोंकी नव छोटी छोटी शाखाओं का भी वर्णन मिलता है जिनको मल्लकि ( लघुवाचक ) कहते थे । इनके सभी वर्णनों से यही निष्कर्ष निकलता है कि मल्लोंकी सभी शाखाएं निकटस्थ, पड़ोसी और एक संघ में संघटित थीं । अतः मल्लोंकी दूसरी प्रमुख शाखाकी राजधानी पावा प्रथम प्रमुख शाखाकी राजधानी कुशीनगरसे दूर न होकर पास होनी चाहिये । अब यह निर्विवाद रूपसे सिद्ध हो गया है कि कुशीनगर देवरिया जिलान्तर्गत ( कुछ समय पहले गोरखपुर जिलान्तर्गत) कसया नामक कसबेके पास अनुरुधवाके दूहों पर स्थित था । बौद्धकालीन गणतंत्र बड़े बड़े राज्य नहीं थे । उन राज्यों में राजधानी और उनके श्रास पास के प्रदेश सम्मिलित होते थे; संभवतः ये यूनानके 'नगरराष्ट्रों' से कुछ बड़े थे । इस परिस्थितिमें पावा कहीं कुशीनगर के पास स्थित होनी चाहिये । पावाका स्थान -- पावाकी स्थिति और दिशा के संकेत बौद्ध साहित्य में निम्न रूपसे मिलते हैं १. प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ 'महापरिनिब्बान सुत्तान्त' में निर्वाणके पूर्व भगवान् बुद्धकी राजगृह से कुशीनगर तककी यात्राके मार्ग और चारिका का वर्णन मिलता है । इसके अनुसार वे राजगृहसे नालन्दा, नालन्दासे पाटलिपुत्र ( जो अभी बस रहा था ), पाटलिपुत्र से कोटिग्राम, कोटिग्रामसे नादिका, नादिका से वैशाली, वैशालीसे भण्डुग्राम, भण्डुग्राम से हस्तिग्राम ( हथुश्रा के पास ), हस्तिग्राम से अम्बग्राम (मिया), श्रम्बग्राम से जम्बुग्राम, जम्बुग्राम से भोगनगर ( बदरांव ), भोगनगरसे पावा और पावासे कुशीनगर गये । इस यात्रा-क्रममें पावा भोगनगर ( बदरांव ) और कुशीनगर के बीच में होनी चाहिये । एक बात और ध्यान देनेकी है । भगवान् बुद्ध रक्तातिसारसे पीडित होते हुए भी पावासे कुशीनगर पैदल एक दिन में विश्राम करते हुए पहुंचे थे । श्रतएव पावा कुशीनगर से एक दिनकी हलकी यात्राकी दूरी पर स्थित होनी चाहिये । २. दूसरे बौद्ध ग्रन्थ 'चुल्लनिदेसके' 'मिङ्गिय सुत्तमें' भी एक यात्राका उल्लेख है । इसमें हेमक, नन्द, दूभय, आदि जटिल साधु अल्लक से चले थे और उनके मार्ग में क्रमशः निम्न लिखित नगर पड़े । कोसम्बञ्श्चापि साकेतं सावत्थिं च पुरुत्तमं । सोतव्यं कपिलवत्थं कुसिनारञ्च मंदिरं ॥ पावञ्च भोगनगरं वेसालि मागमं पुरं । २१२ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीरकी निर्वाणभूमि ऊपरके अवतरणसे भी स्पष्ट है कि वैशालीकी अोरसे पावा नगरी भोगनगर (बदरांव ) और कुशीनगरके बीच में पड़ती थी। इन सब बातोंको ध्यानमें रखकर जो सड़क कुशीनगरसे वैशाली ( = वसाढ़ विहारके मुजफ्फरपुर जिलेमें ) की.ओर जाती है उसी पर पावा नगरीको ढूढ़ना चाहिये । इसी रास्ते पर कुशीनगरसे लगभग ९ मीलकी दूरी पर पूर्व-दक्षिण दिशामें सठियांव (फाजिल नगर) के डेढ़ मील विस्तृत भग्नावशेष हैं। ये अवशेष भोगनगर और कुशीनगरके बीचमें स्थित हैं । 'महापरिनिब्बान सुत्तान्त' से यह भी पता लगता है कि पावा और कुशीनगरके बीचमें दो छोटी नदियां बहती थीं। फाजिलनगर और कुशीनगरके बीचमें ये नदियां शुन्दा ( सोना ) और घाधी ( ककुत्था ) के रूपमें वर्तमान हैं। अतः सभी परिस्थितियों पर विचार करते हुए पावापुरीकी स्थिति फाजिलनगर ही निश्चित जान पड़ती है। फाजिलनगर नाम नया है और मुसलिम शासनके सयय पड़ा था। यहीं एक टीले पर एक मुसलमान फकीरकी समाधि भी बन गयी है । परन्तु इसके पास ही में विहारोंके भग्नावशेष और जैनमूर्तियोंके टुकड़े पाये जाते हैं। । ये अवशेष इस बातकी अोर संकेत करते हैं कि इस स्थानका सम्बन्ध बौद्ध और जैनधर्मोंसे था और इससे लगा हुआ एक विस्तृत नगर बसा था । दुर्भाग्यवश यहां खननकार्य अभी बिल्कुल नहीं हुआ है। खुदायी होनेपर इस स्थानका इतिहास अधिक स्पष्ट और निश्चित हो जायगा। अन्य मान्यताएं कुछ विद्वानोंने पावाकी स्थिति अन्यत्र निश्चित करने की चेष्टा की है। कनिंगहमने पावाको वर्तमान पडरौना ( ज्याग्राफिकल डिक्शनरी श्राफ ऐं सियंट इंडिया ) और महापंडित राहुल सांकृत्यायनने पावाको रामकोला स्टेशनके पास 'पपउर' माना है। इन अभिन्नताओंमें थोड़ेसे शब्दसाम्यको छोड़कर और कोई प्रमाण नहीं हैं । ये दोनों स्थान कुशीनगरसे पश्चिमोत्तर कपिलवस्तु और श्रावस्ती जानेवाले मार्गपर स्थित हैं और कुशीनगरसे वैशाली जानेवाले मार्गकी ठीक उलटी दिशामें हैं। अतः पडरौना और पपउर पावा नहीं हो सकते । प्रसिद्ध विद्वान् स्व० डा० काशीप्रसाद जायसवालने बौद्धकालीन राज्योंकी स्थिति और भूगोल पर ध्यान न देकर अपने ग्रंथ 'हिन्दूपोलिटी' ( भाग १ पृ० ४८ ) में मल्लोंके राज्यको कुशीनगरसे पटनाके दक्षिण तक विस्तृत और अस्पष्ट रूपसे अाधुनिक पावाको मल्लोंकी राजधानी पावा मान लिया है जो सर्वथा भ्रान्त है। कतिपय मौलिक विरोध वर्तमान पावाको मल्लोंकी राजधानी और भगवान् महावीरकी निर्वाण भूमि मान लेनेमें कई प्रबल आपत्तियां हैं १. भगवान् बुद्ध और भगवान महावीर दोनोंके समकालीन मगधके राजा बिम्बसार और अजातशत्रु थे। मगध राज्य गंगाके दक्षिण सम्पूर्ण दक्षिण-विहार पर फैला था। उसकी राजधानी उस २१३ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ समय पाटलिपुत्र न होकर राजगृह ( राजगिरि ) थी। अजातशत्रु बड़ा ही महत्वाकांक्षी, साम्राज्यवादी और गणतंत्रोंका शत्रु था । उसने गंगाके उत्तर में स्थित 'वजिसंघ' और उसके सहायक मल्ल-संघको दस वर्षके भीषण युद्ध के बाद परास्त किया था । अतः राजगृहके निकट पड़ोसमें मल्लोंकी राजधानी पावाका होना राजनैतिक दृष्टिसे बिल्कुल असंभव है । और मगध तथा काशी दोनों पर अधिकार रखनेवाले अजात शत्रुके समयमें गंगाके दक्षिणमें मल्ल राज्यका विस्तार उससे भी अधिक असंभव था। २. 'महापरिनिब्बानसुत्तान्त से तत्कालीन भूगोल और उस समयके मागौंकी दिशाएं स्पष्ट मालूम होती हैं । दक्षिण-विहारमें स्थित राजगृहसे प्रारम्भ होनेवाला मार्ग उत्तरमें चलकर गंगाको पार्टीलपुत्र पर पार करता था। इसके बाद वह वैशाली (उत्तर विहारका मुजफ्फरपुर जिला) पहंचता था । उसी मार्ग पर पश्चिमोत्तरमें चलकर भोगनगर और कुशीनगरके बीचमें पावापुरी पड़ती थी ! भगवान् बुद्ध बीमारीकी अवस्थामें भी पावासे चलकर पैदल एक दिनमें कुशीनगर पहुंचे थे । राजगृहके निकटस्थ वर्तमान पावा कुशीनगरसे दस मीलसे अधिककी दूरी पर है; अतः यह वास्तविक पावा नहीं हो सकती । ३. वर्तमान पावापुरीमें प्राचीन नगर अथवा धर्मस्थानके कोई अवशेष नहीं मिलते हैं। वर्तमान मंदिरादि प्रायः अाधुनिक हैं । यह बात इस स्थानकी प्राचीनतामें सन्देह उत्पन्न करती है । वर्तमान पावा संभवतः मुसलिम शासनके समय स्थानान्तरित हुई मालूम होती है । इसको भगवान महावीरकी निर्वाण भूमि माननेमें एक बात कारण हो सकती है । यह नालन्दाके अति निकट है; संभवतः उनकी अंतिम यात्रा यहीं से प्रारम्भ हुई हो । परन्तु उनका देहावसान मल्लोंकी राजधानी पावामें ही हश्रा था। १, पावा की ओर अभी बहुत कम लोगों का ध्यान गया है। संभवतः अपने अज्ञान और मुसलिम आतंक के कारण जैन जनता ने इसका परित्याग कर दिया हो । परन्तु अब ऐतिहासिक चेतना स्थानीय जनता में जागृत हो रही है और गत वर्ष वहां पावा हाई स्कूल नामक विद्यालय खोला गया । पास के ही कुशीनगर में सरकार का ओर से खनन कार्य हुआ है और श्रीमन्त बिरलाजी ने कई भव्य इमारतेंबनवा दी हैं । पावा अभी सरकार और श्रद्धालु श्रीमतों की प्रतीक्षा कर रही है। २१४ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल - प्रदेशों में जैनधर्मावलम्बी श्री प्रा० एम० एस० रामस्वामी आयंगर, एम० ए० श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ भारतीय सभ्यता अनेक प्रकारके तन्तुओं से मिलकर बनी है। वैदिकोंकी गम्भीर और निर्भीक बुद्धि, जैनकी सर्वव्यापी मनुष्यता, बुद्धका ज्ञान - प्रकाश, अरबके पैगम्बर ( मुहम्मद साहब का विकट धार्मिक जोश और संगठन शक्ति, द्रविड़ोंकी व्यापारिक प्रतिभा और समयानुसार परिवर्तनशीलता, इन सबका भारतीय जीवन घर अनुपम प्रभाव पड़ा है और आज तक भी भारतियोंके विचारों, कार्यों और आकांक्षाओं पर उनका दृश्य प्रभाव मौजूद है। नये नये राष्ट्रोंका उत्थान और पतन होता है, राजे महाराजे विजय प्राप्त करते हैं और पददलित होते हैं; राजनैतिक और सामाजिक आन्दोलनों तथा संस्थानोंकी उन्नति के दिन आते हैं और बीत जाते हैं, धार्मिक सम्प्रदायों और विधानोंकी कुछ काल तक अनुयायियों के हृदयों में विस्फूर्ति रहती है । परन्तु इस सतत परिवर्तनकी क्रिया के अन्तर्गत कतिपय चिरस्थायी लक्षण विद्यमान हैं, जो हमारे और हमारी सन्तानोंकी सर्वदाके लिए पैतृक सम्पत्ति हैं । प्रस्तुत लेखमें एक ऐसी जातिके इतिहासको एकत्र करनेका प्रयत्न किया जायगा, जो अपने समय में उच्चपद पर विराजमान थी, और इस बात पर भी विचार किया जायगा कि उस जातिने महती दक्षिणभारतीय सभ्यताकी उन्नतिमें कितना भाग लिया है। जैन धर्म की दक्षिण यात्रा -- यह ठीक ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता कि तामिल प्रदेशोंमें कब जैनधर्मका प्रचार प्रारम्भ हुआ । सुदूरके दक्षिण भारत में जैनधर्मका इतिहास लिखने के लिए यथेष्ट सामग्रीका प्रभाव है । परन्तु दिगम्बरोंके दक्षिण जानेसे इस इतिहासका प्रारम्भ होता है । श्रवणबेलगोला के शिलालेख ब प्रमाणकोटि में परिणत हो चुके हैं और १६ वीं शती में देवचन्द्रविरचित 'राजावलिकथे' में वर्णित जैन-इतिहासको अब इतिहासज्ञ विद्वान् असत्य नहीं ठहराते । उपर्युक्त दोनों सूत्रोंसे यह ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भद्रबाहु ( श्रुतकेवली ) ने यह देखकर कि उज्जैन में बारह वर्षका एक भयङ्कर दुर्भिक्ष होने वाला २१५ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ है, अपने १२००० शिष्योंके साथ दक्षिणकी ओर प्रयाण किया । मार्गमें श्रुतकेवलीको ऐसा जान पड़ा कि उनका अन्त समय निकट है और इसलिए उन्होंने कटवप्र नामक देशके पहाड़ पर विश्राम करनेकी अाज्ञा दी । वह देश जन, धन, सुवर्ण, अन्न, गाय, भैंस, बकरी, श्रादिसे सम्पन्न था। तब उन्होंने विशाखमनिको उपदेश देकर अपने शिष्योंको उसे सौंप दिया और उन्हें चोल और पाण्ड्य देशोंमें उसके अधीन भेजा। राजावलिकथेमें लिखा है कि विशाखमुनि तामिल-प्रदेशोंमें गये, वहां पर जैनचैत्यालयोंमें उपासना की और वहांके निवासी जैनियोंको उपदेश दिया । इसका तात्पर्य यह है कि भद्रबाहुके मरण (अर्थात् २९७ ई० पू० ) के पूर्व भी जैनी सुदूर दक्षिणमें विद्यमान थे । यद्यपि इस बातका उल्लेख राजावलिकथेके अतिरिक्त और कहीं नहीं मिलता और न कोई अन्य प्रमाण ही इसके निर्णय करनेके लिए उपलब्ध होता है, परन्तु जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदायमें विशेषतः उनके जन्मकालमें, प्रचारका भाव बहुत प्रबल होता है, तो शायद यह अनुमान अनुचित न होगा कि जैनधर्म के पूर्वतर प्रचारक पार्श्वनाथके संघ दक्षिणकी अोर अवश्य गये हों गे । इसके अतिरिक्त जैनियोंके हृदयोंमें ऐसे एकान्त स्थानोंमें वास करनेका भाव सर्वदासे चला आया है, जहां वे संसारके झंझटोंसे दूर प्रकृतिकी गोदमें, परमानन्दकी प्राप्ति कर सकें । अतएव ऐसे स्थानोंकी खोजमें जैनी लोग अवश्य दक्षिणकी ओर निकल गये होंगे। मदरास प्रान्तमें जो अभी जैन मन्दिरों, गुफाओं, और वस्तियोंके भग्नावशेष और धुस्स पाये जाते हैं वही उनके स्थान रहे हों गे । यह कहा जाता है कि किसी देशका साहित्य उसके निवासियोंके जीवन और व्यवहारोंका चित्र है । इसी सिद्धान्तके अनुसार तामिल-साहित्यकी ग्रन्थावलीसे हमें इस बातका पता लगता है कि जैनियोंने दक्षिण भारतकी सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओंपर कितना प्रभाव डाला है। साहित्यिक प्रमाण-- समस्त तामिल-साहित्यको हम तीन युगोंमें विभक्त कर सकते हैं१ संघ-काल । २ शैव नयनार और वैष्णव अलवार काल । ३ अर्वाचीन काल । इन तीन युगोंमें रचित ग्रन्थोंसे तामिल-देशमें जैनियोंके जीवन और कार्यका अच्छा पता लगता है ! संघ-काल-- तामिल लेखकोंके अनुसार तीन संघ हुए हैं । प्रथम संघ, मध्यम संघऔर अन्तिम संघ । वर्तमान ऐतिहासिक अनुसन्धानसे यह ज्ञात हो गया है कि किन किन समयोंके अन्तर्गत ये तीनों संघ हुए । अन्तिम संघके ४६ कवियों में से 'वक्किरारने संघोंका वर्णन किया है। उसके अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण थोलकपियर प्रथम और द्वितीय संघोंका सदस्य था। अान्तरिक और भाषासम्बन्धी प्रमाणोंके आधारपर अनुमान किया Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल-प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी जाता है कि उक्त ब्राह्मण वैयाकरण ईसासे ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान हो गा। विद्वानोंने द्वितीय संघका काल ईसाकी दूसरी शती निश्चय किया है । अन्तिम संघके समयको अाजकल इतिहासज्ञ लोग ५ वी, ६ ठीं शती में निश्चय करते हैं । इस प्रकार सब मतभेदोंपर ध्यान रखते हुए ईसाकी ५ वीं शतीके पूर्वसे लेकर ईसाके अनन्तर ५ वीं शती तकके कालको हम संघ-काल कह सकते हैं। अब हमें इस बातपर विचार करना है कि इस कालके रचित कौन ग्रन्थ जैनियोंके जीवन और कार्योंपर प्रकाश डालते हैं। सबसे प्रथम, 'थोलकपियर' संघ-कालका आदि लेखक और वैयाकरण है। यदि उसके समयमें जैनी लोग कुछ भी प्रसिद्ध होते तो वह अवश्य उनका उल्लेख करता, परन्तु उसके ग्रन्थोंमें जैनियोंका कोई वर्णन नहीं है । शायद उस समय तक जैनी उस देशमें स्थायी रूपसे न बसे हों गे अथवा उनका पूरा ज्ञान उसे न हो गा। उसी कालमें रचे गये ‘पथुपाटुं' और "एटुथोगाई” नामक काव्योंमें भी उनका वर्णन नहीं है, यद्यपि उपयुक्त ग्रन्थोंमें विशेष कर ग्रामीण जीवनका वर्णन है । दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ महात्मा 'तिरुवल्लुवर' रचित 'कुरल' है, जिसका रचना-काल ईसाकी प्रथम शती निश्चय हो चुका है । 'कुरल' के रचयिताके धार्मिक-विचारोंपर एक प्रसिद्ध सिद्धान्तका जन्म हुआ है । कतिपय विद्वानोंका मत है कि रचयिता जैन धर्मावलम्बी था । ग्रन्थकर्ताने ग्रन्थारम्भमें किसी भी वैदिक देवकी वन्दना नहीं की है बल्कि उसमें 'कमल-गामी' और 'अष्टगुणयुक्त' आदि शब्दोंका प्रयोग किया है । इन दोनों उल्लेखोंसे यह पता लगता है कि ग्रन्थकर्ता जैनधर्मका अनुयायी था । जैनियोंके मतसे उक्त ग्रन्थ 'एलचरियार' नामक एक जैनाचार्य की रचना है' । और तामिल काव्य 'नीलकेशी' का जैनी भाष्यकार 'समयदिवाकर मुनि' 'कुरल'को अपना पूज्य-ग्रन्थ कहता है। यदि यह सिद्धान्त ठीक है तो इसका यही परिणाम निकलता है कि यदि पहले नहीं तो कमसे कम ईसाकी पहली शतीमें जैनी लोग सुदूर दक्षिणमें पहुंचे थे और वहांकी देशभाषामें उन्होंने अपने धर्मका प्रचार प्रारम्भ कर दिया था। इस प्रकार ईसाके अनन्तर प्रथम दो शतियोंमें तामिल प्रदेशोंमें एक नये मतका प्रचार हुअा, जो बाह्याडम्बरोंसे रहित और नैतिक सिद्धान्त होनेके कारण द्राविड़ियोंके लिए मनोमुग्धकारी हुआ । आगे चलकर इस धर्मने दक्षिण भारतपर बहुत प्रभाव डाला । देशी भाषाओंकी उन्नति करते हुए जैनियोंने दाक्षिणात्योंमें आर्य विचारों और आर्य-विद्याका अपूर्व प्रचार किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि द्राविड़ी साहित्यने उत्तर भारतसे प्राप्त नवीन सन्देशकी घोषणा की । मि० फ्रेज़रने अपने “भारतके साहित्यक इतिहास' (A Literary History of India') नामक पुस्तकमें लिखा है कि यह जैनियों हो के प्रयत्नोंका फल था कि दक्षिणमें नये आदर्शों नये साहित्य और नये भावोंक। सञ्चार हुआ ।” उस समयके द्राविड़ोंकी उपासनाके विधानों पर विचार करनेसे यह अच्छी तरह से समझमें आ जायगा कि जैनधर्मने उस देशमें १ लचरियार, पलाचार्य अथवा इलाचार्यका तद्देशीय रूप प्रतीत हाता है। यह नाम जन युगाचार्य कुम्द दुन्द स्वामीव.सपर नाम था ! २८ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जड़ कैसे जमायी । द्राविड़ोंने अनोखी सभ्यताकी उत्पत्ति की थी। स्वर्गीय श्री कनकसबाई पिल्लेके अन् सार, उनके धर्ममें बलिदान, भविष्यवाणी और आनन्दोत्पादक नृत्य प्रधान कार्य थे। जब ब्राह्मणोंके प्रथम दलने दक्षिण में प्रवेश किया और मदरा या अन्य नगरोंमें वास किया तो उन्होंने इन प्राचारोंका विरोध किया और अपनी वर्ण-व्यवस्था और संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहांके निवासियोंने इसका घोर विरोध किया। उस समय वर्ण-व्यवस्था पूर्णरूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पायी थी। परन्तु जैनियोंकी उपासना, आदिके विधान ब्राह्मणोंकी अपेक्षा सीधे सादे ढंगके थे और उनके कतिपय सिद्धान्त सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट थे । इसलिए द्राविड़ोंने उन्हें पसन्द किया और उनको अपने मध्यमें स्थान दिया, यहां तक कि अपने धार्मिक जीवन में उन्हें अत्यन्त अादर और विश्वासका स्थान प्रदान किया। कुरलोत्तर काल-- ___ कुरलके अनन्तरके युगमें प्रधानतः जैनियोंकी संरक्षतामें तामिल साहित्य अपने विकासकी चरम सीमा तक पहुंचा । तामिल साहित्यकी उन्नतिका वह सर्वश्रेष्ठ काल था । वह जैनियोंकी भी विद्या तथा प्रतिभा का समय था, यद्यपि राजनैतिक-सामर्थ्य का समय अभी नहीं आया था। इसी समय ( द्वितीय शती) चिर-स्मरणीय 'शिलप्पदिकारम्' नामक काव्यकी रचना हुई । इसका कर्ता चेर-राजा सेंगुत्तुवनका भाई 'इलंगोब दिगाल' था । इस ग्रन्थमें जैन-सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाजके विद्यालयों और श्राचारों श्रादिका विस्तृत वर्णन है। इससे यह निःसन्देह सिद्ध है कि उस समय तक अनेक द्राविडोंने जैनधर्मको स्वीकार कर लिया था। ईसाकी तीसरी और चौथी शतियोंमें तामिल-देशमें जैन धर्मकी दशा जाननेके लिए हमारे पास काफी सामग्री नहीं है। परन्तु इस बातके यथेष्ट प्रमाण प्रस्तुत हैं कि ५ वीं शतीके प्रारम्भमें जैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिए बड़ा ही उत्साहपूर्ण कार्य किया। 'दिगम्बर दर्शन' (दर्शन सार १) नामक एक जैन ग्रन्थ में इस विषयका एक उपयोगी प्रमाण मिलता है। उक्त ग्रन्थमें लिखा है कि सम्वत् ५२६ विक्रमी ( ४७० ईसवीं ) में पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी द्वारा दक्षिण मथुरामें एक द्राविड़-संधकी रचना हुई और यह भी लिखा है कि उक्त संघ दिगम्बर जैनियोंका था जो दक्षिणमें अपना धर्मप्रचार करने आये थे। यह निश्चय है कि पाण्ड्य राजाओंने उन्हें सब प्रकारसे अपनाया। लगभग इसी समय प्रसिद्ध 'नलदियार' नामक ग्रन्थकी रचना हुई और ठीक इसी समयमें ब्राह्मणों और जैनियोंमें प्रतिस्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई। इस प्रकार इस 'संघकाल' में रचित ग्रन्थोंके आधारपर निम्नलिखित विवरण तामिल-देश स्थित जैनियोंका मिलता है। २१८ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल-प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी (१) थोलकपियरके समयमें जो ईसाके ३५० वर्ष पूर्व विद्यमान था, कदाचित् जैनी सुदूर दक्षिण देशोंमें न पहुंच पाये हों। (२) जैनियोंने सुदूर दक्षिण में ईसाके अनन्तर प्रथम शतीमें प्रवेश किया हो। (३) ईसाकी दूसरी और तीसरी शतियोंमें, जिसे तामिल-साहित्यका सर्वोत्तम-काल कहते हैं, जैनियोंने भी अनुपम उन्नति की थी। (४) ईसाकी पांचवीं और छठीं शतियोंमें जैनधर्म इतना उन्नत और प्रभावयुक्त हो चुका था कि वह पाण्ड्य राज्यका राजधर्म हो गया था। शैव-नयनार और वैष्णव-अलवार काल-- इस कालमें वैदिक धर्मकी विशिष्ट उन्नति होनेके कारण बौद्ध और जैनधर्मोंका आसन डगमगा गया था। सम्भव है कि जैनधर्मके सिद्धान्तोंका द्राविड़ी विचारोंके साथ मिश्रण होनेसे एक ऐसा विचित्र दुरंगा मत बन गया हो जिसपर चतुर ब्राहण श्राचार्योंने अपनी वाण वर्षा की हो गी । कट्टर अजैन राजाओं के श्रादेशानुसार; सम्भव है राजकर्मचारियोंने धार्मिक अत्याचार भी किये हों। _ किसी मतका प्रचार और उसकी उन्नति विशेषतः शासकोंकी सहायतापर निर्भर है। जब उनकी सहायताका द्वार बन्द हो जाता है तो अनेक पुरुष उस मतसे अपना सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। पल्लव और पाण्ड्य-साम्राज्यों में जैनधर्मकी भी ठीक यही दशा हुई थी। इस काल (५ वीं शतीके उपरान्त ) के जैनियोंका वृत्तान्त सेक्किल्लार नामक लेखकके ग्रन्थ 'पेरिय पुराणम्'में मिलता है। उक्त पुस्तकमें शैवनयनार और अन्दारनम्बीके जीवनका वर्णन है, जिन्होंने शैव गान और स्तोत्रोंकी रचनाकी है । तिरूज्ञान-संभाण्डकी जीवनी पढ़ते हुए एक उपयोगी ऐतिहासिक बात ज्ञात होती है कि उसने जैनधर्मावलम्बी कुन्पाण्ड्यको शैवमतानुयायी किया। यह बात ध्यान देने योग्य है । क्योंकि इस घटनाके अनन्तर पाण्ड्य नृपति जैनधर्मके अनुयायी नहीं रहे । इसके अतिरिक्त जैनी लोगोंके प्रति ऐसी निष्ठुरता और निर्दयताका व्यवहार किया गया, जैसा दक्षिण भारतके इतिहासमें और कभी नहीं हुआ । संभाण्डके घृणाजनक भजनोंसे, जिनके प्रत्येक दशवें पद्यम जैनधर्मकी भर्त्सना थी, यह स्पष्ट हो जाता है कि वैमनस्यकी मात्रा कितनी बढ़ी हुई थी। अतएव कुन्पाण्ड्यका समय ऐतिहासिक दृष्टिसे ध्यान रखने योग्य है, क्यों कि उसी समयसे दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी अवनति प्रारम्भ होती है। मि० टेलरके अनुसार कुन्पाण्ड्यका समय १३२० ईसवीके लगभग है, परन्तु डा० काल्डवेल १२९२ ईसवी बताते हैं। परन्तु शिलालेखोंसे इस प्रश्नका निश्चय हो गया है । स्वर्गीय श्री वेंकटैयाने यह अनुसन्धान किया था कि सन् ६२४ ई० में पल्लवराज नरसिंहवर्मा प्रथमने 'वातापी' का विनाश किया। इसके आधार पर तिरुज्ञान संभाण्डका समय ७वीं Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- श्रभिनन्दन ग्रन्थ शतीके मध्य में निश्चित किया जा सकता है । क्योंकि संभाण्ड एक दूसरे शैवाचार्य 'तिरुनत्रुकरसार' अथवा लोकप्रसिद्ध अय्यारका समकालीन था, परन्तु संभाण्ड 'अय्यार' से कुछ छोटा था । और अय्यरने नरसिंहवर्मा के पुत्रको जैनीसे शैव बनाया था। स्वयं अय्यार पहले जैनधर्मकी शरण में आया था और उसने अपने जीवनका पूर्वभाग सिद्ध जैन विद्या के केन्द्र तिरुप्पदिरिपुलियारके विहारोंमें व्यतीत किया था । इस प्रकार प्रसिद्ध ब्राह्मण श्राचार्य संभाण्ड और अय्यार के प्रयत्नोंसे, जिन्होंने कुछ समय पश्चात् अपने स्वामी तिलकवथिको प्रसन्न करनेके हेतु शैव-मतकी दीक्षा ले ली थी, पाण्ड्य और पल्लव राज्यों में जैनधर्म उन्नतिको बड़ा धक्का पहुंचा। इस धार्मिक संग्राम में शैवोंको वैष्णव अलवारों से विशेषकर 'तिकमलिसैप्पिरन्' और ‘तिरुमंगई’ अलवारसे बहुत सहायता मिली, जिनके भजनों और गीतोंमें जैनमत पर घोर कटाक्ष हैं । इस प्रकार तामिल - देशों में नम्मलवार के समय में ( १० वीं शती ई० ) जैनधर्मका अस्तित्व सङ्कटमय रहा | अर्वाचीन काल नम्मलवारके अनन्तर हिन्दू धर्मके उन्नायक प्रसिद्ध श्राचार्योंका समय है । सबसे प्रथम शंकराचार्य हुए, जिनका उत्तरकी ओर ध्यान गया । इससे यह प्रकट है कि दक्षिण-भारतमें उनके समय तक जैनधर्मकी पूर्ण अवनति हो चुकी थी । तथा जब उन्हें कष्ट मिला तो वे प्रसिद्ध जैनस्थानों श्रवणबेलगोल (मैसूर) टिण्डिवनम् (दक्षिण- अरकाट ), आदि में जा बसे । कुछने गंग राजाओं की शरण ली जिन्होंने उनका रक्षण तथा पालन किया । यद्यपि अब जैनियोंका राजनैतिक प्रभाव नहीं रहा, और. उन्हें सब ओरसे पल्लव, पांड्य और चोल राज्यवाले तंग करते थे, तथापि विद्या में उनकी प्रभुता न्यून नहीं हुई । 'चिन्तामणि' नामक प्रसिद्ध महाकाव्य की रचना तिरुलकतेवर द्वारा नवीं शतीमें हुई थी । प्रसिद्ध तामिल-वैयाकरण पविनन्दि जैनने अपने 'नन्नू ल' की रचना १२२५ ई० में की। इन ग्रन्थों के अध्ययन से पता लगता है कि जैनी लोग विशेषतः मैलापुर, निदुम्बई (?) थिपंगुदी ( तिरुवलूर के निकट एक ग्राम ) और टिण्डिवनम् में निवास करते थे । अन्तिम आचार्य श्रीमाधवाचार्य के जीवनकाल में मुसलमानोंने दक्षिण पर विजय प्राप्त की जिसका परिणाम यह हुआ कि दक्षिणमें साहित्यिक, मानसिक और धार्मिक उन्नतिको बड़ा धक्का पहुंचा और मूर्तिविध्वंसकों के अत्याचारों में अन्य मतावलम्बियों के साथ जैनियोंको भी कष्ट मिला । उस समय जैनियोंकी दशाका वर्णन करते हुए श्रीयुत वार्थ सा० लिखते हैं कि 'मुसलमान - साम्राज्य तक जैनमतका कुछ कुछ प्रचार रहा । किन्तु मुसलिम साम्राज्यका प्रभाव यह पड़ा कि हिन्दू-धर्मका प्रचार रुक गया, और यद्यपि उसके कारण समस्त राष्ट्रकी धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक अवस्था अस्तव्यस्त हो गयी, तथापि साधारण अल्प संस्थानों, समाजों और मतोंकी रक्षा हुई ।' २२० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल-प्रदेशोंमें जैनधर्मावलम्बी दक्षिण भारतमें जैनधर्मको उन्नति और अवनतिके इस साधारण वर्णनका यह उदंश सुदूर दक्षिण-भारतमें प्रसिद्ध जैनधर्मके इतिहासका वर्णन नहीं है । ऐसे इतिहास लिखनेके लिए यथेष्ठ सामग्रीका अभाव है । उत्तरकी भांति दक्षिण भारतके भी साहित्यमें राजनैतिक इतिहासका बहुत कम उल्लेख है। हमें जो कुछ ज्ञान उस समयके जैन इतिहासका है वह अधिकतर पुरातत्त्व-वेत्ताओं और यात्रियोंके लेखोंसे प्राप्त हुश्रा है, जो प्रायः यूरोपियन हैं। इसके अतिरिक्त वैदिक ग्रन्थोंसे भी जैन इतिहासका कुछ पता लगता है, परन्तु वे जैनियोंका वर्णन सम्भवतः पक्षपातके साथ करते हैं। इस लेखका यह उद्देश नहीं कि जैनसमाजके श्राचार विचारों और प्रथाअोंका वर्णन किया जाय और न एक लेखमें जैन-गृह-निर्माण-कला, आदि का ही वर्णन हो सकता है । परन्तु इस लेखमें इस प्रश्नपर विचार करनेका प्रयत्न किया गया है कि जैनधर्मके चिर-सम्पर्कसे हिन्दू समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है। जैनी लोग बड़े विद्वान् और ग्रन्थों के रचयिता थे। वे साहित्य और कलाके प्रेमी थे । जैनियोंकी तामिल-सेवा तामिल देश वासियोंके लिए अमूल्य है। तामिल-भाषा संस्कृतके शब्दोंका उपयोग पहले पहल सबसे अधिक जैनियों ने ही किया। उन्होंने संस्कृत शब्दोंको तामिल-भाषामें उच्चारण को सुगमताकी दृष्टिसे यथेष्ट रूपमें बदल डाला। कन्नड़ साहित्यकी उन्नतिमें जैनियोंका उत्तम योग है। वास्तवमें वे ही इसके जन्मदाता थे । 'बारहवीं शतीके मध्य तक उसमें जैनियों ही की सम्पत्ति थी और उसके अनन्तर बहुत समय तक जैनियों ही की उसमें प्रधानता रहो। सर्व प्राचीन और बहुतसे प्रसिद्ध कन्नड़ ग्रन्थ जैनियों ही के रचे हैं ( लुइस राइस)। श्रीमान् पादरी एफ. किटेल कहते हैं कि 'जैनियोंने केवल धार्मिक भावनाओंसे नहीं, किन्तु साहित्य-प्रेमके विचारसे भी कन्नड़ भाषाकी बहुत सेवा की है और उक्त भाषामें अनेक संस्कृत ग्रन्थोंका अनुवाद किया है।" अहिंसाके उच्च आदर्शका वैदिक संस्कारों पर प्रभाव पड़ा है जैन-उपदेशोंके कारण ब्राह्मणोंने जीव-बलि-प्रदानको बिलकुल बन्द कर दिया और यज्ञोंमें जीवित पशुओंके स्थानमें आटेकी बनी मूर्तियां काममें लायी जाने लगीं। दक्षिण-भारतमें मूर्तिपूजा और देव-मन्दिर-निर्माणकी प्रचुरताका भी कारण जैनधर्मका प्रभाव है । शैव-मन्दिरोंमें महात्माअोंकी पूजाका विधान जैनियों ही का अनुकरण है । द्राविड़ोंकी नैतिक एवं मानसिक उन्नतिका मुख्य कारण पाठशालाओंका स्थापन था, जिनका उद्देश्य जैन विद्यालयोंके प्रचारक मण्डलोंको रोकना था। उपसंहार मदरास प्रान्तमें जैन समाजकी वर्तमान दशा पर भी एक दो शब्द कहना उचित हो गा। गत मनुष्य-गणनाके अनुसार सब मिलाकर २७००० जैनी इस प्रान्तमें थे, जिनमें से दक्षिण कनारा, उत्तर २२१ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ और दक्षिण करनाटकके जिलोंमें २३००० । इनमें से अधिकतर इधर उधर फैले हुए हैं और गरीब किसान और अशिक्षित हैं । उन्हें अपने पूर्वजों के अनुपम इतिहासका तनिक भी बोध नहीं है । उनके उत्तर भारतवाले भाई जो आदिम जैनधर्मके अवशिष्ट चिन्ह हैं, उनसे अपेक्षाकृत अच्छा जीवन व्यतीत करते हैं । उनमें से अधिकांश धनवान् व्यापारी और महाजन हैं । दक्षिण भारत में जैनियोंकी विनष्ट प्रतिमाएं, परित्यक्त गुफाएं और भग्नमन्दिर इस बात के स्मारक हैं कि प्राचीनकाल में जैन समाजका वहां कितना विशाल विस्तार था और किस प्रकार ब्राह्मणोंकी धार्मिक स्पर्धाने उनको मृतप्राय कर दिया । जैन समाज विस्तृति के अंचल में लुप्त हो गया, उसके सिद्धान्तों पर गहरी चोट लगी, परन्तु दक्षिण जैनधर्म और वैदिक धर्मके मध्य जो कराल संग्राम और रक्तपात हुआ वह मदुरा में मीनाक्षी मन्दिर के स्वर्णकुमुद सरोवरके मण्डपकी दीवारों पर अंकित है तथा चित्रोंके देखने से अब भी स्मरण हो आता है । इन चित्रोंमें जैनियोंके विकराल - शत्रु तिरुज्ञान संभाण्ड के द्वारा जैनियोंके प्रति अत्याचारों और रोमाञ्चकारी यातनाओं का चित्रण । इस रौद्र काण्डका यहीं अन्त नहीं है । मड्यूरा मन्दिरके बारह वार्षिक त्योहारोंमें से पांच में यह हृदय विदारक दृश्य प्रति वर्ष दिखलाया जाता है । यह सोचकर शोक होता है कि एकान्त और जनशून्य स्थानोंमें कतिपय जैन - महात्माओं और जैनधर्मकी वेदियों पर बलिदान हुए महापुरुषों की मूर्तियों और जनश्रुतियोंके अतिरिक्त, दक्षिण भारत में अब जैनमतावलम्बियों के उच्चउद्देशों, सर्वाङ्ग व्यापी उत्साह और राजनैतिक प्रभाव के प्रमाण स्वरूप कोई अन्य चिन्ह विद्यमान नहीं है । २२२ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके प्राचीन टीले श्री प्रा० भगवतशरण उपाध्याय, एम. ए. इस लेखका उद्देश्य मथुराके प्राचीन टीलोंकी खुदाइयोंसे प्रादुर्भूत कलानिधियों; विशेष कर जैन भग्नावशेषोंका सिंहावलोकन है । यह उचित ही है कि मथुरा-सी प्राचीन नगरीका संबंध भारतीय पुरातत्त्व और कलाके अनेक स्तरोंसे रहा हो। यद्यपि अत्यन्त प्राचीन महाभारत कालके श्रानुवृत्तिक अवशेष वहां नहीं मिलते परन्तु भारतीय गौरवकालकी कलाके सारे विशिष्ट स्तर वहां मिल गये है । इन स्तरों में वैदिक, जैन, बौद्ध, सभी धर्मों की प्रतिमाएंबड़ी संख्यामें उपलब्ध हुई हैं। इनमें जैनकलाका तो मथुरा मुख्य केन्द्र बन गयी थी। कटरा-टीलेकी खुदाइयां-- १८५३ की जनवरीमें जेनरल सर अलेक्जेंडर कनिंघमको कटरामें कुछ स्तंभ-शिखर (Capital ) और स्तंभ मिले । इनमेंसे एक तो वेष्टनी स्तंभ पर उत्कीर्ण नारी मूर्तिका अवशेष था । उस नारी मूर्तिको वृक्षके नीचे खड़ी होनेके कारण उस पुरातत्त्वविद्ने भ्रमवश 'साल वृक्षके नीचे खड़ी माया' कही । उसी समय उस विद्वानको गुप्तकालीन (प्रायः ४९० ई० का ) एक भग्न अभिलेख भी मिला जिसमें चन्द्रगुप्त द्वितीय तक की गुप्त-वंशावलि दी हई थी। १८६२ ई० में कनिंघमने खोजका काम फिर शुरू किया। उसी कटरा-टीलेसे उन्हें एक सुन्दर अनेक दृश्योंसे उत्कीर्ण तोरण द्वार मिला । इस कालकी सबसे महत्त्वपूर्ण अभिप्राप्ति एक खड़ी बुद्ध प्रतिमा थी । इस पर के ( ५४९.५० ई० ) लेखसे सिद्ध है कि इस मूर्तिको 'बौद्ध परिव्राजिका जयभट्टा ने यशविहारको दान किया था' । इस मूर्तिसे यह भी सिद्ध है कि इस स्थानपर कभी 'यश' नामका बौद्ध विहार अवस्थित था और वह कमसे कम छठी शती ईस्वोके मध्यतक जीवित रहा। बादमे इसके भग्न आधार पर केशवदेवका विष्णु-मन्दिर खड़ा हुआ जिसका हवाला विदेशी यात्री ट्रैवर्नियर, बर्नियर और मनुक्चीने अपने भ्रमण वृत्तान्तोंमें दिया है । औरङ्गजेबने इस मन्दिरको गिराकर इसके भग्नावशेषपर मस्जिद बनवायी । उस प्राचीन मन्दिरकी अधोरेखा (आसन) आज भी देखी जासकती है। बौद्ध मूर्ति अब लखनऊके संग्रहालयमें सुरक्षित है। इस स्थलको 'कटरा-केशवदेव' कहते हैं। २२३ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जमालपुर टीला १८६० ई० में अगर रोड पर जमालपुरके पास जमालपुर-टीलेमें हाथ लगाया गया । कनिंघमने इसे 'जेलवाला टीला' कहा है। हम इसे 'जमालपुर टीला' ही कहेंगे । इस टीलेसे अनेक मूर्तियां स्तंभ, वेदिका-भग्नावशेष, छोटे प्रत्तर-तूप, छत्र, आदि उपलब्ध हुए। कनिंघमने यहांसे मिली दो विशाल बुद्धकी खड़ी मूर्तियां, दो बैठी आदमकद बौद्ध प्रतिमाओं और एक फुट भर चौड़ी हथेलोका जिक्र किया है । सर अलेग्जैडरकी रायमें यहांसे प्राप्त मूर्तियों में सबसे महत्त्वपूर्ण 'वेनास' की थी जो अब लखनऊ संग्रहालयमें प्रदर्शित है। उसी स्थानसे अनेक सिंह प्रतिमाएं और बोसियों भग्न स्तंभ तथा वेदिका-स्तम्भ प्राप्त हुए । इनके अतिरिक्त प्रायः वीस स्तंभ-अाधार मिले जिनमेंसे पन्द्रहपर अभिलेख खुदे थे । ये अधिकतर कुषाण राजा कनिष्क और हुविष्कके शासनकालके थे। इसी स्थानमें बुद्धकी वह अद्भुत अभयमुद्रामें खड़ी प्रतिमा मिली जिसे देखनेके लिए दूर दूरसे यात्री आते हैं । पांचवीं शती ईस्वी की यह मूर्ति यशदिन्न' का अक्षय दान है । कंकाली टीला-- कचहरीकी जमीनसे भी प्रायः तीस स्तंभ-आधार, उपलब्ध हुए है । जिनमें से पन्द्रहपर अभिलेख खुदे थे । श्रीमित्र और डाउसनने इन अभिलेखोंका सम्पादन किया था । १८८१-८२ ई० में कनिंघमने मथुरा संग्रहालयमें तीस हिन्दू-शक स्तंभ देखे । १८७१ में कनिंघमने 'कंकाली' और 'चौबारा' टीलोंमें हाथ लगाया। कंकालीटीला मथुराके सारे अन्य टीलोंसे अधिक उर्वर प्रमाणित हुश्रा। यह कटरासे प्रायः श्राध मील दूर दक्षिणकी अोर है। उससे प्रसूत मूर्ति राशि का पता उस समयसे कुछ साल पूर्व ही लग गया था जब उसे कुछ आदमियोंने ईंट निकालनेके लिए खोदा था। फिर हल्की खुदाईके जरिए हार्डिञ्ज साहबने दो विशाल बुद्ध मूर्तियां प्रान की थीं। इसी कंकालो टीलेके पश्चिमी भागको खोदते हुए कनिधम साहबको तीर्थकरोंकी अभिलिखित भग्न मूर्तियां, वेदिका-स्तंभ और वेष्ठनी आदिके भग्न अवशेष मिले । टीले में खड़ी इंटकी दीवारोंसे सिद्ध है कि यहां हिन्दू-शककालमें जैन विहार खड़े हों गे | यहांसे उपलब्ध जिन बारह अभिलेखोंका कनिंघमने हवाला दिया है वे कनिष्कके शासनकालके पांचवें वर्षसे लेकर वासुदेवके राज्य-कालमें ९८ वें वर्ष तकके हैं । कंकाली टीले का यह जैन भवन उस प्राचीन काल से मुस्लिम कालतक निरन्तर जैन उपासकोंकी धार्मिक अभितृप्ति करता रहा था । जैसा कि यहांसे मिली विक्रमीय बारहवी शतीकी अनेक अभिलिखित जैनमूर्तियोंसे प्रमाणित है। कंकालो टीले और कटरे के बीच भूतेश्वरका शिव मंदिर है। उसके पीछेके टीलेपर एक ऊंचा वेदिका-स्तंभ खड़ा था। उसे ग्राउज़ साहबने मथुरा संग्रहालयको प्रदान किया। इसपर आदमकद २२४ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके प्राचीन टीले छत्रधारिणीकी मूर्ति उत्कीर्ण है। इसके सिरेका दृश्य किसी जातकका है। इस पर १०० की संख्या प्राचीन लिपिमें उत्कीर्ण है । संभवतः इस वेदिकामें इस प्रकारके १०० स्तूप बने हुए थे । भूतेश्वरके दक्षिण क्षेत्रसे भी अनेक भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं । यहां एक चौपालमें जड़े पांच सुन्दर स्तंभ मिले जिनमें से प्रत्येक पर सामने वामन-पुरुषको अपना आधार बनाये खड़ी नारी मूर्ति उत्कीर्ण है । इनके पीछे जातक कथाएं उत्कीर्ण हैं । . सन् १८७१ में कनिंघमने चौबारा नामका टीला खोदा । चौबारा कटरासे मोल भर दक्षिणपश्चिम प्रायः एक दर्जन टोलोंका समूह है । सन् १८६८ में ही सड़क निकालते समय इनमें से एक में एक सुवर्णकी वस्तु मिली । दूसरेसे एक पेटिका मिली जो अब कलकत्तेके संग्रहालयमें है। इनमें से एकसे एक अद्भुत पारसीक स्तंभ-शीर्ष भी उपलब्ध हुया था। इनमें मानव मुखवाले चार पशु उल्टे बने हैं। यह स्तंभ-शीर्ष भी कलकत्तेके संग्रहालयमें ही है। चौबाराके ही एक टीलेसे ग्राउजको एक विशाल बुद्ध मस्तक मिला, जिसके ललाटके बीच 'ऊर्णा' का छिद्र बना हुआ है। यहांसे भी अनेक वेदिका-स्तंभ, भग्न प्रतिमाएं, ग्रादि मिली। ऊपर बताये स्थानोंके अतिरिक्त ग्राउज साहबने अनेक अन्य टीलों का हवाला दिया है जिनसे प्रभूत कला-रत्न प्रसूत हुए हैं । पालीखेड़ा गांवके बाहर वह प्रसिद्ध शिलापट्ट मिला जिसे 'बैकेनेलियन ग्रूप' कहते हैं और जिस पर उभरा हुआ दृश्य 'पातातिशय' का है । इस दृश्य पर ग्रीक शैलीकी स्पष्ट छाप है । इसी टीले में तीन स्तंभोंके घंटाकार आधार एक दूसरे से तेरह फीटकी दूरी पर मिले थे जिससे जान पड़ता है कि इस स्थल पर कभी कोई मन्दिर खड़ा था । नाग की प्रसिद्ध मूर्ति सैदाबाद तहसील के कूकरगांवमें मिली थी। ___जमुनाके तटपर सीतलाघाटीके ऊपर पुराने किले में कनिंधम को 'एक टूटी, नग्न, जैन मूर्ति मिली थी जिसके 'हिन्दू-शक' अभिलेखमें अंक और शब्दोंमें ५७ का वर्ष तिथि रूपमें उत्कीर्ण है।' अर्जुनपुरके उत्तर रानीकीमंडीमें जिनमूर्तिका एक अभिलिखित आधार मिला है जिसमें ६२ वें वर्ष, ग्रीष्मके तृतीय मास और पांचवें दिनका उल्लेख है । कंकाली टीला-- सन् १८८८-९, में डा० फुहरर ने कंकालीटीलेको और सन् १८६६ में कटरा-टीलेको खोदा था । कंकालो टीलेमें दो जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष मिले और एक ईटोंका बना स्तूप मिला जिसका व्यास ४७ फीट था । इन खुदाइयों में प्रभूत मूर्ति राशि मिली। केवल सन् १८९०-९१ की खुदाइयों में ७३७ मूर्तियां उपलब्ध हुई । इनमें अनेक द्वारोंके बाजू , देहली, स्तंभादि भी थे १८८९-९१ की खुदाइयों में विशेष अभिप्राप्ति जैन मूर्तियों और अभिलेखों की हुई । कंकालीटीला जैन भग्नावशषोंकी समाधि सिद्ध हुआ। २९ २२५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ मथुराकी खुदाइयां १८६६ में समाप्त हुई जिनका आरंभ सन् १८५३ में हुआ था । प्रायः इन ४४ वर्षों में जो पुरातत्त्व संबंधी वस्तुएं प्राप्त हुई उनसे इतिहास, भाषा, लिपि, अादि पर बहुत प्रकाश पड़ा है। इनका लिपि विस्तार तो मौर्य काल से लेकर गुप्त-काल तक रहा है। इन स्थलोंसे उपलब्ध अभिलेखों से ज्ञात होता है कि किस प्रकार प्राकृत धीरे धीरे संस्कृत के शिकंजे में जकडकर टूट गयी और संस्कृत ही अधिकतर इस कालके पश्चात् अभिलेखों की भाषा बन बैठी । इन अभिलेखों से कुषाण राजाओं की शासन अवधियां भी प्रायः स्थिर हो गयी हैं । परन्तु जो इन खुदाइयोंका सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा है। वह है भारतीय तक्षण-कलाके इतिहास पर । भारतीय कुषाण-कला मथुराके ही अाधार से उठी और फैली थी । गान्धार-ग्रीक शैलीका भारतीय-करण भी अधिकतर यहीं हुआ था। जैन मूर्तिकला ऊपर लिखी खुदाइयों में जो जैन मूर्तियां और अन्य भग्नावशेष मिले हैं वे अधिकतर और मूलतः कंकालीटीले से ही उपलब्ध हुए हैं। प्रमाणतः प्राचीन मथुरामें जैन सम्प्रदायका विहार इसी कंकालीटीलेकी भूमिपर अवस्थित था। वहां के अभिलेखों से सिद्ध है कि यह जैन-श्रावास मुस्लिम विजयों के समय तक जीवित था जब मथुराके अन्य प्राचीन पीठ कभीके खण्डहर बन चुके थे। इस टीले से डा० फुहररने जैन तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियां खोद निकाली थीं। ये मूर्तियां विविध काल और विभिन्न परिमाणकी हैं और अब लखनऊ संग्राहालयमें प्रदर्शित हैं । मथुराके संग्राहालयमें भी लगभग ८०-६० की संख्यामें इस प्रकारकी कुछ नग्न मूर्तियां सुरक्षित हैं । इधर हाल की खुदाइयोंमें भी कुछ जैन मूर्तियां मिली हैं परन्तु वे अधिकतर भग्न हैं । तीर्थंकर मूर्तिकी कल्पना यथार्थतः पूर्णतया भारतीय है । इनके ऊपर किसी प्रकारका ग्रीकप्रभाव नहीं है और जैन 'अायागपट्टों' पर खुदी प्राकृतियां तो निस्सन्देह, जैसा उनके अभिलेखोंसे सिद्ध है, प्राक्कुषाणकालीन हैं । तीर्थंकर-मूर्ति बुद्ध और बोधिसत्त्वकी मूर्तियों से अपनी नग्नताके कारण सरलतासे पहचानी जा सकती हैं । जैन मूर्तिकी यह सबसे स्पष्ट और सशक्त पहचान है यद्यपि यह बात दिगम्बर सम्द्रदायकी ही मूर्तियों के संबंध में यथार्थतः कही जा सकती है, श्वेतांबरोंकी मूर्तियां वस्त्राभूषण, मुकुटादि से सुशोभित रहती हैं । मथुरा और लखनऊ संग्रहालयों की सारी जैन मूर्तियां ( तीर्थंकर ) दिगम्बर संप्रदायकी ही हैं। बुद्ध-मूर्तियों की भांति इनके हाथ और पैरोंके तलवों पर तो महापुरुष-लक्षण उत्कीर्ण होते ही हैं, उनके वक्षके मध्यमें भी ये लक्षण होते हैं । बुद्ध मूर्तियोंके केशकी भांति इनके केश भी अधिकतर घुघराले और ऊपर दाहिनी श्रोरको घुमे होते हैं । परन्तु प्राचीनतर मूर्तियोंमें केश कन्धों पर खुले गिरे होते हैं । प्राचीन जैन तीर्थंकर मूर्तियोंके न तो 'उष्णीष' होता है न 'ऊर्णा' परन्तु मध्यकालीन प्रतिमाओंके मस्तक पर एक प्रकार का हल्का शिखर मिलता है । २२६ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके प्राचीन टीले पद्मासन-- बैठी जिन मूर्तियां प्रायः सदा ध्यान मुद्रामें उत्कीर्ण होती हैं । जिनके हाथ गोदमें पड़े होते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि ये प्रतिमाएं 'फिनिश' और कलात्मकतामें बौद्ध मूर्तियोंकी बराबरी नहीं कर सकतीं । उनकी अनवरत एक-रूपता और रूढ़ि-लाक्षणिकता दर्शकको निराश कर देती है यद्यपि इन मूर्तियोंमें भी कभी कभी अपवाद मिल जाते हैं। प्राचीन तीर्थंकर मूर्तियोंमें से एक मथुरामें सुरक्षित नं० बी० ४ है। इस पर कुषाण राज वासुदेवके शासनकालका एक अभिलेख खुदा है । इसके आधार पर सामने दो सिंहोंके बीच धर्मचक्र बना है जिसके दोनों ओर उपासकोंके दल हैं। कुषाण कालीन तीर्थकर मूर्तियों पर इस प्रकारका प्रदर्शन एक साधारण दृश्य है । उस कालकी बुद्ध-मूर्तियोंकी भी यही विशेषता है, अंतर केवल इतना है कि उनमें धर्मचक्रके स्थान पर किसी बोधिसत्त्वकी प्रतिमा खुदी होती है । उपासकोंका जो प्रदर्शन होता है वह वास्तवमें उन मूर्तियोंके दाताओंका है । एक बृहदाकार बैठी जिन मूर्ति बी० १ है जो संभवतः गुप्तकालीन है यद्यपि इसकी शैली प्रायः कुषाणकालीन ही है । खड्गासन खड़ी जिन मूर्तियां बैठी मूर्तियोंसे अधिक सादी हैं । कलाका दम इनमें तो और भी घुट गया है । बाहुअोंका पार्यों में गिरना भावोंकी कठोरता और प्राकृतिकी नीरसताको और बढ़ा देता है। यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि जैनमूर्तियां तपकी कठोरताका प्रतीक हैं और इनकी शुष्कता सर्वथा अचेतन नहीं है। तीर्थंकरोंकी एक विशिष्ट प्रकारकी मूर्ति प्रतिमा सर्वतो भद्रिका' नामसे विख्यात है। यह मूर्ति चतुमुखी होती है, वर्गाकार इसका रूप होता है। इसमें चारों ओर तीर्थंकर खड़ी अथवा बैठी मुद्रामें बने होते हैं । इसके आधारके चारों किनारों पर उपासकों की प्राकृतियां उत्कीर्ण होती हैं । इसमें से एकका मस्तक नागके फणोंकी छायामें प्रदर्शित होता है । यह श्राकृति सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व नाथ अथवा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है । इस प्रकारकी अनेक 'सर्वतो भद्रिका' प्रतिमाएं मथुरा और लखनऊके संग्रहालयोंमें संग्रहीत हैं । कुषाण और गुप्तकालीन मूर्तियों में विभिन्न तीर्थंकरोंकी विशेषताएं साधारणतया नहीं दी होती हैं । नागफणों वाला लक्षणमात्र जहां तहां मिल जाता है, हां नीचेके अभिलेखोंमें प्रायः मूर्तिके तीर्थंकर का नाम खुदा होता है। चिन्ह तथा आयागपट• मध्यकालीन जिन-मूर्तियोंके आधार पर अधिकतर एक विशिष्ट 'चिन्ह' (लाञ्छन ) बना होता है जिससे उनके तीर्थंकरोंकी संज्ञा स्पष्ट हो जाती है। प्रथम तीर्थंकर श्रादिनाथ अथवा ऋषभनाथ २२७ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ का लाञ्छल वृषभ है । जैनमूर्तियां अधिकतर (मध्यकालीन ) अकेली नहीं होती। इनमें विशिष्ट मूर्तिके समीप अनेक अनुचरांकी श्राकृतियां उत्कीर्ण होती हैं जिनमें चमरधारक किनारों पर खड़े होते हैं, उपासक झुके होते हैं । इनके अतिरिक्त गजारोही, सजवाही, आदि अनेक पार्षद भी सजग खिंचे होते हैं । स्वयं तीर्थंकर छत्रके नीचे बैठे होते हैं । जैन कलामें भी बौद्ध कलाकी ही भांति यक्षोंकी परम्पराका समावेश हुअा है । जैन मूर्तियोंकी पूजाके अतिरिक्त इस संप्रदायमें एक और वस्तुकी भी पूजा हुअा करती थी । यह एक प्रकारका प्रस्तर फलक होता था जिसे 'अायागपट' कहते थे और जिसकी भूमि स्तूप, तोरण और अन्य प्राकृतियोंसे भरी होती थी। इसके अनेक नमूने मथुरा और लखनऊके संग्रहालयों में सुरक्षित हैं । DID00 २२८ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा से प्राप्त दो नवीन जैन अभिलेख श्री क्यूरेटर कृष्णदत्त वाजपेयी, एम० ए० ईसापूर्व सातवीं शती से लेकर लगभग बारहवीं शती तक मथुरा नगरी जैनधर्म और कलाका प्रधान केन्द्र थी । कंकाली टीले तथा अन्य स्थानोंसे प्राप्त सैकड़ों तीर्थंकर - मूर्तियां मांगलिक चिह्नोंसे (अष्टमंगल द्रव्य) युक्त श्रायागपट्ट, देवोंकिन्नरों आदि से वंदित स्तूप, अशोक, चंपक नागकेशर वृक्षोंके नीचे आकर्षक मुद्रा में खड़ी हुई शालभंजिकात्रों से सुशोभित वेदिका-स्तंभ तथा अनेक प्रकारके कलापूर्ण शिलापट्ट शिरदल, आदि यह उद्घोषित करते हैं कि मथुराके शिल्पी अपने कार्य में कितने पटु थे ! साथ ही जैनधर्म के प्रति तत्कालीन जनताकी अभिरुचिका भी पता चलता है । मथुराके पुरातत्त्व संग्रहालय में मैंने धर्म और कला के अध्ययनकी अपार सामग्री देखी है । आशा है कि कंकाली टीले से खुदायीमें प्राप्तवह सामग्री जो १८८८- ९१ में ई० में लखनऊ संग्राहलय में भेज दी गयी थी फिर मथुरा वापस श्रा जाय गी, जिससे एक स्थान पर ही सारी सामग्रीका अध्ययन करनेमें सुगमता हो सके गी । - अनेक प्राचीन स्थानों से अब भी प्रति वर्ष सैकड़ों मूर्तियां, आदि शिलालेख भी मिले हैं, जिनमें से दो का संक्षिप्त उल्लेख यहां मथुरा शहर तथा जिले के प्राप्त होती रहती हैं । हालमें कई जैन किया जाता है पार्श्वनाथ- प्रतिमाकी चौकीपर का लेख यह लेख सं ० २८७४ ध्यान मुद्रामें बैठे हुए भगवान् पार्श्वनाथकी विशाल प्रतिमा ( ऊंचाई ३ फी० १० इं० ) की चौकी पर खुदा हुआ है, जो इस प्रकार है “संवत् १०७१ श्रीमूलसंघः श्रावक वणिक् जसराक भार्या सोमा... लेखका अभिप्राय यह है कि संवत् १०७१ में श्रीमूल संघके श्रावक जसराक नामक वणिक की भार्या सोमाने भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठापित की। यह संवत् विक्रम संवत है। मथुरा से प्राप्त अन्य समकालीन मूर्तियों पर भी इसी संवत्का व्यवहार हुआ है । अतः प्रस्तुत मूर्तिका १०१४ ई० आता है । निर्माण काल २२९ 33 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वर्धमान प्रतिमाका लेख-- यह लेख सं० ३२०८ मूर्तिकी चौकी पर दो पंक्तियों में खुदा हुआ है और इस प्रकार है(पं० १) “सं ८२ हे मासे १ दिवसे १० एत......." (पं० २ ) "[ भगि ] निये जयदेवीये भगवतो वर्धमा [ न ]....." दोनों पंक्तियोंके अन्तिम अंश पत्थरके टूट जानेसे नष्ट हो गये हैं । लेख कुषाण-कालीन ब्राह्मी लिपिमें हैं तथा इसकी भाषा पाली है, जो मथुरासे प्राप्त अधिकांश जैन अभिलेखों में मिलती है। लेखका तात्पर्य है कि सं० ८२ की हेमंत ऋतुके प्रथम मासके दसवें दिन किसी श्रावककी भगिनी जयदेवीने भगवान् वर्धमानकी प्रतिमा स्थापित की । सं० ८२ निश्चय ही शक संवत् है । इसके अनुसार मूर्ति स्थापना का काल १६० ई० श्राता है, जब कि मथुरामें कुषाणवंशी वासुदेवका शासन था। निष्कर्ष ___ उपयुक्त दोनों लेख संवत्-सहित होनेके कारण महत्त्वके हैं । पहले लेखका संवत् १०७१ है । कंकाली टीलेसे १८८९ ई० की खुदाईमें डा० फ्यूहररको दो विशालकाय तीर्थंकर प्रतिमाएं मिलों थीं। दोनों श्वेताम्बर सम्प्रदायके द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थीं, जैसा कि उनके लेखोंसे पता चलता है । इनमें से एक पर विक्रम संवत् १०३८ ( = ९८१ ई०) तथा दूसरी पर सं० ११३४ (= १०७७ ई०) खुदा है । पार्श्वनाथकी मूर्ति, जिसका वर्णन ऊपर किया गया है इन दोनों मूर्तियों के निर्माण कालोंके बीच में बनी थी । इतिहाससे पता चलता है कि महमूद गजनीने १०१८ ई० में मथुराका प्रथम विध्वंस किया । ऊपरकी तीनों मूर्तियोंमें से दो का निर्माण इस विध्वंसकारी कालके पहले ही हो चुका था और तीसरी (सं० ११३४ वाली ) का बादमें । परंतु पहली दोनों अच्छी दशामें प्राप्त हुई हैं और कहींसे नहीं टूटी हैं, जब कि सं० ११३४ वाली मूर्तिके दोनों बाहु बुरी तरहसे तोड़ डाले गये हैं। हो सकता है कि पहले वाली दोनों मूर्तियां किसी तरह सुरक्षित कर ली गयी हों अोर इसी लिए वे अभग्नावस्थामें प्राप्त हो सकी हैं। स्त्रियोंका धर्म प्रेम ऊपर जिन दोनों लेखोंका उल्लेख किया गया है उनके संबंधमें दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनोंमें महिलाओंके द्वारा दानका कथन है। पहली मूर्ति (नं० २८५४ ) एक वणिककी भार्या सोमाके द्वारा निर्मित करायी गयी तथा दूसरी (नं० ३२०८ ) जयदेवीके द्वारा । यह बात ध्यान देनेकी है कि मथुरासे प्राप्त सैकड़ों जैन अभिलेखोंसे पता चलता है कि धर्मके प्रति स्त्रियोंकी आस्था पुरुषोंसे कहीं अधिक थी और धर्मार्थ दान देनेमें वे सदा पुरुषोंसे अग्रणी रहती थीं । उदाहरणार्थ, 'माथुराक लवदास'की भार्या तथा फल्गुयश नर्तककी स्त्री शिवयशाने एक एक सुंदर अायागपट्ट बनवाया, जो २३० Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरासे प्राप्त दो नवीन जैन अभिलेख इस समय लखनऊ संग्रहालयमें हैं। इसी प्रकारका एक अत्यन्त मनोहर अायागपट्ट ( मथुरा म्यू० नं० क्यू. २ ) वसु नामकी वेश्याने, जो लवणशोभिकाकी लड़की थी, दानमें दिया । वेणी नामक श्रेष्ठीकी धर्मपत्नी कुमारमित्राने एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाकी स्थापना करवायी और सुचिलकी स्त्रीने शांतिनाथ भगवान् की प्रतिमा दानमें दी। मणिकार जयभट्टिकी दुहिता तथा लोहवणिज फल्गुदेवकी धर्मपत्नी मित्राने वाचक आर्यसिंहकी प्रेरणासे एक विशाल जिन प्रतिमाका दान दिया । आचार्य बलदत्तकी शिष्या 'तपस्विनी' कुमारमित्राने एक तीर्थंकर मूर्तिकी स्थापना करवायी। ग्रामिक जयनागकी कुटुम्बिनी तथा ग्रामिक जयदेवकी पुत्रवधूने सं० ४० ( = ११८ ई० ) में एक शिलास्तंभका दान दिया । गुहदत्तकी पुत्री तथा धनहस्तकी पत्नीने धर्मार्थ नामक एक श्रमणके उपदेशसे एक शिलापट्टका दान किया, जिसपर स्त्प-पूजाका दृश्य अंकित है । श्राविका दत्ताने सं० २० ( = ६८ ई० ) में वर्धमान प्रतिमाको प्रतिष्ठापित किया । राज्यवसुकी स्त्री तथा देविलकी माता विजयश्रीने एक मासका उपवास करनेके बाद सं० ५० ( = १२८ ई० ) में भगवान् वर्धमान की प्रतिमाकी स्थापना करायी थी । इस प्रकारके अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनसे इस बातका स्पष्ट पता चलता है कि प्राचीन मथुरामें जैनधर्मकी उन्नतिमें महिलाओंका बहुत बड़ा भाग था । २३१ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्वकी शोध जैनोंका कर्तव्य श्री डा० वेन्सेन्ट ए० स्मिथ, एम्० ए० पुरातत्त्व सम्बन्धी खोजकी आवश्यकता __ जो विद्यार्थी भारतवर्ष संबंधी किसी विषयका अध्ययन करते हैं वे सब इस बातको न्यूनाधिक रूपमें भली भांति जानते हैं कि पुरातत्त्वकी खोज द्वारा पिछले ७०-८० वर्ष में ज्ञानकी कितनी वृद्धि हुई है। पुरातत्त्वसंबंधी खोजके अनुसार मौखिक और लिखित कथाअोंके प्रमाणकी मर्यादा निश्चित की गयी है और इन्हीं अन्वेषणोंकी सहायतासे मैं प्राचीन भारतका कथामय इतिहास लिखनेमें समर्थ हुअा हूं । बड़ी मेहनतके साथ लगातार जमीन खोदनेसे जो सिक्के, शिलालेल, भवन, धर्म-पुस्तकें, चित्र और बहुत तरहकी स्फुट अवशिष्ट चीजें मिली हैं उनकी सहायतासे हमने प्राचीन ग्रंथों में लिखे हुए भारतीय इतिहासके ढांचेकी पूर्ति की है, अपने ज्ञानको जो पहले अस्पष्ट था शुद्ध बनाया है और कालक्रमकी मजबूत पद्धतिकी नींव डाली है। जैनोंके अधिकार में बड़े बड़े पुस्तकालय (भंडार ) हैं जिनकी रक्षा करनेमें वे बड़ा परिश्रम करते हैं । इन पुस्तकालयोंमें बहुमूल्य साहित्य भरा पड़ा है जिनकी खोज अभी बहुत कम हुई है । जैन ग्रंथ ख़ास तौर पर ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक समाग्रीसे परिपूर्ण हैं । परन्तु साहित्य संबंधी कथाएं बहुधा त्रुटिपूर्ण हैं । इसलिए सत्यके निर्णयके लिए पुरातत्त्व संबंधी खोजकी जरूरत है। धनाढ्य जैनोंका कर्तव्य दूसरे समाजोंको देखते हुए जैनसमाजमें धनाढ्य मनुष्योंकी संख्या बहुत बड़ी चढ़ी है और ये लोग किसी तरहके सार्वजनिक काममें, जो उनके चित्तका आकर्षण करता हो, सुभीते के साथ रुपया खर्च कर सकते हैं । मेरा भाषा संबंधी ज्ञान इतना काफी नहीं है कि मैं साहित्य ग्रन्थोंकी परीक्षा कर सकं अथवा उनका सम्पादन कर सकं । अतएव मैं एक और विषयके संबंधमें, जिसका मैं जानकार हूं, कुछ कहने का साहस करता हूं और मैं कुछ ऐसी सम्मतियां देता हूं, जिनके अनुसार चलनेसे बहुतसी बहुमूल्य बातें हाथ लग सकें गी । मेरी इच्छा है कि जैनसमाजके लोग और विशेष कर धनाढ्य लोग जो रुपया खर्च कर सकते हैं पुरातत्त्वसंबंधी खोजकी ओर ध्यान दें और इस काममें अपने धर्म और समाजके इतिहासकी अोर विशेष लक्ष्य रखते हुए धन खर्च करें। २३२ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्वकी शोध जैनों का कर्तव्य खोजके लिए पर्याप्त क्षेत्र खोजके लिए बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा है । आजकल जैनमतावलम्बी अधिकतर राजपूताना और पश्चिमी भारतवर्ष में रहते हैं । परन्तु हमेशा यह बात नहीं रही है । प्राचीन कालमें महावीर स्वामीका धर्म श्राजकली पेक्षा बहुत दूर दूर तक फैला हुआ था । एक उदाहरण लीजिये - जैनधर्मके अनुयायी पटना के उत्तर वैशाली में और पूर्व बंगालमें श्राजकल बहुत कम हैं; परन्तु ईसाकी सातवीं शतीमें इन स्थानों में उनकी संख्या बहुत ज्यादा थी। मैंने इस बातके बहुतसे प्रमाण अपनी आखोंसे देखे हैं कि बुंदेलखंड में मध्यकाल में और विशेष कर ग्यारहवीं और बारहवीं शतियोंमें जैनधर्मकी विजय पताका खूब फहरा रही थी। इस देशमें ऐसे स्थानों पर जैनमूर्तियों का बाहुल्य है, जहां पर अब एक भी बैनी नहीं दिखता । दक्षिण और तामिल देशों में ऐसे अनेक प्रदेश है जिनमें जैनधर्म शतियों तक एक प्रभावशाली राष्ट्रधर्म रह चुका है किन्तु वहां अब उसका कोई नाम तक नहीं जानता । । चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में प्रचलित कथा J जो बातें मैं सरसरी तौर पर लिख चुका हूं उनमें खोजके लिए बेहद गुंजाइश है। मैं विशेषकर एक महत्वपूर्ण बातकी खोज के लिए अनुरोध करता हूं। वह यह है कि महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य 'श्रीभद्रबाहु के साथ अवणबेलगोला गये और फिर उन्होंने जैन सिद्धान्त अनुसार उपवास करके धीरे धीरे प्राण तज दिये, यह कहां तक ठीक है ' निस्संदेह कुछ पाठक यह जानते होंगे कि इस विषय पर मिस्टर लूइस राइस और डाक्टर फ्लीटमें खूब ही वादविवाद हो चुका है। अब समय आ गया है कि कोई जैन विद्वान् कदम बढ़ावे और इस पर अपनी दृष्टिसे वादविवाद करे। परन्तु इस काम के लिए एक वास्तविक विद्वानकी आवश्यकता है, जो ज्ञानपूर्वक विवाद करे ऊटपटांग बातोसे काम नहीं चलेगा । १ लेखक ने अपने भारतीय इतिहास के तीसरे संस्करणमें चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा हैं, उसे यहां दे देना अनुपयुक्त न होगा। उन्होने लिखा है 'मैंने अपनी पुस्तक के द्वितीय संस्करण में इस कथाको रद्द कर दिया था। और बिल्कुल कल्पित ख्याल किया था। परन्तु इस कथा की सत्यता के विरुद्ध जो जो शंका है उन पर पूर्ण रूपसे पुनः विचार करने से अब मुझे विश्वास होता है कि यह कथा संभवतया सच्ची है। और चन्द्रगुप्त ने वास्तव में राजपाट छोड़ दिया होगा । और वह जेन साधु हो गया हो गा । निःसन्देह इस प्रकार की कथाएं बहुत कुछ समालोचना के योग्य हैं और लिखित साक्षीसे ठीक ठीक पता लगता नहीं, तथापि मेरा वर्तमान में वह विश्वास है कि यह कथा सत्य पर निर्धारित है और इसमें सचावी है। राईस साहब ने इस कथा की सत्यताका अनेक रथी पर बड़े जोर से समर्थन किया है पृ. १४५) यद्यपि जेन विद्वानोंने इस दिशा में कुछ नहीं बिदा है. तथापि 'स्वान्तः सुखाय' ऐतिहासिक शोध रत विद्वानों की साधना ने भारतके आदि सम्राट चन्द्रप्तमीके जैन वर्णन की सत्यता प्रमाणित कर दी है। जिसको जैन साहित्यकी सहायता से सर्वाङ्ग सुन्दर बनाया जा सकता है ३० २३३ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अाजकलकी विद्वन्मंडली हर बातके प्रमाण मांगती है और यह चाहती है कि जो बात कही जाय वह ठीक हो और उसके विषयमें जो विवाद किया जाय वह स्पष्ट और न्याययुक्त हो । दक्षिणका धार्मिक युद्ध जिन बड़े बड़े प्रदेशोंमें जैनधर्म किसी समय फैला हुआ था बल्कि बड़े जोर पर था वहां उसका विध्वंस किन किन कारणों से हुश्रा, उनका पता लगाना हमारे लिए सर्वथा उपयुक्त है । और यह खोज जैनविद्वानों के लिए बड़ी मनोरंजक भी हो गी । इस विषयसे मिलता जुलता एक विषय और है जिसका थोड़ा अध्ययन किया गया है । वह दक्षिणका धार्मिक युद्ध है और खासकर वह युद्ध है जो चोलवंशीय राजाओंको मान्य शैवधर्म और उनके पहले के राजाओंके श्राराध्य जैनधर्ममें हुअा था। अध्ययनके लिए कुछ पुस्तकें-- इन बातोंकी अच्छी तरह खोज करनेके लिए हमको पहले जैनस्मारकों, मूर्तियों और शिलालेखों का कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये । बहुतसे ऐसे स्मारक (मन्दिर, महल, श्रादि) अब भी जमीनके नीचे दबे पड़े हैं और आवश्यकता है कि कोई कुशल शोधक उनको खोदकर निकाले । जो व्यक्ति जैनोंके महत्त्वपूर्ण भग्नावशेषोंकी जांच करना चाहे उसको प्राचीन चीनी यात्रियों और विशेषकर हुएनसांग की पुस्तकोंका अध्ययन करना चाहिये । हुएनसांगको यात्रियोंका राजा कहनेमें अत्युक्ति न हो गी । उसने ईसाकी सातवीं शती में यात्रा की थी और बहुतसे जैन स्मारकोंका हाल लिखा, जिनको लोग अब बिलकुल भूल गये हैं। हुएनसांगकी यात्रा संबंधी पुस्तकके विना किसी पुरातत्त्वान्वेषीका काम नहीं चल सकता। हां मैं जानता हूं कि जो जैन विद्वान् उपयुक्त पुस्तकोंसे काम लेना चाहता है वह यदि चीनी भाषा न जानता हो, तो उसको अंगरेजी या फ्रेंच भाषाका जानकार होना चाहिये । परन्तु मैं ख्याल करता हूं कि आजकल वहुत से जैनी अपने धर्मशास्त्रोंके विद्वान होकर अंगरेजी पर भी इतना अधिकार रखते हैं कि वे इस भाषाकी उन तमाम पुस्तकोंका उपयोग कर सकते हैं, जो उनको सफलता पूर्वक अध्ययन करनेमें जरूरी हो और एक ऐसे समाजके मनुष्योंको, जो सम्पत्ति शाली हैं, पुस्तकोंके मूल्यसे न डरना चाहिये । जैनस्मारकोंमें बौद्धस्मारक होनेका भ्रम-- कई उदाहरण इस बातके मिले हैं कि वे इमारतें जो असल में जैन हैं गलतीसे वौद्ध मान ली गयी थीं। एक कथा है जिसके अनुसार लगभग अठारह सौ वर्ष हुए महाराज कनिष्कने एक बार एक जैन स्तूपको गलतीसे बौद्ध स्तूप समझ लिया था और जब वे ऐसी गलती कर बैठते थे, तब इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि अाजकलके पुरातत्त्ववेत्ता, जैन इमारतोंके निर्माणका यश कभी कभी बौद्धोंको दे देते हों। मेरा विश्वास है कि सर अलेक्जेण्डर कनिंघमने यह कभी नहीं जाना कि जैनोंने भी बौद्धोंके समान स्वभावतः २३४ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्त्वकी शोध जैनोंका कर्तव्य तूस्प बनाये थे और अपनी पवित्र इमारतोंके चारों ओर पत्थरके घेरे लगाये थे । कनिंघम ऐसे घेरोंको हमेशा 'बौद्ध घेरे' कहा करते थे और उन्हें जब कभी किसी टूटे फूटे स्तूपके चिन्ह मिले तब उन्होंने यही समझा कि उस स्थानका संबंध बौद्धोंसे था । यद्यपि बम्बईके विद्वान पंडित भगवानलाल इन्द्रजीको मालूम था कि जैनोंने स्तूप बनवाये थे और उन्होंने अपने इस मतको सन् १८६५ ईसवीमें प्रकाशित कर दिया था, तो भी पुरातत्त्वान्वेषियोंका ध्यान उस समय तक जैनस्तूपोंकी खोजकी तरफ न गया जब तक कि तीस वर्ष बाद सन १८९७ ईसवीमें बुहलरने अपना “मथुराके जैनस्तूपकी एक कथा" शीर्षक निबंध प्रकाशित न किया । मेरी पुस्तक-जिसका नाम “मथुराका जैनस्तूप और अन्य प्राचीन वस्तुएं" है सन् १६०१ ईसवीमें प्रकाशित हुई जिससे सब विद्यार्थियोंको मालूम हो गया कि बौद्धोंके समान जैनोंके भी स्तूप और घेरे किसी समय बहुलतासे मौजूद थे । परन्तु अब भी किसीने जमीनके ऊपरके मौजूद-स्तूपोंमें से एकको भी जैनस्तूप प्रकट नहीं किया । मथुराका स्तूप जिसका हाल मैंने अपनी पुस्तकमें लिखा है बुरी तरहसे खोदे जानेसे बिलकुल नष्ट हो गया है। मुझे पक्का विश्वास है कि जैनस्तूप अब भी विद्यमान हैं और खोज करने पर उनका पता लग सकता है और स्थानोंकी अपेक्षा राजपूतानेमें उनके मिलनेकी अधिक संभावना है। कौशाम्बी विषयक चर्चा मेरे ख्यालमें इस बातकी बहुत कुछ संभावना है कि जिला इलाहाबादके अंतर्गत 'कोशम' ग्रामके भग्नावशेष प्रायः जैन सिद्ध होंगे-वे कनिंघमके मतानुसार बौद्ध नहीं मालूम होते । यह ग्राम निस्संदेह जैनोंका कौशाम्बी नगरी रहा होगा और उसमें जिस जगह जैन मन्दिर मौजूद है वह स्थान अब भी महावीरके अनुयायीयोंका तीर्थक्षेत्र है। मैंने इस बातके पक्के सबूत दिये हैं कि बौद्धोंकी कौशाम्बी नगरी एक अन्य स्थान पर थी जो बारहटसे दूर नहीं है। इस विषय पर मेरे निबंधके प्रकाशित होनेके बाद डाक्टर फ्लीटने यह दिखलाया है कि पाणिनिने कौशाम्बी और वन-कौशाम्बीमें भेद किया है। मुझे विश्वास है कि बौद्धोंकी कौशाम्बी नगरी वन ( जंगल) में वसी हुई वन-कौशाम्बी थी। मैं कोशमकी प्राचीन वस्तुओंके अध्ययनकी ओर जैनोंका ध्यान खास तौर पर खींचना चाहता हूं। मैं यह दिखलानेके लिए काफी कह चुका हूं कि इस विषयकी बहुत सी बातोंका निर्णय होना बाकी है। प्राप्त प्रतिष्ठित स्मारकोंका पुनः निरीक्षण-- भूमिके ऊपर प्राप्त जैन खण्डहरोंके रूपको सावधानीके साथ अनुशीलन करने और लिखने से बहुतसी बातोंका पता लग सकता है। इन भवनोंका अध्ययन जैन ग्रंथों और चीनी प्रवासियों तथा अन्य लेखकोंकी पुस्तकोंके साथ करना चाहिये । जो मनुष्य इमारतोंके निरीक्षण करने और उनका २३५ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थं वर्णन लिखने का काम करें उनको सफलता प्राप्त करने के लिए उन मानचित्रोंको जो प्राप्य है बुद्धिमानी के साथ काममें लाना चाहिये; आसपासके स्थानोंका हाल साफ साफ लिखना चाहिये, हरएक चीज का नाम ठीक ठीक लिखना चाहिये और खूब फोटो लेने चाहिये । चाहे भूमि खनन का काम न भी किया जाय तो भी ऐसे निरीक्षणों से जैनधर्म के इतिहास पर और विशेष कर इस बात पर कि जैनधर्मका विध्वंस उन देशों में कैसे हुआ जहां उसके किसी समय बहुसंख्याक अनुयायी थे, बहुत प्रकाश पड़ेगा | ग्रंथावलि -- मैं सब जिज्ञासुत्रों से अनुरोध करता हूं कि वे श्रो० गुरिनौके महान् ग्रन्थ " जैन ग्रन्थावलिके विषय में निबंध" को पढ़ें । यह ग्रन्थ पेरिस में सन् १९०६ ईसवी में छपा था। इस ग्रन्थका एक परिशिष्ट " जैन ग्रन्थावली पर टिप्पणियां " भी जुलाई-अगस्त सन् १९०९ के एशियाटिक जरनल में निकल चुका है । सन् १९०९ ईसवी तक जैनधर्मके विषय में पुस्तकों, समाचारपत्रों इत्यादि में जो कुछ किसी भी भाषा में छप चुका है उन सबका परिचय उन ग्रंथों में दिया गया है। ये ग्रंथ फ्रेंच भाषाओं में हैं परन्तु जो मनुष्य फ्रेंच भाषा नहीं जानता वह भी इन पुस्तकों से लाभ उठा सकता है । खनन कार्य -- महल इत्यादिकी खोज के लिए जमीनको खोदनेका काम ज्यादा मुश्किल है और यह काम यदि विस्तार के साथ किया जाय, तो पुरातत्त्व विभागके डाइरेक्टर जनरल या किसी प्रांतीय अधीकारी की सम्मतिसे होना चाहिये | बुरे प्रकार से और लापरवाही के साथ खुदायी करनेसे बहुत हानी हो चुकी है। मैं ऊपर कह आया हूं कि मथुराके बहुमूल्य जैनस्तूपका किस तरह सत्यानाश हो गया और उसकी खुदायीके संबंधकी जरूरी बातें फोटो, इत्यादि भी नहीं रक्खे गये। यह जरूरी है कि खुदायी का काम होते समय जरा जरा सी बातोंको भी लिखते जाना चाहिए जो चीज जिस जगह पर मिले उस स्थानको ठीक ठीक लिख लेना चाहिये, और शिलालेखों पर कागज चिपकाकर उनकी नकल उतार लेनी चाहिये | खुदायीके काममें प्रवीण निरीक्षककी आवश्यकता है । कार्यारम्भ प्रकार- अन्तमें मैं यह प्रस्ताव करता हूं कि जैनोंको एक पुरातत्त्व संबंधी समिति स्थापित करनी चाहिए जो ऊपर कहे हुए मार्ग के अनुसार ऐतिहासिक खोजका कार्यक्रम तैयार करे और आवश्यकतानुसार धन इकट्ठा करे । धनकी मात्रा बहुत होनी चाहिये । यदि कोई जैन कार्यकर्ता, जो पर्याप्त योग्यता रखता हो और जिसे जैन समाजसे वेतन मिलता हो सरकारी पुरातत्व विभाग ( Archaeological survey ) में उसकी सेवाएं समर्पित कर दी जाय, तो वह बहुत काम कर सकता है यह और भी अच्छा होगा कि ऐसे कई कार्यकर्ता सरकारी अधिकारियोंके निरीक्षण में काम करें । २३६ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामीकी पूर्व परम्परा श्री प्रा० त्र्यम्बक गुरुनाथ काले, एम० ए० बुद्ध और पाश्वनाथ देवसेनाचार्यकृत दर्शनसारमें,' जो कि संवत् ९९० में उज्जैनमें लिखा गया है, यह लिखा है कि पार्श्वनाथ स्वामीके तीर्थ (भ० पार्श्वनाथके कैवल्यसे भ० महावीरकी कैवल्य प्राप्ति तकका काल) में एक बुद्धि कीर्ति नामका साधू था, जो शास्त्रोंका ज्ञाता और पिहिताश्रवका शिष्य था तथा पलाशनगरमें सरयू नदीके तटपर तपश्चर्या कर रहा था। उसने सोचा कि, मरी हुई मछलीका मांस खानेमें कोई हानि नहीं है क्यों कि वह निर्जीव है। फिर तप करना छोड़कर और रक्तवस्त्र पहिनकर वह बौद्ध धर्मका उपदेश देने लगा । इस प्रकार जैनमतानुसार बुद्ध पहले जैनमुनि था, जिसने विपरीत विचार करके मांस भक्षण करनेका उपदेश दिया और लाल वस्त्र धारण कर अपना धर्म चलाया । इतना ही नहीं, कहा जाता है कि जैन बौद्धोंके समकालीन थे, किन्तु ये उन नव दीक्षित बौद्धोंसे भी पहले के हैं। इस कारण जैनधर्म की प्राचीनताका अनुसन्धान जैन, बौद्ध और ब्राह्मण ग्रन्थोंके आधार पर करना चाहिये। जैनशास्त्रानुसार बुद्ध महावीरके शिष्य नहीं थे। किन्तु जैनी कहते हैं कि वह पिहिताश्रवका शिष्य या जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। कोलवक, स्टीवेनसन, मेजर-डेलामेन, डाक्टर हैमिल्टन, इत्यादिने गौतमबद्धको भ० महावीरके प्रशिष्य गौतम इन्द्रभूतिका स्थानीय समझानेकी भूल की है। यह (गौतम इन्द्रभूति ) महावीरके मुख्य गणधर भी थे । इस प्रकार जब कि गौतम गणधर महावीरके शिष्य थे तब कहा जाने लगा कि, गौतमबुद्ध महावीरके शिष्य थे। परन्तु जैनीलोग इस भ्रान्तिसे बिलकुल मुक्त हैं । यह बात ऊपर बतला दी गयी है कि, बुद्धिकीर्ति पिहिताश्रवका शिष्य था जो कि पार्श्वनाथ तीर्थकरके तीर्थकालमें हुए हैं। १. बाबू बनारसीदास द्वारा संपादित "जैन इतिहास माला प्र. १ पृ. १६ । २. "सिरि पासणाह तत्थे सरऊतीरे पलास कायरत्थे। पिहियासवस्स सिस्सो महासुओ बुड्ढि कित्ति मुणी। ६ । तिमि पूरणासणेणय अगणिय पावज्ज जाओ परिभट्टो। रतंवर धरित्ता पविठियं तेन एयंतं । ७।" २३७ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन ग्रन्थ साधू आत्मारामने स्वरचित 'अज्ञानतिमिर भास्कर' में पार्श्वनाथ स्वामीके समय से लगाकर कवल- गच्छुकी पट्टावली लिखी है, जोकि इस प्रकार है- श्री पार्श्वनाथ, श्री शुभदत्त गणधर श्री हरिदत्त जी, श्री श्रार्य समुद्र, श्री स्वामी प्रभासूर्य, श्री केशिस्वामी, साधू आत्मारामजीका ऐसा भी कथन है कि पिहिताश्रव; स्वामी प्रभासूर्य के शिष्य अनेक साधुओंोंमें से एक थे । उत्तराध्ययनसूत्र तथा दूसरे जैनग्रन्थोंसे हमें यह मालूम होता है कि 'केशि' पार्श्व - नाथकी परम्पराका था और भ० महावीर के समय जीवित था । तब बुद्धिकीर्तिको भी महावीरका समकालीन मानना स्वाभाविक हो जाता है, क्योंकि केशिके समान उस ( बुद्धिकीर्ति ) के भी गुरू पिहिताश्रव मुनि थे । ऐसा मालूम होता है कि उसकी उत्पत्ति भ० महावीर से हुई थी । हमें श्री श्रमितिगति श्राचार्यकृत 'धर्मपरीक्षा' ग्रन्थसे भी जो कि संवत् १०७० में बना था ऐसा मालूम होता है कि पार्श्वनाथ के शिष्य मोग्गलायनने महावीर से वैरभाव करके बौद्धधर्म चलाया। उसने शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा समझा था । धर्मपरीक्षा अध्याय १८ में इस प्रकार लिखा है “रुष्टः वीरनाथस्थ तपस्वी मोडिलायनः । शिष्यः श्री पार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् । ६८ । शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् । प्राणिनः कुर्वते किं न कोप वैर पराजिताः । ५९ । यहां प्रथम श्लोक में जो "शिष्य" शब्द श्राया है, उसका अर्थ शिष्य प्रशिष्य करना चाहिये | 'महावग्ग' ग्रन्थके द्वारा हमें मालूम होता है कि, मोग्गलायन और सारिपुत्त ये दोनों ब्राह्मण संजय परिव्राजकके अनुयायी थे, जो संजयके मना करने पर भी बुद्धके पास गये थे और उसके शिष्य बन गये । इस प्रकार 'धर्मपरीक्षा' ग्रन्थके अनुसार जब कि मोग्गलायन पार्श्वनाथ के शिष्यका शिष्य था, तब उपयुक्त संजय भी जो की मोग्गलायनका उपदेशक था वह भी केशीके समान पार्श्वनाथकी परम्पराका हो गा । और तब मोग्गलायन महावीरका समकालीन होना चाहिये । श्रेणिक चरित्र र दूसरे जैन ग्रन्थोंमें ऐसी सूचनाएं भरी पड़ी हैं कि, महावीर के अरहंतपनेके पहिले ही बुद्धने अपने नवीन मतका उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया था । ऊपरके उदाहरणोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि मोग्गलायन ने बौद्धधर्म नहीं चलाया, तब धर्मपरीक्षा के श्लोकका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि मोगलायनने बुद्धको अपने धर्म प्रचार में दूसरोंकी अपेक्षा अधिक सहायता दी । बौद्ध ग्रन्थोंसे भी इस बात की पुष्टि होती है । क्यों १. जैन इतिहास माला पृ० २३ २३८ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामीकी पूर्व परम्परा कि मोग्गलापन और सारिपुत्त ये दोनों बुद्धके अग्रगण्य शिष्य थे । इस प्रकार हमें ज्ञात होता है कि, ब्राह्मणधर्म, जैनधर्म और बौद्धधर्म ये तीनों प्राचीन भारतके व्यापक सैद्धांतिक वायुमंडलसे उत्पन्न हुए हैं । इस सम्बन्धमें यह कहना अनुचितन होगा कि अाधुनिक इतिहासकारोंने भारतकी प्राचीनताको बहुत विपरीत समझा है । अर्थात् अधिकांश लोगोंने यह समझ रक्खा है कि, प्राचीन भारतमें ब्राह्मणधर्मके सिवाय अन्य किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं था। परन्तु उस ब्राह्मण धर्मका रूप कैसा था, इस बातको उन्होंने कभी नहीं समझना चाहा । यदि भारतकी पुरातन सभी बातोंको वे 'ब्राह्मणधर्म' नाम देते हैं, तो उनकी कल्पना ठीक है । परन्तु 'ब्राह्मणधर्म' से यदि वे वैदिकधर्म अथवा वैदिक यज्ञादि ही लेते हैं, तो मैं नहीं समझ सकता कि, प्राचीन भारतमें ब्राह्मणधर्म के सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं होना किस प्रकार प्रामाणिक युक्तियों द्वारा सिद्ध हो सकता है। भारतकी प्राचीनतम अवस्था जैनशस्त्रों में ठीक ठीक चित्रित की गयी है । जैनशास्त्रोंमें लिखा है कि जब ऋषभदेव अपना धर्मोपदेश करते थे, उस समय ३६३ पाखण्डों ( मतों ) के नेता भी अपना अपना धर्मोपदेश करते थे । शुक्र अर्थात् बृहस्पति उनमें से एक थे, जिन्होंने चार्वाक मत निकाला । निःसन्देह प्राचीन भारतकी ऐसी ही स्थिति जान पड़ती है। प्राचीन समयमें यहां एक ही मतका एक ही उपदेशक नहीं था, किन्तु भिन्न भिन्न धार्मिक मन्तव्योंके उपदेश करने वाले अनेक शिक्षक थे जिन्होंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार जीवन और जगतके स्वरूपको दर्शाया था। प्राचीन कालमें वैदिक, सांख्या, चार्वाक, जैन, बौद्ध और अन्यान्य अनेक धार्मिक सिद्धांतोंकी शाखाएं थीं, जिनमेंसे कई तो सदाके लिए नष्ट हो गयीं । इन धर्मोंके उस समय बहुतसे कट्टर पक्षपाती थे । परन्तु प्राचीन भारतमें पर-निर्भरता नहीं थी अर्थात् सबके मन्तव्य स्वतन्त्र थे। प्रोफेसर मैंक्सम्यूलर ने अपनी ७६ वर्षकी अवस्थामें लिखा था कि- "ज्यों ज्यों में अनेक मतों का पठन करता गया त्यों त्यों विज्ञानभिक्षु, श्रादिके इस मन्तव्यकी सत्यताका प्रभाव मेरे हृदय पर अधिकाधिक पड़ता गया कि, षट्दर्शनके भिन्न भिन्न मन्तव्योंसे परे एवं पूर्व एक ऐसा सर्वसाधारण भण्डार है जिसे कि राष्ट्रीय ( भारतीय ) सिद्धान्त या व्यापक तथा सर्वप्रिय सिद्धान्त कह सकते हैं । यह सिद्धान्त विचार और भाषाका एक बहुत बड़ा मानसरोवर है, जो कि बहुत दूर उत्तरमें अर्थात् अत्यन्त पुरातन समयमें विकसित हुआ था। प्रत्येक विचारकको अपने अपने मनोरथके अनुसार इसमेंसे विचारोंको ग्रहण करने की स्वतंत्रता थी।" प्राचीन भारतमें उधार लेने की प्रणाली नहीं थी अर्थात् विविध ऋषियोंके जीवनके सम्बन्धमें विभिन्न स्वतंत्र विचार थे। और जो दर्शन अाज हमारे देखने में आते हैं, वे उन्हीं ऋषियोंके अभिप्रायोंके लिपि बद्ध रूप हैं । यद्यपि अनेकानेक सैद्धान्तिक पद्धतियों और उनके जन्मदाताओंका जीवनचरित्र सदाके लिए लुप्त हो गया है। जैनशास्त्रोंके अनुसार जैनधर्मके प्रवर्तक न महावीर हैं और न पार्श्वनाथ, किन्तु इस कालचक्र में ऋषभदेव जैनधर्मके प्रथम महोपदेशक हुए हैं। शुक्र अर्थात् बृहस्पति, ऋषभदेवके समकालीन २३९ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ अनेक व्यक्तियों में से एक हो सकते हैं । उस समय बुद्धिको अत्यन्त तीक्ष्णता अधिक सुलभ थी । भागवत पञ्चम स्कन्ध, अध्याय २-६ में जो ऋषभदेवका कथन श्राया है वह इस प्रकार है मनु स्वयंभू प्रियव्रत. अग्नीध्र नाभिमरुदेवी T ऋषभदेव भागवत में कहा है कि ऋषभदेव दिगम्बर थे और जैनधर्मके चलाने वाले थे । भागवत अध्याय ६ श्लोक १-११ में ग्रन्थकर्त्ता ने 'कोंका', 'वेंका' और 'कुटक' के आर्हत् राजा के विषय में लिखा है कि, यह राजा अपनी प्रजासे ऋषभदेवका जीवनचरित्र सुनेगा और कलियुग में एक धर्म चलावेगा • जिससे उसके अनुयायी ब्राह्मणोंसे घृणा करेंगे और नरकको जावें गे । ईस्वी सनकी पहिली शती में होनेवाले - हुविष्क और कनिष्क के समयके जो शिलालेख मथुरा में मिले हैं उनमें भी ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर का वर्णन श्राया है । वहीं पर कुछ ॠषभदेवकी मूर्तियां भी मिली हैं जिन्हें जैनी पूजते हैं । इन शिलालेखोंसे स्पष्ट विदित होता है कि, ईस्वी सनकी पहिली शती में ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर रूप में माने जाते थे । यदि महावीर या पार्श्वनाथ ही जैन धर्मके चलानेवाले होते, तो उनकी मूर्ति भी 'जैन धर्म के प्रवर्तक, इस उल्लेख सहित स्थापितकी जाती ? महावीरका निर्वाण ईस्वी सन से ५२७ वर्ष पहिले और पार्श्वनाथ का निर्वाण इससे २५० वर्ष पहिले अर्थात् ईस्वी सन से ७७७ वर्ष पूर्व में हुआ है किन्तु उस समय से कुछ ही शतियोंके पश्चात् उत्कीर्ण शिलालेखोंसे यह बात प्रगट होती है कि इस कालमें ऋषभदेव जैनधर्म के श्रादि प्रवर्तक ( प्रचारक ) हुए हैं। इस सबके प्रकाशमें यह कहना सर्वथा भ्रान्त है कि, केवल वैदिक धर्म ही प्राचीन भारत में फैला हुआ था । कदाचित् ऐसा होना संभव है कि उस समय वैदिक धर्म और इतर धर्म प्रायः समान स्वतंत्रता के साथ प्रसारित हो रहे हों ! प्राचीन भारत का अधिकांश सैद्धान्तिक और धार्मिक साहित्य लुप्त एवं विनष्ट हो गया है। जो ' बार्हस्पत्यसूत्र एक समय मिलते थे, अब उनका भी पता नहीं है । इस प्रकार दूसरे बहुत से सिद्धान्त सूत्र अब नहीं मिलते। इस कारण से उनके वर्ण्य विषयों से हम अनभिज्ञ हैं । केवल वैदिक साहित्य ही संयोगवश नष्ट होते होते बच गया है। लगभग अशोक के समय से जैन और बौद्ध साहित्य का भी लिपिबद्ध 1 १ – सैकरेड बुक्स ओफ ईष्ट भा. ४५ । २४० Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामीकी पूर्व परम्परा होना शुरू हुआ था । अनेक ग्रन्थ इससे भी पीछे बने । पार्श्वनाथका इतिहास-- ___उत्तराध्ययनसूत्र और सूत्रकृतांगसूत्रकी भूमिका में प्रा० जैकोबी लिखते हैं :- "पाली चातुय्याम" जिसे कि संस्कृतमें 'चातुर्याम' कहते हैं, प्राकृतमें 'चातुज्जाम' बोला जाता है । यह एक प्रसिद्ध जैन संज्ञा है जो कि पार्श्वनाथके चार व्रतोंको प्रकट करती है जिसके समक्ष ही महावीरके पंचमहाव्रत (पंचमहाव्वय ) कहे गये हैं। इस प्रकरणमें मैं समझता हूं कि, बौद्धोंने एक भ्रान्ति की है । अर्थात् उन्होंने महावीरको जो ज्ञातृपुत्र उपाधि लगायो है, वह वास्तवमें उनसे पूर्व हुए पार्श्वनाथके पीछे लगनी चाहिये थी। यह एक नगण्य भूल है । क्योंकि गौतम बुद्ध और बौद्ध प्राचार्य उपयुक्त उपाधिकी योजना निZथ धर्मके वर्णनमें तब तक कभी न करते, जब तक कि उन्होंने उसे पार्श्वनाथके अनुयायी लोगोंसे न सुनी होती। और यदि महावीरका धर्म बुद्धके समयमें भी निर्ग्रथोके द्वारा ही विशेष रूपसे प्रतिपालित होता तो भी वे ऐसी उपाधि कभी नहीं लगाते । इस प्रकार बौद्धोंकी भूलसे ही जैनधर्म सम्बन्धी इस दंतकथाकी सत्यताकी पुष्टि होती है कि महावीरके समयमें पार्श्वनाथके अनुयायो विद्यमान थे।" "पार्श्वनाथका ऐतिहासिक महापुरुष होना संभव है । इस बातको सब मानते हैं और उनके अनुयायियों तथा मुख्यतया केशाका जो कि महावीरके समयमें जैनधर्मके नेता थे, जैनशास्त्रमें इस प्रकार वास्तविक रूपसे वृत्तान्त पाया जाता है कि उन शास्त्रोंको सत्यतामें सन्देह उत्पन्न होनेका कोई कारण ही नहीं दिखता।" जैनधर्मके प्राचीन इतिहासकी रचनामें मेरा यही मुख्य उद्देश्य है कि, पार्श्वनाथके अनुयायी महावीरके समयमें विद्यमान् थे, यह दन्तकथा जिसको वर्तमान समयके सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं; अधिकतर स्पष्ट हो जाय । पार्श्वनाथ और महावीरके अन्तरालमें जितना समय व्यतीत हुआ है उसके विषयमें जैकोबीने एक टिप्पण लिखा है । वह इस प्रकार है-"जैन ग्रन्थों में जो विवेचन किया है, उससे प्रकट होता है कि, पार्श्वनाथ और महावीरके बीचके कालमें यतिधर्मका आचरण शिथिल हो गया होगा। यह बात तभी संभव हो सकती है, जब कि अन्तिम दो तीर्थंकरोंके बीचका समय यथोचित रूपसे निश्चित किया जाय । इसके द्वारा पार्श्वनाथके २५० वर्ष पीछे महावीर हुए ऐसा जो सब मनुष्यों का अनुमान है, उसकी भली भांति पुष्टि होती है।" "इस प्रकार पार्श्वनाथ और महावीरके जीवनचरित्रका विस्तारसे पठन करने पर उत्तरीय भारतकी राजनैतिक स्थिति स्पष्ट रूपसे प्रकट हो जाती है, क्योंकि उनके समयका निर्णय हो गया है । यहां तक शोधको ले जाना भारतके प्राचीन इतिहासकी सुदृढ़ भूमिकापर पहुंच जाना है । पश्चिमी १-सैकरेड बुक्स ओफ ईष्ट भा.४५ २४१ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ विद्वानोंने भी अन्तिम दोनों तीर्थंकरोंको ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार किया है। और ज्यों ज्यों जैनियों के प्राचीन ग्रंथ देखने में श्रावें गे. त्यों त्यों वे इनसे भी पहिले होनेवाले तीर्थंकरों के अस्तित्वको भी प्रायः स्वीकार कर लेंगे। भारतकी प्राचीन राज-नैतिक और सामाजिक स्थितिपर जो जैन और बौद्ध कथाओंसे प्रकाश पड़ता है उसकी उपेक्षा करना उचित नहीं है । इन कथाओंका बहुत सूक्ष्म दृष्टिसे अनुसन्धान किया जाना चाहिये । पौराणिक जैन और बौद्ध कथाओंको एकत्र करने से भारतका लुप्तप्राय प्राचीन इतिहास किस प्रकार प्रकाशमें आकर सदा के लिए निश्चित हो सकता है, यह बात मैंने इस ग्रन्थमें दरसा दी है।" "जैन और बौद्ध दोनों धर्म एक ही भूमि पर उत्पन्न हुए हैं, इस कारण उनकी ऐतिहासिक कथाए भी एक सी हैं। विना यथेष्ट कारणके हमें इन दंतकथात्रोंपर अविश्वास नहीं करना चाहिये । हमें उनका अनुसन्धान तुलनात्मक पद्धतिसे और बारीकीसे करना चाहिये । जब सब प्रकारकी दन्तकथानों और उनके उल्लेखोंका पठन तथा तुलना की जायगी, तभी हमें कुछ ऐतिहासिक रहस्य मालूम हो सकते हैं, अन्यथा भारतके प्राचीन इतिहासका कभी निर्णय नहीं हो सकेगा।" २४२ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय इतिहास और जैन शिलालेख श्री डा० ए० गेरीनोट, एम० ए० डी० लिट० ___ अक्सर विद्वान् कहा करते हैं कि, यद्यपि भारतवर्षीय साहित्य विपुल और विस्तीर्ण है, तथापि उसमें ऐतिहासिक ग्रंथ बहुत थोड़े हैं । और जो हैं, उनमें इतिहासके साथ दूसरी मनगढंत बातोंकी तथा दन्तकथाओंकी खिचड़ी कर दी गयी है । यह कथन यद्यपि ठीक है, तो भी भारतवर्षमें जो अगणित शिलालेख हैं, उनसे भारतवर्षके साहित्यमें जो इतिहासकी कमी है, वह बहुत अंशोंमें पूर्ण हो सकती है। इसके लिए जी० मेबल डफका भारतीय कालक्रम ( The Chronalogy of India) का पहला पृष्ठ और विनसेंट ए० स्मिथ कृत भारतीय इतिहास ( The Histary of India) की पहली आवृत्तिका तेरहवां पृष्ठ पढ़ना चाहिये। दक्षिणके जैन शिलालेख-- सबसे अधिक शिलालेख दक्षिण भारतमें हैं। मि० ई० हुलश, मि० जे० एफ० फ्लीट और लूइस राईस, आदि विद्वानोंने साउथ इण्डिया इन्स्क्रिपशन इंडियन एन्टीक्वेरी, एपिग्राफिया कर्णाटिका, आदि ग्रन्थोंमें वहांके हजारों लेखोंका संग्रह किया है। ये शिलालेख शिलाओं तथा ताम्रपत्रोंपर संस्कृत, और पुरानी कन्नड़ आदि भाषाओंमें खुदे हुए हैं । प्राचीन कन्नड़के लेखोंमें जैनियोंके लेख बहुत अधिक हैं ; क्योंकि उत्तर कर्णाटक और मैसूर राज्यमें जैनियोंका निवास प्राचीन कालसे है। उत्तर भारतमें जो संस्कृत और प्राकृत भाषाके लेख मिले हैं, वे प्राचीनता और उपयोगिताकी दृष्टि से बहुत महत्त्वके हैं। इन लेखोंमें भी जैन लेखोंकी संख्या बहुत अधिक है। सन् १९०८ में जो जैन शिलालेखोंकी रिपोर्ट मेरे द्वारा प्रकाशित की गयी है, उसमें मैंने सन् १९०७ के अंत तक प्रकाशित हुए समस्त जैन लेखोंके संग्रह करनेका प्रयत्न किया था । उक्त रिपोर्ट में ८५० लेखोंका संक्षिप्त पृथक्करण किया गया है। जिनमेंसे ८०९ लेख ऐसे हैं, जिनका समय उनपर लिखा हुआ है, अथवा दूसरे साक्षियोंसे मालूम कर लिया गया है। ये लेख ईस्वी सन् से २४२ वर्ष पूर्वसे लेकर ईस्वी सन् १८६६ तकके अर्थात् लगभग २२०० वर्षके हैं और जैन इतिहासके लिए बहुत ही उपयोगी साधन सामग्री हैं । २४३ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ इन शिला-शासनों तथा ताम्रलेखोंके प्रारंभमें बहुधा जैनाचार्यों तथा धर्म गुरुत्रोंकी विस्तीर्ण पट्टावलियां रहती हैं । उदाहरणके लिए शत्रुञ्जय तीर्थके आदीश्वर भगवानके मंदिरका शिलालेख लीजिए, जो कि वि० संवत् १६५० ( ईस्वी सन् १५९३ ) का है। उसमें तपागच्छकी पट्टावली इस प्रकार दी हुई है -तपागच्छके स्थापक श्री जगचन्द्र ( वि० सं० १२८५), श्रानन्द-विमल (वि० सं० १५८२), विजयदान सूरि, हरिविजय सूरि (वि० सं० १६५० ) और विजयसेन सूरि । इसी प्रकारसे दूसरा शिलालेख अणहिल्लपाटणका एपिग्राफिश्रा इंडियाकी पहली जिल्दके ३१९-३२४ पृष्ठोंमें छपा है। उसमें खरतरगच्छके उद्योतनसू रिसे लेकर जिनसिंह सूरि तकके पहले ४५ श्राचार्योंकी पावली दी है। मथुराके लेख मथुरामें डा० फुहररने कनिष्क और उसके पश्चाद्वर्ती इंडो-सिथियन राजाओंके अनेक शिलालेखोंका पता लगाया था और प्रो० व्युल्हरने एफिग्राफिया इंडियाकी पहली दूसरी जिल्दमें उनका बहुत ही आश्चर्यजनक वृत्तान्त प्रकाशित किया था । इसी विषयपर सन् १९०४ में इंडियन एण्टीक्वेरीके ३३वें भागमें मो० सुडरने एक और लेख लिखा था और उक्त लेखोंका संशोधन तथा परिवर्तन प्रगट किया था। मथुराके लेख जैन धर्मके प्राचीन इतिहासके लिए बहुत ही उपयोगी हैं। क्योंकि वे कल्पसूत्रकी स्थविरावलीका समर्थन करते हैं और प्राचीनकालके भिन्न-भिन्न गोंका, उनके मुख्य मुख्य विभागों, कुलों और शाखाओं सहित परिचय देते हैं। जैसे 'कोटिक गण' स्थानीय कुल और वाढीशाखा, ब्रह्मदासिक कुल और उच्चनागरी शाखा, इत्यादिके उल्लेख । जैन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रोंसे इस बातका भी पता लगता है कि, एक देशसे जैनी दूसरे देश में कब फैले तथा उनका अधिकाधिक प्रसार कब हुआ। ईस्वी सन्से २४२ वर्ष पहले महाराजा अशोक अपने आठवें श्राज्ञापत्रमें जो कि स्तम्भपर खुदा हुआ है, उनका ( जैनियोंका ) 'निर्ग्रन्थ' नामसे उल्लेख करते हैं । ईस्वी सन्से पहले दूसरी शताब्दिमें उनका उड़ीसाके उदयगिरि नामक गुफाओंमें 'अरहन्त' के नाम से परिचय मिलता है और मथुरामें भी (कनिष्क हविष्कके समयमें) वे बहुत सद्धिशाली थे; जहां कि दानोंके उल्लेख करने वाले तथा अमुक भवन अमुकको दिया गया यह बतलाने वाले अनेक जैन लेखोंका पता लगा है। श्रवणबेलगोला-- __ईस्वी सन्के प्रारंभके एक शिलालेखमें गिरनार पर्वतका सबसे पहले उल्लेख मिला है, जिससे यह मालूम होता है कि, उस समय जैनी भारतके वायव्यमें भी फैल चुके थे। इसी प्रकार आचार्य श्री भद्रबाहुके अधिपत्यमें वे दक्षिणमें भी पहुंचे थे और वहां श्रवण वेलगोलामें उन्होंने एक प्रसिद्ध मन्दिरकी १. देखो एपिंग्राफि इण्डिया भाग २, पृष्ठ ५०-५९ । २४४ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय इतिहास और जैन शिलालेख स्थापना की थी । मि० लूइस राईसके द्वारा संग्रह किये हुए संस्कृत तथा कन्नड़ भाषाके सैकड़ों शिलालेख श्रवणबेलगोला के पवित्रतम ऐतिहासिक वृत्तान्त प्रगट करते हैं । इस पहाड़पर सुप्रसिद्ध मंत्री चामुंडरायने गोम्मट्टेश्वरकी विशाल प्रतिमा स्थापित की थी । गोमट स्वामोकी दूसरी प्रतिमा कारकलमें शक संवत् १३५३ ( ई० सन् ० १४३२ ) में और तीसरी बेनूर में शक संवत् १५२५ ( ई० सन् १६०४ ) प्रतिष्ठित हुई थी । दक्षिण भारतके जुदे जुदे शिलालेख बहुत सी ऐतिहासिक बातोंको विशद करते हैं । हलेबीड एक शिलालेख से मालूम होता है कि, वहां गंगराज मंत्रीके पुत्र बोपने पार्श्वनाथका मन्दिर बनवाया था । और वहां बहुतसे प्रसिद्ध प्रसिद्ध श्राचार्योंका देहोत्सर्ग हुआ था । 'हनसोज' देशीयगणकी एक शाखाका स्थान था । हमचा [हुंम्मच] नामक स्थान में 'उवतिलक' नामक सुन्दर मन्दिर बनवाया गया था और उसे गंगराज कुमारी चत्तलदेवीने अपर्ण किया था । मलेयारका कनक-पर्वत कई शताब्दियों तक बहुत पवित्र समझा जाता था। इन सब बातोंका ज्ञान उक्त स्थानों में मिले हुए लेखों से होता है । स्फुट लेख- उत्तर भारत के मुख्य शिलालेख श्राबू, गिरनार और शत्रुञ्जय पर्वत सम्बन्धी हैं । श्राबू पर्वत पर सबसे अधिक प्रसिद्ध मन्दिर दो हैं - एक आदिनाथका और दूसरा नेमिनाथका । पहला अणहिल्लपाटण के भक्तिवंत व्यापारी विमलशाहने वि० सं० १०८८ ( ईस्वी सन् २०३१ ) में बनवाया था और दूसरा चालुक्य ( सोलंकी ) वंशीय वाघेला राजा वीरधवल के सुप्रसिद्ध मंत्री तेजपालने और उसके भाई वस्तुपालने बनवाया था । उसके दोनों भाइयोंने एक मनोहर मन्दिर गिरनार पर्वतपर और कई मन्दिर शत्रुञ्जयपर बनवाये थे । ऐतिहासिक महत्व -- जैनियोंके शिलालेख और ताम्रलेख भारतके सामान्य इतिहासके लिए मी बहुत सहायक हैं । बहुत से राजाओं का पता केवल जैनियोंके ही लेखोंसे लगता है। जैसे कि, कलिंग (उड़ीसा) का राजा खारवेल | निश्चित रूपसे यह राजा जैनधर्मका अनुयायी था । उसके राज्य कालका एक विशाल शिलालेख स्वर्गीय पं० भगवानलाल इन्द्रजीने प्रकाशित किया था और उसके विषय में उन्होंने बहुत विवेचन किया था । उक्त शिलालेख 'रामो अरहंताणं णमो सम्वसिद्धाणं' इन शब्दोंसे प्रारम्भ होता है । उस पर मौर्य संवत् १६५ लिखा हुआ है । अर्थात् वह ईस्वी सन् से लगभग १५६-५७ वर्ष पहलेका । खारवेल की पहली रानी जैनियोंपर बहुत कृपा रखती थी। उसने जैन मुनियोंके लिए उदयगिरिमें एक गुफा बनवायी थी । दक्षिण भारत के राजाओं में मैसूरके पश्चिम श्रोरके गंगवंशीय राजा जैनधर्मके जानकार और अनुयायी थे । शिलालेखों के श्राधारसे प्रगट होनेवाली एक कथासे मालूम होता है कि, नन्दिसंघ के सिंहनन्दि नामक श्राचार्य ने गंगवंशका निर्माण किया था और इस वंशके बहुत से राजाओं के गुरु जैनाचार्य २४५ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ थे । जैसे विनीत ( कोंगणी वर्मन ), राचमल्ल ( ई० स० ९७७), परमर्दिदेव और उसके उत्तराधिकारी ( ग्यारहवीं शताब्दिका अंत और बारवीं का प्रारंभ ), इत्यादि । सुप्रसिद्ध चामुंडराय जिसने श्रवणबेलगोला गोस्वामीकी अद्भुत प्रतिमा स्थापित की थी, यह दूसरे मारसिंहका प्रधानमंत्री था । इस मारसिंहने गुरू अजितसेनकी उपस्थिति में जैनधर्मकी क्रियानुसार मरण किया था अर्थात् समाधिमरण किया था । श्री फ्लीट के कथनानुसार कदम्ब वंशीय राजा भी जैन थे । काकुत्स्थवर्म और देववर्मा आदिने जैन सम्प्रदाय के भिन्न-भिन्न संघों को बड़ी-बड़ी भेटें दी थीं । पश्चिमके सोलंकी ( चालुक्य ) राजा यद्यपि वैष्णव थे, परन्तु वे निरन्तर दान और भेंटों के द्वारा जैनियोंको संतुष्ट करते रहते थे । दक्षिण के महाराष्ट्र प्रान्त में जैनधर्म सामान्य प्रजाका धर्म गिना जाता था ! मलखेड़ के ( मान्य खेट ) राष्ट्रकूट ( राठौर ) राजाओं के श्राश्रयसे जैनधर्मने; विशेषतया दिगम्बर सम्प्रदायने बहुत उन्नति की थी । नवमी शताब्दिमें दिगम्बर सम्प्रदायको अनेक राजाओं का श्राश्रय मिला था । राजा अमोघ वर्ष ( ई० सं० ८१४ -८७७) ने तो अपनी सहायता द्वारा इस सम्प्रदायका एक बड़े भारी रक्षक के समान प्रचार एवं प्रसार किया था, और सम्भवतः उसीने प्रश्नोत्तर रत्नमालाकी रचना की थी । सौनदत्तीके रहवंशी राजा पहले राष्ट्रकूटोंके करद सामन्त थे, परन्तु पीछे से स्वतंत्र हो गये थे । वे जैनधर्म के अनुयायी थे । उनके किये हुए दानोंका उल्लेख ईस्वीसन् ८७५ से १२२९ तकके लेखोंमें मिलता है । सान्तर नामके अधिकारियोंका एक और वंश मैसूरके अन्तर्गत् हुम्मच में रहता था । ये भी जैनी थे और उनके धर्मगुरु जैनाचार्य थे । बारहवीं और तेरहवीं शताब्दिमें होय्सल नामक वंशके राजाओंोंने मैसूर प्रान्त में अपने अधिकारकी अति वृद्धि की थी। पहले ये कलचुरी वंशके करद राजा थे, परन्तु जब उक्त वंशका पतन हुआ, तब उनके उत्तराधिकारी हो गये । इस वंशके सबसे प्राचीन और प्रमाणभूत राजा विनयादित्य और उसका उत्तराधिकारी श्रोरियंग ये दोनों तीर्थंकरों के भक्त थे । इस वंशके प्रख्यात राजा विट्टिग अथवा विल्टिदेवको रामानुजाचार्यने विष्णुका भक्त बनाया था और इससे उसका नाम विष्णुवर्धन प्रसिद्ध हुआ था। उसकी राजधानी द्वारसमुद्रमें जिसे कि अब हलेबीडु कहते हैं, थी । इसके सिवाय गंगराज, मरीयन, भारत, आदि मंत्रियोंका भी यहां श्राश्रय मिला था । उन्होंने उन सब मन्दिरोंका फिरसे जीर्णोद्धार कराया था, जिन्हें कि चोल नामके श्राक्रमण कारियोंने नष्ट कर दिया था और उन्हें बड़ी बड़ी जागीरें लगा दी थीं । जैन शिलालेखों में १५ वीं शताब्दि के साल्ववंशीय राजाओं का भी उल्लेख मिलता है, ये जैनधर्मके अनुयायी थे । यह लेख यद्यपि छोटा है, परन्तु मेरी समझ में यह बतलाने के लिए काफ़ी है कि जैन शिलालेखों में कितनी ऐतिहासिक बातोंका उल्लेख है । इन लेखोंका और जैनियोंके व्यवहारिक साहित्यका नियमित अभ्यास भारतवर्षके इतिहासका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए बहुत ही उपयोगी होगा । २४६ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकलका भैररस राजवंश श्री पं० के० भुजबली शास्त्री, विद्याभूषण कारकल मद्रास प्रान्तके दक्षिण कन्नड जिलेमें स्थित है। आजकल यह विशेष समृद्धिशाली नहीं है; सिर्फ ताल्लुकेका प्रधान स्थान मात्र है । यही कारकल ईसाकी १३वीं शतीसे लेकर १७वीं शती तक अर्थात् लगभग ५०० वर्ष पर्यन्त विशेष समृद्धिशाली रहा है। इन शतियोंमें यहांपर जैन धर्मानुयायी भैररस नामक एक प्राचीन राजवंश शासन करता रहा है। प्रारंभमें तो यह वंश स्वतंत्र ही था। पर पीछे इसे होयसल, विजयनगर आदि कर्णाटकके अन्य बलिष्ठ प्रधान शासकोंकी अधीनतामें रहना पड़ा। बल्कि उस जमानेमें इस जिलेमें बंग, चौट, अजिल, सावंत, मूल, तोलहार, बिन्नाण, कोन्नार, भारस, होन्नय, कंबलि आदिके वंशज भी छोटे छोटे राज्य स्थापित करके भिन्न-भिन्न प्रदेशोंमें शासन करते रहे हैं । इन राजवंशोंमेंसे अजिल, चौट, आदिके वंशजोंने भी जैनधर्मकी पर्याप्त सेवा की है । भैररस वंश इसी भैररस वंशमें उत्पन्न पाण्ड्य राजा विरचित 'भव्यानन्दशास्त्र' से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि कारकलके भैररस वंशने 'हुंच' में नया राज्य स्थापित किया, जो कि वहां पर दीर्घकाल तक राज्य करने वाले राजा जिनदत्तरायके वंशकी ही एक शाखा थी। 'जिनदत्तरायचरित'और हुंचके कतिपय लेखोंसे' इस वंशका परिचय निम्न प्रकार मिलता है "प्राचीन कालमें उत्तरमधुरा [ वर्तमान मथुरा ] के सुविख्यात उग्रवंशमें वीरनारायण, आदि अनेक शासक हुए हैं । इसी वंशमें राजा 'साकार' हुआ था, जो एक भील लड़कीपर आसक्त होकर अपनी सहधर्मिणी रानो श्रीयला एवं पुत्र जिनदत्तरायसे भी उदासीन हो गया था । फलस्वरूप एक रोज उक्त भीलकी लड़की पद्मिनीके दुरुपदेशसे वह अपने सुयोग्य पुत्र जिनदत्तराय तकको मरवा डालनेके लिए उतारू हो गया था ; क्योंकि जिनदत्त के जीवित रहते भीलनीके पुत्र मारिदत्तको राज्य नहीं मिल सकता था । पर इस षड्यंत्रका पता अपने गुरु सिद्धान्तकीर्तिके द्वारा रानी श्रीयलाको पहले ही लग गया था । श्रीयलाने कुलदेवी पद्मावतीकी प्रतिमाके साथ प्रियपुत्र जिनदत्तरायको तुरंत हो मधुरासे हटा दिया । १ देखें-नगर संबन्धी लेख नं० ५८ आदि । २४७ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जिनदत्त घूमता-घूमता कुछ कालके बाद मैसूर राज्यके 'हुंच' स्थानपर पहुंचा। वहां पर भीलोंकी मददसे यह एक नया राज्य स्थापित करके उसका शासन करने लगा । पीछे इसने दक्षिण मधुराके प्रसिद्ध पाण्ड्यवंशी राजा वीरपाण्ड्यकी पुत्री पद्मिनी और अनुराधाके साथ विवाह किया। नामकरण राजा जिनदत्तरायके पार्वचन्द्र तथा नेमिचन्द्र नामक दो पुत्र हुए थे। पार्श्वचन्द्रने अपने नामके अंतमें 'पाण्ड्य भैरवराज' यह नूतन उपाधि जोड़ ली थी। भैरवी पद्मावतीके द्वारा अपने पिताकी रक्षा एवं अपनी माताका पाण्ड्य वंशीया होना ही इस उपनामको अपनानेका कारण बतलाया जाता है। इस वंशके सभी शासक 'पाण्ड्य भैरव' इस उपनामको बड़े श्रादरके साथ अपने नामके आगे जोड़ते रहे । पूर्वोक्त कारकलका भैररस इसी 'भैरवरस' का बिगड़ा हुआ रूप है। भैररसवंशके राजाश्रोंमें निम्नलिखित राजा विशेष उल्लेखनीय हैं- . पाण्ड्यदेव अथवा पाण्ड्यचक्रवर्ती [ ई० सन् १२६१ ] इसने कारकलमें 'श्रानेकेरे' नामक एक सुविशाल सुन्दर सरोवर खुदवाया था, जो कि अाज जीणावस्थामें है। कहा जाता है कि अपने हाथियोंको पानी पिलाने, आदिके लिए ही राजाके द्वारा यह विशाल सरोवर खुदवाया गया था। सरोवरके नामसे भी इस बातकी पुष्टि होती है। बादमें इस सरोवरके उत्तर पार्श्वमें एक सुन्दर जिनालय भी बना है, जिसे पावापुरका अनुकरण कहा जा सकता है। रामनाथ [ ई० सन् १४१६]-इसने भी कारकलकी पूर्वदिशामें एक विशाल जलाशय निर्माण कराकर अपने ही नामपर इसका नाम 'रामसमुद्र' रखा था। वस्तुतः यह जलाशय एक छोटासा कृत्रिम समुद्र ही है। इससे कारकल निवासियोंका असीम उपकार हुआ है। ___ वीर पाण्ड्य [ई० सन् १४३१] —कारकलकी लोकविश्रुत विशाल मनोहारी गोम्मटेशमूर्तिको इसीने स्थापित किया था। इसकी प्रतिष्ठा महोत्सवमें विजयनगरका तत्कालीन शासक देवराय [ द्वितीय ] भी सम्मिलित हुआ था। मूर्ति निर्माण, प्रतिष्ठा, श्रादिका विस्तृत वृत्तांत 'गोम्मटेश्वरचरिते' में कवि चन्द्रमने सुन्दर ढंगसे दिया है उसीमें से थोड़ासा अंश नीचे उद्धृत किया जाता हैश्री बाहुबलि मूर्ति-- "मेरे महलके दक्षिण भागमें अवस्थित उन्नत पर्वत हो इस नूतन निर्मित विशालकाय जिनबिंबकी स्थापनाके लिए योग्य स्थान है, ऐसा सोचकर राजा वीरपाण्ड्यने गुरु ललितकीर्तिके पास जाकर अपने मनके शुभ विचारको उनसे निवेदन किया। ललितकीर्तिजी और वीरपाण्ड्य अपने उच्च कर्मचारियोंके साथ तत्क्षण ही उक्त पर्वतपर गये। भाग्यवश गुरु ललितकीर्तिजीकी नजर वहांपर एक विशाल शिलापर पड़ी और अभीष्ट जिनबिंब-निर्माणके लिए आपने उसी शिलाको उपयुक्त बताया। २४८ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकलका भैररस राजवंश राजा वीरपाण्ड्यने गुरुकी सम्मतिको सहर्ष स्वीकार किया और जल, गंध, आदि उत्तम अष्टद्रव्योंको मंगाकर उस शिलाकी प्रारंभिक पूजा की । बादमें भट्टारकजीको मठपर पहुंचाया एवं मंत्री, पुरोहित, आदिको विदा कर राजा वीरपाण्ड्य अपने महलपर चला आया। कुछ समय बाद एक रोज वीरपाण्ड्यने शिल्पशास्त्रके मर्मज्ञ, कुशल कई शिल्पियोंको बुलवाकर श्री बाहुबलिस्वामोकी एक विशालकाय भव्य प्रतिमा तैयार कर देनेके लिए सम्मानपूर्वक प्राज्ञा दी। शिल्पियोंसे मूर्तिनिर्माण संबन्धी सूक्ष्म परामर्श तथा विचार-विनिमयके बाद मूर्तिनिर्माणकार्यकी देख-रेख राजाने अपने पुत्र युवराज कुमारके हाथमें सौंप दी । साथ ही साथ राजाने ज्योतिष शास्त्रके मर्मज्ञ अपने सभा-पण्डितोंको बुलवाकर इसके प्रारंभके लिए शुभमुहूर्त निकलवाया। वीरपाण्ड्य गुरु ललितकीर्तिजीके साथ जिनालय गया और पूजा, अभिषेकादिके अनंतर प्रारब्ध मूर्तिनिर्माण कार्य निर्विघ्न संपन्न हो इसलिए अनेक व्रत, नियम, आदि स्वीकार किये । ललितकीर्तिजी, मंत्री, पुरोहित, आदि राजपरिवारके साथ वह पर्वतपर गया और निर्दिष्ट शुभ मुहूर्तमें अभिषेक-पूजादि पूर्वक मूर्तिनिर्माणका कार्य प्रारंभ करवाया । मूर्तिनिर्माणका कार्य राजकुमारकी देख-रेखमें निर्विघ्न रूपसे चलता रहा । बीच-बीचमें राजा भी जाकर योग्य परामर्श दिया करता था। दीर्घकालीन परिश्रम एवं प्रचुर अर्थव्ययसे जब मूर्ति तयार हुई तब राजाको ठसे पर्वतपर ले जाने की तीव्र चिंता हुई । फलस्वरूप इसके लिए बीस पहियोंकी एक मजबूत, एवं विशाल गाड़ी तयार करवायी गयी । गाड़ी तयार होते ही दस हजार मनुष्यों ने इकडे होकर उस प्रतिमाको गाड़ीपर चढाया । बड़ी-बड़ी मजबूत रस्सियोंको बांधकर राजा, मंत्री पुरोहित, सेनानायक तथा एकत्रित जनसमुदाय मिलकर वाद्य एवं तुमुल जयघोषके साथ गाड़ीको ऊपरकी ओर खींचने लगे। दिनभर खींचते रहने पर भी उस दिन गाड़ी थोड़ी ही दूर चढ़ सकी। सायंकाल होते ही हज़ारों खंभोंको गाड़कर गाड़ी वहीं बांध दी गयी। दूसरे दिन प्रातः काल होते ही फिर कार्य शुरू हुआ । उस दिन गाड़ी कुछ अधिक दूर तक ले जायी गयी । इस प्रकार एक मास तक क्रमसे अधिक-अधिक खींच-खींच कर मूर्ति पर्वतके शिखरपर पहुंचायी गयी । राजा अागन्तुकोंका अन्न, फल, पान, सुपारी, श्रादिसे यथेष्ट सत्कार करता रहा । इस धार्मिक उदारताको देख कर जनता मुक्तकण्ठसे उसकी प्रशंसा करती रही। पहाड़के ऊपर मूर्ति २२ खंभोंसे बने हुए एक विशाल एवं सुंदर अस्थायी मण्डप में पधारायी गयी। और पूर्ववत् राजकुमारके निरीक्षणमें लगातार एक साल तक मूर्ति निर्माणका अवशिष्ट कार्य सम्पन्न होता रहा । मूर्तिकी लता, नासाग्र दृष्टि, आदि रचना की पूर्ति पहाड़ पर ही हुई। मूर्ति निर्माण कार्य समाप्त होते ही वीरपाण्ड्यने शिल्पियोंको भर-पूर भेंट दी तथा संतुष्ट करके घर भेजा। इसके बाद पहाड़ पर मण्डप निर्माण करा कर शा० शक १३५३ विरोधिकृत संवत्सर, फाल्गुन शुक्ला द्वादशी [ ई० सन् १४३२, फरवरी ता० १३ ] के स्थिर लग्न में श्री १००८ बाहुबलि ३२ २४९ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ मूर्ति की स्थापना बड़ी धूम धाम से करायी । इस बिंब प्रतिष्ठोत्सव में विजयनगरका तत्कालीन शासक राजा देवराज भी सम्मिलित हुआ था ।' sus भैरवराय [ ई० सन् १५०५ ] यह बड़ा प्रतापी राजा था। अपने राज्यकाल में स्वतंत्र होनेके लिए इसने फिर एक बार प्रयत्न किया था । पर इसमें इसे सफलता नहीं मिलो । कारकलकी 'चतुर्मुख - बसदि ' का निर्माण इसी ने कराया था। यह मंदिर दर्शनीय है और कला की दृष्टि से अपना वैशिष्ट्य रखता है । इसे इम्मडि भैरवरायने शा० शक १५०८, ई० सन् १५८६ में बनवाया था । इसका मूल नाम 'त्रिभुवनतिलक- चैत्यालय' है । यह सारा मंदिर शिलानिर्मित है। इसके चारों तरफ एक-एक द्वार है, इसलिए यह चतुर्मुख-बसदि कहलाता है । प्रत्येक द्वारमें अर, मल्लि एवं मुनिसुव्र तीर्थंकरों को तीन प्रतिमाए विराजमान हैं। पश्चिम तरफ २४ तीर्थंकरोंकी २४ मूर्तियां भी स्थापित हैं । इनके अतिरिक्त दोनों मण्डपोंमें भी कई जिनबिंब हैं । दक्षिण और वाम भाग में वर्तमान ब्रह्म यक्ष और पद्मावती यक्षणीकी मूर्तियां बड़ी चित्ताकर्षक हैं। मंदिर के खंभों एवं दीवालों में खुदे हुए पुष्प, लताएं और भिन्न-भिन्न चित्र इम्मडि भैरवके कला प्रेमको व्यक्त कर रहे हैं । दन्तोक्ति है कि इसे बारह - मंजिला बनवाने की उसकी लालसा थी। पर वृद्धावस्था के कारण अपना संकल्प पूर्ण नहीं कर सका इस बातकी पुष्टि मंदिरकी बनावट भी होती है। भैरवरायने मंदिरके लिए 'तोलार' ग्राम दानमें दे दिया था; जैसा कि पश्चिम दिशा के दरवाजे में स्थित शिलालेख से प्रमाणित होता है। इस मंदिर निर्माणका इतिहास बड़ा ही रोचक है । त्रिभुवन तिलक चैत्यालय- सन् १५८४ में एक रोज शृङ्गेरी शंकराचार्य मठ के तत्कालीन पीठाधीश श्री नरसिंह भारती कारकलके मार्गसे कहीं जा रहे थे। जब यह बात भैरवरायको मालूम हुई तो उन्होंने सम्मान पूर्वक उनसे भेंट की और नवनिर्मित, प्रतिष्ठित, सुन्दर जिनमंदिरमें उन्हें ठहराया तथा स्वामीजीको अपनी राजधानीमें कुछ समय तक ठहरनेके लिए श्राग्रह किया। इस पर भारतीजीने उत्तर दिया कि जहां पर अपने नित्य कर्मानुष्ठानके लिए देवमंदिर नहीं है, वहां पर मैं नहीं ठहर सकता। इस उत्तरसे राजाको मार्मिक चोट लगी । फलस्वरूप जिस नूतन निर्मित जिन-मंदिर में भारतीजी ठहराये गये थे उसीमें राजाने तत्-क्षण 'शेषशायी अनन्तेश्वर विष्णु भगवान् की एक सुन्दर मूर्ति स्थापित करा दी। यह मंदिर कारकल में आज भी मौजूद है | कलाको दृष्टिसे उक्त मूर्ति बहुत सुन्दर है । यह समाचार जब गुरू ललितकीर्तिजीको ज्ञात हुआ, तो राजा भैरवरायपर वे बहुत रुष्ट हुए। दूसरे रोज भैरवराय प्रतिदिनकी तरह जब ललितकीर्तिजीके दर्शनको गये और उन्हें नमस्कार करने लगे तब संतुष्ट भट्टारकजीने खड़ाऊं सहित पैरोंसे उन्हें ठुकरा दिया । साथ ही साथ कहने लगे कि तुम जैनधर्मद्रोही हो । राजाने हाथ जोड़कर नम्रता से प्रार्थना की १ - विशेष के लिये जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ५, किरण २ देखें । २५० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारकलका भैररस राजवंश कि सभी धर्मोंको एक-दृष्टिसे देखना राजाका धर्म है। इसीलिए जैनमंदिर वैदिकोंको दे दिया: मेरे अपराधोंको क्षमा करें । साथ ही साथ भट्टारकजीके समक्ष राजाने यह प्रतिज्ञा की कि एकही साल के अंदर मैं दूसरा इससे भी अधिक प्रशस्त जिनमंदिर तयार करवा दूंगा, जिससे मुझे अभ्युदय एवं निश्रेयसकी प्राप्ति हो । इस प्रतिज्ञासे बद्ध होकर भैरवरायने एक सालके भीतर इस 'त्रिभुवन तिलक' जिनचैत्यालयका निर्माण कराया था । यह मंदिर जैनमठके सामने उत्तर दिशामें है। उपर्युक्त शासकोंके अतिरिक्त अभिनव पाण्ड्यदेव', हिरिय भैरवदेव' आदि राजाओंने भी जैनधर्मकी अच्छी प्रभावना की है । शासक ही नहीं, इस वंशमें कई वीर शासिकाएं भी हुई हैं । भैररसोंकी सभामें विद्वानोंका भी अच्छा अादर था। इसका मुख्य कारण यह है कि इस वंशके कई शासक स्वयं भी अच्छे कवि थे भव्यानन्द-शास्त्र' के रचयिता पाण्ड्य क्षमापति, क्रियानिघण्ट' के प्रणेता वीरपाण्ड्य, आदि इस बात के साक्षी हैं । भव्यानन्द-शास्त्र छोटासा सुभाषित ग्रंथ है । उस समयके संस्कृत कवियोंमें ललितकीर्ति, नागचंद्र, देवचन्द्र, कल्याणकीर्ति, श्रादि तथा कन्नड कवियोंमें रत्नाकर, चन्द्रम, श्रादिके नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन कवियोंमें नागचन्द्रने 'विषापहारस्तोत्रटीका', कल्याणकीर्तिने 'जिनयज्ञफलोदय', [सं०]3 'ज्ञानचन्द्राभ्युदय', 'कामनकथे', 'अनुप्रेक्षे', 'यशोधरचरिते,' ‘फणिकुमारचरिते', 'जिनस्तुति', 'तत्त्वभेदाष्टक', सिद्धराशि' और 'चिन्मयचिन्तामणि' [क०] रत्नाकरने 'भरतेश्वरवैभव' और 'शतकत्रय' [रत्नाकर शतक, अपराजितेश्वर शतक और त्रिलोक शतक]४ तथा चन्द्रमने 'गोम्मटेश्वरचरिते५' 'जैनाचार', आदि की रचना की थी। कारकलके शेष जैन स्मारकोंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है मठकी पूर्वदिशामें थोड़ी दूर पर एक पार्श्वनाथ बसदि है, जो 'बोम्मराय-बसदि' नामसे विश्रुत है, बाहुबलिपर्वत पर चढ़ते हुए बीचमें एक छोटा मंदिर है। इसका भी नाम 'पार्श्वनाथ-बसदि' है। पर्वत पर बाहुबली स्वामीके सामने दाहिनी और बायीं तरफ शीतलनाथ एवं पार्श्वनाथ तीर्थंकरोंके दो मंदिर हैं। हिरियंगड़ि जाते समय मार्गमें क्रमशः श्रमण या चन्द्रनाथ बसदि, आनेकेरे बसदि और अरमने बसदि ये तीन मन्दिर मिलते हैं । अानकेरे बसदिमें चन्द्रनाथ, शान्तिनाथ और वर्धमान तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएं तथा अरमने बसदिमें आदिनाथ तीर्थंकरकी प्रतिमा विराजमान है। हिरियंगड़िमें वाम पार्श्वकी दक्षिण दिशामें १ ई० सन् १४५७ में कारकलके हिरियंगडिस्थ नेमीश्वर बसदिको दत्त दानपत्र । २ ई० सन् १४६२ में मूडबिद्रीके होसबसदिको दत्त दानपत्र । ३ विशेषके लिए दृष्टव्य 'प्रशस्ति-संग्रह। ४ रत्नाकरके सब ग्रन्थोंका हिन्दी अनुवाद सोलापुरसे प्रकाशित हो चुका है। ५ 'जैन-सिद्धान्त-भास्कर' भाग ५, किरण २ देखें । २५१ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्रादिनाथ एवं पार्श्वनाथ बसदि और दक्षिण पार्श्वकी उत्तर दिशामें पार्श्वनाथ और आदिनाथ देवालय हैं । इसी हिरियंगडिके हातेके भीतर बायीं ओर दक्षिण दिशामें आदिनाथ, अनन्तनाथ तथा धर्म-शान्तिकुंथु तीर्थंकरोंके तीन मंदिर हैं । इस अन्तिम मंदिरके बगलमें एक निषीधिका बनी हुई है, जिसमें कमशः निम्नलिखित व्यक्तियोंकी मूर्तियां और नाम अंकित है-१, कुमुदचन्द्र भ० २, हेमचन्द्र भ. ३, चारुकीर्ति पण्डितदेव ४, श्रुतमुनि ५, धर्मभूषण भ० ६, पूज्यपाद स्वामी। नीचेकी पंक्तिमें क्रमशः १, विमलसूरि भ० २, श्रीकीर्ति भ० ३, सिद्धान्तदेव, ४, चारुकीर्तिदेव ५, महाकीर्ति महेन्द्र कीर्ति । इस प्रकार उक्त इन व्यक्तियोंकी मूर्तियां छह छहके हिसाबसे तीन-तीन युगलरूपमें बारह मूर्तियां खुदो हैं । हिरियंगडिका विशाल एवं उन्नत मानस्तंभ बहुत ही सुन्दर है। यह मानस्तंभ नेमिनाथ भगवान्के विशाल एवं भव्य मन्दिरके सामने स्थित है। २५२ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियरका तोमर वंश और उसकी कला श्री हरिहरनिवास द्विवेदी, एम० ए०, एलएल० बी० प्रभातकालीन तारागणोंके सामान मध्यकालमें भारतीय राजवंश मस्लिम-सौभाग्य-सूर्यकी किरणोंके प्रवाहमें विलीन होते गये । देशके विभिन्न भागों में अनेक छोटे छोटे राज्य स्थापित होगये थे। इनमें से अनेक वंशोंका इतिहास उनकी वीरताके कारण तो महत्त्व रखता ही है परन्तु आज भी उनसे निर्माण की हुई कलाकृतियां मिलती हैं जो उनकी ओर हमारी जिज्ञासा जाग्रत कर देती हैं । ग्वालियर-गदपर स्थित मध्यकालीन स्थापत्य कलाके रस मानमंदिरको देखकर तथा विशालकाय एवं प्रशान्त मुख-मुद्रा-मयी तीर्थंकरोंकी चरण-चौकियोंपर उल्लिखित अभिलेखोंको देखकर यह जाननेकी इच्छा प्राकृतिक रूपसे उत्पन्न होती है कि इन कृतियोंके निर्माता कौन थे ? तोमर राज्यका उदय ग्वालियरपर सन् १३७५ से प्रायः सवा सौ वर्षतक तोमरोंका राज्य रहा। इस वंशके वीरसिंह, उद्धरणदेव, विक्रमदेव, गणपतिदेव, ड्रगरेन्द्रसिंह, कीर्तिसिंह और मानसिंहके नाम अद्वितीय वीरों एवं कलाके आश्रयदाताओंके रूपमें आज भी प्रसिद्ध हैं । तैमूर लंगके अाक्रमणके समय भारतकी मुस्लिम सत्ता डांवाडोल हो गयी थी। इसी समय वीरसिंह तोमरने ग्वालियर-गढ़पर अधिकार कर लिया और मानसिंह तोमर तक इनका प्रतापी वंश स्वतंत्र राजाके रूपमें राज्य करता रहा । महाराज मानसिंहकी मृत्युके पश्चात् तोमरोंकी स्वतंत्र सत्ता तिरोहित हो गयी। मानसिंहके पुत्र विक्रमासिंह लोदियों के अधीन हो गये और वे लोदियोंकी अोरसे पानीपतकी युद्ध भूमिमें लड़े भी थे । डूंगरेन्द्रदेव-- तोमरवंशके राज्यकी स्थापना होते ही उसे पड़ोसी सुल्तानोंसे लोहा लेना पड़ा और यह युद्ध अनवरत रूपसे चलता ही रहा । उद्धरणदेव, विक्रमदेव, गणपतिदेवके राज्यकालकी कोई घटना ज्ञात नहीं, परन्तु डूगरेन्द्रदेवको मालवाका हुशंगशाह और दिल्लीका मुबारकशाह सतत कष्ट देते रहे थे। हुशंगशाहसे पीछा छुड़ानेको उसे मुबारिकशाहकी सहायता लेनी पड़ी थी और उसे कर भी देना पड़ा था। गरेन्द्रसिंह अपने बाहुबल और राजनीतिक बुद्धिके द्वारा अपनी स्वतंत्र सत्ताको कायम रख सके २५३ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ थे । इन्होंने नरवरगढको जीतनेका असफल प्रयास किया था, और आगे चलकर नरवरगढ़ तोमरोंके अधीन हो भी अवश्य गया था; क्योंकि वहांके जय-स्तंभ पर तोमरोंकी वंशावली उत्कीर्ण है । डूंगरेन्द्रदेवका जैनधर्मको प्रोत्साहन डूंगरेन्द्रदेव अपनी राजनीतिक चातुरी एवं वीरताके लिए तो प्रसिद्ध हैं ही, साथ ही उनका नाम ग्वालियर-गढकी जैनमूर्तियों के निर्माताके रूपमें भी अमर रहे गा । उनके राज्यकालमें इन अद्वितीय प्रतिमाअोंका निर्माण प्रारंभ हो गया था । इन महाराजके काल में अनेक समृद्ध भक्तोंने अपनी श्रद्धा एवं सामर्थ्यके अनुरूप विशाल जैन प्रतिमाओंका निर्माण किया और इन प्रतिमानोंकी चरण चौकियोंपर अपने साथ अपने नरेशका भी उल्लेख कर दिया । विक्रम संवत् १४९७ तथा १५१० की कुछ मूर्तियोंकी चरण चौकीपर उनके निर्माण संवत्के साथ साथ गोपाचल दुर्ग, महाराज डूंगरेन्द्रसिंहका उल्लेख है । पितृपादानुगामी कीर्तिसिंह-- __ महाराज डूंगरेन्द्रदेवके तीस वर्षके शासनकालके पश्चात् उनके पुत्र कीर्तिसिंहका राज्य प्रारंभ हुा । उन्हें भी अपने २५ वर्षके लम्बे राज्यकालमें कभी जौनपुर और कभी दिल्लीके सुल्तानोंको मित्र बनाना पड़ा । इन महाराजके कालमें ग्वालियर गढ़की शेष जैन प्रतिमाओंका निर्माण हुआ। गोपगिरिकी जैनमर्तियां-- ___ ग्वालियर गढ़की इन प्रतिमाओंको ५ भागोंमें विभाजित किया जासकता है--(१) उरवाही समूह (२) दक्षिण-पश्चिम समूह (३) उत्तर-पश्चिम समूह (४) उत्तर-पूर्व समूह तथा (५) दक्षिण-पूर्वी समूह । इनमें से उरवाही द्वारके एवं किंग जार्ज पार्कके पासके समूह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । उरवाही समूह अपनी विशालतासे एवं दक्षिण पूर्वका समूह अपनी अलंकृत कला द्वारा ध्यान आकर्षित करता है । उरवाही जैन प्रतिमाएं उरवाही समूहमें २२ प्रतिमाएं हैं जिनमें छह पर संवत् १४९७ से १५१० के बीचके अभिलेख खुदे हैं । इनमें सबसे ऊंची खड़ी प्रतिमा २० नम्बरकी है । इसे बाबरने २० गजका अनुमान किया था परन्तु वास्तवमें यह ५७ फीट ऊंची है। चरणोंके पास यह ९ फीट चौड़ी है। २२ नम्बरकी नेमिनाथजी की मूर्ति बैठी हुई बनी हुई है जो ३० फीट ऊंची है। १७ नम्बरकी प्रतिमा पर तथा आदिनाथकी प्रतिमाकी चरण चौकी पर डूंगरेन्द्र देवके राज्यकालका संवत् १४६७ का लम्बा अभिलेख खुदा है। दक्षिण-पश्चिमके जिनबिम्ब-- दूसरा दक्षिण-पश्चिमका समूह एक-खंभा तालके नीचे उरवाही दीवाल के बाहरकी शिला पर है। इस समूहमें पांच मूर्तियां प्रधान हैं । २ नम्बरकी स्त्री-प्रतिमा लेटी हुई ८ फीट लम्बी है । इस पर अोप किया २५४ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियरका तोमरवंश और उसकी कला है । यह प्रतिमा त्रिशला माताकी ज्ञात होती है । ३ नम्बरके प्रतिमा - समूह में एक स्त्री- पुरुष तथा बालक हैं । यह संभवत: महाराज सिद्वार्थ, माता त्रिशला तथा महावीर स्वामी की हैं। उत्तर पश्चिमकी मूर्तियां- उत्तर पश्चिम समूहमें केवल आदिनाथकी एक प्रतिमा महत्वपूर्ण है क्योंकि इस पर सं० १५२७ का एक अभिलेख खुदा हुआ है । इसी प्रकार उत्तर-पूर्व समूह भी कला की दृष्टिसे महत्त्वहीन है । मूर्तियां छोटी छोटी हैं और उन पर कोई लेख नहीं है । दक्षिण पूर्वी कलामय विशाल मूर्तियां- दक्षिण-पूर्वी समूह मूर्तिकलाकी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । यह मूर्ति समूह फूलबागके ग्वालियर दरवाजेसे निकलते ही लगभग आधमील तक चट्टानोंपर खुदी हुई दिखती हैं। इनमें से लगभग २० प्रतिमाएं २० फुट से ३० फुट तक ऊंची हैं और इतनी ही ८ से १५ फुट तक ऊंची हैं। इनमें आदिनाथ नेमिनाथ, सुपद्म (पद्मप्रभु ), चन्द्रप्रभु, सम्भू ( संभव ) नाथ, नेमिनाथ, महावीर, कुम्भ ( कुन्थ ) नाथ की मूर्तियां हैं जिनमें से कुछ पर संवत् १५२५ से १५३० तकके अभिलेख खुदे हैं । जैसा पहले लिखा जा चुका है ड्र' गरेन्द्रसिंह तथा कोर्तिसिंह के शासनकाल में ईसवी सन १४४० तथा १४७३ के बीचमें ग्वालियर गढ़की संपूर्ण प्रतिमाओं का निर्माण हुआ है । इस विशाल गढ़की प्रायः प्रत्येक चट्टानको खोदकर उत्कीर्णकने अपने अपार धैर्यका परिचय दिया है और इन दो नरेशों के राज्यमें जैन-धर्मको जो प्रश्रय मिला और उसके द्वारा मूर्तिकला का जो विकास हुआ उसकी ये भावमयी प्रतिमाएं प्रतीक हैं। तीस वर्ष के थोड़े समय में ही गढ़की प्रत्येक मूक एवं बेडौल चट्टान महानता, शांति एवं तपस्या की भावना मुखरित हो उठी । प्रत्येक निर्माणकर्ता ऐसी प्रतिमाका निर्माण कराना चाहता था जो उसकी श्रद्धा एवं भक्ति के अनुपात में ही विशाल हो और उत्कीर्णकने उस विशालतामें सौन्दर्यकी पुट देकर कलाकी पूर्व कृतियां खड़ी कर दीं। छोटी मूर्तियों में जिस बारीकी एवं कौशलकी आवश्यकता होती है, वह और अनुपात इन प्रतिमाओं में अधिकतर दिखायी देता है । मूर्तिभञ्जक बाबर इन मूर्तियोंके निर्माणके लगभग ६० वर्ष पश्चात् ही बाबरकी वक्रदृष्टि इनपर पड़ी । सन् १५२७ में उसने उरवाही द्वारकी प्रतिमाओं को ध्वस्त कराया। इस घटनाका बाबर ने अपनी आत्मकथामें बड़े गौरवके साथ उल्लेख किया है । बाबर के साथियोंने उन मूर्तियों के मुख तोड़ दिये थे जो पीछे से जैनियों द्वारा बनवा दिये गये । अस्तु । २५५ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ महाराज मानसिह-- कीर्तिसिंहके पश्चात् कल्याणमल राजा हुअा। उसके राज्यकालकी कोई उल्लेखनीय घटना ज्ञात नहीं परंतु इनके पुत्र मानसिंह तोमर अत्यन्त प्रतापशाली तथा कलाप्रिय नरेश थे । इनके राज्यकालमें दिल्लीके बहलोल लोदीने ग्वालियरपर अाक्रमण प्रारंभ कर दिये। कूटनीतिसे और कभी धन देकर मानसिंहने इस संकटसे पीछा छुड़ाया। बहलोल १४८९ में मरा और उसके पश्चात् सिकंदर लोदी गद्दीपर बैठा । इसकी ग्वालियरपर दृष्टि थी परन्तु उसने इस प्रबल राजाकी अोर प्रारंभमें मैत्रीका ही हाथ बढ़ाया और राजाको घोड़ा तथा पोशाक भेजी । मानसिंहने भी एक हजार घुड़सवारोंके साथ अपने भतीजेको भेंट लेकर सुलतानसे मिलने बयाना भेजा। इस प्रकार महाराज मानसिंह सन् १५०७ तक निष्कंटक राज्य कर सके । १५०१ में तोमरोंके राजदूत निहालसे क्रुद्ध होकर सिकंदर लोदीने ग्वालियरपर आक्रमण किया । मानसिंहने धन देकर एवं अपने पुत्र विक्रमादित्यको भेजकर सुलह कर ली। सन् १५०५ में सिकंदर लोदीने फिर ग्वालियरपर अाक्रमण किया । मानसिंहने धन देकर एवं अपने पुत्र विक्रमादित्यको भेजकर सुलह कर लो । सन् १५०५ में सिकंदर लोदीने फिर ग्वालियरपर आक्रमण कर दिया । अबकी बार ग्वालियरने सिकंदरके अच्छी तरह दांत खट्टे किये । उसकी रसद काट दी गयी और बड़ी दुरवस्थाके साथ वह भागा । सन १५१७ तक फिर राजा मानसिंहको चैन मिला। परन्तु इस बार सिकंदरने पूर्ण संकल्पके साथ ग्वालियर पर आक्रमण करनेकी तैयारी की । तैयारी कर ही रहा था कि सिकंदर मर गया । तोमर वंशका अस्त-- सिकंदरके बाद इब्राहीम लोदी गद्दीपर बैठा । राज्य संभालते ही उसके हृदयमें ग्वालियर गढ़. लेनेकी महत्त्वाकांक्षा जाग्रत हुई । उसे अपने पिता सिकंदर और प्रपिता बहलोलकी इस महत्वाकांक्षामें असफल होनेकी कथा ज्ञात ही थी अतः उसने अपनी संपूर्ण शक्तिसे तैयारी की । जब गढ़ घिरा हुआ था उसी समय मानसिंहकी मृत्यु हो गयी । मानसिंहके पश्चात् तोमर लोदियोंके अधीन हो गये। विक्रमादित्य तोमर अपने नाममें निहित स्वातंत्र्यकी भावनाको निभा न सके । मानसिंह जितने बड़े योद्धा थे उतने ही बड़े प्रजा हितैषी तथा कलाप्रेमी थे । श्राज ग्वालियरके तमरघारमें मानसिंहका नाम वीर विक्रमादित्यके समान ही प्रख्यात है और उनकी कथाएं आज भी सर्वसाधारणमें प्रचलित हैं। गूजरि मृगनयना-- ___ मानसिंह और गूजरी मृगनयनाकी प्रेम कथा जहां श्राज जन-मन-रंजन करती है वहां उसका मूर्त रूप गूजरीमहल आज भी उस प्रेम कथाको अमर कर रहा है । कहते हैं महाराज मानसिंह एक दिन २५६ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियरका तोमरवंश और उसकी कला मृगयाको गए । उन्होंने एक अपूर्व सुंदरीको जंगली भैंसोंको परास्त करते देखा । अद्भुत रूप और अपार बलकी उस मूर्तिको देखकर महाराज उसपर मोहित हो गये और उसको रानी बनाने का संकल्प किया । उस गूजर-कन्याका नाम मृगनयना था । उसके लिए गूजरी महल पृथक् बनवाया गया और उसकी इच्छानुसार उसके ग्राम राईसे उसके महल तक पानीका नल लगवाया गया । संगीत प्रेम महाराज मानसिंह संगीतके भी बहुत प्रेमी थे । इनके काल में 'मानकुतूहल' नामक एक संगीत इससे ज्ञात होता है कि 'ध्रुपद' का अविष्कार इन्हीं महाराजने किया । इनके समय प्रसिद्ध गायक इनकी सभा में एकत्रित हुए थे और उनकी सलाह से ही यह ग्रंथ ग्रंथ की रचना हुई। समस्त भारत देश के लिखा गया था । चित्र - ( मान ) महल - मानसिंह द्वारा निर्मित 'चित्रमहल' जिसे अब 'मानमंदिर' कहते हैं हिन्दू स्थापत्यकलाका ग्वालियर में ही नहीं, सम्पूर्ण भारत में अप्रतिम उदाहरण है । मध्यकाल के भवनों में या तो मन्दिर मठ प्राप्त होते हैं या अत्यंत ध्वस्त भवन प्राप्त हुए हैं। राजपूतोंके जो प्रासाद मिलते भी हैं वे मुगलोंके समकालोन या उनके पश्चात् के होनेके कारण उन पर मुगल- कलाका प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है । यह पूर्व- मुगलकालीन राजमहल ही एक ऐसा उदाहरण है जो विशुद्ध भारतीय शैलीमें बना है और निश्चय ही जिसने मुगल स्थापत्य कलाको प्रभावित किया है । इस महलको सजाने के लिए अत्यन्त सुंदर उत्कीर्णन एवं चित्रकारीका उपयोग किया गया है । सारा महल कभी सुंदर चित्रोंसे सुशोभित था । ये चित्र व बिल्कुल नष्ट हो गये हैं परन्तु श्राज भी इस रंगमहलकी नानोत्पल रचित चित्रकारी अपने चटकीले रंगोंसे चित्तको आकर्षित करती है । इतनी ही शताब्दियोंके पश्चात् भी इनके रंग ज्यों के त्यों बने हुए हैं। दक्षिणी एवं पूर्वी पार्श्व में नानोत्पलखचित हंस एवं कदलीकी पंक्तियां, वृक्ष, सिंह, हाथी, आदि अत्यंत मनोरम हैं । मानमंदिर के प्रांगनों एवं झरोखोंमें अत्यंत सुंदर खुदायीका काम है । श्रांगनों में खंभों, भीतों, तोड़ों, गोखोंमें सुन्दर पुष्पों, मयूरों, सिंह, मकर, आदिकी खुदायी की गयी है । इस महलकी नानोत्पलखचित चित्रकारी, इसमें मिलने वाली उत्कीर्णक की छैनीका कौशल इसे भारतकी महानतम कलाकृतियों में रखता । इसके दक्षिणी पार्श्वकी कारीगरीको देखकर कहा जा सकता है कि मानसिंह ‘हिन्दू शाहजहां' था, जिसके पास न तो शादजहांका साम्राज्य तथा वैभव था ३३ २५७ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ और न वह शांति; अन्यथा वह उससे कहीं अच्छे भवन निर्माण कर जाता । इस प्रासाद के निर्माण से मुगल वादशाहोंने पर्याप्त स्फूर्ति प्राप्त की होगी । बाबरने अपनी जीवनी में इस महलकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। संभवतः श्रागराकी नानोत्पलखचित कारीगरीमें ग्वालियर के कारीगरोंका योग अवश्य होगा और आगरा तथा सीकरीका स्थापत्य इस महल से स्पष्ठतः प्रभावित है । बाबरको इस महलका छोटापन खरा है । परन्तु यह न भूलना चाहिए कि यह निर्माण उन महाराजा मानसिंहने कराया है जिनके सिंह द्वार पर शत्रु सतत प्रहार करता रहता था और जिसे अपने चित्रमहलको भी यह सोचकर बनाना पड़ा होगा कि अवसर पड़ने पर उसमें राजपूत रमणियां अपनी रक्षा भी कर सकें । २५८ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन सिंधप्रान्तमें जैनधर्मश्री अगरचन्द्र नाहटा भारतके ग्राम, नगर, जनपद, श्रादिका इतिहास अब भी अन्धकारमें है। जैनधर्मके प्रचारक साधुगण सदा पैदल घूमते रहते थे फलतः उन्हें देशके कोने कोनेका सक्षात् परिचय रहता था । फलतः उनकी पट्टावलियां, विविध प्रशस्तियां, आदि प्राचीन भारतके भूगोलको तैयार करनेमें विशेष साधक हैं । यही दृष्टि इस लेखकी प्रेरक है। जैनधर्ममें कई सम्प्रदाय हैं, प्रत्येक सम्प्रदायमें अनेक गच्छ, शाखा, आदि हैं । फलतः यहां केवल सिन्धप्रान्त और उसमें भी केवल 'खरतरगच्छ' को लेकर सामग्री संकलित की है। भ० महावीरका समकालीन सिन्ध-- भारतकी प्रसिद्ध नदियां गंगा-सिन्धुको जैनशास्त्रोंमें शाश्वत कहा है। इनकी इतनी प्रधानता थी कि सिन्धुके किनारे बसा प्रान्त ही सिन्धु हो गया था तथा ग्रीक आक्रमणकारियोंने तो पूरे भारतको ही इस नदीके नामानुसार पुकारना प्रारम्भ कर दिया था। पन्नवणा सूत्रमें दिये आर्य देशों में 'सिन्धुप्रान्त' का भी नाम है । इसकी राजधानी वीतभयपत्तन (भेहरा) थी। भगवान महावीरके सययमें इसका शासक उदयन था । जिसकी पटरानी पद्मावतीके अतिरिक्त प्रभावती, आदि अनेक रानियां थीं। उसके प्रभावतोसे अभीचिकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ था। उदयनके राज्यमें सिन्धु, सौवीर, आदि सोलह जनपद तथा ३६३ नगर थे। महासेन, आदि दश मुकुटधारी राजा उसके सामन्त थे । उदयन जैन श्रमणोंके उपासक थे । एकबार पौषधशालामें रात्रि जागरण करते समय उनके मनमें आया 'वह देश धन्य है जहां वीर प्रभुका विहार हो रहा है। मेरे वीतभय नगरमें पधारें तो मैं भी वैयावृत्य करूं । चम्पामें विराजमान वीरप्रभुके दिव्यज्ञानमें उक्त अभिलाषा झलकी और समवशरण सिन्धकी राजधानीमें जा पहुंचा। राजा विरक्त हुअा, पुत्रका राज्याभिषेक करना चाहा, विचार आया राज्य पाकर पुत्रभोग विलासमें पड़ जायगा इस प्रकार मैं उसके संसार भ्रमणका निमित्त बनूगा । अतः अपने भानजे केशरी १---जैन साहित्य विशाल है अतः मेरा वर्णन एक सम्प्रदाय विशेषके साहित्यका आश्रय लेकर है। २-श्री भगवतीसूत्र शतक १३, उद्देश ६ । २५९ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ कुमारको राज्य दे दिया। राजपुत्र अभीचिकुमार भी चम्पाके राजा 'कोणिक' के पास चला गया और पितासे वैरभाव रखता हुआ वहीं सल्लेखना पूर्वक मरा तथा असुरकुमार देव हुआ । इस प्रकार इस युगमें जैनधर्मका सिन्धमें पुनः प्रचार हुअा था । इसके पश्चात भी पंजाबमें अनेक जैनमुनि आते रहे हैं । इनकी तालिका मुनिदर्शन विजयजीने "पंजाबमें जैनधर्म' शीर्षक लेखमें दी थी, किन्तु भ्रान्त तथा संदिग्ध होनेके कारण मैं उसका उल्लेख नहीं करूगा' । उद्योतन सूरी कृत "कुवलय माला"( वि० सं० ८३५ ) से पता चलता है कि चन्द्रभागा के तीरपर पव्वइया; वर्तमान चाचर नगरी थी। इस नगरीके राजा तोररायके गुरु हरिभक्त सूरि थे । यदि तोरराय तोरमाण थे तो हरिभद्र सूरिका समय वि०८०० न होकर ५५६-५८९ वि० के आगे पीछे होना चाहिये । अर्थात् इस समय चाचरके अासपास (साकल के आसपास नहीं) जैन आचार्योंका अच्छा प्रभाव था। इसो अन्तरालमें उपकेश गच्छ के कुछ प्राचार्य सिन्ध गये थे ऐसा इस गच्छके चरित्रसे पता लगता है । किन्तु इसका समर्थक कोई समकालीन प्रमाण नहीं है । खरतरगच्छ सिन्धमें गणधर सार्द्धशतक (सं० १२९५) तथा वृहद्वत्ति में उल्लेख है कि खरतर गच्छके प्राचार्य वल्लभसूरि कामरुक्कोट तथा जिनदत्तसूरि उच्चनगर गये थे। इसके बाद इस गच्छके मुनियोंके सिन्ध आवागमनकी धारा अविरलरूपसे बहती रही जैसा कि आगेके विवरणसे स्पष्ट है । इताना ही नहीं इस गच्छका सिन्धसे साक्षात् सम्बन्ध एक दशक पहिले तक रहा है। यति पूनमचन्द्रजी का स्वर्गवास अभी हुआ है इनके पूर्वज गत ३०० वर्षसे वहांके गुरुपदको सुशोभित करते आये थे । खरतर गच्छकी रुद्रपल्लीप बेगड़, प्राचार्य, आदि शाखाओंके विषय में न लिखकर यहां पर केवल जिनभद्रसूरि शाखासे सम्बद्ध सामग्री का ही संकलन किया है । अंचलगच्छके यतिचन्द्र द्वारा रचित कर्मग्रन्थकी "बालबोध भाषाटीका, तपा गच्छके प्राचार्य सोमसुन्दर सूरिका 'नव तत्त्वालोक बोध' लोकां गच्छकी उत्तर शाखाका 'उत्तरार्धगच्छ' नाम, इन गच्छोंके पाञ्चाल-सम्बन्धके सूचक हैं । इसके अतिरिक्त खरतर गच्छीय प्राचार्योंने १ तक्षशिलाके स्तृपका निर्माता संप्रति था । कालिकाचार्यका पाञ्चाल विहार, आदि भ्रान्तियों के उदाहरण हैं। २ सिन्धी ग्रन्थमालामें मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित। . ३ उपकेशिगच्छ प्रबन्धमें श्रीकक्कसूरि, पद्यप्रभ उपाध्याय, देवदत्त सूरि, आदिके उपाख्यान । ४ कितने ही स्थान अब सिन्धमें नहीं हैं, पहिले थे फलतः मैंने आसपासके सब ही स्थानोंका उल्लेख किया है। ५ गायकबाड़ ग्रन्थमाला (बड़ादा ) में प्रकाशित "अपभ्रंश काव्यत्रयी।' ६ मुनिदर्शनविजयजीकी इनके विषयकी मान्यताएं पोषक प्रमाण न होनेसे निराधार है। २६० Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन सिंधप्रान्तमें जैनधर्म सिन्धी भाषामें भी रचनाएं की थी जैसा कि कविवर समयसुन्दर सूरिके 'मृगावती चौपाई', जटमल तथा समरथकी 'वखनी' आदि से स्पष्ट है । __ किसी समय सिन्धप्रान्त जैनौका गढ़ था । यद्यपि आज जैनी वहां बहुत विरल हो गये हैं तथापि कितनी ही जगह जैन मन्दिर, उपाश्रय, आदि दुर्दशा ग्रस्त होकर पड़े हैं । गणधर सार्द्धशतक वृहदवृत्ति, विज्ञप्ति त्रिवेणी पहावलियां, वहां रचित ग्रन्थ, वहां पर की गयीं ग्रन्थोंकी विविध प्रतिलिपियां तथा आदेशपत्रोंकी बहुलता उक्त अनुमानको स्वयं सिद्ध कर देती हैं । धर्मप्रचारके सम्बन्धसे उल्लिखित कतिपय स्थान-- विस्तृत वर्णनके विना ही निम्नाङ्कित स्थानोंकी तालिका इस तथ्यकी साक्षी है कि ११ वीं शतीके मध्यसे ही सिन्ध प्रान्त धर्म विहार में रत जैनाचार्योंका कार्यक्षेत्र हो गया था। क्रमांक स्थान वि० सम्वत् प्राचार्य विशिष्ट घटना १ मरूकोट (मारोठ) ११३० श्री जिनवल्लभसूरी भाणुमन्दिर प्रतिष्ठा, आदि २ उच्चनगर ११६७ श्री जिनदत्त सूरी भूत-प्रतिबोध, धर्मदीक्षा, आदि ३ वीठपहिण्डा ( भटिण्डा) ११७० ,, श्रविका-सन्देह निवारण, आदि ४ नगरकोट ११७३ श्री जिनपालोपाध्याय शास्त्रार्थ विजय, प्रतिष्ठा, आदि ५ देवराजपुर ( देरावर) ११७३ श्री जिनचन्द्र सूरी साधुदीक्षा, प्रतिष्टा, आदि ६ क्यासपुर ११७३ दीक्षोत्सव, आदि ७१ बहिरामपुर १३८४ श्री जिनकुशल सूरी पार्वविधि मन्दिर बन्दना, आदि ८ मालिकपुर देवराजपुर उत्सवमें योगदान, आदि ९ खोजावाहन १३८६ धर्मोपदेश, विहार, आदि १० सिलारवाहन धर्मप्रभावना, विहार, आदि ११ राणुककोट १३८४ जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, आदि ११ परशुरोरकोट १३८० जिनकुशल सूरी का विहार * १३ सरस्वतीपत्तन १४२२ श्री संघतिलकाचार्य सम्यक्तवसप्तति,आदि१० ग्रन्थ रचे १४ नन्दनवनपुर १४६८ श्री वर्द्धमान सूरी अचार दिनकर रचना, देवबन्दन, १५ मम्मणवाहण ९४८३ श्री जयसागरोपाध्याय चतुर्मास १६ द्रोहड़ोट्टा (हड़) १४८३ श्री जयसागरोपाध्याय चतुर्मास, ग्रन्थटीका, आदि १७ फरीदपुर १४८३ , संधयात्रा , आदि १८ माबारखपुर धर्मप्रभावना, भूतिस्थापना ,, १ ये सातो स्थान न्यूनाधिक रूपमें जैन संस्कृतिकी लीलाके प्रधान केन्द्र रहे हैं। २६१ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ महावीर १६४६ १६ निश्चिन्दीपुर १४८४ सुल्तानके दीवानको धर्मापदेश २० तलपाटक (तलवाड़ा) संघयात्रा बिहार विनय २१ मलिकवाहणपुर ,, चतुर्मास, ग्रन्थरचना २२ कंगदक दुर्ग (कांगड़ा) आदिनाथ मन्दिर बन्दना २३ गोपाचलपुर शान्तिनाथ " " २४ कोटिलग्राम पार्श्वनाथ , , २५ कोठीपुर २६ देवपालपुर प्रवेशोत्सव, चतुर्मास २७ हिसार १५४७ श्री क्षेमराज उपाध्याय उपदेश स० ग्रन्थादि रचना २८ मुलतान' , जिनचन्द्र सूरि ग्रन्थ रचना, धर्मयात्रा, आदि २६ कसुरपुर १६४७ विहार ३० लाहौर १६४८ श्री वाचक महिमराज शान्ति स्तवन, चतुर्मास, ग्रन्थरचना ३१ हापाणई ,, जिनचन्द्रसूरि विहार ३२ काश्मीर (गजनी गोलकुंज) ,, ,, बाबा मानसिंह ३३ रोहतासपुर ३४ श्रीनगर ,, (लौटते समय) ३५ चन्दुवैलि पत्तन १६५२ श्री जिनचन्द्र सूरि ,, धर्मोत्सव ३६ तोसामपुर १६५६ उपाध्याय गुणविनय ग्रन्थरचना ३७ हाजी खानडेरा १६६० श्री यशकुशल सूरि स्वर्गवास, ग्रन्थरचना ३८ शीतपुर ( सिद्धपुर) १६६९ , समयसुन्दर उपाध्याय धर्मप्रचार, ग्रन्थर चना ३६ किरहोर १६९२ विमलकीर्ति स्वर्गारोहण ४० सामुही १६९४ ग्रन्थरचना १. श्री धर्मप्रमोदने चैत्यबन्दन भाष्यवृत्ति तत्त्वार्थ दीपिका (१६४६), कनकसोमने मंगलकलश चो० (१६४८), श्री जयनिधानने सुरप्रियरास (१६६५), पद्मराजने क्षुलक चौ० तथा स्तवन (१६६७), समयसुन्दरने मृगावती रास तथा कर्मछत्तीसी (१६६८), ज्ञानचन्द्रने ऋषिदत्ता चौ० (१६७४), राजहंसने विजयसेठ चौ० (१६८२), विमलकीर्तिने प्रतिक्रमण ग० स्तवन (१६८०), जिन समुद्रसूरिने आतमकरणी संवाद (१७११), सुमतिरंगने मोहविवेक चौ० (१७२२), हरिकेश चौ० (१७२७), तथा जम्बू चौ० (१७२९), रंगप्रमोदने चपक चौ० (१७१५), विनयलाभने वच्छराज चौ० (१७३७) धर्ममन्दिरने दयादीपिका चौ० (१७४०) मोहविवेकरास (१७४१) तथा परमात्मप्रकाश चौ० (१७४२), देवचन्द्रने धर्मदीपिका चौ० (१७६६) तथा मायान्यायने नवतत्त्व भगवानी-स्तवन बनाया। २६२ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ सक्कीनगर ( बन्नू देश ) १७०९ ४२ मेहरा १७२२ ४३ थट्टा ४४ कंडवारा ४५ गाजीपुर ४६ जालिपुर करायी गयीं। यथा क्र० स्थान १ मुलतान २ मारोठ ३ सरसा ४ भेहरा ५ सीतापुर ६ हाजीखानडेरा 2 खारवारा ८ उच्चनगर ६ शीतपुर १० किरहोर श्री जिनचन्द्र सूरि रामचन्द्र ११ देवराजपुर १२ मोजगढ़ १३ बाहालपुर १४ लमानगर १५ बांगा १६ लुधियान १७ बन्नू " १६९९ श्रावक लखमसी १७५५ श्री जिनचन्द्रसूरि १७१८ १७५५ ॐ जनसमुद्र सूरिं "" समरथ ग्रन्थ प्रतिलिपियोंके कतिपय स्थान इनके अतिरिक्त ऐसे स्थानों की भी प्रचुर मात्रा है जहां पर अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियां "" काल (वि० सं०) १६४३-१६५६ १६३९ - १६१५ १७३१-१८७७ १७३२-१७७७ १६६३ १६७५-१८७३ १७४४ १६४९ - १७१५ १६७८ १६८४-१७१३ १६१७–१६६३ १७४८-१८७८ १८४३ - १८५४ १८०४ १८०१-१८८२ १८५५ १७४५-१७६१ प्राचीन सिंध प्रान्त में जैनधर्म ग्रन्थरचना (श्रौरंगशाह के राज्य में ) सामुद्रिकभाषा ग्रन्थ रचना, आदि त्रिलोकसुन्दरी मंगलकलश भीमसेन चौ० १ 'नाहटा ग्रन्थभण्डार' में संकलित ग्रन्थोंके आधारपर । २६३ ग्रन्थ रचना रसिकप्रियापरटीका ग्रन्थ संख्पा ५९ ५६ १४ २ १ १० १ १ २ २ १७ २ १० १ ,, २ " Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ १८ नवरंगखांकोट १७४६ १६ दुन्नियापुर १६७५ २० डेराइसमाइलखां १७२२-१८०८ २१ डेरागाजीखां १७५८-१८७३ २२ सक्कीनगर १७३३-१८४८ २३ अमरसर १६०७-१८९० २४ मलस्थान १७४०-१७४४ २५ लामपुर १६४८ २६ लाहोर १७ वीं शती २७ हिसार १५०६ २८ स्यालकोट १८१४-१८३८ २६ रावलपिण्डी १८ वीं शती ३० पटियाला १८७५-१८७८ ३१ फरीदकोट १८१८ कतिपय चतुर्मास ( वर्षावास )-- सिन्ध प्रान्तमें हुए चौमासोंके आदेशोंके अब भी इतने अधिक उल्लेख मिलते है कि उनके द्वारा जैनधर्मकी प्रान्त भरमें व्यापकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। स्था० काल श्राचार्य चतुर्मास हाजीखानडेरा १७४६-१७८८ श्रीविद्याविमल, आदि मारोठ १७४८-१७८७ देवराजपुर १७६८ श्री जिनजय सूरि डेरा इस्माइल खां १७६८-१७८८ श्री कल्याणसागर आदि मुलतान १७७६-१७८८ श्री मुक्तिमन्दिर , १४ बांग-भेहट १७७८-१७८८ श्री केहरि विद्याविमल ,, १७८०-१७८८ श्री सत्यधीर खाइबारी १७६० श्री वदिर वंगो-ईसाकोट १७९१ श्री ज्ञानप्रमोद , १ वांगा-लया १७९६ श्री महिमाविजय २६४ बन्तु Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन सिंधप्रान्तमें जैनधर्म सरसा श्री पुण्योदय भटनेर १७९८ श्री राजमूर्ति निष्कर्ष-- इसी प्रकार बन्दना, स्तवन, स्वर्गवास, श्रादिके स्थानोंके उल्लेखोंकी अत्यधिक प्रचुरता है। किन्तु भारतीय धर्मों के लिए समय कैसा घातक होता जा रहा है कि मुलतान, श्रादि कतिपय स्थानोंके सिवा सिन्ध ( वर्तमान पंजाब, सीमाप्रान्त तथा सिन्ध ) में जैनियोंके दर्शन भी दुर्लभ हो गये हैं। और टोरी पार्टीके द्वारा प्रारब्ध भारत-कर्तनने तो इन प्रान्तोंसे समस्त भारतीय धौंको ही अर्द्धचन्द्र दे दिया है। २६५ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुण्डलपुर अतिशयक्षेत्र श्री सत्यप्रकाश जी० आई० पी० रेलवेकी बीना-कटनी ब्रांच पर दमोह नामका रेल्वे स्टेशन है । दमोहसे लगभग चौबीस मील पर कुण्डलपुर एक छोटा सा गांव है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह स्थान अद्भुत बातोंका केन्द्र है, इसो लिए जैन इसे अतिशयक्षेत्र कहते हैं । ___ दमोहसे कुण्डलपुरकी यात्रा बैलगाड़ी, टांगा या प्राईवेट कार से की जाती है। सड़क पक्की नहीं है। यात्रियोंकी सुविधाके लिए राष्ट्रीय सरकार की सहातायसे दमोहकी जिला कौंसिल पक्की सड़क बनानेका विचार कर रही है । जब उसका यह विचार क्रियात्मक रूप धारण करेगा तो निश्चय ही स्थान बाहिरी दुनियां में एक महान आकर्षण उत्पन्न करेगा। प्रकृतिका यह सुरम्य प्रदेश घोड़ेके नालके श्राकारकी सुन्दर पहाड़ियोंसे घिरा हुआ है और प्रतिवर्ष चौबीसवें तीर्थङ्क र वर्धमान महावीरकी अभ्यर्थना करनेके लिए हजारों जैन यात्रियोंको श्राकृष्ट करता है । पहाड़ियों के बीच में एक सुन्दर तालाब है जिसे 'वर्धमान सागर' कहते हैं । इसके चारों ओर तथा पहाड़ियों पर बने हुए अंठावन जैन मन्दिरोंका व्यूह इन्द्र धनुषके रूपमें इस तालाबमें प्रतिबिम्वित होता है । इन मन्दिरोंका नकशा सुन्दर है और इनकी सजावट बहुमूल्य है। ये मन्दिर केवल अपनी श्रेष्ठता, सुन्दरता और कलापूर्ण निर्माणके लिए ही स्मरणीय नहीं हैं, किन्तु अपने ऐतिहासिक महत्त्वके लिए भी स्मरणीय हैं । वे अपने अन्दर १४०० वर्ष प्राचीन जैन संस्कृति और सभ्यताके इतिहासको सुरक्षित किये हैं । बड़ेबाबा-( महावीर ) मन्दिर-- यहांका मुख्य मन्दिर 'बड़े बाबाका मन्दिर के नामसे प्रसिद्ध है । यह घोड़ेके नालके श्राकारकी पहाड़ियों के बीचमें समुद्रको सतहसे तीन हजार फीटकी ऊंचाईपर स्थित है । इस मन्दिरमें वर्तमान महावीरकी दीर्घकाय मूर्ति स्थापित है, जो सुन्दर पद्मासन प्राकृतिमें एक पत्थरको काटकर बनायी गयी है । यह मूर्ति बारह फीट ऊंची है और तीन फीट ऊंचे श्रासनपर स्थित है । शुद्ध कलामयता,सौन्दर्य और आकारकी स्पष्टताकी दृष्टि से समस्त भारतमें इसकी समकक्ष दूसरी मूर्तियां कम हैं। और जैन कला तथा सभ्यताके Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुण्डलपुर अतिशय क्षेत्र अवशिष्ट बचे बहुमूल्य स्मारकों में से है । इस स्थानके प्रशान्त वातावरण से प्रत्येक व्यक्ति अत्यन्त प्रभावित होता है, यहां पर बैठे हुए भगवान महावीर प्रेम, अहिंसा और सत्यके अविनश्वर सिद्धान्तका उपदेश देते हुसे प्रतीत होते हैं। शिलालेख यहां ऐसे बहुत से स्थान हैं जिन्हें यदि खोदा जाय तो महत्त्व के ऐतिहासिक तथ्य प्रकट हो सकते हैं और इस स्थान के प्राचीन इतिहासपर प्रकाश डाल सकते हैं। यहां मरम्मत और नव-निर्माणकी त्यन्त श्रावश्यकता है। दो मन्दिर, जो सम्भवतः छठी शतीके हैं, ढहकर ढेर हो गये हैं उनकी मरम्मत होना जरूरी है । सातवीं से ग्यारहवीं शती तकके बीच में इस स्थानकी भाग्यरेखाको बतलानेवाला कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है । दमोह प्रदेशके रायपुराके निवासी सिंघई मनसुखभाईने वि० सं० १९८३ में महावीरकी उक्त मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी थी । इससे स्पष्ट है कि उस समय तक यह स्थान अच्छी तरह प्रसिद्ध हो चुका था । एक गुमठी ( लघु-मन्दिर ) में एक शिलालेख सं० १५०१ का तथा दूसरा सं० १५३२ का पाया गया है । यहां १६वीं शतीकी बहुतसी मूर्तियां हैं जो आज भी अच्छी हालत में हैं । इस तरह ग्यारहवींसे सोलहवीं शतीतक की ऐतिहासिक शृङ्खला अखण्डित रूपमें मिलती है । ऐतिहासिक तलघरा -- बड़े बाबा मन्दिरके पीछे एक बरामदा है, जो ऐतिहासिक शृङ्खलाकी प्राप्य कड़ियोंको जोड़ने में मदद दे सकता है; किन्तु यह बन्द है । इस मन्दिरके नीचे एक बड़ा अन्धकारपूर्ण भौंरा (भूमिघर ) है । इसका मंह भी बन्द है । कहा जाता है कि बड़े बाबा की मूर्तिके जानुत्रों के बीचमें एक छेद था । यदि इसमें कोई सिक्का डाला जाता था तो वह एक विचित्र शब्द करता हुआ किसी गुप्त स्थानमें चला जाता था । उसमें सिक्का डालना व्यर्थ समझकर प्रबन्धकोंने लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व इस छेदको बन्द करा दिया । किसी ने यह खोज करनेका प्रयत्न नहीं किया कि सिक्का कहां चला जाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है। कि सिक्का अवश्य ही नीचेके भौंयरेमें चला जाता । यदि उस भौंरेको खोला जाय तो प्राचीन सिक्कोंका एक ढेर निकल सकता है और तब छठी शतीसे लेकर आजतकका इतिहास खोज निकालना कठिन नहीं होगा | फतहपुर -- कुण्डलपुर से लगभग आधे मीलकी दूरी पर फतहपुर नामका एक छोटा सा गांव है। यहां पर 'रुक्मनी मठ' के नाम से प्रसिद्ध जैन मन्दिरके अवशेष पाये जाते हैं । यह मन्दिर छठी शती में बनाया २६७ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ गया था कुण्डलपुरके मन्दिरोंमें छठी शतीकी जो मूर्तियां पायी जाती हैं वे सब इसी मन्दिरसे लायी गयी थी। सड़कके किनारे पीपल के वृक्षकी छाया में एक सुन्दर चबूतरा बना हुआ है । रुक्मणी मठ के कुछ अवशेषों को इस पर सजाया हुआ है । इतिहासज्ञ आज भी इस दुविधा में हैं कि छठी शताब्दी में ऐसी कौनसी घटना हुई थी जिसके कारण इस स्थान पर बड़े बाबाकी ऐसी विशाल मूर्तिका निर्माण हुआ । फिर भी यह तो स्मरण रखना ही चाहिये कि उस समय यह स्थान गुप्त शासकोंके राज्यमें था और वे जैनधर्म के अनुयायी थे । कुछ इतिहासज्ञोंका ऐसा मत है कि यह वही कुण्डलपुर है जहांसे महामुनि श्री निर्वाण प्राप्त किया था, और तभी से यह स्थान पूज्य माना जाने लगा है। किन्तु जब तक इस विषयका समस्त जैन प्रमाण एक मत से समर्थन न करें तबतक निश्चितरूपसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता | बुन्देलेराजा यह बात निर्विवाद है कि बुन्देले राजाओं में यह स्थान अति प्रसिद्ध था और वे इसे पूज्य मानते थे, क्योंकि इन मन्दिरोंके पुनर्निर्माण में तथा प्रबन्ध में उनकी गहरी दिलचस्पीके प्रमाण मिलते हैं | बड़े बाबा के मन्दिरके प्रवेश द्वार पर लगे संस्कृत शिलालेख से इस बातका समर्थन होता है । इसके सिवा बहुत से ऐतिहासिक उल्लेख यह बतलाते हैं कि बुन्देले राजा इस मन्दिरका बड़ा सन्मान करते थे । एक समय धूप, वर्षा और तूफानके भयंकर थपेड़ोंने इस विशाल कृतिको जमीन्दोज कर दिया था और बड़े बाबाका प्रसिद्ध मन्दिर मलवेका ढेर बन गया था । किन्तु प्रकृतिके इन भयानक तूफानोंके बीच में भी बड़े बाबाकी विशाल मूर्तिको कोई हानि नहीं पहुंची। धीरे धीरे समय बीतता गया और यह मूर्ति मिट्टी, घास और झाड़ियोंसे ढक गयी । जंगली जानवरोंने इसे अपना आवास बना लिया और एक समय ऐसा श्रा पहुंचा कि कोई मनुष्य इसके दर्शन करनेका साहस भी नहीं कर सकता था । जो मनुष्य इस बात से परिचित थे कि यहां एक मन्दिर था, वह इसे 'मन्दिर टीला' कहने लगे । इस तरह इस शान्त एवं प्रसन्न स्थानको भय और विस्मयके पर्देने श्राच्छादित कर लिया और वर्षों तक भी यह पर्दा दूर न हो सका । इस तरह लगभग दो सौ वर्ष तक यह प्राचीन मन्दिर पृथ्वीके गर्भ में छिपा रहा । राजा छत्रसालद्वारा पुनर्निर्माण -- सं० १७५०के लगभग एक श्राजन्म ब्रह्मचारी जैन साधु नमिसागरने इस मन्दिर - टीले को देखा । भव्य मूर्तिके दर्शन से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने दुखी मनुष्य समाजके कल्याणके लिए मंदिर के २६८ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुण्डलपुर अतिशयक्षेत्र जीर्णोद्धारका संकल्प किया। एक सर्वविश्रुत किंवदन्तीके अनुसार उसका स्वप्न पूर्ण होनेका समय तब आया जब औरंगजेबकी सेनाकी पकड़से भागकर वीर बुन्देला छत्रसाल खण्डहरोंमें छिपनेके लिए यहां आया । यहां रहते हुए उसे केवल मानसिक शान्ति ही नहीं मिली, किन्तु उसकी अात्मा एक विलक्षण शक्तिसे भरपूर हो गयी। अतः जब वह वहांसे चला तो उसने यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं मुगल साम्राज्यके चंगुलसे अपनी मातृ-भूमिको स्वतंत्र करनेके अपने प्रयत्नमें सफल हो सका तो मैं इस विशाल मन्दिरका पुनर्निर्माण ही नहीं कराऊंगा; बल्कि इसकी प्राचीन कीर्ति और वैभवको भी पुनः स्थापित करूंगा। कुछ वर्षों के बाद मुगल सम्राटको छत्रसालसे पराजित होना पड़ा। छात्रसालने अपने खोये हुऐ प्रदेशोंको पुनः प्राप्त किया । बड़े बाबाकी मूर्तिके सामने उसने जो प्रतिज्ञा की थी उसे वह भूला नहीं। अतः उसने उस पवित्र कर्तव्यको पूरा करनेके लिए राज्यके खजानेको खोल देनेकी अाज्ञा दी। जब महाराज छत्रसाल राजकीय ठाटबाटके साथ मन्दिरको देखनेके लिए पधारे तो एक बार पुनः प्राचीन इतिहासका नवनिर्माण हुआ । मन्दिरका पुनर्निर्माण हो चुकनेपर वि० सं० १७५७ में माघसुदी १५ को सोमवारके दिन महाराज छत्रसालने बड़े बाबाकी विशाल मूर्तिका पूजन किया । और मन्दिरके खर्चके लिए बहुत सा द्रव्य तथा सोने चांदीका सामान दिया । उनका दिया हुआ पीतलका एक बड़ा थाल (कोपर) मन्दिरके भण्डारमें आज भी सुरक्षित है। छत्रसालकी इच्छाके अनुसार ही इस स्थानका नाम बदल कर 'कुण्डलपुर अतिशयक्षेत्र' और तालाबका नाम 'वर्धमान-सागर' रक्खा गया। तबसे इस मन्दिरकी ख्याति दूर दूर तक फैलती ही गयी है। इस ऐतिहासिक घटनाकी स्मृतिमें प्रति वर्ष माघसुदी एकदशी से पूर्णिमा तक एक बड़ा मेला भरता है और बड़े बाबाका दर्शन करनेके लिए लाखों लोग सविशेष जैनी एकत्र होते हैं । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास श्री प्रा० डाक्टर हरिसत्य भट्टाचार्य, एम० ए०, पीएच० डी० शलाका पुरुष-- अागमोंके अनुसार जैनधर्म अनादि है यद्यपि अाधुनिक विद्वानोंने भगवान महावीरको जैनधर्मका प्रवर्तक माननेकी भ्रान्ति की है तथापि वे दूरातिदूर अतीत कालसे लेकर समय समय पर हुए जैनधर्मके प्रमुख एवं सर्वज्ञ प्रचारक;इस युगके चौबीस तीर्थंकरोंमेंसे अन्तिम ही थे । जैन पुराणोंमें चौबीस तीर्थंकरोंके अतिरिक्त विविध शलाका ( महा ) पुरुषों के चरित्र भी भरे पड़े हैं जिनमें देव-योनिमें उत्पन्न इन्द्रादिका समावेश नहीं किया गया है । सबसे विलक्षण और मौलिक मान्यता तो यह है कि जैनधर्म वैदिक धर्मोंके समान भगवानको जगतके कर्ताके रूपमें नहीं स्वीकार करता। जैन भगवान मानव है; हां कुछ अधिक विवेकी एवं विकसित स्थिति में; वह उत्पन्न होता है, मरता है,अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरोंको अपना आदर्श मानता है और मोक्ष जानेके लिए उसे मानव योनिमें श्राना अनिवार्य है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन भगवान तथा बौद्ध भगवानमें कई दृष्टियोंसे समानता है । जैन पुराणोंके चौदह कुलकरों ( शलाका पुरुषों ) तथा वैदिक मान्यताके चौदह मनुअोंमें भी बहुत कुछ समता है । क्योंकि ये कुलकर अपने समय के प्रजा वत्सल विशिष्ट पुरुष थे। जैन कल्प-- काल अनन्त है तथापि मानव इतिहासकी दृष्टि से उसमें करोड़ों वर्षों के समय विभागों ( कल्पों) की कल्पना की है। प्रत्येक कल्पमें उत्सर्पिणी ( वर्द्धमान चारित्र ) तथा अवसर्पिणी (हीयमान चरित्र सुख) अर्ध-चक्र होते हैं । वर्तमानमें अवसर्पिणी चल रहा है ! इनमें प्रत्येकके १-सुषमा-सुषमा ( सर्वथा सुख चारित्रमय ), २-सुषमा, ३-सुषमा-दुषमा ( सुख दुख मिश्रित ), ४-दुषमा-सुषमा, ५ दुषमा ( वर्तमान ) तथा ६-दुषमा-दुषमा भेद होते हैं । वैशिष्टय इतना है कि अवसर्पिणीका षष्ठ (दुषमा-दुषमा ) युग उत्सर्पिणीका प्रथम युग होता है। 'कुलकरअवसर्पिणीके प्रारम्भमें भोगभूमि रहती है अर्थात् मनुष्य विना श्रमके भवन, वस्त्र, भोजन, २७० Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास भाजन, आदि जीवनपयोगी वस्तुएं कल्पवृक्षोंसे यथेच्छ मात्रामें प्राप्त करते हैं । तृतीयकाल सुषमा-दुषमाके अन्तमें कल्पवृक्षोंकी वदान्यता घटती है, श्राकाशमें सूर्य चन्द्र दिखते हैं, क्योंकि कल्पवृक्षोंका उद्योत कम हो जानेके कारण सूर्य-चन्द्रके प्रकाश दिखने लगते हैं । इन दोनों प्रकाश पुञ्जोंको देखते ही उस युगके लोग सहज ही भीत हो जाते हैं। तब एक 'प्रतिश्रुत' महापुरुष भीत लोगोंको उक्त ज्योतिष्क देवोंका रहस्य समझाते हैं । फलतः जनका भय विलुप्त हो जाता है और इस प्रकार प्रतिश्रुत प्रथम कुलकर होते हैं । कल्पवृक्षोंका तेज क्षायमाण था अतः श्राकाशमें तारे भी दिखने लगे तब द्वितीय कुलकर सम्मतिने समस्त ज्योतिष्कोंके विषयमें आश्चर्य-चकित जनको समझाया । यही सन्मति ज्योतिष विज्ञानके प्रतिष्ठापक थे । तृतीय कुलकर क्षेमकरने उस समयके जनको पशुत्रों तथा हिंस्र जन्तुओंसे दूर रहने तथा उनका विश्वास न करनेका उपदेश दिया। कल्पवृक्षोंके क्रमिक विलयके कारण पशुओं तथा जन्तुत्रोंकी घातक वृत्ति अधिकतर स्पष्ट होती जाती थी। आपाततः इनसे अपनी रक्षा करनेके लिए चतुर्थ कुलकर क्षेमंधरको लाठी, आदि अस्त्र धारण करनेकी सम्मति देनी पड़ी। कल्पवृक्षोंकी दातृ शक्ति वेगसे घट रही थी फलतः जीवनोपयोगी वस्तुओंको प्राप्त करनेके लिए लोगोंमें कलह होने लगी अतः पञ्चम कुलकर सीमंकरने कल्पवृक्षोंकी व्यक्तियोंकी अपेक्षा सीमा निश्चित कर दी । अब कल्पवृक्षों की शक्ति नष्टप्राय थी अतः षष्ठ कु० सीमंधरने वृक्षों की सीमा सुनिश्चित कर दी ताकि जीवनोपयोगी वस्तुओं के लिए पारस्परिक कलह न हो। सप्तम कु० विमलभानुने जनको हाथी, घोड़ा, ऊंट, अादि पालकर अपने काममें लानेकी शिक्षा दी । भोगभूमिके नियमानुसार अबतक सन्तान उत्पन्न होते ही पितर मर जाते थे किन्तु अष्टम कु० चक्षुष्मान्के समयसे वे सन्तानोत्पत्तिके बाद कुछ समय तक जीवित रहने लगे । इससे लोग घबड़ाये फलतः कुलकरने सन्तान रहस्य समझाया। नवम कु० यशस्वानने सन्तानको आशिष देना, दशम कु० अभिचन्द्रने शिशुपालन तथा ग्यारहवें कु. चन्द्राभने शिशुपालन विधिका पूर्ण विकास किया। नदी, समुद्र, आदि पार करनेके लिए नौका तथा ऊंचे पर्वतादि पर चढ़नेके लिए सीढ़ियां बनानेकी शिक्षा मरुदेव बारहवें कु० ने दी थी । तेरहवें कु० प्रसेनजितने विवाह प्रथाका सूत्रपात किया तथा अन्तिम कु० नाभिरायके समयमें कल्पवृक्ष सर्वथा लुप्त हो गये । भोगभूमि कर्मभूमि हो गयी थी । जीवनकी आवश्यकता पूर्तिको लेकर भीषण समस्याएं खड़ी हो गयी थीं लोग श्रम करना नहीं जानते थे फलतः नाभिरायने उन्हें धान, आदिका उपयोग बताया और अन्य कामोंकी शिक्षा दी । यह भी बताया कि सद्यःजात शिशुओंका नाभ कैसे काटना। वस्तुत्रों के गुण दोष बताये। मिट्टीके बर्तन बनाकर उन्हें पकाना सिखाया । इनकी धर्मपत्नी मरुदेवी थीं जिनके गर्भसे ऋषभदेव उत्पन्न हुए थे। दार्शनिक विवेचन क्या कुलकरोंके उक्त वर्णनसे कुछ सैद्धान्तिक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं ? सर्वप्रथम सामाजिक परिणाम तो यह हो सकता है कि जैन शास्त्र अाधुनिक चिन्ता-कष्ट बहुल संसारके पहिले मौलिक सुखमय २७१ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ युगकी कल्पना करता है। इस वर्णनको देखते ही वैदिक कृतयुगका स्मरण हो पाता है जिसमें न्यूनाधिक रूपमें ऐसा ही सुखैकान्त था। यहूदी शास्त्रोंके 'इडन उद्यान' का जीवन भी कुछ ऐसा ही शुद्ध भोगमय जीवन बिताना था, जब कि यहूदी मान्यतामें केवल एक युगलाका ही वैसा सुखमय जीवन था । तथा यही युगल सृष्टिके श्रादि पितर थे । इतना स्पष्ट है कि दुःखमय वर्तमान युगसे बहुत पहिले शुद्ध सुखमय युगकी कल्पना सर्व सम्मत है। पाश्चात्य विद्वानोंका मत है कि 'ईडन उद्यान' का जीवन एकान्त पूर्ण अज्ञानावस्थाका परिचायक है, अर्थात् उस समय विवेक, विचार तथा समन्वयकी योग्यताका सर्वथा अभाव था । सामाजिक दृष्टि से मानवकी यह वह अवस्था थी जब इसे पशु समुदायसे अलग करना कठिन था तथा मस्तिष्क सद्य:प्रसूत शिशुके समान था । निषिद्ध ज्ञान-फलका श्रास्वादन विवेक अथवा पुरुषत्वकी जाग्रतिका रूपक है तथा वहीं वर्णित मानव अधःपातकी युक्तियुक्तता सिद्ध करनेके लिए "जहां अज्ञान ही सुख है वहां विवेकी होना पाप है ।" कहावतकी शरण लेने को चरितार्थ करना हो जाता है । इस प्रकारसे भोगभूमिकी व्याख्या नहीं की जा सकती क्योंकि जहां यहूदी वृक्षका फल चखते ही सुखमय संसारसे पतन हो गया वहीं कल्पवृक्ष जैनभोगभूमिके मूलाधार हैं । तब कल्पवृक्षके रहस्यकी क्या व्याख्या की जाय ? 'मानवकी कल्पनानुसार वस्तु दाता' शाब्दिक अर्थ है । जैन मान्यतामें ऐसे वृक्ष भोगभूमिमें होते हैं । वैदिक धर्मानुसार सत्कर्म करके स्वर्ग में उत्पन्न होने वाले लोगोंकी समस्त इच्छाएं ये वृक्ष पूर्ण करते है, अस्तु कल्पवृक्ष पूर्वकृत सुकर्मोंके फलस्वरूप यथेच्छ सुखभोग देते हैं । मण्डूकोपनिषद्के "दो सवर्ण घनिष्ट मित्र पक्षी एक ही वृक्ष पर बड़े होते हैं उसमेंसे एक मधुर फल खाता है दूसरा उन फलोंको केवल देखता है" इस कथनमें मधुर फलों तथा भोक्तासे क्रमशः सत्कर्म तथा अात्मा इष्ट हैं । फलतः कल्पवृक्षके उत्तम फलोंसे भी जीवके सत्कोंके परिणाम ही अभीष्ट हो सकते हैं । इसी प्रकार उनके लयसे पुण्य समाप्ति तथा पुनः श्रम-शान्तिमय जीवनका संकेत है। गीताके "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति" से भी यही संकेत है । जैन भोगभूमि कल्पनाका भी इतना ही सार है कि पुण्यकर्मोंके फल सुखमय जीवन वितानेके बाद श्रम-चिन्तामय जीवनका प्रारम्भ होता है। ज्ञानसाधनका फल भोगभूमि स्पष्ट है कि जैन भोगभूमि विवेक तथा साधनाका फल है, जब कि यहूदी सुखमय जीवन अज्ञान जन्य था । यहूदी शास्त्रानुसार ज्ञान पतनका कारण था। तब 'क्या मूर्खता सुख है तथा विवेकी होना लण्ठता है ?' यह शंका सर्वथा उचित प्रतीत होती है। भारतीय दृष्टि यहां भी स्पष्ट है विवेक तथा संयम द्वारा सत्कर्म बंधते हैं जिनका फल सुखभोग होता है तथा इनकी समाप्ति पर जीव सुखमय जीवनसे भ्रष्ट हो कर श्रममय जीवन प्रारम्भ करता है। फलतः कर्म-नियम तथा इसीका अंग पुनर्जन्म नियम भारतीय भोगभूमिका व्यवस्थापक है ।। यह विवेचन यहूदी 'सुखमय जीवन' की निम्न नैतिक २७२ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास व्याख्या करनेको प्रलुब्ध करता है-सुखमय जोवनसे आत्माकी शुद्धावस्थाका संकेत है, जब आत्मा ही सब कुछ अथवा समस्त पदार्थ आत्मास्वरूप होते हैं । फिर रागद्वेष रूपो कुफलका अात्मा श्रास्वादन करता है और जन्म, जरा, मृत्युमय संसारमें श्रा पड़ता है। श्रात्म-अानन्द समाप्त हो जाता है । यही शुद्धात्मा रूपी कल्पवृक्षका विलय अथवा ईडन-उद्यानसे पतन है। फिर ईश्वरके अभिशापको लिये जीवका अनन्त संसार प्रारम्भ हो जाता है, क्या यह मनुष्यका महा पतन नहीं है ? कुलकर तथा मानवसमाजका विकास दूसरी महत्त्वकी बात यह है कि कुलकरवृत्तमें हम मानव समाजके क्रम विकासको स्पष्ट देखते हैं । प्रत्येक प्राचीन राष्ट्रके प्रारम्भिक काल में हम अादर्श युगकी कथा तो पाते हैं, साधारण स्थितिसे समाजके क्रमिक विकासका इतिवृत्त नहीं मिलता। किन्तु जैन साहित्यमें व्यक्तियोंके चरित्रके समान ही समाज-पुरुषका प्रारम्भसे वर्णन मिलता है जिसमें समाजके जीवन संग्राम तथा परिस्थितियोंके अनुकूल बननेका इतिहास निहित है। आधुनिक विचारक कौमटीका भी मत है कि 'मनुष्यके शारीरिक एवं मानसिक अध्ययनके पहिले मानव समाजका अध्ययन होना ही चाहिये । आधुनिक विद्वान मानते हैं कि प्राणि विज्ञानकी प्रणालीसे मानवसमाजके विकासका अध्ययन करके कौमटीने बड़ा उपकार किया है, तथापि उत्तरकालीन विकासवादो विद्वानोंका मत उनके उक्त विचारके विपरीत है। अर्थात् व्यक्तिकी उन्नति विकासमान सामाजिक प्रगतिको किसी सीमा तक सहचारिणी है । समाजके विकासका मानवविकासके समान होना अनिवार्य नहीं है। उत्तरोत्तर अधिक तृप्ति करने वाले कार्योंने मनुष्यका विकास किया है। किन्तु सामाजिक गठनकी अधारशिला तो वह क्षमता है जो प्रकृतिकी गम्भीरतम परिस्थितियों में भी मनुष्यको निर्वाचन और अनुगमन द्वारा बनाये रखती है; 'अधिकतम तृप्ति' नहीं । जैन कुलकरोंका वर्णन उक्त सामाजिक विकासका सजीव चित्र है। पहलेसे चले आये सुखसम्पत्तिकी अभिवृद्धि जैन कर्मभूमि ( अाधुनिक युग ) का स्वरूप नहीं है अपितु कल्पवृक्षोंके लयके कारण श्राकुल तथा त्रस्त लोगोंके अातंक एवं अनिष्टकी आशंकाओंको शान्त करते हुए वर्तमान मानव समाज को आगे बढ़ाना है । कर्मभूमिके आदिमें सबसे पहिले ज्योतिष्क देव दिखते हैं । अर्थात् प्रारम्भ ज्योतिष-विज्ञानसे होता है। इसके बाद मनुष्य अपने तथा पशुओं में भेद करता है, इससे अात्मरक्षाके लिए समस्त साधन जुटाता है । अपने हिंस्र साथियोंसे निपट लेनेके बाद मानव जीवनोपयोगी सामग्रीके जुटानेमें लग जाता है और इस प्रकार अपने वर्गके योग-क्षेमकी व्यवस्था करता है । इस प्रकार घरू व्यवस्थाके पश्चात् वह पशुओंको अपने कार्य में साधक बनाता है तथा पहलेके इन शत्रुत्रोंको सेवक बना लेता है। इसके उपरान्त वह अपने वर्गके शरीरकी चिन्ता करता है; जन्मसे ही बालककी पूरी परिचर्या प्रारम्भ होती है फलस्वरूप मनुष्य १-ययपि जैन मान्यतानुसार न मुक्तका पुनः संसार प्रवेश संभव है और न ईश्वर के अभिशापसे पतन अथवा वरदान द्वारा अभ्युत्थान ही हो सकता है। ३५ २७३ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ति है। पूर्ण स्वस्थ, सुन्दर और बलिष्ट होता है। फिर क्या है समुद्र पार करना, पहाड़ पर चढ़ना, आदि साहसिक कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं । साहसका उदय सामाजिक स्थितिको जटिल बनाता है, व्यवस्था एवं शान्तिके नियम अनिवार्य होते हैं । विवाह-प्रथा प्रारम्भ होती है । पशुपालन अथवा भ्रमणका स्थान कृषि एवं वाणिज्य ले लेते है फलतः घर भोजन-भाजन पूर्ण हो जाते हैं । जैन शास्त्रोंके अनुसार श्राधुनिक प्राग-इतिहास युगके बहुत पहिले उक्त प्रकारसे मानव समाजका विकास हुअा था। उस समय शासन अथवा वर्ग-तंत्र भी न था । यद्यपि उक्त समस्त वर्णन को सरलतासे वस्तुस्थिति नहीं कहा जा सकता तथापि इतना निश्चित है कि सूर्य चन्द्रादि दर्शनसे युगारम्भ हुअा तथा भारतीय, बेबलोनियन, मिश्री, ग्रीक, चाइनी, आदि विद्वानोंने इस विज्ञानको श्रागे बढ़ाया। फलतः जैन पुराण 'ज्योतिष प्राचीनतम विज्ञान है' कथनकी पुष्टि करता है । 'यह संसार पानी और श्रागसे अवश्य नष्ट होगा यह जानकार ही प्राक्-प्रलयकालिक यहूदी 'अदम' अादि ऋषियोंने ईट तथा संगमरमरके स्तम्भ बनवाये थे। तथा उनपर ज्योतिषके मूल तत्त्व उत्कीर्ण किये थे' कथा भी उक्त मान्यताकी पोषक है। मानवका विकास ?-- यदि भोगभूमिसे कर्मभूमिका सिद्धान्त सत्य है तो कहना होगा कि मनुष्य प्रारम्भमें जंगली जन्तुओंके साथ रहता था। यह तथ्य मानव और पशुके बोचमें दृष्ट वर्तमान महान अन्तरके कारण भी उपेक्षित नहीं हो सकता । अर्वाचीन पर्यवेक्षकोंकाभी मत है कि आज भी सांस्कृतिक प्रथम श्रेणीमें पड़े लोगों और पशुओंमें अत्यधिक समता होती है। उनमें वैसा अन्तर नहीं होता जैसा पूज्य गांधीजी और व्याघ्रमें होता है। यह अन्तर महान विकासका फल है । डाक्टर पिकार्डका "अनन्त संसारका रचयिता जगन्नियन्ता भी उन्हीं द्रव्योंसे बना है जिनसे वह पशु बना है जिसे पालतू बनाकर वह अपने काम लाता है अथवा मारकर भाग जाता है ।" कथन भी उक्त समताका समर्थक है। श्री सी० वाईटका "आत्मबोधकी जाग्रति" शीर्षक निबन्ध स्पष्ट बताता है कि मानवकी उच्चतम बौद्धिक वृत्तियोंका प्रारम्भ उस साधारण बुद्धिसे हुआ है जो निम्नतम पशु तथा साधारण व्यक्तिमें समान रूपसे पायी जाती है। मनुष्यने दर्शन तथा अभ्यास द्वारा अपना ज्ञान बढाया और संभवतः इसी कारण पशुसे वह विलक्षण हो गया । पहिलेके साथी अब एक साथ न रह सकते थे । ज्ञान वृद्धि के साथ, साथ मनुष्यकी वृत्ति कोमल हो गयी थी फलतः वह हिंस्र पशुसे दूर रहने लगा, आत्मरक्षाके लिए अस्त्र बनाये, पशुओंको पराजित किया और पालतू बना लिया। यह वर्णन अक्षरशः सत्य न भी हो किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि सुदर प्राग-ऐतिहासिक कालमें मानव समाजके विकासका क्रम ऐसा ही रहा हो गा। १-इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका भा० २ पृ०७४४ (९ म संस्करण)। . २७४ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास यह भी स्वाभाविक है कि मानवके उत्तरोत्तर विकासकी गति बढ़ने पर सबसे पहिले उसे जीवनोपयोगी वस्तुओं और विशेषकर भोज्य पदार्थों के प्रभाव क्षेत्रोंकी सीमा निर्धारित करनी पड़ी हो गी । क्षेत्र विभाजनने वर्ग तथा कुलोंकी सृष्टि की हो गो। जनबल ही समाज या कुलकी शक्ति होती है अतः संस्कृत न होने पर भी मानवने शिशुपालनकी चिन्ता की हो गी । बर्द्धमान जनबलने मानवको साहसिक बनाकर समुद्रके उस पार तथा पर्वतशिखरपर पहुंचा दिया । जीवन जटिल हुआ, सामाजिक व्यवस्थाएं बनीं, विवाह अाया, कृषि तथा शिल्पोंका आविर्भाव हुआ । तथा इसके साथ ही प्रारम्भिक समाजका अन्त तथा संस्कृत समाज ( कर्मभूमि ) का उदय हुआ। आधुनिक अनुमान-- आदिम समाजके संस्कृत होनेकी प्रक्रियाकी अनेक श्रेणियां आधुनिक अन्वेषकोंने निश्चित की हैं। इन्हें श्री निलससन तथा थोमसनने पाषाण, तांबा तथा लौह-युग नाम दिये हैं । यह वर्गीकरण एशिया तथा यूरपके विकासक्रममें तो ठीक बैठता है किन्तु पोलीनेशिया, मध्य-दक्षिण अफ्रिका, पेरू तथा मैक्सिकोके अतिरिक्त अमरीकाके लिए उपयुक्त नहीं है । इन देशोंमें पाषाणसे लौह-युग आया है, ताम्रयुग नहीं हुआ है । अतः यह वर्गीकरण सार्वभौम नहीं है । असंस्कृत ( आष्ट्रेलिया तथा ब्राजीलके श्रादिम निवासी ), वन्य ( रोमन साहित्यमें वर्णित जर्मनिक लोग ) तथा संस्कृत ( ईसासे पूर्वके ग्रीक तथा रोमन लोग ) के भेदसे किया गया वर्गीकरण अधिक संगत है । इसमें वृद्धिकी धारा भी स्वाभाविक है कयों कि मूल मूढ़ मानवसे पुरुष शिकारी तथा फलफूल संचयकर्ता होता है, इसके बाद निश्चित कृषक बन जाता है । जैन वर्गीकरण सबसे आगे-- किन्तु यह सब अनुमान मानवके इतिहासको वर्ग-युग तक ही ले जाते हैं। उससे आगे नहीं सोच सकते । किन्तु जैन मान्यता मानवताके इतिहासको दूरातिदूर उस प्रारम्भिक युगमें ले जाती है जिसकी कल्पना करना भी कठिन है । संभवतः यह उस युगसे प्रारम्भ करती है जब मानव पशु समूहके साथ रहता था अतः समाज विज्ञानके पंडितोंका कर्त्तव्य हो जाता है कि वे इस वर्णनको व्यर्थ और काल्पनिक कहनेके पहले इसका उचित तथा पूर्ण विचार करें । तीर्थङ्कर-- अन्तिम कुलकर श्री नाभिरायको अपनी रानी मरूदेवीसे श्रीऋषभदेव नामका पुत्र हुआ था । वास्तवमें यही पुत्र इस कर्मभूमिका आदि व्यवस्थापक था। फलतः इनका पुरुदेव, आदिनाथ, श्रादीश्वर, आदि नामों द्वारा पुराणोंने उल्लेख किया है। यह इतने महान एवं साधु शासक थे कि २७५. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ वैदिक धर्मग्रंथोंने भी इनको अवतार रूपसे पूज्य पुरुष माना है। घोरातिघोर तप करके इन्होंने कैवल्य प्राप्ति की थी तथा सर्वज्ञ होकर जैन धर्मका उपदेश दिया था। श्री ऋषभदेवके कार्य-- ____ मुनि दीक्षा ग्रहण करनेके पहिले उन्होंने अपने आचरण तथा शिक्षा द्वारा देश विश्वको व्याकरण, तर्क, छन्द, गणित, साहित्य, संगीत, नृत्य चित्रण, निर्माण, वास्तु, औषधि, प्राणिशास्त्र, आदिका प्रामाणिक उपदेश दिया था। कृषि तथा वाणिज्य उन्होंने सिखाया, भूमिको देश, जनपद, आदि विभागोंमें विभक्त किया, नगर तथा पुरोंको बसाया, समस्त ललित कलाओंका उपदेश दिया। ईखका रस निकालना सिखानेके कारण ये 'इक्ष्वाकु' कहलाये। मानव समाजको इन्होंने कर्मानुसार क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र इन तीन वणों में विभक्त किया था। इनके पुत्र भरत चक्रवर्तीने अनिच्छापूर्वक ब्राह्मण वर्णकी आगे चलकर व्यवस्था की थी। जैन मान्यतानुसार ऋषभदेव अरबों ( ८२ हजार वर्ष कम लगभग एक सागर ) वर्ष पहिले हुये थे । ऐतिहासिक विद्वान् इनके समय तथा ऐतिहासिकताका निर्णय करनेके लिए प्रयत्नशील हैं। इतना निश्चित है कि ऋषभदेवकी पूज्यता अति प्राचीन है बौद्ध ग्रन्थों ने भी उनका इस रूपसे उल्लेख किया है। फलतः इसका विगत बार विचार करना यहां शक्य नहीं है। शेष तेईस तीर्थङ्कर-- भगवान् ऋषभदेवके बाद सर्वश्री अजित, शंभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्म, सुपार्श्व, चन्द्र, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयान्स, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थ, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व तथा वर्द्धमान ये तेइस तीर्थकर और हुए हैं। जिन्होंने समय समय पर जैनधर्मरूपी मसालको उठाकर जगको श्रालोकित किया है। इनके जीवन चरित्र समान हैं । सबही अनेक पूर्व जन्मोंमें साधना द्वारा आत्मविकास करते हैं अन्तमें उत्तम स्वर्गका जीवन व्यतीत करके तीर्थङ्कर रूपसे गर्भ में आते हैं । इन्द्रादि देव उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान तथा मोक्ष कल्याणोंको मनाते हैं । वे अपने अन्तिम भवमें तीनों ज्ञानों के साथ उच्चकुलमें उत्पन्न होते हैं, निरपवाद सदाचारी, दयालु तथा विचारक होते हैं । विशेष वय आते ही संसारसे विरक्त हो कर तप करते हैं, केवली होकर संसार दावानल में पड़ी मानवताको कर्तव्य तथा नैतिकताका उपदेश देते हैं। तथा अन्तमें विनश्वर शरीरको त्यागकर सिद्ध शिला पर चले जाते हैं जहां पर अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्य हैं । अरिष्टनेमि यादवकुमार नेमिनाथका जीवन करुणरससे प्राप्लावित है, इसी कारण उसने अधिकतम १-न्याय बिन्दु, आदि ग्रन्थ । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास लोगोंको अाकृष्ठ किया है। महाभारतके सूत्रधार महान राजनीतिज्ञ श्री कृष्ण इनके ककेरे भाई थे । फलतः अात्मवत् सर्वगुण सम्पन्न भाईकी श्रोरसे इनका अाशंकित हो उठना सर्वथा स्वाभाविक था । दोनों भाईयोंमें द्वन्द्वका अवसर प्राया पर अहिंसक नेमि किसी सशस्त्र प्रतियोगिताके लिए तैयार न हुए । भार-उठानेकी प्रतियोगिता हुई जिसमें दर्शक जनताने नेमिनाथको विजयी घोषित किया । बलभद्रने कृष्णजी को समझाया अतएव कृष्णजी भी होनहार ऋषि छोटेभाईका आदर करने लगे। श्रीकृष्णजी तथा रुक्मिणीके आग्रह पर नेमिनाथ राजपुत्री राजीमतीके साथ विवाह करनेको सम्मत हुए । बारात जिस समय कन्याके पिताके द्वार पर जा रही थी, नेमिनाथने घिरे हुए पशुओंकी दीन ध्वनि सुनी। कारण पूछने पर जाना कि विवाहमें पाये विविध राजाओं के भोजनके लिए कन्याके पिताने उन निरपराध पशुत्रोंको बांध रखा है। उनका हृदय भय तथा उदासीसे व्याप्त हो गया, पशुत्रोंको तुरन्त मुक्त करवा दिया । 'और विवाह ? जिसका प्रारम्भ ही इतना घातक है उसका परिणाम ?' कल्पना करते ही अपने आप सब वस्त्राभूषण उतार कर फेंक दिये, ऊर्जयन्त (गिरनार) पर चढ़ गये और तपलीन हो गये । कुमारी राजीमतीने यह सब सुना "मनसे मैं उनकी ही धर्मपत्नी हूं" कहकर उनके ही पीछे पीछे गिरनार पर चली गयीं । राजुलके वियोग, विलाप, आदिका चित्रण इतना कारुणिक है कि पत्थरको भी प्रांसू आ जाते हैं। तथा उनकी दृढ़ता तथा साधना ऐसी थी कि सचमुच ही 'नीलकमलकी पंखुड़ीने विजलीको काट दिया' था । नेमिनाथ सर्वज्ञ हो जानेपर जब धर्मोपदेश दे रहे थे तब यादवोंके विषयमें प्रश्न किये जाने पर उन्होंने यादवकुलका नाश, द्वारका जलना और अपने कुटुम्बी द्वारा श्रीकृष्णजीको मृत्युकी भविष्यवाणी की थी जो कि अक्षरशः सत्य हुई थी। श्री नेमिनाथ कृष्णजीके भाई थे। कृष्णजीके समयके विषयमें विविध मान्यताएं हैं, सबसे अधिक प्रचलित मान्यता यही है कि कृष्णजी ३०००-१४०० ई०पूर्वके लगभग हुए हों गे । इसी आधार पर नेमिनाथका समय निर्णय करना अनुचित न हो गा । तथापि जैन मान्यताके अनुसार नेमिके ८५००० वर्ष बाद पार्श्वनाथ हुए हैं । यतः भारतीय कालक्रमका अन्तिम निर्णय नहीं हुआ है अतएव जैन काल गणनासे लाभ उठाया ही जा सकता है । श्री पार्श्वनाथ-- तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ अधिक ख्यात हैं जैसा कि कलकत्ता, आदि नगरोंमें प्रतिवर्ष निकलने वाले विशाल रथोत्सवों, सर्वत्र प्राप्त मूर्तियों, श्रादिसे सुस्पष्ट है। जैन पुराणों के अनुसार ये भ० महावीरसे २४६ वर्ष पूर्व मुक्तिको गये हैं । जैन मान्यतानुसार ही वे पूरे १०० वर्ष जीवित थे अर्थात् वे८७२ ई० पू० में उत्पन्न हुए ८४३ में ३० वर्षकी अवस्था होनेपर दीक्षा ली और ७७२ ई० पूर्वमें सम्मेद शिखर अथवा 'पार्श्वनाथ पर्वत' से मुक्ति पधारे । यह स्थान पू० भा रे० के प्रधान शाखा ( ई० ई० रे० ग्राण्ड कोर्ड) मार्गपर स्थित है। यहां प्रतिवर्ष हजारों जैनी ही नहीं अपितु विचारक एवं शान्त पुरुष भी जाते हैं । २७७ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री महावीर-- ___ अन्तिम अर्हत तीर्थस्वामी महावीरकी ऐतिहासिकताके विषयमें अब शंका नहीं की जाती है । उनके जीवनसे सम्बद्ध अधिकांश स्थानोंका भी निश्चय हो गया है। बौद्ध साहित्यमें उनके उल्लेख भरे पड़े हैं । इनके पिता यद्यपि सम्राट नहीं थे तथापि वैशाली के निकटस्थ कुण्डनपुर जनतंत्रके प्रधान थे । विदेहके जनतंत्रके प्रधान राजा चेटक उनकी माता त्रिशलाके पिता थे। इनकी मौसी चेलना सम्राट बिम्बसार ( मगध ) की रानी थी। दूसरी मौसी कोशलाधिप प्रसेनजितसे ब्याही थी। अतः भगवान महावीर उस समयके प्रधान राजवंशोंके निकटतम सम्बन्धी थे। जैन वर्षका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ला प्रतिपदाके उषाकालसे होता है। हरिवंश (जैन) पुराण तथा अन्य साक्षियोंके बलपर स्पष्ट है कि दीपावलिका प्रारम्भ भगवान वीरके निर्वाणसे हुअा है । गुजरात, अादि कितने ही भारतके प्रान्तोंमें नूतन वर्षका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ला प्रतिपदासे होता है । यह जैनधर्मके प्रसार एवं प्रभावके द्योतक हैं । नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्तीके 'त्रिलोकसार के अनुसार वीर-निर्वाणके ६०५ वर्ष बाद शक राजाने शासन किया । अब शक सं० १८७० है अर्थात् भ० वीरने १८७०+६०५=२४७५ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया अथवा वै २४७५-१९४८-५२७ ई० पूर्व मोक्ष गये थे। ‘ार्यविद्या सुधाकर'के मतसे वीर प्रभु वि० सं० से ४७७ वर्ष पूर्व मुक्त हुए। अब वि० सं० २००५ है अतः वीर निर्वाणका वर्ष २००५+४७०=२५७५-१९४८= ५२७ ई० पू० ही हो गा। दिगम्बर सरस्वती गच्छकी पट्टावलियोंसे भी इसकी पुष्टि होती है। यतः वर्द्धमान प्रभु ७२ वर्ष जीवित रहे अतः वे ५९९ ई० पू० में उत्पन्न हुए, ५६९ ई० पू० में दीक्षा ली, ५५७ ई० पू० में सर्वज्ञ हुए और ५२७ ई० पू० में मुक्त हुए । जैनदर्शन तथा तीर्थंकर तीर्थकरोंके जीवन के अनुसंगसे जैनदर्शनका रुचिकर अध्ययन हो सकता है। प्रत्येक तीर्थकर साधारण जीवसे उन्नति करते करते पूर्ण पुरुष ( केवली ) बनता है । जैनधर्ममें उसका वही स्थान है जो अन्य धर्मोंमें ईश्वरका है। किन्तु वह जगत्कर्ता नहीं है केवल आदर्श है। जगत्कर्तृत्वका निषेध यदि नास्तिकता है तो जैनधर्म अवश्य नास्तिक कहा जा सकता है, किन्तु पुनर्जन्म, कर्म तथा लोकान्तरको माननेके कारण न वह (जैनधर्म) नास्तिक है और न शून्यवादी अथवा भोगवादी ही है । ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका उसमें किया गया खण्डन' अत्यन्त वैज्ञानिक है । यह कठोर आचरणके भामण्डलसे दैदीप्यमान विधायक भारतीय मानवता-वाद है। भारतके समस्त दर्शन अात्म साक्षात्कारकी उत्कट अभिलाषाके १-नव्य न्याय और वैशेषिकको छोड़कर समस्त भारतीय दर्शनोंने भी ईश्वरके कर्तृत्वका निषेध किया है। ये दोनों भी उसे केवल निर्माता मानते हैं । प्राचीन न्यायन कर्म और फलमें सम्बन्ध बनाये रखने के लिए उसे माना है, प्राण अथवा पञ्च भूतोंका कर्ता नहीं । इसके अतिरिक्त शेष वैदिक दर्शनों तथा बौद्ध दर्शनने भी ईश्घरका स्पष्ट निषेध किया है। २७८ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन ईतिहास प्रतिफल हैं तथापि मानवताकी स्पष्ट छाया जितनी जैनधर्ममें है उतनी अन्यत्र सुलभ नहीं। यह सत्य है कि वैदिक धर्ममें भी राम, कृष्ण, आदि विशिष्ट मानव पूज्य हैं, तथापि इन धर्मोमें दैवी पूज्य पुरुषोंकी भी कमी नहीं है । इतना ही नहीं राम, कृष्ण, आदि भी परमात्माके अवतार होनेके ही कारण पूज्य हैं । बौद्धधर्म भी यद्यपि जगत्कर्ता नहीं मानता और मनुष्य बुद्ध की ही पूजा करता है तथापि बौद्धोंका विश्वास था कि निर्वाण प्राप्त बुद्ध अथवा वोधिसत्त्व भक्तोंकी निर्वाण यात्रामें अथवा तदर्थ साधनामें सहायक होते हैं । ऐसी मान्यताको विशुद्ध 'दृष्टवाद' नहीं कहा जा सकता । निर्दोष एवं सबल दृष्ट (कर्म) वाद किसी भी रहस्यमय अदृष्ट कारणको नहीं मानता । शतियों पहिले हुए व्यक्तिको अपने अनुयायियोंके अात्मिक विकासमें सहायक मानना जैन साधक स्वमेव जैनधर्म-विद्रोह है क्योंकि यह स्वभाव ( प्रकृति ) विरुद्ध है। विवेकी साधक स्वयमेव जैनधर्मकी अशरण-अनुप्रेक्षा पर आकृष्ट हो जाता है और अात्मसिद्धिके मार्ग पर बढ़ता जाता है | "हे आत्मन ? संसारमें तुम दुःख परम्परा हो, कोई तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके तुम ही अपनी रक्षा कर सकते हो, सन्मार्गपर आते ही पाप-शोक स्वयं नष्ट हो जायगे" श्रा०सोमदेवकी यह मानसी वृत्ति शुद्ध साधक (जैनी) की हो जाती है । वह तीर्थङ्करको भी दया या कृपा स्वीकार नहीं कर सकता । यही शुद्ध जैनदृष्टि है । जैनपूजाका आदर्श-- तब तीर्थंकर श्रादर्श क्यों ? और उनकी मूर्तिकी पूजा अात्मसिद्धिमें साधक क्यों ? क्यों कि तीर्थकर संसारसे परे हैं, न वे किसीके भलेमें और न बुरेमें तब उनकी पूजासे प्रयोजन ? सत्य है,साधक-वाधक, रूपसे उनकी पूजा नहीं है । जैनमूर्ति पूजाका उद्देश्य तो मानवके चर्म तथा ज्ञान-नेत्रोंके सामने सांसारिक त्यागके विशुद्ध एवं महानतम आदर्शको रखना है। जिसके द्वारा आत्माका श्रात्यन्तिक विशुद्ध विकास होता है । अर्थात् तुम भी मेरे समान तीर्थकर हो सकते हो यही जैनपूजाका सार है। जैन मूतिपूजा अवश्य है पर यह 'मूर्तिमान् (आदर्श ) की पूजा' है । फलतः जैनी अपने पूजन-ध्यान पुरुषार्थ द्वारा आत्मसिद्धि करता है पूज्य ( अादर्श ) तीर्थंकरोंकी कृपासे नहीं । "जब चित्त बहिमुख एवं चंचल हो तब मनुष्यको पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना चाहिये। इससे मोह तथा भोगेच्छा समाप्त होती हैं और चित्त शान्त हो जाता है । पर्याप्त अभ्यास द्वारा जब चित्त शान्त स्वस्थ हो जाय तब शुद्ध, ज्ञानी एवं शाश्वत आत्म स्वरूपका ध्यान करे ।" श्री ब्रह्मदेवका यह आदर्श ही जैन पूजन-ध्यानका आदर्श है । चक्रवर्ती- जैनदृष्टिमें मनुष्यगति सर्वश्रेष्ट है। यदि जैनधर्म ‘सेश्वर' है तो मानव तीर्थङ्कर ही उसके ईश्वर हैं, वे मनुष्य रूपमें ईश्वर नहीं; अपितु ईश्वर होने वाले मनुष्य हैं । अर्थात् जैनधर्म मानवधर्म है । उसके कुलकर वैदिक मनुोंके समान परमब्रह्मकी सन्तान न होकर साधारणमनुष्य थे, जैनदेव भी वे मनुष्य और २७९ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ मनुष्यसे हीन जीव हैं जो मरकर स्वर्ग में जन्म लेते हैं । समस्त जैन महापुरुष मनुष्य ही थे। यही मानव तामय दृष्टि जैनधर्म तथा विश्वके समस्त धर्म और सविशेष वैदिक धर्ममें महान् भेद कर देती है । फलतः जैन चक्रवर्ती भी नर थे, नारायणके अवतार नहीं । ये विश्व विजयी सम्राट नर थे जिन्होंने विश्वके छहों खण्डों पर शासन किया तथा अन्तमें जैनो दीक्षा लेकर आत्म सिद्धि भी की । भरत, सगर, मघवा, सनत्कु. मार, शान्तिनाथ, कुंथनाथ, अरनाथ, सभूम, पद्म, महापद्म, हरिषेण, जय तथा ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती हए हैं। इनमें भरत तथा सगर प्रधान हैं। वैदिक साहित्यने भी भरतकी भरि भरि प्रशंसा की है। ऋषि वाल्मीकिने दाशरथि भरतको आदर्श भाई बताया है । पाण्डवों तथा कौरवोंके पूर्व पुरुष भरतकी कीर्ति वेदव्यासने गायी है। तीसरे जड़ भरतकी यशोगाथा भी विशाल है। हमारे देशको भारतवर्ष नाम देनेवाले भरतभी सुविदित हैं । कवियोंके कुलगुरु नाट्यशास्रके रचयिता भरतको कौन नहीं जानता । जैन पुराणोंके भरतभी प्राचार, राजनीति तथा नृत्यशास्त्रके पण्डित थे। उनके नामानुसार ही हमारा देश भरतखण्ड कहलाया । ये भ० ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र थे, पिताके मुनि हो जाने पर राज्य सिंहासन पर बैठे थे । इन्हे 'चक्र-रत्न' की प्राप्ति हुई थी जो चक्रवर्ती के सिवा नारायण प्रतिनारायणको भी सिद्ध होता है। इस वृत्ताकार सुन्दर (सुदर्शन) चक्रपर सहस्र देवता पहरा देते हैं। चलानेवालेके सम्बन्धियोंके सिवा यह शस्त्र सबको निश्चित मार देता है। इसके द्वारा नारायण, प्रति-नारायणको मारता है । किन्तु नारायण पर चलाये जानेपर वह उसकी परिक्रमा करके उनके हाथमें चला जाता है। भरत तथा बाहुबलि भरत चक्रवर्तीने इस चक्रद्वारा पूरे विश्वको विजय किया था। विजय यात्रासे लौटनेपर चक्र राजधानीके द्वार पर रुक गया । नैमित्तिकोंने बताया अापके वैमातुर भाई बाहुबलिने आपको सम्राट नहीं माना है । इसपर दोनों भाइयोंकी सेनाएं लड़नेको प्रस्तुत हो गयीं। मंत्रियोंने नरसंहार बचानेके लिए 'द्वन्द्व' की सम्मति दी। बाहबलिने भरतको दृष्टि, जल तथा मल्लयद्ध में परास्त किया। कपित भरतने चक्र चला दिया जो बन्धु बाहुबलिका कुछ भी न कर सका । बाहुबलिको वैराग्य हुअा और वे दीक्षा लेकर मुनि हो गये। दशमी शतीमें चामुण्डराय द्वारा निर्मित श्रवणबेलगोला की ५७ फी० उन्नत विशाल वीरता, वैराग्य तथा करुणा बरसाने वाली गोम्मटेश बाहुबलि मूर्ति अाजभी इस समस्त कथानकको मानस चक्षुत्रों पर अंकित कर देती है। इसके बाद भरतका चक्रवर्ती-अभिषेक हुअा। यह सुयोग्य परम धार्मिक शासक थे । इन्होंने मानव-समाजकी व्यवस्थाको सुदृढ़ बनाया था। पठन-पाठन, पूजन-ध्यान को प्रोत्साहन देने के लिए इन्होंने चौथा ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया था । अपने पूज्य पिताकी निर्वाणभूमि कैलाश पर्वतपर बहत्तर जिनमन्दिर बनवाये थे । अन्तमें इन्होंने दीक्षा ली और अन्तर्मुहूर्तमें कैवल्य प्राप्त किया था। २८० Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास चक्रवर्ती सगर-- रामायणके अश्वमेध यज्ञकर्ता सगर, उनके यज्ञ-अश्वकी इन्द्र द्वारा चोरी, अधोलोकमें कपिल ऋषिके निकट बांधना, सगरके पुत्रोंका भूमि खोदकर सागर ( समुद्र ) बनाते हुए घोड़े को खोजना, ऋषिकी चोर समझ कर अवज्ञा करना, उनकी कोपाग्निमें भस्म होना, इनके उद्धारके लिए, सगरसे भगीरथ तककी साधना तथा गंगावतरण भारतकी सुविदित कथायें हैं। जैन पुराणोंके सगर चक्रवर्ती थे तथा इनके साठ सहस्त्र प्रतापी पुत्र थे। पुत्रोंने पितासे कर्यादेश चाहा फलतः उन्होंने कैलाश पर्वतपर स्थित उक्त बहत्तर जिन मन्दिरोंको सुरक्षित बनानेके लिए उसके चारों ओर खायी खोदकर गंगानदीके पानीसे भर देनेकी आज्ञा दी जिसे उन्होंने पूर्ण किया। मणिकेतु नामका विद्याधर सम्राट सगरका मित्र था जो इन्हें संसारसे विरक्त करना चाहता था पर सगरका मोह शान्त न होता था अतः उसने एक युक्ति निकाली-उसने सर्परूप धारण करके कैलाशपर काम करने वाले सगर पुत्रोंको विष ज्वालासे मृतवत् मूञ्छित कर दिया। फिर ब्राह्मणका रूप धारण करके अपने पुत्रके शवको लेकर सगरके पास गया और पुत्रको जीवित करनेकी प्रार्थना की। सगरने संसारकी अनित्यताका पाठ पढ़ाकर दीक्षा लेनेकी सम्मति दी। इसपर ब्राह्मणने सगरको पुत्रोंकी कैलाशपर हुई तथोक्त मृत्युका समाचार देकर मुनि होनेका काकु (व्यङ्गय) किया । सगरने रानी विदर्भाके पुत्र भगीरथको राज्य देकर दीक्षा ली। इसके बाद मणिकेतुने कैलाशके निकट गंगा तटपर सब पुत्रोंको चेतन कर दिया। वे सब भी मुनि हो गये । पिताके निर्वाणके बाद भागीरथने भी और घोर तप किया। देवोंने अाकर गंगा जलसे उनका अभिषेक किया, अभिषेक जल उनके पैरों के नीचेसे फिर गंगामें गया। उसी दिनसे गंगा भागीरथी कहलायी और पुण्य मानी जाने लगी। इसके बाद भगीरथका निर्वाण हो गया। रुगरके वर्णनोंकी विशेष छान बीनके विना ही इतना कहा जा सकता है कि गंगा; जैन दृष्टि में स्वर्गसे अाने. ब्रह्माके कमण्डलुसे निकलने अथवा शिवजीके मस्तकपर गिरनेसे पवित्र नहीं है, अपितु मानव ऋषि भगीरथके पुण्य चरणोदकके प्रवाहके कारण पवित्र हो गयी है। अर्थात् यह वर्णन भी जैनधर्म में प्रधान मानवताका पोषक है। नारायण-- ब्रह्मवैवर्त पुराण' तथा विष्णुपुराण के लोकोत्तर दैव पुरुष नारायण भी जैनधर्ममें मनुष्य थे । वे विश्व नियन्ता परमब्रह्म नहीं थे जो कि पृथ्वी पर आये हों। १ नर शब्दका अर्थ मुक्ति है, जिसमें मुक्त आत्मा परमब्रह्म तुल्य हो जाता है अतः ईश्वर नारायण है। अथवा नर-पापी, उसका अयन-मार्ग (मोक्ष) अतएव नारायण परमब्रा है। अथवा नर तथा अयनके अर्थ मुक्ति तथा ज्ञान भी है । २ नर अर्थात् आप (जल) अथवा मनुष्य सन्तान अतएव क्षीर समुद्र निवास अथवा अवारके कारण परमब्रह्म ३६ २८१ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जैन नारायण महाशक्ति शाली मानव है जो पृथ्वीके तीन खंडोंपर ही शासन करता है तथा मुनि दीक्षा विना लिये ही राज्य करता, करता मर जाता है तथा उत्तर भवोंमें मुक्त होता है । जैन मान्यतानुसार त्रिपृष्ट, द्विपृष्ट, स्वयंभू , पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुण्डरीक, दत्त, लक्ष्मण तथा कृष्ण ये नौ नारायण हुए है इनमें लक्ष्मण और कृष्ण वैदिक मान्यताके प्रधान पुरुष हैं अतः उनका ही यहां विवेचन करेंगे। __ जैन दृष्टि से नारायण मनुष्य है, वैदिक दृष्टिमें वह परम ब्रह्म है तथा पापरत मानव जातिका उद्धारक है । 'नार' तथा 'नारायण' दोनों शब्दोंका अर्थ 'मनुष्य पुत्र' है। इस दृष्ठिसे हम 'जीससकी 'मनुष्य पुत्रता' के निष्कर्षपर पहुंचते हैं "किसी मन्वन्तरमें नारायण नर ऋषिके पुत्र होते हैं ।" यह मान्यता भी जीससके श्राख्यानकी समकक्ष है क्योंकि 'मनुष्य पुत्र होकर भी वह पतिप्त मानवताका उद्धारक ईश्वर था। फलतः नारायणके शब्दार्थ के विषयमें जैन, वैदिक तथा ईसाई एकमतसे ही हैं। प्रति-नारायण नारायणोंके शत्रुओंको प्रतिनारायण नाम दिया गया है। प्रत्येक प्रति-नारायण, नारायणके चक्रसे मरता है, मरकर नरक जाता है और अनेक भव बाद मुक्ति प्राप्त करता है । अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधु, निशुंभ, बला, प्रहलाद, रावण तथा जरासंध नौ जैन प्रतिनारायण हैं । इनमें से कुछके कुकर्मोंके श्राख्यानसे वैदिक शास्त्र भरे पड़े हैं । अश्वग्रीव, मधुकैटभ, तारक, निशुंभ, बलि आदिके विषयमें जहां वैदिक तथा जैन कथाग्रन्थ सहमत हैं वहीं वे प्रहलादके विषयमें भिन्न हैं । वैदिक मान्यतामें प्रह्लाद भक्ति और अाराधनाकी मूर्ति एवं प्रधान नारायणभक्त हैं । रावण और जरासंध तो प्रमुख प्रतिनारायण हैं ही। बलभद्र-- जैन बलभद्र नारायणोंके बड़े वैमातुर भाई होते हैं । इनका नारायणों पर अपार स्नेह होता है। ये दीक्षा धारण करते हैं और मरकर उच्चतम स्वर्ग या मोक्ष पाते हैं । अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दन, पद्म, ( राम ) तथा राम ( बलभद्र ) जैन मान्यताके नव-बलभद्र हैं । नव-बलभद्रोंमेंसे पद्म (श्रीराम ) तथा बलदेव प्रमुख हैं । वैदिक पुराणोंके तो ये प्रधान नायक ही हैं। ___ऊपरके संक्षिप्त वर्णनसे ऐसी आशंका हो सकती है कि जैन नारायण, प्रतिनारायणादि चरित्र रामायण महाभारतके रूपान्तर मात्र हों गे । किन्तु वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। वैदिक साहित्यमें राम-कृष्ण, नारायण तथा लक्ष्मण-बलदेव अनन्त हैं। जयदेव, अादिने बलदेवजीको भी नारायण लिखा है, इस अाधारसे जैन बलभद्र-नारायण, अदिके क्रमकी पुष्टि होती है। इस प्रकार पर्याप्त समता होते हुए भी दोनों वर्णनोंमें बहुत वैलक्षण्य भी है जैसा कि निम्न वर्णनसे स्पष्ट होगा। ही नारायण कहलाता है। अथवा नर प्रकृतिसे परे पच्चीसवां तत्त्व है, नरकी कृति 'नार' कहलाता हैं अतएव सारी सृष्टिका आधार होने के कारण भगवान् नारायण है। २८२ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास पद्मचरित-- पद्म ( राम ) चरित और वाल्मीकि रामायणमें बहुत समता है । पद्म जन्म, शिक्षा-दीक्षा, विवाह, अभिषेक तथा वनवासके वर्णनोंमें विशेष अन्तर नहीं है । सूर्पणखाको चन्द्रनखा कहा है । इसकी श्रासक्तिको लेकर खरदूषणसे युद्ध होता है । रावण वनमें आता है और सोताके रक्षक भाईको दूसरे भाईकी विपत्तिका समाचार देकर छल करता है । सीतापहरण, अशोक वृक्षके नीचे रखना, सुग्रीवका उद्धार, सुग्रीवका भोगरत होना, लक्ष्मणका क्रोध, हनुमानद्वारा सीताका चूडामणि लाना, हनुमान राक्षस युद्ध, इन्द्रजीत की नागपाशमें बंधना, भारी हानि करके वापस आना, विभीषणका रावणको उपदेश, विभीषण-रामसन्धि, युद्ध, लक्ष्मण पर शक्ति प्रहार तथा अन्तमें लक्ष्मण द्वारा रावणका मारा जाना, विभीषणको लंकाका राज, तीनोंका अयोध्या वापस आना, रामका सुराज्य, जनतामें सीताका प्रच्छन्न अपवाद, सीतात्याग, लवकुश जन्म, पत्रों द्वारा राम-लक्षमण पराजय, माताकी पवित्रताका ख्यापन, सीताकी अग्निपरीक्षा. आदि समान बातें हैं । वैलक्षण्य-- जैन वर्णनानुसार दशरथ-पुत्र तथा जनक-पुत्रीको रावणके पतनका कारण किसी मनिने बताया था। फलतः उसके भीत होनेपर विभीषणने दोनों राजाओंको निःसन्तान मार देनेका वचन देकर उसे साहस दिलाया था । नारदसे यह समाचार पाकर दोनों राजा जंगलमें चले गये थे । राजा अत्यन्त अस्वस्थ हैं कहकर शय्या पर उनकी मूर्तियां लिटा दी गयी थीं जिनके शिर विभीषण द्वारा भेजे गये हत्यारोंने काट कर रावणके सामने उपस्थित कर दिये थे। राजा जनकके युगल सन्तान हुई थी । इनमेंसे लड़केका पूर्वभवका वैरी उसे चुरा ले गया था। अपने कुकर्मका ध्यान आते ही उसने लड़केको रथनू पुरके राजा चन्द्रगतिके यहां छोड़ दिया । और इन्होंने भामण्डल नाम रखकर अपनी सन्तानके समान उसे पाला था। सीताके सौन्दर्य की चर्चासे यह आकृष्ट था अतः स्वयंवरमें रामको सफल सुनकर उनसे लड़ने आया, किन्तु अपना वास्तविक सम्बन्ध स्मरण करके बहिनके विवाह में सानन्द सम्मिलित हुआ था। लक्ष्मणजीने वनवासमें सिंहोदरको हराकर उसके राज्यका आधा भाग जिनभक्त वज्रकर्णको दिया था। नलकूबर नरेश बालखिल्यकी भीलोंसे रक्षा की थी। बालखिल्यकी पुत्री वनमाला उनसे प्रेम करने लगी थी। राजा पृथ्वीदेवकी पुत्री कल्याणमालाको आत्महत्यासे बचाया तथा अनेक विवाह किये। हनूमानजीका श्रीशैल नामसे उल्लेख है। तथा इन्हें कामदेव अर्थात् सुन्दर एवं सबल पुरुष बताया है । दशरथके वरदानोंकी कथा भी रोचक है । रावणके भयसे वनवासमें घूमते हुए दशरथ केकय २८३ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ देश पहुंचे और राजपुत्रीके स्वयंवर मण्डपमें जा पहुंचे । कैकयीने इन्हें ही वरण किया फलतः शेष राजाओं से घोर संग्राम हुना जिसमें कैकयीने सारथिका काम किया और पतिकी विजयका कारण हुई । राजाने दो वर मांगनेको कहा जिन्हें कैकयीने उचित समयपर लेनेकी बात कह कर छोड़ दिया । और रामके अभिषेक के समय रामको वनवास तथा भरतको राज्य मांगा । रामसीता विवाह प्रसंग भी भिन्न है । मयूरमति म्लेच्छ राजा श्रंशरङ्गलने जनकके ऊपर आक्रमण किया । भीत विदेहराजने दशरथसे सहायता मांगी। राम और लक्ष्मण सहायताको गये तथा म्लेच्छोंको अकेले ही मार भगाया । कृतज्ञतामें जनकने सीता राम से व्याहनेका वचन दिया। नारद सीता के सौन्दर्य पर आकृष्ट थे अतः उसे देखने गये । दर्पण के सामने खड़ी सीता दढियल विरूप प्रतिबिम्ब देखते ही डराकर भाग गयी । नारदने भामण्डलको सीता से विवाह करनेके लिए उकसाया, चन्द्रगतिने सीताको पुत्रवधू रूपसे मांगा किन्तु पूर्व प्रतिज्ञावश जनक उसे स्वीकार न कर सके । फलतः सीता के स्वयंवर में वज्रावर्त तथा सागरावर्त धनुषों के चढाने की समस्या उत्पन्न की गयी और राम-लक्ष्मण ही सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुए । I जटायु कथा भी भिन्न है । दण्डकारण्य में रहते समय राम मुनियोंकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि उसी समय गुप्ति और सुगुप्ति मुनि एक मासके उपवासके बाद वहांसे निकले । रामने उन्हें आहारदान दिया । वृक्षपर बैठा गिद्ध इससे इतना प्रभावित हुआ कि वह मुनियोंके चरण में गिर पड़ा। दया करके मुनियोंने उसे श्रावकाचारका उपदेश दिया, जिसे उसने ग्रहण भी किया । सीता हरणकी कथा भी दूसरे रूपमें है । वन में लक्ष्मणको सूर्यहास्य खड्गकी गंध आयी जिसे लेकर उन्होंने एक वं सोंके झुण्डपर परखा । छूते ही वह कट गया और उसमें सूर्य हास्यके लिए तप लोन खरदूषणका पुत्र शम्बूक भी कट गया । प्रतिदिनकी भांति भोजन लेकर श्रानेपर माता चन्द्रनखाने अपने पुत्रको मरा पाया । घातकका पता लगाने को निकलने पर उसने दोनों भाइयोंको देखा और उनपर मोहित हो गयी । पमानित हुई फलतः युद्ध हुआ । जैन मान्यतामें खरदूषण एक व्यक्ति है । रामायणकी शूद शम्बूक की हत्या के अनुचित कार्य से जैनपुराणोने रामको खूब बचाया है । जब रावण अपने बहनोईकी सहायतार्थ रहा था तो उसने विमान में से सीताको देखा, मोहित होकर लक्ष्मणका आर्तनाद किया जिसे सुनते ही राम सहायतार्थ दोड़ गये और वह सीताको ले भागा । विराध नामक दैत्यको वनमें भाइयोंने मारा था किन्तु जैन कथानुसार पटललंका के राजा विराधितने लक्ष्मणकी खरदूषण के विरुद्ध सहायता की थी और सीताहरण के बाद शोक संतप्त भाइयोंका मार्ग प्रदर्शन किया था । सबसे बड़ा वैलक्षण्य तो यह है कि जैन कथामें किष्कन्धाके सुग्रीव, आदि वानर रावण के २८४ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास वंशज एवं मित्र थे । हनूमानजी रावणके दामाद थे । रावण तथा राक्षस दैत्य नहीं थे अपितु ये जैनी सद्गृहस्थ थे तथा इन्ही वानरवंशी हनूमानादिकी सहायता से सीताका उद्धार हुआ था । साहसगति नामके व्यक्तिने मायारूप धारण करके सुग्रीवकी पत्नीको छलना चाहा था । फलतः वापस श्रानेपर जब द्वारपालादिने उस महलके भीतर न जाने दिया, तब राम-लक्षमण की सहायता से उसने साहसगति को मार कर अन्तःपुर तथा राज्य बचाया इस प्रकार जैन पुराण बालिको भ्रातृबधू- गमन तथा रामको छल-वधके पापसे बचाता है । लक्ष्मणने कोटिशिला उठाकर वानर वंशियोंको यह विश्वास दिल दिया था कि उनका जन्म रावणको मारनेके लिए ही हुआ था । जैन पुराणों में सेतु बनानेकी कथा नहीं है, मेघनाद, इन्द्रजीत दो भाई थे रावण के पुत्र नहीं । लक्ष्मणकी शक्तिका उपचार व्रणमेघकी पुत्री विशल्याका स्नान जल बताया है । हनूमान उसे विमानमें लाये थे तथा उसके स्नान जलको लगाने से सब सैनिक भी स्वस्थ हो गये थे । अन्त में वह लक्ष्मणको व्याही गयी थी । इसी प्रकार लक्ष्मणपर रावणने चक्र चलाया जो उनके हाथमें श्रागया फिर वही चक्र लक्ष्मणने रावणपर चलाया और मार डाला। यह जैन वर्णन वैदिक 'मृत्युवाण' कथा के सदृश है । कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत मेघनाद युद्ध में बन्दी बनाये गये थे मुक्त होते ही साधु होगये और तप करके श्रात्मसिद्धि की । युद्ध समाप्ति पर जब तीनों अयोध्या श्राये तो लक्ष्मणको राजा बनानेका प्रस्ताव हुआ पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया राम राजा हुये । कैकयी, मन्दोदरी, दिने दीक्षा धारण की। मथुराके राजा मधुको दुराचरण के कारण हटा दिया गया था उसके स्थान पर शुत्रुघ्नको राजा बनाया गया था । सीताके पुनः वनवासकी कथा समान होनेपर भी वे वाल्मीकि - श्राश्रम में नहीं गयी थीं । पुण्डरीकपुर के राजा वज्रजंघने उन्हें अपने यहां आनेको निमन्त्रण दिया था। उनके पुत्रोंके नाम अनङ्गलवण और मदनाकुंश थे। पिता काकासे युद्ध, इनकी विजय, सीताकी अभिपरीक्षा श्रादिका उल्लेख पहले हो चुका । अन्तमें सीता पृथ्वीमती श्रार्थिकासे दीक्षा लेती हैं । राम लक्ष्मणकी मृत्यु कथा भी विचित्र है । भाइयोंके स्नेहकी परीक्षा करनेके लिए देवोंने रामको मूर्च्छित करके लक्ष्मणको उनके मरणका समाचार दिया । सुनते ही लक्ष्मणके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं । चेतन होनेपर राम पूरे छह मास तक लक्ष्मणका शरीर लेकर घूमे अन्तमें अपने कार्यकी व्यर्थता को जानकर उन्होंने संसार छोड़कर तप करना प्रारम्भ किया और मोक्ष गये । कुकल्पना परिहार- जैसा कि पहले उल्लेख हो चुका है राक्षस, वानर, आदि न दैत्य थे और न बन्दर । जैन पुराण इन्हें विद्याधर कहते हैं अर्थात् ये रामचन्द्रजीके समानही संस्कृत थे । महाभारत तथा पुराणों के श्रार्यअनार्य विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि यह जैन मान्यता सर्वथा उचित एवं मानवता पूर्ण २८५ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ है । इतना ही नहीं ये सच्चे जैनी थे । इसी कारण कतिपय विद्वानोंका मत है कि वाल्मीकि श्रादि प्राचार्यों ने दक्षिण देश वासियों को राक्षस आदि लिखा होगा। किन्तु यह तर्क निस्सार प्रतीत होता है क्योंकि छठी सातवीं शतीके पहिले धर्मभेद ऐसा उत्कट न था । एक व्यापक भारतीय धर्म था जिसमें जैन, बौद्ध तथा वैदिक धर्मके समस्त सिद्धान्त निहित थे । धार्मिक आस्थाके विषयमें लोग पूर्ण स्वतन्त्र तथा सहिष्णु थे । यही कारण है कि जैन, वैदिक तथा बौद्ध पुराण ग्रन्थों में दूसरे धर्मोका खण्डन मण्डन निन्दा, तो बहुत बड़ी बात है उल्लेख भी नहीं मिलता। सब अपने पूज्य पुरुषोंका वर्णन करते हैं । इतना हो नहीं वैदिक तथा जैन मान्यताके राम, आदि शलाका पुरुष एक ही हैं। यदि वाल्मीकिको राक्षस कह कर दाक्षणात्य जैनोंका अपमान ही करना होता तो वे जैनोंके पद्म (राम) को अपना नायक क्यों बताते अतः स्पष्ट है कि रावणादिके वंशोंके नाम ही राक्षस, अादि थे । वे संस्कृत प्रतिभाशाली पुरुष थे । धार्मिक द्वेष अभारतीय-- यद्यपि शशांक द्वारा बोधिवृक्षका काटना,बौद्धाचार्यों द्वारा शंकराचार्यको तेलकी उबलती कड़ाई में डाल देना तथा शंकराचार्य द्वारा जैन मन्दिर मूतियोंका अनवरत विनाश ऐसी घटनाओं के उल्लेख इधरके भारतीय इतिहासमें मिलते हैं तथापि यह निश्चित हैं कि ऐसी घटनाएं स्थानीय एवं व्यक्ति विशेष कृत थीं। भारतीय जनमत इतना संकुचित एवं पतित कभी नहीं हुआ है। कर्म, पुनर्जन्म, अादि सिद्धान्त सर्वमान्य रहे हैं । जनमें धार्मिक सहिष्णुता तथा सौहार्द ही रहा है। छठी शती ई० पू० के बाद भी श्रेणिक अथवा बिम्बसार, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, शक विजेता चन्द्रगुप्त का सब धर्मोंके ग्रन्थों में आत्मरूपसे वर्णन तथा हर्षका 'सर्व धर्मे समानत्वम्' श्रादि उक्त जनमतके ही पोषक हैं । क्या पद्मचरित रूपक मात्र है !-- यद्यपि पद्मचरितको भूतार्थ माननेवाले मनीषियोंका बाहुल्य है तथापि कतिपय ऐसे विद्वान् भी हैं जो पूरी कथाको सीता भूमिजा अथवा 'जुता खेत' अथवा शक्ति तथा राम (शुद्ध पूर्ण पुरुष) का रूपक ही मानते हैं । किन्तु वस्तु स्थिति इसके सर्वथा प्रतिकूल है । रामके वंशजों की उपस्थितिके अतिरिक्त भौगोलिक, वास्तुविद्या सम्बन्धी तथा अन्य साक्षी इतने अधिक हैं कि राम-सीताको कल्पना प्रसूत मानना बुद्धिके साथ बलात्कार ही हो गा । जैन पुराणों का रामवर्णन तो निर्णायक प्रमाण है कि रामादि ऐतिहासिक पुरुष थे क्योंकि माया (सीता) का परमब्रह्म (राम) से मिलन ऐसा वेदान्तकी मान्यताका समर्थन करनेके लिए वैज्ञानिक जैनाचार्य कभी इतना श्रम न करते। उनके लिए यह मिथ्यात्वका पोषण होता जिसे वे कदापि स्वीकार न करते। यही निष्कर्ष बौद्ध रामकथासे निकाला जा सकता है, यद्यपि उसमें सीताका रामकी बहिन रूपसे चित्रण है। पघातभपात २८३ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास इसीप्रकार श्री र०च० दत्तका अनुमान 'रामायण वैदिक घटनाका रूपक है, अर्थात् इसमें इन्द्र (राम) के द्वारा वृत्तसे मेघों (सीता) के उद्धारकी कथा है, भी उक्त युक्तियोंके कारण ही नहीं टिकता । वेदाह्य धर्म जैन अथवा बौद्ध त्रिकालमें भी वैदिक मान्यताके पोषक वर्णन को इतना महत्त्व न देते साथ ही साथ कल्पनाकी नूतनताके लिए लिखित प्रमाणोंकी उपेक्षा भी वाञ्छनीय नहीं है । जैसे कि जैन पुराण भी रामको कौरव पाण्डवोंका पूर्ववर्ती लिखते हैं तथापि कतिपय विद्वान इन सब साहित्यिक प्रमाणों की उपेक्षा करके महाभारतको रामायण से पहिले ले जाना चाहते हैं, अस्तु । जैनपुराणोंका मानवतापूर्ण सयुक्तिक वर्णन आजभी शोधकोंके मार्ग का श्रालोक हो सकता है । कृष्णचरित -- वैदिक मान्यता में वृन्दावनकी रासलीला का नायक युवक, कुरुक्षेत्रका महाशिक्षक वीराग्रणी तथा राजनीतिज्ञोंके कुलगुरु श्रीकृष्णकी कथाका जैनरूप भी बड़ा आकर्षक है। इसके अनुसार ये अन्तिम नारायण थे । यादववंशी महाराज वासुदेवके देवकीकी कुक्षिसे कृष्ण तथा रोहिणीसे राम ( बलदेव ) उत्पन्न हुए थे । मथुराधिप उग्रसेन, उनका पुत्रकंस, मगधाधिप जरासंध, रुक्मिणी, आदि रानियां तथा बहुत कुछ वर्णन समान है । अन्तमें द्वीपायन मुनिकी विराधना के कारण द्वारका जलकर भस्म होती है और धोखे में एक श्राखेटकके बाण से कृष्णजीका देहावसान होता है । वैलक्षण्य- यदुवंश - का प्रारम्भ ययातिसे न हो कर मथुराके प्राचीनतम राजा ही से होता है जिसके वंश यदु नामका राजा हुआ था । इसके उत्तराधिकारी अपनेको यादव कहने लगे थे । यदुका पुत्र शुर था जिसके पुत्र शौरि तथा सुवीर थे। मथुरा राज्य सुवीरको देकर शौरिने कुशार्त देश में राज्य स्थापित किया था जहां उसके अन्धक वृष्णि, आदि पुत्र हुए तथा सुवीरके पुत्र भोजक वृष्ण कहलाये । पुत्रको राज्य देकर सुवीर अपने सिन्धुदेशके नगर सौवीरपुर में रहने लगा था उसके ही पुत्र पौत्र उग्रसेन तथा कंस थे । समुद्र विजय, अक्षोभ्य, स्तमित, सागर, हिमवान, ऐहल, धरण, पूर्ण, अभिचन्द्र तथा वासुदेव ये दश अन्धकवृष्णि के पुत्र थे । इनकी दोनों पुत्रियां कुन्ती तथा माद्री पाण्डु तथा दमघोष से विवाही थीं । कुन्तीके पुत्र पाण्डव थे तथा दमघोषका पुत्र शिशुपाल था । वासुदेवजीका जैन वर्णन बड़ा ही रोचक है । ये इतने सुन्दर थे कि स्त्रियां देखते ही इनपर मुग्ध हो जाती थीं । फलतः नागरिक ललनाओं के शीलको सुरक्षित रखने के लिए ही स्नेही बड़े भाई समुद्रविजयने इन्हें घर में रह कर ललित कलाओं अभ्यास करने की प्रेरणा की थी। किन्तु एक कुटिल दासीने उनसे इस स्नेह कारागारके विषय में कह दिया । फलतः नगर के बाहर अपनी आत्महत्या की सूचना के साथ एक मुर्दे को जलाकर ये भाग निकले। तथा २८७ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ वर्षों घूमते तथा सैकड़ों विवाह करते हुए एक दिन रुधिर राजाके नगरमें पहुंच कर मृदंगवादकके वेशमें उनकी पुत्री रोहिणीकी स्वयंवर सभामें जा खड़े हुए। रोहिणीने इन्हें हो वरण किया फलतः समुद्रविजयके नेतृत्वमें अज्ञात कुलशील नीच युवकसे युद्ध छिड़ा किन्तु तुरन्त ही समुद्रविजयने इन्हें पहिचान लिया और युद्ध भ्रातृमिलनमें परिवर्तित हो गया । कस-की कथा बड़ी रोचक है । जब वह अपनी माता धरिणीके गर्भ में था तब उसे अपने पति उग्रसेनका मांस खानेकी इच्छा हुई। फलतः बालककी घातकता स्पष्ट हो गयी। इसीलिए उसके उत्पन्न होते ही उसे मृतक कह कर नदीमें बहा दिया गया। इस पेटीको एक सेठने उठाया और निःसन्तान होने के कारण बालकको बड़ा किया; जो कि अत्यन्त उदण्ड एवं दुष्ट था अतः वह कुमार वासुदेवकी सेवामें रख दिया गया जहां उसकी कुमारसे बड़ी प्रीति हो गयी तथा कुमारके साथ उसने अस्त्रविद्या एवं रणकला सीखी। ___ जरासङ्घ-अपने समयका प्रधानतम राजा था उसका प्रत्येक शासन सर्वत्र मान्य था। एक दिन उसने राजा समुद्रविजयको सिंहपुराधीश सिंहरथके हाथ पैर बांधकर अपनी सभामें उपस्थित करनेकी आज्ञा दी और यह भी घोषित किया कि जो सिंहरथको बन्दी बनाकर, लाये गा उसे अपनी पुत्री जीवद्यशा तथा यथेच्छ राज्य दूंगा। समुद्रविजयने युद्धकी तैयारी को किन्तु इस युद्धको वासुदेवने करना चाहा अतएव कंसको साथ लेकर उन्होंने आक्रमण किया और घोर संग्राम के बाद सिंहरथको बन्दी बनाकर जरासंधकी राजसभामें भेज दिया। किन्तु उसकी मातृ-पितृकुल विघातिनी जीवद्यशासे विवाह करनेको तैयार न हुए । यतः कंसने सिंहरथके हाथ पैर बांधे थे अतः उससे विवाह हो सकता था। किन्तु श्रेष्ठिपत्र कंससे विवाहकी बात सुनते ही जरासंघ जल उठता । इस द्विविधाके समय ही सेठने कंसके वास्तविक माता पिताका परिचय दे दिया। फलतः जीवद्यशा उससे व्याह दी गयी। किन्तु कंस अपने माता पिता पर अत्यन्त कुपित हुआ और मगधकी सेनाको सहायतासे उन्हें हरा कर तथा बन्दी बनाकर स्वयं मथुराका राजा बन बैठा। वह अपने मित्र वासुदेवको कभी न भूल सका। उसके अाग्रह तथा विनयसे उन्होंने उसकी ककेरो बहिन देवकीसे विवाह किया था। कंसने विवाहोत्सव बड़ी साज सज्जाके साथ मनाया था। भोजमें मदिराकी नदियां बह रही थीं । यथेच्छ मदिरापान करके सब उन्मत्त थे ऐसी अवस्थामें ही जीवद्यशाने अपने मुनि देवरका हाथ पकड़कर कामाचारके लिए कहा । क्रोधावेशमें मुनिके मुखसे निकल गया कि इस भ्रष्ट विवाहकी सन्तान हो कंसको मारे गी। इसी कारण चेतन होने पर कंसने वसुदेवजोसे अपने बालक उसे देनेकी प्रार्थना की थी जिसे सरल वासुदेवने स्वीकार कर लिया था। देवकी सन्तति-- देवकीके लगातार छह पुत्र हुए । तथा महितपुरकी सेठानी सुलसाके भी देवकीके साथ मृत २८८ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास पुत्र होते थे । फलतः शीघ्रतासे बच्चे बदल दिये जाते थे जिन्हे निर्दय कंस मसल कर फेंक देता था। सातवीं सन्तान कृष्णजी थे जिन्हे नन्दकी धर्मपत्नी यशोदाकी लड़कीके साथ बदला गया था। तथा कंसने भविष्य वाणीको मिथ्या मानकर लड़कीको नहीं मारा था। गोपाल बालिकाओं के साथ क्रीडा, पूतना तथा कंसके लोगोंको मारना तथा कंसको मारकर उग्रसेनको पुनः राजा बनानेकी कथा समान है। उग्रसेनकी पुनः राज्यप्राप्तिके अवसरपर श्रीकृष्णजीका प्रथम विवाह कंसकी बहिन सत्यभामाके साथ हुआ था। समस्त विशेषताओंका वर्णन न करके इतना लिखना पर्याप्त है कि जैन कृष्णचरितकी सबसे बड़ी विशेषता अरिष्टनेमिका चरित्र है जिसका ऊपर उल्लेख कर आये हैं । कौरव-पाण्डव युद्ध-का जैन वर्णन वैदिक महाभारत कथासे बहुत विलक्षण है । जैन कथानुसार यह युद्ध प्रधानतया कौरव-पाण्डव प्रतियोगिता ही न थी। क्यों कि कंसकी विधवा जीवद्यशाने अपने पिताके सामने जाकर अपनी दुःख कथा कही । फलतः प्रबल प्रतापी जरासंधने द्वारका साम्राज्यके स्वामी कृष्ण तथा यादवोंके प्रतिकूल युद्धकी तयारी की । इस युद्ध में शिशुपाल, कौरव, आदि जरासंधके पक्षमें गये तथा पाण्डव आदि श्रीकृष्णके पक्षसे लड़े । फलतः यह युद्ध जरासंध-कृष्ण युद्ध था तथा कृष्णजीके हाथ ही जरासंध मरा था। द्वारका दहन तथा कृष्णमृत्यु-जब अरिष्टनेमिको कैवल्य प्राप्ति हो चुकी तथा दिव्यध्वनि ( उपदेश ) खिर रही थी तब द्वीपायन मुनि द्वारकाको नष्ट करेंगे तथा श्रीकृष्णजी अपने वैमातुर भाई जराकुमारके हाथसे मरें गे' यइ सुनते ही सब स्तब्ध रह गये। शायद मदिरापान द्वारकाके नाशका कारण हो अतः कृष्णजीने मदिरा पान निषेध करा दिया था, द्वीपायन मुनि भी दूर वनमें जाकर तप करने लगे थे । "मैं अपने भाईको मारूंगा । कदापि नहीं, मेरे जीते जी कोई भैयाका बाल भी न छू सकेगा।" ऐसा निर्णय करके सशस्त्र जराकुमार द्वारकाके चारों ओर वनोंमें पहरा देने लगे थे । वैशाखके तापसे त्रस्त शाम्बका सहचर कादम्बरी ( जहां द्वारकाकी मदिरा भरकर फेंक दी गयी थी) के पास पहुंचा और उसने पानीके स्थान पर खूब मदिरा पी ली। तथा अपने स्वामीके लिए भो ले गया । मदिरा पीते ही शाम्ब इतना लोलुप हुआ कि दोनों गुफामें गये और इतनी अधिक पियो कि मूर्छित हो गये । वहीं द्वीपायन तप कर रहे थे शाम्ब ने इन्हें देखा और बोला 'यही हमारी द्वारका का नाश करेगा ?' यह सुनते ही यादव कुमारोंने उनपर आघात किये और वे मृतवत मूर्छित हो गये। यादव कुमारोंसे यह दुःखद समाचार सुनते ही कृष्ण तथा बलभद्र मुनिराजके पास गये, क्षमा याचना की, किन्तु मृत्युकी पीड़ामें मुनि शान्त न हो सके मुखसे निकल पड़ा "तुम दोनोंके अतिरिक्तकोई नहीं बचे गा, द्वारका जलेगी, सब नष्ट हो जायगे।" उदास मनसे कृष्णजी लौटे घोषणा कर दी कि सब पवित्र जीवन व्यतीत करें । स्वयं भी रैवतकपर जाकर भ० नेमिनाथका प्रवचन सुनते थे। २८९ ३७ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ मरण बिगड़ जानेके कारण द्वीपायन मरकर यक्ष हुए तथा प्रतिशोध लेनेके लिए द्वारका पहुंचे, किन्तु वहांका धार्मिक जीवन देखकर विवश हो गया। वह ग्यारह वर्ष तक प्रतीक्षा करता रहा। तथा निराश हो ही रहा था कि द्वारकावासी कठोर धार्मिक जीवनसे ऊबने लगे। लोगोंका यह भाव देखकर उसका साहस बढ़ा और जब फिर द्वारकामें मदिरा बही तथा मांस भक्षणादि अनाचार फैला वह टूट पड़ा । भीषण बवण्डर आया तथा द्वारका भभक उठी। यक्ष शक्तिसे कीलित यादव इतने निशक्त' होगये थे कि कुछ भी न कर सके । सबसे दुःखद मरण तो वासुदेव, रोहिणी और देवकी का था जिन्हें बचाने के लिए राम ( बलदेव ) तथा कृष्णने कोई प्रयत्न न छोड़ा था । तथापि अपनी आंखोंके आगे माता पिताको जलते देखना पड़ा था। इसके बाद दोनों भाई निकल गये और द्वीपायनके उत्पातमें द्वारका छह मास तक जलती रही। कृष्ण मरण-इसके बाद दोनों भाइयोंने पाण्डवोंके यहां जानेका निश्चय किया। जब वे कौशम्ब वनसे जा रहे थे तो दुःखी, शोकसंतप्त, श्रान्त श्रीकृष्णजीको जोरकी प्यास लगी। वे थककर बैठ गये और चिन्तित तथा अनिष्ट अाशंकासे पूर्ण राम जलको खोजमें गये । श्रान्त कृष्ण कपड़ा अोढ़कर पड़ गये और सो गये । उनका उघडा रक्त पादतल दूरसे दिख रहा था। बारह वर्षसे वनमें घूमते हुए जराकुमारने दूरसे हिरण समझ कर बाण मारा । तीव्र वेदनासे कृष्णजी जाग पड़े और मारकको पुकारा उसने अपनी कथा कही । भावीकी सत्यतापर विश्वास करके कृष्णजीने जराकुमारको गले लगाया जो उन्हें देखते ही मूञ्छित हो गया था, चैतन्य आनेपर रोने लगा, कृष्णजीने कहा “जाश्रो, जो होना था हो गया, राम यदि तुम्हें देखें गे तो मार डाले गे।" मरते भाईका आदेश मानकर वह चला गया। जब कमलपत्रोंमें पानी लेकर बलदेव लौटे और भाईको चुप पाया तो पहिले सोता समझा। फिर मत समझकर उनका विवेक ही नष्ट हो गया । इनके विलाप तथा छह मास तक भटकनेकी कथा इतनी करुणाद्र है कि पत्थरको भी आंसू आ जाय । अन्तमें उन्होंने दाह संस्कार किया तथा मुनि हो गये। जब वे मरकर ब्रह्मलोक स्वर्ग गये तो वहां उत्पाद शय्यासे उठते ही उन्हें भाईकी स्मृति आयी किन्तु स्वर्ग तथा मनुष्य लोकमें उनके जीवको न पा सके तब अधोलोकों (नरकों) में दृष्टि डाली-और वालका प्रभामें भाईको देखा । वहीं पहुंचे, लानेका मोहमय प्रयत्न किया किन्तु असफल रहे । विवेकी कृष्णजीने बतलाया कि मरते समय मैं अत्यन्त अशान्त, क्रुद्ध तथा द्वीपायनके प्रति प्रतिशोध पूर्ण था अतः मेरा यह पतन हुआ । अब तो यह सहना ही है । इसके बाद मैं मरकर मध्यलोक, फिर अधोलोक, फिर वैमानिकदेव, तथा अन्तमें जितशुत्रके 'श्रमान' नामका तीर्थङ्कर पुत्र होऊ गा। इसके बाद किस प्रकार रामकृष्णको ईश्वर का रूप प्राप्त हुआ, आदिका वर्णन है । जैन कृष्णकथा भी यही सिद्ध करती है कि वे काल्पनिक पुरुष नहीं थे अपितु ऐतिहासिक व्यक्ति ये । हुएनसांगका वर्णन भी इस निष्कर्षका समर्थक है। उसने लिखा है “धर्म अथवा कुरुक्षेत्र २९० Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक जैन इतिहास थानेश्वर के पास था । प्राचीन भारतमें दो राजा थे. उनमें सतत युद्ध हुआ था। पहिले यह निश्चय हुआ कि कुछ विशिष्ट पुरुष लड़ें और उसपरसे जय-पराजयका निश्चय हो किन्तु जनता नहीं मानी। दो में से एक राजाने युक्ति निकाली और एक ब्राह्मणसे धार्मिक पुस्तक लिखाकर गुफामें रख दी। फिर घोषित किया कि उसे स्वप्न में एक पुस्तक दिखी है । इसपर सब लोग गुफामें गये और एक पुस्तक वहां पायी । पुस्तक पढ़कर लोगोंको विश्वास हो गया कि युद्ध में मरनेसे स्वर्ग मिलता है। लोग लड़नेके लिए प्रस्तुत हुए । भीषण युद्ध हुआ और भूमि शवोंसे पट गयी । तभीसे उस स्थान पर अस्थिपंजरोंकी बहुलता है।" इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन कथा साहित्य प्राचीन इतिहाससे भरा पड़ा है। केवल एक 'पार्जीटर' की पतीक्षा है। तल NI IAL -Rahe PIPRn line SAVA Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्द्धद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन श्री कामताप्रसाद जैन, डी० एल०, एम० आर० ए० एस० ___ 'जैनं जयतु शासनम्' वाक्यसे लक्षित वीर ( जिन ) शासनकी पताकाको फहराते हुए ढाई हजार वर्ष पूर्ण हो गये हैं। जैन शासन आज भी भारत भूमिमें प्रकाशमान है, यह कम गौरवकी बात नहीं है । यह गौरव जैन शासनकी अहिंसा मूलकताका सुपरिणाम है । अहिंसा-संस्कृति जैन शासनका जीवन है और इसीसे उसका अस्तित्व सत्य, शिव तथा सुन्दर है । 'अाज जैन शासन सर्वाङ्गीण एवं सर्वतोभद्र नहीं रहा है ? ठीक है । बाह्यविकारसे कोई भी संसारी बचा नहीं है-जीवन परिवर्तनशील है-स्वभावपर विभावकी विजय होती देखी जाती है ! अतः श्राज यदि वीर प्रभुका जिन शासन सारे लोकमें स्थूल दृष्टिसे विजयो नहीं दिखता तो इसमें अटपटापन क्या है ? उन्नति और अवनति स्थूल जगतके दो सहज रूप हैं । वीर शासन इन दोनों रूपोंके झूलेमें झूलता आया है ! सूक्ष्म दृष्टि से देखिये जिन शासन भाव-रूपेण सारे लोकमें सदा जयशील रहा है और रहे गा ! 'वत्थु सहावो धम्मो' के वैज्ञानिक सिद्धान्त के कारण ही सदा सब स्थानोंपर प्रधानपद पाता रहे गा । जैनधर्म भारतसे वाहर नहीं गया ? ढाई हजार वर्षों के इस लम्बे अन्तरालमें वीरशासनकी कतिपय मुख्य घटनाओंका उल्लेख करना ही यहां अभीष्ट है ! जैन शासन धर्मप्रधान रहा है । हां, यह बात अवश्य है कि उसका धर्मक्षेत्र केवल कर्म काण्डमें सीमित नहीं रहा ! फलतः उसकी मर्यादाको मानने वाले केवल धार्मिक गृहस्थ ही नहीं, बड़े-बड़े शासक और योद्धा व्यक्ति एवं जन समूह रहे हैं । इस लिए जैनशासन धर्म, समाज और राजनीतिको हमेशा अनुप्राणित करता आया है। अजैन और पाश्चात्य विद्वानोंने जो अन्वेषण किये हैं वे श्लाघनीय हैं, परंतु निर्धान्त नहीं कहे जा सकते । उनको यह धारणा है कि जैनधर्म भारतके बाहर गया हो नहीं । जैन एवं बौद्ध मूर्तियोंके सूक्ष्म अन्तरको समझ लेना आसान नहीं है। कुछ विद्वान तो सर विलियम जोन्सके जमानेकी तरह आज भी जैन और बौद्धको एक समझनेकी भ्रान्ति कर रहे हैं। इसीलिए हाथी गुंफाका शिलालेख-मथुराका जैनस्तूप, आदि बौद्ध अनुमान किये जाते रहे। आज यह भ्रान्ति दूर हो गयी है और विद्वन्मंडली जैन और बौद्ध दो स्वतंत्र मतोंको मानने लगी है; परन्तु यह भ्रान्ति अब भी २९२ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्द्धद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन तदवत्थ है कि जैनधर्मका अस्तित्व भारतके बाहर नहीं रहा है इस भ्रान्तिको पनपने देनेका दायित्व स्वयं जैनियों पर है । यदि वे जागरुक होते और अज्ञान तिमिरको मेंटनेकी भावनासे अनुप्राणित होते तो आज विद्वज्जगतकी जैनधर्मके विषयमें कुछ और ही धारणा होती ! जैनधर्मका प्रचार तीर्थंकर भगवानने समस्त आर्यखंडमें किया था । भरतक्षेत्रके अन्तर्गत आर्यखंडका जो विस्तार शास्त्रोंमें बतलाया गया है, उसको देखते हुए वर्तमानमें उपलब्ध जगत उसीके अन्तर्गत सिद्ध होता है । कविवर वृन्दावनदास, स्व० पं० गोपालदासजी वरैया प्रभृति विद्वानोंने भी इस मतका पोषण किया है । स्व. पंडिताचार्यजीका कहना था कि करीब डेढ़ हजार वर्ष पहले दक्षिण भारतमें बहुतसे जैनी अरब देशसे आकर बसे थे । तिरुमलय पर्वतके शिलालेखमें एलिनीया यवनिका, राजराजपावगत और विदुगदलगिय पेरूमल नामक जैनधर्मानुयायी राजाओंका उल्लेख हैं, जिन्होंने उस पर्वत पर मूर्तियां आदि स्थापित की थीं । इनमें पहले राजा एलिनयवनिकाके नामसे ऐसा लगता है कि वह विदेशी थे । साथही अन्तिम राजा पेरूमलके विषयमें कहा गया है कि सन् ८२५ ई० में वह मक्का गये थे । अतः इन राजाओंका सम्बन्ध अरबदेशसे स्पष्ट है। मौर्यसम्राट् सम्प्रतिने अरब और ईरानमें जैनमुनियोंका विहार कराया था। श्री जिनसेनाचार्यने भ० महावीरके विहारसे पवित्र हुए देशोंमें यवनश्रुति, काथतोय, सूरुभीरु, तार्ण-कार्ण, आदि देश भी गिने हैं;" जो निस्सन्देह भारतबाह्य देश हैं । यवनश्रुति पारस्य अथवा यूनानका बोधक है। क्वाथतोय देश ‘लाल सागर' का तटवर्ती देश अबीसीनिया, अरब, इथ्यूपिया आदि हो सकते है, जहां एक समय श्रमण साधुओंका विहार होता था । सूरुभीरु संभवतः 'सुरभि' नामक देशका बोधक है, जो मध्यएशियामें क्षीरसागर के निकट अक्षस (oxus ) नदीसे उत्तरकी अोर स्थित था। तार्ण 'तूरान' और 'कार्ण' काफिरस्तान हो सकते हैं । भरत द्विग्विजय अथवा प्रद्युम्नकुमारके भ्रमणवर्ती देशोंका यदि अन्वेषण करके पता लगाया जाय, तो उपलब्ध सारे लोकमें जैनधर्मका अस्तित्त्व सिद्ध होगा। इस विषयमें एक तुच्छ प्रयास हमने किया है। कोई कोई पाश्चात्य विद्वान् भी अब इस दिशामें अन्वेषण करनेके लिए अग्रसर हुए हैं। श्री सिल्वालेवीने जैनधर्मका प्रभाव सुमात्रा अादि प्रदेशोंमें बताया था। हालमें संभवतः 'सामराइच्च १ 'भगवान् पाश्र्वनाथ' पृ० १५६ । २ ऐशियाटिक रिसचेंज, भा० ९ पृ० २८३-२८४ । ३ मद्रास-मैसूरके प्राचीन जैन स्मारक, पृ०७९-९० व ११९ । ४ हरिवंशपुराण (५० गजाधरलाल ) टीका पृ० १८ । ५ 'भ० पार्श्वनाथ' पृ० १७३-२०२ ! ६ इंडियन हिस्टोरीकल क्वारटली, भा० २ पृ. २९ । ७ 'भ० पार्श्वनाथ' में नागवंशजोंका परिचयादि । ८ विश्वभारती पत्रिका, वैशाख-आसाढ़, २००१ पृ० ११७ २९३ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो अभिनन्दन ग्रन्थ कहा' के आधारसे डा० वासुदेवशरण अग्रवालने भारतसे बाहरके काह आदि कुछ ऐसे द्वीपोंका पता लगाया है, जहां जैनी आते जाते थे' । तात्पर्य यह कि जैनशासनका क्षेत्र केवल भारतवर्ष को समझना निर्भ्रान्त नहीं है ! जैनेन्द्र धर्मचक्र भारत से बाहर के देशों में भी प्रवृत्त हुआ था । भ० महावीरकी प्रथम धर्मदेशनाद्वारा ही मगचसाम्राज्य की राजधानी राजगृहके निकट स्थित विपुलाचल पर्वत पर जिन शासनका उदय हुआ था । तत्कालीन वैदिक पंडित इन्द्रभूति गौतम और उनके भाइयोंकी जैनधर्म दीक्षा के साथ आगे बढ़ा था, यह अहिंसा संस्कृतिकी जय थी क्योंकि बाह्य क्रियाओं और पशुबलि धर्मकी आस्थाका अन्त हुआ था समाजमें स्त्रियों और शूद्रोंको समुचित स्थान मिला। धर्म और समाज जैन मुद्रा से अङ्कित हुए फलतः राजनीति पर भी उसकी छाप लगी । मेरे मतसे साम्राज्यवादी श्रेणिक ( बिम्बसार ) र कुणिक ( अजात शत्रु ) जिनशासन के अनन्य संरक्षक और प्रसारक हुए । गणतंत्रवादी संघ-पतियोंमें अग्रणो चेटक महाराज भी महावीरके अन्यतम उपासक थे । उनके अहिंसा आदर्शने भारतशासन में एक नवीन धारा बहा दी, निरामिष भोजन श्रीर संयमका महत्व स्पष्ट हुआ परस्पर सहयोग और संगठनसे रहकर जीवन वितानेका परिणाम भारतका प्रथम मगध साम्राज्य हुआ । संघ धर्म- जैन शासनकी यह विजय संघ धर्म व्यवस्थाकी देन थी। वीर मार्ग में शासन सूत्र सर्वज्ञ आचायोंके हाथों में रहता था। उसमें मुनि आर्यिका आवक और भाविका संघ ये मुनिसंघको श्रुतज्ञान भी गुरु परम्परासे कंठस्थ रूपमें मिलता था। साधुयोंका सारा ही संघ 'निर्मन्थ' नामसे प्रसिद्ध या । जैनके स्थानपर निर्मन्थ शब्द प्रयुक्त होता था। स्वयं भ० महावीर निर्व्रन्थ शातूपुत्र नामसे प्रसिद्ध थे। निर्ग्रन्थ साधु ( श्रमण ) अचेलक ( नग्न ) रहते थे । २ आर्यिका संघका जीवन भी निश्चित था । सती चन्दनबाला के नेतृत्वमें जैन श्रार्यिकाएं स्वपरकल्याणमय जीवन बिताती थीं 'पद्मपुराण' में ( पृ० ८८३) तथा 'बेरीगाथा' (१०७) से यह भी स्पष्ट है कि आर्यिकाएं केशलुचन करतीं धूल धूसरित शरीर रहतीं और एक वस्त्र पहना करती थीं। मुनि और आर्थिकाओंका लक्ष्य मोक्ष था। 1 १ "भारतकी सोमाकी बाहरी प्रदेशों में भी जैन उपदेशकोने धर्मप्रचारके प्रयत्न किये थे। चीन यात्री हुएनसांग किलापिशीमें आँखों देखे उल्लेखसे, हरिभद्रजी के शिष्यों की कथासे एवं कुच विषयकी हकीकतके ग्रइनबेडल के जर्मन अनुवाद से सिद्ध है कि वीर धर्म के उपदेशकों को समुद्रका कोई बाधा न थी ।" त्रो० हेल्मुथ फान घोमनाथ । २ दिध्वनिकाय ( पाटिक सुत्त ) महावग्ग ८ १५, ३-६-३८-१६० जातकमाला पृ० १४५, दिव्यावदान पृ० १८५, ऋग्वेद संहिता १०-१३५; वेदान्तसूत्र २/२/३३, वराहमिहिर संहिता १९६१ तथा ४५-५० दशकुमार चरित २ ; महाभारत ३।२६ - २७; विष्णुपुराण ३|१८; दाठावंसो इत्यादि । ३ Psalms of the Sisters, p. 63 व 'भ० महावीर और भ० बुद्ध पृ० २५९-२६२ २९४ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्वंद्विसहस्राब्दिक वीर - शासन मुनि संघ साथ शिक व्रत (अणुव्रत ) धारक भी रहते थे। उनकी ग्यारह श्रेणियां (प्रतिमाएं ) आत्मोन्नति अनुसार थीं । ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक ( १ ) ऐलक और ( २ ) क्षुल्लक निर्ग्रन्थ कहे गये हैं- ये ‘एकशाटक' एक या दो वस्त्र रखनेके कारण कहलाते थे ।" उत्तर कालमें श्वेताम्बर समुदायन संघको 'जिनकल्पी' और 'स्थविरकल्पी ' भागों में विभक्त करके वस्त्र मुनिपदका भी विधान किया है। श्वेताम्बर श्रागम ग्रंथों में कहीं भी जिनकल्प - स्थविरकल्प विभाग नहीं मिलते हैं । यह भेदकल्पना उत्तरकालीन है । संभवतः बारह वर्षोंके दुष्कालके पश्चात् निर्ग्रन्थ संघके दो भाग हुए । मुनिचर्या दोनोंकी समान है श्वे० 'श्राचाराङ्ग सूत्रमें दिगम्बर मुद्राका ही सर्वोत्कृष्ट धर्म रूप से प्रतिपादन किया है जैकब ने लिखा है कि मुमुक्षुको मुनिपद धारण करने पर नग्न होनेका विधान है। नग्न मुनिको तरह तरहके परीषह सहन करने पड़ते हैं । 'उत्तराध्ययन सूत्र' में भी अनगारधर्मका निरूपण कर हुए उसे अचेल परीषह सहन करने वाला लिखा है४ | 'ठाणांग सूत्र' में भ० महावीर कहते हुए बताये गये हैं कि 'श्रमण निर्ग्रन्थको नग्नभाव, मुंड़भाव, स्नान नहीं करना, श्रादि उपादेय हैं" ।' निर्वाण पाने के लिए मुमुक्षु नग्न ( दिगम्बर ) मुनि होते थे । 'श्राचारांग सूत्र' में हीनशक्ति मुमुक्षुको क्रमशः तीन, दो और एक वस्त्र धारण करनेका विधान है । 'उत्तराध्ययन सूत्रमें पहले पांच अध्ययनों में अनगारधर्म का निरूपण करके - पांचवेंमें अचेलक अनगारको अकाममरण ( सल्लेखना) करनेका उपदेश देकर, छठवें अध्ययन में स्पष्टतः 'क्षुल्लक निग्रन्थ' (खुड्डा गनियंठ ) को उपदेश दिया है और सातवें अध्ययनका शीर्षक 'ऐलक' ( एलयं ) रखकर चरित्र नियमोंका निरूपण भेड़की उपमा देकर किया है यह सब अचेलकताका समर्थक है । प्राचीन बौद्ध ग्रन्थोंमें निर्ग्रन्थ श्रमण अचेलक नग्न ) ही लिखे हैं । उनमें गृहत्यागी उदासीन श्रावकोंका उल्लेख 'गिही श्रोदात् वसना' - ' मुण्डसावक' और 'एकशाटक नियंठ' नाम से १ आदिपुराण ३८ २५८ । Sutras, Pt. 1, P. P. 55-6. ३ 'जे अचेले परिवुसिए तरसणं भिक्खुस्स णो एवं भवइ - ' ४ ' अदुवा तत्थ परक्कमंत भुज्जो अचेल तणफासा फुसंति' ५ 'समणाणं नि.गंधाणं नागभावे, मुंडभावे, अण्हाणए । ठणाङ्गसूत्र | ९ ३ ९८ ६ समयं स जये भुजे जयं अपरिसाडियं ।। ३५ ।। ७ 'जस्सट्टाए कीरडु नग्गभावो नाव तमहं आरोहेइ । भगवती सूत्र ९ | ३३ Gaina Sutras (S, B. E.) Pt. 1, PP. 67-73. २९५ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ मिलता है । भारतीय पुरातत्त्वमें प्राचीन मौर्यकालीन और अन्य मूर्तियां नग्न ही मिली हैं - सवस्त्र श्रमणत्वकी ज्ञापक कोई मूर्ति नहीं मिली है। केवली काल भ० महावीरके निर्वाणके पश्चात् जिनशासनकी प्रभावना केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा की गयी है । शिशुनाग वंशके राजाओंके अतिरिक्त अन्य भारतीय शासक भी उसके पोषक रहे हैं । नन्दवर्द्धन, श्रादि कई नन्दवंशी नरेश भी जिनेन्द्रभक्त थे । इसके उपरान्त चन्द्रगुप्त मौर्य मगधके राज्यसिंहासनपर श्रारूढ़ हुए और भारतके सार्वभौम सम्राट् हुए। श्रुतकेवली भद्रबाहु उनके गुरु थे। चन्द्रगुप्त मौर्य और उनके पुत्र विन्दुसारने धर्मप्रचारका उद्योग किया था । जैसा कि सम्राट अशोकके लेखोंसे स्पष्ट है ।' चन्द्रगुप्त मौर्य श्रुतकेवलो भद्रबाहुसे दीक्षा लेकर मुनि हो गये थे और संघके साथ धर्मोद्योत करते हुए दक्षिणभारत गये थे । शक सं० ५७२ ल० के शिलालेखमें इन गुरु-शिष्यके विषयमें कहा गया है “जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्रके तेजसे भारी समृद्धिको प्राप्त हुआ था। हरिषेण 'कथाकोष' में सम्राट चन्द्रगुप्तको सम्यग्दर्शन सम्पन्न महान् श्रावक लिखा है" । श्रीयतिवृषभाचार्यने उन को अन्तिम मुकुटबद्ध राजा लिखा है जिसने मुनि दीक्षा ली थी । इनके बाद सम्प्रति और सालिस्कने देश-विदेशमें जिनशासन का ध्वज फहराया था । सम्प्रतिने भी अशोककी तरह धर्म लेख खुदवाये थे । मौर्यकालमें ही जिनशासन सूर्य सम्प्रदायगत संघर्षके राहुसे ग्रसित हुआ। उस समयकी उल्लेखनीय घटना जैन संघका दक्षिण भारतमें पहुंचना है। कहा जाता है वहां इससे पहले जैनधर्म नहीं था, किन्तु वस्तुस्थिति कुछ और ही है। कारण इस समय तक जैनधर्म दक्षिण भारतसे भी आगे सिंहलद्वीपतक जा चुका था । जैन शास्त्रोंके अनुसार भ० महावीरके बहुत पहलेसे जैनधर्म दक्षिण भारतमें १ महावग्ग ८,१५ ३-१, ३८, चुल्लवन्ग ८,२८,३, संयुत्तनिकाय २,३,१०,७ दीघनिकाय. पाटिकसुत्त, करस पसीहनादसुत्त अंगुत्तरनिकाय पृ० ३,७०-३ २ सप्तम स्तम्भलेख-अशोकके धर्मलेख पृ० ३७१ । ३ म०म० नरसिंहाचार्य कृत 'श्रावणबेलगोल' नामक पुस्तक । ४ 'श्रीभद्रबाहु स चन्द्रगुप्त मुनीन्द्रयु-मदिनोप्पेवल' । भद्रमागिद धर्ममन्दु बलिक्केबन्दिनिसल्कलो ।।'-जैनशिलालेखराँग्रह (स०१७) पृ०६ । ५ श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४०, ५४ व १०८ देखो। ६ 'तत्काले तत्पुरि श्रीमांश्चन्द्रगुप्तो नराधिपः । सम्यग्दर्शन सम्पन्नो बभूव श्रावको महान् || २६ ॥ भद्रबाहुवचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अस्यैक योगिनः पावें दधी जैनोश्वरंतपः ।। ३६ ।। इत्यादि । ७. संक्षिप्त जैन इतिहास, भा० २ खंड १ पृ० २१८-२९८ । ८. महावंश-स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म, भा० १ पृ० ३३ २६६ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साईद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासने था । श्रीभद्रबाहु-संघके दक्षिण भारतमें पहुंचनेसे धर्ममें नूतन जागृति अवश्य श्रायी थी। किन्तु इस घटनाका कुपरिणाम जैनसंघकी एकताका विनाश था । श्रुतकेवली भद्रबाहु तक दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनी प्रायः एक थे और उनके गुरु भी प्रायः एक थे, परंतु भद्रबाहुके बाद ही दोनों सम्प्रदायोंकी अपनी अपनी मान्यताएं तथा गुरु-परम्पराएं हो गयीं। उसके पश्चात् लगभग ईसाकी छठी शतीतक मूल मार्ग निर्ग्रन्थ नामसे प्रसिद्ध रहा और उनका संघ 'निर्ग्रन्थ संघ' कहलाता रहा । किन्तु स्थूलभद्रादिके साथ जो श्राचार्य व मुनि उत्तर भारतमें रह गये थे, उन्होंने दुष्कालके प्रभावानुसार वस्त्र, पात्रादि ग्रहण कर लिये थे। उन्होंने जिनागमकी वाचना और परम्परा निर्धारित करनेके लिए एक संघ भी बुलाया था; परन्तु उसमें भद्रबाहु स्वामी सम्मिलित नहीं हुए थे । उस समय जिनकल्प और स्थविरकल्प रूप श्रमण लिङ्गकी कल्पना की गयी । श्रीहरिषेणने लिखा है कि "जिन मुनियोंने गुरुके वचनोंको इष्ट नहीं माना, उन्होंने जिनकल्प और स्थिविर कल्प ये दो भेद ही कर डाले । अशक्त, कातर और परमार्थको नहीं जाननेवाले उन साधुअोंने अर्धफालक ( अाधा वस्त्र ) रखनेवाला मत चालू किया।" बादमें इसी अर्द्धफालक मतसे श्वेतपट ( श्वेताम्बर ) सम्प्रदायकी उत्पत्ति वलभी नगरमें राजाज्ञासे हुई । राजाने स्पष्ट कहा कि 'या तो आप लोग अर्धफालक त्यागकर पूर्ण निर्ग्रन्थ हो जाइये और यदि निर्ग्रन्थता धारण करनेकी शक्ति नहीं है तो अर्धकालकी विडम्बनाको त्यागकर सीधे सादे वस्त्रोंको पहन लीजिये ।' तभीसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई । इसी प्रकारका कथन भ० रत्ननन्दिकृत ‘भद्रबाहुचरित्र' में भी मिलता है । प्राचीन निर्ग्रन्थवेशके प्रतिपालक श्राचार्योंने चाहा कि जैनसंघमें फूट न पड़े-स्थूलभद्राचार्यने प्रायश्चित लेकर दिगम्बर वेशको धारण किया; परन्तु उनके शिष्यगण न माने । प्रारम्भमें नग्नताके प्रति एकदम बगावत न हो सकी फलतः मध्यममार्ग ग्रहण किया। वे नग्न रहे; परन्तु शीतनिवारण और चर्याके समय लज्जानिवारणके लिए खंड-वस्त्र पासमें रखने लगे अर्थात् वस्त्र रखते हुए भी नग्न रहे । श्राचेलक्य मूलगुणकी सर्वथा विराधना उन्होंने नहीं की। जैसा कि कंकालीटीला मथुरासे प्राप्त तथा ई० प्रथम द्वितीय शती तकके बिल्कुल नग्न श्रमणोंके चित्रणसे सिद्ध है; परन्तु लज्जा निवारणके लिए उनके हाथकी कलायीपर वस्त्रका टुकड़ा पड़ा हुआ है । कण्ह श्रमणका पट्ट एवं १. संक्षिप्त जैन इतिहास, भा० ३ खंड १ पृ. ६०-६६ २. "जैन सिद्धांत भास्कर"-भा० १० कि० तथा भा. ११ कि० १ । ३, यदि नियन्थतारूपं ग्रहयतुं नैव शक्नुथ । ततोऽर्धफलकं हित्वा खविंडम्बनकारणम् । ___ ऋजुवस्त्रेण चाच्छाद्य स्वशरीर तपस्विनः । तिउत प्रतिचेतस्का मद्वाक्येन महीतले ॥' ४. बौद्ध स्तूप (Vodha Stupa) में वस्त्रधारी व नग्न श्रमण चित्रित हैं। (....a naked ascetic, who ___as usual, has a piece of cloth hanging over his right arm.-Dr. Buhler) । प्लेट नं० १७ में कण्ह श्रमण इसी रूपमें चित्रित हैं, जिनका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमें है । प्लेट नं०४ में नैगमेषको मूर्तिके पास एक ऐसे ही अद्ध फालकीय श्रमण चित्रित हैं। डा. अग्रवालने एक अन्य पाषाण पाटमें ऐसे ही एक श्रामणका अस्तित्व बताया है। (जैन ऐटीक्वेरी, भा० १० पृ० ३।) २१७ ३८ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अन्य पट्ट इसी प्रकारके हैं । उनपर कोहिय आदि श्वेताम्बरीय गणों विषयक लेख भी अङ्कित हैं; स्पष्ट है कि उनको श्वेताम्बर संघके पूर्वाचार्योंने प्रतिष्ठापित कराया था। सारांश यह कि मुनिवेष, स्त्रीमुक्ति, आदि बातोंको लेकर निर्ग्रन्थ संघ दो भागोंमें विभक्त हो गया। तथा यापनीयसंघकी स्थापना इन दोनां संघोंके एकीकरणके लिए की गयी थी । कलिङ्ग सम्राट् ऐल खारवेलने इससे बहुत पहले सब ही प्रकारके निर्ग्रन्थ श्रमणोंका सम्मेलन कुमारी पर्वतपर बुलाया और उसमें द्वादशाङ्ग वाणीके उद्धार द्वारा संघमें ऐक्य स्थापनाका उद्योग किया, दुर्भाग्यवश वह भी असफल रहे । मौर्योत्तर काल मौर्योंके पश्चात् शुङ्गवंश और आन्ध्रवंशके ब्राह्मण धर्मानुयायी शासकोंने भारतके सार्वभौम सम्राट बननेका उद्योग किया । उनके द्वारा वैदिक धर्म की विशेष उन्नति हुई। जैनशासन-सूर्य यहींसे अवनतिरूपी राहुसे ग्रस्त होने लगा। फिर भी जैनाचार्योने भ० महावीरके आदर्शको जीवित रखने में कुछ उठा न रखा । उस समय भारतमें जैनोंके मुख्य केन्द्र कलिङ्ग, उज्जैनी, मथुरा, गिरिनगर और दक्षिणभारतके कई नरार थे । कलिङ्ग और दक्षिण भारतमें प्राचीन निर्ग्रन्थ ( दिगम्बर ) संघका एकाधिपत्य था । उज्जैन, मथुरा और गिरिनगरमें दिगम्बरोंके साथ श्वेतपट संघका भी पर्याप्त प्रभाव था। बौद्धग्रन्थ 'दाठावंश' से प्रगट है कि ईसाकी ४ थी-५ वीं शतियोंमें दिगम्बर जैनी राजमान्य थे। स्वयं कलिङ्ग नरेश जिनके उपासक थे । चीनी यात्री हुएनसांगके समय जैनधर्म यद्यपि राजधर्म नहीं रहा परंतु अंग-बंग और कलिंगकी जनता उसकी अनन्य उपासक थी। उज्जैनमें जैनाचार्योंने सम्राट विक्रमादित्यको जैनधर्ममें दीक्षित किया था। उसके उपरांत उज्जैनका शासकवर्ग मध्यकालतक किसी न किसी रूपसे जैनधर्मसे प्रभावित रहा। दिग० जैन परम्पराके प्राचार्योंका केन्द्र होनेका सौभाग्य उज्जैनको मुस्लिम कालतक प्राप्त रहा । मथुरा जब विदेशी-शक और हूण-शासकोंके अधिकारमें था तब शकवंशके राजा मनेन्द्रर, अजय, रुद्रसिंह और नाहपान भी जैनधर्मसे विशेष प्रभावित हुए थे। निर्ग्रन्थ (दिगम्बर ) और श्वेतपट संघके प्राचार्योंने इन विदेशियोंसे घृणा नहीं की; कंकाली टीलासे उपलब्ध परातत्व इस बातका साक्षी है कि उस समय अनेक यवन ( Greek ) पार्थीय ( Parthians ) एवं शकलोग जैनधर्म में दीक्षित हुए थे । गंधी, माली, गणिका, नट, आदि साधारण स्थितिके लोगोंके लिए भी जैनसंघके द्वार खुले हुए थे-वे मुनियोंको दान देते थे, और जिनपूजाके लिए जिनेन्द्र प्रतिमाएं और मंदिर निर्माण कराते थे। मथुरा वैष्णव सम्प्रदायका मुख्य केन्द्र था । सन्तान प्रदायक देवता नैगमेष देवकी पूजा करते थे । जब ये वैष्णव जैनी हुए, तो नैगमेषकी मान्यता भी जैनसंघमें प्रचलित हो गयी-श्वेताम्बर सम्प्रदायने इसको विशेष महत्त्व दिया। दिगम्बरों में इसका एक उल्लेख 'हरिवंशपुराण' में मिलता है। गिरिनगर निर्ग्रन्थ संघका मुख्य केन्द्र रहा–प्राचीन कालमें श्रोताम्बर संध यहां सफल न हुआ। अतः अपना केन्द्र वल्लभीको बनाया और वल्लभी राजवंशके आश्रयसे उसका आधिपत्य सारे गुजरातपर २६८ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्द्धद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन हो गया । निर्ग्रन्थ (दि०) आगमका उद्धार भी गिरिनगरके पास चन्द्रगुफामें विराजमान श्री धरसेनाचार्य द्वारा हुआ था। संघभेद-- निर्ग्रन्थ संघकी दोनों धाराए भी अन्तर भेदोंमें बंट गयी थीं । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें चौरासी गच्छोंके उत्पन्न होनेकी बात कही जाती है। दिगम्बर सम्प्रदायमें भी प्राचार्य अर्हद्वलिके समयसे निर्ग्रन्थ संघ, जो श्वेताम्बरोंसे अपनेको अधिक प्राचीन माननेके कारण 'मूलसंघ' नामसे प्रसिद्ध था, निम्नलिखित चार संघोंमें बंटगया था १ नन्दिसंघ-नन्दिवृक्षके नीचे चौमासा माढ़ने वाले श्राचार्य माघनन्दि के नेतृत्वमें । २ सेनसंघ-श्राचार्य जिनसेनके नेतृत्वमें । ३ सिंहसंघ--सिंह गुफामें चातुर्मास विताने वाले प्राचार्य के नेतृत्वमें । ४ देवसंघ-देवदत्ता नर्तकीके श्रावासमें चौमासा वितानेवाले श्राचार्य के नेतृत्वमें । ईसाकी प्रारम्भिक शतियोंमें जैन संघमें अान्तरिक श्रापत्तिका प्राबल्य रहा-उसका कारण केवलियोंके अभावके साथ वीर-वाङ्मयका अभाव भी था। ऋषियोंको भिन्न परम्पराएं और मान्यताए याद थीं और वे अपनी अपनी बात कहते थे । अतएव प्रमाणिक शास्त्रोंको लिपि बद्ध करानेके लिए ही चन्द्रगुफामें स्थित श्रीधरसेनाचार्य ने कर्णाटिक देशसे भूतबलि और पुष्पदन्त मुनियोंको बुलाकर उनको वीर वाणो सुनायी थी किन्तु यह सिद्धांत ग्रन्थ दिगम्बर जैनोंको ही मान्य रहे । श्वेताम्बरोंने इसके बहुत बाद वल्लभीमें देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ( ई० ५ वीं श०) की अध्यक्षतामें अपने अङ्गोपाङ्ग-श्रुतका संकलन किया और तभी वह लिपिबद्ध किया गया। संघ छिन्न-भिन्न हुा । प्रत्येक विभक्तसंघका श्राचार्य अपनी मानमर्यादा और अपने भक्त बढ़ानेकी धुनमें संघके एक रूपको भूल गया था । कालकसू रि शकदेश गये और शक शाही राजाओंको प्रबोधकर श्रावक बनाया । उन्हें गुजरातमें लिवा लाये और गर्दभिल्लके अत्याचारका अन्त किया। आंध्रवंशके शातवाहन नरेश भी जैनधर्मसे प्रभावित हुए थे। मूलसंघाग्रणी श्राचार्यप्रवर श्री कोण्डुकुन्द पद्मनन्दि स्वामीने पल्लवनरेश कुमार शिव स्कन्धवर्माको जैनधर्मका अनुयायी बनाया । पल्लवनरेशोंके दानपत्र प्राकृतभाषामें हैं । कोंडुकुन्दस्वामीके महान् व्यक्तित्वका प्रभाव सारे भारतमें व्याप्त हुआ । उनका 'कुरल' काव्य तामिलदेशमें वेद-तुल्य मान्य हुश्रा' । निर्ग्रन्थ ( दिगम्बर ) श्वेतपट, यापनीय, कूर्चक, आदि संघोंके प्राचार्योंने कदम्ब सम्राटोंको भी जिनेन्द्रका भक्त बनाया, तथा जनताको भी । कदम्ब सम्राट् श्री रविवर्माका शासनलेख अाजके संसारके लिए भी हितकर है १. "प्रवचन सार" की श्री उपाध्ये द्वारा लिखित भूमिका । २. संक्षिप्त जैन इतिहास, तृतीय भाग द्वितीय खंड पृ० २५-३२ । 'जनहितैषी' भा० १४ पृ० २२७ । २६६ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ "महाराज रविने यह अनुशासन पत्र महानगर पलासिकमें स्थापित किया कि श्री जिनेन्द्रदेवकी प्रभावनाके लिए उस ग्रामकी आमदनीमेंसे प्रतिवर्ष कार्तिकी पूर्णिमाको श्री अष्टान्हिकोत्सव, जो लगातार आठ दिनों तक होता है, मनाया जाया करे; चातुर्मासके दिनोंमें साधुअोंका वैयावृत्य किया जाया करे और विद्वजन उस महानताका उपभोग न्यायानुमोदित रूपमें किया करें ।...धर्मामा ग्रामवासियों और नागरिकोंको निरन्तर जिनेन्द्रभगवान्की पूजा करनी चाहिये। जहां जिनेन्द्रकी सदैव पूजा की जाती है, वहां उस देशको समृद्धि होती है, नगर प्राधि-व्याधिके भयसे मुक्त रहते हैं और शासकगण शक्तिशाली होते हैं ।" ( हल्सी जिला बेलगांवका दानपत्र ) । गंगवंश-स्थापना-- श्री सिंहनन्द्याचार्य ने दक्षिणभारतमें गङ्ग साम्राज्य की स्थापना की थी। उत्तर भारतमें शुङ्ग, कण्वादि राजवंश वैदिक धर्मको प्रोत्साहन दे रहे थे । मौर्योंके साथ ही भारतकी अखंड राष्ट्रीयता खटाईमें पड़ गयी । महाभारत-कालीन स्पर्धा वैदिक शासकोंके हृदयोंमें अड्डा जमा चुकी थी। प्रत्येक शासक भरत चक्रवर्ती बननेकी धुनमें अकारण खून बहाता था। इस राजनैतिक परिस्थितिमें उत्तरके बहुत-से राजवंश भ्रष्ट होकर दक्षिणकी ओर चले गये । गङ्गवंशके संस्थापक ददिग और माधव भी उत्तर भारतसे ही दक्षिणमें पहुंचे थे । ददिग और माधव राजपुत्रोंने श्री सिंहनन्याचार्यसे जैनधर्मकी दीक्षा ली और प्रतिज्ञा की कि वे और उनकी सन्तति सदा ही जिनेन्द्रभक्ति और अहिंसाधर्मके प्रभावक रहेंगे । अपने वचनको उन्होंने खूब निभाया । उनके शासनकालमें जैनधर्म का विशेष अभ्युदय हुआ । श्रवण बेलगोलकी विश्वविख्यात् बाहुबलि गोम्मटदेवकी विशालकाय सुन्दर प्रतिमाका निर्माण गङ्ग सेनापति वीरवर चामुण्डरायने किया था। यापनीयसंघ यापनीय संघके प्राचार्योंने जैन संघोंमें पारस्परिक समुदार भावनाको बढ़ाया। श्रावक पारस्परिक अनैक्यसे परे थे । एक ही श्रावक उदारता पूर्वक सब ही सम्प्रदायोंके साधुओंको दान देता था। दक्षिण भारतमें शिल्पियोंने एक 'वीर पंचल' संस्था स्थापित की थी, जिसमें सुनार, लुहार, भरिया, बढ़ई और राज ( मैमार ) सम्मिलित थे। यह शिल्पी अपनेको शूद्र नहीं मानते थे, बल्कि विश्वकर्मा ब्राह्मण कहलाते थे। इनके नामके साथ 'श्रोमा' और 'अचारी' शब्दोंका प्रयोग होता था। प्रसिद्ध गोम्मटमूर्तिके एक शिल्पीका नाम 'विदिग अोज्झा' था। व्यापारियोंने संघोंकी स्थापना की थी। १ कदम्बनरेश मृगेशवर्माका दानपत्र छपा है । उससे निग्रन्थ ( दिगम्बर ) और श्वेतपट ( श्वेताम्बर ) संघोंका अस्तित्व स्पष्ट है। ܘ ܘ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्द्धद्विसहस्राब्दिक - वोर शासन आजीविका के अनुसार उनका वर्ण नियत होता था । सबकी वैदेशिक वंशपरम्परा भी उनके नामके साथ जीवित रहती थी । इस प्रकार जैनाचायोंने अपनी समुदार संघव्यवस्था में सामाजिक वैषम्यको मेटनेका प्रयत्न किया था । सम्यक्त्व और जैनाचार ही श्रावकत्व पानेके लिए मुख्य योग्यताएं थीं । पांचवीं शतीमें श्री वज्रनन्दि श्राचार्य के तत्त्वावधान में मदुरामें एक “जैनसंघ” की स्थापना की गयी, जिसका उद्देश्य जैन विद्वानों और साहित्यकारोंकी कृतियोंका श्रादर और प्रचार करना था । I सातवीं ठवीं शती से दक्षिण भारतमें भी जैनोंकी अवनति प्रारंभ हुई। इस समय तक चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, पाण्ड्य और कलचुरिवंशके नरेश जैनधर्मके भक्त थे । राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष गुरू प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनसेन थे । कहते हैं, उनके उपदेशसे सम्राट् अमोघवर्ष ऐसे प्रभावित हुए कि दिगम्बर मुनि हो गये । उनका रचा हुया नीतिग्रंथ सुभाषित 'रत्नमाला' विश्वसाहित्यका एक अमूल्य रत्न है । अप्परने पल्लव नरेश महेन्द्रवर्म्माको शैव बनाया । पाण्ड्य नरेश सुन्दर भी शैव हुए । इन दोनों नरेशोंके जैनसे शैव होनेपर शैवधर्म प्रबल हुआ । चोलनरेश तो पहले से ही जैन विरुद्ध थे । परिणामतः जैन मंदिर और मूर्तियां नष्ट की गयीं और अनेक जैनी बलात् शैवधर्म में दीक्षित किये गये सुन्दरने बहुत ही जुल्म ढाया - जिन आठ हजार जैनोंने अपना धर्म नहीं छोड़ा उनको उसने शूली पर चढ़ा दिया । इन भाग्यशाली धर्मवीरोंकी मूर्तियां, अर्काटके लिवलूर देवालयकी दीवालोंपर अति हैं । इस समय में भी जनता के सहयोग से प्राचार्य सुदत्तने 'होय्सल' राजवंशकी स्थापना की थी । राजा, विष्णुवर्द्धन तक सब ही होय्सल नरेश जैनधर्मानुयायी रहे और उनके धर्मगुरू एवं राजगुरु होनेका सौभाग्य भी जैनाचार्यों को प्राप्त रहा । विष्णुवर्द्धनके सेनापतियोंमें दण्डाधिप 'अमृत' शूद्र थे। गंगर ज श्रादि सेनापति जैन ही थे । जैनाचारकी मान्यता प्रत्येक वर्ग और जाति में थी । जैन मंदिरोंकी दान परिपाटीको चलाने के लिए दातारोंने प्रत्येक मंदिरको दो-चार गावोंकी श्रामदनी दे रक्खी थी, जिसका उपभोग उस मंदिर के प्राचार्य करते थे । वैष्णवाचार्य श्री रामानुजने द्वारसमुद्र में प्रवेश किया और अपनी विद्यासे विवर्द्धनको प्रभावित किया । विष्णुभूप वैष्णव धर्मभक्त हो गये और बेलूर में उन्होंने नयनाभिरामकेशव मंदिर बनवाया । अपने धर्मको जनप्रिय बनाने के लिए रामानुजने भी अहिंसाको अपनाया और वैष्णव मठों में जैन मंदिरोंकी भांति चारों प्रकारके दान देनेकी व्यवस्था की । जैन प्रणालीको अपनाकर ही वह वैष्णव मतको फैलाने में सफल हुए । यद्यपि सम्राट् विष्णुवर्द्धन वैष्णव हो गये; फिर भी वह चोल और काकतीय नरेशोंके समान जैनोंको कष्ट नहीं पहुंचा सके । प्रत्युत जैनधर्मके प्रति उनकी नीति उदार रही। उन्होंने जैन मंदिरोंको भी दान दिये और जैन उत्सवों में भाग लिया । सम्राट्की इस नीतिका कारण सम्राज्ञी सान्तल देवी और सेनापति ३०१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ गङ्गराज थे । सम्राज्ञी और प्रधान सेनापति जीवनके अन्ततक जिनेन्द्रभक्त थे । इनके बाद जैन मुद्रांकित वैष्णव सम्प्रदाय ही बढ़ता गया । विजयनगर काल विजयनगर साम्राज्यने विदेशी यवनों ( मुसलमानों ) से मोर्चा लेनेके लिए साम्प्रदायिक संघर्षका अन्त किया । जैन, शैव और वैष्णव-सबही कंधासे कंधा लगाकर विदेशियोंके आक्रमणको व्यर्थ करनेके लिए टूट पड़े । इस ऐक्यने वैदिक राज्यकी जड़ एक शतीके लिए और मजबूत बना दी । वैष्णव जोरदार थे । एकदफा वह जैनियोंसे उलझ गये। सम्राट बुक्करायने समझौता कराया। वैष्णवोंको जैनोंका सम्मान करनेके लिए वाध्य किया । यद्यपि विजयनगर साम्राज्यमें धर्म स्वातन्त्र्य था; तो भी जैनेतर धर्मोको अधिक सुविधा थी। सोलहवीं शतीमें पुनः जैन शासनको उन्नत होता हुआ पाते हैं । श्री विद्यानन्द आचार्य एक महावादी रूपमें प्रगट हुए थे। उन्होंने राजदरबारोंमें जाकर परवादियोंसे शास्त्रार्थ किये और उन्हे निग्रह स्थानको पहुंचाया। श्रीरंगपट्टम् के राजदरबार में श्री विद्यानन्दजीने ईसाई पादरियोंसे वाद किया और विजय पायी । फलतः वह राजवंश जैनी हो गया। ऐसे ही उन्होंने कई राजवंशोंको जैनधर्म में दीक्षित किया था। किन्तु लिंगायत और वैष्णवोंके अाक्रमणोंको जैन सहन नहीं कर सके। अनेक राजवंश जैनधर्म विमुख अथवा राजच्युत कर दिये गये । उधर मुसलमानोंके अाक्रमणोंने जैनोंके संगठनको छिन्न भिन्न कर दिया । इसका परिणाम जैनोंका ह्रास हुआ। दक्षिण में मुसलमानोंके पैर जम जाने पर जैनोंने मुसलमान शासकोंको भी प्रभावित किया । सुल्तान हैदरअलीसे भी उन्होंने श्रवणबेलगोलके लिए पुराने गांव प्राप्त किथे थे२ । उत्तरभारत-- उत्तर भारतमें जैनधर्मको स्थिति विचित्र रही है। ग्रामीण जनतामें भी जैनधर्मकी श्रद्धा गुप्तकाल तक गहरी थी। जैन मन्दिर भारतियोंके लिए शिक्षा और संस्कृतिक केन्द्र थे। सम्राट हर्षने जिस समय प्रयागमें विद्वत्सम्मेलन बुलाया था तो उसमें भाग लेनेके लिए कई सौ जैन विद्वान भी पहुंचे थे। गुप्तराजवंशके कई सम्राट भी जैनधर्मसे प्रभावित थे। चीनी यांत्री फाह्यान् और हुएनसांगके यात्रा वर्णनसे स्पष्ट है कि मध्यभारतमें जैनधर्मकी अहिंसाका काफी प्रभाव था। बंगाल, बिहार और उड़ीसा में एकमात्र दिगम्बर जैनधर्म ही काफी समय तक था। गुप्तवंशके राजपुरुषोंमें श्री हरिगुप्त एवं १. राइस कृत मैसूरएण्ड कुर्ग, पृ० २०९ । २. स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म, भा० २ पृ० १३२ । ३. संक्षिप्त जैन इतिहास, भा० २ खंड २ पृ० १०९ । ३०२ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्द्धद्विसहस्राब्दिक - वीर शासन देवगुप्तके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने श्वेताम्बर जैनाचार्य से साधुपदकी दीक्षा ली थी । गुप्तसम्राटोंके सेनापति भी जैन थे । भेलसाके निकट उदयगिरिमें गुप्त सेनापतिने जैन गुफामंदिर बनवाकर बड़ा उत्सव किया था | जैनधर्म के साथ ही जैनकलाकी भी पर्याप्त उन्नति हुई थी । गुप्तकालीन जैनकला के नमूने सारे उत्तर भारतमें फैले पड़े हैं। गुप्तकालमें ही देवगढ़ के अधिकांश दिव्य मंदिरों और मूर्तियोंका निर्माण हुआ था । पु बङ्गाल और कलिंग में भी इस समय तक दिगम्बर जैनधर्मका प्रचार था । पहाड़पुर में प्रसिद्ध निर्ग्रन्थ ( दि० जैन ) संघ विद्यमान था । उसके अध्यक्ष आचार्य गुहनन्दि संभवतः नन्दिसंघ के गुरू थे । उस सयय पु ंड्रवर्धन नगर में ( ४७८ ई० ) ब्राह्मणनाथशर्मा और उसकी भार्या रामी रहते थे । वर्द्धन युक्त ( जिलाधीश ) और नगर सभा ( City Council ) अध्यक्ष ( नगर श्रेष्ठी ) के पास पहुंचे और तब प्रचलित रीतिके अनुसार उन्होंने कुछ भूमि प्राप्त करनेके लिए तीन दीनार राजकोष में जमा करा दिये । उस भूमिको इस प्रकार मोल लेकर उन्होंने वटजोहालिके जैन विहार में, जिसके अध्यक्ष आचार्य गुहनन्दि थे, एक विश्रामगृह बनाने के लिए एवं जिनपूजा के लिए चन्दन, धूप, गंध, दीप, पुष्प, आदि चढ़ानेके लिए भेंट कर दी । उस समय ब्राह्मणादि चारों ही वर्णों के लोग थे । कलिङ्गमें तो जैनधर्म राष्ट्रधर्म बना हुआ था । कलिंग नृप गुहशिव दिगम्बर जैनधर्मका श्रमुयायी था । उसीके समय से कलिंगमें जैनधर्मके विरुद्ध षड्यन्त्र होने लगा था । फलतः कुछ जैनी कलिंग छोड़कर पटनामें जा रहे थे४ । कामरूपके दक्षिण में समतट और पूर्वीय बंगाल में भी दि० जैन असंख्य थे । कुमारीपर्वत ( खंडगिरि उदयगिरि) पर बारहवीं शती तक के जैन लेख मिलते हैं और बंगाल-बिहार में इससे भी बादकी निर्मित हुई जिनमूर्तियां यत्र तत्र बिखरी हुई मिलती हैं, जो इस बात की साक्षी है कि मुसलमानों के श्रागमन-समय तक वहां जैनधर्म प्रचलित था। जिनके वंशधर सराकों (श्रावकों ) की अब भी बड़ी संख्या है। मध्यभारत में हैहय और कलचूरि वंशके राजा भी जैनधर्म से प्रभावित थे । राजपूताना, गुजरात और कर्णाटक शासनाधिकारी चालुक्य, राष्ट्रकूट (राठौर), सोलंकी आदि राजवंश भी जैनधर्मके संरक्षक थे । उनमें से कई राजाओंोंने जैनाचारका पालन भी किया था । सम्राट् कुमारपालने अपने शौर्य और दानका सिक्का चारों दिशाओं में जमा रखा था। इन राजाओं के अधिकांश राजकर्मचारी जैन ही थे । सिंध प्रान्तमें भी जैन श्रमण अपने मतका प्रचार कर रहे थे । मुसलमानों को पहले पहले श्रमणोपासक शासकोंसे ही मोर्चा लेना पड़ा था मुसलमानों के पैर भारत में मुहम्मद गोरीके आक्रमणके १. जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया, पृ० २१० २१३ । २. इण्डियन हिस्टोरीकल क्वार्टरली, भा२ ७ पृ० ४४१ व बृहत्कथाकोष (सिंधी ग्र ं० ), भूमिका । ३. वी० सी० लॉ वॉल्यूम, ( पूना १९४६), भा० २ पृ० २५२-२५३ । ४. दाठावंसो अ० २ तथा दिगम्बरत्व और दि० मुनि, पृ १२५ । ३०३ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ बाद ही जमे थे । इस समय तक दोनों ही जैन सम्प्रदायोंमें नाना गच्छ और संघ हो गये थे । श्रमण लोग मठों और उपाश्रयोंमें रहने लगे थे। जैन जनता में ब्राह्मणोंकी रूढ़िवादता घर कर गयी थी। फलतः जैनियोंने भी मुसलमानोंको अपने धर्म में दीक्षित करना बन्द कर दिया। उन्हें अपने धर्मायतनों और साधर्मियोंकी रक्षा करनेकी ही फिक्र थी। इसलिए मसलमानोंको 'म्लेच्छ' कहकर उनके सम्पर्कमें हिन्दुओं को नहीं आने दिया गया । किन्तु ज्योंही मुसलमान यहांके शासनाधिकारी हुए और शान्ति स्थापित हुई, त्योंही जैनाचार्यों और साधुओंने उनपर अपना प्रभाव डालनेका प्रयत्न किया। मुसलिम युग सुल्तान मुहम्मद गोरीके सम्बन्धमें कहा जाता है कि उन्होंने अपनी बेगमके आग्रहसे एक दिगम्बर जैन साधुको बुलाकर अपने दरबारमें सम्मानित किया था। कर्णाटक देशसे श्री महासेन श्राचार्य बुलाये गये थे जिन्होंने अलाउद्दीनके दरबारमें परवादियोंका मद चूर करके जैननधर्मका सिक्का जमाया था । दिल्लीके सेठ पूर्णचन्द्र सुलतान अलाउद्दीनके कृपापात्रोंमें थे। वह दिल्लीसे एक जैनसंघ श्री गिरिनार तीर्थकी वन्दनाको ले जानेमें समर्थ हुये थे । गुजरात विजयके समय सुलतानका समागम दि. जैन साधु श्रुतवीर स्वामीसे हुआ था । उन्होंने श्वेताम्बर जैन आचार्य रामचन्द्र सूरिका भी सम्मान किया था" । गुजरातके शासक अलपखांके द्वारा श्रोसवाल जैनी समरसिंह सम्मानित हुये थे । इस समय वैयक्तिक प्रभावों द्वारा ही जैनधर्मको प्रतिष्ठा थी । जैनियोंकी संख्या करोड़ोंमें थी वे अपने ज्ञान, सदाचार और सम्पत्तिके कारण सर्वत्र सम्माननीय थे । गयासुद्दीन तुगलकके मन्त्री होनेका गौरव प्राग्ग्राट कुलके दो जैनी भाइयों सूर और वीरको प्राप्त था। बादशाह मुहम्मद तुगलकको कर्णाटक देशके दिगम्बर जैनाचार्य सिंहकीर्तिने प्रभावित किया था । तुगलक वंशके सम्राट् फीरोजशाहने भी एक दिगम्बर जैन आचार्यको निमंत्रित किया था। यह प्राचार्य एक खंडवस्त्र धारण करके राजमहलमें भी गये थे और बेगमको धर्मोपदेश दिया था। राजमहलसे वापस श्राकर उन्होंने वस्त्र उतार दिया था और १. इंडियन ऐंटीक्वायरी, भा० २१ पृ० ३६१ । २. जेनसिद्धान्त भास्कर भा० १ कि० ४ पृ० १०९ व भा० ५ पृ० १३८ । ३. जनहितैषी, भा० १५ पृ० १३२ । ४. जैन सिद्धान्त भास्कर, भा० ३ पृ ३५ व भा०५ पृ४ १३९ । 4. Der Jainisms, p. 66. ६. पुरात्तव ( अहमदाबाद ) पुरतक ४ अंक ३-४ पृ० २७७-२७९ । ७. कर्णाटक हिस्टोरीकल रिव्यू, भा० ४ पृष्ठ ८६ फुटनोंट । ८, कर्णाटक हिस्टो० रिब्यू०, भा० पृय ८५ । ३०४ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साईद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन प्रायश्चित लिया था । दि. जैन गुरु विशालकीर्ति भी दिल्ली आये थे और यवन दरबारमें जैन ध्वजको ऊंचा किया था ।२ मार्कोपोलो, ट्रावरनियर, बरनियर, आदि विदेशी यात्रियोंने भारतमें दिगम्बर साधुओंको धर्म प्रचार करते हुए पाया था । उत्त कालीन मुसलिम राज्यकालमें मुगल-सम्राटोंका शासनकाल विशेष प्रख्यात् रहा है। मुगल शासकोंको भी जैनाचार्योंने प्रभावित किया था, जिसके कारण जैनोंको अपने धर्मको पालनेकी पूर्ण सुविधा मिली थी। सम्राट अकबरके दरबारी और राजकर्मचारी होनेका गौरव सरदार कर्मसिंह, साहुटोडर. राजा भारामल्ल आदि जैन महानुभावोंको प्राप्त था ! हरिविजयसूरि, विजयसेन, जिनचन्द्र, भानुचन्द्र प्रभृति श्वेताम्बर जैनाचार्योंने अकबर और जहांगीरको जैनधर्मकी शिक्षा दी थी । ईसाई पादरी पिनहेरो ( Pinheiro ) ने तो यहां तक लिखा कि अकबर जैनियोंके नियमोंको पालते थे६-मानो वह जैनी हो गये थे । अहिंसाधर्मको प्रकाश में आनेका अवसर एक बार फिर अकबरके शासनमें प्राप्त हुआ था। अपने धर्मका प्रचार करने की प्रत्येक धर्मावलम्बीको स्वाधीनता पुनः प्राप्त हुई थी। वे मुसलमानोंकी शुद्धि भी कर सके थे । राजनियमानुसार हिन्दू भी एक मुसलमान कन्यासे व्याह कर सकता था, बशर्ते कि वह हिन्दू होनेके लिए तैयार हो। बलात् धर्मपरिवर्तन निषिद्ध था। जहांगीरके शासनकालमें रजौरी नामक स्थानके हिन्दुओंने अनेक मुसलमान कन्याओंको हिन्दू बनाकर व्याहा था। सम्राटको यह सामूहिक धर्म परिवर्तन असह्य हुआ और उन्होंने इसपर कानूनी बन्दिश लगा दी । जैनियोंमें भी सामाजिक संकीर्णता आगयी थी इसलिए वह भी इस दिशामें आगे नहीं बढ़ सके । किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि अकबरके शासनकालमें जैनियोंकी संख्या कई करोड थी१० । कविवर बनारसीदासजी शाहजहांके कृपापात्र थे । सम्राट औरंगजेबने दिगम्बर जैनाचार्यका सम्मान किया था। भट्टारक प्रथाका जन्म फीरोजशाहके समयमें दिगम्बर जैन श्राचार्यने धर्म प्रभावनाके लिए वस्त्रधारण किया था, उसका १. भट्टारकमीमांसा ( सूरत ) पृ० २ । २. कर्णाटक हिस्टा० रिव्यू , भा० ४ पृष ७८-८२ । ३. दिगम्बरत्व और दिगम्बरमुनि, पृष्ट २४६-२६० । ४. जैन सिद्धांतभास्कर, भा० ५ पृष्ट १४१-१४१ । ५. 'सूरीश्वर और सम्राट' नामक पुस्तक । ६. He follows The sect fo vrai (Jain). Pinheiro. ७. पुरातत्त्व (अहमदावाद ) पुस्तक ५ अंक ४ पृष्ट २४-२३ । ८. इण्डियन कलचर भाग ४ अंक ३ पृष्ट ३०४ । ९. इंडियन कलचर, मा० ४ अंक ३ पृष्ट ३०६-३०८ । १०. आईन-इ,अकबरी (लखनऊ) भा३ पृष्ट ८७-८८३ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ परिणाम भयंकर हुआ । दि० जैनाचार्य मठों और मन्दिरोंमें तो पहलेसे ही रहने लगे थे मन्दिरों को जागीरें लगी हुई थीं। वह दिगम्बरी दीक्षा लेते थे, केशलोंच करते थे, और वस्त्र ग्रहण कर लेते थे । श्राहारके समय नग्न हो जाते थे । अोसवाल, खंडेलवाल, श्रादि भट्टारकों द्वारा जैनधर्म में दीक्षित की हुई जातियां हैं। इन भट्टारक लोगोंने एक धर्म-शासन व्यवस्था बना ली थी प्रत्येकका शासनक्षेत्र मण्डल कहलाता था। उस मण्डलके जैनियों धर्म-शासनाधिकारी भट्टारक 'मंडलाचार्य, कहा जाता था । मंडलाचार्यकी आज्ञानुसार ही विवाह, आदि सामाजिक कार्य होते थे, जिनके लिए वे भट्टारक श्रावकोंसे कर वसूल करते थे। प्रत्येक श्रावक अपनेको किसी न किसी भट्टारकके 'अन्वय' से सम्बन्धित बताता था । इस प्रथासे यह लाभ तो अवश्य हुअा कि प्रत्येक मंडलके जैनी सुसंगठित और धर्मरत रहे । बाहरके अाक्रमणका भय उनको नहीं रहा । भट्टारक म० उनको येनकेन प्रकारेण धर्ममें दृढ़ रखते थे । किन्तु सबसे महान् क्षति यह हुई कि जैन संघ लुप्त हो गया । उपजातियोंकी सृष्टिके कारण-- १. गुरू-परम्परा-प्रत्येक मंडलके गुरू (भट्टारक) अलग थे। इसलिए इस अाधारसे कोई कोई उपजाति अस्तित्वमें आयी । भट्टारकोंने उनं भक्तोंमें अनेक गुणोंका विधान करके उनका नामकरण किया । जैसे पंचम, चतुर्थ जातियां' । २. श्राजी वका के आधारसे भी उपजातियां बन गयीं, क्योंकि उस जातिमें वही आजीविका प्रचलित थी; जैसे कासार, सेतवाल जातियां । ३. श्रावास क्षेत्रकी अपेक्षासे अधिकांश जातियां अस्तित्वमें आयीं। अर्थात् जिस देश अथवा जिस ग्राममें उनके पूर्वजोंका आवास था, उसकी अपेक्षा उनका नामकरण हुआ; जैसे गोल्लदेशके गोलालारे, लम्बकांचन देशके लम्बकंचुक; खंडेला नगरके खंडेलवाल, श्रोसियाके अोसवाल; श्रीमालके श्रीमाली, इत्यादि । ४. प्राचीन कुलों और गुणों के वंशज होनेकी अपेक्षासे भी कुछ उपजातियां अस्तित्वमें अायी हैं। कौटिल्यने गणतंत्रोंको 'वार्ताशस्त्रोपजीवी' लिखा है । अर्थात् वे वार्ता (कृषि, पशुपालन या वणिज ) और अस्त्र ( सैनिक वृत्ति ) से अपनी आजीविका अर्जित करते थे। उदाहरणार्थ अग्रेय गणतंत्र के वार्ता-उपजीवी वंशज आजकलके अग्रवाल हैं । कुछ लोगोंका ख्याल है कि खंडेलवाल आदि उपजातियां अनादि हैं, परंतु वस्तुतः बात ऐसी नहीं है । शास्त्रोंमें इनका उल्लेख नहीं मिलता। सिद्धान्त द्वारा अनादिता सिद्ध नहीं होती। अनादि .................... .. .. १. मूर्ति और यंत्रलेखों में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। २. कुंडनगर कृत ऐटीक्वटीज़ ऑफ कोल्हापुर स्टेट । एक शिलालेखमें पंचम जातिके श्रावकोंको पंचव्रतादि संयुक्त होनेकारण पंचम लिखा है। २. कासार वर्तन बनानेका काम करते हैं ( बम्बईके प्राचीन जैनस्मारक ) Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्द्धं द्विसहस्राब्दिक वीर शासन तो मानव जाति है । उस एक मानव जातिको टुकड़ों में बांटने का काम तो मानवका है। ऋषभदेवने समष्टिका ध्यान रखकर मानवोंके वर्ग किये किन्तु मुस्लिम कालमें ( १३ वीं, १४वीं शती में ) मानवके व्यक्तिगत स्वार्थने उसको छोटी छोटी उपजातियोंमें बांट दिया । तदुपरान्त उनमें जड़ता श्रा गयी और अपनी ही उपजातिमें विवाह करनेके लिए लोग बाध्य हुए । भट्टारकगण शिथिलाचारमें फंस गये; उन्होंने श्राद्ध, तर्पण, आदि वैदिक क्रियायोंको जैनियोंमें प्रचलित किया और ब्राह्मण-पुरोहितोंकी तरह ही श्रावकोंसे खूब रुपया वसूल किया। श्री टोडरमल्ल दिने भट्टारकीय शिथिलताका भंडाफोड़ किया और शास्त्रोंकी भाषाटीका करके धर्मज्ञानका प्रचार सर्व साधारण में किया । फलतः जैनी अपने विवेक से काम लेने के योग्य बन सके । इस समय सुधारकी एक जबरदस्त लहर भारतमें आयी । प्रत्येक सम्प्रदायमें जड़ मूर्तिपूजा और जाति-पांतकी कट्टरताका विरोध किया गया। नये-नये सम्प्रदाय बने, तारणपंथ और स्थानकवासी पंथ मूर्तिपूजा का अंत और सामाजिक उदारताको लेकर अवतरित हुए । मध्यवर्ती सुधारकोंने मूर्तिपूजाके समर्थन में युक्ति और विवेक से काम लिया। दीवान श्रमरचंद और मुनि ब्रह्मगुलालकी कृतियां यही बताती हैं। जयपुर, आगरा, आदि स्थान सुधारकोंके केन्द्र थे । इन सुधारकोंने अंधविश्वास और धर्ममूढ़ता को जैनों में पनपने नहीं दिया। भट्टारकीय- प्रथाको गहरा धक्का लगा, जिससे वह मरणासन्न हो गयी । किन्तु ये सब संगठित संस्थाके रूपमें नहीं थे। इसलिए धीरे धीरे जैसे जैसे पंडित- गृहस्थों का अभाव होता गया और पंचायतों में पक्षपात और विवेक घुसता गया वैसे वैसे यह दोनों ही निष्प्रभ हो गये । श्राज पंचायतें हैं ही नहीं और हैं भी तो शक्तिहीन । इस कालमें पुरोहितोंने जैनोंके प्रति घोर विष उगला । क्योंकि जैनी ब्राह्मण-पुरोहितोंको अपने मांगलिक कार्यों में नहीं बुलाते थे और न दान-दक्षिणा देते थे, वे दयनीय स्थितिमें थे । प्रान्त प्रान्त जैनों का यदि अध्ययन किया जाय तो प्रायः इसी तरह की स्थिति दीख पड़ेगी । मुस्लिम कालके प्रारंभ में जहां जैनी इतने उदार थे कि एक वेश्या तक को श्राविका बना सकते थे, वहां इस कालमें वह इतने संकुचित हुए कि सन्मार्ग से उन्मुख हुए अपने जैनी भाई या बहनको भी संभालकर घर में न ला सके। उनमें जातिगत पारस्परिक स्पृद्धा भी हो चली थी; जिसने जातिवाचक जैन मंदिरोंको जन्म दिया । मन्दिर और भगवान् भी अग्रवाल, खंडेलवाल, पद्मावतीपुरवाल, आदि हो गये । इस मिथ्या धारणाका जहर अभी तक जैनों में से गया नहीं है । इस दयनीय स्थिति से विधर्मी प्रचारकों ने मनमाना लाभ उठाया । अनेक जैनी ईसाई बनाये गये तो बहुत-से मुसलमान हो गये । आधानिक युग जैन ही नहीं, जैनेतर वैदिक सम्प्रदायों पर भी ऐसे ही आक्रमण हो रहे थे पर किसी में ३०७ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिक्रिया नहीं थी । इस विषम समयमें स्वामी दयानन्द आगे आये । वह गुजरातमें रहते थे और स्थानकवासी जैन साधुअोंका प्रभाव उन पर पड़ा था । उन्होंने सभी सम्प्रदायों पर बुरी तरह अाक्रमण किया। सब लोग तिलमिला उठे, सबको अपना घर सम्हालनेका होश आया । जैनियोंने यद्यपि दयानंदजीसे सफल मोर्चा लिया; परन्तु उतना पर्याप्त नहीं था । जैनियों में धर्मज्ञान फैलानेकी आवश्यकता प्रतीत हुई । जैनोंमें दिग्गज विद्वान् भी तैयार करना आवश्यक प्रतीत हुआ । फलतः मथुराके वार्षिक मेलापर श्री “जैनधर्म संरक्षिणी महासभा की स्थापना दिगम्बर जैनियोंने की । सब ही दिगम्बर जैन उसके सदस्य हो सकते थे । "जैनसंघ' की पुनरावृत्ति करना ही मानो उसके संस्थापकोंका ध्येय था । उपजातियोंको भुलाकर सब ही जैनी उसमें सम्मिलित हुए और उन्होंने भ्रातृभावका अनुभव किया । उस समय जैनोंमें इतनी कट्टरता थी कि सब जैनी खुले आम सबके यहां 'रोटी' भी नहीं खा सकते थे। श्रावकाचार दोनों पालते थे; परंतु उप जातिका अभिमान उसमें वाधक था । महासभामें सम्मिलित होनेसे जैनियों की यह कट्टरता मिट गयी सब ही जैनी एक दूसरे के सम्पर्क में आये और वात्सल्य भावको प्राप्त हुए । महासभाने "जैन महाविद्यालय" की भो स्थापना की, जिसका उद्देश्य उच्चकोटिके संस्कृतज्ञ विद्वान् उत्पन्न करना था । समाज सुधारके लिए महासभाने बाल वृद्ध-विवाह, वेश्यानृत्य, बखेर, आतिशबाजी, आदि कुरीतियोंके विरुद्ध आवाज उठायी थी। कुछ अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगोंके हृदयोंमें संगठनके भावका उदय अवश्य हुश्रा और उन्होंने "जैन यंग मेनस ऐसोसियेशन" को जन्म दिया। वही "श्राल इंडिया जैन एसोसियेशन" ( “भारत जैन महामंडल" ) के रूपमें परिवर्तित हो गया है; किन्तु वह भी जैनसंघको पुनः संगठित बनानेमें असफल रहा। इसके बाद दो दल हो गये। एक दल स्थितिपालनको ही पर्याप्त समझता था और दूसरा निरन्तर सुधार करना चाहता था। महासभाके महाविद्यालयको कोलिज बनानेपर संघर्ष प्रारम्भ हुश्रा । उपरान्त वह संघर्ष धर्म ग्रन्थ छपाने, कोलिज-स्कूल खोलने, दस्साअोंको पूजा करने देने, अादि बातोंको लेकर बढ़ता ही गया। समाजमें जागृतिकी लहर दौड़ गयी विद्यालय और पाठशालाएं खोली गयीं । श्राविकाश्रम भी खोले गये। इस कालमें जैन शिक्षाको विशेष प्रोत्साहन पूज्य पं० स्व० गोपालदासजी वरैया द्वारा मिला। उन्होंने दस्साओंको पूजा करने देनेका पक्ष लिया था । खतौलीके मुकद्दमे में दस्साओंकी तरफसे गवाही भी दी । (१) अजैनोंको जैनी बनाने और उनसे रोटी बेटी व्यवहार करने, (२) चारित्रभ्रष्टोंकी शुद्धि करने, (३) दस्साओंको दर्शन पूजन करने देने, (४) अन्तरजातीय विवाह करने और (५) पुरुष-स्त्रीको समान रूपमें धर्म शिक्षा देनेपर वरैयाजीने जोर दिया था। इन उपायों द्वारा ही पुनः एक अखंड जैन-संघका जन्म संभव था। दिल्लीके पूजा-महोत्सवके 1. Modern Religious Movement in India ( Calcutta ) P 104. ३०८ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साद्विसहस्राब्दिक-वीर-शासन समय उत्साही युवकों और नेताओंने "श्र० भारतीय दिगम्बर जैन परिषद'' की स्थापना की। १९२३ में परिषदका जन्म हुश्रा और तबसे वह कतिपय उन्हीं सुधारोंका प्रचार करनेका प्रयत्न कर रहा है, जिनका प्रतिपादन पंडित-प्रवर स्व० गोपालदासजी वरैयाने सबसे पहले किया था। महासभाकी सुसुप्ति तथा परिषद्के अाधुनिक जोशको देख कर ही दि० जैनोंमें 'भा० दि० जैनसंघ' का उदय हुआ । प्रारंभमें संघ द्वारा विधर्मियोंसे सफल शास्त्रार्थ किये गये। जिनसे काफी धर्म प्रभावना हुई । अब कुछ वर्षों से समयके साथ संघने अपनी नीति बदल दी है। अब उसके द्वारा समाजमें सर्वदा एवं विशेष उत्सवों पर धर्मोपदेशक भेजकर प्रचार कार्य होता है । जैनधर्मके कुछ ग्रन्थ भी संघने प्रकाशन किये हैं । किन्तु इतनेसे लुप्त दि० जैनसंघको पुनः अस्तित्वमें नहीं लाया जा सकता। पुरुषों के साथ महिलाओंमें श्राविकाश्रमों द्वारा जो जागृति हुई, उसका श्रेय स्व० श्री मगनबाईजी, श्री कंकुबाईजी और श्री ललिता बाईजीके साथ विदुषीरत्न पं० चन्दाबाईजीको भी प्राप्त है । उनके उद्योगसे ही 'भा० दि• जैन महिला परिषद' का जन्म हुअा; जिसके द्वारा जैनमहिलाओं में कुछ जागृति फैलायी जा रही है । महिलोद्धारके लिए भी बहुत कुछ करना शेष है। सांस्कृतिक उद्धार और इतिहासान्वेषणके लिए जैनियोंने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है। एकमात्र पत्र 'जैनसिद्धान्तभास्कर' श्रारासे प्रगट हो रहा है। यद्यपि ग्रन्थोद्धारके लिए 'श्री माणिकचंद्र ग्रन्थमाला', 'श्री लक्ष्मीचंद्र ग्रन्थमाला', 'श्री चवरेसीरीज', प्रभृति अनेक संस्थाएं कार्य कर रही हैं; किन्तु प्रकाशनके साथ उनके द्वारा जनसाहित्यके लोकव्यापी प्रसारका उद्योग नहीं हो रहा है । श्वेताम्बर समाज लोकमें अपने साहित्यका प्रसार करनेमें अग्रसर है । श्वेताम्बरीय संस्थात्रों 'सिंधी जैन ग्रन्थ-माला' आदि का रूप सार्वजनिक है । काशीकी भारतीय ज्ञानपीठने अपना दृष्टिकोण उक्त संस्था परसे विशाल तो बनाया है; परन्तु अभी तक उसके द्वारा कोई ठोस कार्य नहीं हुआ है। लोकमें अहिंसा-संस्कृतिका प्रसार करनेके लिए जैनियोंको मिलकर कोई कदम उठाना चाहिये । अन्यथा जैन युवक ही जैनत्वसे बहक रहे हैं। श्वेताम्वर और स्थानकवासी जैनसमाजोंमें भी अपनी अपनी सभाएं सामाजिक व्यवस्थाके लिए हैं । किन्तु उनके समाजका नेतृत्त्व उनके प्राचार्यों और साधुओंके हाथमें है। साधुसंघमें यद्यपि जाति-पांतिका ध्यान नहीं रक्खा जाता है, प्रत्येक जातिका मुमुक्षु साधु हो जाता है; परन्तु श्रावक-संघ तो दि जैनोंकी भांति श्वेताम्बरोंमें भी बंटा हुश्रा है और जैनसंघकी एकताको मिटाये हुए हैं । इस प्रकार गत ढाई हजार वर्षों की यह रूप रेखा इस कल्पके अवसर्पिणीत्वको ही सिद्ध करती है। ३०६ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्यके विकासमें जैन विद्वानोंका सहयोग श्री डा० मंगलदेव, शास्त्री, एम, ए०, पीएच० डी० ___ भारतीय विचारधाराकी समुन्नति और विकासमें अन्य प्राचार्यों के समान जैन श्राचार्यों तथा ग्रन्थकारोंका जो बड़ा हाथ रहा है उससे अाजकलकी विद्वन्मण्डली साधारणतया परिचित नहीं है । इस लेखका उद्देश्य यही है कि उक्त विचारधाराकी समृद्धि में जो जैन विद्वानोंने सहयोग दिया है उसका कुछ दिग्दर्शन कराया जाय । जैन विद्वानोंने प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी, तेलगु, तामिल, आदि भाषाओंके साहित्यकी तरह संस्कृत भाषाके साहित्यकी समृद्धि में बड़ा भाग लिया है । सिद्धान्त, श्रागम, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, चम्पू, स्तोतिष, आयुर्वेद, कोष, अलङ्कार, छन्द, गणित, राजनीति, सुभाषित आदिके क्षेत्रमें जैन लेखकोंकी मूल्यवान संस्कृत रचनाएं उपलब्ध हैं । इस प्रकार खोज करने पर जैन संस्कृत साहित्य विशाल रूपमें हमारे सामने उपस्थित होता है । उस विशाल साहित्यका पूर्ण परिचय कराना इस अल्पकाय लेखमें सम्भव नहीं है । यहां हम केवल उन जैन रचनात्रों को सूचना देना चाहते हैं जो महत्त्वपूर्ण हैं । जैन सैद्धान्तिक तथा प्रारम्भिक ग्रन्थोंकी चर्चा हम जान बूझकर छोड़ रहे हैं । जैनन्याय जैन न्यायके मौलिक तत्त्वोंको सरल और सुबोध रीतिसे प्रतिपादन करने वाले मुख्यतया दो ग्रन्थ हैं । प्रथम, अभिनव धर्मभूषणयति-विरचित न्यायदीपिका, दूसरा माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख' न्यायदीपिकामें प्रमाण और नयका बहुत ही स्पष्ट और व्यवस्थित विवेचन किया गया है । यह एक प्रकरणात्मक संक्षिप्त रचना है जो तीन प्रकाशोंमें समाप्त हुई है। गौतमके 'न्यायसूत्र' और दिङ्नागके 'न्यायप्रवेश' की तरह माणिक्यनन्दिका 'परीक्षामुख' जैनन्यायका सर्व प्रथम सूत्रग्रन्थ है। यह छह परिच्छेदोंमें विभक्त है और समस्त सूत्र संख्या २०७ है । यह नवमी शतीकी रचना है और इतनी महत्वपूर्ण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोंने इस पर अनेक इस लेखकी प्रायः समग्र सामग्री पं० राजकुमारजी साहित्याचार्य द्वारा प्राप्त हुई है। इसके लिए उनको धन्यवाद है। ३१० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्यके विकासमें जैनविद्वानका सहयोग विशाल टीकाएं लिखी हैं । श्राचार्य प्रभाचन्द्र [७८० -१०६५ ई.] ने इस पर बारह हजार श्लोक परिमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामक विस्तृत टीका लिखी है। बारहवीं शतीके लघु अनन्तवीर्यने इसी ग्रन्थ पर एक 'प्रमेय रत्नमाला' नामकी टीका लिखी है। इसकी रचना-शैली इतनी विशद और प्राञ्जल है और इसमें चर्चित किया गया प्रमेय इतने महत्वका है कि प्राचार्य हेमचन्द्रने अनेक स्थलों पर अपनी प्रमाण-मीमांसामें इसका शब्दशः और अर्थशः अनुकरण किया है। लघु अनन्तवीर्यने तो माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखको अकलङ्कके वचनरूपी समुद्रके मन्थनसे उद्भूत 'न्यायविद्यामृत'' बतलाया है। ___ उपयुक्त दो मौलिकग्रन्थोंके अतिरिक्त अन्य प्रमुख न्यायग्रन्थोंका परिचय देना भी यहां अप्रासंगिक न होगा । अनेकान्त वादको व्यवस्थित करनेका सर्व प्रथम श्रेय स्वामी समन्तभद्र, (द्वि० या तृ० शती ई०) और सिद्धसेन दिवाकर (छठी शती ई०) को प्राप्त है स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन महत्वपूर्ण कृतियां हैं । प्राप्तमीमांसामें एकान्त वादियोंके मन्तव्योंकी गम्भीर आलोचना करते हुए प्राप्तकी मीमांसा की गयी है और युक्तियों के साथ स्याद्वाद सिद्धान्त की व्यवस्था की गयी है। इसके ऊपर भट्टाकलङ्क ( ७२०-७८० ई०) का अष्टशती विवरण उपलब्ध है तथा प्राचार्य विद्यानन्दि ( ९ वीं० श० ई० ) का "अष्टसहस्री" नामक विस्तृत भाष्य और वसुनन्दिकी ( देवागमवृत्ति) नामक टीका प्राप्य हैं । युकत्यनुशासनमें जैन शासनकी निर्दोषता सयुक्तिक सिद्ध की गयी है। इसी प्रकार सिद्धसेन दिवाकर द्वारा अपनी स्तुति प्रधान बत्तीसियोंमें और महत्वपूर्ण सन्मतितर्क भाष्य में बहुत ही स्पष्ट रीतिसे तत्कालीन प्रचलित एकान्तवादोंका स्याद्वाद सिद्धान्तके साथ किया गया समन्वय दिखलायी देता है। ___ भट्टाकलङ्कदेव जैनन्यायके प्रस्थापक माने जाते हैं और इनके पश्चाद्भावी समस्त जैन तार्किक इनके द्वारा व्यवस्थित न्याय मार्गका अनुकरण करते हुए हो दृष्टिगोचर होते हैं। इनकी अष्ठशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लधीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह बहुत ही महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाएं हैं । इनकी समस्त रचनाएं जटिल और दुर्बोध हैं । परन्तु वे इतनी गम्भीर हैं कि उनमें 'गागर में सागर' की तरह पदे पदे जैन दार्शनिक तत्त्वज्ञान भरा पड़ा है।' आठवीं शतीके विद्वान आचार्य हरिभद्रकी अनेकान्तजयपताका तथा षट्दर्शनसमुच्चय मूल्यवान और सारपूर्ण कृतियां हैं । ईसाकी नवीं शतीके प्रकाण्ड प्राचार्य विद्यानन्दि के अष्टसहस्त्री, प्राप्तपरीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अादि रचनाओंमें भी एक विशाल किन्तु आलोचना पूर्ण अद्भुत-विचार-राशि। बिखरी हुई दिखलायी देती है। इनकी प्रमाणपरीक्षा नामक रचनामें विभिन्न प्रामाणिक मान्यताओंकी अालोचना की गयी है और अकलङ्क-सम्मत प्रमाणोंका सयुक्तिक समर्थन किया गया है। सुप्रसिद्ध १, अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्दधे येन धीमता । न्याय विद्यामृतं तस्मै नमो 'माणिक्यनन्दिने ।।" 'प्रभेयरत्नमाला' पृ० २. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी - श्रभिनन्दन ग्रन्थ तार्किक प्रभाचन्द्र श्राचार्यने अपने दीर्घकाय प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में जैन प्रमाण शास्त्र से सम्बन्धित समस्त विषयोंकी विस्तृत और व्यवस्थित विवेचना की है । तथा ग्यारवीं शतीके विद्वान् अभ यदेवने सिद्धसेन दिवाकरकृत सन्मतितर्ककी टीकाके व्याजसे समस्त दार्शनिक वादोंका संग्रह किया है । बारहवीं शती विद्वान् वादी देवराजसूरिका स्याद्वादरत्नाकर भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा कलिकाल सर्वज्ञ श्राचार्य हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसा भी जैन न्यायकी एक अनूठी रचना है । उक्त रचनाएं नव्यन्यायकी शैलीसे एक दम स्पृष्ट हैं। हां, विमलदासकी सप्तभंगतरङ्गिणी और वाचक यशोविजयजी द्वारा लिखित अनेकान्तव्यवस्था, शास्त्रवार्तासमुच्चय तथा अष्टसहस्रीकी टीका अवश्य ही नव्यन्यायकी शैली से लिखित प्रतीत होती हैं । व्याकरण पूज्यपाद (वि० छटीं श० ) का 'जैननेन्द्र व्याकरण' सर्व प्रथम जैन व्याकरण ग्रन्थ कमाना जाता है । महाकवि धनञ्जय ( ८ वीं श० ) ने इसे 'पश्चिम रत्न " बतलाया है ? इस ग्रन्थ पुर निम्न लिखित चार टीकाएं उपलब्ध हैं : :– ( १ ) अभयनन्दिकृत महावृत्ति, (२) प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर, (३) श्राचार्य श्रुतकीर्तिकृत पञ्चस्तु प्रक्रिया तथा ( ४ ) पं० महाचन्द्रकृत लघुजैनेन्द्र । इसमें एक भी वार्तिक प्रस्तुत जैनेन्द्रव्याकरणके दो प्रकारके सूत्रपाठ पाये जाते हैं । प्रथम सूत्र - पाठके दर्शन उपरि लिखित चार टीका- ग्रन्थों में होते हैं और दूसरे सूत्रपाठ के शब्दार्णव- चन्द्रिका' तथा शब्दार्णवप्रक्रिया' में । पहले पाठमें ३००० सूत्र हैं । यह सूत्रपाठ पाणिनीयकी सूत्र - पद्धति के समान है । इसे सर्वाङ्ग सम्पन्न बनाने की दृष्टिसे महावृत्तिमें अनेक वार्तिक और उपसंख्यानोंका निवेश किया गया है। दूसरे सूत्र - पाठ में ३७०० सूत्र हैं। पहले सूत्र पाठकी अपेक्षा इसमें ७०० सूत्र अधिक हैं और इसी कारण आदिका उपयोग नहीं हुआ है । इस संशोधित और परिवर्द्धित संस्करणका नाम शाब्दार्णव' है । इसके कर्ता गुणनन्दि (वि० १० श० ) श्राचार्य हैं । शब्दार्णव पर भी दो टीकाएं उपलब्ध हैं : - ( १ ) शब्दार्णव चन्द्रिका और ( २ ) शब्दार्णवप्रक्रिया । शब्दार्णवचन्द्रिका सोमदेव मुनिने वि० सं० १२६२ में लिखकर समाप्त की है और शब्दावप्रक्रियाकार भी बारहवीं शतीके चारूकीर्ति पण्डिताचार्य अनुमानित किये गये हैं । १. " प्रमाणमकलकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनञ्जयको काव्यं रत्नत्रयमपश्चिम ॥" धनन्जय नाममाला, २. जैन साहित्य और इतिहास ( पं० नाथूराम प्रेमी ) का 'देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण' शीर्षक निबन्ध | ३१२ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य के विकास में जैन विद्वानोंका सहयोग महाराज मोघवर्ष ( प्रथम ) के समकालीन शाकटायन या पाल्यकीर्तिका शाकटायन( शब्दानुशासन ) व्याकरण भी महत्वपूर्ण रचना है । प्रस्तुत व्याकरण पर निम्नाङ्कित सात टीकाए उपलब्ध हैं ( १ ) अमोघवृत्ति - शाकटागनके शब्दानुशासन पर स्वयं सूत्रकार द्वारा लिखी गयी यह सर्वाधिक विस्तृत और महत्वपूर्ण टीका है । राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्षको लक्ष्यमें रखते हुए ही इसका उक्त नामकरण किया गया प्रतीत होता है । ( २ ) शाकटायन न्यास - श्रमोधवृत्ति पर प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित यह न्यास है । इसके केवल दो अध्याय ही उपलब्ध हैं । ( ३ ) चिन्तामणि टीका ( लघीयसी वृत्ति ) – इसके रचयिता यक्षवर्मा हैं । और अमोघवृत्तिको संक्षिप्त करके ही इसकी रचना की गयी है । (४) मणि प्रकाशिका - इसके कर्ता जितसेनाचार्य हैं । ( ५ ) प्रक्रिया संग्रह —भट्टोजीदीक्षितकी सिद्धान्तकौमुदीकी पद्धतिपर लिखी गयी यह एक प्रक्रिया टीका है, इसके कर्ता श्रभयचन्द्र आचार्य है | ( ६ ) शाकटायन-टीका—भावसेन ' त्रैविद्यदेवने इसकी रचना की है । यह कातन्त्रको रूपमाला टीका के भी रचयिता हैं । ( ७ ) रूप - सिद्धि - लघुकौमुदीके समान यह एक अल्पकाय टीका है । इसके कर्ता दापाल (वि० ११ वीं श० ) मुनि हैं । आचार्य हेमचन्द्रका सिद्धहेम शब्दानुशासन भी महत्वपूर्ण रचना है । यह इतनी आकर्षक रचना रही है कि इसके आधारपर तैयार किये गये अनेक व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । इनके अतिरिक्त अन्य अनेक जैन व्याकरण ग्रन्थ जैनाचार्योंने लिखे हैं और अनेक जैनेतर व्याकरण ग्रन्थोंपर महत्वपूर्ण टीकाएं भी लिखी हैं। पूज्यपादने पाणिनीय व्याकरणपर 'शब्दावतार' नामक एक न्यास लिखा था जो सम्प्रति अप्राप्य है और जैनाचार्यों द्वारा सारस्वत व्याकरणपर लिखित विभिन्न बीस टीकाएं आज भी उपलब्ध हैं । शर्ववर्मा कातंत्र व्याकरण भी एक सुबोध और संक्षिप्त व्याकरण है तथा इसपर भी विभिन्न चौदह टीकाएं प्राप्य हैं । अलङ्कार अलंकार विषय में भी जैनाचार्योंकी महत्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं । हेमचन्द्र और वाग्भटके काव्यानुशासन तथा वाग्भटका वाग्भटालंकार महत्वकी रचनाएं हैं । जितसेन श्राचार्यकी श्रलंकारचिन्तामणि और अमरचन्द्रकी काव्यकल्पलता बहुत ही सफल रचनाएं हैं । जैनेतर अलंकार शास्त्रों पर भी जैनाचार्यों की कतिपय टीकाएं पायी जाती हैं । काव्यप्रकाशके ऊपर भानुचन्द्रगणि, माणिक्यचन्द्र, जयनन्दिसूरि और यशोविजयगणि ( तपागच्छ ) की टीकाएं १. जिनरत्नकोश ( भ० औ० रि० ६०, पूना ) । ४० ३१३ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इसके सिवा दण्डीके काव्यादर्शपर त्रिभुवनचन्द्रकृत टीका पायी जाती है और रुद्रटके काव्यालंकार पर नेमिसाधु ( ११२५ वि० सं० ) के टिप्पण भी सारपूर्ण हैं । नाटक नाटकीय साहित्य सृजनमें भी जैन साहित्यकारोंने अपनी प्रतिभाका उपयोग किया है । उभयभाषा-कविचक्रवर्ती हस्तिमल्ल ( १३ वीं श० ) के विक्रान्तकौरव ( जयकुमार - सुलोचना ), सुभद्राहरण, मैथिलीकल्याण, और अञ्जनापवनज्जय उल्लेखनीय नाटक हैं । आादिके दो नाटक महाभारतीय कथा के आधार पर रचे गये हैं और उत्तरके दो रामकथा के आधार पर । हेमचन्द्र श्राचार्य के शिष्य रामचन्द्रसूरिके अनेक नाटक उपलब्ध हैं। जिसमें नलविवाह, सत्य हरिश्चन्द्र, कौमुदीमित्रानन्द, राघवाभ्युदय, निर्भयभीमव्यायोग, श्रादि नाटक बहुत ही प्रसिद्ध हैं । श्रीकृष्ण मिश्र के 'प्रबोधचन्द्रोदय' की पद्धति पर रूपकात्मक ( Allegorical ) शैली में लिखा गया यशपाल ( १३ वीं सदी) का मोहराजपराजय एक सुप्रसिद्ध नाटक है। इसी शैलीमें लिखे गये वादिचन्द्रसूरिकृत ज्ञानसूर्योदय तथा यशश्चन्द्रकृत मुदित- कुमुदचन्द्र असाम्प्रदायिक नाटक हैं । इनके अतिरिक्त जयसिंहका हम्मीरमदमर्दन नामक एक ऐतिहासिक नाटक भी उपलब्ध है । काव्य- जैन काव्य - साहित्य भी अपने ढंगका निराला है। काव्य - साहित्य से हमारा श्राशय गद्यकाव्य, महाकाव्य, चरितकाव्य, चम्पूकाव्य, चित्रकाव्य और दूतकाव्योंसे हैं। गद्यकाव्य में धनपालकी तिलकमञ्जरी ( ९७० ई० ) और श्रोयडदेव ( वादीभसिंह ११ वीं सदी ) की गद्यचिन्तामणि महाकवि बाणकृत कादम्बरी के जोड़की रचनाएं हैं। महाकाव्य में हरिचन्द्रका धर्मशर्माभ्युदय, वीरनन्दि का चन्द्रप्रभचरित श्रभयदेवका जयन्तविजय, श्रद्दासका मुनिसुव्रतकाव्य, वादिराजका पार्श्वनाथचरित, वाग्भटका नेमिनिर्वाणकाव्य, मुनिचन्द्रका शान्तिनाथचरित और महासेनका प्रद्युम्नचरित, श्रादि उत्कृष्ट कोटिके महाकाव्य तथा काव्य हैं । चरितकाव्य में जटासिंहनन्दिका वराङ्गचरित, रायमल्लका जम्बूस्वामीचरित, प्रसंग कविका महावीरचरित, आदि उत्तम चरितकाव्य माने जाते हैं । चम्पूकाव्य में श्राचार्य सोमदेवका यशस्तिलकचम्पू ( वि० १०१६ ) बहुत ही ख्यातिप्राप्त रचना है । अनेक विद्वानोंके विचारमें उपलब्ध संस्कृत साहित्य में इसके जोड़का एक भी चम्पूकाव्य नहीं है । हरिश्चन्द्र महाकविका जीवन्धरचम्पू तथा श्रर्हासका पुरुदेव चम्पू ( १३ वीं शती) भी उच्च कोटिकी ३१४ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्यके विकासमें जैन विद्वानोंका सहयोग रचनाएं हैं। चित्रकाव्यमें महाकवि धनञ्जय (८ वीं० श० ) का द्विसन्धान, शान्तिराजका पञ्चसन्धान, हेमचन्द्र तथा मेधविजयगणीके सप्तसन्धान, जगन्नाथ (१६६६ वि० सं० ) का चतुर्विंशति सन्धान तथा जिनसेनाचार्यका पार्वाभ्युदय उत्तमकोटिके चित्रकाव्य हैं। दूतकाव्यमें मेघदूतकी पद्धति पर लिखे गये वादिचन्द्रका पवनदूत, चरितसुन्दरका शीलदूत, विनयप्रभका चन्द्रदूत, विक्रमका नेमिदूत और जयतिलकसू रिका धर्मदूत उल्लेखनीय दूत-काव्य हैं। __इनके अतिरिक्त चन्द्रप्रभसूरिका प्रभावकचरित, मेरुतुङ्गकृत प्रबन्धचिन्तामणि ( १३०६ ई०) राजशेखरका प्रबन्धकोष (१३४२ ई० ) आदि प्रबन्धकाव्य ऐतिहासिक दृष्ठिसे बड़े हो महत्वपूर्ण हैं । छन्दशास्त्र-- छन्दशास्त्र पर भी जैन विद्वानोंकी मूल्यवान रचनाएं उपलब्ध हैं । जयकीर्ति (११६२) का स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन तथा प्राचार्य हेमचन्द्रका स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन महत्वकी रचनाए हैं । जयकीर्तिने अपने छन्दोऽनुशासनके अन्तमें लिखा है कि उन्होंने माण्डव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सैतव, श्रीपूज्यपाद और जयदेव आदिके छन्दशास्त्रोंके अाधारपर अपने छन्दोऽनुशासनकी रचना की है। वाग्भटका छन्दोऽनुशासन भी इसी कोटिकी रचना है और इसपर इनकी स्वोपज्ञ टीका भी है। राजशेखरसूरि (११७९ वि० ) का छन्दःशेखर और रत्नमंजूषा भी उल्लेखनीय रचनाएं हैं । इसके अतिरिक्त जैनेतर छन्दशास्त्रों पर भी जैनाचार्योंकी टीकाएं पायी जाती हैं । केदारभट्टके वृत्तरत्नाकर पर सोमचन्द्रगणी, क्षेमहंसगणी, समयसुन्दर उपाध्याय, आसड और मेरुसुंदर, श्रादिकी टीकाएं उपलब्ध हैं । इसी प्रकार कालिदासके श्रुतबोध पर भी हर्षकीर्ति, हंसराज, और कान्तिविजयगणीकी टीकाएं प्राप्य हैं । संस्कृत भाषाके छन्दःशास्त्रोंके सिवा प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके छन्द शास्त्रोंपर भी जैनाचर्योंकी महत्वपूर्ण टीकाएं उपलब्ध हैं । कोश कोशके क्षेत्रमें भी जैन साहित्यकारोंने अपनी लेखनीका यथेष्ट कौशल प्रदर्शित किया है। अमरसिंहगणीकृत अमरकोष संस्कृतज्ञ समाजमें सर्वोपयोगी और सर्वोत्तम कोष माना जाता है। उसका पठन-पाठन भी अन्य कोषोंकी अपेक्षा सर्वाधिक रूपमें प्रचलित है। धनञ्जयकृत धनञ्जय नाममाला दो सौ श्लोकोंकी अल्पकाय रचना होने पर भी बहुत ही उपयोगी है। प्राथमिक कक्षाके विद्यार्थियों के लिए जैनसमाजमें इसका खूब ही प्रचलन है। १ मांडव्य-पिङ्गल-जनाश्रय-सैतवाख्य, श्रीपूज्यपाद-जयदेव बुधादिकानाम् । छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान्, छन्दोऽनुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम् ।। ३१५ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ अमरकोषकी टीका (व्याख्यासुधाख्या ) की तरह इसपर भी अमरकीर्तिका एक भाष्य उपलब्ध है। इस प्रसङ्गमें प्राचार्य हेमचन्द्र विरचित अभिधानचिन्तामणि नाममाला एक उल्लेखनीय कोशकृति है। श्रीधरसेनका विश्वलोचनकोष, जिसका अपरनाम मुक्तावली है एक विशिष्ट और अपने ढंगकी अनूठी रचना है। इसमें ककारान्तादि व्यञ्जनोंके क्रमसे शब्दोंकी संकलना की गयी है जो एकदम नवीन है। मन्त्रशास्त्र-- ___ मन्त्र शास्त्रपर भी जैन रचनाएं उपलब्ध हैं । विक्रमकी ग्यारहवीं सदीके अन्त और बारहवीं के आदिके विद्वान् मल्लिषेणका भैरवपद्मावतीकल्प, सरस्वती-मन्त्रकल्प और ज्वालामालिनीकल्प महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। भैरव-पद्मावती-कल्पमें, मन्त्री-लक्षण, सकली करण, देव्यर्चन, द्वादशरञ्जिकामन्त्रीद्धार, क्रोधादिस्तम्भन, अङ्गनाकर्षण, वशीकरण यन्त्र, निमित्त, वशीकरण तन्त्र और गारुड़मन्त्र नामक दस अधिकार हैं तथा इसपर बन्धुषेणका एक संस्कृत विवरण भी उपलब्ध है। ज्वाला-मालिनीकल्प नामक एक अन्य रचना इन्द्रनन्दिकी भी उपलब्ध है जो शक सं० ८६१ में मान्यखेटमें रची गयी थी। विद्यानुवाद या विद्यानुशासन नामक एक और भी महत्त्वपूर्ण रचना है जो २४ अध्यायोंमें विभक्त है। यह मल्लिषेणाचार्यकी कृति बतलायी जाती है; परन्तु अन्तःपरीक्षणसे प्रतीत होता है कि इसे मल्लिषेणके किसी उत्तरवर्ती विद्वान्ने ग्रथित किया है । इनके अतिरिक्त हस्तिमल्लका विद्यानुवादाङ्ग तथा भक्तामरस्तोत्र मन्त्र भी उल्लेखनीय रचनाएं हैं । सुभाषित और राजनीति-- सुभाषित और राजनीतिसे सम्बन्धित साहित्यके सृजनमें भी जैन लेखकोंने पर्याप्त योगदान दिया है । इस प्रसङ्गमें प्राचार्य अमितगतिका सुभाषित रत्नसन्दोह ( १०५० वि० ) एक सुन्दर रचना है। इसमें सांसारिक विषय-निराकरण, मायाहंकार-निराकरण, इन्द्रियनिग्रहोपदेश, स्त्रीगुणदोष विचार, देवनिरूपण श्रादि बत्तीस प्रकरण हैं। प्रत्येक प्रकरण बीस बीस, पच्चीस पच्चीस पद्योंमें समाप्त हुआ । है । सोमप्रभकी सूक्तमुक्तावली, सकलकीर्तिकी सुभाषितावली, श्राचार्य शुभचन्द्रका ज्ञानार्णव, हेमचन्द्राचार्यका योगशास्त्र, श्रादि उच्चकोटिके सुभाषित ग्रन्थ हैं। इनमें से अन्तिम दोनों ग्रन्थोंमें योगशास्त्रका महत्त्वपूर्ण निरूपण है। राजनीतिमें सोमदेवसू रिका नीतिवाक्यामृत बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है । सोमदेवसूरिने अपने समयमें उपलब्ध होने वाले समस्त राजनैतिक और अर्थशास्त्रीय साहित्यका मन्थन करके इस १. इस ग्रन्थको श्रीसाराभाई मणिलाल नवाब अहमदाबादने सरस्वतीकल्प तथा अनेक परिशिष्टोंके साथ गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशित किया है । २. जैन साहिस्य और इतिहास (श्री पं० नाथूराम प्रेमी ) पृ० ४१५ । ३१६ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्यके विकासमें जैनविद्वानोंका सहयोग सारवत् नीतिवाक्यामृतका सृजन किया है, अतः यह रचना अपने ढंगकी मौलिक और मूल्यवान् है । आयुर्वेद-- आयुर्वेदके सम्बन्धमें भी कुछ जैन रचनाएं उपलब्ध हैं। उग्रादित्यका कल्याणकारक, पूज्यपादका वैद्यसार अच्छी रचनाएं हैं। पंडितप्रवर श्राशाधर ( १३ वीं सदी ) ने वाग्भट या चरकसंहितापर एक अष्टाङ्ग हृदयोद्योतिनी नामक टोका लिखी थी, परन्तु सम्प्रति वह अप्राप्य है। चामुण्डरायकृत नरचिकित्सा, मल्लिषेणकृत बालग्रहचिकित्सा तथा सोमप्रभाचार्यका रस-प्रयोग भी उपयोगी रचनाएं हैं । कला और विज्ञान जैनाचार्योंने वैज्ञानिक साहित्यके ऊपर भी अपनी लेखनी चलायी। हंसदेव ( १३ वी सदी) का मृगपक्षीशास्त्र एक उत्कृष्ट कोटिको रचना मालूम देती है। इसमें १७१२ पद्य हैं और इसकी एक पाण्डुलिपि त्रिवेन्दम्की राजकीय पुस्तकागारमें सुरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त चामुण्डराय कृत कूपजलज्ञान, वनस्पतिस्वरूप, निधानादिपरीक्षाशास्त्र, धातुसार, धनुर्वेद, रत्नपरीक्षा, विज्ञानार्णव आदि ग्रन्थ भी उल्लेखनीय वैज्ञानिक रचनाएं हैं। ज्योतिष, सामुद्रिक तथा स्वमशास्त्र ज्योतिषशास्त्रके सम्बन्धमें जैनाचार्योंकी महत्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं, गणित और फलित दोनों भागोंके ऊपर ज्योतिर्ग्रन्थ पाये जाते हैं । जैनाचार्योंने गणित ज्योतिष् सम्बन्धी विषयका प्रतिपादन करनेके लिए पाटीगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गोलीय रेखागणित, चापीय एवं वक्रीय त्रिकोणमिति, प्रतिभागणित, शृङ्गोन्नतिगणित, पञ्चाङ्ग निर्माणगणित, जन्मपत्र निर्माणगणित, ग्रहयुतिउदयास्त सम्बन्धी गणित एवं यन्त्रादिसाधन सम्बन्धित गणितका प्रतिपादन किया है। जैनगणितके विकासका स्वर्णयुग छठवींसे बारहवीं शती तक है। इस बीच अनेक महत्वपूर्ण गणित ग्रन्थोंका ग्रथन हुआ है । इसके पहलेकी कोई स्वतन्त्र रचना उपलब्ध नहीं है। कतिपय आगमिक ग्रन्थोंमें अवश्य गणित सम्बन्धी कुछ बीजसूत्र पाये जाते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति प्राकृतकी रचनाएं होने पर भी जैनगणितकी अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा प्राचीन रचनाएं हैं। इनमें सूर्य और चन्द्रसे तथा इनके ग्रह, तारा, मण्डल, आदिसे सम्बन्धित गणित तथा अनेक विद्वानोंका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है। इनके अतिरिक्त महावीराचार्य ( ९ वीं सदी) का गणितसारसंग्रह; श्रीधरदेवका गणितशास्त्र, हेमप्रभसू रिका त्रैलोक्यप्रकाश और सिंहतिलकसूरिका गणिततिलक, आदि ग्रन्थ भों सारगर्भित और उपयोगी है । फलित ज्योतिषसे सम्वन्धित होराशास्त्र, संहिताशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, प्रश्नशास्त्र ३१७ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ और स्वप्नशास्त्र श्रादि पर भी जैनाचार्योंने अपनी रचनाओं में पर्याप्त प्रकाश डाला है और अनेक मौलिक ग्रन्थ भी लिखे हैं । इस प्रसङ्गमें चन्द्रसेन मुनिका केवलज्ञान होरा, दामनन्दिके शिष्य भट्टवासरका श्रायज्ञानतिलक, चन्द्रोन्मीलन प्रश्न, भद्रबाहु निमित्तशास्त्र, अर्धकाण्ड, मुहूर्तदर्पण, जिनपाल गणीका स्वप्नविचार तथा दुर्लभराजकी स्वप्नचिन्तामणि, आदि उपयोगी ग्रन्थ हैं। जैसा ऊपर कहा गया है, इस लेखमें संस्कृत साहित्यके विषयमें जैन विद्वानोंके मूल्यवान सहयोगका केवल दिग्दर्शन ही कराया गया है । संस्कृत साहित्यके प्रेमियोंको उन आदरणीय जैनविद्वानोंका कृतज्ञ ही होना चाहिए | हमारा यह कर्तव्य है कि हम हृदयसे इस महान् साहित्यसे परिचय प्राप्त करें और यथासम्भव उसका संस्कृत समाजमें प्रचार करें। YA Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र तथा पाटलिपुत्र श्री डी० जी० महाजन 'पूर्व पाटलिपुत्र मध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालव सिन्धु ठक्क विषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटंक बहुभट विद्योत्कटं संघटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥' श्रवण बेलगोलाके शिलालेखका यह श्लोक प्राचार्य स्वामी समन्तभद्रके नामको पाटलिपुत्रसे सम्बद्ध करता है । कतिपय विद्वानोंका मत है कि स्वामीने मगधके पाटलिपुत्रकी यात्राकी थी। श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार भी श्रवणवेलगोलकी ऐतिहासिकताके कारण उक्त विचारसे सहमत हैं । किन्तु सन् '४५–'४६ की भा० इतिहास परिषद्के निमित्तसे दक्षिण जाते समय कडलोर जानेका अवसर मिला । किसी समय यह स्थान 'पाटलिपुत्र' नामसे ख्यात था यह सुनते ही विचार आया कि उक्त शिलालेखका पाटलिपुत्र मगधकी राजधानी थी अथवा दक्षिण भारतका यह प्राचीन स्थान ? विचारना यह है कि स्वामी पाटलिपुत्र क्यों गये हों गे ? क्या उस समय यह नगर शिक्षा तथा संस्कृतिका केन्द्र था ? क्या मगधकी राजधानी होनेके कारण यह नगर सुसमृद्ध था ? चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उसके प्रधान वंशधरोंके कालमें पाटलिपुत्र राजनगरीके वैभव तथा गुणोंसे समलंकृत था। ई० पू० दूसरी शतीमें ( १८४ ई० पू० ) मौर्य साम्राज्यको समाप्त करके शुगवंशके संस्थापक पुष्यमित्र तथा उसके पुत्र अग्निमित्रके हाथों आते ही युद्ध में ध्वस्त पाटलिपुत्र राजकृपासे भी वञ्चित कर दिया गया था। शुंगोंकी राजधानी विदिशा ( भेलसा) चली गयी थी जिसके खण्डहर वेसनगरमें आज भी विद्यमान हैं । शुंगोंकी दूसरी राजधानी उज्जैनी थी । हस्तिगुम्फा शिलालेख द्वारा सुविख्यात कलिंगराज एल खारवेलने ई०पू० प्रथम शतीमें मगध १. शि. सं. ५४ ( प्राचीन ) ६७ ( नवीन ) पू. सं. १०६० में लिखित 'मल्लिषेण प्रशस्ति' २. आप्तमीमांसा पृ. ४ तथा स्वामी समन्तभद्र (पं. जुगल किशोर मुख्तार ) ३. टी. एल शाहका 'प्राचीन भारत' भा. ४ पृ. ११३-४। ३१६. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ पर आक्रमण किया था । इस युद्ध में अग्निमित्रको दास राजा' (सामन्त) ही नहीं बनना पड़ा अपितु खारवेलने पाटलिपुत्र पर ऐसा प्रहार किया कि वह ध्वस्त हो गयी और अतीत वैभव तथा महत्ताको पुनः प्राप्त न कर सकी। अबतक ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला जिसके आधार पर यह कल्पनाकी जा सके कि स्वामीके समयमें पाटलिपुत्रके गये दिन वापस आगये हों गे । स्वामीका बहु-मान्य समय शक सं० ६० या १३८ ई० है फलतः उपर्युक्त घटना क्रमके आधारसे तो यही कहा जा सकता है कि इन दिनों मगधका पाटलिपुत्र अवनति पथपर ही अग्रसर रहा होगा । फलतः शिक्षा संस्कृतिके विकासकी वहां कल्पना करना दुःसाहस होगा । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि अपनी पड़ोसके तामिलनाडु प्रदेशमें ही स्थित प्रमुख शिक्षा-संस्कृति केन्द्र काञ्जीवरम (काञ्चीपुरम् ) मदुरा, आदिको छोड़कर वे सुदूरवर्ती पाटलिपुत्र क्यों जाते ? उरयूर, काञ्ची, मदुरा, भादलपुर, आदिमें जैनमठों, वसतियों तथा पल्लियोंको भरमार थी। यह भी अनुमान है कि स्वामीने काञ्जी या निकटस्थ प्रदेश में दीक्षा ली हो गी । इसके बाद उन्हें भस्मक रोग 'भस्मक व्याधि' हो गया था। तब अपने जीवनको खतरे में डालकर इतनी लम्बी तथा व्यर्थ यात्रा क्यों की होगी? शिलालेखपर विचार करनेसे इतना तो झलकता है कि जन्म तथा दीक्षा स्थानसे निकट दक्षिण पाटलिपुत्रको स्वामीने अविजित नहीं छोड़ा हो गा । क्योंकि उपरिलिखित दक्षिण भारतीय समुन्नत नगरोंमें भादलपुर ( पाटलिपुत्र ) भी था । इन शिक्षा-संस्कृति केन्द्रोंमें वैदिक, जैन तथा बौद्धोंके बीच अनेक शास्त्रार्थ भी हुए थे। प्राचीन युगमें इसका तामिल नाम 'तिरुपादरीपुलियूर' अथवा तिरुप्यापुलियूर था, तथा जो मद्रास प्रेसीडेंसीके अार्काट जिलेका मुख्य स्थान वर्तमान कडल्लोर है। ___ इसकी प्राचीन वस्ती 'पेट्टा' है जो वर्तमान नगरसे दो मील दूर है। यहांपर साढे चार फुट ऊंचा जिनबिम्ब मिला था जिसे मंडम ग्रामके व्यक्तिने विष्णुमूर्ति समझ कर अपने ग्राममें वृक्षके नीचे विराज कर पूजना प्रारम्भ कर दिया था। तैलादि चढ़ानेसे मूर्तिपर काले धब्बे पड़ गये हैं। यहांसे एक सड़क सौ फुट ऊंचे पहाड़को पार करती हुई गेडीलम नदीके तीरपर स्थित 'त्रिकहिन्द्रपुर को जाती है। यहीं पर भूमिगर्भस्थ मन्दिर, मठ, अादि प्राचीन पाटलिपुत्रके भग्नावशेष हैं । ये १२ से १५ मील तकके घेरेमें फैले हैं । तथा इनके अस्तित्वकी सूचना यत्र तत्र ऊपर खड़े या पड़े स्तम्भ श्रादि देते १. लूईस राइसकृत श्रवणबेलगोलके शिला०, कर्नाटक शब्दानुशासन, महावशिष्ट, भ. ओं. रि. ३, रिपोर्ट (१३३-४) पृ. ३२०। २, स्वामी समन्तभद्र पृ० १२। ३. श्रवणबेलगोल शिलालेख (प्रा०) ५४, ( न०), "काञ्च्यान्नानाटकोऽहं.." पद्य । ४. 'स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म" पृ०३० । इण्डि० ऐण्टी, पट्टा लि, आदि । ५. आकलोजिकल सर्वे ओफ इण्डिया ७ । ३२०. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी सन्तभद्र तथा पाटलिपुत्र हैं । पल्लव राजकाल में निर्मित विष्णुमन्दिर इनमें प्रधान तथा प्राचीनतम है । गैडिलम नदीके प्रवाह परिवर्तनने भी बहुतसे अवशेषोंको भूगर्त में सुला दिया है। मंडम ग्राम में विराजमान मूर्ति पहिले यहीं पड़ी थी । तामिल ग्रन्थोंके ? श्राधारपर सिद्ध है कि ई० सनके प्रारम्भसे राजा महेन्द्रवर्मन ( प्रथम ) के शैव होने तक दक्षिण पाटलिपुत्र एक समुन्नत नगर था जो कि वर्तमान 'तिरुवेदीपुर' हो सकता है । स्वयं शैष हुए अप्पर जैन साधुके सम्पर्क से महेन्द्रवर्मन शैव हुए थे । तथा मुनि व्याघ्रपादने पदरि (पालि ) वृक्ष के नीचे यहांपर शिवपूजा की थी फलतः इसका नाम पादरी ( पाटलि ) पुत्र पड़ गया था । कडलोरसे पन्द्रह मील दूर पनरुती नगरसे डेढ़ मीलकी दूरीपर 'तिरुवदीकरी स्थान है जो प्राचीन पाटलिपुत्रका उपनगर था । यहां 'गुणधर-इच्चरम' नामका एक मन्दिर है जो प्रारम्भमें जैनमन्दिर रहा होगा । यद्यपि इस समय गर्भगृह में विशाल शिवलिंग शालु का ( योनिपीठ ) में विराजमान है तथापि मन्दिरके बाहर नीमके • वृक्ष के नीचे रख दी गयी जैनमूर्ति मन्दिरके इतिहासकी और संकेत करती है। मूर्तिके खण्डित मुख, शिर तथा श्रासन बतलाते हैं कि मन्दिर किसका था । यद्यपि साढ़े तीन फीट ऊंची पद्मासन इस मूर्ति में चिन्ह तथा प्रशस्ति लेख नहीं हैं तथापि कलाकी दृष्टि से यह पल्लवकालीन प्रतीत होती है। उक्त मन्दिरसे कुछ फलांगकी दूरी पर 'विरतेश्वर' मन्दिर है । स्थूल उन्नत दीवालों तथा गोपुर युक्त इस मन्दिरके मध्य में एक सरोवर है तथा इसके भीतरी चक्रमें एक जैन पद्मासन अखण्डित मूर्ति रखी है । यह मूर्ति श्राकार प्रकारसे उक्त मूर्तिके समान है। यह वही मन्दिर है जहां प्रने जिन धर्म छोड़कर शिवधर्म स्वीकार किया था । ये जन्म से जैन थे धर्मसेन नामसे मुनि होकर अपने संघके श्राचार्य हुए थे । एक दिन 'तिरुनरुन कुण्ड' की यात्रार्थ जाते समय संघसे रुष्ट होकर लौटे और अपने परिवर्तन के साथ साथ महावीर मन्दिरको भी विरतेश्वर शैव मन्दिर बना दिया । इन जैन भग्नावशेषों तथा तामिल साहित्य से समृद्ध दक्षिण पाटलिपुत्रका अस्तित्व सिद्ध होता है जैसा कि टोण्डामण्डल, पोन्नारके विवेचन तथा वहां उत्पन्न वीर, विद्वान, आदिके वर्णन से स्पष्ट है" । तथा यह श्रादिसम्राट चन्द्रगुप्तमौर्य की राजधानीके समान ही सम्पन्न बतायी गयी है । देखना यह है कि क्या तिरुपादरीपुलीयूरका पाटलीपुत्र हो सकता है ? 'पादरी' वृक्ष के अनुसार इसका नाम पड़ा था । तथा पुली = = व्याघ्र और युर = स्थान शुद्ध तामिल हैं । फलतः उक्त घटनाओं से मुनि व्याघ्र १. एपी० ३० भा० ६ पृ० ३९१ । २. तामिल पेरिय, स्थल तथा तेवारम पुराण | ३. प्रा० ए० चक्रवतीकी तिरुवल्लुवर कुरलकी भूमिका । ४. तामिल 'पाटलियर पुराण' ह० लि० ग० सं० ११३६/५ । ५. पारिजातकाचल महात्म्य, काञ्चीपुराण, तिरुपादिपुलियर कालाबम्ब, आदि ४१ ३२१ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पादका नाम जोड़ देनेसे स्पष्ट 'तिरुपादलिपुलीयुर' बनता है। तामिल पुराणोंमें' पादलि, पाटलि वन आदिके वर्णन भी नगरके अस्तित्वके ही समर्थक हैं । खण्डरोंमें मिले शिलालेख भी 'तल्लैत्यप तिरुपादलि पुलीयुर'' इसके समर्थक हैं । अप्पर तथा महेन्द्रवर्मनका धर्म परिवर्तन, फलतः जैनधर्मका भीषण दमन तथा जैन संस्कृति केन्द्रका विनाश अादि सिद्ध करते हैं कि दक्षिण पाटलिपुत्र किसी समय 'जैन जयतु शासनम्' की जय घोषसे अप्लावित था । इसकी पुष्टि आस-पासके ग्रामों में प्राप्त जैनधर्मायतन तथा निषिधकारों से भी होती है। फलतः यदि उक्त श्लोकका पाटलिपुत्र दक्षिण भारतका था तो संभवतः तोण्डामण्डलस्थ तिरु = श्री पादली = पाटली पुलि = व्याघ्रपाद युर=स्थान हो सकता है । फलतः उक्त विवेचन मनीषियोंके लिए साधक ही होगा। Dorae १. वी० जगदीश अय्यरका आरकाट जिला इतिहास, आर० सर्वे ० ई० पृ०६५। २. दन्तोक्ति है कि दक्षिण आर्काटके तिरुवन्नमल तथा तिरुक्कोरलूर में छः हजार मुनियोंकी निपिंधकाएं बनी थीं। ३२२ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ श्री पं० जुगलकिशोर मुख्तार, अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर ग्रंथका सामान्य परिचय और महत्व -- तिलोयपण्णत्ती ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) तीन लोकके स्वरूपादिका निरूपक महत्वपूर्ण प्रसिद्ध प्राचीन ग्रंथ है --प्रसंगोपात्त जैनसिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहासकी भी कितनी ही सामग्री इसमें है । इसके सामान्यजगत्स्वरूप, नरकलोक, भवनवासिलोक, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, सुरलोक, और सिद्धलोक नामके नौ महा अधिकार हैं । अवान्तर अधिकारोंकी संख्या १८० के लगभग है; क्योंकि द्वितीयादि महाधिकारोंके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७, १७, २१, ५ ऐसे १३१ हैं और चौथे महाधिकारके जम्बूद्वीप, घातकी - खण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारों में से प्रत्येकके फिर सोलह, सोलह ( ४८ ) अन्तरअधिकार हैं । इस तरह यह ग्रंथ अपने विषयका विस्तार से प्ररूपण करता है। इसका प्रारम्भ-सिद्धि कामना के लिए सिद्धस्मरणमय निम्न गाथासे होता है "अठ्ठावह कम्म - वियला णिठ्ठिय-कजा पणठ्ठ-संसारा । दिट्ठ-सयलठ्ठ - सारा सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ १ ॥” न्तिम भाग इस प्रकार है "पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुण [हर] वसहं । दट्ठूण परिसवसहं [?] जदिवसहं धम्म-सुत्त पाढग-वसहं ॥ ६-७८ ॥ चुरिणसरूवं श्रत्थं करणसरूव पमाण होदि कि [?] जं तं । अट्ट-सहस्स- पमाणं तिलोयपराणप्ति णामाए ॥ ७६ ॥ एवं आइरिय-परंपरागए तिलोयपराणत्तीए सिद्धलोयस्वरूवणिरूवणपराणत्ती णाम raमो महाहियरो सम्मत्तो ॥ मगभावण पवयण भत्तिष्पचोदिदेण मया । भणिदं गंथप्पवरं सोहंतु वहु सुदाइरिया ॥ ८० ॥ तिलोय पण्णत्ती सम्मत्ता ॥" ३२३ - Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ इन तीन गाथाओंमें पहली ग्रंथका अन्त-मंगल है। इसमें ग्रंथकार यतिवृषभाचार्यने, 'जदिवसह' पदके द्वारा श्लेषरूपसे अपना नाम भी सूचित किया है । इसके द्वितीय और तृतीय चरण कुछ अशुद्ध जान पड़ते हैं । दूसरे चरणमें 'गुण' के अनन्तर 'हर' और होना चाहिये । देहलीकी प्रतिमें भी त्रुटित अंशके संकेत पूर्वक उसे हाशियेपर दिया है, जिससे वह उन गुणधराचार्यका भी वाचक हो जाता हैं जिनके 'कसायपाहुड' सिद्धान्तग्रंथपर यतिवृषभने चूर्णिसूत्रोंकी रचना की है और 'श्रार्या गीति' के लक्षणानुरूप चौथे चरणके समान दूसरेमें २० मात्राए हो जाती हैं तीसरे चरणका पाठ पहले 'दळूण परिसवसह' प्रकट किया गया था। जो देहलीकी प्रतिमें भी पाया जाता है, और उसका संस्कृत रूप 'दृष्ट्वा परिषद् वृषभं' दिया था, जिसका अर्थ होता है-परिषदोंमें श्रेष्ट परिषद् सभा ] को देखकर । परंतु परिसका अर्थ कोषमें परिषद् नहीं मिलता किंतु स्पर्श उपलब्ध होता है, परिषद्का वाचक परिसा शब्द स्त्रीलिंग है। शायद यह देखकर अथवा किसी दूसरे अज्ञात कारणवश हालमें 'दठूणय रिसिवसहं' पाठ दिया है। जिसका अर्थ होता है-ऋषियोंमें श्रेष्ठ ऋषिको देखकर परन्तु 'जदिवसहं' को मौजूदगीमें रिसिवसहं यह कोई विशेषता नहीं रखता मुनि, यति, 'ऋषि शब्द प्रायः समान अर्थके वाचक हैं इसलिए वह व्यर्थ पड़ता है। पिछले पाठको लेकर उसके स्थान पर 'दटूण अरिस वसहं' पाठ भी सुझाया गया है और उसका अर्थ आर्ष ग्रथोंमें श्रेष्ठको देखकर किया है । परंतु अरिसका अर्थ कोशमें आर्ष उपलब्ध नहीं होता; किंतु अर्श । बवासीर ] नामका रोग विशेष पाया जाता है, आर्षके लिए आरिस शब्दका प्रयोग होता है । यदि अारिसका अर्थ आर्ष भी मान लिया जाय अथवा 'प' के स्थानपर कल्पना किये गये 'अ' के लोप पूर्वक इस चरणको सर्वत्र अनुपलब्ध 'दठूणारिसवसहं' ऐसा रूप देकर संधिके विश्लेषण द्वारा इसमें से प्रार्षका वाचक श्रारिस शब्द निकाल लिया जावे तो भी दट् ठूण पद सबसे अधिक खटकता है इस पदकी मौजूदगीमें गाथाके अर्थकी ठीक संगति नहीं बैठती-उसमें प्रयुक्त हुअा 'पणमह' [ प्रणाम करो] क्रियापद कुछ वाधा उत्पन्न करता है और अर्थ सुसंगत नहीं हो पाता । ग्रंथकारने यदि दठूय [ दृष्ट्वा ] पदको अपने विषयमें प्रयुक्त किया है तो दूसरा क्रियापद भी अपने ही विषयका होना चाहिये था अर्थात् आर्षवृषभ या ऋषभ, आदि को देखकर मैंने यह कार्य किया या मैं प्रणामादि अमुक कार्य करता हूं १. इलेष रूपसे नाम-सूचनकी यह पद्धति अनेक ग्रन्थों में पायी जाती हैं; यथा-गोम्मटसार, नीतिवा क्यामृत और प्रभा-चन्द्रादिके ग्रन्थ । २ जनहितैषी भाग १३, अंक १२, पृ० ५२८ पर सुहृद्वरं पं० नाथूराम प्रेमीका लेख । ३ पाइय-सद्दमहण्णव कोश । ४ जनसाहित्य और इतिहास पृ०६ । १ जैनसिद्धांतभास्कर भाग ११ कि० १ पृ० ८०। ६ पाइय-सद्दमहण्णव कोश । ३२४ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ ऐसा कुछ बतलाना चाहिये था, जिसकी गाथा परसे उपलब्धि नहीं होती और यदि यह पद दूसरों से सम्बन्ध रखता है – उन्हीं की प्रेरणाके लिए प्रयुक्त हुआ है - तो दट्ठूण और 'पणमह' दोनों क्रियापदों के लिए गाथामें अलग अलग कर्मपदोंकी संगति बेठानी चाहिये, जो कि नहीं बैठती । गाथाके वसहान्त पदोंमेंसे एकका वाच्य तो दृष्टव्य और दूसरेका प्रणम्य वस्तु हो यह बात संदर्भ से संगत मालूम नहीं होती । इसलिए 'दट्ठूण' पदका अस्तित्व यहां बहुत ही आपत्तिके योग्य जान पड़ता है | मेरी राय में यह तीसरा चरण 'दहूण परिसवसहं' के स्थान पर 'दुहुपरीसह - विसहं' होना चाहिये । इससे गाथाके अर्थकी सब संगति ठीक बैठ जाती है । यह गाथा जयघवलाके दशवें अधिकारमें बतौर मंगलाचरण अपनायी गयी है, वहां इसका तीसरा चरण 'दुसह - परीसह - विलहं' दिया है | परीषहके साथ दुसह ( दु:सह ) और दुट्ट्टु ( दुष्ठु ) दोनों शब्द एक ही अर्थ वाचक हैं- दोनोंका श्राशय परीषहको बहुत बुरी तथा असह्य बतलानेका है । लेखकोंकी कृपासे 'दुसह ' की अपेक्षा 'दुट् टु' के ‘दट्ठूण' हो जानेकी अधिक सम्भावना है, इसीसे यहां 'दुट्ट्टू' पाठ सुझाया गया है वैसे 'दुसह' पाठ भी ठीक है । यहां इतना और भी जान लेना चाहिये कि जयधवला में इस गाथाके दूसरे चरण में 'गुणवसहं' के स्थानपर 'गुणहरवसहं' पाठ ही दिया है और इस तरह गाथाके दोनों चरणोंमें जो गलती और शुद्धि सुझायी गयी है उसकी पुष्टि भले प्रकार हो जाती है । दूसरी गाथा में इस तिलोयपण्णत्तीका परिमाण आठ हजार श्लोक - जितना बतलाया है । साथ ही, एक महत्वकी बात और सूचित की है; वह यह कि यह आठ हजारका परिमाण चूर्णिस्वरूप और करण स्वरूपका जितना परिमाण है उसके बराबर है । इससे दो बातें फलित होती हैंएक तो यह कि गुणधराचार्य के कसायपाहुड ग्रंथपर यतिवृषभने जो चूर्णिसूत्र रचे हैं वे इस ग्रंथ से पहले रचे जा चुके थे, दूसरी यह कि 'करणस्वरूप' नामका भी कोई ग्रंथ यतिवृषभके द्वारा रचा गया था जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ, वह भी इस ग्रंथसे पहले बन चुका था । बहुत संभव है कि वह ग्रंथ उन करणसूत्रों का ही समूह हो जो गणितसूत्र कहलाते हैं और जिनका कितना ही उल्लेख त्रिलोकप्रज्ञप्ति, गोम्मटसार, त्रिलोकसार और धवला जैसे ग्रंथों में पाया जाता है । चूर्णिसूत्रों अथवा वृत्तिसूत्रोंकी संख्या छह हजार श्लोक परिमाण है, अतः करणस्वरूप ग्रन्थकी संख्या दो हजार श्लोक - परिमाण समझनी चाहिये; तभी दोनोंकी संख्या मिलकर आठ हजारका परिमाण इस ग्रन्थका बैठता है । तीसरी गाथा में 'यह ग्रन्थ प्रवचनभक्ति से प्रेरित होकर मार्गकी प्रभावनाके लिए रचा गया इसमें कहीं कोई भूल हुई हो तो बहुश्रुत श्राचार्य उसका संशोधन करें' ऐसा निवेदन किया गया है । ग्रन्थकार यतिवृषभ और उनका समय -- ग्रन्थ में न रचना-काल दिया है और न दूसरी गाथासे इतना ही ध्वनित होता है कि ' वे ३२५ ग्रन्थकारने अपना कोई परिचय ही दिया है—उक्त धर्मसूत्रके पाठकों में श्रेष्ठ थे।' इसलिए ग्रन्थकार, Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी - श्रभिनन्दन ग्रन्थ ग्रन्थके समय, सम्बन्धादिमें निश्चित रूपसे कुछ कहना सहज नहीं है । चूसूित्रोंसे मालूम होता है कि यतिवृषभ प्रौढ सूत्रकार थे । प्रस्तुत ग्रन्थ भी उनके जैनशास्त्रोंके विस्तृत अध्ययनको व्यक्त करता है । उनके सामने 'लोकविनिश्चय', 'संगाइणी ( संग्रहणी )' और 'लोकविभाग [ प्राकृत ]' जैसे कितने ही ऐसे प्राचीन ग्रन्थ भी मौजूद थे, जो आज उपलब्ध नहीं है और जिनका उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में उल्लेख किया है । उनका यह ग्रन्थ प्रायः प्राचीन ग्रन्थोंके आधारपर ही लिखा गया है, इसी से उन्होंने ग्रन्थकी पीठिका के अन्त में, ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा करते हुए, उसके विषयको 'आइरिय शुक्कमायादं' ( गा० ८६ ) बतलाया है और महाधिकारोंके संधिवाक्यों में प्रयुक्त हुए 'आइरिय परंपरागए' पदके द्वारा भी इसी बातको पुष्ट किया है, इस तरह यह घोषित किया है कि इस ग्रन्थका मूल विषय उनका स्वरुचि - विरचित नहीं है, किन्तु श्राचार्यपरम्परा के आधारपर है। रही उपलब्ध करणसूत्रों की बात; वे यदि इनके उस करणस्वरूप ग्रंथके ही अंग हैं, जिसकी अधिक संभावना है, तब तो कहना ही क्या है ? वे सब इनके उस विषयके पाण्डित्य, तथा बुद्धिकी प्रखरता के प्रबल परिचायक हैं । जयधवला के आदिमें मंगलाचरण करते हुए श्रीवीरसेनाचार्यने यतिवृषभका जो स्मरण किया है वह इस प्रकार है— "जो जर्मखुसीस अंतेवासी वि नागहत्थिस्स । सो वित्ति सुत्त कत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ॥ ८ ॥" इसमें कसायपाहुडकी जयधवला टीकाके मूलाधार वृत्ति ( चूर्णि ) - सूत्रों के कर्ता यतिवृषभको श्रार्यमक्षुका शिष्य और नागहस्तिका अन्तेवासी बतलाया है। इससे यतिवृषभके दो गुरुयोंके नाम सामने आते हैं, जिनके विषय में जयधवला परसे इतना और जाना जाता है कि श्री गुणधराचार्यने कसायपाहुड परनाम पेज दोसपाहुडका उपसंहार ( संक्षेप) करके जो सूत्रगाथाएं रची थीं वे इन दोनोंको श्राचार्य - परम्परा से प्राप्त हुई थीं और ये उनके सर्वाङ्ग अर्थ के ज्ञाता थे, इनसे समीचीन अर्थको सुनकर ही यतिवृषभने, प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित होकर उन सूत्र गाथाओं पर चूर्णिसूत्रों की रचना की " । ये दोनों जैनपरम्परा के प्राचीन श्राचार्यों में हैं और इन्हें दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंने माना है - श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्रार्यमक्षुका श्रार्य मंगु नामसे उल्लेख किया है, मंग और मंक्षु एकार्थक हैं । धवला, जयधवला में १ " पुणो तेण गुणहर भडारएण णाणपवाद-पंचम पुत्र दसमवत्थु तदिय कसा हुड-महण्णव पारएण गंधवोच्छेदभरण वच्छलपरवसि-कय- हियएण एवं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपदसहरश परिमाणं होतं असीदि सदमेत्तगाहाहिं उसंहारिदं । पुणो ताओ चेयमुत्तगाथाओ आइरिय परंपराए आगच्छमागाओ अज्जमंखु-नागहत्थीणं पत्ताओ । पुणो तेसिंदोहपि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहर मुहकमल विणिगयाणमत्थं सम्मं सोऊन जयिव सहभडारएण पवयणवच्छ लेग चुण्णित्तं कयं । ” – जयधवला ३२६ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ इन दोनों श्राचार्योंको 'क्षमाश्रमण' और महावाचक' भी लिखा है जो उनकी महत्ता के द्योतक हैं । इन दोनों आचार्योंके सिद्धान्त-विषयक उपदेशों में कहीं कहीं कुछ सूक्ष्म मतभेद भी रहा है, जो वीरसेनको उनके ग्रन्थों अथवा गुरुपरम्परासे ज्ञात था इसलिए उन्होंने घवला तथा जयधवला टीकाओं में उसका उल्लेख किया है । ऐसे जिस उपदेशको उन्होंने सर्वाचार्य सम्मत, अव्युच्छिन्न सम्प्रदायक्रम से चिरकालागत और शिष्य परम्परा में प्रचलित तथा प्रज्ञापित समझा है उसे 'पवाइज्जंत' 'पवाइजमाण' उपदेश बतलाया है और जो ऐसा नहीं उसे 'अपवाइज्जंत' अथवा 'अपवाइजमाण' नाम दिया है । उल्लिखित मतभेदों में आर्य नागहस्तिके अधिकांश उपदेश 'पवाइज्जत' और श्रार्यमक्षुके 'अपवाइयज्जंत' बतलाये गये हैं । इस तरह यतिवृषभ दोनोंका शिष्यत्व प्राप्त करनेके कारण उन सूक्ष्म मतभेदकी बातोंसे भी अवगत थे, यह सहज ही जाना जाता है । वीरसेनने यतिवृषभका महाप्रामाणिक प्राचार्य रूपसे उल्लेख किया है। एक प्रसंग पर राग-द्वेष-मोहके प्रभावको उनकी वचनप्रमाणतामें कारण बतलाया है और उनके चूर्णिसूत्रों को असत्यका विरोधी ठहराया है । इन सब बातों से आचार्य यतिनृषभका महत्त्व स्वतः ख्यापित हो जाता है । अब देखना यह है कि यतिवृषभ कब हुए हैं और कब उनकी यह तिलोयपण्णत्ती बनी है, जिसके वाक्योंको धवलादिकमें उद्धृत करते हुए अनेक स्थानों पर श्रीवीरसेनने उसे 'तिलोयपण्णत्तमुत्त' कहा है । यतिवृषभ गुरुत्रों में से यदि किसीका भी समय सुनिश्चित होता तो इस विषयका कितना काम निकल जाता, परन्तु उनका भी समय सुनिश्चित नहीं है । श्वेताम्बर पहावलियों में से 'कल्पसूत्र स्थविरावली' और 'पट्टावलीसारोद्धार' जैसी कितनी ही प्राचीन तथा प्रधान पट्टावलियों में तो श्रमं और नागहस्तीका नाम ही नहीं है, किसी किसी पट्टावलीमें एकका नाम है तो दूसरेका नहीं और जिनमें दोनोंका नाम है उनमें से कोई दोनों के मध्य में एक आचार्यका और कोई एकसे अधिक श्रचायका नामोल्लेख करती है । कोई कोई पट्टावली समयका निर्देश ही नहीं करती और जो १ "कम्मट्ठदित्ति अणियोगद्दारेहि भण्णमाणे वे उबदेसा होति । जहण्णमुक्कस्सट्ठिदीणं पमाणपरूवणा कम्मट्ठदि परूवणंत्ति नागहत्थि - खमासमणा भगति । अज्जमंखु खमासमणा पुर्ण कम्मट्ठिदि परूवणेत्ति भगति । एवं दोहि उवदेसेहि कम्मट्ठदि परूवणा कायव्वा ।" "एत्थ दुवै उवएसा महावाचयाणमज्जमंखुखवणाणमुवदेसेण लोग पूरिंदे आउगसमाणं णामा- गोद-वेदणीयाणं दिसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयाणं णागहत्थिखत्रणाण मुत्र से लोगे पूरिंदे णामा- गोद-वेदणीयाण ठिदि संतकम्मं अंतोमुहुत्त पमाणं होई ।" - षट् खं० प्र० १ पृ० ५७ २ " सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमवोच्छिण्णसंपदाय - कमेणागच्छमार्णो जो सिस्स-परंपराए पवाइज्जदे सो पवाइज्जतोव एसोत्ति भण्णदे, अथवा अज्जमंखु-भयवंताणमुवएसो एत्थाऽपव्त्रा इज्जमानों णाम । णागहत्थि खमाणमुत्र सोपवाइज्जतोत्ति घेत्तव्यो " जयधन पृ० ४३ ३ कुदो दे ? एदम्हादोचेव जइवसहाइरिय मुहकमल-विणिग्गय चुण्णिसुत्तादो । चुण्णिसुत्तमण्णहा किं ण होदि ? ण, रागोसमोहाभावेण पमाणत्तमुवगय- जइव सह वयणस्स असच्चत्तविरोहादो ।" जयधवला प्र० १, पृ० ४६ । ३२७ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ करती हैं उनमें इन दोनोंके समयोंमें परस्पर अन्तर भी पाया जाता है—जैसे आर्यमंगुका समयारंभ तपागच्छ पट्टावलीमें वीरनिर्वाणसे ४६७ वर्ष पर और 'सिरिदुसमाकाल-समणसंघ-थयं' की अवचूरीमें ४५० पर बतलाया है। दोनोंका एक समय तो किसी भी श्वे० पटावलीसे उपलब्ध नहीं होता बल्कि दोनोंमें लगभग १५० या १३० वर्षका अन्तराल पाया जाता है । दिगम्बर परम्पराका उल्लेख दोनोंको स्पष्ट ही यतिवृषभके गुरूरूपमें प्रायः समकालीन बतलाता है। ऐसी स्थितिमें श्वे० पट्टावलियोंको दोनों प्राचार्योंके समयादिके विषयमें विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता । इसलिए इनके समयका तिलोयपण्णत्तीके उल्लेखों परसे ही अथवा उसके अन्तःपरीक्षण द्वारा अनुसन्धान करना उचित है। . (१) तिलोयपण्णत्तीके अनेक पद्योंमें 'संगाइणी' तथा 'लोकविनिश्चय' ग्रन्थके साथ 'लोकविभाग' नामके ग्रन्थका भी स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है । यथा जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा। एउवं संगाइणिए लोयविभाए विणिहिट्ठ॥ (१०४) लोयविणिच्छयगंथे लोयविभागम्मि सवसिद्धाणं ।। श्रोगाहणपरिमाणं भणिदं किंचूण चरिमदेहसमो ॥ (अ०९) यह 'लोकविभाग' ग्रंथ उस प्राकृत लोकविभाग ग्रन्थसे भिन्न मालूम नहीं होता, जिसे 'सर्वनन्दी प्राचार्यने कांचीके राजा सिंहवर्मा के राज्यके २२ वें वर्ष में उत्तराषाढ नक्षत्रमें शनिश्चर, वृषराशिमें बृहस्पति, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें चन्द्रमा तथा शुक्ल पक्ष रहते हुए-शक संवत् ३८० में लिखकर पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राममें पूरा किया था।" जिसका उल्लेख सिंहसूर के उस संस्कृत 'लोकविभाग' के तीसरे-चौथे पद्योंमें है, जिसे उन्होंने सर्वनन्दीके लोकविभागको सामने रखकर ही भाषाके परिवर्तन द्वारा रचा होगा। 'लोकविभाग' आदि ग्रन्थोंके आधारसे तिलोयपण्णत्ती को उक्त दोनों गाथानों में जिन विशेष वर्णनोंका उल्लेख किया गया है वे सब संस्कृत लोकविभागमें भी पाये जाते हैं | और इससे यह बात १. पट्टावली समुच्चय। २ "सिंहसूर र्षिणा 'पदसे 'सिंहसूर' नामकी उपलब्धि, होती है-सिंहसूरिकी नहीं जिसके सूरिपदको आचार्य पदका वाचक समझकर जैन साहित्य और इतिहास पृ०५ पर नामके अधूरेपनकी कल्पना की है और 'पूरा नाम शायद सिंहनन्दि हो ऐसा सुझाया गया है। छंदकी कठिनाईका हेतु उसमें कुछ भी समीचीन मालूम नहीं होता; क्योंकि सिंहनन्दि और सिंहरोन जैसे नामोंका वहां सहज हो समावेश किया जा सकता था। ३. आचार्यावलिकागतं विरचितं तसिंहसुरर्षिणा । भाषायाः परिवर्तनेन निपुणः सम्मानितं साधुभिः ।। ४ "दशैवैष सहस्राणि मूलेऽयोपि पृथुर्मतः" । प्रकरण २ "अन्त्यकायप्रमाणात्तु किञ्चित्संकुचितात्मकाः || प्रक० ११ ३२८ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ और भी स्पष्ट हो जाती है कि संस्कृतका उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रख कर ही लिखा गया है। इस सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है कि संस्कृत लोकविभागके अन्त में उक्त दोनों पद्योंके बाद निम्न पद्य दिया है'पंचदशशतान्याहुः षट्त्रिंशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संगहस्त्वेदं छंदसानुष्टभेन च ॥५॥ इसमें ग्रंथकी संख्या १५३६ श्लोक-परिमाण बतलायो है, जब कि उपलब्ध' संस्कृत लोकविभागमें वह २०३० के करीब जान पड़ती है । मालूम होता है कि यह १५३६ की श्लोक संख्या पुराने प्राकृत लोकविभाग की है और उसके संख्या सूचक पद्यका भी यहां अनुवाद कर दिया है । संस्कृत ग्रन्थमें जो ५०० श्लोक परिमाण अधिक है वह प्रायः 'उक्तं च' पद्योंका परिमाण है जो इस ग्रन्थमें दूसरे ग्रन्थोंसे उद्धृत किये गये हैं-१०० से अधिक गाथाएं तो तिलोयपण्णत्ती की ही हैं, २०० के करीब श्लोक भगवजिनसेनके श्रादिपुराणसे लिये गये हैं और शेष उद्धृत पद्य तिलोयसार (त्रिलोकसार ) और जम्बूद्वीप पण्णत्ती (जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति) आदि ग्रन्थोंके हैं । इस तरह इस ग्रन्थके भाषाके परिवर्तन और दूसरे ग्रन्थोंसे कुछ पद्योंके 'उक्तं च' रूपसे उद्धरणके सिवाय सिंहसूरकी प्रायः और कुछ भी कृति मालूम नहीं होती । बहुत संभव है कि 'उक्तं च' रूपसे जो पद्योंका संग्रह पाया जाता है वह स्वयं सिंहसूर मुनिके द्वारा न किया गया हो बल्कि बादके किसी दूसरे ही विद्वानने अपने तथा दूसरों के विशेष उपयोगके लिए किया हो क्योंकि ऋषि सिंहसूर जब प्राकृत ग्रन्थका केवल संस्कृत अनुवाद करने बैठे-व्याख्यान नहीं तो यह . संभावना बहुत ही कम रह जाती है कि वे दूसरे प्राकृतादि ग्रंथोंसे तुलनादिके लिए कुछ वाक्योंको स्वयं उद्धृत करके उन्हें ग्रन्थका अंग बनायें । यदि किसी तरह यह उद्धरण-कार्य उनका ही सिद्ध किया जा सके तो कहना होगा कि वे विक्रमकी ११ वी शतीके अन्तमें अथवा उसके बाद हुए हैं; क्योंकि इसमें श्राचार्य नेमिचन्द्रके त्रिलोकसारकी गाथाएं भी 'उक्तं च त्रैलोक्यसारे' सूचक वाक्यके साथ पायी जाती हैं । इसलिए इस सारी परिस्थिति परसे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि तिलोयपण्णत्तीमें जिस लोकविभागका उल्लेख है वह सर्वनन्दीका प्राकृत लोकविभाग है जिसका उल्लेख हो नहीं किन्तु अनुवादित रूप संस्कृत लोकविभागमें पाया जाता है। चू कि उस लोकविभागका रचनाकाल शक संवत् ३८० (वि० सं० ४१५ ) है अतः तिलोयपण्णत्तीके रचयिता यतिवृषभ शक सं० ३८० के बाद हुए हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । अब देखना यह है कि कितने बाद हुए हैं ? तिलोयपण्णत्तीमें अनेक काल गणनात्रों के आधारपर 'चतुमुख' नामके कल्किर की मृत्यु १ आरा दि० जेन सिद्धान्तभवनकी प्रति और उसकी प्रतिलिपि वीरसेवामन्दिरको प्रति । २. कल्कि निःसंदेह एक ऐतिहासिक व्यक्ति हुआ है, इस बातको इतिहासज्ञोंने भी मान्य किया है. डा० के० बी० ४२ ३२९ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वीर-निर्वाणसे एक हजार वर्ष बाद बतलायी है, उसका राज्य काल ४२ वर्ष दिया है, उसके अत्याचारों तथा मारे जानेकी घटनाओं का उल्लेख किया है और मृत्युपर उसके पुत्र अजितंजयका दो वर्ष स्थायी धर्मराज्य लिखा है। साथ ही, बादको धर्मकी क्रमशः हानि बतलाकर और किसी राजाका उल्लेख नहीं किया है । इस प्रकरणकी कुछ गाथाए निम्न प्रकार हैं, जो कि पालकादि राज्यकाल ९५८ का उल्लेख करने के बाद दी गयी हैं "तत्तो कक्की जादो इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरिवरिसा भाऊ विगुणिय इगवीस रज्जत्तो ॥६६॥ आचारागंधरादो पणहरिजुत्तदुसयवासेसुं । बोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्की स णखइणो ॥१०॥ अह कोवि असुर देश्रो श्रोहीदो मुणिगेणाण उवसग्गं । णादणं त कक्की मेरेदि हु धम्मदोहि त्ति ॥१०३॥ कक्किसुदो अजिदंजय णामोरक्खदि णमदि तच्चरणे । तं रक्खदि असुरदेो धम्मे रज्जं करेजंति ॥१०४॥ तत्तो दोवेवासो सम्मं धम्मो पट्टिदि जणाणं । कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे ॥१०५॥ . इस घटनाचक्र से यह साफ मालूम होता है कि तिलोयपण्णत्तीकी रचना कल्किराजाकी मृत्युसे १०-१२ वर्षसे अधिक बादकी नहीं है। यदि अधिक बादकी होती तो ग्रंथ पद्धतिको देखते हुए यह संभव नहीं था कि उसमें किसी दूसरे प्रधान राज्य अथवा राजाका उल्लेख न किया जाता । वीरनिर्वाण शक राजा अथवा शक संवत् से ६०५ वर्ष ५ महीने पहले हुआ है, जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्तीमें भी पाया जाता है । एक हजार वर्षमें से इस संख्याको घटाने पर ३९४ वर्ष ७ महीने अवशिष्ट रहते पाठक उसे मिहिरकुल नामका राजा बतलाते हैं और जैन कालगगनाके साथ उसकी संगति बैठाते हैं यह बहुत अत्याचारी था । इसका वर्णन चीनीयात्री हुए नसाङ्ग के यात्रा वर्णनमें विस्तार के साथ मिलता है तथा राजतरगिणीमें भी इसकी दुष्टताका हाल दिया है। परन्तु डा० काशीप्रसाद जायसवाल इसे मिहिरकुल को पराजित करनेवाले मालबाधिपति विष्णु यशोधर्माको ही, 'कल्कि' बतलाते हैं, जिसका विजयस्तम्भ मन्दसौरमें स्थित हैं और वह ई० सन् ५३३-३४ में स्थापित हुआ था। जनहितैषी भाग १३ अंक १२ में जायसवालजी का 'कल्कि अवतारकी ऐतिहासिकता' और पाठकजी का 'गुप्त राजाओं का काल, मिहिरकुल और कल्कि' नामक लेख पृ० ५१६ -- ५२५ । १ णिवाणे वीरजिणे छव्वस्ससदेसु पंचवरसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सग-णिओ अहवा ।।-- तिलोयपण्णत्ती पण छस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिब्वुझ्दो सगराजो तो कक्की चदुणतिय महिय सगमासं ।। –त्रिलोकसार Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ हैं । यही ( शक संवत ३९५ ) कल्किकी मृत्युका समय है । और इसलिए तिलोयपण्णत्तीका रचनाकाल शक सं० ४०५ (वि० सं० ५४० ) के करीब का जान पड़ता हैं जब कि लोकविभागको बने हुए २५ बर्ष के करीब हो चुके थे, और यह अन्तराल लोकविभागकी प्रसिद्धि तथा यतिवृत्रभतक उसकी पहुंच के लिए पर्याप्त है । यतिवृषभ और कुन्दकुन्द के समय-सम्बन्धी प्रथम मतकी आलोचना 1 यतः यतिवृषभ कुन्दकुन्दाचार्य से २०० वर्ष से भी अधिक समय बाद हुए हैं, अतः मैंने श्री कुन्दकुन्द और यतिवृषभ में पूर्ववर्ती कौन ?' नामक लेख लिखकर इन्द्रनन्दि- श्रुतावतारके कुछ गलत तथा भ्रान्त उल्लेखोंसे प्रसूत और विबुध श्रीधर - श्रुतावतारके उससे भी अधिक गलत एवं आपत्तिके योग्य उल्लेखों द्वारा पुष्ट विद्वानोंकी गलत धारणाओंका विचार किया था । तथा उन प्रधान युक्तियों का विवेचन किया था जिनके आधारपर कुन्दकुन्दको यतिवृषभ के बादका विद्वान् बतलाया गया है उनमें से एक युक्तिका तो इन्द्रनन्दि- श्रुतावतार ही श्राधार है; दूसरी प्रवचनसारकी 'एस सुरासर' नामकी श्राद्यमंगल गाथासे सम्बन्धित है, जो तिलोयपण्णत्तीके अन्तिम अधिकारमें भी पायी जाती है और जिसे तिलोयपण्णत्ती से ही प्रवचनसार में ली गयी समझ लिया गया था और तीसरी कुन्दकुन्दके नियमासार की गाथा से सन्बन्ध रखती है, जिसमें प्रयुक्त 'लोयविभागेसु' पद से सर्वनन्दीके 'लोकविभाग' ग्रन्थको समझा गया है । यतः उसकी रचना शक सं० ३८० में हुई है अतः कुन्दकुन्दाचार्यको शक सं० ३८० (वि० सं० ५१५ ) के बादका विद्वान ठहराया गया है। 'एस सुरासुर' नामकी गाथाको कुन्दकुन्दकी सिद्ध करनेके लिए मैंने जो युक्तियां दी थी उनसे दूसरी युक्ति के सम्बन्ध में तो धारणा बदल गयी है । फलतः उक्त गाथाकी स्थितिको प्रवचनसार में सुदृढ़ स्वीकार किया गया है, क्योंकि उसके अभाव में प्रवचनसारकी दूसरी गाथा 'सेसे पुण तित्थयरे' को लटकती हुई माना गया है । और तिलोयपण्णत्तीके अन्तिम अधिकारके अन्त में पायी जाने वाली कुन्थनाथ से वर्द्धमानतक स्तुति-विषयक आठ गाथाओं के सम्बन्ध में जिनमें उक्त गाथा भी है, लिखा वीरनिर्वाण और शकसंवत् की विशेष जानकारीके लिए, लेखककी 'भगवान महावीर और उनका समय' नामकी पुस्तक देखनी चाहिये । १ अनेकान्त वर्ष २ (नवम्बर सन् १९३८) किरण सं० १ । २ ' चउदसभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउभेदा । एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥ १७ ॥ ३ गाथा-चूर्युच्चारणस्त्रैरुपसंहृतं कषायाख्य -- प्राभृतमेवं गुणधर - यतिवृष मोच्चारणाचार्यैः ।। १५९ ।। एवं दिविधो द्रव्य-भावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपारपाठ्या ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुन्दपुरे ।। १६० ।। श्रीपद्मनन्दि-मुनिना, सोऽपिं द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्य- परिकर्म-कर्ता षट्खण्ड (SSयत्रिखण्डस्य || १६१ ।। ३३१ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ गया है कि- "बहुत सम्भव है कि ये सब गाथाएं मूलग्रंथकी न हों, पीछेसे किसीने जोड़ दी हों और उनमें प्रवचनसारकी उक्त गाथा श्रा गयी हो।" प्रथम युक्तिके सम्बन्धमें मैंने यह बतलाया था कि इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके जिस उल्लेख परसे कुन्दकुन्द (पद्मनन्दी ) को यतिवृषभके बादका विद्वान समझा जाता है उसका अभिप्राय 'द्विविध सिद्धान्त के उल्लेख द्वारा यदि समस्त टीकाओं सहित कसायपाहुड ( कषायप्राभृत ) को कुन्दकुन्दतक पहुंचाना है तो वह जरूर गलत है और किसी गलत सूचना अथवा गलतफहमीका परिणाम है । क्यों कि कुन्दकुन्द यतिवृषभसे बहुत पहले हुए हैं जिसके कुछ प्रमाण भी दिये थे । साथ हो, यह भी बतलाया था कि यद्यपि इन्द्रनन्दीने यह लिखा है कि वंशकथन करने वाले शास्त्रों तथा मुनिजनोंका उस समय अभाव होने से गुणधर और धरसेन आचायोंकी गुरु-परम्पराका पूर्वाऽपर क्रम उन्हें मालूम नहीं है'; परन्तु दोनों सिद्धान्तग्रन्थोंके अवतारका जो कथन दिया है वह भी उन ग्रंथों तथा उनकी टीकाओंको स्वयं देखकर लिखा गया मालूम नहीं होता-सुना-सुनाया जान पड़ता है । यही वजह है जो उन्होंने आर्यमंक्षु और नागहस्तिको गुणधराचार्यका साक्षात् शिष्य घोषित कर दिया और लिख दिया है कि 'गुणधराचार्यने कसायपाहुडकी सूत्रगाथात्रों को रचकर स्वयं ही उनकी व्याख्या करके आर्यमंक्षु और नागहस्तिको पढ़ाया था', जब कि उनकी टीका जयधवलामें स्पष्ट लिखा है कि 'गुणधराचार्यकी उक्त सूत्र गाथाएं प्राचार्य परम्परासे आर्यमंक्षु और नागहस्तिको प्राप्त हुई थींगुणधराचार्य तथा उनमें उक्त गाथाओं का साक्षात् आदान-प्रदान नहीं हुअा था। जैसा कि "पुणो तानो सुत्तगहारो आइरियपरंपराए अगच्छमाणाश्रो अजमखुणागहत्थीणं पत्तायो ।' से स्पष्ट है इसलिए इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके उक्त कथनकी सत्यता पर कोई विश्वास नहीं किया जा सकता । परंतु मेरी इन सब बातों पर कोई खास ध्यान दिया गया मालूम नहीं होता इसीलिए आर्यमंक्षु और नागहस्तिको गुणधराचार्यका साक्षात् शिष्य मानकर ही विचार किया गया है। जबकि ऐसा मानकर चलनेमें यह ख्याल रखनेकी बात थी कि इन्द्रनन्दि के गुणधराचार्य के पूर्वाऽपर-अन्वय, गुरुओंके विषयमें एक जगह अपनी अनभिज्ञता व्यक्त करने तथा दूसरी जगह उनकी कुछ शिष्य-परम्पराका उल्लेख करके अपर गुरुओंके विषयमें अपनी अभिज्ञता बतानेमें परस्पर विरोध है ।" चूंकि यतिवृषभ आर्यमंक्षु और नग्गहस्तिके शिष्य थे इसलिए उन्हें गुणधराचार्यका समकालीन अथवा २०, २५ वर्ष बादका ही विद्वान सूचित किया है और साथ ही यह प्रतिपादन किया है कि 'कुन्दकुन्द ( पद्मनन्दि ) को दोनों सिद्धान्तोंका जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसमें यतिवृषभकी चूर्णिका अन्तर्भाव भले ही न हो, फिर भी जिस द्वितीय सिद्धान्त कषायप्राभृतको कुन्दकुन्दने प्राप्त किया है उसके कर्ता गुणधर जब यतिवृषभके समकालीन अथवा २० १. गुणवर-धरसेनान्वय गुर्वोः पूर्वाऽपरक्रमोऽस्माभिर्न ज्ञायते तदन्वय कथकागम मुनि जनाभावात् ॥१५०।। १. एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि । प्रविरच्य व्याख्यो स नागहत्यार्यमंक्षुभ्याम् ।। १५४ ।। ३३२ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ २५ वर्ष पहले हुए थे तब कुन्दकुन्द भी यतिवृषभके सम-सामयिक बल्कि कुछ पीछे के ही होंगे, क्योंकि उन्हें दोनों सिद्धान्तोंका ज्ञान गुरुपरिपाटीसे प्राप्त हुअा था । अर्थात् एक दो गुरू उनसे पहले और मानने हों गे ।' अन्तमें कुछ शिथिल श्रद्धाके साथ इन्नद्रन्दि श्रुतावतारको मूलाधार मानते हुए लिखा गया है.-"गरज यह कि इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार पद्यनन्दि (कुन्दकुंद) का समय यतिवृषभसे बहुत पहले नहीं जा सकता । अब यह बात दूसरी है कि इन्द्रनन्दिने जो इतिहास दिया है, वही गलत हो और या ये पद्मनन्दि कुंदकुंदके बादके दूसरे ही प्राचार्य हों और जिस तरह कुन्दकुन्द कोण्डकुण्डपरके थे उसी तरह पद्मनन्दि भी कोण्डकुण्डपुरके हों।" ___ बादमें जब जयधवलाका वह कथन पूरा मिल गया जिसका एक अंश 'पुणो तात्रो' से श्रारंभ करके मैंने उक्त लेखमें दिया था और जिसका अधिकांश ऊपर उद्धृत किया गया है तब ग्रन्थ छप चुकनेपर उसके परिशिष्टमें उस कथनको देते हुए यह स्पष्ट सूचित किया गया है कि "नागहस्ति और आर्यमंक्षु गुणधरके साक्षात् शिष्य नहीं थे ।" इस सत्यको स्वीकार करनेपर उस दूसरी युक्तिकी क्या स्थिति रहेगी, इस विषयमें कोई सूचना नहीं की गयी है यद्यपि करनी चाहिये थी । स्पष्ट है कि वह सारहीन हो जाती है । और कुन्दकुन्द द्विविधसिद्धान्तमें चूर्णिका अन्तर्भाव न होनेके कारण यतिवृषभसे बहुत पहले के विद्वान भी हो सकते हैं। अब रही तीसरी युक्ति उसके विषयमें मैंने अपने उक्त लेख में यह बतलाया था कि 'नियमसारकी उस गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदका अभिप्राय सर्वनन्दीके उक्त लोकविभाग ग्रन्थसे नहीं है और न हो सकता है; बल्कि बहुवचनान्त पद होनेसे वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक ग्रन्थ विशेष का भी वाचक नहीं हैं। वह तो लोकविभाग-विषयक कथन वाले अनेक ग्रन्थों अथवा प्रकरणोंके संकेतको लिये हुए जान पड़ता है और उसमें खुद कुन्दकुन्दके 'लोय पाहुड'-'संठाण पाहुड' जैसे ग्रन्थ तथा दूसरे लोकानुयोग अथवा लोकालोकके विभागको लिये हुए करणानुयोग-सम्बन्धी ग्रन्थ भी शामिल किये जा सकते हैं इसलिए 'लोयविभागेसु' इस पदका जो अर्थ कई शताब्दियों पीछेके टीकाकार पद्मप्रभने 'लोकविभागाभिधान परमागमे' ऐसा एक वचनान्त किया है वह ठीक नहीं है । साथ ही उपलब्ध लोकविभागमें, जो कि ( उक्तं च वाक्योंको छोड़कर ) सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका ही अनुवादित संस्कृत रूप है, तिर्यञ्चोंके उन 'चौदह भेदों के विस्तार कथनका कोई पता भी नहीं, जिसका उल्लेख नियमसार की उक्त गाथा में किया गया है । इससे मेरा उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण और भी ज्यादा पुष्ट होता है। इसके सिवाय, दो प्रमाण ऐसे हैं जिनकी मौजूदगी में कुन्दकुन्दका समय शक संवत् ३८० ( वि० सं० ५१५) १. मेरे इस विवेचनरो, जो 'जैनजगत' वर्ष ८ अङ्क ९ के एक पूर्ववती लेखमें प्रथमतः प्रकट हुआ था, डा० ए. एन० उपाध्ये एम० ए० ने प्रवचनसारको प्रस्तावना (पृ. २२, २३ ) में अपनी पूर्ण सहमति व्यक्त की है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ के बादका किसी तरह भी नहीं हो सकता। उनमें एक प्रमाण मर्कराके ताम्रपत्रका था जो शक सं० ३८८ का उत्कीर्ण है और जिसमें देशी गणान्तर्गत कुन्दकुन्दके अन्वय (वंश) में होने वाले गुणचंद्रादि छह श्राचार्योंका गुरु शिष्य क्रमसे उल्ले व है। दूसरा प्रमाण स्वयं कुन्दकुन्दके बोधपाहुडकी 'सद्दवियारोहूत्रो' नामकी गाथा है जिसमें कुन्दकुन्द ने अपने को भद्रबाहुका शिष्य सूचित किया है। प्रथम प्रणामको उपस्थित करते हुए मैंने बतलाया था कि 'यदि मोटे रूपसे गुणचन्द्रादि छह आचार्यों का समय १५० वर्ष ही कल्पना किया जाय; जो कि उस समयकी श्रायु-कायादिकको स्थितिको देखते हुए अधिक नहीं कहा जा सकता, तो कुन्दकुन्दके वंशमें होनेवाले गुणचन्द्रका समय शक संवत् २३८ (वि० सं० ३७३ ) के लगभग ठहरता है। और चूंकि गुणचन्द्राचार्य कुन्दकुन्दके साक्षात् शिष्य या प्रशिष्य नहीं थे बल्कि कुन्दकुन्दके अन्वय (वंश) में हुए हैं और अन्वयके प्रतिष्ठित होने के लिए कम से कम ५० वर्षका समय मान लेना कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसी हालत में कुन्दकुन्दका पिछला समय उक्त ताम्रपत्र परसे २०० ( १५०+५० ) वर्ष पूर्वका तो सहज ही में हो जाता है । इसलिए कहना होगा कि कुन्दकुन्दाचार्य यतिवृषभसे २०० वर्षसे भी अधिक पहले हुए हैं । दूसरे प्रमाणमें गाथाको' उपस्थित करते हुए लिखा था कि इस गाथामें बतलाया है कि 'जिनेन्द्रने भगवान महावीरने-अर्थरूपसे जो कथन किया है वह भाषा सूत्रोंमें शब्द विकारको प्राप्त हुआ है-अनेक प्रकारके शब्दोंमें उसे गूंथा गया है,-भद्रबाहुके कुछ शिष्योंने उन भाषा सूत्रों परसे उसको उसी रूपमें जाना है और (जानकर) कथन किया है।' इससे बोधपाहुडके कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहुके शिष्य मालूम होते हैं । और ये भद्रबाहुश्रुतकेवलीसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु जान पड़ते हैं, जिन्हे प्राचीन ग्रन्थकारोंने 'श्राचाराङ्ग' नामक प्रथम अंगके धारियोंमें तृतीय विद्वान सूचित किया है और जिनका समय जैनकाल गणनाअोंके अनुसार वीर-निर्वाण-संवत् ६१२ अर्थात् वि० सं० १४२ से (भद्रबाहु द्वितीयके समाप्ति कालसे) पहले भले ही हो, परन्तु पीछेका मालूम नहीं होता। क्योंकि श्रतकेवली भद्रबाहके समयमें जिनकथित श्रतमें ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुअा था, जिसे गाथामें 'सद्द वियारो हो भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं' इन शब्दों द्वारा सूचित किया गया है- वह अविच्छिन्न चला अाया था । परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमें वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषासूत्रों में परिवर्तित हो गया था। इसलिए कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी दूसरी शती तो हो सकता है परन्तु तीसरी या तीसरी शती के बादका वह किसी तरह भी नहीं बनता।' १ सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं । सो तह कहियंणायं सीसैणय भद्दाहुस्स ।। ६१ ।। २ जैन कालगणनाओंका विस्तार जाननेके लिए देखो लेखक द्वारा लिखित 'खामी समन्तभद्र' । इतिहास ) का 'समय निर्णय' प्रकरण पृ० १८३ रो तथा 'भ० महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ परन्तु यह विवेचन किसी बद्ध मूल धारणके कारण ग्राह्य नहीं हुआ इसीलिए मर्कराके ताम्रपत्रको कुन्दकुन्दके स्व-निर्धारित समय ( शक सं० ३८० के बाद ) के मानने में "सबसे बड़ी बाधा" स्वीकार करते हुए और यह बतलाते हुए भी कि "तब कुन्दकुन्दका यतिवृषभके बाद मानना असंगत हो जाता है" लिखा गया है “पर इसका समाधान एक तरह हो सकता है और वह यह कि कौण्डकुन्दान्वयका अर्थ हमें कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परा न करके कौण्डकुन्दपुर नामक स्थानसे निकली हुई परम्परा करना चाहिये । जैसे श्रीपुर स्थानकी परम्परा श्रीपुरान्वय, अरुङ्गलकी अरुङ्गलान्वय, कित्तूरकी कित्तूरान्वय, मथुराकी माथुरान्वय, आदि।" परन्तु इस संभावित समाधानकी कल्पनाके समर्थन में एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया है, जिससे 'कुन्दकुन्दपुरान्वय' का कोई स्वतंत्र अस्तित्व जाना जाता अर्थात् एक भी ऐसा उदाहरण नहीं दिया है जिससे यह मालूम होता कि श्रीपुरान्वयकी तरह कुन्दकुन्दपुरान्वय का भी कहीं उल्लेख अाया है अथवा यह मालूम होता कि जहां पद्मनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्दका उल्लेख अाया है वहां उसके पूर्व कुन्दकुन्दान्वयका भी उल्लेख अाया है और उसी कुन्दकुन्दान्वयमें उन पद्मनन्दि कुन्दकुन्दको बतलाया है, जिससे ताम्रपत्रके “कुन्दकुन्दान्यव' का अर्थ 'कुन्दकुन्द पुरान्वय' कर लिया जाता । 'विना समर्थनके केवल कल्पना से काम नहीं चल सकता। वास्तवमें कुन्दकुन्दपुरके नामसे किसी अन्वयके प्रतिष्ठित अथवा प्रचलित होनेका जैन साहित्यमें कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता । प्रत्युत इसके कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय के प्रतिष्ठित और प्रचलित होनेके सैकड़ों उदाहरण शिलालेखों तथा ग्रन्थ प्रशस्तियों में उपलब्ध होते हैं और वह देशादिके भेदसे 'इङ्गलेश्वर' १ आदि अनेक शाखाओं (-बलियों) में विभक्त रहा है । और जहां कहीं कुन्दकुन्दके पूर्वकी गुरुपरम्पराका कुछ उल्लेख देखने में आता है वहां उन्हें गौतमगणधरकी सन्तति में अथवा श्रुतकेवली भद्रबाहुके शिष्य चन्द्रगुप्तके अन्वय (वंश ) में बतलाया है । जिनका कौण्डकुन्दपुरके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं हैं । श्रीकुन्दकुन्द मूलसंघके ( नन्दिसंघ भी जिसका नामान्तर है ) अग्रणी गणी थे और देशीगणका उनके अन्वयसे सम्बन्ध रहा है, ऐसा श्रवणबेलगोलके ५५ (६९) संख्याके शिालालेखके निम्न वाक्योसे जाना जाता हैश्रीमतो वर्द्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने । श्री कोण्डकुन्दनामाऽभून्मूलसङ्घाग्रणी गणी ॥३॥ तस्याऽन्वयेऽजनि ख्याते......देशिके गणे। गुणी देवेन्द्रसैद्धान्तदेवो देवेन्द्रवन्दितः॥४॥ इसलिए मर्कराके ताम्र पत्रमें देशीगणके साथ जो कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख है वह कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वयका ही उल्लेख है कुन्दकुन्दपुरान्वयका नहीं । इससे उक्त कल्पनामें कुछ भी सार मालूम १. सिरि मूलसघ देसियगण पुत्थयगच्छ-कोंडकुदाणं । परमण्ण-इगलेसर-बलिम्मि जादस्स मुणियहाणस्स ।। -भाव त्रिभंगी ११८, परमागमसार २२६ । २. श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०८, Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ नहीं होता। इसके सिवाय, बोधपाहुड की गाथा सम्बन्धी दूसरे प्रमाणका कोई विरोध नहीं किया जाना ही सूचित करता है कि उसका विरोध शक्य नहीं है। दोनों ही अवस्थाओं में कोण्डकुन्दपुरान्वयकी उक्त कल्पना से कोई परिणाम नहीं निकलतर तथा प्रबलतर बाधाकी उपस्थिति होनेके कारण कुन्दकुन्दके समय सम्बन्धी उक्त धारणा टिकती ही नहीं है । नियमसारकी उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए लोयविभागेषु पदको लेकर जो उपर्युक्त दो पत्तियां की थीं उनका भी कोई समुचित समाधान अब तक नहीं मिला है। मूल लेखमें तो प्रायः इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि "बहुवचनका प्रयोग इसलिए भी इष्ट हो सकता है कि लोक-विभाग के अनेक विभागों या अध्यायोंमें उक्तभेद देखने चाहिए ।" परन्तु ग्रन्थकार कुन्दकुन्दाचार्यका यदि ऐसा अभिप्राय होता तो वे 'लोयविभाग विभागेसु" ऐसा पद रखते, तभी उक्त श्राशय घटित हो सकता था, परन्तु ऐसा नहीं है, इसलिए प्रस्तुत पदके 'विभागेसु' पदका आशय यदि ग्रन्थके विभागों या अध्यायका लिया जाता है तो ग्रन्थका नाम 'लोक' रह जाता है - 'लोकविभाग' नहीं - - इससे तो सारी युक्ति ही पलट जाती है, जो 'लोकविभाग' ग्रंथके उल्लेखको मान कर दी गयी है । यद्यपि इसपर उस समय ध्यान नहीं दिया गया तथापि बाद में इसकी निःसारताका भान अवश्य हुआ है जैसा कि परिशिष्टके निम्न भागसे सिद्ध है— 'लोयविभागेसु णादव्वं' पाठ पर जो यह आपत्ति की गयी है कि वह बहुवचनान्त पद है, इसलिए किसी लोकविभाग नामक एक ग्रंथके लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता, सो इसका एक समाधान यह हो सकता है कि पाठको 'लोयविभागेसु णाद' इस प्रकार पढ़ना चाहिये । 'सु' को 'णादव्वं' के साथ मिला देने से एक वचनान्त 'लोयविभागे' ही रह जायगा और अगली क्रिया 'सुणादव्वं ' ( सुज्ञातव्यं हो जायगी । पद्मप्रभने भी शायद इसीलिए उसका अर्थ 'लोकविभागाभिधान परमागमे किया है | इस पर इतना ही निवेदन है कि प्रथम तो मूलका पाठ जब 'लोयविभागेसु यादव्वं' रूपमें स्पष्ट मिल रहा है, टीका में संस्कृत छाया 'लोक विभागेसु ज्ञातव्यः १ से पुष्ट हो रहा है तथा टीकाकार पद्यप्रभने क्रिया पदके साथ 'सु' का सम्यक् आदि कोई अर्थ व्यक्त भी नहीं किया मात्र विशलेषण रहित 'दृष्टव्यः' पदके द्वारा उसका अर्थ व्यक्त किया है, तब मूल पाठकी अपने किसी प्रयोजनके लिए अन्यथा कल्पना करना ठीक नहीं है । दूसरे, यह समाधान तभी कुछ कारगर हो सकता है जब पहले मर्कराके ताम्रपत्र और बोधपाहुड-गाथासन्बन्धी उन दोनों प्रमाणोंका निरसन कर दिया जाय जिनका उपर उल्लेख हुआ है; १ मूल में 'एदेसिं वित्थार' पदोंके अनन्तर 'लोयविभागेसु गादन्य' पर्दोका प्रयोग हैं। शब्द नपुंसकलिंग में भी प्रयुक्त होता है, इसीसे 'विस्तार' पदके साथ 'णादव्व' क्रिया ३३६ चू ंकि प्राकृत में ' वित्थार' का प्रयोग हुआ है । परन्तु . Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ क्योंकि उनका निरसन अथवा प्रतिवाद न हो सकने की हालत में जब कुन्दकुन्दका समय उन प्रमाणों द्वारा विक्रमकी दूसरी शती अथवा उससे पहलेका निश्चित होता है तब 'लोयविभागे' पदकी कल्पना करके उसमें शक सं० ३८० अर्थात् विक्रमकी छठी शतीमें बने हुए लोकविभाग ग्रन्थके उल्लेखकी कल्पना करना कुछ भी अर्थ नहीं रखता। इसके सिवाय मैंने जो यह आपत्ति की थी कि नियमसारकी उक्त गाथा के अनुसार प्रस्तुत लोकविभाग में तिर्यंचोंके चौदह भेदोंका विस्तार के साथ कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है, उसका भले प्रकार प्रतिवाद होना चाहिये अर्थात् लोकविभागमें उस कथन के अस्तित्वको स्पष्ट करके बतलाना चाहिये, जिससे 'लोयविभागे' पदका वाच्य प्रस्तुत लोकविभाग ग्रन्थ समझा जा सके । परन्तु इस बात का कोई ठीक समाधान न करके उसे टाला गया है। इसीसे परिशिष्ट में यह लिखा है कि “लोकविभाग में चतुर्गत-जीव भेदोंका या तियेंचों और देवोंके चौदह और चार भेदोंका विस्तार नहीं है, यह कहना भी विचारणीय है । उसके छठे अध्यायका नामही तिर्यक् लोकविभाग' है और चतुर्विध देवोंका वर्णन भी है । " परन्तु "यह कहना" शब्दों के द्वारा जिस वाक्यको मेरा वाक्य बतलाया गया उसे मैंने कब और कहां कहा है ? मेरी आपत्ति तो तिर्यञ्चोंके चौदह भेदोंके विस्तार कथन तक ही सीमित है, और वह ग्रन्थको देखकर ही की गयी है, फिर उतने अंशों में ही मेरे कथनको न रखकर अतिरिक्त कथन के साथ उसे 'विचारणीय' प्रकट करना, आदि टालना नहीं तो क्या है ? जान पड़ता है कि लेखकको उक्त समाधानकी गहरायी का ज्ञान था - इसलिए उन्होंने परिशिष्ट में ही, एक कदम आगे, समाधानका एक दूसरा रूप अख्तियार किया है। जैसा कि "ऐसा मालूम होता है कि सर्वनन्दिका प्राकृत लोकविभाग बड़ा हो गा । सिंहसूरिने उसका संक्षेप किया है। 'व्याख्यास्यामि समासेन' पदसे वे इस बातको स्पष्ट करते हैं । इसके सिवाय श्रागे 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' से भी यही ध्वनित होता है - संग्रहका भी एक अर्थ संक्षेप होता है । जैसे 'गोम्मट संगह सुत्त' आदि । इसलिए यदि संस्कृत लोकविभाग में तिर्यंचोंके चौदह भेदोंका विस्तार नहीं, तो इससे यह भी तो कहा जा सकता है कि वह मूल प्राकृत ग्रन्थ में रहा होगा, संस्कृत में संक्षेप करनेके कारण नहीं लिखा गया ।" इस श्रंशसे स्पष्ट है । यह समाधान संस्कृत लोकविभाग में तिर्यंचोंके चौदह भेदोंका विस्तार कथन न होनेकी हालत में, अपने बचाव की और नियम सारकी उक्त गाथामें सर्वनन्दिके लोकविभाग-विषयक उल्लेखकी धारणाको बनाये रखने की युक्ति मात्र है । परन्तु “ उपलब्ध लोकविभाग' जो कि संस्कृत में है बहुत प्राचीन नहीं है । प्राचीनता से उसका इतना ही सम्बन्ध है कि वह एक बहुत पुराने शक संवत् ३८० के बने ग्रंथ से हुए अनुवाद किया गया है" अंश द्वारा संस्कृत लोकविभागको सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका अनुवादित - संस्कृत में 'विस्तार' शब्द पुलिंग माना गया है अतः टीका में संस्कृतछाया 'ऐतेषां विस्तारः लोकविभागेषु ज्ञातव्यः' दी गयी है, इसलि 'ज्ञातव्यः' क्रियापद ठीक है। ऊपर जो 'सुज्ञातव्य' रूप दिया है उसके कारण उसे गलत न समझ लेना चाहिये । ४३ ३३७ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ रूप स्वीकार किया जाता है तब किस आधार पर उक्त प्राकृत लोकविभागको 'बड़ा' सोचा जा सकता है ? किस आधार पर यह कल्पना की जाय कि 'व्याख्यास्यामि समासेन' इस वाक्य द्वारा सिंहसूरि स्वयं अपने ग्रन्थ निर्माण की प्रतिज्ञा करते हैं और वह सर्वनन्दीकी ग्रन्थ निर्माण प्रतिज्ञाका अनुवादित रूप नहीं है ? इसी तरह 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' यह वाक्य भी सर्वनन्दीके वाक्यका अनुवादितरूप नहीं है । जब सिंहसूरि स्वतंत्ररूपसे किसी ग्रंथका निर्माण अथवा संग्रह नहीं कर रहे हैं और न किसी ग्रन्थकी व्याख्या ही कर रहे हैं बल्कि एक प्राचीन ग्रन्थका भाषा के परिवर्तन द्वारा (भाषायाः परिवर्तनेन ) अनुवाद मात्र कर रहे हैं तब उनके द्वारा 'व्याख्यास्यामि समासेन' जैसा प्रतिज्ञावाक्य नहीं बन सकता और न श्लोक संख्याको साथ में देता हुआ 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' वाक्य ही बन सकता है। इससे ये दोनों वाक्य मूलकार सर्वनन्दिके ही वाक्योंके अनुवादित रूप जान पड़ते हैं। सिंहसूरिका इस ग्रन्थकी रचनासे केवल इतना ही सम्बन्ध है कि बे भाषा परिवर्तन द्वारा इसके रचयिता हैं - विषयके संकलनादि द्वारा नहीं -- जैसा कि उन्होंने अन्तके चार पद्यों में से प्रथम पद्य में सूचित किया है और ऐसा ही उनकी ग्रन्थ प्रकृति से जाना जाता है। मालूम होता है इन सब बातों पर ध्यान नहीं देकर ही किसी धारणके पीछे युक्तियोंको तोड़-मरोड़ कर समाधान किया गया है। ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दको यतिवृषभके बादका अथवा सम-सामयिक माननेमें कोई बल नहीं है । 'आर्यमक्षु और नागहस्तिका गुणधराचार्यका साक्षात् शिष्य होना' स्वयं स्थिर नहीं है जिसको मूलाधार मानकर और नियमसारकी उक्त गाथामें सर्वनन्दीके लोकविभागकी श्राशा लगाकर ही दूसरे प्रमाणोंका ताना-बाना किया गया था; जो कि नहीं हो सका। प्रत्युत ऊपर जो प्रमाण दिये गये है उनसे यह भले प्रकार फलित होता है कि कुंदकुंद का समय विक्रमकी दूसरी शती तक तो हो सकता है - उसके बादका नहीं, इसलिए छठी शती में होनेवाले यतिवृषभ उनसे कई शती बाद हुए हैं। नयी विचार धारा श्रा० यतिवृषभके समय के विषय में 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकाल श्रादिका विचार" नामक लेख द्वारा नयी मान्यता प्रस्तुत की गयी है, इसके अनुसार वर्तमान तिलोयपण्णत्ती विक्रमकी ९ वीं शती अथवा शक सं० ७३८ ( वि० सं० ८७३ ) से पहलेकी बनी हुई नहीं है और उसके कर्ता भी यतिवृषभ नहीं हैं । इस विचारके समर्थन में पांच प्रमाण प्रस्तुत किये हैं जो लेखकके ही शब्दों में निम्न प्रकार हैं- ( १ ) वर्तमान में लोकको उत्तर और दक्षिण में जो सर्वत्र सात स्थापना धवलादिके कर्ता वीरसेन स्वामीने की हैं-- वीरसेन स्वामीसे पहले १ - जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ११, किरण १ में पं० फूलचन्द्र शात्रीका लेख | ३३८ राजु मानते हैं उसकी वैसी मान्यता नहीं थी । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ वीरसेन स्वामीके समय तक जैन श्राचार्य उपमालोकसे पांच द्रव्यों के आधारभूतलोकको भिन्न मानते थे । जैसा कि राजवार्तिकके दो उल्लेखों से प्रकट है। इनमेंसे प्रथम उल्लेख परसे लोक आठों दिशाओं में समान परिमाणको लिये हुए होनेसे गोल हुआ और उसका परिमाण भी उपमालोकके प्रमाणानुसार ३४३ घनराजु नहीं बैठता, जब कि वीरसेनका इष्ट लोक चौकोर है, वह पूर्व पश्चिमदिशामें ही उक्त क्रमसे घटता है, दक्षिण-उत्तरदिशा ---इन दोनों दिशायोंमें वह सर्वत्र सातराज बना रहता है। इसलिए उसका परिमाण उपमालोकके अनुसार ही ३४३ घनराजु बैठता है और वह प्रमाणमें पेश की हुई दो गाथाओं पर उसे उक्त आकारके साथ भले प्रकार फलित होता है । राजवार्तिकके दूसरे उल्लेखसे उपमालोकका परिमाण ३४३ घनराजु तो फलित होता है, क्योंकि जगश्रेणीका प्रमाण ७ राजु है और ७ का घन ३४३ होता है। यह उपमालोक है परन्तु इससे पांच द्रव्योंके अाधारभूत लोकका श्राकार आठों दिशाओं में उक्त उक्त क्रमसे घटता-बढ़ता हुश्रा 'गोल' फलित नहीं होता। "वीरसेन स्वामीके सामने राजवार्तिक आदिमें बतलाये गये श्राकारके विरुद्ध लोकके श्राकारको सिद्ध करनेके लिए केवल उपर्युक्त दो गथाएं ही थीं । इन्हीके आधारसे वे लोकके श्राकारको भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर सके तथा यह भी कहनेमें समर्थ हो सके कि 'जिन ग्रन्थोंमें लोकका प्रमाण अधोलोकके मूल में सात राजु, मध्यलोकके पास एक राजु, ब्रह्मस्वर्गके पास पांच राजु और लोकाग्रमें एक राजु बतलाया है वह वहां पूर्व और पश्चिम दिशाकी अपेक्षासे बतलाया है । उत्तर और दक्षिण दिशाकी अोर से नहीं। इन दोनों दिशाओंकी अपेक्षा तो लोकका प्रमाण सर्वत्र सात राजु है । यद्यपि इसका विधान करणानुयोगके ग्रंथों में नहीं है तो भी वहां निषेध भी नहीं है अतः लोकको उत्तर और दक्षिणमें सर्वत्र सात राजु मानना चाहिये।' वर्तमान तिलोयपण्णत्ती की ९१, १३६ तया १४६ गाथाएं वीरसेन स्वामीके उस मतका अनुसरण करती हैं जिसे उन्होंने 'मुहतल समास' इत्यादि दो गाथाओं और युक्तिसे स्थिर किया है। इन गाथाओंमें पांच द्रव्योंसे व्याप्त लोकाकाशको जगश्रेणीके घन प्रमाण बतलाया है। साथ १ "अधःलोक मूले ...... षट सप्तभागाः।" (अ० १ सू० १० टीका) 'ततोऽसंख्यान् . . . . . घनलोकः ।" (अ० ३, सू० ३८ टीका ) २ “मुहतलसमास ..... खेत्ते ।" तथा "मूलं मज्झेण ...... खेत्तम्मि " (धवला क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २०) ३. 'णच तश्याए. गाहाएसह विरोहो, एत्थवि दोसुं दिसासु चउविहविक्खंभदसणादो ।'-धवला क्षेत्रा नुयोगद्वार पृ. २१ । ४. 'णच सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्त-विरुद्धं, तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो ।'-धवला क्षेत्रानु योगद्वार पृ. २२। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- श्रभिनन्दन ग्रन्थ ही, लोक-प्रमाण दक्षिण उत्तर दिशामें सर्वत्र जगश्रेणी जितना अर्थात् सात राजु और पूर्व-पश्चिम दिशा में अधोलोकके पास सात राजु, मध्य लोकके पास एक राजु, ब्रह्मलोक के पास पांच राजु और लोकाग्रमें एक राजु है, ऐसा सूचित किया है। इसके सिवाय, तिलोयपण्णत्तीका पहला महाधिकार सामान्य लोक, अधोलोक व ऊर्ध्व लोकके विविध प्रकारसे निकाले गये घनफलों से भरा पड़ा है जिससे वीरसेन त्वामी की मान्यता की ही पुष्टि होती है ।' तिलोयपण्णत्तीका यह अंश यदि वीरसेनस्वामी के सामने मौजूद होता तो "वे इसका प्रमाण रूपसे उल्लेख नहीं करते यह कभी संभव नहीं था । " चूंकि वीरसेनने तिलोयपण्णत्ती की उक्त गाथाएं अथवा दूसरा अंश धवला में अपने विचार के अवसर पर प्रमाण रूपसे उपस्थित नहीं किया श्रतः उनके सामने जो 'तिलोयपण्णत्ती थी और जिसके अनेक प्रमाण उन्होंने धवला में उद्धृत किये हैं वह वर्तमान तिलोयपण्णत्ती नहीं थी - इससे भिन्न दूसरी ही तिलोयपण्णत्ती होनी चाहिये, यह निश्चित होता है । (२) “तिलोपण्यत्ति में पहले अधिकारकी सातवीं गाथा से लेकर सतासीवीं गाथा तक ८१ गाथाओं में मंगल श्रादि छह अधिकारों का वर्णन है यह पूराका पूरा वर्णन संतपरूवणाकी धवलाटीका में श्राये हुए वर्णन से मिलता हुआ है । ये छह अधिकार तिलोयपण्णत्ति में अन्यत्र से संग्रह किये ये हैं इस बातका उल्लेख स्वयं तिलोयपण्णत्तिकारने पहले अधिकारकी ८५ वीं गाथामें किया है तथा धबलामें इन छह अधिकारोंका वर्णन करते समय जितनी गाथाएं या श्लोक उद्धृत किये गए हैं वे सब अन्यत्र से लिये गये हैं तिलोयपण्णत्तीसे नहीं; इससे मालूम होता है कि तिलोयपण्णत्तिकार के सामने धवला श्रवश्य रही है ।" ( दोनों ग्रंथोंके कुछ समान उद्धरणों के अनंतर ) ' इसी प्रकारके पचासों उद्धरण दिये जा सकते हैं जिनसे यह जाना जा सकता है कि एक ग्रंथ लिखते समय दूसरा ग्रन्थ अवश्य सामने रहा है । यहां एक विशेषता और है कि धवला में जो गाथा या श्लोक अन्यत्र से उद्धृत हैं तिलोयपण्णत्ति में वे भी मूल में शामिल कर लिये गये हैं । इससे तो यही ज्ञात होता है कि तिलोयपण्णत्ती लिखते समय लेखकके सामने घवला अवश्य रही है । ( ३ ) 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक इन ( भट्टाकलंकदेव ) की मौलिक कृति है जो लवीयस्त्रयके छठे अध्याय में श्राया है । तिलोयपण्णत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा। लघोयस्त्रय में जहां यह श्लोक श्राया है वहांसे इसके अलग कर देनेपर प्रकरण ही अधूरा रह जाता है। पर तिलोयपण्णत्ति में इसके परिवर्तित रूपकी स्थिति ऐसे स्थल पर है कि यदि वहां से उसे अलग भी कर दिया जाय तो भी एकरूपता बनी रहती है । वीरसेनस्वामीने घवलामें उक्त श्लोकको उद्धृत किया है। तिलोयपयत्तिको देखने से ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपण्यत्तिकारने इसे लघीयस्त्रयसे न लेकर धवलासे ही १. तिलोय पण्णत्तिके पहले अधिकारकी गाथाएं २१५ से २५१ तक । १. मंगल पहुदिछक्क वक्खाणिय विविध गन्धजुत्तीहिं । ३४० Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ लिया है क्योंकि धवलामें इसके साथ जो एक दूसरा श्लोक उद्धत है उसे भी उसी क्रमसे तिलोयपण्णत्तिकारने अपना लिया है। इससे भी यही प्रतीत होता है कि तिलोयपण्णत्तिकी रचना धवलाके बाद हुई है। (४) "धवला द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारके पृष्ठ ३६ में तिलोयपण्णत्तिका 'दुगुण दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगोत्ति' । गाथांश उद्धृत किया है। वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें इसकी पर्याप्त खोज की, किंतु उसमें वह नहीं मिला । हां, “चंदाइच्च गहेहिं...इत्यादि' गाथा स्पर्शानुयोगद्वारमें उद्धृत है ! किन्तु वहां यह नहीं बतलाया कि यह कहां की है। मालूम पड़ता है कि उक्त गथांश इसीका परिवर्तित रूप है। वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें इसका न पाया जाना यह सिद्ध करता है कि यह तिलोयपण्णत्ति उससे भिन्न है।" (५) तिलोयपण्णत्तिमें यत्र तत्र गद्यभाग भी पाया जाता है। इसका बहुत कुछ अंश धवलामें आये हुए इस विषयके गद्य भागसे मिलता हुआ है। अतः यह शंका होना स्वाभाविक है कि इस गद्यभागका पूर्ववर्ती लेखक कौन रहा होगा । इस शंकाके दूर करनेके लिए 'एसा तप्पाअोग्गसंखेज्जरूवाहिय जंबूदोवछेदणयसहिद दीवसायररूपमेत्त रज्जुच्छेदपमाण परिक्खाविही ण अण्णाइरिअोवएस परंपराणुसारिणो केवलं तु तिलोयपण्णत्ति सुत्ताणुसारि जोदिसियदेव भागहार पदुप्पाहद-सुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाहणट्टमम्हेहि परूविदा ।' गद्यांशसे बड़ी सहायता मिलती है। यह गद्यांश धवला स्पर्शानुयोगद्वार पृ० १५७ का है। तिलोयपण्णत्तीमें यह इसी प्रकार पाया जाता है। अन्तर केवल इतना है कि वहां 'अम्हेहि' के स्थानमें 'ऐसापरूवणा' पाठ है। पर विचार करनेसे यह पाठ अशुद्ध प्रतोत हाता है; क्योंकि ऐसा पद गद्यके प्रारम्भमें ही पाया है अतः पुनः उसी पदके देनेको आवश्यकता नहीं रहती। तथा 'परिक्खाविही' यह पद विशेष्य है; अतः 'परूवणा' पद भी निष्फल हो जाता है । ( गद्यांशका भाव देनेके अनन्तर ) "इस गद्यभागसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त गद्यभागमें एक राजुके जितने अर्धछेद बतलाये हैं वे तिलोयपण्णत्तिमें नहीं बतलाये गये हैं किन्तु तिलोयपण्णत्तिमें जो ज्योतिषीदेवोंके भागहारका कथन करने वाला सूत्र है उसके बलसे सिद्ध किये गये हैं । अब यदि यह गद्यभाग तिलोयपण्णत्तिका होता तो उसोमें 'तिलोयपण्णत्तिसुत्तानुसारि' पद देनेकी और उसीके किसो एक सूत्रके बलपर राजुकी चालू मान्यतासे संख्यात अधिक अर्धछेद सिद्ध करनेकी क्या आवश्यकता थी। इससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह गद्यभाग धवलासे तिलोयपण्णत्तिमें लिया गया है । नहीं तो वीरसेनस्वामी जोर देकर 'हमने यह परीक्षाविधि कही है' यह न कहते । कोई भा मनुष्य अपनी युक्तिको ही अपनी कहता है । उक्त गद्यभागमें आया हुआ 'अम्हेहि' पद साफ बतला रहा है कि यह युक्ति वीरसेनस्वामीकी है। इस प्रकार इस गद्यभागसे भी यही सिद्ध होता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ति की रचना धवलाके अनन्तर हुई है। इन पांचों प्रमाणोंको देकर कहा गया है-"धवलाकी समाप्ति चूंकि शक संवत् ७३८ में ३४१ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धो-अभिनन्दन-ग्रन्थं हुई थी इसलिए वर्तमान तिलोयपण्णत्ति उससे पहलेकी बनी हुई नहीं है और चूंकि त्रिलोकसार इसी सिलोयपण्णत्तिके अाधारपर बना हुआ है और उसके रचयिता सि० चक्रवर्ती नेमिचन्द्र शक संवत् ९०० के लगभग हुए हैं, इसलिए ग्रन्थ शक सं० ९०० के बादका बना हुश्रा नहीं है फलतः इस तिलोयपण्णतिकी रचना शक सं० ७३८ से लेकर ९०० के मध्यमें हुई है । अतः इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालतमें नहीं हो सकते । इसके रचयिता संभवतः वीरसेनके शिष्य जिनसेन हैं-वे ही होने चाहिये, क्योंकि एक तो वीरसेन स्वामीके साहित्यकार्यसे ये अच्छी तरह परिचित थे। तथा उनके शेष कार्यको इन्होंने पूरा भी किया है । संभव है उन शेष कार्योंमें उस समयकी आवश्यकतानुसार तिलोयपण्णत्तिका संकलन भी एक कार्य हो । दूसरे वीरसेन स्वामीने प्राचीन साहित्य के संकलन, संशोधन और सम्पादनकी जो दिशा निश्चित की थी वर्तमान तिलोयपण्णत्तिका संकलन भी उसीके अनुसार हुआ है । तथा सम्पादनकी इस दिशासे परिचित जिनसेन ही थे । इसके सिवाय, 'जयधवलाके जिस भागके लेखक आचार्य जिनसेन हैं उसकी एक गाथा ('पणमह जिणवरवसह' नामकी) कुछ परिवर्तनके साथ तिलोयपण्णत्तिके अन्तमें पायी जाती है। इससे तथा उक्त गद्यमें 'अम्हेहि पदके न होनेके कारण वीरसेनस्वामी वर्तमान तिलोयपण्णतिके कर्ता मालूम नहीं होते । उनके सामने जो तिलोयपण्णत्ति थी वह संभवतः यतिवृषभ श्राचार्यकी रही होगी।' 'वर्तमान तिलोयपण्णत्तिके अन्तमें पायी जाने वाली उक्त गाथा ('पणमह जिणवरवसहं') में जो मौलिक परिवर्तन दिखायी देता है वह कुछ अर्थ अवश्य रखता है । और उस परसे, सुझाये हुए 'अरिसवसहं' पाठके अनुसार, यह अनुमानित होता; एवं सूचना मिलती है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिके पहले एक दूसरी तिलोयपण्णत्ति आर्ष ग्रन्थके रूपमें थी, जिसके कर्ता यतिवृषभ स्थविर थे और उसे देखकर इस तिलोयपण्णत्तिकी रचना की गयी है।' उक्त प्रमाणोंकी परीक्षा (१) प्रथम प्रमाणकी भूमिकासे इतना ही फलित होता है कि 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ती वीरसेन स्वामीसे बादकी बनी हुई है और उस तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न है जो वीरसेनस्वामी के सामने मौजूद थी; क्योंकि इसमें लोकके उत्तर दक्षिणमें सर्वत्र सातराजुकी उस मान्यताको अपनाया गया है और उसीका अनुसरण करते हुए घनफलोंको निकाला गया है जिसके संस्थापक वीरसेन हैं । वीरसेन इस मान्यताके संस्थापक इसलिए हैं कि उनसे पहले इस मान्यताका कोई अस्तित्व नहीं था, उनके समय तक सभी जैनाचार्य ३४३ धनराजुवाले उपमालोक (प्रमाणलोक ) से पांच द्रव्योंके अाधारभूत लोकको भिन्न मानते थे । यदि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती वीरसेनके सामने मौजूद होती अयवा जो तिलोयपण्णत्ती वीरसेनके सामने मौजूद थी उसमें उक्त मान्यताका कोई उल्लेख अथवा संसूचन होता तो यह ३४२ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ श्रसम्भव था कि वीरसेनस्वामी उसका प्रमाणरूपमें उल्लेख न करते। उल्लेख न करनेसे ही दोनोंका अभाव जाना जाता है ।' अब देखना यह है कि क्या वीरसेन सचमुच ही उक्त मान्यताके संस्थापक हैं और उन्होंने कहीं अपनेको उसका संस्थापक या आविष्कारक कहा है ? धवला टीकाके उल्लिखित स्थलको देख जानेसे वैसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता। वहां वीरसेनने क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके 'श्रोघेण मिच्छा दिट्ठी केवड़िखेत्ते, सव्वलोगे' इस द्वितीय सूत्रमें स्थित 'लोगे' पदकी व्याख्या करते हुए बतलाया है कि यहांके 'लोग' से सात राजुका घनरूप ( ३४३ घनराजु प्रमाण ) लोक ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि यहां क्षेत्र प्रमाणाधिकारमें पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, लोकप्रतर और लोक ऐसे आठ प्रमाण क्रमसे माने गये हैं । इससे यहां प्रमाणलोकका ही ग्रहण हैजो कि सातराजु प्रमाण जगश्रेणीके घनरूप होता है। इसपर किसीने शंका की कि यदि ऐसा लोक ग्रहण किया जाता है तो फिर · पांच द्रव्योंके अाधारभूत श्राकाशका ग्रहण नहीं बनता; क्योंकि उसमें सातराजुके घनरूप क्षेत्रका अभाव है । यदि उसका क्षेत्र भी सातराजुके घनरूप माना जाता है तो 'हेट्रा मज्झ उवरि' 'लोगो अकट्टिमो खल' और 'लोयस्स विक्खंभो चउप्पयारो' ये तीन सूत्र गाथाएं अप्रमाणताको प्राप्त होती हैं । इस शंकाका परिहार ( समाधान ) करते हुए वीरसेनस्वामीने पुनः बतलाया है कि यहां 'लोगे' पदमें पंचद्रव्योंके श्राधाररूप श्राकाशका ही ग्रहण है. अन्यका नहीं। क्योंकि 'लोगपूरणगदो केवली केवडिखेते, सव्व लोगे' [ लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त केवली कितने क्षेत्रमें रहता है ? सर्वलोकमें रहता है ] ऐसा सूत्रवचन पाया जाता है। यदि लोक सातराजुके घनप्रमाण नहीं है तो यह कहना चाहिये कि लोकपूरण-समुद्घातको प्राप्त हुआ केवली लोकके संख्यातवें भागमें रहता है । और शंकाकार जिनका अनुयायी है उन दूसरे प्राचार्यों के द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोकको प्रमाणको दृष्टिसे लोकपूरण-समुदघात-गत केवलीका लोकके संख्यातवें भागमें रहना प्रसिद्ध भी नहीं है; क्योंकि गणना करने पर मृदंगाकार लोकका प्रमाण घनलोकके संख्यातवें भाग हा उपलब्ध होता है। इसके अनन्तर गणित द्वारा घनलोकके संख्यातवें भागको सिद्ध घोषित करके, वीरसेन स्वामीने इतना और बतलाया है कि 'इस पंचद्रव्योंके अाधाररूप अाकाशसे अतिरिक्त दूसरा सात . राजु घनप्रमाण लोक-संज्ञक कोई क्षेत्र नहीं है, जिससे प्रमाण लोक [ उपमालोक ] छह द्रव्योंके समुदयरूपलोकसे भिन्न होवे । और न लोकाकाश तथा अलोकाकाश दोनोंमें स्थित सातराजु घनमात्र श्राकाशप्रदेशोंकी प्रमाणरूपसे स्वीकृत घनलोक संज्ञा है। ऐसी संज्ञा स्वीकार करने पर लोक संज्ञाके यादृच्छिकपनेका प्रसंग आता है और तब संपूर्ण आकाश, जगश्रेणी, जगप्रतर और घनलोक जैसी संज्ञाओंके यादृच्छिकपनेका प्रसंग उपस्थित होगा। [ इससे सारी व्ववस्था ही बिगड़ जाय गी।] इसके सिवाय, प्रमाणलोक और षद्रव्योंके समुदायरूपलोकको भिन्न मानने पर प्रतरगत केवलीके क्षेत्रका ३४३ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ निरूपण करते हुए जो कहा गया है कि 'वह केवली लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्वलोकमें रहता है। और लोकके असंख्यातवें भागसे न्यून सर्वलोकका प्रमाण ऊर्ध्वलोकके कुछ कम तीसरे भागसे अधिक दो ऊर्ध्वलोक प्रमाण है । वह नहीं बनता । और इसलिये दोनों लोकोंकी एकता सिद्ध होती है। अतः प्रमाणलोक [ उपमालोक ] श्राकाश-प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा छहद्रव्योंके समुदायरूप लोकके समान है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये । इकके बाद यह शंका होने पर कि, 'किस प्रकार पिण्ड [घन ] रूप किया लोक सःतराजुके घन प्रमाण होता है ?, वीरसेनस्वामीने उत्तरमें बतलाया है कि 'लोक सम्पूर्ण श्राकाशके मध्यभागमें स्थित हैं । चौदह राजु अायाम वाला है , दोनों दिशाओंके अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशाके मूल; अर्धभाग, त्रिचतुर्भाग और चरमभागमें क्रमसे सात, एक, पांच और एक राजु विस्तार वाला है तथा सर्वत्र सातराजु मोटा है, वृद्धि और हानिके द्वारा उसके दोनों प्रान्तभाग स्थित हैं, चौदह राजु लम्बी एक राजुके वर्ग प्रमाण मुखवाली लोकनाली उसके गर्भ में है, ऐसा यह पिण्डरूप किया गया लोक सातराजुके घनप्रमाण अर्थात् ७xx७ = ३४३ राजु होता है । यदि लोकको ऐसा नहीं माना जाता है तो प्रतर-समुद्घात गत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ जो 'मुहतल-समास-श्रद्धं' और 'मूलं मज्झेण गुणं' नामकी दो गाथाएं कही गयी हैं वे निरर्थक हो जायं गी; क्योंकि उनमें कहा गया घनफल लोकको अन्यप्रकारसे मानने पर संभव नहीं है। साथ ही यह, भी बतलाया है कि इस [ उपर्युक्त आकारवाले ] लोकका शंकाकारके द्वारा प्रस्तुत की गयी प्रथम गाथा [ 'हेहा मज्झे उवरिं वेत्तासन झल्लरी मुइंग णिभो' ] के साथ विरोध नहीं है। क्योंकि एक दिशामें लोक वेत्रासन और मृदंगके श्राकार दिखायी देता है, और ऐसा नहीं कि उसमें झल्लरीका श्राकार न हो; क्योंकि मध्यलोकमें स्वयंभूरमण समुद्रसे परिक्षिप्त तथा चारों ओरसे असंख्यात योजन विस्तारवाला और एक लाख योजन मोटाई वाला यह मध्यवर्ती देश चन्द्रमण्डलकी तरह झल्लरीके समान दिखायी देता है। और दृष्टान्त सर्वथा दार्टान्तके समान होता नहीं, अन्यथा दोनोंके ही अभावका प्रसंग पा जायगा। ऐसा भी नहीं कि [द्वितीय सूत्रगाथामें बतलाया हुश्रा ] तालवृक्षके समान श्राकार इसमें असम्भव है, क्योंकि एक दिशासे देखने पर तालवक्षके समान आकार दिखायी देता है! और तीसरी गाथा [ लोयस्म विक्खंभो चउप्पयारो] के साथ भी विरोध नहीं है। क्योंकि यहां पर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशात्रोंमें गाथोक्त चारों ही प्रकारके विष्कम्भ दिखायी देते हैं। सातराजुकी मोटाई 'करणानुयोग सूत्रके विरुद्ध नहीं है; क्योंकि उस सूत्रमें उसकी यदि विधि नहीं है तो प्रतिषेध भी नहीं है-विधि और प्रतिषेध दोनोंका अभाव है। और इसलिए लोकको उपयुक्त प्रकारका ही ग्रहण करना चाहिये ।' १ 'पदरगदा केवली केडि खेत्ते, लोंगे असंखेज्जदि भागूणे उठलोगेन दुवे ।उहृलोगा उद्दलोंगस्सतिभागेण देसूणेग सादरेगा। ३४४ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ यह सब धवल का वह कथन है जो प्रथम प्रमाणका मूल आधार है और जिसमे राजवार्तिकका कोई उल्लेख भी नहीं है। इसमें कहीं भी न तो यह निर्दिष्ट है और न इससे फलित ही होता है कि वीरसेनस्वामी लोकके उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सातराजु मोटाई वाली मान्यता के संस्थापक हैंउनसे पहले दूसरा कोई भी श्राचार्य इस मान्यताको माननेवाला नहीं था अथवा नहीं हुआ है । प्रत्युत इसके, यह साफ जाना जाता है कि वीरसेनने कुछ लोगोंकी गलतीका समाधान मात्र किया है— स्वयं कोई नयी स्थापना नहीं की। इसी तरह यह भी फलित नहीं होता कि वीरसेन के सामने ' महतलसमासश्रद्धं' और 'मूलं मज्झेण गुणं' नामकी दो गाथाओं के सिवाय दूसरा कोई भी प्रमाण उक्त मान्यताको स्पष्ट करनेके लिए नहीं था क्योंकि प्रकरणको देखते हुए 'अण्णाइरियपरूविद मुदिंगायार लोगस्स' पदमें प्रयुक्त हुए 'अण्णाइरिय' [ अन्याचार्य ] शब्द से उन दूसरे श्रचायका ही ग्रहण किया जा सकता है जिनके मतका शंकाकार अनुयायी था अथवा जिनके उपदेशको पाकर शंकाकार उक्त शंका करनेके लिए प्रस्तुत हुआ था, न कि उन श्राचार्यों का जिनके अनुयायी स्वयं वीरसेन थे और जिनके अनुसार कथन करनेकी अपनी प्रवृत्तिका वीरसेनने जगह जगह उल्लेख किया है। इस क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके मंगलाचरण में भी वे 'खेत्तसुतं जहोवएसं पयासेमो' इस वाक्यके द्वारा यथोपदेश [ पूर्वाचार्योंके उपदेशानुसार ] क्षेत्रसूत्रको प्रकाशित करनेकी प्रतिज्ञा कर रहे हैं । दूसरे जिन दो गाथाओंको वीरसेनने उपस्थित किया है उनसे जब उक्त मान्यता फलित एवं स्पष्ट होती है तब वीरसेनको उक्त मान्यताका संस्थापक कैसे कहा जा सकता है ? -- स्पष्ट ही वह उक्त गाथानोंसे भी पहले की लगती है । और इससे तिलोयपण्णत्तोक वीरसेनसे बादकी बनी हुई कहने में जो प्रधान कारण था वह स्थिर नहीं रहता। तीसरे, वीरसेनजे 'मुहतल समासश्रद्धं' आदि उक्त दोनों गाथाएं शंकाकार को लक्ष्य करके ही प्रस्तुत की हैं और वे संभवतः उसी ग्रन्थ अथवा शंकाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थकी ही जान पड़ती हैं जिससे तीन सूत्रगाथाएं शंकाकारने उपस्थित की थीं, इसीसे वीरसेनने उन्हे लोकका दूसरा आकार मानने पर निरर्थक बतलाया है । और इस तरह शंकाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थके वाक्योंसे ही उसे निरुत्तर कर दिया है । अन्तमें जब उसने करणानुयोगसूत्र के विरोधकी बात उठायी है अर्थात् ऐसा संकेत किया है कि उस ग्रंथ में सातराजु मोटाईकी कोई स्पष्ट विधि नहीं है तो वीरसेनने साफ उत्तर दे दिया है कि वहां उसकी विधि नहीं तो निषेध भी नहीं है— विधि और निषेध दोनोंके अभाव से विरोध के लिए कोई अवकाश नहीं रहता । इस विवक्षित करणानुयोग सूत्रका अर्थ करणानुयोग विषय के समस्त ग्रन्थ तथा प्रकरण समझ लेना युक्तियुक्त नहीं है । वह 'लोकानुयोग' की तरह जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि और लोकविभाग में भी पाया जाता है? एक जुदाही ग्रंथ होना चाहिये | ऐसी १ " इतरो विशेषो लोकानुयोगतः वेदितव्यः " ( ३–२ ) सर्वार्थ० "विन्दुमात्र मिदं शेष ग्राह्यं लोकानुयोगतः” ( ७ -- ९८ ) लोकविभाग । ४४ ३४५ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ स्थितिमें वीरसेनके सामने लोकके स्वरूपके सम्बन्धमें मान्य ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण मौजूद होते हुए भी उन्हें पेश [ उपस्थित ] करनेकी जरूरत नहीं थी और न किसीके लिए यह लाजिमी है कि जितने प्रमाण उसके पास हों वह उन सबको उपस्थित ही करे-वह जिन्हें प्रसंगानुसार उपयुक्त और जरूरी समझता है उन्हींको उपस्थित करता है और एक ही श्राशयके यदि अनेक प्रमाण हों तो उनमें से चाहे जिसको अथवा अधिक प्राचीनको उपस्थित कर देना काफी होता है। उदाहरण के लिए 'मुहतल समास अद्धं' नामकी गाथासे मिलती जुलती और उसी श्राशयकी एक गाथा तिलोयपण्णत्तीमें 'मुहभूमि समासद्धिय गुणिदं तुंगेन तहयवेधेण । घण गणिदं णादव्वं वेत्तासण-सरिणए खेत्ते ॥ १६५ ॥ रूपमें पायी जाती है । इस गाथाको उपस्थित न करके यदि वीरसेनने 'मुहतल समास अद्धं' नामकी उस गाथाको उपस्थित किया जो शंकाकारके मान्य सूत्र ग्रन्थकी थी तो उन्होंने वह प्रसंगानुसार उचित ही किया। उस परसे यह नहीं कहा जा सकता कि वीरसेनके सामने तिलोयपण्णत्तीकी यह गाथा नहीं थी, होती तो वे इसे जरूर पेश करते। क्योंकि शंकाकार मूलसूत्रों के व्याख्यानादि रूपमें स्वतंत्र रूपसे प्रस्तुत किये गये तिलोयपण्णत्ती जैसे ग्रंथोंको माननेवाला मालूम नहीं होता-माननेवाला होता तो वैसी शंका ही न करता-वह तो कुछ प्राचीन मूलसूत्रोंका ही पक्षपाती जान पड़ता है और उन्हीं परसे सब कुछ फलित करना चाहता है । उसे वीरसेनने मूलसूत्रोंकी कुछ दृष्टि बतलायी है और उसके द्वारा पेश की हुई सूत्रगाथाओंकी अपने कथनके साथ संगति बैठायी है। इसलिए अपने द्वारा सविशेष रूपसे मान्य ग्रन्थोंके प्रमाणोंको पेश करनेका वहां प्रसंग ही नहीं था। उनके आधार पर तो वे अपना सारा विवेचन अथवा व्याख्यान लिख ही रहे थे । स्वतंत्र दो प्रमाण इनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीरसेनकी धवला कृतिसे पूर्व अथवा शक सं० ७३८से पहले छह द्रव्योंका आधारभूत लोक,जो अधः, ऊर्ध्व तथा मध्यभागमें क्रमशः वेत्राशन,मृदंग तथा झल्लरीके सदृश श्राकृति को लिये हुए है अथवा डेढ मृदंग जैसे श्राकार वाला है उसे चौकोर (चतुरस्रक) माना है, उसके मूल, मध्य, ब्रह्मान्त और लोकान्तमें जो क्रमशः सात, एक, पांच तथा एक राजुका विस्तार बतलाया गया है वह पूर्व और पश्चिम दिशाको अपेक्षासे सर्वत्र सात राजुका प्रमाण माना गया है और सात राजुके घन प्रमाण है (क) कालः पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपञ्चा इहाऽखिलाः। लोक्यंते येन तेनाऽयं लोक इत्यभिलप्यते ॥४-५॥ वेत्रासन-मृदंगोरु झल्लरी-सदृशाऽऽकृतिः। अधश्चोर्ध्व च तिर्यक्च यथायोगमिति त्रिधा ॥ ४-६॥ ३४६ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ मुर्जार्धमधोभागे तस्योर्ध्वं मुरजो यथा। आकारास्तस्य लोकस्य किन्त्वेष चतुरस्रकः ॥ ७॥ ये हरिवंश पुराणके वाक्य हैं जो शक सं० ७०५ ( वि० सं० ८४० ) में बनकर समाप्त हुश्रा है । इनमें उक्त श्राकृतिवाले छह द्रव्योंके आधारभूत लोकको चौकोर (चतुरस्रक ) बतलाया है-गोल नहीं, जिसे लम्बा चौकोर समझना चाहिये । (ख) सत्तेक्कु पंचइक्का मूले मज्झे तहेव बंभंते । लोयंते रज्जूश्रो पुवावरदो य वित्थारो ॥ ११८ ॥ दक्खिण-उत्तरदो पुण सत्त विरज्जू हवेदि सव्वत्थ । उड्ढो चउदसरज्जू सत्तवि रज्जू घणो लोश्रो ॥ ११६ ॥ ये स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाएं हैं, जो एक बहुत प्राचीन ग्रन्थ है और वीरसेनसे कई शती पहले बना है । इनमें लोकके पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिणके राजुत्रोंका उक्त प्रमाण बहुत ही सष्ट शब्दोंमें दिया हुआ है और लोकको चौदह राजु ऊंचा तथा सात राजूके घनरूप (३४३ राजु ) भी बतलाया है। इन प्रमाणोंके सिवाय जम्बूद्वीपप्रज्ञाप्तिकी पश्चिम-पुत्व दिसाए विक्खभो होय तस्स लोगस्स । सत्तेग पच-एया मूलादो होति रज्जूणि ॥४-१६ ।। दक्षिण-उत्तरदो पुण विक्खंभो होय सत्तरज्जूणि। चदुसु विदिसासु भागे चउदस रज्जूणि उत्तुंगो ॥४-१७॥ इन दो गाथाश्रोंमें लोककी पूर्व-पश्चिम और उत्तर दक्षिण चौड़ाई-मोटाई तथा ऊंचाईका परिमाण स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथात्रोंके अनुरूप ही दिया है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति एक प्राचीन ग्रन्थ है और उन पद्मनन्दी प्राचार्यकी कृति है जो बलनन्दीके शिष्य तथा वीरनन्दीके प्रशिष्य थे और आगमोदेशक महासत्व श्रीविजय भी जिनके गुरु थे । श्रीविजय गुरुसे सुपरिशुद्ध श्रागमको सुन कर तथा जिन वचन विनिर्गत अमतभूत अर्थ पदको धारण करके उन्हींके माहात्म्य अथवा प्रसादसे उन्होंने यह ग्रन्थ उ श्रीनन्दी मुनिके निमित्त रचा है जो माघनन्दी मुनिके शिष्य अथवा प्रशिष्य (सकलचन्द्र' शिष्यके शिष्य ) थे, ऐसा ग्रन्थकी प्रशस्तिसे जाना जाता है। बहुत संभव है कि ये श्रीविजय वे ही हों जिनका दूसरा नाम 'अपराजित-सू रि' था जिन्होंने श्रीनन्दीकी प्रेरणाको पाकर भगवती-अाराधना पर 'विजयोदया' नामको टीका लिखी है और जो बलदेव-सूरिके शिष्य तथा चन्द्रनन्दीके प्रशिष्य थे । और यह भी संभव है कि उनके प्रगुरु चन्द्रनन्दी वे ही हों जिनकी एक शिष्य परम्पराका उल्लेख श्रीपुरुषके दानपत्र अथवा १. सकलचन्द्र शिष्यके नामोल्लेखवाली गाथा आमेरकी वि० सं० १५१८ की प्राचीन प्रतिमें नहीं है बादकी कुछ प्रतियों में है, इसीसे श्रीनन्दीके विषयमें माघनन्दीके प्रशिध्य होनेकी भी कल्पनाकी गयी है। ३४७ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षी-अभिनन्दन-ग्रन्थ 'नागमंगल' ताम्रपत्रमें पाया जाता है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिए शक स० ६९८ (वि० सं० ८३३ ) में लिखा गया है और जिसमें चन्द्रनन्दीके एक शिष्य कुमारनन्दी, कुमारनन्दीके शिष्य कीर्तिनन्दी और कीर्तिनन्दीके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् ६३८ से कुछ पहलेका हो जान पड़ता है । यदि यह कल्पना ठीक है तो श्रीविजयका समय शक संवत् ६५८ के लगभग प्रारंभ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका समय शक सं० ६७० अर्थात् वि० सं० ८०५ के श्रास पासका होना चाहिये । ऐसी स्थितिमें जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकी रचना भी धवलासे पहलेकी-६८ वर्ष पूर्वकी-ठहरती है। ऐसी हालतमें यह लिखना कि 'वोरसेन स्वामीके सामने राजवार्तिक आदिमें बतलाये गये अाकारके विरुद्ध लोकके श्राकारको सिद्ध करनेके लिए केवल उपर्युक्त दो गाथाएं ही थीं । इन्हीं के आधार पर वे लोकके श्राकारको भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर सके तथा यह भी कहनेमें समर्थ हुए... इत्यादि' संगत नहीं मालूम होता। और न इस श्राधारपर तिलोयपण्णत्तीको वीरसेनसे बादकी बनी हुई अथवा उनके मतका अनुसरण करनेवाली बतलाना ही सिद्ध किया जा सकता है । वीरसेनके सामने तो उस विषयके न मालूम कितने ग्रंथ थे जिनके आधार पर उन्होंने अपने व्याख्यानादिको उसी तरह सृष्टि की है जिस तरह कि अकलंक और विद्यानन्दादिने अपने राजवार्तिक श्लोकवार्तिकादि ग्रन्थों में अनेक विषयोंका वर्णन और विवेचन बहुतसे ग्रंथोंके नामोल्लेखके विना भी किया है । (२) द्वितीय प्रमाणको उपस्थित करते हुए यह तो बतलाया गया है कि 'तिलोयपण्णत्तीके प्रथम अधिकारकी सातवी गाथासे लेकर सतासीवीं गाथा तक इक्यासी गाथाओंमें मंगल आदि छह अधिकारोंका जो वर्णन है वह पूरा का पूरा वर्णन संतपरूवणाको धवलाटीकामें आये हुए वर्णनसे मिलता जुलता है।' साथ हो इस सादृश्य परसे यह भी फलित करके बतलाया कि 'एक ग्रन्थ लिखते समय दूसरा ग्रन्थ अवश्य सामने रहा है।' परन्तु 'धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती नहीं रही, धवलामें उन छह अधिकारोंका वर्णन करते हुए जो गाथाएं या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रसे लिये गये हैं तिलोयपण्णत्तीसे नहीं, इतना ही नहीं बल्कि धवलामें जो गाथाएं या श्लोक अन्यत्रसे उद्धृत है उन्हें भी तिलोयपण्णत्तोके मूलमें शामिल कर लिया गया है' इस दावेको सिद्ध करनेके लिए कोई भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया । केवल सूचना अभीष्टकी सिद्धि में सहायक नहीं होती अतः वह निरर्थक ठहरता है । वाक्योंकी शाब्दिक या आर्थिक समानता परसे तो यह भी कहा जा सकता है कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती रही है, बल्कि ऐसा कहना, तिलोयपण्णत्तीके व्यवस्थित मौलिक कथन और धवलाकारके कथनकी व्याख्यान शेलीको देखते हुए, अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। रही यह बात कि तिलोयपण्णत्तीको पचासीवी गाथामें विविध ग्रंथ-युक्तियोंके द्वारा मंगलादिक ३४८ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ छह अधिकारोंके व्याख्यानका उल्लेख है, ' तो उससे यह कहां फलित होता है कि उन विविध ग्रन्थों में धवला भी शामिल है अथवा धवला परसे ही इन अधिकारोंका संग्रह किया गया है ? - खास कर ऐसी हालत में जब कि धवलाकार स्वयं 'मंगल- णिमित्त हेऊ' नामकी एक भिन्न गाथा को कहीं से उद्धृत करके यह बतला रहे हैं कि 'इस गाथा में मंगलादिक छह बातोंका व्याख्यान करनेके पश्चात् श्राचार्य के लिए शास्त्रका ( मूलग्रंथका ) व्याख्यान करनेकी जो बात कही गयी है वह श्राचार्य परम्परा से चला श्राया न्याय है, उसे हृदयमें धारण करके और पूर्वाचार्योंके श्राचार ( व्यवहार ) का अनुसरण करना रत्नत्रयका हेतु है ऐसा समझ कर. पुष्पदन्ताचार्य मगलादिक छह अधिकारोंका सकारण प्ररूपण करनेके लिए मंगल सूत्र कहते हैं२ ।' इससे स्पष्ट है कि मंगलादिक छह अधिकारोंके कथनकी परिपाटी बहुत प्राचीन है— उनके विधानादिका श्रेय धवलाको प्राप्त नहीं है । इसलिए तिलोयपण्णत्तीकारने यदि इस विषय में पुरातन चाय की कृतियोंका अनुसरण किया है तो वह न्याय्य ही है, परन्तु उतने मात्र से उसे धवलाका अनुसरण नहीं कहा जा सकता | धवलाका अनुसरण कहनेके लिए पहले यह सिद्ध करना होगा कि धवला तिलोयपण्णत्तीसे पूर्वकी कृति है, जो कि सिद्ध नहीं है । प्रत्युत इसके यह स्वयं धवलाके उल्लेखोंसे ही सिद्ध है कि धवलाकार के सामने तिलोयपण्णत्ती थी, जिसके विषयमें दूसरी तिलोयपण्णत्ती होनेकी कल्पना तो की जाती है परन्तु यह नहीं कहा जाता और कहा जा सकता है कि उसमें मंगलादिक छह अधिकारोंका वह सब वर्णन नहीं था जो वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में पाया जाता है; तब धवलाकार के द्वारा तिलोयपण्णत्तीके अनुसरणकी बात ही अधिक संभव और युक्तियुक्त जान पड़ती है । फलतः दूसरा प्रमाण भी साधक नहीं है । ( ३ ) तीसरा प्रमाण अथवा युक्तिवाद प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि उसे पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपण्णत्ती में धवला से उन दो संस्कृत श्लोकोंको कुछ परिवर्तन के साथ अपना लिया गया है जिन्हें धवला में कहीं से उद्धृत किया गया था और जिनमें से एक श्लोक कलंक देव के लघीयस्त्रया 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' नामका है।' परन्तु दोनों ग्रन्थोंको जब खोलकर देखते हैं तो मालूम होता है कि तिलोय पण्णत्तीकारने धवलोद्धृत उन दोनों संस्कृत श्लोकोंको अपने ग्रन्थका अंग नहीं बनाया—वहां प्रकरण के साथ कोई संस्कृत श्लोक हैं हो नहीं, दो गाथाएं हैं, जो मौलिक रूपमें स्थित हैं और प्रकरण के साथ संगत हैं। इसी तरह लघीयस्त्रय वाला पद्य धवलामें उसी रूपमें उद्धृत नहीं जिस रूप में कि वह लघीयस्त्रयमें पाया जाता है— उसका प्रथम चरण 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' के स्थानपर 'ज्ञानं प्रमाणमित्याहु:' के रूपमें उपलब्ध है । और दूसरे चरण में 'इष्यते' की जगह 'उच्यते' क्रियापद है । १ 'मंगल पहुदि छक्कं बक्खाणिय विविध गन्थ जुत्तीहिं' २ “इदि णायमाइरिय-परंपरागयं मणेगावहारिय पुत्राइरियायाराणुसरण ति रयण - हे उत्ति पुप्फदताइरियों मंगलादीण छण्णं सकारणाण परूवणठ सुत्तमाह । " ३४९ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ ऐसी हालत में 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोक भट्टाकलंकदेवकी मौलिक कृति है, तिलोयपण्णत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा कुछ संगत मालूम नहीं होता । अस्तु; दोनों ग्रन्थोंके दोनों प्रकृत पद्योंको उद्धृत करके उनके विषयको हृदयङ्गम कर लेना उचित है । जो ण पमाण-णयेहि णिक्खेवेणं णिरक्खदे श्रत्थं । तस्साऽजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च (व) पडिहादि ॥ ८२ ॥ णा होदि पमाणं ण वि णादुस्स हृदयभावत्थो । णिक्खेववि उवा जुत्तीए प्रत्थपडिगहणं ॥ ८३ ॥ -तिलोयपण्णत्ती प्रमाणनय निक्षेपैर्योऽर्थो नाऽभिसमीक्ष्यते । युक्तं चाऽयुक्तवद्भाति तस्याऽयुक्तं च युक्तवत् ॥ (१० ) ज्ञानं प्रमाणमित्याहु रुपायो न्यास उच्यते । यो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥ [११] - धवला १,१, पृ० १६, १७ । तिलोयपण्णत्तीकी पहली गाथामें यह बतलाया है कि 'जो प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा श्रर्थका निरीक्षण नहीं करता है उसको प्रयुक्त ( पदार्थ ) युक्तकी तरह और युक्त ( पदार्थ ) श्रयुक्तकी तरह प्रतिभासित होता ।' और दूसरी गाथा में प्रमाण, नय और निक्षेपका उद्देशानुसार क्रमशः लक्षण दिया है और अन्त में बतलाया है कि यह सब युक्तिसे अर्थका परिग्रहण है । अतः ये दोनों गाथाएं परस्पर संगत हैं । और इन्हें ग्रंथसे अलग कर देने पर अगली 'इय णायं श्रवहारिय श्राइरिय परम्परागयं मणसा' ( इस प्रकार आचार्य परम्परासे चले आये हुए न्यायको हृदयमें धारण करके ) नामकी गाथा' असंगत तथा खटकनेवाली हो जाती है। इसलिए ये तीनों ही गाथाएं तिलोयपण्णत्तीकी अंगभूत हैं । धवला ( संतपरूवणा ) में उक्त दोनों श्लोकोंको देते हुए उन्हें 'उक्तञ्च' नहीं लिखा और न किसी खास ग्रन्थ के वाक्य ही कहा है। वे 'एत्थ किमठ' गयपरूवणमिदि ११ – यहां नयका प्ररूपण किसलिए किया गया है ? प्रश्नके, उत्तर में दिये गये हैं इसलिए वे धवलाकार द्वारा निर्मित अथवा उद्धृत भी हो सकते हैं। उधृत होनेकी हालत में यह प्रश्न पैदा होता है कि वे एक स्थान से उद्धृत किये गये है या दो से । यदि एकसे उद्धृत किये गये हैं तो वे लघीयस्त्रयसे उद्धृत नहीं किये गये यह सुनिश्चित है; क्योंकि I लघीयस्त्र में पहला श्लोक नहीं है । और यदि ये दो स्थानोंसे उद्धृत किये ती हुई मालूम नहीं होती; क्योंकि दूसरा श्लोक अपने पूर्व में ऐसे श्लोककी गये हैं तो यह बात कुछ अपेक्षा रखता है जिसमें १. इस गाथाका नं ० ८४ है, ८८ नहीं । ३५० Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ उद्देशादि किसी भी रूपमें प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख हो-लघीयत्रयमें भी 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः, श्लोकके पूर्व में एक ऐसा श्लोक पाया जाता है जिसमें प्रमाण, नय और निक्षेपका उल्लेख है और उनके अगमानुसार कथनकी प्रतिज्ञा की गयी है ( 'प्रमाण-नय-निक्षेपाभिधानस्थे यथागम' )- और उसके लिए पहला श्लोक संगत जान पड़ता है। अन्यथा उसके विषयमें यह बतलाना होगा कि वह दूसरे कौनसे ग्रन्थका स्वतन्त्र वाक्य है । दोनों गाथाओं और श्लोकोंकी तुलना करनेसे तो ऐसा मालूम होता है कि दोनों दलोक उक्त गाथाओंसे अनुवादरूपमें निर्मित हुए हैं। दूसरी गाथामें प्रमाण, नय और निक्षेपका उसी क्रमसे लक्षण निर्देश किया गया है जिस क्रमसे उनका उल्लेख प्रथम गाथामें हुश्रा है। परन्तु अनुवादके छन्दमें (श्लोक) शायद वह बात नहीं बन सकी । इसीसे उसमें प्रमाणके बाद निक्षेपका और फिर नयका लक्षण दिया गया है। इससे तिलोयपण्णत्तीकी उक्त गाथाश्रोंकी मौलिकताका पता चलता है और ऐसा जान पड़ता है कि उन्हीं परसे उक्त श्लोक अनुवाद रूपमें निर्मित हुए हैं-भले ही यह अनुवाद स्वयं धवलाकारके द्वारा निर्मित हुश्रा हो या उनसे पहले किसी दूसरेके द्वारा । यदि धवलाकारको प्रथम श्लोक कहींसे स्वतंत्र रूपमें उपलब्ध होता, तो वे प्रश्नके उत्तरमें उसीको उद्धृत कर देना काफी समझते-दूसरे लघीयत्रय जैसे ग्रंथसे दूसरे श्लोकको उद्धृत करके साथमें जोड़नेकी जरूरत नहीं थी; क्योंकि प्रश्नका उत्तर उस एक ही श्लोकसे हो जाता है । दूसरे श्लोकका साथमें होना इस बातको सूचित करता है कि एक साथ पायो जानेवाली दोनों गाथाओंके अनुवादरूपमें ये श्लोक प्रस्तुत किये गये हैं-चाहे वे किसीके भी द्वारा प्रस्तुत किये गये हों। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि धवलाकारने तिलोयपण्णत्तीकी उक्त दोनों गाथाओंको ही उद्धृत क्यों न कर दिया, उन्हें श्लोकोंमें अनुवादित करके या उनके अनुवादको रखनेकी क्या जरूरत थी ? इसके उत्तरमें मैं सिर्फ इतना ही कह देना चाहता हूं कि यह सब धवलाकार वीरसेनकी रुचिकी बात है, उन्होंने अनेक प्राकृत वाक्योंको संस्कृतमें और संस्कृत वाक्योंको प्राकृतमें अनुवादित करके उद्धृत किया है। इसी तरह अन्य ग्रन्थोंके गद्यको पद्यमें और पद्यको गद्यमें परिवर्तित करके अपनी टीकाका अंग बनाया है । चुनांचे तिलोयपण्णत्तीकी भी अनेक गाथाओंको उन्होंने संस्कृत गद्यमें अनुवादित करके रक्खा है, जैसे कि मंगलकी निरुक्तिपरक गाथाएं, जिन्हें द्वितीय प्रमाणमें समानताकी तुलना करते हुए, उद्धृत किया गया है । इसलिए यदि ये उनके द्वारा ही अनुवादित होकर रक्खे गये हैं तो इसमें आपत्ति की कोई बात नहीं है । इसे उनकी अपनी शैली और रुचि, श्रादिकी बात समझना चाहिये । __ अब देखना यह है कि 'ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः' इत्यादि श्लोकको जो अकलंकदेवकी 'मौलिक कृति' बतलाया गया है उसका क्या आधार है ? कोई भी आधार व्यक्त नहीं किया गया है; तब क्या अकलंकके ग्रन्थमें पाया जाना ही अकलंककी मौलिक कृति होनेका प्रमाण है ? यदि ऐसा है तो राजवार्तिक ३५१ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ में पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिके जिन वाक्योंको वार्तिकादिके रूपमें विना किसी सूचनाके अपनाया गया है अथवा न्याय विनिश्चयमें समन्तभद्रके 'सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः' जैसे वाक्योंको अपनाया गया है उन सब को भी अकलंक-देवकी 'मौलिक कृति' कहना होगा । यदि नहीं, तो फिर उक्त श्लोकको अकलंकदेवकी मौलिक कृति बतलाना निर्हेतुक ठहरे गा । प्रत्युत इसके, अकलंकदेव चूंकि यतिवृषभके बाद हुए हैं अतः यतिवृषभकी तिलोयपण्णत्तीका अनुसरण उनके लिए न्याय प्राप्त है और उसका समावेश उनके द्वारा पूर्व पद्यमें प्रयुक्त 'यथागम' पदसे हो जाता है; क्योंकि तिलोयपण्णत्तिं भी एक श्रागम ग्रन्थ है, जैसा कि गाथा नं० ८५, ८६, ८७ में प्रयुक्त हुए उसके विशेषणोंसे जाना जाता है। धवलाकारने भी जगह जगह उसे 'सूत्र' लिखा है और प्रमाण रूपमें उपस्थित किया है । एक जगह वे किसी व्याख्यानको व्याखानाभास बतलाते हुए तिलोयपण्णत्ति सूत्रके कथनको भी प्रमाण में पेश करते हैं और फिर लिखते हैं कि सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है जो सूत्र विरुद्ध हो उसे व्याख्यानाभास समझना चाहिये-नहीं तो अतिप्रसंग आये गा'। इस तरह यह तीसरा प्रमाण असिद्ध ठहरता है। तिलोयपण्णत्तिकारने चूंकि धवलाके किसी भी पद्यको नहीं अपनाया अतः पद्योंके अपनानेके आधार पर तिलोयपण्णत्तो धवलाके बादकी रचना बतलाना युक्ति युक्त नहीं है। (४) चौथे प्रमाणरूपसे कहा जाता है कि 'दुगुण दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगो' नामका जो वाक्य धवलाकारने द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार (पृ० ४६ ) में तिलोयपण्णत्तिके नामसे उद्धृत किया है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें पर्याप्त खोज करनेपर भी नहीं मिला, इसलिए यह तिलोयपण्णत्ति उस तिलोयपण्णत्तिसे भिन्न है जो धवलाकारके सामने थी। परन्तु यह मालूम नहीं हो सका कि पर्याप्त खोजका रूप क्या रहा है। क्या भारतवर्षके विभिन्न स्थानों में पायी जाने वाली तिलोयपण्यत्तीकी समस्त प्रतियोंका पूर्णरूपसे देखा जाना है ? यदि नहीं,तब इस खोजको 'पर्याप्त खोज' कैसे कहें ? वह तो बहुत कुछ अपर्याप्त है । क्या दो एक प्रतियोंमें उक्त. वाक्यके न मिलनेसे ही यह नतीजा निकाला जा सकता है कि वह वाक्य किसी भी प्रतिमें नहीं है ? नहीं निकाला जा सकता। इसका एक ताजा उदाहरण गोम्मटसार कर्मकाण्ड (प्रथम अधिकार ) के वे प्राकृत गद्यसूत्र हैं जो गोम्मटसारकी पचासों प्रतियोंमें नहीं पाये जाते परन्तु मूडविद्रीकी एक प्राचीन ताडपत्रीय कन्नड प्रतिमें उपलब्ध है और जिनका उल्लेख मैंने अपने गोम्मटसार-विषयक निबन्धमें किया है। इसके सिवाय, तिलोयपण्णत्ती जैसे बड़े ग्रन्थमें लेखकोंके प्रमादसे दो चार गाथाओंका छूट जाना कोई बड़ी बात नहीं है। पुरातन जैन वाक्यसूचीके अवसरपर मेरे सामने तिलोयपण्णत्तीकी चार प्रतियां रही हैं-एक बनारस स्याद्वाद महाविद्यालय १. "तं वक्खाणाभासमादि कुदो गव्वदे ? जोइसियभागहारसुत्तादो चंदाइच्च बिंवपमाण परूवण-तिलोय पण्णति सुत्तदो च । ण च सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होइ, अइपरांगादो।" धवला १, २, ४ पृ. ३६ । ३५२ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ की, दूसरी देहली नया-मन्दिरकी, तीसरी अागराके मन्दिरकी अोर चौथी सहारनपुर ला० प्रद्युम्नकुमारजीके मन्दिरकी । इन प्रतियोंमें, जिनमें बनारसकी प्रति बहुत ही अशुद्ध एवं त्रुटिपूर्ण जान पड़ी, कितनी ही गाथाएं ऐसी देखनेको मिली जो एक प्रतिमें हैं तो दूसरी में नहीं हैं, इसीसे जो गाथा किसी एक प्रतिमें बढ़ी हुई मिली उसका सूचीमें उस प्रतिके साथ संकेत किया गया है। ऐसी भी गाथाएं देखनेमें आयीं जिनमें किसीका पूर्वार्ध एक प्रतिमें है तो उत्तरार्ध नहीं, और उत्तरार्ध है तो पूर्वार्ध नहीं। और ऐसा तो बहुधा देखनेमें आया कि कितनी ही गाथाओंको विना संख्या डाले धारावाही रूपमें लिख दिया है, जिससे वे सामान्यावलोकनके अवसरपर ग्रन्थका गद्य भाग जान पड़ती हैं। किसी किसी स्थल पर गाथाओंके छूटनेकी साफ सूचना भी की गयी है; जैसे कि चौथे महाधिकारकी ‘णव-णउदि सहस्साणि' इस गाथा सं० २२१३ के अनन्तर अागरा और सहारनपुरकी प्रतियों में दस गाथात्रोंके छूटनेकी सूचना की गयी है और वह कथन-क्रमको देखते हुए ठीक जान पड़ती है-दूसरी प्रतियोंसे उनकी पूर्ति नहीं हो सकी । क्या अाश्चर्य जो ऐसी छूटी अथवा त्रुटित हुई गाथाश्रोंमेंका ही उक्त वाक्य हो । ग्रन्थ प्रतियोंकी ऐसी स्थितिमें दो चार प्रतियोंको देखकर ही अपनी खोजको पर्याप्त खोज बतलाना और उसके आधार पर उक्त नतीजा निकाल बैठना किसी तरह भी न्याय-संगत नहीं कहा जा सकता । इसलिए चतुर्थ प्रमाण भी इष्टको सिद्ध करनेके लिए समर्थ नहीं है। (५) अब रहा अन्तिम प्रमाण, जो प्रथम प्रमाणकी तरह गलत धारणाका मुख्य आधार बना हुआ है । इसमें जिस गद्यांशकी अोर संकेत किया गया है और जिसे कुछ अशुद्ध भी बतलाया गया है । वह क्या स्वयं तिलोयपण्णत्तिकारके द्वारा धवला परसे, 'अम्हेहि' पदके स्थान पर 'एसा परूवणा' पाठका परिवर्तन करके उद्धृत किया गया है अथवा किसी तरह पर तिलोयपण्णत्तीसे प्रक्षिप्त हुअा है ? शायद इसका गम्भीरताके साथ विचार नहीं किया गया है । फलतः विना विवेचन के दिया गया निर्णय-सा प्रतीत होता है। उस गद्यांशको तिलोयपण्णत्तीका मूल अंग मान बैठना भी वैसा ही है और इसीसे गद्यांशमें उल्लिखित तिलोयपण्णत्तीको वर्तमान तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न दूसरी तिलोय. पण्णत्ती कहा गया है। इतना ही नहीं, बल्कि तिलोयपण्णत्तीमें जो यत्र तत्र दूसरे गद्यांश पाये जाते हैं उनका अधिकांश भाग भी धवलासे उधृत है, ऐसा सुझानेका संकेत भी है। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । जान पड़ता है ऐसा कहते और सुझाते हुए यह ध्यान नहीं रक्खा गया कि जो आचार्य जिनसेन वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके कर्ता बतलाये गये हैं वे क्या इतने असावधान अथवा अयोग्य थे कि जो 'अम्हेहि' पदके स्थान पर 'एसा परूवणा' पाठका परिवर्तन करके रखते और ऐसा करनेमें उन साधारण मोटी भूलों एवं त्रुटियोंको भी न समझ पाते जिनकी उद्भावना उक्त लेखमें की गयी है ? और ऐसा करके जिनसेनको अपने गुरु वीरसेनकी कृतिका लोप करनेकी भी क्या जरूरत थी ? वे तो बराबर अपने गुरुका कीर्तन और उनकी कृतिके साथ उनका नामोल्लेख करते हुए देखे जाते हैं; चुनांचे वीरसेन जब जयधवला ३५३ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ को अधूरा छोड़ गये और उसके उत्तरार्धको जिनसेनने पूरा किया तो ये प्रशस्तिमें स्पष्ट शब्दों द्वारा यह सूचित करते हैं कि 'गुरुने आगेके अर्धभागका जो भूरि वक्तव्य उन पर प्रकट किया था (अथवा नोट्स अादिके रूपमें उन्हें दिया था) उसीके अनुसार यह अल्प वक्तव्य रूप उत्तरार्ध पूरा किया गया है । परन्तु वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें तो वीरसेनका कहीं नामोल्लेख भी नहीं है-ग्रंथके मंगलाचरण तकमें भी उनका स्मरण नहीं किया गया । यदि वीरसेनके संकेत अथवा आदेशादिके अनुसार जिनसेनके द्वारा वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका संकलनादि कार्य हुश्रा होता तो वे ग्रन्थके आदि या अन्तमें किसी न किसी रूपसे उसकी सूचना जरूर करते तथा अपने गुरुका नाम भी उसमें जरूर प्रकट करते । यदि कोई दूसरी तिलोयपण्णत्ती उनकी तिलोयपण्यत्तीका अाधार होती तो वे अपनी पद्धति और परिणतिके अनुसार उसका और उसके रचयिताका स्मरण भी ग्रन्थके आदिमें उसी तरह करते जिस तरह कि महापुराणके आदिमें 'कवि परमेश्वर' और उनके 'वागर्थसंग्रह' पुराणका किया है, जो कि उनके महापुराणका मूलाधार रहा है। परन्तु वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें ऐसा कुछ भी नहीं है, इसलिए उसे उक्त जिनसेनकी कृति बतलाना और उन्हींके द्वारा उक्त गद्यांशका उद्धृत किया जाना प्रतिपादित करना किसी तरह भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका कर्ता बतलाये जाने वाले दूसरे भी किसी विद्वान प्राचार्य के साथ उक्त भूल भरे गद्यांशके उद्धरणको बात संगत नहीं बैठती; क्योंकि तिलोयपण्णत्तीकी मौलिक रचना इतनी प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है कि उसमें मूलकार-द्वारा ऐसे सदोष उद्धरणकी कल्पना नहीं की जा सकती । 'इसलिए उक्त गद्यांश बादको किसीके द्वारा धवला आदिसे प्रक्षिप्त किया हुआ जान पड़ता है। और भी कुछ गद्यांश ऐसे हो सकते हैं जो धवलासे प्रक्षिप्त किये गये हों' परन्तु जिन गद्यांशोंकी तरफ फुटनोटमें संकेत किया है वे तिलोयपण्ण तीमें धवलापरसे उद्धृत किये गये मालूम नहीं होते; बल्कि धवलामें तिलोयपण्णत्तीसे उद्धृत जान पड़ते हैं। क्योंकि तिलोयपण्णत्तीमें गद्यांशोंके पहले जो एक प्रतिज्ञात्मक गाथा पायी जाती है वह इस प्रकार है वादवरुद्धक्खेत्ते विदफलं तह य अट्ठ पुढवीए । __ सुद्धायासखिदीणं लवमेत्त वत्तइस्सामो ॥ २८२ ॥ इसमें वातवलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रों, आठ पृथ्वियों और शुद्ध श्राकाश भूमियोंका घनफल बतलानेकी प्रतिज्ञा की गयी है और उस घनफलको 'लवमेत्त' ( लवमात्र )२ विशेषणके द्वारा बहुत १ गुरुणार्धेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते। तान्निरीक्ष्याऽल्पवक्तव्यः पश्चार्धस्तेन पूरितः ||३६।। २ तिलोयपण्यत्तिकारको जहां विस्तारसे कथन करनेको इच्छा अथवा आवश्यकता हुई है वहां उन्होंने वैसी सूचना कर दी है; जैसा कि प्रथम अधिकार में लोकके आकारादि संक्षेपसे वर्णन करनेके अनन्तर 'वित्थररुइ वोहत्थं वोच्छंगाणावियप्ये वि' (७४) इस वाक्यके द्वारा विस्तार रुचिवाले प्रतिपाद्योंको लक्ष्य करके उन्होंने विस्तारसे कथनकी प्रतिज्ञा की है। ३५४ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ संक्षेप में ही कहने की सूचना की गयी है । तदनुसार तीनों घनफलोंका क्रमशः गद्य में कथन किया गया है और यह कथन मुद्रित प्रतिमें पृष्ठ ४३ से ५० तक पाया जाता है। धवला ( पृ० ५१ से ५५ ) में इस कथनका पहला भाग संपहि' ('संपदि ) से लेकर 'जगपदरं होदि' तक प्रायः ज्योंका त्यों उपलब्ध है । परन्तु शेष भाग, जो आाट पृथ्वियों आदि के घनफल से सम्बन्ध रखता है, उपलब्ध नहीं है, और इससे वह तिलोयपण्णत्तीसे उद्धृत जान पड़ता है - खासकर उस हालत में जब कि धवलाकार के सामने तिलोयपण्णत्ती मौजूद थी और उन्होंने अनेक विवादग्रस्त स्थलोंपर उसके वाक्योंको बड़े गौरव के साथ प्रमाण में उपस्थित किया है तथा उसके कितने ही दूसरे वाक्योंको भी विना नामोल्लेखके अनुवादित करके भी रक्खा है । ऐसी स्थितिमें तिलोयपण्णत्ती में पाये जाने वाले गद्यांशोंके विषय में यह कल्पना करना कि वे धवलापरसे उद्धृत किये गये हैं समुचित नहीं है । प्रस्तुत गद्यांशसे इस विषय में कोई सहायता नहीं मिलती है; क्योंकि उस गद्यांशका तिलोयपण्णत्तीकारके द्वारा उद्धृत किया जाना सिद्ध नहीं है - वह बादको किसीके द्वारा प्रक्षिप्त हुआ जान पड़ता है । उद्धृत किया है और [ यह बतलाना उचित होगा कि यह इतना ही गद्यांश प्रक्षित नहीं है बल्कि इसके पूर्वका "एत्तो चंदारा सपरिवाराणमारायण विहाणं वत्तइस्सामो" से लेकर "एदम्हादो चेव सुत्तादो" तक का अंश और उत्तरवर्ती " तदो ण एत्थ इदमित्थ मेवेत्ति" से लेकर "तं चेदं १६५५३६१ ।” तकका अंश जो ‘चंदस्स सदसहस्सं' नामकी गाथाका पूर्ववर्ती है, वह सब प्रक्षिप्त है । और इसका प्रबल प्रमाण मूल ग्रन्थसे ही उपलब्ध होता है । मूल ग्रन्थ में सातवें महाधिकारका प्रारम्भ करते हुए पहली गाथा में मंगलाचरण और ज्योतिर्लोकप्रज्ञप्तिके कथनकी प्रतिज्ञा करनेके अनन्तर उत्तरवर्ती तीन गाथाओं में ज्योतिषियों के निवास क्षेत्र आदि सत्तर अधिकारोंके नाम दिये हैं जो इस ज्योतिर्लोकप्रज्ञप्ति नामक महाधिकारके अंग हैं। वे तीनों गाथाएं इस प्रकार हैं- जोइसिय- णिवासखिदी भेदो संखा तहेव विरणासो | परिमाणं चरचारो अचरसरूवाणि श्राऊ य || २ || श्राहारो उस्सासो उच्छेहो श्रहिणाणसत्ती । जीवाणं उपपत्ति मरणाई एक समयस्मि ॥ ३ ॥ उग बंधणभावं दंसणगहणंस्स कारणं विवहं । गुणठाणादिवरण महियारसतर सिमाए ॥ ४ ॥ इन गाथाओं के बाद निवासक्षेत्र, भेद, संख्या, विन्यास, परिमाण, चराचर, चरस्वरूप और आयु नामके आठ अधिकारोंका क्रमशः वर्णन दिया है- शेष अधिकारोंके विषय में लिख दिया है। कि उनका वर्णन भवन लोकके वर्णनके समान कहना चाहिये ( 'भावण लोएव्व वत्तव्यं' ) और जिस अधिकारका वर्णन जहां समाप्त हुआ वहां उसकी सूचना कर दी है। सूचना वाक्य इस प्रकार हैं: ३५५ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ 'णिवासखेत्तं सम्मत्तं । भेदो सम्मत्तो। संखा सम्मत्ता। विण्णास सम्मत्तं । परिमाणं सम्मत्तं । एवं चरगिहाणं चारो सम्मत्तो। एवं अचरजोइसगणपरूवणा सम्मत्ता । श्राऊ सम्मत्ता ॥" अचर ज्योतिषगणकी प्ररूपना विषयक ७ वें अधिकारकी समाप्तिके बाद ही 'एत्तो चंदाण' से लेकर 'तं चेदं १६५५३६१' तकका वह सब गद्यांश है, जिसकी ऊपर सूचनाकी गयी है। 'आयु' अधिकार के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । अायुका अधिकार उक्त गद्यांशके अनन्तर 'चंदस्स सदसहस्सं' गाथासे प्रारंभ होता है और अगली गाथापर समाप्त हो जाता है। ऐसी हालतमें उक्त गद्यांश मूल ग्रंथके साथ सम्बद्ध न होकर साफ तौरसे प्रक्षिप्त जान पड़ता है। उसका आदिका भाग 'एत्तो चंदाण' से लेकर 'तदोण एत्थ संपदाय विरोधो कायव्वो त्ति' तक तो धवला प्रथम खण्डके स्पर्शानुयोगद्वारमें थोड़ेसे शब्द भेदके साथ प्रायः ज्योंका त्यों पाया जाता है इसलिए यह उससे उद्धृत हो सकता है। परन्तु अन्तका भाग-“एदेण विहाणेण परूविद गच्छं विरलिय रूवं पडि चत्तारि रूवाणि दादण अण्णोण्णभत्थे" के अनन्तरका-धवलाके अगले गद्यांशके साथ कोई मेल नहीं खाता, इसलिए वह वहांसे उद्धृत न होकर अन्यत्रसे लिया गया है । यह भी हो सकता है कि यह सारा ही गद्यांश धवलासे न लिया जाकर किसी दूसरे ही इस समय अप्राप्य ग्रंथसे, जिसमें आदि अन्तके दोनों भागोंका समावेश हो, लिया गया हो और तिलोयपण्णत्तीमें किसीके द्वारा अपने उपयोगादिकके लिए हाशियेपर लिखा गया हो और जो बादको ग्रन्थमें कापीके समय किसी तरह प्रक्षिप्त हो गया हो। इस गद्यांशमें ज्योतिष देवोंके जिस भागहार सूत्रका उल्लेख है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके इस महाधिकारमें पाया जाता है। उसपरसे फलितार्थ होनेवाले व्याख्यानादिकी चर्चाको किसीने यहांपर अपनाया है, ऐसा जान पड़ता है। इसके सिवाय, एक बात और भी है; वह यह कि जिस वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका मूलानुसार आठ हजार श्लोक परिमाण बतलाया जाता है वह उपलब्ध प्रतियों परसे उतने ही श्लोक परिमाण नहीं मालूम होती, बल्कि उसका परिमाण लगभग एक हजार श्लोक-परिमाण बढ़ा हुआ है। इससे यह साफ जाना जाता है कि मूलमें उतना अंश बादको प्रक्षिप्त हुअा है। इसलिए उक्त गद्यांशको, जो अपनी स्थिति परसे प्रक्षिप्त होनेका स्पष्ट सन्देह उत्पन्न कर रहा है और जो ऊपरके विवेचनसे मूलकारकी कृति मालूम नहीं होता, प्रक्षिप्त कहना कुछ भी अनुचित नहीं है । ऐसे ही प्रक्षिप्त अंशोंसे, जिनमें कितने ही 'पाठान्तर' वाले अंश भी शामिल जान पड़ते हैं, ग्रंथके परिमाणमें वृद्धि हुई है। यह निर्विवाद है कि कुछ प्रक्षित अंशोंके कारण किसी ग्रन्थको दूसरा ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। अतः उक्त गद्यांशमें तिलोयपण्णत्तीका नामोल्केख देखकर जो यह कल्पनाकी गयी है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती उस तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न है जो धवलाकारके सामने थी' वह ठीक नहीं हैं । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ उपसंहार इस तरह नूतन धारके पांचों प्रमाणों में से कोई भी प्रमाण यह सिद्ध करनेके लिए समर्थ नहीं है। कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती श्राचार्य वीरसेनके बादकी बनी हुई है अथवा उस तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न है जिसका वीरसेन अपनी धवला टीका में उल्लेख कर रहे हैं । तब यह कल्पना करना तो अतिसाहस है कि वीरसेनके शिष्य जिनसेन इसके रचयिता हैं, जिनकी स्वतंत्र ग्रन्थ रचना-पद्धतिके साथ इसका कोई मेल नहीं खाता । ऊपरके सम्पूर्ण विवेचन एवं ऊहापोहसे स्पष्ट है कि यह तिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्य की कृति है, धवलासे कई शती पूर्वकी रचना है - और वही चीज है जिसका वीरसेन अपनी धवलामें उद्धरण, अनुवाद तथा श्राशय ग्रहणादिके रूपमें स्वतंत्रता पूर्वक उपयोग करते रहे हैं । ग्रन्थकी अन्तिम मंगल गाथा में 'द' पदको ठीक मानकर उसके श्रागे जो 'अरिस वसहं' पाठकी कल्पनाकी गयी है और उसके द्वारा यह सुभाने का यत्न किया है कि 'इस तिलोयपण्णत्तीसे पहले यतिवृषभका तिलोयपण्णत्ति नामका कोई आर्ष ग्रन्थ था जिसे देखकर यह तिलोयपण्णत्ती रची गयी है । फलतः उसीकी सूचना इस गाथामें 'दठण अरिसवसहं' वाक्यके द्वारा की गयी है' वह भी युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि इस पाठ और उसके प्रकृत अर्थी संगति गाथा के साथ नहीं बैठती, जिसका स्पष्टीकरण प्रारम्भ में किया जा चुका 1 इसलिए यह लिखना कि " इस तिलोयपण्णत्तिका संकलन शक संवत् ७३८ ( वि० सं० ८७३ ) से पहले का किसी भी हालत में नहीं है" तथा "इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालत में नहीं हो सकते" अति साहसका द्योतक है । क्योंकि किसी तरह भी इसे युक्ति संगत नहीं कहा जा सकता । ३५७ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और कहानी __ श्री प्रा. डा. जगदीशचन्द्र जैन, एम० ए०, पीएच० डी० प्राचीन कालसे ही कहानी साहित्यका जीवन में बहुत ऊंचा स्थान रहा है। ऋग्वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, महाभारत, रामायण, श्रादि वैदिक ग्रंथोंमें अनेक शिक्षाप्रद श्राख्यान उपलब्ध होते हैं, जिनके द्वारा मनुष्य जीवनको ऊंचा उठानेका प्रयत्न किया गया है। इन कथा-कहानियोंका सबसे समृद्ध कोष है बौद्धों की जातक कथाएं । सीलोन, वर्मा आदि प्रदेशों में ये कथाएं इतनी लोकप्रिय हैं कि वहांके निवासी आज भी इन कथाओंको रात रातभर बैठकर बड़े चावसे सुनते हैं । इन कथाओं में बुद्ध के पूर्वजन्मकी घटनाओंका वर्णन है, और इनके दृश्य सांची, भरहुत आदि स्तूपोंकी दीवारों पर अंकित हैं, जिनका समय ईसाके पूर्व दूसरी शती माना जाता है। प्राचीन कालमें जो नाना लोक कथाएं भारतवर्षमें प्रचलित थीं, उन्हें ब्राहःण, जैनों और बौद्धने अपने अपने धर्मग्रन्थों में स्थान देकर अपने सिद्धांतोंका प्रचार किया। बौद्धोंके पालि साहित्यकी तरह जैनोंका प्राकृत साहित्य भी कथा-कहानियोंका विपुल भण्डार है। जैन भिक्षु अपने धर्मका प्रचार करनेके लिए दूर दूर देशोंमें विहार करते थे । बृहत्कल्पभाष्यके अन्तर्गत जनपद-परीक्षा प्रकरणमें बताया है कि जैन भिक्षुको चाहिये कि वह श्रात्मशुद्धि के लिए तथा दूसरोंको धर्ममें स्थिर रखनेके लिए जनपद विहार करें तथा जनपद-विहार करनेवाले साधुको मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाटक, द्रविड़; गौड़, विदर्भ आदि देशोंकी लोकभाषाओं में कुशल होना चाहिये, जिससे वह भिन्न भिन्न देशके लोगोंको उनकी भाषामें उपदेश दे सके । जैन साहित्यका प्राचीनतम भाग 'अागम' के नामसे कहा जाता है। दिगम्बर परम्पराके अनुसार अागम ग्रन्थोंका सर्वथा विच्छेद हो गया है, श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार ये आगम विकृतरूपमें मौजूद हैं, और ११ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्णक, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, नन्दि तथा अनुयोगद्वारके रूपमें अाजकल भी उपलब्ध हैं। ११ अंगोंके अन्तर्गत नायाधम्मकहा (ज्ञातृधर्म कथा) नामक पांचवें अंगमें ज्ञातृपुत्र महावीरकी अनेक धर्मकथाएं वर्णित हैं, जो बहुत रोचक और शिक्षाप्रद हैं। उपासकदशा नामक छठे अंगमें महावीरके उपासकोंकी कथाएं हैं। कथा साहित्यका सर्वोत्तम भाग आगम ग्रन्थोंकी टीका-टिप्पणियोंमें उपलब्ध होता है। ये टीका-टिप्पणियां नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका इन ३५८ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और कहानी चार भागोंमें विभक्त हैं । इनमें चूर्णि और टीका साहित्य भारतके प्राचीन कथा-साहित्यकी दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वका है, जिसमें श्रावश्यकचूर्णि और उतराध्ययन टीका तो कथाओंका वृहत्कोष है । आगम साहित्यके अतिरिक्त जैन साहित्यमें पुराण, चरित, चम्पू , प्रबंध आदिके रूपमें प्राकृत, संकृत अपभ्रंशके अनेक ग्रन्थ मौजूद हैं, जिनमें छोटी-बड़ी अनेक कथा-कहानियां हैं । ___ यहां यह कह देना अनुचित न हो गा कि पालि-प्राकृत साहित्यकी अनेक लौकिक कथाएं कुछ रूपान्तरके साथ देश-विदेशोंमें भी प्रचलित हैं। ये कथाएं भारतवर्ष में पंचतंत्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर, शुकसप्तति, सिंहासनद्वात्रिंशिका, बेतालपंचविंशतिका श्रादि ग्रन्थों में पायी जाती हैं, तथा 'ईसपकी कहानियां, 'अरेबियन नाइट्सकी कहानियाँ, 'कलेला दमनाकी कहानी' श्रादि के रूपमें ग्रीस, रोम, अरब, फारस, अफ्रिका आदि सुदूर देशोंमें भी पहुंची हैं। इन कथाओंका उद्गम स्थान अधिकतर भारतवर्ष माना जाता है, यद्यपि समय समयपर अन्य देशोंसे भी देश-विदेशके यात्री बहुत-सी कहानियां अपने साथ यहां लाये । यहां लेखककी 'भारतकी प्राचीन कथा-कहानियां' नामक पुस्तकमेंसे दो कहानियां दी जाती हैं । कहानियोंको पढ़कर उनके महत्वका पता लगे गा। कार्य सच्ची उपासना किसी सेठका पुत्र धन कमानेके लिए परदेश गया और अपनी जवान पत्नीको अपने पिताके पास छोड़ गया । सेठकी पतोहू बहुत शौकीन स्वभावकी थी । वह अच्छा भोजन करती, पान खाती, इतर-फुलेल लगाती, सुंदर वस्त्राभूषण पहनती, और दिनभर यों ही विता देती । घरके काममें उसका मन जरा भी न लगता । उसको अपने पतिकी बहुत याद अाती, परन्तु वह क्या कर सकती थी ! एक दिन सेठको पतोहूका मन बहुत चंचल हो उठा। उसने दासीको बुलाकर कहा 'दासी ! किसी पुरुषको बुलायो । किसीको जानती हो ?' दासीने कहा 'देखूगी। दासीने श्राकर सब हाल सेठजीसे कहा। सेठजी बहुत चिन्तित हुए और सोचने लगे कि बहूकी रक्षाके लिए शीघ्र ही कोई उपाय करना चाहिये, अन्यथा वह हाथसे निकल जाय गी ! उन्होंने तुरत सेठानीको बुलाया और कहा "देखो सेठानी ! हम तुम दोनों लड़ाई कर लें गे, और मैं तुम्हें मार कर निकाल दूं गा । तुम थोड़े समयके लिए किसी दूसरेके घर में जाकर रह जाना । अन्यथा अपनी बहू अपने हाथसे निकल जाय गी। सेठानीने अपने पतिकी बात मान ली। अगले दिन सेठ घर आया और सेठानीसे भोजन मांगा । सेठानीने चिल्लाकर कहा "अभी भोजन तैयार नहीं है। बस दोनोंमें झगड़ा होने लगा । सेठको क्रोध आगया और उसने सेठानीको मार-पीटकर घरसे निकाल दिया । सास और ससुरको कलह सुनकर उसकी पतोहू घरसे निकल कर आ गयी और पूंछने लगी "पिताजी ! क्या बात हुई ?" सेठने कहा-'बेटी ! आजसे मैंने तुझे अपने घरकी मालकिन बना Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दिया है। अब तूं ही घरका सब काम-काज देखना।" बहू अपने ससुरकी बात सुन कर प्रसन्न हुई । अपने धरका सब काम सम्हाल लिया। अब वह धरके काममें इतनी संलग्न रहने लगी कि उसे भोजन करनेका समय भी बड़ी कठिनतासे मिलता। वह साज-शृङ्गार सब भूल गयी। एक दिन दासीने श्राकर कहा-"बहूजी ! आप उस दिन किसी पुरुषकी बात करती थीं । मैंने एक पुरुषकी खोज की है। आपकी आज्ञा हो तो उसे बुलाऊं ?" बहू ने उतर दिया-“दासी ! वह समय दूर गया । इस समय मुझे मरनेका भी अवकाश नहीं, तू पर-पुरुषकी बात करती है।" असंतोष बुरी चीज है _____ कोई बुढ़िया गोबर पाथ पाथ कर अपनी गुजर करती थी। उसने व्यंतरदेवकी आराधना की । व्यंतर बुढ़ियासे बहुत प्रसन्न हुआ और देव-प्रसादसे उसके गोबरके सब उपले रतन बन गये । बुढ़िया खूब धनवान हो गयी। उसने चार कोठोंका एक सुन्दर भवन बनवा लिया और वह सुखसे रहने लगी । एक दिन बुढियाके घर उसकी एक पड़ोसन आयी और उसने बातों बातोंमें सब पता लगा लिया कि बढ़िया इतनी जल्दी धनी कैसे बन गयी। पड़ोसनको बुढ़ियासे बड़ी ईर्ष्या हुई और उसने भी व्यंतरदेवकी आराधना शुरू कर दी । व्यंतर प्रसन्न होकर उपस्थित हुआ और उसने वर मांगनेको कहा। पड़ोसनने कहा-“मैं चाहती हूं जो कोई वस्तु तुम बुढ़ियाको दो वह मेरे दुगुनी हो जाय ।" व्यंतरने कहा "बहुत अच्छा।" ___अब जो वस्तु बुढ़िया मांगती वह उसकी पड़ोसनके घर दुगुनी हो जाती। बुढ़ियाके घर चार कोठोंका एक भवन था तो उसकी पड़ोसनके दो भवन थे । इसी प्रकार और भी जो सामान बुढ़ियाके था, उससे दुगुना उसकी पड़ोसनके घर था । बुढ़ियाको जब इस बातका पता लगा तो वह अपने मनमें बहुत कुढ़ी। उसने क्रोधमें आकर व्यंतरसे वरदान मांगा कि उसका चार कोठोंवाला भवन गिर पड़े और उसके स्थानपर एक घासकी कुटिया बन जाय । बस उसकी पड़ोसनके भी दोनों भवन नष्ट हो गये और उसकी जगह दो घासकी कुटियां बन गयीं । बुढ़ियाको इससे भी संतोष न हुआ। उसने दूसरा वर मांगा "मेरी एक श्रांख फूट जाय ।” फलतः उसकी पड़ोसनकी दोनों आखें फूट गयी। तत्पश्चात् बुढ़ियाने कहा "मेरे एक हाथ और एक पैर रह जाय, "बस उसकी पड़ोसनके दोनों हाथ और दोनों पांव नष्ट हो गये । अब बिचारी पड़ोसन पड़ी पड़ी सोचने लगी कि मैं क्या करू', यह सब मेरे असंतोषका फल है। यदि मैं बुढ़ियाके धनको देख कर ईर्ष्या न करती और संतोषसे जीवन बिताती तो मेरी यह दशा न होती।" ३६० Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य में राजनीति श्री पं० पन्नालाल जैन 'वसन्त' साहित्याचार्य, आदि । विशाल संस्कृत साहित्य में यद्यपि शतियोंसे मौलिक कृतियोंकी वृद्धि नहीं हुई है तथापि कोई ऐसा विषय नहीं जिसके बीज उसमें न हों। जैन संस्कृत साहित्य उसका इतना विशाल एवं सर्वाङ्गीण- भाग है कि उसके विना संस्कृत साहित्यकी कल्पना नहीं की जा सकती । उदाहरण के लिए राजनीतिको ही लीजिये; इसके वर्णन विविध रूपों में संस्कृत साहित्य में भरे पड़े हैं । विशेषकर 'संसार - शरीर भोग- निर्विण्णता' के प्रधान प्रतिष्ठापक जैन साहित्य में; जैसा कि निम्न संक्षिप्त वर्णन से स्पष्ट हो जायगा । राजा - 1 राजनीतिका उद्गम राजा और राजसे है अतः उसके विचार पूर्वक ही आगे बढ़ा जा सकता भोगभूमिमें कोई राजा नहीं होता परन्तु कर्मभूमिके प्रारम्भ होते ही उसकी आवश्यकताका अनुभव होता है; अर्थात् जहां समानता है, लोग अपना अपना कर्त्तव्य स्वयं पालन करते हैं वहां राजाकी श्रावश्यकता नहीं होती परन्तु जहां जनता में विषमता, निर्धनता सघनता, ऊंच-नीच श्रादिकी भावना उत्पन्न होती है वहां पारस्परिक संघर्ष स्वाभाविक हो जाता है । शिष्ट पुरुष कष्ट में पड़ जाते है और दुष्ट मनुष्य अपनी उदण्डता से श्रानन्द उड़ाते हैं । कर्मभूमिके इस अनैतिक वातावरण से जनताकी रक्षा करनेके लिए ही राजाका श्राविर्भाव कुलकरों के रुपमें होता है । श्राचार्य जिनसेनके महापुराण में लिखा है कि कुलकरोंके समय दण्डव्यवस्था केवल 'हा' 'मा' और 'धिक्' के रूप में थी परन्तु जैसे जैसे लोगों में अनैतिकता बढ़ती गयी वैसे वैसे दण्डव्यवस्था में परिवर्तन होते गये । प्रारम्भमें एक कुलकर ही अपने बलसे समस्त भारत खण्डका शासन करनेके लिए पर्याप्त था किन्तु बाद में धीरे-धीरे, अनेक राजाओंकी ( शासकों की ) श्रावश्यकता पड़ने लगी । इस प्रकार स्पष्ट हैं कि राजा सृष्टिका सेवक योग्य पुरुष था । उसका जीवन निरन्तर पर पालनके लिए ही था । जैनाचार्यों ने साम्राज्यपदको सात' परम स्थानों में गिनकर राजाके माहत्म्य की घोषणा की है। जो राजा अपने जीवनको केवल भोग विलास काही साधन समझते हैं वे आत्म विस्तृत कर्तव्य ज्ञानसे शून्य हैं। अपने ऊपर पूर्ण राष्ट्रके जीवन १ सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिव्रज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणञ्चेति सप्तकम् || ( महापुराण) १ ४६ ३६१ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ निर्वाहका भार लेकर भी यदि भोग-विलासको ही अपना लक्ष्य बना लें तो उनसे अधिक अात्मवञ्चक तथा प्रमत्त कौन होगा ? प्राचार्य सोमदेव ने राजा और राज्य की त्याग मयता के कारण ही उसे पूज्य समझकर अपने नीतिवाक्यामृतके प्रारम्भमें राज्यको ही नमस्कार किया है। उनका पहिला सूत्र है-'अथ धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः ।' शुक्राचार्यके नीतिशास्त्र में भी 'सन्धि, विग्रह अादि शाखा, साम, दान, आदि पुष्प तथा धर्म-अर्थ-काम रूप फल युक्त राज्य वृक्षको नमस्कार किया गया है । राजा कौन हो सकता है ? इसके उत्तरमें श्रा० सोमदेव कहते हैं धर्मात्मा कुल अभिजन और श्राचारसे शुद्ध, प्रतापो, नैतिक, न्यायी, निग्रह-अनुग्रहमें तटस्थ, आत्म सम्मान अात्म-गौरवसे व्याप्त, कोश बल सम्पन्न व्यक्ति राजा होता है ।' राजनीति राजाकी नीति राजनीति कहलाती है, यह चार पुरुषार्थों मेंसे अर्थ पुरुषार्थ के अन्तर्गत है। इस नीतिका पूर्ण प्रकाश वही राजा कर पाता है जो कि समस्त राजविद्यानोंमें निष्णात होता है | राज-विद्यायोंकी संख्यामें प्राचीन कालसे विवाद चला आ रहा है जैसा कि “यतः दण्डके भयसे ही सब लोग अपने अपने कार्यों में अवस्थित रहते हैं अतः दण्डनीति ही एक विद्या है' ऐसा शुक्राचार्यके शिष्योंका मत है । 'चंकि वृत्ति वार्ता और विनय ही लोक व्यवहारका कारण हैं, इसलिए वार्ता और दण्डनीति यही दो विद्याएं हैं' ऐसा वृहस्पतिके अनुयायी मानते हैं । 'यतः त्रयी ही वार्ता और दण्डनीतिका उपदेश देती है इस लिए त्रयी, वार्ता और दण्डनीति यही तीन राज-विद्याएं हैं। ऐसा मनुस्मृतिके भक्तोंका अभिप्राय है । 'यतः आन्वीक्षिकीके द्वारा जिसका विवेचन किया गया है ऐसी त्रयी हो वार्ता और दण्डनीतिपर अपना प्रभाव रख सकती है इसलिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति, ये चार ही राज-विद्याएं हैं, ऐसा कौटिल्यका मत है ।" उद्धरणसे स्पष्ट है । प्राचार्य सोमदेव ने भी कौटिल्यके समान आन्वीक्षिकी आदिको ही राजविद्या माना है । जिसमें अध्यात्म विषयका निरूपण हो वह आन्वीक्षिकी, जिसमें पठन-पाठन, पूजन विधान, आदि का वर्णन हो वह त्रयी, जिसमें कृषि, पशु पालन, आदि व्यवसाअोंका वर्णन हो वह वार्ता और जिसमें साधु संरक्षण तथा दुष्टोंके निग्रहका वर्णन हो वह दण्डनीति कहलाती है । १ नमोऽस्तु राज्यवृक्षाय पाइगुण्याय प्रशाखिने । सामादिचारु पुष्पाय त्रिवर्गफल दायिने ।। (शुक्रनीति) २ 'धार्मिकः कुलाभिजनाचारविशुद्धः प्रतापवान्नयानुगतवृत्तिश्च स्वामी' 'कोपप्रसादयोः खन्न्त्र:. 'आत्मा तिशयं धनं वा यस्यास्ति स स्वामी ।' स्वामि समुद्दश सूत्र १-३ । ३ 'आन्वीक्षिकी त्रयो वार्ता दण्डनीतिरिति चतस्रो राजविद्याः । ५६॥ 'आन्वीक्षिक्यध्यात्मविषये, त्रयी वेदयज्ञादिषु, वार्वा कृषिकर्मादिका, दण्डनीतिः साधुपालन दुष्टनिग्रहः ।।६।। 'नीतिवाक्यात-विद्यावृद्धसमुद्दश । ३६२ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में राजनीति फलतः राजनीतिके मूल सिद्धान्त अवस्थित है उनके प्रयोगकी पद्धतियों में ही सदा परिवर्तन होता रहता है । सन्धि, विग्रह, यान, ग्रासन, संश्रय और द्वैधीभाव ये राजाओंके छह गुण हैं, उत्साह मन्त्र और प्रभाव यह तीन शक्तियां हैं. साम, दान, भेद और दण्ड यह चार उपाय हैं । सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और विपत्तिप्रतीकार ये पांच अङ्ग हैं। राजनीतिके येही मुख्य सिद्धान्त हैं जो कि कर्मभूमि के प्रारम्भ में सम्राट् भरतके द्वारा निश्चित एवं श्राचरित किये गये थे और आज भी अनिवार्य हैं। हां, साधन एवं प्रयोग परिस्थितिके अनुसार पृथक् पृथक् हो सकते हैं । संस्कृत जैन साहित्य में राजनीतिका वर्णन, कहीं पिता या गुरुजनों द्वारा पुत्र अथवा शिष्यके लिए दिये गये सदुपदेश के रूप में मिलता है, अन्यत्र किसी राजाकी राज्य व्यवस्था अथवा चरित्र चित्रण के रूपमें उपलब्ध होता है अथवा स्वतंत्र नीतिशास्त्र के रूप में प्राप्त होता है । उदाहरण के लिए श्राचार्य वीरनन्दीके महाकाव्य 'चन्द्रप्रभचरित' में राज्य सिंहासनपर आरूढ़ युवराजको उसके पिता के उपदेशको ही लीजिये । 'हे पुत्र ! यदि तुम प्रभावक विभूतियोंकी इच्छा करते हो तो अपने हितैषियों से कभी उद्विग्न मत होना, क्योंकि जनानुराग ही विभूतियोंका प्रमुख कारण है । सम्पदाओं का समागम उसी राजाके होता है जो कि संकटों से रहित होता है और संकटोंका अभाव भी तभी संभव है जब कि अपना परिवार अपने अधीन हो । यह निश्चय है कि परिवारके अपने अधीन न रहनेपर भारी संकट या पड़ते हैं । यदि तुम अपने परिवारको ग्राधीन रखना चाहते हो तो पूर्ण कृतज्ञ बनो, क्योंकि कृतघ्न मनुष्य सब गुणों से भूषित होकर भी सब लोगोंको उद्विग्न ही करता है । तुम कलिकालके दोषोंसे मुक्त रह कर अर्थ और काम पुरुषार्थ की ऐसी वृद्धि करना जो धर्म की विरोधी न हो क्योंकि समान रूपसे त्रिवर्ग सेवन करनेवाला राजा ही दोनों लोकों को सिद्ध करता है । जो राज कर्मचारी उनका तुम निग्रह करना, और जो प्रजाकी सेवा करते हैं उनको वृद्धि देना, जन तेरी कीर्ति गावें गे ( अर्थात् यशस्वी बनो गे ) और क्रमशः वह दिग् दिगन्त तक फैल जायगी ।' तुम अपने मन की वृत्तिको सदा गूढ़ रखना, और अपने उद्योगों को भी इतना छिपाकर रखना कि फल के द्वारा ही उनका अनुमान किया जा सके। जो पुरुष अपनी योजना छिपा कर रखता है और दूसरेके मन्त्रका भेद पा जाता है उसका शत्रु कुछ नहीं कर सकते हैं । तुम तेजस्वी होकर समस्त दिशाओं में व्याप्त हो जाना, समस्त राजाओं में प्रधानताको प्राप्त करना, तब सूर्य के किरण -कलापके समान तेरा कर-प्रपात भी समस्त भूमण्डल पर निर्वाध रूपसे होगा । अर्थात् समस्त भूमण्डल तेरा करदाता हो जायगा । प्रजाको कष्ट पहुंचाते हैं क्योंकि ऐसा करनेसे बन्दी - १ - चन्द्रप्रभचरित सर्ग ५ श्लो ३६-४३ । ३६३ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ राजदरबारमें शत्रुपक्षका दूत रोषपूर्ण बचनोंसे युवराजको उत्तेजित कर देता है । युद्धके लिए तयार हो जाते हैं । पुरोहित आदि उसे शान्त करनेका प्रयत्न करते हैं । युवराज उन सबको उत्तर देते हैं । इस प्रकार चन्द्रप्रभका बारहवां सर्ग किरात और माघके दूसरे सर्गको भी मात करता है । यथा - 'नय और पराक्रम में नय ही बलवान् है, नय शून्य व्यक्तिका पराक्रम व्यर्थ है । बड़े बड़े मदोन्मत्त हाथियोंको विदारण करनेवाला सिंह भी तुच्छ शवरके द्वारा मारा जाता है ।' जो नीतिमार्गको नहीं छोड़ता है यदि उसका कार्य सिद्ध नहीं होता है तो यह उसका दोष नहीं है अपितु उसके विपरीत दैवका ही प्रभाव है | आप विवेकियों में श्रेष्ठ हैं अतः विना विचारे शत्रुके साथ दण्डनीतिका प्रयोग मत कीजिये । यतः शत्रु अभिमानी है इसलिए साम-उपाय से ही शान्त हो सकता है । अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए शत्रुपर सबसे पहले सामका प्रयोग करते उसके बाद भेद, आदि अन्य उपायोंका; दण्ड तो अन्तिम उपाय । एक प्रिय वचन सैकड़ों दोषों को दूर करने में समर्थ है, मेघ जलबिन्दुके कारण ही लोगोंको प्रिय हैं, वज्र श्रादिके द्वारा नहीं । दामसे धन हानि, दण्ड से बल हानि और भेदसे 'कपटी' होनेका अपयश होता है किन्तु सामसे बढ़कर सर्वथा कल्याणकारी दूसरा उपाय नहीं है ' । सोमदेवसूरि यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृतके कर्ता बहुश्रुत विद्वान् श्राचार्य सोमदेवने चालुक्य वंशीय राजा अरिकेसरीके प्रथम पुत्र श्री वद्दिगराजकी गङ्गाधारा नगरीमें चैत्र सुदी १३ शक संवत् ८८१ को यशस्तिलक चम्पूको पूर्ण करके संस्कृत साहित्यका महान उपकार किया था । इन्होंने अपने नीतिवाक्यामृत में राजनोतिके समस्त श्रृङ्गोंका जो सरस और सरल विशद विवेचन किया है वह तात्कालिक तथा चादके समस्त राजनैतिक विद्वानों के लिए आदर्श रहा है । काव्यग्रंथोंके कुशल टीकाकार मल्लिनाथसूरिने अपनी टीकाओं में बड़े गौरव के साथ नीतिवाक्यामृत के सूत्र उद्धृत किये हैं । नीतिवाक्यामृत के अतिरिक्त यशस्तिलकचम्पूके तृतीय आवास में भी राजाओं के राजनैतिक जीवनको व्यवस्थित और अधिक से अधिक सफल बनाने के लिए पर्याप्त देशना दी है। अपने राज्यका समस्त भार मन्त्रियों आदिपर छोड़कर बैठनेसे ही राजा लोग असफल होते हैं । श्राचार्य कहते हैं कि राजानोंको प्रत्येक राजकीय कार्यका स्वयं अवलोकन करना चाहिये । क्यों कि जो राजा अपना कार्य स्वयं नहीं देखता है उसे निकटवर्ती लोग उल्टा सीधा सुझा देते हैं । शत्रु भी उसे अच्छी तरह धोखा दे सकते हैं । 'जो राजा मन्त्रियोंको राज्यका भार सौंपकर स्वेच्छा विहार करते हैं वे मूर्ख, ऊपर दूध की रक्षाका भार सौप कर श्रानन्दसे सोते हैं । कदाचित् जल में मछलियोंका और १. चन्द्रप्रभचरित सर्ग १२, श्लो० ७२ ८१ । १. नीतिवाक्यामृत. स्वामिसमुद्देश. सूत्र ३२-३४ । ३६४ बिल्लियों के आकाश में Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में राजनीति पक्षियोंका मार्ग जाना जा सकता है किन्तु हाथके वलेको लुप्त करनेवाले मन्त्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं जानी जा सकती । जिस प्रकार वैद्य लोग धनाढ्य पुरुषोंके रोग बढ़ाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं उसी प्रकार मन्त्री भी राजानोंकी आपत्तियां बढ़ाने में सदा प्रयत्नशील रहते हैं । ग्रन्थकारने जहां मन्त्रियोंके प्रति राजाको जागरूक रहनेका उपदेश दिया है वहां मन्त्रियोंकी उपयोगिताका भी सुन्दर प्रतिपादन किया है । यतः मन्त्रियों के विना केवल राजाके द्वारा ही राज्यका संचालन नहीं हो सकता अतः राजाको अनेक मन्त्री रखना चाहिये और सावधानीसे उनका भरण पोषण करना चाहिये ।" राज्यकी उन्नतिका द्वितीय साधन मन्त्री गोपनीयता है, इसके विना योग-क्षेम दोनों ही नहीं रहते। वही राजा नीतिज्ञ है जो अपने मन्त्रका अन्य राजाओं को पता नहीं लगने देता तथा चतुर चरोंके द्वारा उनका मन्त्र जानता रहता है । मन्त्र रक्षा के लिए राजाओं को श्रयुक्त व्यक्तिको मन्त्रशालामें नहीं आने देना चाहिये महाराज यशोधरको समझाते हुए कहते हैं— 'हे महीपाल ! आप मन्त्रशालाका पूर्ण शोधन करें, रतिकालमें प्रयुक्त पुरुषकके सद्भावके समान मन्त्रशाला में अयोग्य एवं लघु पुरुषका सद्भाव वाञ्छनीय नहीं है । विष और शस्त्र के द्वारा एक मारा जाता है । परन्तु मन्त्रका एक विस्फोट ही सबन्धु राष्ट्र और राजा सभीको नष्ट कर देता है ।' कितने ही राजा दैवको न मानकर केवल पुरुषार्थवादी बन जाते हैं ऐसे लोगों के लिए श्राचार्य सचेत करते हैं कि 'राजाको चाहिये कि वह क्रमशः दैव ग्रहोंकी अनुकूलता, धनादि वैभव और धार्मिक मर्यादाका विचार करके ही युद्धादिमें प्रवृत्त हो । जो पुरुष धर्मके प्रसाद से लक्ष्मी प्राप्त करके श्रागे धर्म धारण करनेमें आलस करता है इस संसार में उससे बढ़कर कृतघ्न कौन होगा ? श्रथवा श्रागामी जन्म में उससे बढ़कर दरिद्र कौन होगा ? हाथीका शिकार करके केवल पाप कमानेवाले सिंहके समान धर्मकी उपेक्षा करके धन संचय करनेवाला राजा है, क्योंकि शृगालादिके समान धनादि परिजन खा पी जाते हैं । केवल दैवके भक्त बन कर पुरुषार्थ हीन राजाओं को भी सावधान करते हैं कि 'जो पौरुपको छोड़कर भाग्यके भरोसे बैठे रहते हैं उनके मस्तकपर कौए उसी तरह बैठते हैं जिस प्रकार निस्तेज राजाके विरुद्ध क्या अपने क्या दूसरे, – सभी जाल रचने लगते हैं । भला, ठण्ढी राख पर कौन पैर नहीं रखता ?' मन्त्र और मन्त्रीकी कितनी सुन्दर परिभाषा देते है ?' जिसमें देश, काल, व्ययका उपाय, सहायक और फलका निश्चय किया जाता है वही मन्त्र है । शेष सब मुहकी खाज मिटाना है । जिसका मन्त्र कार्यान्वित हो और फल स्वामीके अनुकूल ही वहो मन्त्री है । अन्य सब गाल बजाने वाले हैं।' मंत्री कहां का हो ? इसका उत्तर भी बड़ा उदार दिया है 'मन्त्री चाहे स्वदेशका हो, चाहे पर देशका राजा को अपने प्रारब्ध कार्योंके सफल निर्वाह पर ही दृष्टि रखनी चाहिये ।' क्योंकि शरीर में मकान में बने मिट्टीके सिंहों पर १ यशस्तिलक चम्पू आ० ३ श्लो० २३-२६ । २. यशस्तिलक चम्पू आ० ३ श्लो० २७-५६ ३६५ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व अभिनन्दन ग्रन्थ उत्पन्न व्याधि दुःख देती है और वन में उगी औषधि सुख पहुंचाती है। पुरुषोंके गुण ही कार्यकारी हैं; निज और पर की चर्चा भोजन में ही शोभा देती है।' राजाओंको पहिले तो मन्त्र द्वारा ही सफलता प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये 'जो मन्त्रवुद्ध से ही विजय प्राप्त कर सकते हैं उन्हें शस्त्रबुदसे क्या प्रयोजन ? जिसे मन्दार वृक्ष पर ही मधु प्राप्त हो सकता है वह उत्तुङ्ग शैलपर क्यों चढ़ेगा ?' विजिगीषाकी भावना से जो राजा स्वदेशरक्षाकी चिन्ता छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं उन्हें किस सुन्दरतासे सावधान किया है 'जो राजा निजदेशकी रक्षा न कर परदेशको जीतनेकी इच्छा करता है वह उस पुरुषकी तरह उपहासका पात्र होता है जो घोती खोलकर मस्तकपर साफा बांधता है ।' साम आदि के असफल रहनेपर अन्त में अगत्या दण्डका प्रयोग करना चाहिये । किन्तु दण्डका प्रयोग प्रत्येक समय सफल नहीं होता। उसका कब और किस प्रकार प्रयोग करना चाहिये श्राचार्य कहते हैं कि 'उदय, समता और हानि यह राजाओंके तीन काल हैं । इनमें से उदय काल में ही युद्ध करना चाहिये, अन्य दो कालोंमें शान्त रहना चाहिये । यतः एकका अनेकोंके साथ युद्ध करना पैदल सैनिकका हाथी के साथ युद्ध करनेकी तरह व्यर्थ होता है इसलिए बनके हाथी की तरह भेद उपायके द्वारा शत्रुको दलसे तोड़कर वशमें करना चाहिये। जिसप्रकार कच्ची मिट्टी के दो वर्तन परस्पर टकराने से दोनों ही फूट जाते हैं उसी प्रकार समान शक्तिके धारक राजाके साथ स्वयं युद्ध न करके उसे हाथीकी तरह किसी अन्य राजाके साथ भिड़ा देना चाहिये ।' इसी प्रकार हीन शक्तिके धारक राजा के साथ भी स्वयं नहीं लड़ना चाहिये बल्कि उसे अन्य बलवानोंके साथ लड़ाकर क्षीणकर देना चाहिये अथवा किसी नीति द्वारा उसे अपना दास बना लेना चाहिये २ । कितने ही राजा विना विचारे भरती करके अपनी सैनिक संख्या बढ़ा लेते हैं । परन्तु अवसर पर उनकी वह सेना काम नहीं आती इस लिए आचार्य कहते है कि 'पुष्ट, शूरवीर, अस्त्रकलाके जानकार और स्वामि-भक्त श्रेष्ठ क्षत्रियोंकी थोड़ीसी सेना भी कल्याण कारिणी होती है। व्यर्थ ही मुण्ड मण्डली एकत्रित करनेसे क्या लाभ है ? इस प्रकार युद्धकी व्यवस्था करके भी ग्रन्थकारका हृदय युद्धनीतिको पसंद नहीं करता । तथा वे कह ही उठते हैं'एक शरीर है और हाथ दो ही हैं; शत्रु पद पदपर भरे पड़े हैं । कांटे जैसा क्षुद्र शत्रु भी दुख: पहुंचाता है ! फिर तलवार द्वारा कितने शत्रु जीते जा सकते हैं ?' जो कार्यं साम, दान और भेदके द्वारा सिद्ध न योग्य कार्य में शस्त्रका हो सके उसीके लिए दण्डका प्रयोग करना चाहिए ।' 'सामके द्वारा सिद्ध होने कौन प्रयोग करेगा? जर्दा गुड खिलानेसे मृत्यु हो सकती है वहां विष कौन देगा नय रूपी जाल डालकर शत्रु रूपी मत्स्योंको फंसाना चाहिये जो भुजाओं द्वारा युद्ध रूपी क्षुभित समुद्रको तरना चाहेगा उसके घर कुशलता कैसे हो सकती है? फूलोंके द्वारा भी युद्ध नहीं करना चाहिये फिर तीक्ष्ण वाणों द्वारा युध करनेकी तो बात ही क्या है ? हम नहीं जानते युद्ध दशा को प्राप्त हुए पुरुषों की क्या दशां होगी ? 3 १. नीतिवा० युद्ध स ० ६९ । २. यश चम्पू आ. ३ इलो० ६८-८३ तथा नीतिवाक्यामृत, युद्ध समुदेश. सूत्र. ६८ । ३. यश० न० आ० ३, श्लो० ८४ ९२ । ३६६ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्यमें राजनीति स्थिर शान्ति रखनेके लिए राजाओंको उदार बनना चाहिये-अपनी संपदाका उचित भाग दूसरों के लिए भी देना चाहिये । जो राजा संचय शीलताके कारण अाश्रितजनोंमें अपनी सम्पदा नहीं बांटते उनका अन्तरंग सेवक वर्ग भी घूसखोर हो जाता है और इस प्रकार प्रजामें धीरे धीरे अनीति पनपने लगती है । अतः जो नरेन्द्र अपनी लक्ष्मीका संविभाग नहीं करता है वह मधुगोलककी तरह सर्वनाशको प्राप्त होता है। यहां दान उपायके समर्थनके आगे, भेदनीतिका भी सुन्दर प्रतिपादन है । 'जो राजा शत्रुत्रोंमें भेद डाले विना ही पराक्रम दिखाता है वह ऊंचे वांसोंके समूहमेंसे किसी एक बांसको खींचने वाले बलीके समान है। कितने ही नीतिकार 'राजाओंको अपना शारीरिक बल सुदृढ़ रखना चाहिये के समर्थक हैं और दूसरे राजाओंके बौद्धिक बलको प्रधानता देते हैं । परन्तु श्रा० सोमदेव दोनोंका समन्वय करते हुए कहते हैं कि 'शक्तिहीन राजाका बौद्धिक बल किस काम का ? और बौद्धिक बलहीन राजाकी शक्ति किस काम की ? क्योंकि दावानलके ज्ञाता पंगु षुरुषके समान ही सबल अन्धा-पुरुष भी दावानलका ज्ञान न होनेसे अपनी रक्षा नहीं कर सकता । यह आवश्यक नहीं है कि शत्रुओंको अपने वशमें करनेके लिए उनके देशपर अाक्रमण करे । जिस प्रकार कुम्भकार अपने घर दैठकर चक्र चलाता हुअा अनेक प्रकारके बरतनोंको बना लेता है उसी प्रकार राजा भी अपने घर बैठकर चक्र ( नीति एवं सैन्य ) चलाये और उसके द्वारा दिग-दिगन्तके राजारूपी भाजनोंको सिद्ध ( वश में ) करे । जिस प्रकार किसान अपने खेतके बीच मञ्च पर बैठ कर ही खेतकी रक्षा करता है उसी प्रकार राजाको भी अपने श्रासन पर आरूढ़ होकर समस्त पृथ्वीका पालन करना चाहिये। 'जिस प्रकार माली कटीले वृक्षोंको उद्यानके बाहर वाड़के रूपमें लगता है, एक जगह उत्पन्न हुए पौधोंको जुदो जुदी जगह लगाता है, एक स्थानसे उखाड़ कर अन्यत्र लगाता है, फूले वृक्षोंके फूल चुनता है, छोटे पौधों को बढ़ाता है, ऊंचे जानेवालोंको नीचेकी अोर झुकाता है, अधिक जगह रोकनेवाले पौधोंको छांट कर हलका करता है और ज्यादा ऊंचे वृक्षोंको काटकर गिराता है उसी प्रकार राजाको भी तीक्ष्ण प्रकृति वाले राजाओंको राज्यकी सीमा पर रखना चाहिये, मिले हुए राजाओंके गुटको फोड़कर जुदा जुदा कर देना चाहिये, एक स्थानसे च्युत हुए राजाओंको अन्य स्थानका शासक बनाना चाहिये, सम्पन्न राजाओंसे टैक्स वसूल करना चाहिये, छोटोंको बढ़ाना चाहिये, अभिमानियोंको नम्र करना चाहिये बड़ोंको हलका करना चाहिये--उनकी राज्य सीमा बाट देना चाहिये और उद्दण्डोंका १ य० च० आ० ३. श्लो० ९३ तथा नी० वा० धर्मसमुद्दे श सूत्र १५। २ यशस्तिलक चम्पू आ०३ श्लो० ९४ । ३६७ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दमन करना चाहिये । इस प्रकार राजाको चतुर मालीकी तरह समस्त पृथ्वीका पालन करना चाहिये । जिस प्रकार किसी वृक्ष पर पड़े हुए पीपलके छोटेसे बीजसे बड़ा वृक्ष तैयार हो जाता है उसीप्रकार छोटेसे छोटे शत्रुसे भी बड़ा भय उपस्थित हो सकता है इसलिए कौन बुद्धिमान् छोटेसे भी भयकी उपेक्षा करे गा'।' ये सब वे मार्मिक उपदेश हैं जिनसे राजाओंका जीवन लोक कल्याणकारी बन जाता है। राजाका जीवन केवल भोग विलासके लिए नहीं है, बल्कि दुष्टोंका निग्रह और सज्जनोंका अनुग्रह करके जगतीकी सुन्दर व्यवस्था करनेके लिए है । यद्यपि अन्य पुरुषोंकी तरह राजाके भी दो हाथ, दो पैर और दो अांखें होती हैं, उसे भी अन्य पुरुषोंकी तरह ही खाना, पीना, सोना आदि नित्यकर्म करने पड़ते हैं तथापि वह अपनी सेवावृत्ति, अलौकिक प्रतिभा और योग्य लोगों के निर्वाचन तथा सहयोगसे समूचे राष्ट्रको शान्त, समृद्ध और शिक्षित करता है। अपनो राजधानीमें बैठा राजा गुप्तचरोंके द्वारा स्व-परराष्ट्रकी समस्त हलचलोंसे परिचित रहता है । गुप्तचर विहीन राजाका न राज्य ही स्थिर रहता है और न प्राण । यही कारण है कि नीतिकारोंने गुचप्तरोंको राजाओंके लोचन बतलाये हैं और राजानोंको सावधान भी किया है कि वे चरोंकी उपेक्षा न करें अन्यथा चक्षुकी उपेक्षा होनेपर जिस प्रकार पद पदपर पतन होने लगता है उसी प्रकार चरोंकी उपेक्षा होनेपर भी पद पदपर पतन होना संभव हो जाता है। श्राचार्य सोमदेवने यही भाव नीतिवाक्यामृतमें स्पष्ट किया है । प्रा० सोमदेवके मतसे दूत वही हो सकता है 'जो चतुर हो, शूरवीर हो, निर्लोभ हो, प्राज्ञ हो, गम्भीर हो, प्रतिभाशाली हो, विद्वान् हो, प्रशस्त वचन बोलनेवाला हो, सहिष्णु हो, द्विज हो, प्रिय हो और जिसका प्राचार निर्दोष हो ।' यशस्तिलकके इस कथकका नीतवाक्यामृतमें भी समर्थन है । पूर्ण राजतंत्रका संचालन अर्थ द्वारा होता है इसलिए राजाओंको चाहिये कि वे प्रत्येक वैध उपायके द्वारा अपनी आयकी वृद्धि करें तथा जितनी आय हो उससे कम खर्च करें, अावश्यक श्राकस्मिक अवसरों के लिए संचय भी करते रहें, जैसा कि नीतिवाक्यमृतके सूत्रसे स्पष्ट है । राजाओंकी आय और व्यय व्यवस्थाका मुनियोंको कमण्डलुका निदर्शन है ।' जिस प्रकार कमण्डलुमें पानी भरनेका द्वार तो बड़ा होता है और निकालनेका छोटा, उसी प्रकार राजाअोंकी अायका द्वार बड़ा होना चाहिये और खर्च कम । 'जो राजा अपनी बायका विचार न करके अधिक खर्च करता है वह राज्य स्थिर नहीं रख सकता। इसी प्रकरणमें कहा गया है कि 'बायका विचार न करके खर्च करनेवाला कुवेर भी नंगा हो जाता है। १ यशस्तिलकचम्यू आ. ३ श्लो० ९५, ९७, १००, १०७-८ । २ यशस्तिलक चम्पू, आ०३ श्लोक १११ । नीति वाक्य. चारसमु..मू. २ । ३ 'आयव्ययमुखयोर्मुनिकमण्डलु दर्शनम्' । नीति. चार० मू०३। * 'आयमनालोक्य व्ययमानो वैश्रवणोऽपि श्रमणायते' नीति. अमात्यसमुद्देश। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्यमें राजनीति आगे चलकर मन्त्री कैसा होना चाहिये ? किस समय कैसा भोजन करना चाहिये ? और कैसे मनुष्योंकी संगति करनी चाहिये? आदि समस्त विषयोंका सुन्दर निरूपण है। महापुराणके व्यालीसवें पर्व में भगवजिनसेनाचार्यने महराज भरतकी राज्य व्यवस्थाका वर्णन करते हुए राजनीतिका विशद विवेचन किया है। गद्यचिन्तामणि कादम्बरीके जोड़का गद्य काव्य है। प्राचार्य आर्यनन्दीने विद्याध्ययनके अनन्तर जीवन्धरकुमारके लिए जो दीक्षान्त देशना दी है वह कादम्बरीके शुकनासोपदेशका स्मरण दिलाती है । कोमलकान्त पदावली और भव्य भावभङ्गीके द्वारा काव्य जगत्में युगान्तर करनेवाले महाकवि हरिचन्द्रने भी अपने धर्मशर्माभ्युदयमें यत्र तत्र और खासकर अठाहरवें सर्गमें राजनीतिका सरस और सुन्दर निरूपण किया है। अठारहवें सर्गके पन्द्रहवें श्लोकसे तेतालीसवें श्लोक तकका भाग विशेष रूपसे राजनीतिके विद्यार्थियोंको आकर्षित करता है। इस संक्षिप्त विवेचनसे 'जैन कवियोंने धर्म और मोक्षका ही वर्णन किया है' यह आक्षेप निमूल हो जाता है । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत और योगशास्त्र श्री पं० हीरालाल शास्त्री, न्यायतीर्थ । बारहवीं तेरहवीं शतीमें रचे गये जैन वाङ्मयकी और विद्वानोंका सबसे अधिक ध्यान जिन आचार्योंने खींचा है, उनमें से श्वेताम्बर परम्परामें आचार्य हेमचन्द्र और दिगम्बर परम्परामें पंडितप्रवर अाशाधरका नाम चिरस्मरणीय रहे गा । जिस प्रकार कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रने जैन वाङ्मयके प्रायः सभी विषयोंपर अपनी कुशल लेखनी चलायी है, उसी प्रकार प्राचार्यकल्प महापंडित आशाधरने भी धर्म, न्याय, साहित्य, वैद्यक आदि अनेकों विषयोंपर स्वतंत्र रचनाएं की हैं, जो दि० परम्परामें अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। श्राचार्य हेमचन्द्र तथा पं० श्राशाधरने अपने सामने उपस्थित समस्त जैन श्रागमका मंथन कर और उसमें अपनी विशिष्ट प्रतिभारूप मिश्री, तर्कणारूप एला और अनुभवरूप केशरका सम्मिश्रण करके जिज्ञासुत्रों के नेत्र, रसना और हृदयको आल्हादित करने वाला बौद्धिक श्रीखण्ड उपस्थित किया है। यदि आचार्य हेमचन्द्रने योगशास्त्र ग्रन्थमें ध्यान आदिका वर्णन करते हुए श्रावक और मुनियोंके धर्मोंका भी वर्णन किया है तो पं० आशाधरने भी धर्मामृत नामके ग्रन्थके दो भाग करके पूर्वार्धमें मुनिधर्मका वर्णन किया, जो अाज स्वतंत्र 'अनगारधर्मामृत, नामसे प्रकाशित है। और उसी ग्रन्थके उत्तरार्धमें श्रावक धर्मका वर्णन किया है, जिसका नाम सागारधर्मामृत है। पं० श्राशाधरजीसे पूर्व दि० श्राचार्योंने जितने भी श्रावक धर्मके वर्णन करनेवाले ग्रन्थ रचे हैं उन सबका दोहन कर एवं अनेकों नवीन विशेषताओंसे अलंकृत तथा स्वोपज्ञ टीकासे परिष्कृत करके पं० श्राशाधरजीने ऐसे अनुपम रूपमें सागरधर्मामृतको दि० सम्प्रदायके धर्मानुरागी श्रावकोंके लिए प्रस्तुत किया है कि वह अाज तक उनका पथ प्रदर्शन करता है। प्रकृत ग्रन्थका परिशीलन करनेसे जहां एक ओर उनकी अगाध विद्वत्ता और अनुभव मूलक लेखनीपर श्रद्धा होती है, वहीं दूसरी ओर उनकी असाम्प्रदायिकता और सद्गुण-ग्राहकता भी कम आश्चर्य जनक नहीं है, प्रत्युत वर्तमानके कलुषित साम्प्रदायिक वातावरणसे परे महान् एवं अनुकरणीय श्रादर्श समाजके सामने उपस्थित करती है। जैसा कि पं० श्राशाधरजीके सागारधर्मामृत तथा प्राचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्र वर्णित श्रावकधर्म प्रकरणमें दृष्टिगोचर यथेष्ट आदान प्रदानसे सिद्ध होता है, यह बात निम्न तुलनात्मक उद्धरणोंसे भली भांति स्पष्ट हो जाती है। ३७० Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत और योगशास्त्र पं० आशाधरजीके सागारधर्मामृतकी टीका वि० सं० १२६६ में पूर्ण हुई जब कि श्राचार्य हेमचन्द्र वि० सं० १२२९ में स्वर्गवासी हो चुके थे। इस प्रकार पं० आशाधरजीका श्रा० हेमचन्द्रसे पीछे होना निर्विवाद सिद्ध है । अतः उनपर प्राचार्यका प्रभाव स्पष्ट है जैसा कि प्राचार्य हेमचन्द्रके समान दुरूह मूल ग्रन्थोंके स्पष्टीकरणार्थ पं० श्राशाधरजीके अपने अनगारधर्मातृत और सागारधर्मामृतपर स्वोपज्ञ टीकाएं लिखनेसे सिद्ध है । यहां दोनों ग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययनके अाधारपर सागरधर्मामृतके कुछ ऐसे स्थलोंके उद्गमका स्पष्टीकरण किया जाता है जो मूल जैन परम्परासे मेल नहीं खाते । वनमालाका शपथ दिलाना–सागारधर्मामृतके चौथे अध्याय श्लोक २४ में रात्रिभोजनत्याग व्रतकी महत्ता बतलाते हुए लिखा है 'रामचन्द्रको कहीं ठहराकर पुनः यदि तुम्हारे पास न आऊं तो मैं हिंसा श्रादि पापोंका दोषी होऊ' इस प्रकार अन्य शपथोंको करनेपर भी वनमालाने लक्ष्मणसे 'रात्रि भोजनके पापका भागी होऊं' इस एक शपथको ही कराया।' टीकामें लिखा है कि रामायणमें ऐसा सुना जाता है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें रामका चरित वर्णन करने वाले दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं—एक तो रविषेणाचार्य रचित पद्मचरित और दूसरा गुणभद्राचार्य रचित उत्तरपुराण । उत्तरपुराणका कथानक अति संक्षिप्त है और उसमें वनमालाके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा गया है पद्मचरितमें वनमालाका वर्णन है । वनमालाको छोड़कर जब लक्ष्मण रामके साथ जाने लगे, तब वह बहुत विकल हुई, उसके चित्त-समाधानके लिए लक्ष्मणने कुछ शपथ भी किये-मगर वहां रात्रिभोजनके पापसे लिप्त होनेवाले किसी शपथका वर्णन नहीं है जैसा कि पद्मचरितके पर्व २८ में आये ३५-४३ वें श्लोकों से स्पष्ठ है। प्राकृत 'पउमचरिउ' भी रामके चरित्रको वर्णन करता है और ऐतिहासिक विद्वान् इसे रविषेणाचार्यके 'पद्मचरित' से भी पुराना मानते हैं। यद्यपि अभी तक यह निर्णित नहीं है कि यह ग्रंथ दि० परम्पराका है, अथवा श्वे० परम्पराका । तथापि श्वे० संस्थासे मुद्रित एवं प्रकाशित होनेके कारण सर्वसाधारण इसे श्वेताम्बर ग्रन्थसा ही सोचते हैं। प्रकृतमें हमें उसके दि० या० श्वे० होनेसे कोई प्रयोजन नहीं है । इस ग्रंथमें वनमालाकी चर्चा उसी प्रकार विशद रूपसे की गयी है, जिस प्रकार कि संस्कृत पद्मचरितमें । पर यहां पर भी रात्रिभोजनकी शपथका कोई उल्लेख नहीं हैं जैसा कि पर्व ३८ गाथा १६-२० के सिद्ध हैं । इसके विपरीत प्राचार्य हेमचन्द्ररचित त्रिषष्ठिशलाका-पुरुष चरितके सातवें पर्वमें वनमालाका वर्णन है और वहां उसके द्वारा लक्ष्मणसे रात्रिभोजनके पापसे लिप्त होनेवाली शपथका भी उल्लेख है। "श्रांखोंमें अांसू भरकर वनमाला बोली-"प्राणेश, उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा किस लिए की थी ? यदि उस समय मैं मर जाती तो मेरी वह सुखमृत्यु होती; क्योंकि मुझे अापके विरहका यह असह्य दुःख न सहना पड़ता ।" लक्ष्मणने उत्तर दिया-'हे वरवर्णिनी, मैं अपने ज्येष्ठ बन्धुको इच्छित स्थान पर पहुंचाकर तत्काल ही तेरे पास अाऊंगा।' ३७१ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ क्योंकि तेरा निवास मेरे हृदयमें है । हे मानिनी ? पुनः यहां अानेकी प्रतीतिके लिए यदि तुझको मुझसे कोई घोर प्रतिज्ञा कराना हो, तो वह भी मैं करनेको तयार हूं।" फिर वनमालाकी इच्छासे लक्ष्मणने शपथ ली कि “यदि मैं पुनः लौटकार यहां न आऊं, तो मुझको रात्रि-भोजनका पाप लगे।" इसप्रकार यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि पं० श्राशाधरजीके सामने हेमचन्द्रका त्रि० श० पु० चरित था और उसीके आधार पर उन्होंने वनमालाकी रात्रि भोजन वाली शपथका उल्लेख किया है। या यह भी संभव हो सकता है कि रामके चरितका प्रतिपादक अन्य कोई संस्कृत या प्राकृत ग्रन्थ उनके सामने रहा हो और उसके अाधारपर पंडितजीने उक्त उल्लेख किया हो। फिर भी पंडितजी की रचना शैलीको देखते हुए तो ऐसा लगता है कि दि० परंपराका और कोई उक्त घटनाका पोषक ग्रन्थ उनके सामने नहीं था, जिसकी पुष्टि उक्त श्लोककी टीकाके 'किल रामायणे एवं श्रूयते' इस पदसे भी होती है। अन्यथा वे उस ग्रन्थका नाम अवश्य देते, क्योंकि प्रकृत ग्रन्थमें अन्यत्र दूसरे ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंके नामोंका उल्लेख उन्होंने स्वयं किया है तथा योगशास्त्रके "श्रुयते ह्यन्यशपथाननादृत्यैव लक्ष्मणः । निशाभोजनशपथं कारितो वनमालया ।” श्लोकसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है। ___ भोजनका प्रेतके द्वारा जूठा किया जाना—दोनों ग्रन्थों के श्लोकोंमें रात्रिभोजनको प्रेतपिशाचादिके द्वारा उच्छिष्ट किये जानेका उल्लेख है, वह भी दि० परंपराके विरुद्ध है। दि० शास्त्रोंमें कहीं भी ऐसी किसी घटनाका उल्लेख नहीं देखनेमें आया जिससे कि उक्त बातकी पुष्टि हो सके । इसके विपरीत श्वे० ग्रन्थों में ऐसी कई घटनाअोंका उल्लेख है जिनमें प्रेत आदिसे भोजनका उच्छिष्ट किया जाना, देवोंका मानुषीके साथ संभोग करना आदि सिद्ध होता है । यहां यह शंका की जा सकती है कि संभव है प्रेतपिशाच आदिसे पं० श्राशाधरजीका अभिप्राय व्यन्तरादि देवोंसे न हो कर किसी मांस भक्षी मनुष्यादिसे हो; सो भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसी श्लोककी टीकामें पं० जी स्वयं लिखते हैं "तथा प्रेताद्युच्छिष्टमपि प्रेता अधम व्यन्तरा श्रादयो येषां पिशाचराक्षसादीनां तैरुच्छिष्टं स्पर्शादिना अभोज्यतां नीतं" ( अ० ४ श्लोक २५ की टीका )। उक्त उद्धरणसे मेरी बातकी और भी पुष्टि होती है साथ ही इस बात पर भी प्रकाश पड़ता है कि श्वे० शास्त्रों में वर्णित व्यंतरादि देवोंका मनुष्योंके भोजनको खाना, मानुषी स्त्रीके साथ संभोग करना आदि पं० आशाधरजीको भी इष्ट नहीं था, उन्हें यह बात दि० परम्परासे विरुद्ध प्रतीत हुई, अतएव उन्होंने उच्छिष्ट' का अर्थ 'मुहसे खाया' न करके 'स्पर्श आदिके द्वारा अभोज्य किया गया' किया है । १. रामायण पृ० २३६,-अनुवादक कृष्णलाल वर्मा । १. योग०३-४८। सागारध० ४-२५ । ३७२ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृत और योगशास्त्र अतिचारोंका वर्णन-योगशास्त्रके तीसरे अध्यायमें श्लोक नं० ९० से ११९ तक श्रावकके व्रतोंके अतिचारोंका वर्णन है । स्वोपज्ञ टीकामें परंपरासे चले आनेवाले अतिचारोंका खूब स्पष्ट विचेचन किया गया है जो उस समय तकके रचित श्वे० ग्रन्थोंमें देखनेको नहीं मिलता। इस प्रकरणके श्लोकोंकी टीका सागारधर्मामृतमें यथास्थान वर्णित १२ व्रतोंके अतिचारोंके व्याख्यानमें ज्योंकी त्यों उठाकर रख दी गयो प्रतीत होतो है, अन्यथा दोनों टीकात्रों में शब्दशः समता न दिखायी देती। दि० परम्पराके श्रावका. चार सम्बन्धी ग्रन्थोंमें पं० श्राशाधरजीके पूर्व किसी भी प्राचार्यने अतिचारोंकी व्याख्या उस प्रकारसे नहीं की, जिसप्रकारसे कि पं० जीने सागारधर्मामृतमें की है। यही कारण है कि इस अदृष्ट और अश्रुत-पूर्व अतिचारोंकी व्याख्यासे दि० विद्वान् जहां एक ओर उन्हें प्राचार्य कल्प कहने में गौरवका अनुभव करते श्रा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शुद्ध आचरण पर दृष्टि रखनेवाले कुछ दि० विद्वान् उनके ब्रह्मचर्याणुव्रत संबंधी अतिचारोंकी व्याख्यासे चौंकते हैं और उनके इस प्रसिद्ध और अनुपम ग्रन्थका वहिष्कार भी करते चले आरहे हैं। खरकर्मोका उल्लेख-भोगोपभोगपरिमाण व्रतके व्याख्यानमें श्रा० हेमचन्द्रने श्वे० आगमोंमें प्रसिद्ध १५ खरकर्मों का योगशास्त्रके तीसरे अध्याय में श्लोक नं० ९९ से ११४ तक वर्णन किया है । पं० श्राशाधरजीने सागार० अ०५ श्लो० २० में भोगोपभोगव्रतके अतिचारोंकी व्याख्या करनेके बाद एक शंका-समाधान लिखकर उसके आगे ही १५ खरकर्मोंका का वर्णन तीन श्लोकोंमें करके तीसरे द्वारा उनकी निरर्थकता भी बतलानेका उपक्रम किया है । शंका-समाधान विषयक अंश इसप्रकार है-“अत्राह सितम्बराचार्यः-भोगोपभोगसाधनं यद्रव्यं तदुपार्जनाय यत्कर्म व्यापारस्तदपि भोगोपभोग शब्देनोच्यते कारणे कार्योपचारात् ततः कोटपालनादि खरकर्मापि त्याज्यम् । तत्र खरकर्मत्यागलक्षणे भोगोपभोगव्रते अंगारजीविकादीन् पंचदशातिचारांस्त्यजेदिति । तदचारु, लोके सावध कर्मणां परिगणनस्य कतुमशक्यत्वात् । अथोच्यते अतिमन्दमति प्रतिपत्त्यर्थं तदुच्यते तर्हि तान् प्रतीदमप्यतु । मन्दमतीन प्रति पुनस्त्रसबहुघात विषयार्थत्यागोपदेशेनैव तत्परिहारस्य प्रदर्शितित्वादिति ।" अर्थात्-शंका-यहां कोई श्वेताम्बर आचार्य कहता है कि भोग और उपभोगके साधनभूत द्रव्यके उपार्जनके लिए जो कर्म या व्यापार किया जाता है वह भी कारणमें कार्यके उपचारसे 'भोगोपभोग' इस शब्दसे कहा जाता है । इसलिए कोतवाली करना आदि खरकर्म (क्रूरकार्य ) भी छोड़े अतः उन खरकर्मों का त्याग कराने वाले भोगोपभोग व्रतमें अंगारजीविका श्रादि १५ अतिचारोंको छोड़ना चाहिए । समाधान-उक्त कथन ठीक नहीं, क्योंकि लोकमें प्रचलित सावद्य (पाप ) कार्योंकी गणना करना अशक्य है । यदि कहो कि अत्यन्त मन्दबुद्धि शिष्योंको समझानेके लिए अंगार-जीविकादि खरकर्मों को कहते हैं, तो उनके लिए भले ही आप कहिये । किन्तु उनसे जो कुछ अधिक जानकार मन्दमति ३७३ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ हैं, उनके लिए तो त्रसघात, एकेन्द्रिय बहुघात, प्रमाद, अनिष्ट और अनुपसेव्य पदार्थों के त्यागके उपदेश द्वारा उक्त खरकमका परिहार बतलाया ही जा चुका है। 'अत्राह सितम्बराचार्यः' इस वाक्यसे किसी प्रसिद्ध श्वे० आचार्य के किसी महत्त्वपूर्ण या प्रसिद्धि प्राप्त ग्रन्थका उनके सामने होना निश्चित है । उपर्युक्त प्रमाणों और उद्धरणोंके प्रकाशमें यह बात भी निश्चित सिद्ध होती है कि वह ग्रन्थ श्रा० हेमचन्द्रका प्रसिद्ध योगशास्त्रा ही था । और उसीसे ये स्थल लिये गये हैं । पंडिताचार्यकी उदारता तथा जिनवच प्रीति आजके साहित्यिक सम्प्रदायवादियों के लिए प्रकाश स्तम्भ है । ३७४ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वकौमुदीके कर्ता श्री प्रा. राजकुमार जैन, साहित्याचार्य, आदि __'सम्यक्त्वकौमुदी'' 'पञ्चतन्त्र' की शैलीमें लिखी गयी बहुत ही महत्त्वपूर्ण, रोचक तथा स्वलपकाय रचना है । कलाकारने अपनी इस लघुकाय रचनामें भी सम्यक्त्वको अङ्कुरित करनेवाली उन आठ प्रधान कथाओंका समावेश किया है, जिन्हें पढ़कर कोई भी सहृदय पाठक प्रभावित हुए विना नहीं रह सकता। इन्हें गढ़नेमें कलाकारने अपनी निसर्ग निपुणता और प्रसन्न प्रतिभाका पूरा उपयोग किया है और यही कारण है जो आज भी ये कथाएं पाठकोंके मनोभावोंको सम्यक्त्वके प्रति उद्दीप्त करने में समर्थ हैं । यहां हम इस रचनाके कुशल कलाकारके सम्बन्धमें ही प्रकाश डालना चाहते हैं, जो इस महत्त्वपूर्ण कला-कृतिका सृजन करके अपने परिचय-दानमें एकदम मौन रहा है । मानो एक महान् दानीने सर्वस्व लुटाकर भी विज्ञापनसे बचनेके लिए अपनेको सब तरह छिपा लिया है। मदनपराजय और सम्यक्त्वकौमुदी का तुलनात्मक अध्ययन करने पर मैं इस परिणाम पर पहुंचा कि इन दोनों रचनाओंका लेखक एक ही व्यक्ति नागदेव होना चाहिए। मेरे निष्कर्ष के अाधार निम्न हैं । (१) दोनों रचनाओंमें पाया जानेव ला शैली-साम्य, (२) भाषा-साम्य, (३) उद्धृत पद्य-साम्य, (४) अन्तर्कथा साम्य और, (५) प्रकरण साम्य । शैली साम्य-जहां तक मदनपराजय और सम्यक्त्वकौमुदी की शैलीका सम्बन्ध है, दोनों ही रचनाएं पञ्चतन्त्रसे मिलती-जुलती श्राख्यानात्मक शैलीमें लिखी गयी हैं । यह अवश्य है कि सम्यक्त्वकौमुदी रूपकात्मक रचना न होनेसे उसमें मदन-पराजय जैसे रूपकोंका श्रात्यन्तिक अभाव है, परन्तु जिस प्रकार मदन-पराजय में पात्रोंकी उक्तियोंको समर्थ और प्रभावपूर्ण बनानेके लिए ग्रन्थान्तरोंके पद्योंको उद्धृत किया गया है और मूल कथाकी धाराको सशक्त तथा रोचक बनानेके लिए अन्य अतकथानोंकी संघटना की गयी है। उसी प्रकार सम्यक्त्वकौमुदी में भी उद्धृत पद्यों और अन्तर्कथाओंका यथेष्ट संग्रन्थन दिखलायी देता है। भाषा-साम्य-सम्यक्त्वकौमुदी और मदनपराजय में न केवल शैलीकी समानता है वरन् १ जैन ग्रन्थ कार्यालय हीराबाग बम्बईका संस्करण । ३७५ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ भाषा भी दोनोंकी करीब करीब एक सी ही है। जिस प्रकारकी सरल तथा सुवोध भाषाका मदनपराजय में प्रयोग हुआ है, सम्यक्त्वकौमुदी में भी भाषाकी सरलता और सुबोघता आपाततः स्पष्ट दिखलायी देती है। प्रायः सर्वत्र छोटे-छोटे वाक्योंका प्रयोग हुअा है। और बन्धकी प्रौढ़ि भी मदनपराजय की कोटिकी है । भाषा और शब्द-साम्यके लिए दोनों रचनाओंके निम्नाङ्कित स्थल विचारणीय हैं (क) “सतत (तं) प्रवृत्तोत्सवा (वं) प्रभूतवर जिनालया (यं) जिनधर्माचारोत्सवसहितश्रावका (क) घनहरिततरुखण्डमण्डिता (तं)।" (ख) "सर्वैः सभासदैवेष्टितो ( स च श्रेणिको)ऽमरराजवद्राजते ।" (ग) “अथ तेषामागमनमात्रेण तद्वनं सुशोभितं जातम् । तद्यथा-- "शुष्काशोककदम्वचूतवकुलाः..."आदि १८ तथा १६ श्लोक' ।" पद्य-साम्य-मदनपराजयमें जिस प्रकार ग्रन्थान्तरोंके पद्य उद्धृत करके रचनाको पुष्ट, प्रभावपूर्ण और अलङ्कृत किया गया है, सम्यक्त्वकौमुदीमें भी ठीक यही पद्धति अपनायी गयी है इतना ही नहीं कुछ पद्योंको छोड़ कर दोनों ग्रन्थोंके उद्धृत पद्य प्रायः समान ही हैं। उदाहरणके लिए कतिपय पद्य निम्न प्रकार है (१) “निद्रामुद्रितलोचनो मृगपतिर्यावद्गुहां सेवते तावत् स्वैरममी चरन्तु हरिणाः स्वच्छन्दसंचारिणः। उन्निद्रस्यविधूतकेसरसटाभारस्य निर्गच्छतो नादे श्रोत्रपथं गते हतधियां सन्त्येव दीर्घा दिशः ॥१२॥” (म०प०पृ०४-६) यही पद्य सम्यक्त्वकौमुदी पृष्ठ ८ पर 'शून्यादिशः' पाठान्तरके साथ पाया जाता है। (२) “दुराग्रहग्रहग्रस्ते विद्वान् पुसि करोति किम् । कृष्णपाषाणखण्डेषु मार्दवाय न तोयदः ॥” ( मदन-पराजय पृष्ठ १६) सम्यक्त्वकौमुदी पृ० १३ में यही पद्य 'कृष्णपाषाणखण्डस्य' पाठान्तरके साथ पाया जाता है । (३) "वशीकृतेन्द्रियग्रामः कृतज्ञो विनयान्वितः। निष्कषाय प्रसन्नात्मा सम्यग्दृष्टिमहाशुचिः॥म० प० पृ० १३) यही पद्य सम्यक्त्वकौमुदी पृ० ६५ में 'निष्कषाय प्रशान्तात्मा' पाठान्तरके साथ मिलता है। इस प्रकार दशकों उदाहरण दिये जा सकते हैं। १ मदनपराजय पृ० ८ पं०, २१-२, सम्यक्त्व कौमुदी पृ० १, ५० ७-९ । २ मदनप० पृ० ३, ५० १-२ सम्यक्त्वकी० पृ० १, पं० १२ . ३ मदनप० पृ० ११-२, प० २५-२८ तथा १.६ । सम्यक्त्व की पृ० ५६, पं० ७-८ । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वकौमुदी के कर्त्ता श्रन्तर्कथा - साम्य - मदनपराजय में कतिपय अन्तर्कथा का समावेश कर के मूलकथाकी धारा विविध मुख सरस स्रोतों में प्रवाहित की गयी है और इस प्रकार एक अपूर्व रसकी श्रृष्टि हुई है, सम्यक्त्वकौमुदी में भी रस परिपाककी यह पद्धति अपनायी गयी दिखती है । इस प्रसङ्ग में सम्यक्त्वकौमुदीकारने अपनी रचना में यमदण्ड कोतवालके द्वारा राजाको सुनायी गयी सात अन्तर्कथाका निवेश तो किया ही है, कुछ अन्य अन्तर्कथा सूचक पद्य भी उद्धृत किये हैं जिनकी अन्तर्कथाओं का विस्तृत विवरण मदनपराजयगत अन्तर्कथाओं की तरह ही छोड़ दिया गया है। इस प्रकारके पद्य निम्न प्रकार हैं (१) 'पराभवो न कर्तव्यो यादृशे तादृशे जने । तेन टिट्टिभमात्रेण समुद्रो व्याकुलीकृतः ॥ यह पद्य पञ्चतन्त्र मित्रभेदके' "शत्रोर्विक्रममज्ञात्वा... इत्यादि' ( ३३७ सं० ) पद्यका परिवर्तित रूप है, जिसमें टिट्टभ जैसे क्षुद्र जन्तु द्वारा समुद्र जैसे महामहिम व्यक्तित्वशालीकी पराभव कथा चित्रित की गयी है । परन्तु सम्यकत्वकौमुदीके कर्त्ता ने अपनी इस रचना में उल्लिखित पद्यसे सम्बन्धित कथावस्तुका तनिक भी विववरण न देकर उक्त परिवर्तित पद्यको ही उद्धृत कर दिया है । एक दूसरे पद्यमें भी इस प्रकारकी कथा वस्तु प्रतिबिम्बित हो रही है। जिसमें एक राजकुमारीके प्रसाद से भिक्षुकी मन कामनाकी पूर्ति नहीं होती है । प्रत्युत बाघके निमित्तसे वह मौतका शिकार बन जाता है । सम्यक्त्वकौमुदी के कर्त्ताने प्रस्तुत पद्यसे सम्बन्धित कथा-वस्तुका भी कोई विस्तृत विवरण नहीं दिया है । "अव्यापारेषु व्यापारं . . इत्यादि (पृष्ट ७० ) श्लोक 'पञ्चतन्त्र मित्रभेद' का है, जिसमें निष्प्रयोजन कील उखाड़ने वाले बन्दरकी कथा अन्तर्हित है । पर सम्यक्त्वकौमुदीकारने इस कथाका भी कोई पल्लवित रूप नहीं दिया है । मदनपराजय के कर्त्ताने भी अपनी रचनाओं में प्रस्तुत पद्यका समावेश किया है, परन्तु उन्होंने भी इस पद्यसे सम्बन्धित कथा रूपका कोई स्पष्ट विवरण नहीं दिया है । इसके साथ ही मदनपराजय ( पृ० ७८ ) में इस पद्यका स्वरूप भी निम्नप्रकार परिवर्तित उपलब्ध होता है । "अव्यापारेषु व्यापारं यो नरः कतुमिच्छति । स एव निधनं याति यथा राजा ककुद्रुमः ॥” इस प्रकारके अनेक पद्य सुलभ हैं । तथा यह ध्यान देनेकी बात है कि “वरं बुद्धिर्ना साविद्या,...” ऐसे पद्य मदनपराजयमें भी पाये जाते हैं और सम्यकक्त्वकौमुदी तथा मदनपराजय के पाठों में कोई भेद नहीं है । इस प्रकार इन पद्योंसे सम्बन्धित कथाएं और उन्हें अपनी-अपनी रचनाओं में निवेश करनेके प्रकार संकेत करते हैं कि मदनपराजय और सम्यक्त्वकौमुदी के कर्ता एक ही हैं । १ पञ्चतन्त्र, मित्र भेद, बारहवीं कथा । २ "अन्यथा चिन्तित .. आदि" श्लोक० पृ० ३२ । ४८ ३७७ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकरण-साम्य-मदनपराजय और सम्यक्त्वकौमुदी में पायी जानेवाली उल्लिखित समानताओं के बावजूद भी एक ऐसी समानता पायी जाती है, जिसे हम 'प्रकरण-साम्य' कह सकते हैं, अर्थात् जिस प्रकार मदनपराजय में कथा-वस्तुको पल्लवित तथा परिवर्धित करनेके लिए और पात्रोक्तियोंको पुष्ट तथा समर्थ बनानेके लिए हठात् नये-नये प्रकरणों और प्रसङ्गों की योजना की गयी है, ठीक यही पद्धति सम्यक्त्व कौमुदी में भी प्रायः सर्वत्र विखरी हुई दिखलायी देती है । ऐसे कतिपय स्थल निम्न प्रकार हैं (क) 'मदन-पराजय' (पृ. २१-२२) का अर्थप्रकरण, जिसमें शिल्पकारने नौ पद्यों द्वारा अर्थकी उपयोगिता बतलायी है। उसका वैसा ही चित्रण सम्यक्त्वकौमुदी (पृ. ९०-६१ ) में भी श्राठवीं विद्युल्लताकी कथामें समुद्रदत्तकी चिन्ता द्वारा ग्रथित किया गया है। (ख) मदन-पराजय (पृ. १४-१५) का स्त्री-निन्दा प्रकरण जिसमें दस पद्यों द्वारा जो खोलकर स्त्री-निन्दाका काण्ड उपस्थित किया गया है । सम्यक्त्वकौमुदी कारने भी अपनी रचनामें इस काण्डको दो बार उपस्थित किया है । एक बार पहली कथामें उस समय, जब सुभद्रको अपनी वृद्धा माताकी कुशील प्रवृत्तिका पता चला है ( पृ. २३-२४ ) और दूसरे तब; जब कि कोई धूर्त अशोकके सामने कमलश्री के काण्ड (पृ. ९४-९५ ) को उपस्थित करता है । (ग) मदनपराजय (पृ. ११-२) का वह प्रकरण, जिसमें राजगृहमें सुभद्राचार्य के संघ सहित पानेसे नगरका उद्यान एकदम हरा-भरा हो जाता है । एक साथ छहों ऋतुओंके फल-फूलोंसे समृद्ध हो उठता है । उसे भी सम्यक्त्वकौमुदी के कर्ताने विष्णुकी कथाके प्रसङ्गसे समाधिगुप्त मुनिराजके आने पर कौशाम्बीके उद्यान वर्णनमें सजीव चित्रित किया है । इतना ही नहीं, इस अवसर पर मदनपराजयकारने जिन पद्योंको उल्लेख किया है, सम्यक्त्वकौमुदी कारने यत्किञ्चित् परिवर्तनके साथ ही उन्हीं पद्यों को अपनी रचनाका अङ्ग बना लिया है। इस प्रकारके साम्य पग पगपर सुलभ हैं। भाषा, शैली, भाव और पद्य-साम्यके भी अन्य स्थल दोनों रचनाओं में पाये जाते हैं । ये समस्त प्रमाण इसी बातको पुष्ट करते हैं कि सम्यक्त्वकौमुदी और मदनपराजय के रचयिता एक ही हैं और वह हैं-नागदेव । क्योंकि मदनपराजय की प्रस्तावनामें इस बातका स्पष्ट उल्लेख है कि इसकी रचना नागदेव ने की है। नागदेवका परिचय नागदेवने 'मदन-पराजय' की प्रस्तावनामें स्वयं ही अपना और अपनी वंश-परंपराका परिचय "पृथ्वी पर पवित्र रघुकुल रूपी कमलको विकसित करनेके लिए सूर्य के समान चङ्गदेव हुए । चङ्गदेव. कल्प वृक्षके समान समस्त याचकोंके मनोरथ पूर्ण करते थे । इनका पुत्र हरिदेव हुा । हरिदेव दुष्ट कवि रूपी हाथियोंके लिए सिंहके समान भयंकर था । इनका पुत्र नागदेव हुआ, जिसकी भूलोकमें महान् वैद्यराजके ३७८ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वकौमुदीके कर्ता रूपमें प्रसिद्धि रही । नागदेवके हेम और राम नामके दो पुत्र हुए । ये दोनों भाई भी अच्छे वैद्य थे रामके प्रियङ्कर नामका एक पुत्र हुअा, जो याचकोंके लिए बड़ा ही प्रिय लगता था । प्रियङ्करके भी श्री मल्लुगित् नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रीमल्लुगित् जिनेन्द्र भगवानके चरण कमलोंका उन्मत्त भ्रमरके समान अनुरागी था और चिकित्साशास्त्र-समुद्रमें पारंगत था । श्री मल्लुगित्का पुत्र मैं नागदेव हुआ। मैं ( नागदेव ) अल्पज्ञ हूं तथा छन्द, अलङ्कार, काव्य और व्याकरण शास्त्रमें से मुझे किसी भी विषयका बोध नहीं है। हरिदेवने जिस कथा ( मदन पराजय ) को प्राकृत में लिखा था, भव्य जीवोंके धार्मिक विकासकी दृष्टि से मैं उसे संस्कृत में निबद्ध कर रहा हूं।" लिखकर दिया है । इस प्रस्तावनासे ' स्पष्ट है कि श्रीमल्लुगित्के पुत्र नागदेवने ही मदनपराजयको संस्कृत भाषामें निबद्ध किया है और यह वही कथा है जिसे नागदेवसे पूर्व छठी पीढ़ीके हरिदेवने प्राकृतमें ग्रथित किया था। नागदेवका समय–मदनपराजयकी प्रशस्तिसे नागदेव और उनकी वंश-परंपराका ही उक्त परिचय मात्र मिलता है । मदनपराजय के कर्ता ने इस धरा-धामको कब अलंकृत किया, इस बातका कोई उल्लेख न तो मदनपराजयकी प्रस्तावना या अन्तिम प्रशस्तिमें स्वयं नागदवने ही दिया और न किसी अन्य ग्रन्थकारने ही इनके नाम, समय, आदिका कोई स्पष्ट सूचन किया है। ऐसी स्थितिमें नागदेवके यथार्थ समयका पता लगाना कठिन है, फिर भी अन्य स्रोतोंसे नागदेवके समय तक पहुंचना शक्य है। वे स्रोत निम्न प्रकार हैं (१) नागदेवने मदनपराजय और सम्यक्त्वकौमुदी में जिन ग्रन्थकारोंकी रचनाओंका उपयोग किया है, उनमें सर्वाधिक परवर्ती पंडितप्रवर अाशाधर हैं । और पंडित श्राशाधरने अपनी अन्तिम रचना (अनगारधर्मामृत टीका ) वि० सं० १३०० में समाप्त की है। अतः यदि इसी अवधिको उनका अन्तिम काल मान लिया जाय तो नागदेव वि० सं० १३०० के पूर्वके नहीं ठहर सकते । (२) श्री ए. बेवरको १४३३ ई० की लिखी हुई सम्यक्त्वकौमुदीकी एक पाण्डुलिपि [हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई थी। यदि इस प्रतिको नागदेवके २७ वें वर्ष में भी लिखित मान लिया जाय तो भी उनका श्राविर्भाव काल विक्रमकी चौदहवीं शतीके पूर्वार्द्धसे आगेका नहीं बैठता । नागदेवके समयका यह एक संकेतमात्र है। पुष्ट निर्णय भविष्यमें संचित सामग्रीके आधार पर हो सकेगा। १ - 'मदन-पराजय' की प्रस्तावना श्लोक १-५ । २ - 'ए हिस्ट्री आफ इण्डियन कलचर' (द्वितीय भाग), पृ० सं० ५४१की टिप्पणी - - - - ३७६ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास श्री ज्योतिप्रसाद जैन एम० ए०, एलएल० बी० स्वामीकी महत्ता - 1 भगवान महावीरके पश्चाद्वर्ती समस्त जैनाचार्यों में समन्तभद्रस्वामीका आसन अनेक दृष्टियों से सर्वोच्च है । उनके परवर्ती अनेक दिगम्बर श्वेताम्बर जैन - अजैन प्रख्यात एवं प्रमाणिक विद्वानोंने उनकी अद्वितीय प्रतिभा, गंभीर-सूक्ष्मप्रज्ञता, प्रभावक कवित्व शक्ति, अनुपम तार्किकता वाग्मिता उनके द्वारा किये गये अनेकान्तात्मक जिनेन्द्रके शासनके सर्वतोमुखी उत्कर्षकी मुक्तकंठसे प्रशंसा की है । वे साहित्य के मर्मज्ञ तथा उनके कार्य कलापोंसे सुपरिचित एवं प्रभावित दिग्गज, श्रेष्ठ आचार्यों द्वारा 'भद्रमूर्ति, एक मात्र भद्र प्रयोजनके धारक, कवीन्द्र भास्वान, वादियों वाग्मियों कवियों एवं गमको में सर्वश्रेष्ठ, महान एवं आद्य स्तुतिकार, स्याद्वाद मार्गाग्रणी, स्याद्वाद विद्याके गुरु तथा अधिपति, साक्षात स्याद्वाद शरीर, वादिमुख्य, कलिकाल गणधर भगवान महावीर के तीर्थकी सहस्रगुणी वृद्धि करनेवाले, जिनशासन प्रणेता, एवं साक्षात् भारतभूषण ऐसे विशेषणोंसे सम्बोधित किये गये हैं । प्रो० रामास्वामी आयंगरके शब्दों में, 'यह स्पष्ट है कि वह ( स्वामी समन्तभद्र ) जैन धर्म के एक महान प्रचारक थे । जिन्होंने जैन सिद्धान्तों और आचार विचारोंके दूर दूर तक प्रसार करने का सतत प्रयत्न किया, और जहां कहीं भी वह गये अन्य सम्प्रदायवाले उनका तनिक भी विरोध न कर सके ।' अपने इस कार्य में 'वे सदैव महाभाग्यशाली रहे । श्रवणबेलगोल शिलालेख १०५ के अनुसार 'उनके व्याख्यान सर्वार्थ प्रतिपादक स्याद्वाद विद्या के अनुपम प्रकाशसे त्रिभुवनको प्रकाशित करते हैं । और उनकी आप्तमीमांसा स्याद्वाद सिद्धान्तकी सर्वाधिक प्रमाणिक व्याख्या है । मि० एडवर्ड पी० राइसने लिखा है कि 'वह समस्त भारतवर्ष में जैनधर्म के अत्यन्त प्रतिभाशाली वादी और महान प्रचारक थे और उन्होंने स्याद्वाद रूप जैन सिद्धान्तको परम प्रभावक दृढ़ताके साथ ऊंचा उठाये रक्खा ।" बम्बई गजेटियरके १. 'स्वामी समन्तभद्र'-- गुणादि परिचय प्रकरण | २ सा. इण्डि. ज. पृ० २९-३१ । ३ ई. पी. राइसकृत कनारी साहित्यका इतिहास । ३८० Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास विद्वान सम्पादक के शब्दों में-- "दक्षिण भारतमें समन्तभद्रका उदय न केवल दिगम्बर परम्पराके इतिहास में वरन् संस्कृत साहित्यके इतिहास में भी एक महान युग प्रवर्तनका सूचक है ।" प्रसिद्ध विद्वान मुनि जिनविजयजीके कथनानुसार -- "ये जैनधर्म के महान प्रभावक और समर्थ संरक्षक महात्मा हैं, इन्होंने महावीरके सूक्ष्म सिद्धान्तोंका उत्तम स्थितीकरण किया, और भविष्य में होनेवाले प्रतिपक्षियों के कर्कश तर्क प्रहारसे जैन दर्शनको अक्षुण्ण रखनेके लिए अमोघ शक्तिशाली प्रमाण शास्त्रका सुदृढ़ संकलन किया । " वस्तुतः, स्वामी समन्तभद्र जैन वाङमय क्षितिजके पूर्ण भासमान अंशुमाली हैं, किसी भी अन्य विद्वानसे उनकी तुलना करना सूर्यको दीपक सम कहना है । भारतीय संस्कृति, दर्शन और साहित्य को उनकी देन निराली एवं महत्वपूर्ण हैं । ऐसे महान आचार्य होते हुए भी वे इतने अहंभाव शून्य थे कि उनकी स्वयंकी कृतियोंसे उनके संबंधका प्रायः कुछ भी इतिवृत्त प्राप्त नहीं होता। उनका समय भी अभी तक एक प्रकारसे अनिर्णीत समझा जाता है । पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार भी बहुत ऊहापोह करनेके पश्चात् इसी निष्कर्ष पर पहुंच सके हैं, कि “समन्तभद्र के यथार्थ समय के सम्बन्धमें कोई जंची तुली एक बात नहीं कही जा सकती । फिर भी इतना तो सुनिश्चित है कि समन्तभद्र विक्रम की पांचवीं शती से पीछे अथवा ईस्वी सन् ४५० के बाद नहीं हुए, और न वे विक्रमकी पहली शतीके ही विद्वान मालूम होते हैं - वे पहली से पांचवीं शतीके अन्तरालमें किसी समय हुए हैं । स्थूल रूपसे विचार करने पर हमें समन्तभद्र विक्रम की प्रायः दूसरी या तीसरी शतीके विद्वान मालूम होते हैं । परन्तु निश्चय पूर्वक अभी यह नहीं कहा जा सकता । " प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल संघवी ने भी प्रायः इसी मतका समर्थन इन शब्दों में किया है - "यदि हमारा अनुमान ठीक है तो ये दोनों ग्रन्थकार ( स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर ) विक्रमकी छठी शतीसे पूर्व ही हुए हैं। और आचार्य पूज्यपाद द्वारा किये गये इन दोनों स्तुतिकारोंके उल्लेखों की वास्तविकता को देखते हुए यह नितान्त संभव प्रतीत होता है कि ये दोनों ग्रन्थकार पूज्यपादके पूर्ववर्ती थे और इन दोनोंकी रचनाओंका पूज्यपादकी कृतियोंपर अत्यधिक प्रभाव पड़ा था । किन्तु, बाद में उन्होंने समन्तभद्र संबंधी अपने इस मतमें यकायक परिवर्तन कर दिया जैसा कि 'अकलङ्कग्रन्थत्रय' के प्राक्कथनमें आये - " अनेक विध ऊहापोह के बाद मुझको अब अति सष्ट हो गया है कि वे ( समन्तभद्र ) 'पूज्यपाद देवनन्दी' के पूर्व तो हुए ही नहीं । पूज्यपाद के द्वारा स्तुत आप्त के समर्थन १ बो. गजेटियर भा. १, भ. २ पृ० ४०६ । २ 'सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' जैन साहित्य संशोधक, भा० १, अंक १, पृ० ६ । ३ स्वामी समन्तभद्र पृ० १९६ । ४ सम्मतितर्क की अंग्रेजी भूमिका पृ० ६३ । ३८१ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ में ही उन्होंने प्राप्तमीमांसा लिखी है....अधिक संभव तो यह है कि समन्तभद्र और अकलङ्कके बीच साक्षात विद्याका संबंध हो । दिगम्बर परम्परामें स्वामी समन्तभद्रके बाद तुरन्त ही अकलंक आये" से स्पष्ट है । और ये अकलंकको, हरिभद्र याकिनी (७००-७७० ई०) के समकालीन मानते हैं । उपर्युक्त कथनकी पुष्टि करते हुए न्याय कुमुदचन्द्र भाग २ के प्राक्कथनमें लिखा है- "जब यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि समन्तभद्र पूज्यपादके बाद कभी हुए हैं। और यह तो सिद्ध ही है कि समन्तभद्र की कृति के ऊपर सर्व प्रथम व्याख्या अकलंककी है, तब इतना मानना हो गा कि अगर समन्तभद्र और अकलंकमें साक्षात् गुरु-शिष्य भाव न भी रहा हो तब भी उनके बीचमें समयका कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकता। इस दृष्टिसे समन्तभद्रका अस्तित्व विक्रमकी सातवीं शतीका अमुक भाग हो सकता है।" आगे लेखक इस बातपर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि यदि पूज्यपाद समन्तभद्रके उत्तरवर्ती होते तो यह कैसे हो सकता था कि वे “समन्तभद्र की असाधारण कृतियोंका किसी अंशमें स्पर्श भी न करें।" संधवी जी के शब्दोंमें ही लेखक (पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ) ने मेरे संक्षिप्त लेखका विशद और सबल भाष्य करके यह अभ्रान्त रूपसे स्थिर किया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं। इस प्रकार मुख्तार साहब द्वारा निर्णीत स्वामी समन्तभद्रके समय सम्बंधी प्रचलित मान्यता ( ईसाकी दूसरी शती) के विरुद्ध एक नवीन मत सामने आता है। इस मान्यताका मूलाधार यह बताया जाता है कि समन्तभद्रने अपने देवागम (आप्तमीमांसा) की रचना पूज्यपादकी सवार्थसिद्धि के मङ्गल श्लोकपरसे की है, ऐसा विद्यानन्दके अष्टसहस्रीगत एक कथनसे प्रतीत होता है, अतः समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं । इस प्रश्नको लेकर 'मोक्षमार्गस्य नेतारं', 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' आदि शीर्षकोंसे विद्वानोंके बीच कई लेखों द्वारा लम्बा शास्त्रार्थ चला था । परिणाम यह हआ कि नवीन मान्यता स्थिर न हो सकी क्योंकि आचार्य विद्यानन्दकी मान्यताको सन्देहकी दृष्टिसे देखा जाने लगा है और उसका आधार खोजा जाने लगा है। नवीन मान्यताके समर्थकोंको अनुभव हुआ कि विद्यानन्दके सामने उक्त मंगल श्लोकको उमास्वामिकृत मानने के लिए कोई स्पष्ट पूर्वपरम्परा नहीं थी, उन्होंने अकलंककी अष्टशतीके एक वाक्यसे अपनी भ्रान्तधारणा बना ली थी, उसके पूर्वापर सम्बन्धपर ठीक विचार नहीं किया था । इसीसे अष्टसहस्रीके उक्त वाक्यका सीधा अर्थ न करके उलटा अर्थ किया गया है ।इस प्रकार नवीन मान्यताका मूलाधार ही नष्ट हो जानेसे अर्थात् 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मङ्गल श्लोकके पूज्यपादकृत न होकर उमास्वामीकृत सिद्ध हो जानेसे स्वामी समन्तभद्रके पूज्यपादके पूर्ववर्ती रहते हुए भी उक्त श्लोकको लेकर अपने देवागमकी रचना करने में कोई बाधा नहीं आती। १ अकलङ्क ग्रन्थत्रय प्राक्कथन, पृ०८-९ । २ न्यायकुमुदचन्द्र, भा॰ २, प्राक्कथन, पृ० १७ । ३ अनेकान्त वर्ष ५, जैन सिद्धान्त भास्कर १९४२ । ३८२ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास नवीन मतका बीज बोते समय "समन्तभद्रकी कृतियोंपर सर्वप्रथम व्याख्या अकलंक ने की अतः वे अकलंक के नितान्त निकट पूर्ववर्ती होने ही चाहिये" युक्ति दी गयी थी। किन्तु इसी तर्कका सिद्धसेन दिवाकरपर प्रयोग कीजिये । दिवाकरजीके सर्वप्रथम व्याख्याकार सिद्धर्षि ( न्यायावतारके ) और अभयदेवसूरि ( सन्मतितर्कके ) हैं जिनका समय १०-११वीं शती ई० है, अतः दिवाकरजी भी १०-११वीं शतीके आस पासके विद्वान हो सकते हैं ऐसा मानना चाहिये। किन्तु डा. हर्मन जैकोबी तथा श्री वैद्य द्वारा कल्याणमन्दिरकी रचनाके अर्वाचीनत्व तथा सिद्धसेन दिवाकरकृत न होने में १४-१५वीं शतीके बादकी टीकाओंकी युक्ति दिये जानेपर उसका सदल-बल प्रतिवाद करते हुए कहा गया कि प्राचीन टीका उपलब्ध न होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि वह स्तोत्र भी प्राचीन नहीं है' ! सिद्धसेन दिवाकरकी कृति मानने के लिये प्रचलित द्वात्रिंशंकाओंको १०वीं या ११ वीं शतीसे पूर्वका कोई प्रमाण और सन्मतितर्कके लिए सर्वप्रथम प्रमाण भी आठवीं शतीसे पूर्वका उपलब्ध नहीं है । तथापि सिद्धसेन दिवाकरको पांचवीं या छठी शतीके बादका विद्वान् कदापि नहीं माननाांचाहते हैं । फलतः स्वामीको पूज्यपादका उत्तरवर्ती बताना स्वयमेव निस्सार हो जाता है। कुछ समयसे, प्राचीन व्यक्तियोंका समय निर्धारण करनेमें एक विशेष शैलीका प्रयोग बहुलता से होने लगा है, विशेषकर नैयायिकों द्वारा । इस शैलीमें विभिन्न व्यक्तियोंके नामसे प्रसिद्ध उपलब्ध कृतियोंका तुलनात्मक अन्तःपरीक्षण करके शब्द और विचार साम्यके आधारपर ज्ञात समय व्यक्ति के साथ विचारणीय व्यक्ति का योगपद्य अथवा समकालीनता स्थापित करके उनको पूर्वापर विद्वान घोषित कर दिया जाता है। प्रधान ऐतिहासिक साधनों, पुरातत्त्वादि शिलालेखीय आधार, समकालीन अथवा निकटवर्ती साहित्यगत उल्लेख, तत्कालीन ऐतिहासिक अभिलेख, घटना चक्र, परिस्थितियां तथा उत्तरकालीन लिखित एवं मौखिक अनुश्रुति, आदिके वैज्ञानिक विश्लेषण और समन्वयके पश्चात जो तथ्य उपलब्ध हों उनकी पुष्टि में इस नैयायिक शैलीका उपयोग भले ही किया जाय, किन्तु मात्र यही साधन उक्त सबका स्थान लेने या खंडन करनेमें सर्वथा अपर्याप्त एवं असमर्थ है। स्वामी समन्तभद्रके तथा उसी प्रकार कुन्दकुन्दादि अन्य आचायोंके समयके सम्बंधमें बाधाएं उठाकर विवक्षित समयकी खींचातानोके जो प्रयत्न किये जाते हैं उन सबका आधार प्रायः यही नैयायिक शैली है । स्वामी समन्तभद्रके समयकी पुष्ट सामग्री स्वामी समन्तभद्रके समय पर जो प्रमाण महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं, वे निम्न प्रकार हैं१-ईस्वी सन्के प्रथम सहस्रीमें वैदिक, जैन तथा बौद्ध तार्किक दार्शनिक विद्वानोंने भारत भूमिका गौरव १ सन्मतितर्क भूमिका पृ० ५२ पर टिप्पण। २ , , पृ० ४२ । ३८३ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ बढ़ाया है । परस्परके मन्तव्योंका जोर शोरके साथ खंडन मंडन किया है। इनमें सर्व प्रथम तार्किक जैन विद्वान स्वामी समन्तभद्र थे और उनकी प्रसिद्ध 'आप्तमीमांसा' पर अबतक की ज्ञात एवं उपलब्ध सर्व प्रथम व्याख्या अकलंकदेवकी 'अष्टशती' है। उससे पूर्व कोई अन्य टीका या व्याख्या समन्तभद्र के ग्रन्थों पर रची गयी या नहीं यह नहीं कहा जा सकता । अकलंकदेवका समय इसाकी ७ वी ८वीं शती माना जाता है। ईस्वी सन्के प्रारंभसे अकलंकके समय तक वैदिक बौद्धादि अजैन नैयायिकोंमें सर्व प्रसिद्ध विद्वान, क्रमानुसार नागार्जुन, दिङनाग, भर्तृहरि, कुमारिल और धर्मकीर्ति हैं। आचार्य समन्तभद्रके ग्रन्थोंका इन विद्वानोंकी कृतियोंके साथ तुलनात्मक अन्तःपरीक्षण करने पर यह सुस्पष्ट हो जाता है कि किसका किसपर कितना प्रभाव पड़ा । न्यायकुमुदचन्द्र. भाग १ को प्रस्तावना, 'समन्तभद्र और दिङनागमें पूर्ववर्ती कौन' ? तथा 'नागार्जुन और समन्तभद्र' आदिसे यह निर्विवाद फलित हो जाता है कि प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल और बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति (६३५-६५० ई०) अकलंकके ज्येष्ठ समकालीन थे । अकलंकका समय ६२०-६८० ई० निर्णित होता है । डा० ए० एन० उपाध्ये भी प्रायः उसीका समर्थन करते हैं । कुमारिलने अपने ग्रन्थोंमें समन्तभद्रके अनेक मन्तव्योंका खंडन किया है। धर्मकीर्तिने भी समन्तभद्र के कितने ही मन्तव्योंको खंडन किया जिनका सबल प्रत्युत्तर अकलंकने अपने 'न्यायविनिश्चय' में दिया । 'शब्दाद्वैत' के प्रतिष्ठाता और 'स्कोटवाद' के पुरस्कर्ता भर्तृहरि ई० की छठी शतीके विद्वान हैं । धर्मकीर्ति, अकलंक और कुमारिल आदिने उनका जोरोंके साथ खंडन किया है । यदि समन्तभद्र भर्तृहरिके उत्तरवर्ती होते तो उनके इन क्रान्तिकारी वादोंका खंडन किये विना न रहते, किन्तु उनकी कृतियोंमें इनकी कुछ भी चर्चा नहीं मिलती। प्रसिद्ध बौद्धदर्शन शास्त्री दिङनागका समय ३४५-४२५ ई० माना जाता है । ये पूज्यपाद ( लगभग ४५०-५२५ ई० ) के भी पूर्ववर्ती थे, पूज्यपादने दिङ्नागके कतिपय पद्योंका निर्देश भी किया है। दिङ्नागकी रचनाओंपर समन्तभद्रका गम्भीर एवं स्पष्ट प्रभाव है अतः वे दिग्नागके पूर्ववर्ती अर्थात् सन् ३४५ ई० से पूर्व के विद्वान ही ठहरते हैं । 'शून्यवाद'के पुरस्कर्ता बौद्ध विद्वान नागार्जुन (सन् १८१ ई० ) दूसरी शती के विद्वान है। इनके 'माध्यमिका' 'विग्रहव्यावर्तनी' 'युक्तिषष्ठिका' आदि ग्रन्थोंकी समन्तभद्रकी तार्किक रचनाओंके साथ तुलना करनेसे यह स्पष्ट हो १ अनेकान्त, व. ५, वि. १२, पृ०३८३. माणिकचन्द्र दि, जैन ग्रंथमाला बबई द्वारा प्रकाशित । अनेकान्त व. ७, किं० १-२. पृ० १०. २ न्याय. कुन्चं.-भा. २, प्रस्तावना पृ० २०५ । ३ 'अनन्त वीर्य के समय पर डा० पाठक मत' (ए. भ. ओ, रि. इ. पूना) ४ तत्त्व संग्रहको भूमिका पृ. ७३ ।। ५ तवसंग्रह भूमिका पृ० ६८ । ३८४ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास जाता है कि ये दोनों विद्वान् अवश्य ही समकालीन रहे, समन्तभद्रकी कृतियोंमें उनका साक्षात् प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ___२. श्वेताम्बराचार्य मलयगिरिने स्वामी समन्तभद्रका 'आद्य स्तुतिकार' नामसे, हेमचंद्राचार्यने 'महान् स्तुतिकार' के रूपमें और हरिभद्रसूरि ( ७००-७७० ई०) ने 'वादिमुख्य' के नामसे ससम्मान उल्लेख किया है । श्वेताम्बर परम्परामें सर्वमान्य आद्य एवं महान् स्तुतिकार और वादिमुख्य सिद्धसेनदिवाकर हैं । उपर्युक्त सभी विद्वान दिवाकर जीकी प्रतिभा और कार्य-कलापोंसे सुपरिचित थे, फिर भी उन्होंने एक दिगम्बराचार्यके लिए जो ये विशिष्ट विशेषण प्रयुक्त किये हैं इनसे ध्वनित होता है कि वे अखंड जैन परम्पराकी दृष्टिसे समन्तभद्रको ही 'आद्यस्तुतिकार' आदि के रूप में मानते और जानते थे । हां, केवल श्वेताम्बर परम्परामें वह स्थान दिवाकरजी को ही प्राप्त था । इससे प्रतीत होता है कि सिद्धिसेन दिवाकर संबंधी दन्तकथाओं के प्रचलित और १३ वी १४ वीं शती ई० में लिपि वद्ध होनेके पूर्व' प्राचीन श्वेताम्बर विद्वान् समन्तभद्रको सिद्धसेन दिवाकरका पूर्ववर्ती ही मानते थे । 'सन्मतितर्क' की विस्तृत भूमिकामें दोनों तार्किक स्तुतिकारोंकी कृतियों की तुलना की गयी है । उससे ज्ञात होता है कि भाषा, भाव और शैलीकी दृष्टिसे सिद्धसेन दिवाकरपर समन्तभद्राचार्यका भारी प्रभाव पड़ा है, दिवाकर जी की कृतियोंमें समन्तभद्र का यह त्रिविध अनुकरण अनेक स्थलों पर दृष्टिगोचर होता है । इतना ही नहीं समन्तभद्र के उत्तरवर्ती दिङनागका भी सिद्धसेनपर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा जिसका समाधान संभव है उन दोनों पर किसी तीसरे ही एक पूर्वाचार्य का प्रभाव पड़ा हो' कहकर किया गया है । डा० जैकोबी और श्री पी० एल० वैद्यकी तो यह दृढ़ धारणा है कि सिद्धसेनपर धर्मकीर्तिका भी स्पष्ट प्रभाव पड़ा है अतः वह उनके सर्व प्रथम उल्लेख कर्ता जिनदासगणि महत्तर (६७६ ई० ) और धर्मकीर्ति (६३५-६५० ई.) के बीच किसी समय हुए हैं। सन्मतितर्ककी उपर्युक्त भूमिकामें उनका निश्चित समय; विक्रमकी ५ वीं शतीका आधार; लगभग एक हजार वर्ष पीछे प्रचलित आख्यायिकाओंकी साक्षी द्वारा सूचित उज्जैनीके विक्रमादित्यसे सम्बन्ध रहा है । यतः ये विक्रमादित्य विक्रम संवत्के प्रवर्तक आदि-विक्रम ( सन् ५७ ई० पूर्व ) तो हो ही नहीं सकते, गुप्तवंशी विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वि० (३७६-४१४ ई०) या उनके पौत्र स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ( ४५५-४६७ ई०), और संभवतया स्कंदगुप्त ही हो सकते हैं । डा० सतीशचन्द्र वि० भू० ने इसी आधार पर उन्हें मालवेके हूणारि विक्रमादित्य यशोधर्मदेव (५३० ई०) का समकालीन माना है २ । बादमें इस मतका परिवर्तन कर दिया है और अब “सिद्धसेन ईसाकी छठी या सातवीं १. प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोश, आदि । वास्तव में सिद्धसेनदिवाकरके नामसे प्रचलित 'द्वात्रि शंकाओं 'सन्मतितर्क' और 'न्यायावतारके तुलनात्मक अन्तःपरीक्षणसे यह सुस्पष्ट हो जाता कि वे सभी कृतियां किसी एक व्यक्ति और काल की नहीं हो सकतीं। कमसे कम विभिन्न कालीन तीन व्यक्तियों की रचनाएं होनी चाहिये। २. न्यायावतार भूमिका पृ०३। ३८५ '४६ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ सदी में हुए हों और उन्होंने सम्भवतः धर्म कीर्त्तिके ग्रन्थोंको देखा हो " माना है। ज्ञान और दर्शनोपयोग विषयक दिगम्बर मान्यता भी इसकी समर्थक है । कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपादादि के मतसे वह 'यौगपद्य वाद' है किन्तु श्वेताम्बर आगमों में 'क्रमवाद की सूचना है, जो देवर्द्धिगणी द्वारा आगमोंके संकलन ( ४५३ ई० ) के पश्चात् ही अस्तित्वमें आयी और भद्रबाहु ( ५५० ई० ) द्वारा नियुक्तियों में स्पष्ट की गयो तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ( ५८८ ई०) द्वारा युगपत् - वादके खंडन तथा मंडनात्मक युक्तियों से पुष्ट हुई। इसी कारण जिनभद्रगणि ही उत्तरकालीन विद्वानों द्वारा उक्त 'क्रमवाद' के पुरस्कर्त्ता कहे गये हैं । सिद्धसेनदिवाकरने अपने 'सन्मतितर्क' में 'युगपत' तथा 'क्रम' दोनों पक्षोंका सबल खण्डन करके ज्ञान और दर्शन उपयोगोंका 'अभेद' ही स्थापित नहीं किया वरन मतिश्रुति तथा अवधि- मन:पर्यय का भी अभिन्नत्व सिद्ध किया, जिसका समन्तभद्र और पूज्यपादकी कृतियों में कोई जिक्र नहीं, किन्तु अकलंक आदि विद्वानोंने इस अभेदवादका जोरोंके साथ खंडन किया । इस सब विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धसेन समन्तभद्रके ही पर्याप्त उत्तरवर्ती नहीं थे । बल्कि दिङ्नाग और पूज्यपाद के बहुत पीछे हुए और धर्मकीर्त्ति, अकलंक आदि के प्रायः समकालीन विद्वान थे । इतना सुनिश्चित है कि समन्तभद्र के समय को आगे खींच लानेका जो प्रयत्न किया जाता है वह निराधार एवं निरर्थक है । समन्तभद्रने युगपत्वादका परम्परागत प्रतिपादन तो किया किन्तु श्वेताम्बरीय क्रमवादका उल्लेख तक नहीं किया, अतः उनका आगमोंके संकलन ( ४५० ई० ) से पूर्व होना स्वयं सिद्ध है । ३. दिगम्बर विद्वानोंमें अकलंकदेव ( ६२० - ६८० ई० ) तो समन्तभद्र के ज्ञात सर्वप्रथम व्याख्याकार हैं ही, उनसे पूर्व देवनन्दि पूज्यपाद ( ४५० -५२० ई० ) ने, जो अविनीत कोंगड़िके पुत्र दुर्विनीत गंग (४८२ - ५१५ ई० ) के गुरु थे, समन्तभद्रका अपने जैनेन्द्र व्याकरणमें स्पष्ट नामोल्लेख किया है । और जैसा कि 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव " लेखसे स्पष्ट है, पूज्यपादकी महानतम कृतिपर समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा युक्तत्यानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, तथा रत्नकरंडश्रावकाचार का स्पष्ट गम्भीर प्रभाव है । अतः वे निर्विवाद रूपसे पूज्यपादके पूर्ववर्ती थे । ४. समन्तभद्रकी प्राचीनता में एक अन्य साधक कारण उनकी कृतियोंमें जैनमुनि संघकी प्राचीन वनवास ४ प्रथाका उल्लेख है जिसका विवेचन 'रत्नकरंड श्रावकाचारकी प्राचीनतापर अभिनव प्रकाश १ न्याय कु० चं० भा० २ प्रस्तावना पृ० ३७ तथा 'ज्ञानबिन्दु' भूमिका पृ० ६० । २ 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ' -- जैनेन्द्र स्० ५-४-१४० । ३ अनेकान्त, व. ५ कि. १०-११, पृ. ३४५ । ४ रत्नकरं डा० इलो. १४७। पं. प्रेमीजीकृत जैनसाहित्य, और इतिहास, पृ. ३४७ । ५ जैन सिद्धांत भास्कर, भाग १३ कि. २, पृ. ११९, ( पं. दरबारीलाल न्यायाचार्य का लेख ) ३८६ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास शीर्षक निबन्धमें और विशेषतः उक्त लेख के 'रत्नकरंड में अपने समयकी एक ऐतिहासिक परम्पराका समुल्लेख' प्रकरण अन्तर्गत किया गया है। स्वामीने चैत्यवास प्रथाका कहीं संकेत भी नहीं किया है। मर्करा ताम्रपत्र ' (शक ३८८ = ४६६ईं०) आधारपर दिगम्बर आम्नायमें चैत्यावासका प्रारम्भ पांचवी शती वि०से हुआ है । इस कथन की पुष्टिपहाड़पुर र ताम्रपत्र ( ४७९ ई० ) से भी होती है, बल्कि पहाड़पुर ताम्रपत्रसे तो यही सूचित होता है कि उसमें कथित जैन विहार लगभग ४०० ई० से स्थापित था । अतः कमसे कम उसी समयसे चैत्यवासका प्रारंभ समझना चाहिये । इसके अतिरिक्त समन्तभद्र के स्वयंभूस्तोत्र (पद्य १२८ - आरिष्टनेमि ० ) में ऊर्जयन्त अथवा गिरनार पर्वतपर उस समय भी अनेक तपोधन मुनियोंके निवास करनेका आंखों देखा जैसा उल्लेख है, और उनके इस कथन की पुष्टि अभयरुद्रसिंह प्रथम ( १५० - १९७ ई० ) के गिरिनगर की चन्द्रगुफावाले प्रसिद्ध लेखसे अच्छी तरह हो जाती है तथा धवलादि ग्रंथों एवं श्रुतावतारोंके प्रथम शती के अन्त में गिरिनगर गुहा निवासी धरसेनाचार्य संबंधी कथानकसे भी उसका पूरा समर्थन होता है । ५. सन् १०७७ ई०के 'हुमच्च पंचवसति' शिलालेखमें जैनाचायोंकी परम्परा देते हुए समन्तभद्राचार्यके सम्बन्धमें कहा है कि 'उनके वंश (परम्परा) में सिंहनन्दि आचार्य हुए जिन्होंने गंगराजका निर्माण किया । इन सिंहनन्दि द्वारा गंगराज्यकी स्थापनाका समर्थन अनेक प्रमाणोंसे होता है, यथा- महाराज अविनीत (४३० - ४८२ ई०) का 'कोदनजरुबु' दानपत्र, भूविक्रम श्रीवल्लभका 'बेदिरूर' दानपत्र " (६३४३५ ई० ), शिवमार प्रथम पृथ्वीकोंगुणी ( ६७० - ७१३ ई० ) का खंडित ताम्रपत्र ६, श्री पुरुष मुत्तरस ( ७२६-७७६ ई० ) का अभिलेख, राजा हस्तिमल्लका उदयेन्दिरन' दानपत्र ( ९२० ई० ), महाराज मारसिंह गुत्तियगंगके कुडलूर ताम्रपत्र ( ६६३ ई० ) । उपर्युक्त प्रमाणोंके अतिरिक्त प्रस्तुत घटनाका सर्वाधिक पूर्ण एवं प्रशंसनीय वृत्तान्त मैसूर प्रान्तस्थ शिमोगा और हुबली के अन्तर्गत कल्लूरगुड्डा के सिद्धेश्वर मंदिरके निकट प्राप्त १९२२ ई० के शिलालेख से उपलब्ध होता है । सन् १९२६ ई० तथा सन् १९८६ ई० के दो अन्य शिलालेखोंसे तथा गोमट्टसारकी एक प्राचीन टीकाके उल्लेखसे भी इसकी पुष्टि होती है । इस प्रकार इस घटना और तत्सम्बन्धी कथानककी ऐतिहासिकताको इतिहासज्ञ विद्वानोंने निर्विवाद रूपसे स्वीकार कर लिया है। हां, गंग- राज्य स्थापना तथा उत्तरवर्ती गंग नरेशोंके समय संबंध में मतभेद है और उक्त वंशकी कालानुक्रमणिका सुनिश्चित रूपसे अभी तक व्यवस्थित नहीं हो १ सलेक्ट इन्सकृप्शन भा. १ सं. ४२ पृ० ३४६ । २ वही ४. सं० ७० पृ० १७७ । ३ एपी ग्राफिका कर्णा० भा. ७, सं० ४६, पृ० १३९ तथा सं० ३५, पृ० १३८ । ४ मै. आर्के. रि. १९२४ पृ० ६८ । ५ वही १९२५ पृ० ८५७ । ६ वही पृ० ९९ । ७ वही १६२१ पृ० २१, सा. इ. इन्स. भा. २, पृ० ३८७ । ८ वही पृ० १९ । ९ एपी. कर्णा. भा. ७ . ४; पृ १६, इत्यादि । ३८७ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पायी है । आ० सिंहनन्दिद्वारा गंगराज्य स्थापनाकी तिथि ३४० ई० और माधव प्रथमका समय ३४०-४०० ई०१, २५० ई०' अथवा २५०-२८३ ई० तथा २३० ई०३ अनुमान किये गये हैं। तामिल इतिहास 'कोंगुदेश राजकल्ल' में यह तिथि सन् १८८ ई० मानी है, और श्री बी० एल० राइसने भी १८८ ई० ही माना है और माधव प्र० का समय १८६-२४० ई० दिया है। बादमें नागमंगल शिलालेखके आधार पर उन्होंने इस तिथिको शक २५ ( सन् २६३ ई०) अनुमान किया था। दूसरे विद्वानोंने भी राइस साहबके प्रथम मतको ही स्वीकार किया है। ___ आचार्य सिंहनन्दि द्वारा दक्षिण कर्णाटकमें गंगबत्तड़ि राज्यकी स्थापना ई० दूसरी शतीके अन्त (१८८-१८९ ई० ) में हुई थी इसमें कोई सन्देह नहीं और समन्तभद्र सिंहनन्दिके पूर्ववतीं थे यह शिलालेख आदि आधारोंसे सुनिश्चित है। यह भी संभव है कि उन दोनोंके बीच अत्यल्प अन्तर हो और वे प्रायः समकालीन भी हों । वस्तुतः, श्रवणबेलगोल शि० लेख न० ५४ (६७) के आधार पर लुइस राइसके शब्दों में-“उन्हें ( समन्तभद्रको ) उनके तुरन्त पश्चात् उल्लिखित गुरू सिंहनन्दिसे अत्यल्प समयान्तरको लिये हुए मानकर, जोकि सर्वथा स्वाभाविक निष्कर्ष है, दूसरी शती ई. के उत्तरार्धमें हुआ सुनिश्चित रूपसे माना जा सकता है ।" ६. डा० सालतोरके अनुसार तामिल देशमें धर्मप्रसार करनेवाले विशिष्ट जैनगुरुओंमें समन्तभद्र, जिनका नाम जैनपरम्परामें सुविख्यात है, प्रथम आचार्योंमें से हैं । उनका समय संभवतया दूसरी शती ईस्वी है । यद्यपि श्वेताम्बर 'वीर वंशावली' के आधारपर रा. ब. हीरालालके मतानुसार वे वीर सं. ८८९ ( सन् ४१९ ई०) में, और नरसिंहाचार्यके अनुसार लगभग ४०० ई० में होने चाहिये। किन्तु सुपरिचित जैन ( दिग.) अनुश्रुति उनका समय शक ६० (१३८ ई०) प्रकट करती है। राइस भी उन्हें दूसरी शती ई० का ही विद्वान मानते हैं। अतः जब हम ११ वीं से १६ वीं शती तकके दक्षिण देशस्थ विभिन्न शिलालेखोंमें दी हुई जैनगुरु परम्पराओंकी जांच करते हैं तो परम्परागत अनुश्रुति विश्वसनीय माननी पड़ती है। सन् ११२६ के शि० लेखके अनुसार भद्रबाहु (द्वि०) कुन्दकुन्द और समन्तभद्र क्रमबार हुए । ११६३ ई० के शिलालेखमें कथन है कि 'भद्रबाहुके वंशमें कुन्दकुन्द अपरनाम पद्मनन्दि हुए, तत्पश्चात् उमास्वामि अथवा गृद्धपिच्छाचार्य हुए जिनके शिष्य बलाकपिच्छ १ श्री बी० पी० कृष्णराव कृत 'गगाज ओफ तलबाट पृ० ३२ । २ श्री गोविन्द पै, क. हि. रि. भा. २ सं. १,पृ० २९ । ३ 'मैसूर एण्ड' कुर्ग. पृ० ३२ ! ४ सा. इण्डि. ज. पृ० १०९। ५प्रा० रामरखामी आयंगरका लेख मै. आ. रि. १९२१ पृ०२८ । ६ केटलाग ओफ मैनु . ११ म् में 'भद्र'को समन्तभद्र माननेकी भूल की गयी है। ७ कवि चरिते. १, पृ०४। ८ एपी. कर्णा. भा. २--२६ पृ० २५ । ३८८ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास थे । 'महान जैनचार्यों की ऐसी परम्परामें समन्तभद्र हुए “जिनके पश्चात् कालान्तरमें पूज्यपाद हुए। इसी कथनकी पुनरावृत्ति १३६८ ई. के शि० लेखमें मिलती है जिसमें समन्तभद्र के शिष्य शिवकोटि द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको अलङ्कृत करनेका भी उल्लेख है। १४३२ ई० का शिलालेख भी इसका अक्षरशः समर्थन करता है । और पद्मावती बसतिके सन् १५६० ई० के अभिलेखसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है । कर्णाटक साहित्यके इतिहासमें सर्वप्रथम नाम समन्तभद्रका आता है उसके पश्चात् कवि परमेष्टीका और फिर पूज्यपाद का । इन्द्रनन्दि, ब्रह्महेम, विबुधश्रीधर, आदि रचित विभिन्न श्रुतावतारोंमें समन्तभद्रका कुन्दकुन्दके अल्प समय पश्चात् होना पाया जाता है। धवलाकार स्वामी वीरसेन हरिवंशकार जिनसेन (७८३ ई०) आदिपुराणकार भगवजिनसेनाचार्य (७८०-८४० ई०) तथा अन्य अनेक इतिहासज्ञ विद्वानोंने समन्तभद्रका कुन्दकुन्दके पश्चात तथा पूज्यपादसे पूर्व होना स्पष्ट सिद्ध किया है । अतः इन एकरस प्रमाणोंके सम्मुख इस विषयमें शंका करनेका कोई कारण ही नहीं रहता। उपलब्ध प्रमाणोंका अत्यन्त सावधानता पूर्वक विशद विवेचन करके सब ही विद्वानोंने ईस्वी सन्का प्रारंभ काल ही कुन्दकुन्दका समय माना है । अतः यह मान लेना निराधार अथवा मनमाना नहीं है कि कुन्दकुन्दके और विशेषतः बलाकपिच्छके तुरन्त पश्चात तथा पूज्यपादके ही नहीं सिंहनन्दिके भी पूर्ववर्ती रूपसे उल्लिखित समन्तभद्र दूसरी शती ईस्वीके प्रथम पादमें हुए हों। ७. स्वामी समन्तभद्रको निश्चित रूपसे दूसरी शती ई० में स्थिर अथवा उसके भीतर ही उनके समयको ठीक ठीक निर्धारित करने में सर्वाधिक सबल साधक प्रमाण कतिपय ज्ञात ऐतिहासिक एवं भौगोलिक तथ्योंमें हैं । ये इतने स्पष्ट, विशेषतापूर्ण एवं अप्रतिरूप हैं कि इनका समय दूसरी शतीके कुछ दशकोंसे भी आगे पीछे नहीं किया जा सकता है । वे निम्न प्रकार हैं (१) श्रवणबेलगोलस्थ दौर्बलि जिनदास शास्त्रीके भंडारमें संगृहीत समन्तभद्र कृत 'आप्तमीमांसा' की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतिका अन्तिम वाक्य-"इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिप सूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्रमुनेः कृतौ प्राप्तमीमांसायाम्' ।" कर्णाटक देशस्थित 'अष्टसहस्री' की एक प्राचीन प्रतिमें मिलता ऐसा ही वाक्य "इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनुना (?) शांति वर्मनाम्ना श्रीसमन्तभद्रेण" है । तथा 'स्तुतिविद्या' नामक अलङ्कार प्रधान ग्रन्थका जिसके अन्य नाम जिनस्तुतिशतं, जिनशतक तथा जिनशतकालंकार भी हैं और जिसके कर्ता निर्विवाद रूपसे समन्तभद्र हैं' अन्तिम पद्य एक चित्रबद्ध काव्य है और उसकी छह और तथा नव वलयवाली चित्र रचनापरसे 'शांतिवर्मकृतं' तथा 'जिनस्तुतिशतं' ये दो पद उपलब्ध होते हैं जो कवि और काव्यके नामों के द्योतक हैं । (२) उत्तरवर्ती विद्वानोंने उन्हें "श्रीमूलसंघ व्योम्नेन्दुः" विशेषणके साथ स्मरण किया १ स्वामी समन्तभद्र पृ०४ । २ स्वयंभूस्तोत्र-मराठी संस्करण भूमिकागतपजिनदास पाश्वनाथ फडकुलेका कथन । ३ स्वामी समन्तभद्र, पृ०६। ४ महाकवि नरसिंहकृत जिनशतक टीका । ३८६ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थं है ।१ ( ३ ) उन्होंने धूर्जटि नामक किसी महान प्रसिद्ध प्रतिवादीको वाद में पराजित किया था । ( ४ ) उनका कांची ( आधुनिक कांजीवरम् ) के साथ अपेक्षाकृत स्थायी एवं निकट संबंध था । ब्रह्मनेमिदत्तके कथाकोषमें तथा उससे भी प्राचीन प्रभाचन्द्र के गद्य कथाकोष में दो प्राचीनतर वाक्य उद्धृत किये हैं जिनके द्वारा समन्तभद्रने किसी राजाकी सभा में अपना कुछ परिचय दिया था। उनमें वे स्वयं अपने आपको "कांच्यां नग्नाटकोऽहं” कहते हैं, श्रवणबेलगोलके सन् १९२६ ई० के मल्लिषेणप्रशस्ति नामक शिलालेखसे भी उनका कांचीमें जाना प्रकट है, और 'राजाबलिकथे' से उनका उक्तनगर में अनेक बार जाना सूचित होता है । वहीं भीमलिंग शिवालय में आचार्यकी प्रसिद्ध भस्मक व्याधिके शान्त होनेकी घटनाका कथन है | ब्रह्मनेमिदत्त के अनुसार उनकी व्याधि जब कांचीमें शान्त न हो सकी तो उसके शमनार्थ वह अन्यत्र चले गये । इस प्रकार तामिल देशस्थ कांची नगरके साथ उनका घनिष्ट संबंध स्पष्ट है । (५) अपने जीवन काल के पूर्वार्ध में आचार्यको भयङ्कर भस्मक व्याधि हो गयी थी जिसके कारण उन्हें गुरुकी आज्ञा से मुनिवेषका त्याग कर उसके शमनका उपाय करना पड़ा था । अन्ततः वह व्याधि शिवकोटि राजाके भीमलिंग शिवालय में शिवार्पित तंदुलान्न ( १२ खंडुग प्रमाण प्रतिदिन ) का पांच दिनतक भोग लगानेसे शान्त हुई । इसी अन्तरालमें राजाके द्वारा शिवलिंगको नमस्कार करनेके लिए आग्रह करनेपर उन्होंने 'स्वयम्भूस्तोत्र' के रूपमें चतुर्विंशति तीर्थङ्करोंकी स्तुतिकी रचना की थी। जिस समय वे भक्तिके प्रबल प्रवाहमें अष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभुकी स्तुति कर रहे थे तो शिवलिङ्ग फट गया और उसमेंसे चन्द्रप्रभु भगवानकी मूर्ति प्रकट हुई । इस चमत्कार से राजा अत्यधिक प्रभावित हुआ और जिनधर्मका परम भक्त हो गया । राजाबलिकथेके अनुसार यह घटना कांचीमें उपर्युक्त दोनों कथाकोषोंके अनुसार बाराणसीमें; सेनगणकी पट्टावलीके अनुसार नवतिलिङ्ग देशके राजा शिवकोटिके शिवालय में घटी थी । मल्लिषेण प्रशस्ति नामक शिलालेख में यद्यपि राजाका व नगरका नाम नहीं दिया है तथापि उससे शेष घटनाकी पुष्टि होती है 'विक्रान्तकौरव' नाटकमें भी शिवकोटि और शिवायन जो राजबलिकथेके अनुसार शिवकोटिका छोटा (भाई था ) के स्वामी समन्तभद्रके शिष्य होनेका उल्लेख है । नगर तालूकाके शिलालेख न० ३५ तथा श्र० बे० गो० शिलालेख न० १०५ (२५४) भी शिवकोटिको उनका शिष्य सूचित करते हैं । देवागमकी वसुनन्दि वृत्तिके मंगलाचरणके 'भेत्तारं वस्तुपालभावतमसो' पदसे भी स्वामी द्वारा किसी नरेश के भावान्धकारको दूर किया जाना ध्वनित होता है । राजाबलिकथेमें इस प्रसंग में यह भी उल्लेख है कि भीमलिंग शिवालयकी घटनासे प्रभावित होकर महाराज शिवकोटिने अपने पुत्र श्रीकंठको राज्यका भार सौंपकर भाई शिवायन सहित जिनदीक्षा ले ली थी। इसी पुस्तक में यह भी कथन है जि आचार्यकी यह व्याधि उस समय उत्पन्न हुई थी जब वे 'मणुवकहल्ली ' ग्राम में तपश्चरण कर रहे थे । १ हस्तिमल्लकृत- 'विक्रान्तकौरव' तथा अय्यपार्तकृत जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय । २ मल्लिषेण प्रशास्ति तथा शि० ले० न० ९० ३६० Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास ( ६ ) उपर्युक्त वृत्तान्तोंसे स्पष्ट कि प्रचंडवादी समन्तभद्र विभिन्न दूरस्थ प्रदेशों और प्रसिद्ध नगरोंमें धर्म प्रचारार्थ गये और उन्होंने उस समयकी प्रथाके अनुसार निश्शंक भावसे वादभेरियें बजा कर विख्यात वाद-सभाओं और राजसभाओं में प्रतिवादियोंको परास्त किया। विद्या एवं दार्शनिकता में अग्रणी वाराणसी नगरी ( बनारस ) ? के राज्यदरबारमें जाकर उन्होंने ललकारा था १ " हे राजन् मैं निर्गन्थ जैन वादी हू ं । जिस किसीमें शक्ति हो वह मेरे सम्मुख आकर वाद करे ।" श्रवणबेलगोलके उपर्युक्त शि. लेखके अनुसार आचार्यने 'असंख्य वीर योद्धाओंसे युक्त' विद्याके उत्कट स्थान तथा बहुजन संकुल करहाटक नगर'की राज्यसभामें पहुंच कर राजाको बताया था कि किस प्रकार वे 'अप्रतिद्वन्दी निर्भय शार्दूलकी वादार्थ विभिन्न दूरस्थ देशोंमें भ्रमण करके सुदूर कांची होते हुए उसके नगरमें पधारे थे । प्रकृ ब्रह्मनेमिदत्तके आराधनाकथाकोष तथा राजाबलिकथेमें भी पाया जाता है । किन्तु राजाबलिकथेमें इसका रूपान्तर हुआ है अर्थात् 'प्राप्तोऽहं करहाटक' के स्थान में वहां 'कर्णाटे करहाटके' पद है । और भी दो एक शब्द-भेद हैं किन्तु वे महत्वके नहीं हैं। आराधनाकथाकोष में इस पद्यसे पूर्व 'कांच्यां नग्नाटऽकोहं' वाला एक अन्य पद्म दिया हुआ है जिसमें उनके लाम्बुश, पुण्डू, दशपुर, तथा वाराणसी में भी वादार्थ जानेका उल्लेख है, साथ ही साथ यह भी सूचित होता है कि वे मूलतः कांची प्रदेशके नग्न दिगम्बर साधू थे, लाम्बुशमें 'मलिनतन पांडुवर्ण शरीर' के तपस्वी थे, पुण्ड्र पुरमें शाक्य भिक्षुके रूप में रहे, दशपुर नगर में मृष्टभोजी वैष्णव परिव्राजक के रूपमें रहे और वाराणसीमें चन्द्र सम उज्ज्वल कान्तिके धारक योगिराज के रूपमें रहे। इस पद्यमें उल्लिखित विवरणसे कथाकारका अभिप्राय; जो उनके अन्यत्र कथनसे स्पष्ट हो जाता है, यह है कि व्याधिकाल में आचार्य इन विभिन्न देशों में उक्त भिन्न भिन्न रूपों में रहे थे । राजाके उपर्युक्त उपलब्ध तथ्यों का निष्कर्ष यह है कि 'वे फाणिमंडलके अन्तर्गत उरगपुर नगरके पुत्र शान्तिवर्मा थे। मुनि अवस्थाका नाम समन्तभद्र था। कांची प्रदेशमें ही उनका प्रारंभिक अध्ययन अध्यापन तथा अधिकांश रहना हुआ । अतः 'कांचीके दिगम्बराचार्य' के नामसे वे सर्वत्र प्रसिद्ध थे । हल्ली नामक स्थानमें कुछ दिन रह कर उन्होंने तपश्चरण आदि किया, वहां इस प्रकार रहते हुए अपने मुनि जीवनके पूर्वार्ध में ही किसी समय वे महा भयङ्कर भस्मक रोगके शिकार हुए जिससे उनकी मुनिया में बड़ी बाधा उत्पन्न हुई। उन्होंने लाचार होकर समाधिमरणका इरादा किया, किन्तु उनके गुरुने उन्हें दीर्घायु, अत्यन्त योग्य प्रतिभाशाली एवं आगे चलकर जिनशासनकी महती वृद्धि करने वाला जानकर उस इरादे से विमुख किया और अस्थायी रूपसे रोगकी शान्ति तक उसके शमनका उपाय करने के लिए मुनिवेष त्यागनेकी आज्ञा दी । अतः मुनिवेष त्याग उन्होंने रोगकी ओर ध्यान दिया और १ 'राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिग्रन्धवादी' - ब्रह्मनेमिदत्त आराधनाकथाकोष तथा स्वामी समन्तभद्र पृ० ३२ । - ३६१ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उसके शमनार्थ शिवभक्त शिवकोटी राजाके भीमलिङ्ग शिवालयमें पहुंचे वहां शिवार्पित नैवेद्य-१२ खंडुक प्रमाण तंदुलान्न-को शिव द्वारा ग्रहण करा देनेका अधिकारियोंको आश्वासन देकर उसे स्वयं उदरार्पण करने लगे । ऐसा करते करते पांच दिनमें रोग शान्त हो गया, किन्तु अब शिवार्पित नैवेद्य बचने लगा और उनका भेद खुल गया। राजाने परीक्षार्थ इन्हें शिवको नमस्कार करनेको वाध्य किया। उस समय इन्होंने भक्तिपूर्ण स्वयम्भूस्तोत्रकी रचना की । इनकी जिनेन्द्र के प्रति दृढ़ एवं विशुद्ध भक्तिके अतिशयसे स्तुति के बीचमें शिवलिंगके स्थानमें चन्द्रप्रभु जिनेन्द्रकी प्रतिमा प्रकट हुई और इन्होंने उसे नमस्कार किया। राजा आदि समस्त दर्शक अति प्रभावित हुए। तब आचार्यने अपना रहस्य खोला और धर्मका उपदेश दिया । स्वयं फिरसे मुनिदीक्षा धारण कर ली । इनके प्रभावसे राजा भी इनका तथा इनके धर्मका परम भक्त हो गया । इसके पश्चात् आचार्यने उत्तर दक्षिण, पूर्व पश्चिम समस्त भारतमें धर्म प्रचारार्थ भ्रमण करके धूर्जटि जैसे अनेक तत्कालीन शैव, वैष्णव, बौद्ध, आदि महान्वादियों पर विजय प्राप्त की और जैनधर्मका सर्वतोमुख उत्कर्ष किया । वादार्थ जिन विशिष्ट स्थानोंमें वे गये उनमें पाटलिपुत्र (पूर्वस्थ ), मालव, ठक्क (पंजाब ), सिन्धु, कांचीपुर, संभवतया विदिशा भी थे । इनके अतिरिक्त लाम्बुश, पुण्ड्रवर्धन ( बंगदे शस्थ ), दशपुर, और वाराणसी (बनारस ) में भी उनका जाना और वाद करना पाया जाता है । करहाटकके नरेशकी राज्यसभासे उनका व्यक्तिगतसा संबंध प्रतीत होता है, क्योंकि उक्त राजाको सम्बोधन करके अपनी वादविजय एवं भ्रमण संबंधी वृत्तान्त इस प्रकार सुनाते हैं कि मानों अपनी कार्य सम्पन्नताका वृत्तान्त किसी आत्मीयको सुना रहे हों । दक्षिण भारतके ऐतिहासिक साक्षी इतिहास कालमें नर्मदाके दक्षिणभागमें बसी जातियोंमें नागजाति सर्वोपरि और सुसभ्य थी' । लंका तक प्रायः सर्वत्र फैली हुई थी। अत्यन्त विनाशकारी महाभारत युद्ध के परिणाम स्वरूप उत्तरापथकी वैदिक-आर्यराज्य शक्तियोंके ह्राससे लाभ उठाकर चिरकालसे दबी हुई नागजातिने समस्त भारतमें अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी जैसा कि काशी, पांचाल, आदिके उरगवंशी राज्योंके इतिहाससे सिद्ध है । चौथी शती ईसा पूर्वमें मौर्य साम्राज्यके प्रकाशमें ये मन्द पड़ गये थे किन्तु मौर्य साम्राज्यके ह्रासके पश्चात फिर इनका उदय हुआ था । मध्यभारत एवं उत्तरी दक्षिण में तीसरी शती० ई० पूर्वसे सातवाहन आन्ध्र शक्तिकी स्थापनाने तत्तद् नाग राज्योंको न पनपने दिया, बल्कि अधिकांश नागराजे सातवाहनोंके आधीन प्रान्ताधिकारी हो गये और आन्ध्रभृत्य महारथी कहलाने लगे। किन्तु गौतमीपुत्र शातकर्णी (१०६-१३० ) के पश्चात १ पुराणों के अनुसार नर्मदा तीरपर माहिष्मतीमें भी नागराज्य था और उसके उपरान्त वहाँ हैहयोंका राज्य हुआ—(रायचौधरी)। २'भारतीय इतिहासका जैन युग' अनेकान्त व०७, कि०७-१० पृ० ७४ । ३६२ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास सातवाहन शक्ति के शिथिल हो जानेपर इन आन्ध्रभृत्योंने स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने शुरू कर दिये, और एक बार फिरसे नाग युगकी पुनरावृत्ति हुई । जिसे स्मिथ आदि कुछ इतिहासकारोंने भारतीय इतिहासका 'अन्धकार युग' कहा है किन्तु डा० जायसवाल आदिने उस अन्धकारको भेदकर उसे 'नाग-वाकाटकयुग' कहा है । भारशिव, वाकाटक, त्रुटुनाग आदि वंश इस युगके अति शक्तिशाली राज्यवंश थे जिनका अस्तित्व गुप्तसम्राट समुद्रगुप्त ( ३१०-३७६ ई० ) के समय तक था । गुप्त साम्राज्य कालमें भारतीय नागसत्ताएं सदैवके लिए अस्त हो गयीं । दक्षिणी फणिमंडलकी सत्ता भी दूसरी शती० ई० के मध्यमें कदंब, पल्लव, गंग, आदि स्थायी एवं महत्वाकांक्षी नवीन राज्यवंशोंकी स्थापना तथा पांड्य ,चोल आदि प्राचीन तामिल राज्योंके पुनरुत्थानके कारण अन्तको प्राप्त हुई। अत्यन्त प्राचीन कालसे ही नाग जाति जैनधर्मकी अनुयायी थी और भ० पार्श्वनाथ (८७७७७७ ई० पू०) के समयसे तो विशेष रूपसे जैनधर्म की भक्त हो गयी थी । दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी प्रवृत्ति कमसे कम भ० अरिष्टनेमिके समयसे चली आती थी, सुराष्ट्र देशस्थ द्वारकाके यादववंशमें उत्पन्न तथा उर्जयन्त ( गिरनार पर्वत ) से निर्वाण लाभ करनेवाले भगवान नेमिनाथने महाभारत कालमें दक्षिण भारतमें ही जिनधर्मका प्रचार विशेष रूपसे किया था। उनके पश्चात् चौथी शती० ई० पू० में भद्रबाहु श्रुतकेवलिके मुनिसंघ एवं अपने शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य सहित दक्षिण देशमें आगमनसे दक्षिणात्य जैनधर्मको अत्यधिक प्रोत्साहन मिला । तिनेवली आदिके मौर्य कालीन ब्राह्मी शिलालेख जो जैनोंकी कृति हैं और जैन श्रमणोंकी प्राचीन गुफाओंमें पाये जाते हैं, इस बातके साक्षी हैं । दक्षिण भारतके विविध राजवंश तथा उनसे सम्बद्ध उरगपुर तथा नागवंशी राजाओं, सामन्तों आदिके वर्णनसे सुस्पस्ट है कि नागवंश भारतका प्राचीनतम तथा सर्वव्याप्त वंश था । इस सब इतिहासपर दृष्टि डालनेसे ज्ञात होता है कि आचार्य प्रवर दूसरी शती ई० के अतिरिक्त अन्य किसी समयमें नहीं हुए। जैन मुनिजीवनसे अनभिज्ञ कुछ अजैन विद्वानोंको यह भ्रम भले ही हो सकता है कि वे कन्नडिग थे या तामिल, किन्तु इसमें किसीको कोई सन्देह नहीं है कि वे दूर दक्षिणके ही निवासी थे और समस्त दक्षिणमें इतिहास काल में केवल एक ही प्रसिद्ध फणिमंडल (नाग राज्य समूह ) था जो पूर्वी समुद्रतटपर गोदावरी और कावेरीके बीच स्थित था, जिसका अस्तित्व सामान्यतः तीसरी शती ई० पूर्वसे मिलता है तथा ई० पूर्व १५७ से सन् १४० ई० तक सुनिश्चित रूपसे मिलता है, साथ ही सन् ८० ई० में यह फणिमंडल अखंड था, इसकी राजधानी उरगपुर थी और चोलप्रदेशका नागवंश इसमें सर्वप्रधान था। सन् ८० और १४० ई० के बीच किसी समय यह फणिमंडल दो मुख्य भागों ( उत्तरी और दक्षिणी अथवा असवानाडु और चोलमंडल ) में विभक्त हो गया । सन् १५० ई० के लगभग इस फणिमंडलका अस्तित्व १ समुद्रगुप्तका प्रयाग स्तंभवाला शिलालेख । २ लेखकका लेख-'नाग सभ्यताकी भारतको देन'-अनेकान्त, व० ६, कि ७ पृ० ८४६ । ३९३ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ समाप्त हो गया। आचार्य समन्तभद्रकी अनुश्रुति-सम्मत तिथि शक ६० अथवा सन् १३८ ई० है जिसका अर्थ है कि उनका मुनिजीवन सन् १३८ ई० के पश्चात प्रारंभ हुआ, उस समय फणिमंडलके दो भाग हो चुके थे और समस्त फणिमंडलकी राजधानी उरगपुर नहीं रह गयी थी। किन्तु जिस समय उनका जन्म हुआ फणिमंडल अखंड था और राजधानी उरगपुर थी–वे 'फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः' थे अर्थात् फणिमंडलकी राजधानी उरगपुरके अधिपतिके पुत्र थे । फणिमंडलका यह विभाजन १२५ ई०के लगभग हुआ प्रतीत होता है। स्वामी समन्तभद्र के विषयमें जो कुछ ज्ञात है उसपरसे यह निश्शंक कहा जा सकता है कि उन्होंने युवावस्थाके प्रारंभमें ही मुनिदीक्षा ले ली थी; अतः यदि दीक्षाके समय उनकी आयु १८-२० वर्षकी थी तो उनका जन्म १२० ई० के लगभग हुआ था । और संभवतया ( १३८ ई० में ) मणुवकहल्लीमें जिनदीक्षा ली थी। तथा १५४१५५ ई० के लगभग उन्हें भस्मक व्याधि हुई थी। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन १८१ ई० तक जीवित था । उसके प्रसिद्ध ग्रन्थ विग्रहव्यावर्तनी, मुक्तिषष्ठिका, आदि १७० ई०के पूर्व ही बन चुके थे। सम्भवतया उसके मुक्तिषष्ठिकासे ही प्रेरणा पाकर स्वामी समन्तभद्रने १७० ई०के उपरान्त अपने युक्त्यनुशासनकी रचना की थी। यदि स्वामी समन्तभद्रकी आयु ६५ वर्षकी हुई हो तो कहना होगा कि उनकी मृत्यु १८५ ई०के लगभग हुई । इस तरह उनका समय ई० १२०-१८५ निश्चित होता है, जिसकी वास्तविक कुंजी 'फणिमण्डल' और 'उरगपुर' शब्दोंमें भी निहित है। SOURTELLIB. ३६४ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश-संकेतका रचनाकाल प्रा० भोगीलाल जयन्तभाई सांडेसरा, एम० ए० आचार्य माणिक्यचन्द्रकृत काव्यप्रकाश-संकेत, मम्मटके काव्यप्रकाशपर लिखित सबसे प्राचीन और प्रमाणभूत टीकाओंमें से है। भारतीय अलंकारशास्त्रके और विशेषकरके काव्यप्रकाशके पाठकोंमें यह टीका अतीव प्रामाणिक मानी जाती है । टीकाकारका विवेचनात्मक वर्णन भी अत्यन्त आदरणीय है । आवश्यक स्थलपर संक्षेप और अनावश्यक स्थलपर व्यर्थ विस्तार, टीकाकारके इन सर्वसाधारण दोषोंसे माणिक्यचन्द्र संपूर्णतया परे हैं। भामह, उद्भट, रुद्रट, दण्डी, वामन, अभिनवगुप्त, भोज, इत्यादि अलंकारशास्त्र प्रणेताओंके मत, स्थान स्थानपर उद्धृत करके उन्होंने अपना मौलिक अभिप्राय व्यक्त किया है। मूल ग्रन्थको विशद बनानेके लिए उन्होंने कितने ही स्थलोंपर स्वरचित काव्योंसे उदाहरण उद्धृत किये हैं। इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे एक सहृदय कवि थे। स्वयं जैनमुनि होनेपर भी, उनका ब्राह्मण-साहित्यका गहरा अध्ययन था । यह टीका असाधारण बुद्धि-वैभव, प्रकाण्ड-पाण्डित्य और मार्मिकरसज्ञतासे ओत प्रोत होनेके कारण उन्होंने इसको नवम् उल्लासके आरम्भमें "लोकोत्तरोऽयं सङ्केतः कोऽपि कोविदसत्तमाः।" कहा है । जो कि वृथा गर्वोक्ति नहीं कही जा सकती। आचार्य माणिक्यचन्द्र जैनश्वेताम्बर सम्प्रदायके अन्तर्गत राजगच्छके सागरचन्द्रसूरिके शिष्य थे । वे विक्रमकी तेरहवीं शतीमें गुजरातमें हुए हैं। यह वही समय था जब विपुल साहित्यकी रचना गुजरातमें हुई थी, और संस्कृत साहित्यका मध्यान्ह काल था। उस समय मंत्री वस्तुपाल विद्याव्यासंगियोंका अप्रतिम आश्रयदाता था। और उसके आसपास एक विस्तृत विद्वन्मण्डल एकत्रित रहता था । १. 'नलायन' काव्यकार माणिक्यसूरि पटगच्छके होनेसे प्रस्तुत माणिक्यचन्द्रसे अन्य हैं। पी० वी० कानेकृत साहित्यदर्पणकी भूमिका ( सी०६) २, वस्तुपाल और उसकी विद्वन्मंडलीकी साहित्य प्रवृत्तिके सम्बन्धमें विशेष जाननेके लिए, -गुजरात साहित्य सभा, द्वारा सम्पादित, इतिहास सम्मेलन (अहमदाबाद, दिसम्बर १९४४)में लेखकका निबन्ध 'वस्तुपालका विद्यामण्डल" ३६५ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ माणिक्यचन्द्र मन्त्री वस्तुपालके समकालीन थे। उन्होंने संकेतके अतिरिक्त शान्तिनाथ-चरित्र और पार्श्वनाथचरित्र नामके दो महाकाव्य भी रचे हैं। साधारणतया विद्वान् लोग संकेतको सं० १२१६ को रचना समझते हैं । स्वयं माणिक्यचन्द्रने संकेतकी ग्रन्थ प्रशस्तिमें उसके रचना समयकी सूचना "रस (६) वक्त्र (१) ग्रहाधीश (१२) वत्सरे मासि माधवे । काव्ये काव्यप्रकाशस्य सङ्केतोऽयं समर्पितः ॥” द्वारा दी है । साधारणतया वक्त्रका अर्थ एक किया जाता है और तदनुसार 'रसवक्त्रग्रहाधीश' से सं० १२१६ फलित होता है, किन्तु हमारे सामने ऐसे कितने ही ऐतिहासिक प्रमाण विद्यमान हैं जिनके आधारपर 'वक्त्र' शब्दका अर्थ चार (ब्रह्माके मुख) अथवा छह (कार्तिकेयके मुख) मान लेना भी स्वाभाविक सिद्ध है। ऐसे प्रमाण क्रमशः निम्न प्रकार हैं १. आचार्य माणिक्यचन्द्रने अपने पार्श्वनाथचरित्र महाकाव्यकी रचना सं० १२७६ में काठियावाड़के अन्तर्गत दीवमें की थी। उन्होंने स्वयं उसकी रचनाकालके सम्बन्धमें “रस(६) र्षि (७) रवि (१२) सङ्ख्यायां, इत्यादि निर्देश किया है । संकेत कर्ता के प्रौढ़ पाण्डित्य और परिपक्व बुद्धिका फल है । यदि वह सं० १२१६ की रचना है, तो वे ६० वर्षके बाद एक महाकाव्यकी रचना करने योग्य रहे हों ऐसा मानना अनुचित ज्ञात होता है यद्यपि कर्ताका तब तक विद्यमान रहना स्वीकार किया जा सकता है । अतः पूर्वोक्त 'वक्त्र' का अर्थ एक के स्थान पर चार अथवा छह करके संकेतको सं १२४६ अथवा १२६६ की रचना मानना सविशेष सुसंगत है । (२) पार्श्वनाथचरित्रकी प्रशस्ति में माणिक्यचन्द्रने बताया है कि उन्होंने यह काव्य अणहिलवाड़ पाटनके राजा कुमारपाल और अजयपालके एक राजपुरुष वर्धमानके पुत्र दहेड़ और पौत्र पाल्हण ( जो कवि भी था ) की प्रार्थनासे लिखा था । कुमारपालका देहान्त सं० १२२६ में हुआ और उसका भतीजा अजयपाल राज्यारूढ हुआ । सं० १२३२ में अजयपालके एक सेवकने उसको मार डाला । अब यदि माणिक्यचन्द्रने अजयपालके एक राजपुरुषके पुत्र और पौत्रकी प्रार्थनासे ( यह पौत्र भी परिपक्व वयका होना चाहिए, क्योंकि स्वयं कर्ताने उसका 'प्रज्ञावता सत्कविपुङ्गवेन' द्वारा उल्लेख किया है ) इस काव्यकी रचना की हो तो यह स्पष्ट ही है कि उनकी कृतियोंका रचनाकाल-राजा अजयपालके समयसे कुछ पूर्व ही होना चाहिए-अर्थात् पार्श्वनाथ-चरित्रके रचनाकाल (सं० १२७६) का निकटवर्ती होना चाहिए । १ कृष्णमाचारी कृत संस्कृत साहित्य पृ० १९४।। २ पाटन ग्रन्थसूची भा० १, पृ० १५४ । ३ पीटरसनकृत संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थों की शोध-सूची विगत ( १८८४-५) पृ० १५६ । ४ "कुमारपाल मापालाजयपाल महीभूजौ। यः सभाभूषणं चित्त जैन मतमरोचयत् ॥", आदि ८ श्लोक । ३६६ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश-संकेतका रचनाकाल (३) पूर्वोक्त कथनानुसार माणिक्यचन्द्र, मन्त्री वस्तुपालके समकालीन थे। वस्तुपालके कुलगुरु विजयसेन सूरिके प्रशिष्य और उदयप्रभसूरिके शिष्य जिनभद्र के द्वारा वस्तुपालके पुत्र जयन्तसिंहके पठनार्थ रचित एक प्रबन्धावलीके अनुसार ( यह प्रबन्धावली आचार्य जिनविनयजी द्वारा सम्पादित पुरातन प्रबन्ध संग्रहमें संकलित है ) सं० १२९० में वस्तुपालने एक बार माणिक्य-चन्द्रको अपने पास आनेके लिए आमन्त्रण भेजा । किन्तु आचार्य किसी कारणवश मार्ग में ही रुक गये आ नहीं पाये । इससे वस्तुपालने खम्भात आये हुए आचार्यके उपाश्रयसे कुछ चीजें युक्ति पूर्वक चोरीसे मंगवा लीं । इस उपद्रव की शिकायत लेकर आचार्य मन्त्रीके पास आये। उस समय मन्त्रीने उनका पूर्ण आदर-सत्कार किया और सब चीजें उनको वापस कर दी । विक्रमकी पन्द्रहवीं शतीमें रचे हुए जिनहर्षकृत वस्तुपाल चारित्रके अनुसार वस्तुपालने अपने ग्रन्थ भण्डारके प्रत्येक शास्त्रकी एक एक प्रति माणिक्यचन्द्रको भेट की। ___ यह भी प्रसिद्ध है कि राजपूतानेमें आये हुए झालोरके चौहान राजा उदयसिंहका मन्त्री यशोवीर, वस्तुपालका घनिष्ट मित्र था । उपर्युक्त प्रबन्धावलीमें माणिक्यचन्द्रका, यशोवीरकी प्रशस्तिमें लिखा हुआ, एक श्लोक भी मिलता है। इस प्रकार विशेष विश्वसनीय समकालीन प्रमाणोंके आधारपर, हम यह कह सकते हैं कि, माणिक्यचन्द्र वस्तुपाल और यशोवीरके समकालीन थे, इतना ही नहीं किन्तु उन सबमें परस्पर घनिष्ट सम्पर्क भी था । अब यदि हम संकेतका रचनाकाल सं० १२१६ मानते हैं तो एक बड़ा भारी कालव्यतिक्रम उपस्थित होता है । वस्तुपालको सं० १२७६में घालकाके वीरघवलके मन्त्री पदपर प्रतिष्ठित हुए थे,यह इतिहाससिद्ध बात है । सं० १२१६ में तो शायद उसका जन्म भी नहीं हुआ होगा । अतः वस्तुपाल और माणिक्यचन्द्र के सम्पर्कके सम्बन्धमें तत्कालीन वृत्तान्त संपूर्णतया विश्वसनीय होनेसे 'वक्त्र' शब्दका अर्थ ऐसा करना चाहिए जो उसके साथ सुसंगत हो । इस प्रकार संकेतकी ग्रन्थ प्रशस्तिके 'वक्त्र' का अर्थ चार (ब्रह्माके मुख) अथवा छह (कार्तिकयके मुख ) करना चाहिये । क्योंकि साहित्य संसार धार्मिक आस्थाओं से परे रहा है जैसा कि अलंकार नियमानुसारी जैन कवियोंके वर्णनोंसे सिद्ध है । तदनुसार 'रस वक्त्रग्रहाधीश' का अर्थ सं० १२६६ करना न्याय्य है । आचार्य माणिक्यचन्द्र के जीवन और कार्यकी ज्ञात बातोंके प्रकाशमें यह विशेष उचित प्रतीत होता है। १ सिरिवत्थुपाल नंदण मंती सर जयन्त सिंहभमणत्थं ! नागिंद गच्छ मंडण उदय घहसूरि सीसेणं ।। जिण मट्टैणय विक्कम कालाउ नवइ अहिय बारसार । नाणा कहाण पहाणा एस पबधावकी रईया ।। २ पु. प्रबन्ध सं. पृ. ७४। पुरातन प्रबन्ध संग्रह, पृ० १३५ ३६७ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू श्री पं० परमानन्द जैन शास्त्री महाकवि रइधू विक्रमकी पन्द्रहवीं शतीके उत्तरार्धके विद्वान थे। वह जैनसिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान होनेके साथ साथ पुराण और साहित्यके भी पंडित थे । प्राकृत-संस्कृत और अपभ्रंश भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था, यद्यपि उनके समुपलब्ध ग्रन्थोंमें संस्कृत भाषाकी कोई स्वतंत्र रचना उपलब्ध नहीं हुई, और न उसके रचे जानेका कोई संकेत ही मिलता है; परन्तु फिर भी, उनके ग्रन्थोंकी सन्धियोंमें ग्रन्थ निर्माणमें प्रेरक भव्य श्रावकोंके परिचयात्मक और आशीर्वादात्मक संस्कृत पद्य पाये जाते हैं, जिनमें ग्रन्थ निर्माणमें प्रेरक भव्योंके लिए मंगल कामनाकी गयी है । उन पद्योंपर दृष्टि डालनेसे उनके संस्कृतज्ञ विद्वान होनेका स्पष्ट आभास मिलता है और उनकी चमकती हुई प्रतिभाका सहज ही पता चल जाता है । साथ ही, उनके द्वारा निर्मित ग्रन्थ-राशिको देखने तथा मनन करनेसे कविवरकी विद्वत्ता और उनकी काव्य प्रतिभाका भी यथेष्ट परिचय मिल जाता है । ग्रन्थकारने यद्यपि अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया और न जीवन सम्बन्धीविशेष घटनाओंका समुल्लेख ही किया है, जिससे उनके बाल्य काल, शिक्षा, आदिके सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डाला जाता; किन्तु उनके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंमें जो कुछ भी संक्षिप्त परिचय अंकित मिलता है उस से सार रूपमें कुछ परिचय यहां देनेका उपक्रम किया जाता हैवंश-परिचय कविवर रइधू संघाप देवरायके पौत्र थे, और हरिसिंघाके, जो विद्वत्समूहको आनन्द दायक थे, पुत्र थे। कविवरकी माताका नाम 'विजयसिरि'२ (विजयश्री ) था, जो रूप-लावण्यादिसे अलंकृत होते हुए भी शील-संयम आदि सद्गुणोंसे विभूषित थीं । कविवरका वंश 'पद्मावती-पुरवाल' था और वे उक्त वंशरूपी कमलोंको विकसित करनेवाले दिवाकर थे- जैसा कि उनके 'सम्मइजिन चारिउ, ग्रंथकी प्रशस्तिके निम्न वाक्योंसे प्रकट है १ "यः सत्य वदति व्रतानि कुरुते शास्त्र पठत्यादरात् ..इत्यादि" सिद्ध चक्रविधि संधि १० । ' "यः सिद्धान्त रसायनैकरसिको भक्तो मुनीनां सदा ...." पाश्र्वपुराण संधि । २ 'हरिसिंघहु पुत्तें गुणगणजुत्ते हंसिवि विजयसिरि णंदणेण । सम्मत्त गुण निधान प्रशस्ति । ३९८ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू देवराय संघाहिव णंदणु, हरिसिंघु बुहयण कुल पाणंदणु । पोमवइ-कुल-कमल-दिवायरु- सो वि सुणंदउ एत्थु जसायरु । जस्स घरिज रइधू बुह जायउ, देव-सत्थ-गुरु-पय-अणुरायउ। उक्त कवि रइधूने अपने कुलका परिचय 'पोमावइकुल' और 'पोमावइ पुडवारवंस' वाक्यों द्वारा कराया है, जिससे वे पद्मावतीपुरवाल जान पड़ते हैं । जैन इतिहासमें चौरासी प्रकारके वंशों अथवा कुलोंका उल्लेख मिलता है। उनमें कितने ही वंशोंका अस्तित्व आज नहीं मिलता; किन्तु इन चौरासी वंशोंमें कितने ही ऐसे वंश हैं जो पहले बहुत समृद्ध रहे हैं किन्तु आज वे समृद्ध अथवा सम्पन्न नहीं दीखते, और कितनी ही जातियों अथवा वंशोंको इसमें गणना ही नहीं की गयी है जैसे धर्कट, आदि । इन चौरासी वंशोंमें 'पद्मावतीपुरवाल' भी एक वंश है और जो प्रायः आगरा, मैनपुरी, एटा और ग्वालियर, आदि स्थानोंमें आबाद है। इनकी जन संख्या भी कई हजार पायी जाती है। वर्तमानमें यह वंश उन्नत नहीं है तो भी इस वंशके कई विद्वान जैनधर्म और समाजकी सेवा कर रहे हैं । यद्यपि इस वंशके विद्वान अपना उदय ब्राह्मणोंसे बतलाते हैं और अपनेको देवनन्दी (पूज्यपाद) का सन्तानीय भी प्रकट करते हैं; किन्तु इतिहाससे उनकी यह कल्पना सिद्ध नहीं होती क्योंकि प्रथम तो उपवंशों (जातियों)का अधिकांश विकास संभवतः विक्रमकी दसवीं शतीसे पूर्वका प्रतीत नहीं होता, हो सकता है कि वे इससे भी पूर्ववर्ती रहे हों; परन्तु विना किसी प्रामाणिक अनुसंधान के इस सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा जा सकता है। वंशों और गोत्रोंका विकास अथवा निर्माण ग्राम, नगर, और देश आदिके नामोंसे हुआ है । उदाहरण के लिए सांभरके आस-पासके वघेस' स्थानसे वघेरवाल, 'पाली' से पल्लीवाल, 'खण्डेला' से खण्डेलवाल, 'अग्रोहा' से अग्रवाल, 'जायस' अथवा 'जैसा'से जैसवाल, और 'ओसा' से ओसवाल जातिका निकास हुआ है। तथा चंदेरीके निवासी होनेसे चंदेरिया, चन्द्रवाडसे चांदुवाड अथवा चांदवाड, और पद्मावती नगरीसे 'पद्मावतिया' आदि गोत्रों एवं मूलोंका उदय हुआ है । इसी तरह अन्य कितनी ही जातियोंके सम्बन्धमें प्राचीन लेखों ताम्रपत्रों, सिक्कों, ग्रन्थप्रशस्तियों और ग्रंथों आदि से इतिवृत्तका पता लगाया जा सकता है। ___ कविवर रइधुके ग्रन्थोंमें उल्लिखित 'पोमावई' शब्द स्वयं पद्मावती नामकी नगरीका वाचक है। यह नगरी पूर्व समयमें खूब समृद्ध थी, उसकी समृद्धिका उल्लेख खजुराहोके वि० सं० १०५२ के शिलालेख में पाया जाता है, जिसमें बतलाया गया है कि यह नगरी ऊंचे ऊंचे गगन चुम्बी भवनों एवं मकानोंसे सुशोभित थी, जिसके राजमार्गों में बड़े बड़े तेज तुरंग दौड़ते थे और जिसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं । शुभ्र दीवारें आकाशसे बातें करती थीं । जैसा कि "सौधोत्तुंग पतंग..."आदि दो पद्योंसे प्रकट है। १ पं० विनोदीलालकृत फूलमालपच्चीसी, बृहजिनवाणी संग्रह पृ० ४८५ । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ इससे सहजही पद्मावती नगरीकी विशालता और समृद्धिका अनुमान लग जाता है। इस नगरीको नागराजाओंकी राजधानी बननेका भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पद्मावती, कांतिपुरी और मथुरामें नौ-नागराजाओंके राज्य करनेका उल्लेख भी मिलता है। पद्मावतीनगरीके नागराजाओंके सिक्के भी मालवे में कई जगह मिले हैं ग्यारहवीं सदीमें रचित 'सरस्वती कण्ठाभरण' में भी पद्मावतीका वर्णन है और मालतीमाधवमें भी पद्मावतीका नाम पाया जाता है, आज वह नगरी वहां अपने उस रूपमें नहीं हैं, ग्वालियर राज्यमें उसके स्थानपर 'पवाया' नामका छोटासा गांव बसा हुआ है, जो देहलीसे बम्बई जाने वाले जी. आई. पी. रेल्वेकी लाइनपर 'देवरा' नामके स्टेशनसे कुछ ही दूरपर स्थित है । यह पद्मावती नगरी ही 'पद्मावती पुरवाल' जातिके निकासका स्थान है। इस दृष्टिसे वर्तमान 'पवाया' ग्राम पद्मावतीपुरवालों के लिए विशेष महत्वकी वस्तु है। भले ही वहां पर आज पद्मावती पुरवालोंका निवास न हो; किन्तु उसके आसपास ही आज भी वहां पद्मावती पुरवालोंका निवास पाया जाता है। ऊपरके इन उल्लेखों से ग्राम नगरादिके नामोंपरसे उपजातियोंकी कल्पनाको पुष्टि मिलती है। श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमीनेअनेकान्त वर्ष ३,कि.७ में 'परवार जातिके इतिहासपर प्रकाश' नामके अपने लेखमें परवारों के साथ पद्मावती पुरवालोंका सम्बन्ध जोड़नेका प्रयत्न किया है। और पंडित बखतरामके 'बुद्धि विलास' के अनुसार उन्हें सातवां भेदभी बतलाया है । हो सकता है कि इस जातिका कोई सम्बन्ध प्ररवारों के साथ भी रहा हो, किन्तु पद्मावती पुरवालोंका निकास परवारोंके 'सप्तम मूर' पद्मावतिया' से हुआ हो, यह कल्पना ठीक नहीं लगती और न प्राचीन प्रमाणोंसे उसका समर्थन ही होता है, तथा न सभी 'पुरवाड वंश' परवार ही कहे जा सकते हैं । और न इस कल्पनाका साधक कोई प्राचीन प्रमाण भी उपलब्ध है। किसी जातिके गोत्रों अथवा मूरसे अन्य किसी जातिके नामकरण करनेकी कल्पनाका कोई आधार भी नहीं मिलता, अतएव उसे संगत नहीं कहा जा सकता। ___ कविवर रइधूके स्वयं 'पोमावई' नगरीके समुल्लेख द्वारा, जो पंडित बखतरामसे कमसे कम दो सौ वर्षसे भी अधिक पुराने विद्वान हैं, अपनेको पद्मावती पुरवाल प्रकट करते हैं जिसका अर्थ पद्मावती नामकी नगरीके निवासी होता है । हां, यह हो सकता है कि पद्मावती नामकी नगरीमें बसने वाले परवारों के उससे बाहर या अन्यत्र बस जानेपर उन्हें 'पद्मावतिया' कहा जाने लगा हो जैसा कि आजकल भी देखा जाता है कि देहली या कलकत्ते वाले किसी सजनके किसी अन्य शहरमें बस जानेपर उसे 'देहलिया' १. नवनागाः पद्मावत्या कांतिपूर्यां मथुरायां, विष्णुपुराण अंश ४ अध्याय २४ । २. स्व० ओझाजी कृत राजपूतानेका इतिहास, प्रथम जिल्द, पृ० २३० । ३ सात खाप परवार कहावें.. पद्यावतिया सप्तम मानो । ४०० Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू या 'कलकतिया' कहा जाता है और बादमें यही नाम गोत्रादिके रूपमें उल्लिखित किया जाने लगता है, इसी तरह 'पद्मावतिया' भी परवारों का सातवां मूर बन गया हो, कुछ भी हो इस सम्बन्धमें विशेष अनुसन्धानकी जरूरत है। कविवर रइधू गृहस्थ विद्वान थे, और वे देव-शास्त्र-गुरुके भक्त थे। तथा क्षणभंगुर संसारसे विरक्त थे-उदासीन रहते थे; क्योंकि प्रस्तुत कविने अपनेको ‘कविकुलतिलक', 'सुकवि' और 'पंडित' विशेषणोंके अतिरिक्त मुनि या आचार्य जैसा कोई भी विशेषण प्रयुक्त नहीं किया, इससे वे गृहस्थ विद्वान ही जान पड़ते हैं । वे जैनसिद्धान्तके अच्छे विद्वान और गृहस्थोचित देव पूजादि नैमित्तक षट्कर्मोंका पालन करते थे। पुराण तथा साहित्यके विशिष्ट अभ्यासी और रचयिता थे। धार्मिक ग्रन्थोंके अभ्यासके साथ साथ पद्यबदध चरितग्रन्थोंके प्रणयनमें अनुरक्त थे। पुराण और चरित ग्रन्थोंके अतिरिक्त कविवरकी दो रचनाएं सैद्धान्तिक भी समुपलब्ध हैं, जिनमें एक पूर्ण और दूसरी अपूर्ण रूपमें उपलब्ध है। और वे दोनों गाथाबद्ध पद्योंमें रची गयी हैं इन सब ग्रन्थोंके समबलोकनसे कविके सैद्धान्तिक ज्ञानका भी परिचय मिल जाता है । कविवर रइधू प्रतिष्ठाचार्य भी थे, उन्होंने अपने समयमें अनेक जैन मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करायी थी । संवत् १४६७ में इन्होंने भगवान आदिनाथकी एक विशाल मूर्तिकी प्रतिष्ठा ग्वालियरके तत्कालीन तोमरवंशी शासक डूंगरसिंहके राज्य-कालमें करायी थी। कवि रइधू विवाहित थे या अविवाहित, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया, और न कविने अपनेको कहीं बाल-ब्रह्मचारीके रूपमें ही उल्लेखित किया है ऐसी स्थितिमें उन्हें विवाहित मानना उचित है। कविवरने 'यशोधरचरित' की प्रशस्तिके 'णंदउ रइधू परवारिजुत्त' वाक्य द्वारा अपने कुटुम्बकी मंगल कामना व्यक्त की है और अपनेको परिवार के साथ व्यक्त किया है, किन्तु उन्होंने अपनी सन्तान आदिके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं किया । रइधूके दो भाई भी थे जिनका नाम बाहोल और माहणसिंह था, जैसा कि 'बहलद्दचरिउ' (पद्मचरित ) के निम्न धत्तेके अंशसे प्रकट है__"बाहोल माहणसिंह चिरु णंदउ इह रइधू कवितीयउ विधारा।" इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि हरिसिंहके तीन पुत्र थे बाहोल, माहणसिंह और कवि रइधू । यहां पर मैं इतना और प्रकट कर देना चाहता हूं कि आदिपुराणकी संवत् १८५१ की लिखी हुई एक प्रति नजीबाबाद जिला विजनौर के शास्त्र भंडारमें है जो बहुत ही अशुद्ध रूपमें लिखी गयी है और जिसकी आदि अन्तकी प्रशस्ति त्रुटित एवं स्खलित रूपमें समुपलब्ध है। उसमें आचार्य सिंहसेनको १ संवत् १४९७ वर्षे वैशाख......७ शुक्र पुनर्नसु नक्षत्रे श्री गोपाचल दुर्गे महाराजाधिराज राजा श्री डुग (डूंगरसिंह राज्य) संवर्तमानी (नो) श्री काञ्ची (काठा ) संधै माथूरान्वये पुष्करण (णे) भट्टारक श्री ग (गु ) णकीर्ति देवस्तत्पट्टे यशःकीर्तिदेव प्रतिष्ठाचार्य श्री पंडित रइधू तेयं ( तेषां ) आ-भाये (म्नाये) अग्रोतशे गोइल गोत्रा (३) साधु' -जेन लेख सं० वा. पूरणचन्द्र नाहर कलकत्ता ४०१ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ ग्रंथकर्ताके रूपमें उल्लिखित किया गया है । और सिंहसेनने अपनेको हरिसिंहका पुत्र प्रकट किया है । इस प्रतिका परिचय कराते हुए मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीने रइधूको सिंहसेनका बड़ा भाई बतलाया था 1 पं० नाथूरामजी प्रेमीने दशलक्षण जयमालाकी प्रस्तावना के टिप्पण में रइधूको सिंहसेनका बड़ा भाई ' माननेकी मुख्तार साहबकी कल्पनाको असंगत ठहराते हुए दोनोंको एक ही व्यक्ति सूचित किया था । परंतु कविवर रइधूकी उपलब्ध रचनाओंके अध्ययन करनेसे दोनों कल्पनाएं संगत प्रतीत नहीं होतीं, क्योंकि रइधूने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपना नाम सिंहसेन व्यक्त नहीं किया । और जिस ग्रन्थका ऊपर उल्लेख किया गया है उसका नाम मेघेश्वरचरित है आदिपुराण नहीं, और कताका नाम कवि इधू है सिंह नहीं । उसकी रचना आदिपुराणके अनुसार की गयी है जैसा कि उस ग्रन्थके निम्न पुष्पिका वाक्यसे प्रकट है—“इय मेहेसर चरिए आइपुराणस्स सुत्त अनुसरिए सिरि पंडिय खेमसीहसाहु णामंकिए सिरिपाल चक्कवइ हरणणामं एयादसमो संधिपरिछे समत्तो || संधि ११ ॥ " रहधू विरइए सिरि महाभव्व कविवर रइधूके 'मेघेश्वर चरित' और नजीबाबादकी उस आदिपुराणकी प्रतिका मिलान करने से उस ग्रंथके रचयिता कवि रइधू और ग्रन्थका नाम मेहेसरचरिउ ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं है, उसमें साफ तौरपर उसका कर्ता रइधू सूचित किया है फिर मालूम नहीं नजीबाबाद वाली प्रतिमें रचयिताका नाम सिंहसेन आचार्य कैसे लिखा गया ? उसका अन्य किसी प्रतिसे समर्थन नहीं होता, और न रहधूके मेघेश्वरचरितसे उसकी भिन्नता ही प्रकट होती है ऐसी हालत में उक्त दोनों कल्पनाएं संगत प्रतीत नहीं होतीं । रइधू कविके उक्त भाइयों में भी सिंहसेन नामका कोई भी भाई नहीं है जिससे उक्त कल्पनापर विचार किया जा सके । गुरु-परम्परा कविवर रहने मेघेश्वर चरितकी प्रशस्ति में लिखा है कि भट्टारक यशःकीर्तिने मेरे शिर पर हाथ रखकर मुझे संबोधित करते हुए कहा कि तुम मेरे प्रसादसे विचक्षण हो जाओगे । तदनुसार उन्होंने मुझे मंत्र दिया, और मेरे चिर पुण्योदय तथा सुरगुरुके प्रसादसे मुझे कवित्व गुणकी प्राप्ति हो गयी । इसी १ जैनहितेषी भाग १३ अंक ३ । २ दशलक्षण जयमालाकी 'कविका परिचय' नामकी प्रस्तावना । ३ तहु पय-पंकयाइं पणमंतर, जा वह णिवसइ जिण पय भत्तउ । तारिंसिणा सो भणिउ विणोए, हत्थु लिए वि सुमहुत्ते जोएं। धू पंडि सुवण सुहाए, होसि वियक्खणु मज्झु पसाएं इय भणेवि मंतक्खरु दिण्णउ, ते णा राहिउ तंजि अछिण्णउ । चिरपुणे कत्त गुण-सिद्धउ सुगुरु पसाए हुवउ पसिद्धउ । - मेघेश्वर चरित्र प्रशस्ति । ४०२ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू कारण कविवरने भट्टारक यशःकीर्तिका निम्न वाक्यों द्वारा परिचय कराते दुए उन्हें भव्यरूपी कमल समूहका उद्बोधन करने वाला पतंग ( सूर्य ) तथा असंग (परिग्रह रहित ) बतलाते हुए उनका जयघोष किया है, और उन्हींके प्रसादसे अपनेको काव्यका प्रकट करनेवाला भी सूचित किया है जैसा कि उसके निम्नवाक्योंसे स्पष्ट है "भव्य कमल-सर-बोह-पयंगो, बंदिवि सिरि जसकित्ति असंगो। तस्स पसाए कव्व पयासमि, चिरभवि विहिउ असुह णिरणासमि ।-सम्मइजिन चरिउ । हससे प्रकट है कि कविवर रइधु भ० यशःकीर्तिको अपना गुरु मानते थे और उनका यथोचित सम्मान भी करते थे। इसके सिवाय, बलहद्दचरिउ (पद्मचरित)की आद्य प्रशस्तिके चतुर्थ कडवकके निम्न वाक्य द्वारा जो उस ग्रन्थके निर्माणमें प्रेरक साहु हरसी द्वारा ग्रंथकर्ता ( कवि रइधू ) के प्रति कहे गये हैं और जिनमें ग्रन्थकर्ताको श्रीपालब्रह्म आचार्यके शिष्य रूपसे सम्बोधित किया गया है । साथ ही, साहू सोढलके निमित्ति 'नेमिपुराण' के रचे जाने और अपने लिए रामचरितके कहनेकी प्रेरणा की गयी है जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि ब्रह्मश्रीपाल भी रइधूके गुरु थे, जो उस समय ब्रह्मचारी होते हुए भी 'आचार्य' के उपपदसे विभूषित थे । वे वाक्य इस प्रकार हैं "भो रइधू पंडिय गुणणिहाणु, पोमावइ वर बंसहं पहाणु । सिरिपाल बम्हनायरिय सीस, महु वयणु सुणहि भो बुह गिरीस ॥ सोढल णिमित्त णेमिहु पुराणु, विरयउ उहं कइजड़ विहियमाणु। तं रामचरित्तु वि महु भणेहिं, लक्खण समेउ इय मणि मुणेहिं ॥" ___यह ब्रह्म श्रीपाल पं० रइधूके विद्या गुरु जान पडते हैं। यह भट्टारक यशःकीर्तिके शिष्य थे । सम्मइचरिउकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुनि यशाकीर्तिके तीन शिष्योंका उल्लेख किया गया है, खेमचन्द, हरिषेण और ब्रह्मपाल्ह । इनमें उल्लिखित मुनि ब्रह्मपाल्ह ही श्रीपालब्रह्म जान पड़ते हैं। निवास स्थान और उसका ऐतिहासिक परिचय कविवर रइधू ग्वालियरके निवासी थे । ग्वालियर प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है । यद्यपि ग्वालियर राज्यके भेलसा ( विदिशा ) उजैन, मंदसौर ( दशपुर) पद्मावती आदि ऐतिहासिक स्थानों में जैन, बौद्ध १ मुणि जसकित्तिहु सिस्स गुणायरु, खेमचंद हरिसेणु तवायरु । मुणि तहं पाल्हवंभुए गंदहु, तिण्णिवि पावहु भारणिकंदहु ।। २ तहोर जिवणीसरु लद्धमाणु, जिणधम्मरसायण तित्तपाणु । सिरि पउमावइ पुरवाड वंसु उद्धरिउ जेण जयलद्धसंसु । -पुण्याश्रवप्रशस्ति । विशेष परिचयके लिए अनेकान्त वर्ष ८ किरण-८-९ में प्रकाशित अतिशयक्षेत्र चन्द्रवाड नामका लेख । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ और वैदिक धर्मके बहुत प्राचीन ऐतिहासिक अवशेष पाये जाते है; किन्तु खास ग्वालियर में बौद्ध वैदिकों और जैनियोंके पुरातत्त्वकी विपुल सामग्री मिलती है, जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि ग्वालियर किसी समय जैनियोंका केन्द्र था। जैन साहित्यमें वर्तमान ग्वालियरको 'गोपाचल', गोपाद्रि, गोवगिरि, गोवागढ़, और ग्वालिय नामसे उल्लेखित किया गया है। ग्वालियरका यह किला बहुत प्राचीन है और उसे सूरजसेन नामके राजाने बनवाया था। कहा जाता है कि वहां ग्वालिय नामका एक साध रहता था जिसने राजा सूरसेनके कुष्टरोगको दूर किया था। अतः उस समयसे ही इसका नाम ग्वालियर प्रसिद्ध हुआ है। ग्वालियर इतिहासमें अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । यहां का 'दूबकुण्ड' वाला शिलालेख जैनियोंके लिए विशेष महवत्त्की वस्तु है । उसमें संवत् ११४५ से पूर्व कई ऐतिहासिक जैनाचार्योंका उल्लेख पाया जाता है । और सासबहूके मन्दिरमें वि० सं० ११५० का एक शिलालेख भी उत्कीर्ण है, जिसमें कच्छपघट या कछवाहा वंशके लक्ष्मण, वज्रदामन, मंगलराज, कीर्तिराज, मूलदेव, देवपाल, पद्मपाल, और महीपाल नामके दश राजाओंका यथाक्रमसे समुल्लेख किया गया है। तीसरा 'नरवर' का वह ताम्रपत्र है जो वि० सं० ११७७ में वीरसिंहदेवके राज्यमें उत्कीर्ण हुआ है। इसके सिवाय, ग्वालियर में जैनियोंके भट्टारकोंकी पुरानी गद्दी रही है, खासकर वहांपर देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति, यशःकीर्ति, मलयकीर्ति, और गुणभद्रादि अनेक भट्टारक और मुनि हुए हैं। उनमें भ० यशःकीर्ति और भ० गुणभद्र आदिने चरित, पुराण तथा ग्रन्थोंकी रचना की है। ___ ग्वालियरका यह किला एक विशाल पहाड़ी चट्टानपर स्थित है और कलाकी दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किलेमें कई जगह जन मूर्तियां खुदी हैं इस किलेसे पहाड़ीमें होकर शहरके लिए एक सड़क जाती है । इस सड़कके दोनों ओर चट्टानों पर उत्कीर्ण हुई कुछ जैन मूर्तियां अंकित है। ये सब मूर्तियां पाषाणकी कर्कश चट्टानोंको खोदकर बनायी गयीं हैं । इन मूर्तियोंमें भगवान आदिनाथकी मूर्ति सबसे विशाल है, इसके पैरोंकी लंबाई नौ फीट है और इस तरह यह मूर्ति पैरोंसे पांच या छह सात गुणी ऊंची है । मूर्तिकी कुल ऊंचाई ५७ फीटसे कम नहीं है। मुनि शीलविजय और सौभाग्यविजयजीने अपनी अपनी तीर्थमालामें इस मूर्तिका प्रमाण बावन गज बतलाया है । और बाबरने अपने आत्मचरितमें इस मूर्तिको करीब ४० फीट ऊंची लिखा है साथ ही उन नग्न मूर्तियोंको खंडित कराने के १ एपो. इण्डि० भा० २ पृ० २३७ । २ "बावन गज प्रतिमा दीपती गढ़ गुवालेरि सदा सोभती ।। ३३ ।"-तीर्थमाला पृ० १११ । “गढ ग्वालेर बावनगज प्रतिमा वंदु ऋषभ रंगरोलीजी, १४-२ यह प्रतिमा बावन गजकी नहीं है, यह किसी भूलका परिणाम जान पड़ता है। (सौभाग्यविजय तीर्थमाला पृ० ९८) ३ बाबरका उस मूर्तिको ४० फीटकी बतलाना भी ठीक नहीं है वह ५७ फीटसे कम नहीं हैं । ४०४ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू घृणित एवं नृशंस कार्यका जिक्र भी किया है । यद्यपि उनमें की अधिकांश मूर्तियां खंडित करा दी गयी हैं; परन्तु फिर भी उनमें को कुछ मूर्तियां आज भी अखंडेत मौजूद हैं। किलेसे निकलते ही इस विशाल मूर्तिका दर्शन करके दर्शकका चित्त इतना आकृष्ट हो जाता है कि वह कुछ समयके लिए सब कुछ भूल जाता है और उस मूर्तिकी ओर एकटक देखते हुए भी तबियत नहीं भरती। सचमुच यह मूर्ति कितनी सुन्दर, कलात्मक और शान्तिका पुंज है । इसके दर्शनसे परम शान्तिका स्रोत बहने लगता है । यद्यपि भारतमें जैनियोंकी इस प्रकारकी और भी कई मूर्तियां विद्यमान हैं, उदाहरणके लिए श्रवणबेलगोलको बाहुबली स्वामीकी उस विशाल मूर्तिको ही लीजिये, वह कितनी आकर्षक, सुन्दर और मनमोहक है इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं। एकबार प्रसिद्ध व्यापारी टाटा अपने कई अंग्रेज मित्रोंके साथ दक्षिणकी उस मूर्तिको देखनेके लिए गया, ज्योंही वह मूर्तिके समीप पहुंचा और उसे देखने लगा तो मूर्तिको देखते ही समाधिस्थ हो गया, और वह समाधिमें इतना तल्लीन हो गया कि मानो वह पाषणकी मूर्ति है। तब उसके साथी अंग्रेज मित्रोंने उसे निश्चेष्ट खड़ा हुआ देखकर कहा कि टाटा तुम्हें क्या हो गया है जो हम लोगोंसे बात भी नहीं करते, चलो अब वापस चलें; परंतु टाटा व्यापारी उस समय समाधिमें लीन था, मित्रोंकी बातका कौन जवाब देता, जब उसकी समाधि नहीं खुली तब उन्हें चिन्ता होने लगी; किन्तु आध घंटा व्यतीत होते ही उक्त टाटाको समाधि खुल गयी और समाधि खुलते ही उसने यह भावना व्यक्त की, कि मुझे किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं हैं; किन्तु मरते समय मुझे इस मूर्तिका दर्शन हो। इससे मूर्तियोंकी उपयोगिताका अंदाज लग सकता है, ये मूर्तियां वैराग्योत्पादक और शांतिके अग्रदूत हैं, इनकी पूजा, बंदना, उपासना करनेसे जीव परमशान्तिका अनुभव करने लगता है । इस प्रकारकी कलात्मक मूर्तियोंका निर्माण करनेवाले शिल्पियोंकी अटूट साधना, अतुल धैर्य और कलाकी चतुराईकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । कविवर रइधूने पार्श्वपुराण और सम्यक्त्वगुणनिधान नामके ग्रन्थोंमें ग्वालियरका विस्तृत वर्णन दिया है और वहांकी सुवर्णरेखा नामकी नदीका भी उल्लेख किया है और लिखा है कि उस समय गोपाचल ( ग्वालियर ) समृद्ध था और वहांके निवासियोंमें सुख-शान्ति थी, वे धर्मात्मा, परोपकारी, सज्जन थे। उस समय ग्वालियरका शासक राजा डूंगरसिंह था, जो प्रसिद्ध तोमर क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न हुआ था । डूंगरसिंह और उसके पुत्र कीर्तिसिंह या कीर्तिचन्द्र के राज्यमें प्रजामें किसी प्रकारकी अशान्ति न थी। पिता पुत्र दोनों ही राजा जैनधर्मपर पूरी आस्था रखते थे। यही कारण है कि उस समय ग्वालियरमें चोर, डाकू, दुर्जन, खल, पिशुन, तथा नीच मनुष्य नहीं दिखते थे। और न कोई दीन-दुखी ही दृष्टिगोचर होता था, वहां चौहटेपर सुन्दर बाजार बने हुए थे, जिनपर वणिकजन विविध वस्तुओंका क्रयविक्रय करते थे। वहां व्यसनी तथा हीन चरित्री मानव भी नहीं थे। नगर जिन-मन्दिरोंसे विभूषित था ४०५ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ और श्रावक दान पूजामें निरत रहते थे । देव गुरु,और शास्त्रके श्रद्धानी, विनयी, विचक्षण, गर्वरहित और धर्मानुरक्त मनुष्य रहते थे । और वहां श्रावक जन सप्त व्यसनोंसे रहित द्वादशव्रतोंका अनुष्ठान करते थे, जो सम्यग्दर्शनरूप मणिसे भूषित थे, जिनप्रवचनके नित्य अभ्यासी थे, और द्वारापेक्षण विधिमें सदाही सावधान रहते थे, जिन महिमा अथवा महोत्सव करने में प्रवीण थे और जो जिनसूत्र रूप रसायनके सुननेसे तृप्त तथा चैतन्य गुणस्वरूप पवित्र आत्माका अनुभव करते थे । जहां नारीजन दृढ़शीलसे युक्त थीं और पर पुरुषोंको अपने बांधव समान सझती थीं, कविवर रइधू कहते हैं कि मैं उस नगरकी स्त्रियोंका क्या वर्णन करूं? और जो तीन प्रकारके पात्रोंको दानसे निरन्तर पुष्ट करती थीं। ऊपरके इस संक्षिप्त दिग्दर्शनसे मालूम होता है कि उस समय ग्वालियर जैनपुरी था, जहां अनेक विशाल जिन मूर्तियोंका निर्माण, प्रतिष्ठा. महोत्सव और अनेक ग्रन्थोंका निर्माण किया जाता हो, उसे जैनपुरी बतलाना अनुचित नहीं हैं। कविवर रइधू वहांके नेमिनाथ और वर्द्धमानके जिनमन्दिरोंके पास बने हुए विहार में रहते थे, जो कवित्त रूप रसायन निधिसे रसाल थे-वैराग्य, शान्त और मधुरादि रससे अलंकृत थे जैसाकि उनके निम्नवाक्योंसे प्रकट है एरिस सावहिं विहियमाणु, णेमीसर जिणहरि वड्ढमाणु । णिवसइ जा रइधूकवि गुणालु, सुकवित्त रसायण णिहिं रसालु ।। -सम्मत्त गुण निहाणसमकालीन राजा तैमूरलंगने भारतपर १३६८ ई० में आक्रमण किया था, दिल्ली के शासक महमूदशाहने उसका सामना किया, किन्तु महमूदके परास्त हो जाने पर उस समय दिल्लीमें तीन दिन तक कत्ले आम हुआ और तमाम धन संपत्ति लूटी गयी। तब दिल्ली के तंबर या तोमर वंशी वीरसिंह नामके एक क्षत्रिय सरदारने ग्वालियरपर अधिकार कर लिया, उसके बाद विक्रमकी १६ वीं शतीके अन्ततक ग्वालियर पर इस वंशका शासन रहा है। उनमें से कविवर यश-कीर्तिके समकालीन राजा डूगरसिंह और कीर्तिसिंहका परिचय नीचे दिया जाता है राजा डूगरसिंह-यह तंबर या तोमरवंशका एक प्रधान वीर शासक था, यह राजनीतिमें दस, शत्रुओंका मानमर्दन करनेमें समर्थ और क्षत्रियोचित क्षात्र तेजसे अलंकृत था। इनके पिताका नाम गणेश या गणपति था जो गुणसमूहसे विभूषित था । अन्यायरूपी नागोंके विनाश करनेमें प्रवीण, पंचांग मंत्रशास्त्रमें कुशल तथा असिरूप अग्निसे मिथ्यात्वरूपी वंशका दाहक था और जिसका यश सब दिशाओंमें १ पापुराण प्रशस्ति । २ सम्यक्त्वगुणनिधान प्रशस्ति । ४०६ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू व्याप्त था। राज्य पट्टसे अलंकृत, विपुल भाल और बलसे सम्पन्न था'। डूंगरसिंहकी पट्ट-महिषी ( पहरानी) का नाम 'चंदादे' था, जो अतिशय रूपवती और पतिव्रता थी। इनके पुत्रका नाम कीर्तिसिंह या 'कित्तिपाल' था जो अपने पिताके समान ही तेजस्वी, गुणज्ञ, बलवान और राजनीतिमें चतुर था जैसा कि 'पडमचरिउ' की "तहिं गरिदुं णामेणराउ....इत्यादि" पंक्तियोंसे प्रकट है। डूगरसिंहने नरवरके किलेपर घेरा डालकर अपना अधिकार कर लिया था। शत्रुलोग इसके प्रताप एवं पराक्रमसे सदा भय खाते थे । वह न्यायी और प्रजावत्सल शासक था । राजा डूंगरसिंह जैनधर्म पर केवल अनुराग ही न रखता था; किन्तु उसपर अपनी आस्था भी रखता था जिसके फलस्वरूप ही उसने किलेमें दिगम्बर जैन मूर्तियोंकी खुदाईके कार्यमें सहस्रों रुपया व्यय किये थे। यद्यपि जैन मूर्तियोंकी खुदाईका यह पवित्र कार्य उसके जीवन में सम्पन्न नहीं हो सका था। विक्रम संवत् १४६७से कीर्तिसिंहके राज्यकाल (वि० सं० १५३६)के कुछ वर्ष पूर्व तक-अथात् वि० सं० १४६७से वि० सं० १५२६ तक-३२ वर्ष जैन मूर्तियोंका निर्माण कार्य हुआ । जिसे उसके प्रिय पुत्र कीर्तिसिंहने पूरा कराया था । डूंगरसिंहके समय अनेक जैन मूर्तियोंका निर्माण वहांके निवासी भव्य श्रावकोंने भी कराया था और जिनके प्रतिष्ठा महोत्सव भी उसीके शासनकालमें बड़े भारी वैभवसे सम्पन्न हुए थे। चौरासी मथुराके जम्बूस्वामीके मन्दिरकी मूलनायक प्रतिमा भी उसीके राज्यकालमें ग्वालियरमें प्रतिष्ठित हुई थी। उनमें से कितनी ही मूर्तियोंको मुगल बादशाह बाबरने बादको खडित करानेका नृशंस एवं घृणित कार्य किया था । अवशिष्ट मूर्तियां आज भी अखंडित मौजूद हैं जो जैनधर्मके अतीत गौरवकी चिरस्मृति हृदयपटपर अंकित करती हैं, ये मूर्तियां कलाकी दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर हैं और दर्शकके चित्तको अपनी ओर आकृष्ट करती हुई वीतरागता एवं आत्मिक शान्तिका–जीवनकी विशुद्ध स्वतंत्रतावस्थाका-सच्चा उपदेश देती हैं। डूंगरसिंह सन् १४५४ (वि० सं० १४८१) में ग्वालियरकी गद्दीपर बैठा था, इसके राज्यसमयके दो मूर्तिलेख संवत् १४६७ और १५११के मिले हैं। और संवत् १४८६ की दो लेखक-प्रशस्तियां, एक १-"तहि तोमरकुल सिरि रायहसु.....इत्यादि' पद्य (पार्श्वपुराण)। २-ठाकुर सूर्यवर्माकृत ग्वालियरका इतिहास। . .. ३-गोपाचलदुर्गे तोमरवंशे राजा श्री गणपतिदेवस्तत्पुत्रो महाराजाधिराज श्री डूंगरसिंहराज्ये प्रणमति । -जम्बूस्वामी मंदिर, चौरासी-मथुरा ४-संवत् १४९७ वर्षे वैशाख . . . .७ शुक्ले पुनर्वसुनक्षत्रे श्री गोपाचलदुर्गे महाराजाधिराज राजा श्री डंग (डुगरसिंह राज्य ) संवर्तमानो (ने) का वी (छा) संघे माथुरान्वये . . . . . || "सिद्धि सम्बत् १५१० वर्षे । माघसुदि ८ अष्टम्यां श्री गोपगिरी महाराजाधिराज राजा डुगरेन्द्रदेवराज्य प्रवर्तमाने काष्ठांसवे माथूरान्वये भट्टारक श्री क्षेमकीर्ति . . . . . ॥ जैनशिलालेखसंग्रह भाग २ पृ० ९३ (पूरणचन्द नाहर द्वारा संकलित) Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पं० विवुधश्रीधरके संस्कृत भविष्यदत्त चरित्रकी और दूसरी अपभ्रंश भाषाके सुकुमालचरितकी प्राप्त हुई हैं । इनके सिवाय, संवत् १५०६ की एक अपूर्ण लेखक-प्रशस्ति कविवर धनपालकी 'भविसयत्तपंचमीकहा' की प्राप्त हुई है । जो कारंजाके शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है। इन सब उल्लेखोंसे राजा डूंगरसिंहका राज्यकाल संवत् १४८१से वि० सं० १५१०तक ३२ वर्ष तो निश्चित ही है। इसके बाद और कितने वर्ष राज्यका संचालन किया यह प्रायः अभी अनिश्चित है, परन्तु उसकी निश्चित सीमा संवत् १५२१ से पूर्व है । कीर्तिसिंह3-यह वीर और पराक्रमी राजा था, इसका दूसरा नाम कीर्तिपाल भी प्रसिद्ध था। इसने अपने पिताके राज्यको और भी अधिक विस्तृत कर लिया था। यह दयालु, सहृदय और प्रजावत्सल था । यह भी जैनधर्मपर विशेष अनुराग रखता था और उसने पिता द्वारा आरब्ध जैन मूर्तियोंकी अविशिष्ट खुदाईको पूरा किया था। ग्रंथकार कवि रइधूने सम्यक्त्वकौमुदीकी रचना इसके राज्यकालमें की है । उसमें कीर्तिसिंहके यशका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह तोमर कुलरूपी कमलोंको विकसित करनेवाला सूर्य था और दुर्वारशत्रुओंके संग्रामसे अतृप्त था,और अपने पिता डंगरसिंहके समान ही राज्य भारको धारण करने में समर्थ था । सामन्तोंने जिसे भारी अर्थ समर्पित किया था तथा जिसकी यशरूपी लता लोकमें व्याप्त हो रही थी और उस समय यह कलिचक्रवर्ती था।" जैसा कि नागौर भंडारकी सम्यक्त्वकौमुदीकी प्रति (पृ० २) से प्रकट है। राजा कीर्तिसिंहने अपने राज्यको खूब पल्लवित एवं विस्तृत किया था और वह उस समय मालवेके समकक्ष हो गया था। और दिल्लीका बादशाह भी कीर्तिसिंहकी कृपाका अभिलाषी बना रहना चाहता था; परन्तु सन् १४६५ (वि० सं० १५२२) जौनपुरके महमूदशाहके पुत्र हुशेनशाहने ग्वालियरको विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी, तबसे कीर्तिसिंहने दिल्लीके बादशाह बहलोललोदीका पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुरवालोंका सहायक बन गया था । सन् १४७८ १ नागपुर विश्वविद्यालयकी पत्रिका १९४२ स. ८ । तथा जैन सिद्धान्तभास्कर भाग ११ किरण दोमें प्रकाशित 'भ० यशःकीर्ति' नामका मेरा लेख । २ मध्यप्रांत तथा बरार के संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंकी सूची पृ० ९४ । ३ स्व० श्री गोरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा सम्मादित टाडराजस्थानके पृष्ठ २५० की ग्वालियर के तंबरवाली टिप्पणीमें कीर्तिसिंहके दूसरे भाई पृथ्वीराजका उल्लेख किया हुआ है जो सन् १४५२ (वि० सं० १५०९) में जीनपुर के सुल्तान महमूदशाह शी और दिल्लीके बादशाह बहलोल लोदीके बीच होनेवाले संग्राममें महमूदशाहके सेनापति फतहखां हावीके हाथसे मारा गया था। परन्तु कविवर रइधुके ग्रंथोंमें डूंगरसिंहके एक मात्र पुत्र कीर्तिसिंहका ही उल्लेख पाया जाता है। ४ "तहु कित्तिपालु, गंदण, गरिछु, णं रूब कामु सब्बह मणठु। -सिद्ध चक्रावधानकी अन्तिम प्रशास्त । ४०८ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू में हुशैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदीसे पराजित हो कर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़ कर भागा और भाग कर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंहकी शरण में गया था। तब कीर्तिसिंहने धनादिसे उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुंचाया भी था । कीर्तिसिंहके समयके दो लेख सन् १४६८ ( वि० सं० १५२५ ) और सन् १४७३ ( वि० सं० १५३० ) के मिले हैं | कीर्तिसिंहकी मृत्यु सन् १४७६ ( वि० सं० १५३६ ) में हुई थी । अतः इसका राज्यकाल संवत् १५१० के बाद १५१६ तक माना जाता है । इन दोनों राजाओंके समय में ग्वालियर में प्रजा बहुत सुखी एवं समृद्ध रही, और जैनधर्मका वहां खूब गौरव एवं प्रचार रहा । समकालीन विद्वान भट्टारक कविवर रइधूने ग्वालियरका परिचय कराते हुए वहांके भट्टारकोंका भी संक्षिप्त परिचय 'सम्म - जिन चारिउ' की प्रशस्तिमें कराया है, और देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्त्रकीर्ति, गुणकीर्ति, मलयकीर्ति, और गुणभद्र आदिका नामोल्लेख पूर्वक परिचय दिया है । उनमें से यहां सहस्रकीर्तिसे बाद के विद्वान् भट्टारकोंका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है जो कविवर के समकालीन थे । भट्टारक गुणकीर्ति - यह भट्टारक सहस्रकीर्तिके शिष्य थे और उन्हींके बाद भ० पदपर आरूढ़ थे । यह बड़े तपस्वी और जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान् थे । इनका शरीर तपश्चरणसे अत्यंत हुए क्षीण हो गया था, इनके लघुभ्राता और शिष्य भ० यशः कीर्ति थे । भट्टारक गुणकीर्तिने कोई साहित्यक रचना की अथवा नहीं, इसका स्पष्ट उल्लेख देखने में नहीं आया । परन्तु इतना जरूर मालूम होता है कि इनकी प्रेरणा एवं उपदेशसे और कुशराजके आर्थिक सहयोगसे, जो ग्वालियर के राजा वीरमदेव के विश्वसनीय मंत्री थे, और जो जिनेन्द्रदेवकी पूजामें रत थे, जिसने एक उन्नत एवं विशाल चन्द्रप्रभु भगवानका चैत्यालय भी बनवाया था, जो स्वर्गलोककी स्पर्धा करता था, इन्ही कुशराजने पं० पद्मनाभ नामके एक कायस्थ विद्वान् द्वारा संस्कृत भाषा में 'यशोधरचरित' अथवा दयासुन्दर नामका एक महाकाव्य भी बनवाया था, जैसा कि इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके निम्न पद्योंसे प्रकट है— ५२ ज्ञाता श्री कुशराज एव सकलक्ष्मापालचूड़ामणिः । श्री मत्तोमरवीरमस्य विदितो विश्वासपात्र महान् । मंत्री मंत्रविचक्षणः क्षणमयः क्षीणारिपक्षः क्षणात् । क्षोण्यामीक्षण रक्षण क्षममतिजैनेन्द्रपूजारतः ॥ स्वर्गस्पर्द्धिसमृद्धिकोऽतिविमलच्चैत्यालयः कारितो । लोकानां हृदयङ्गमो बहुधनैश्चन्द्रप्रभस्य प्रभोः । ४०६ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ येनैतत्समकालमेव रुचिरं भव्यं च काव्यं तथा । साधु श्रीकुशराजकेन सुधिया कीर्तिश्चिरस्थापकम् ॥ उपदेशेन ग्रन्थोऽयं गुणकीर्ति महामुनेः। कायस्थ पद्मनाभेन चितः पृवसूत्रतः॥ यतः वीरमदेवका समय वि० सं० १४६२ ( ई० सन् १४०५ ) है; क्योंकि उस समय मल्लूइकबालखांने ग्वालियर पर चढ़ाई की थी परन्तु उसे निराश होकर दिल्ली लौटना पड़ा था । अतः यही समय भट्टारक गुणकीर्तिका है, वे विक्रिमकी १५ वीं शतीके अन्तिम चरण तक जीवित रहे हैं। भ० यशःकीर्ति-यह भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य और लघुभ्राता थे, और उनके बाद पट्टधर हुए थे । यह अपने समयके अच्छे विद्वान् थे । इन्होंने संवत् १४६६ में विबुधश्रीधरका संस्कृत भविष्यदत्त चरित और अपभ्रंश भाषाका सुकमालचरित ये दोनों ग्रन्थ अपने ज्ञाना वरणी कर्मके क्षयार्थ लिखवाये थे । महाकवि रइधूने अपने 'सम्मइजिन चरिउ' की प्रशस्तिमें यशःकीर्तिका निम्न शब्दोंमें उल्लेख किया है "तह पुणु सु-तव-ताव-तवि यंगो, भय कमल संबोह पयंगो। णिच्चोभासिय पवयण अंगो, वंदिविसिरि जसकित्ति असंगो। तासु पसाए कव्वु पयासमि, आसि विहिउ कलिमलु णिरणासमि।" "भव्व-कमस-सर-बोह-पयंगो, बंदिवि सिरि जसकित्ति असगो। सम्मतगुणनिधानकी आदि प्रशस्तिमें निम्नरूपसे स्मरण किया है। भ० यश-कीर्तिने स्वयं अपना 'पाण्डव पुराण' वि० सं० १४६७ में अग्रवालवंशी साहू बील्हाके पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे बनाया था, यह पहले हिसारके निवासी थे और बादको देहलीमें रहने लगे थे, और देहली के बादशाह मुबारकशाहके मंत्री थे, वहां इन्होंने एक चैत्यालय भी बनवाया था। १. हिन्दी टाड-राजस्थान ओझाजी द्वारा सम्पादित पृ० २५१।। २. “सम्बत् १४८६ वर्षे अश्वणिवदि १३ सोम दिने गोपाचलदुर्गे राजा डुगरसिंहदेव विजयराज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंधै माथूरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री भावसेनदेवास्तत्प? श्री सहस्रकीर्तिदेवास्तत्प? श्रीगुणकीर्ति देवास्तशिष्येन श्रीयश कीर्ति देवेन निजज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ इदं सुकमालचरितं लिखापित, कायस्थयाजन पुत्र थललेखनीय ।" "सम्बत् १४८६ वर्षे आषाणवदि ९ गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूगरसी (सिं) ह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठारांधे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री सहस (स्र) कीर्तिदेवास्तत्पटें आचार्य गुण कीर्तिदेवा स्तच्छिष्य श्री यशःकीर्तिदेवास्तेन निजज्ञानायरणी कर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमीकथा लिखापितम् ॥ ४१० Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू और उसकी प्रतिष्ठा भी करायी थी । इनकी दूसरी कृति 'हरिवंशपुराण' है जिसकी रचना इन्होंने वि० सं० १५०० में हिसारके साहू दिवड्डाकी प्रेरणासे की थी । साहू दिवढा अग्रवाल कुलमें समुत्पन्न हुए थे और उनका गोत्र 'गोयल' था। वे बड़े धर्मात्मा और श्रावकोचित द्वादश व्रतोंका अनुष्ठान करने वाले इनकी तीसरी कृति 'आदित्यवार कथा' है, जिसे रविव्रतकथा भी कहते हैं । और चौथी रचना 'जिनरात्रिकथा' है जिसमें शिवरात्रि कथाके ढंग पर जिनरात्रिके व्रतका फल बतलाया गया है । इनके सिवाय 'चंदप्यह चरिउ' नामका अपभ्रंश भाषाका एक ग्रन्थ और भी उपलब्ध है जिसके कर्ता कवि यशःकीर्ति हैं । चंद्रप्रभचरितके कर्ता प्रस्तुत यशःकीर्ति हैं इसका ठीक निश्चय नहीं; क्योंकि इस नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं। - भ० यशःकीर्तिको महाकवि स्वयंभूदेवका 'हरिवशंपुराण' जीर्ण शीर्ण दशामें प्राप्त हुआ था और जो खंडित भी हो गया था, जिसका उन्होंने ग्वालियरकी कुमर नगरीके जैन मन्दिर में व्याख्यान करनेके लिए उद्धार किया था । यह कविवर रइधूके गुरु थे, इनकी और इनके शिष्यों की प्रेरणासे कवि रइधूने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है। इनका समय विक्रिमकी १५ वीं शतीका अन्तिम चरण है, सं०१४८१से १५०० तक तो इनके अस्तित्वका पता चलता ही है किन्तु उसके बाद और कितने समय तक वे जीवित रहे यह निश्चित बतलाना कठिन है। भ० मलयकीर्ति-यह भट्टारक यशःकीर्तिके बाद पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे । इनके शिष्य गुणभद्र भट्टारक थे जिन्होंने इनकी कृपासे अनेक कथाग्रंथ रचे हैं । कवि रइधूने 'सम्मइजिनचरिउ' की प्रशस्तिमें भट्टारक मलयकीर्तिका निम्न शब्दोंमें उल्लेख किया है ?–'उत्तम-खम-वासेण अमंदउ, मलयकित्ति रिसिवरु चिरु णंदउ।' मलयकीर्तिने किन ग्रंथोंकी रचना की यह ज्ञात नहीं हो सका । भ० गुणभद्र-यद्यपि गुणभद्रनामके अनेक विद्वान् हुए हैं जिनमें उत्तरपुराणादिकके कर्ता गुणभद्र तो प्रसिद्ध ही हैं । शेष दूसरे गुणभद्र नामके अन्य विद्वानोंका यहां परिचय न देकर मलयकीर्तिके शिष्य गुणभद्रका ही परिचय दे रहा हूं। भ० गुणभद्र माथुरसंघी भ० मलयकीर्तिके शिष्य थे और अपने गुरुके बाद गोपाचलके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे। इनकी रची हुई निम्न १५ कथाएं है जो देहली पंचायत मन्दिरके गुटका नं० १३-१४ में दी हुई हैं, जो संवत् १६०२ में श्रावणसुदी एकादशी सोमवारके दिन रोहतक नगरमें पातिशाह जलालुद्दीनके राज्यकालमें लिखा गया है। उन कथाओंके नाम इस प्रकार हैं-- १, “तहो गंदणु णंदणु हेमरा...उ इत्यादि" पाण्डव पुराण प्रशस्ति । २. "विक्कम-रायहो ववगय कालई........इत्यादि" हरिगंशपुराण प्रशस्ति । ३, तं जसकित्ति मुणिहिं उद्धरिय........ इत्यादि स्वयंभू हरिवंश पुराण प्रशस्ति । ४ जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ११ किरण • में भ० यशःकीर्ति नामका लेख । ५ अथ संवत्सरेस्मिन् श्री नृप विक्रमादित्यराज्यात् संवत् १६०२ वर्षे श्रावण सुदि ११ सोमवासरे रोहितासशुभस्थाने पातिसाह जलालदी ( जलालुद्दीन ) राज्य प्रवर्तमाने ॥ छ । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ १ अणंतवयकहा २ सवण वारसिविहाणकहा ३ पक्खवइकहा ४ णहपंचमीकहा ५ चंदायणवय कहा ६चंदण छट्ठी कहा ७ णरयउतारीवुद्धारस कहा ८ गिद्दहसत्तमी कहा , मउउसत्तमी कहा १० पुप्फंजलिवय कहा ११ रयणत्तयविहाण कहा १२ दहलक्खणवय कहा १३ लद्धिवयविहाण कहा २४ सोलहकारणवयविहि १५ सुगंधदशमी कहा । इनमेंसे सं० १, १० और १२ की तीनों कथाएं ग्वालियर के जैसवाल वंशी चौधरी लक्ष्मणसिंहके पुत्र पंडित भीमसेनके अनुरोधसे रची गयी हैं और सं० २ तथा १३ की कथाएं ग्वालियरवासी संघपति साहु उद्धरणके जिनमंदिरमें निवास करते हुए साहु सारंगदेवके पुत्र देवदासकी प्रेरणाको पाकर बनायी गयी हैं । तथा सं० ७ की कथा गोपाचलवासी साहु बीधाके पुत्र सहजपालके अनुरोधसे लिखी गयी है । शेष नौ कथाओंके सम्बन्धमें कथा निर्माणके निमित्त श्रावकोंका कोई परिचय नहीं दिया है। भट्टारक गुणभद्र का समय भी विक्रमकी १५ वीं शतीका अन्तिम चरण और १६ वीं शतीका प्रारंभिक है; क्योंकि संवत् १५०६ की लिखी हुई धनपाल पंचमी कथाकी लेखकपुष्पिकासे मालूम होता है कि उस समय ग्वालियरके पट्टपर भ० हेमकीर्ति विराजमान थे,' । और संवत् १५२१ में राजा कीर्तिसिंहके राज्यमें गुणभद्र मौजूद थे, जब ज्ञानार्णवकी प्रति लिखी गयी थी। इन्होंने अपनी कथाओंमें रचनाकाल नहीं दिया है। इसीसे निश्चित समय मालूम करने में बड़ी काठनाई हो जाती है। इन विद्वान् भट्टारकोंके अतिरिक्त क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, कुमारसेन, कमलकीर्ति और शुभचन्द्र आदिके नाम भी पाये जाते हैं। इनमेंसे क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति और कुमारसेन ये तीनों हिसारकी गद्दीके भ० जान पड़ते हैं ; क्यों कि कवि रइधूके पार्श्वपुराणकी सं० १५४९ को लेखक-पुष्पिकामें जो हिसारके चैत्यालयमें लिखी गयी है उक्त तीनों भट्टारकोंके अतिरिक्त भट्टारक नेमिचन्द्रका नाम भी दिया हुआ है जो कुमारसेनके पट्टपर प्रतिष्ठित हुए थे, उस समय वहां शाह सिकन्दरका राज्य था । कुछ ग्रन्थ प्रशस्तियोंके ऐतिहासिक उल्लेख महाकवि रइधूकी समस्त रचनाओंमें यह विशेषता पायी जाती है कि उनकी आद्यन्त प्रशस्तियों में तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओंका समुल्लेख भी अंकित है, जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े ही महत्त्वका है और वह अनुसंधान-प्रिय विद्वानोंके लिए बहुत ही उपयोगी है । उन उल्लेखोंपरसे ग्वालियर, जोइणिपुर (दिल्ली) हिसार तथा आसपासके अन्य प्रदेशोंके निवासी जैनियोंकी प्रवृत्ति, आचार-विचार और धार्मिक मर्यादाका अच्छा चित्रण किया जासकता है, खास कर १ धनपाल पंचमीकथाकी लेखक प्रशस्ति, कारंजा-प्रति । २ शानार्णवकी लेखक-पुष्पिका, जैन सिद्धान्त भवन, आराकी प्रति । ३ पार्श्वपुराणकी लेखक-पुपिका, जैन सिद्धान्त भवन आराकी प्रति । ४१२ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधू विक्रमकी १५ वीं शतीके उत्तरप्रान्त वासी जैनियोंके तात्कालिक जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है । उनमें से बतौर उदाहरणके यहां कुछ घटनाओंका उल्लेख किया जाता है । (१) हरिवंशपुराणकी आद्य प्रशस्तिमें उल्लिखित भट्टारक कमलकीर्तिके पट्टका 'कनकाद्रि' 'सुवर्णगिरि' या वर्तमान सोनागिरमें प्रस्थापित होना और उसपर भट्टारक शुभचन्द्रके पदारूढ़ होनेका ऐतिहासिक उल्लेख बड़े महत्त्वका है । उससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि ग्वालियर भट्टारकीय गद्दीका एक पट्ट सोनागिर में भी स्थापित हुआ था, जैसा कि हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिकी निम्न पंक्तियों से प्रकट है- “कमलकित्ति उत्तमखम धारउ, भव्यहिं भव-अबोणिहि तारउ। तस्स पट्ट कणयहि परिट्ठिउ, सिरि सुहचन्द सु-तव उक्कंठिउ ।" ( २ ) कविके 'सम्मइजिनचरिउ' को प्रशस्तिमें जैनियोंके आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवानकी एक विशाल मूर्तिके निर्माण करानेका उल्लेख निम्न प्रकारसे दिया हुआ है और उसमें बतलाया है कि अग्रवाल कुलावतंश संसार-शरीर भोगोंसे उदासीन, धर्मध्यानसे संतृप्त, शस्त्रोंके अर्थ रूपी रत्न समूहसे भूषित, तथा एकादश प्रतिमाओंके संपालक, खेल्हा नामके ब्रह्मचारी उस श्रावकने मुनि यशःकीर्तिकी वन्दना की, और कहा कि आपके प्रसादसे मैंने संसार दुःखका अन्त करनेवाले चन्द्रप्रभ भगवान की एक विशाल मूर्तिका निर्माण ग्वालियरमें कराया है, इस आशयको व्यक्त करनेवाली मूल पंक्तियां इस प्रकार हैं "ता तम्मि खणि बंभवय-भार भारेण सिरि अयखालंक वंसम्मि सारेण । संसार-तणु-भोय-णिविण चित्तेण वर धम्म झाणामएणेव तित्तण । खेल्हाहिहाणेण णमिऊण गुरुतेण जसकित्ति विणयत्तु मंडिय गुणोहेण । भो भयण दावग्गि उल्हवण णणदाण संसार-जलरासि-उत्तार-वर जाण । तुम्हहं पसाएण भव-दुह-कयंतस्स, ससिपह जिणेदस्स पडिमा विसुद्धस्स । काराविया मइंजि गोवायले तुगं, उडुचावि णामेण तित्थम्मि सुह संग।" पुण्याश्रवकथाकोशकी अन्तिम प्रशस्तिमें बतलाया है कि जोइणिपुर (योगिनीपुर-दिल्ली) के निवासी साहू तोसउ के प्रथम पुत्र नेमिदासेन, जिसे चन्द्रवाडके प्रतापरूद्र नामके राजाने सन्मानित किया था बहुत प्रकारकी धातु, स्फटिक और विद्रुममयी ( मूंगाकी ) अगणित प्रतिमाए बनवायी थीं, और उनकी प्रतिष्ठा भी करायी थी, तथा चन्द्रप्रभ भगवानका उत्तुंग शिखरोंवाला एक चैत्यालय भी बनवाया था । (४) सम्मत्तगुणनिधान नामके ग्रन्थकी प्रथमसंधिके १७ वें कडवकसे स्पष्ट है कि साहू खेमसिंहके पुत्र कमलसिंहने भगवान आदिनाथकी एक विशाल मूर्तिका निर्माण कराया था, जो ग्यारह हाथ ऊंची थी, और दुर्गतिकी विनाशक, और मिथ्यात्व रूपी गिरीन्द्रकेलिए वज्रसमान, भव्यों ४१३ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ के लिए शुभगति प्रदानकरनेवाली और दुख-रोग-शोककी नाशक थी। ऐसी महत्वपूर्ण मूर्तिकी प्रतिष्ठा करके महान् पुण्यका संचय किया था और चतुर्विध संघकी विनय भी की थी। " (५) 'सम्मइजिनचरिउ' में फीरोज शाहके द्वारा हिसार नगरके वसाये जाने और उसका परिचय कराते हुए वहां सिद्धसेन और उनके शिष्य कनककीर्तिका नामोल्लेख किया है। इन सबकी पुष्टि 'पुष्णासव, सम्मतगुणनिधान' तथा जसहरचरिउ की' प्रशशिस्तयोंसे होती है। (६) हिसारनगरके वासी सहजपालके पुत्र सहदेव द्वारा जिन बिम्बकी प्रतिष्ठा कराने और उस समय अभिलषित बहुत दान देनेका उल्लेख भी 'सम्मइजिनचरिउ' की अन्तिम प्रशस्तिमें दिया हुआ है। साथ ही, सहजपाल के द्वितीयादि पुत्रों द्वारा गिरनारकी यात्राके लिए चतुर्विध संघ चलाने तथा उसका कुल श्रार्थिक भार वहन करनेका भी समुल्लेख पाया जाता है जैसा कि उसके "ताहं पढम वर कित्ति लयाहरु...इत्यादि" आठ पद्योंसे प्रकट है । (७) यशोधरचरितकी प्रशस्तिसे भी प्रकट है कि लाहण या लाहडपुरके निवासी साहू कमलसिंहने गिरनारकी यात्रा ससंध अपने समस्त परिजनोंके साथ की थी और यशोधर चरित नामके ग्रन्थका निर्माण भी कराया था। उपरोक्त सभी समुल्लेख ऐतिहासिक घटनात्रोंसे श्रोप-प्रोत हैं। इनका ध्यानपूर्वक समीक्षण करनेसे इनकी महत्ताका सहज ही बोध हो जाता है । अतः ये अन्वेषक विद्वानोंके लिए भी उपयोगी सिद्ध होंगे। कविवर रइधूका समय कवि रइधू विक्रमकी १५ वीं शतीके विद्वान थे, इनकी ‘सम्मत्तगुणनिधान' और 'सुकौशलचरित' नामकी दो कृतियोंको छोड़कर शेष कृतियोंमें रचना काल नहीं दिया है, जिससे निश्चित रूपमें यह बतलाना तो कठिन है कि उन सब कृतियोंका निर्माणकाल कबसे कबतक रहा है; परन्तु कवि ग्वालियरके तोमरवंशी नरेश डूगरसिंह और उनके पुत्र कीर्तिसिंहके समकालीन हैं और उन्हीं के राज्यमें उनका निर्वाण हुआ है, जैसा कि पहले लिखा गया है। क्योंकि इनका राज्य समय वि० सं० १४. ८१ से १५३६ तक रहा है। अतः इनका मध्यवर्तीकाल ही प्रस्तुत कविकी रचनाओंका समय कहा जा सकता है । इतना ही नहीं किन्तु अधिकांश कृतियां संवत् १५०० से पूर्व ही रची गयी हैं । अतः १५ वीं शतीका उचरार्ध और १६ वीं शतीका प्रारम्भिक भाग रइधूका काल जानना चाहिये। कविवरने 'सम्यक्त्वगुण निधान' नामक ग्रंथकी रचना वि० सं० १४९२के भाद्रपद शुक्ला . १ जे गिरीणयरहु जत्त पवित्तउ, पविहिय णिय परियण संजुत्तउ ।—यशोधरचरित प्रशस्ति। ४१४ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रद्दधू पूर्णिमा मंगलवार के दिन पूर्ण की है। इस ग्रंथको कविने तीन महीने में बनाकर समाप्त किया था, जैसा कि उक्त ग्रंथके निम्न प्रशस्ति वाक्यसे प्रकट है- चउदस्य वाणउ उरुरालि, वरिसइ गय विक्कमराय कालि । जिजण [ण] समक्खि, भद्दवमासम्मि स- सेय पक्खि । पुराणमिदिणि कुजवारे समोई, सुहयारे सुहणामें जणोई । तिहुमासयरंति पुराणहूउ । 'सम्मत्त - गुणाहि- णिहाणु धूउ । सुकौशलचरितकी रचना वि० सं० १४९६ माघवदी १० वीं के दिन अनुराधा नक्षत्र में हुई है जैसाकि निम्नवाक्य से स्पष्ट है- सिरिविक्कम समयंतरालि, वहतइ इंदु सम विसमकालि । चौदह सय संच्छरt श्ररण, छरणउवाहि पुणु जाय पुराण । माह दुजि कि दहमी दणम्मि, राहुरिक्ख पर्याडय सदाम्म । सम्मत्त गुणनिधान ग्रंथको प्रशस्ति में अन्य ग्रन्थाकी रचनाका कोई उल्लेख नहीं है; किन्तु सुकौशलचरितकी प्रशस्ति में निम्न ग्रंथोंके रचे जानेका स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है । पाश्वनाथचरित, हरिवंशपुराण और बलभद्रचरित ( पद्मपुराण) से यह स्पष्ट मालूम होता है कि वि० १४९६ . से पूर्व इनकी आार इनमें उलिलखत ग्रन्थोंको रचना हो चुका थी । बलहद्दचरिउमें सिर्फ हरिवंशपुराण ( नमिजिनचरित ) का समुल्लेख मिलता है । जिससे बलहद्दचरिउसे पूर्व हरिवंशपुराणकी) रचना होनेका अनुमान होता है । हरिवंशपुराण में त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचारत ( महापुराण), मेघेश्वर चरित, यशोधरचरित, वृत्तसार, जीवंघरचरित इन छह ग्रंथोंके रचे जानेका उल्लेख किया है जिससे यह स्पष्ट जाना जाता कि इन छह ग्रंथोंकी रचना भी वि० सं० १४६६ से पूर्व हो चुका था । सम्मइजिनचरिउ प्रशस्ति में, मेघेश्वरचरित, त्रिषष्ठिमहापुराण, सिद्धचक्रविधि, बलहद्दचरिउ, - सुदर्शनशील कथा और धन्यकुमारचरित नामके ग्रंथोंका उल्लेख पाया जाता है । यतः सम्म - जिनचरिउका रचनाकाल दिया हुआ नहीं है अतः यह कहना कठिन है कि इनकी रचना कब हुई थी, पर इनता तो निश्चित है कि वे सब ग्रंथ सम्मइजिनचरिउसे पूर्व रचे गये हैं । इन ग्रंथोंके सिवाय, करकण्डुचरित - सिद्धान्तार्कसार, उपदेशरत्नमाला, आत्मसंबोधकाव्य, पुण्याश्रव कथा, और सम्यक्त्वकौमुदी ये छह ग्रंथ कब रचे गये हैं ? करकंडुचरित और त्रिष्ठ महापुराण ये दोनों ग्रंथ अब तक देखने में नहीं आये हैं । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त और भी ग्रंथ उक्त कविवरके रचे हुए होंगे; परन्तु उनका पता अब भी किसी शोधककी प्रतीक्षामें हैं । १ खरतरगच्छके हरिसागरसूरिका शास्त्रभंडार । ४१५ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय साहित्यका सिंहावलोकन श्री प्रा० हीरालाल आर० कापडिया, एम० ए० भारत अनेक भाषाओंकी जन्मभूमि है । सुविधाके लिए उन्हें १ पाइय (प्राकृत ) २ संस्कृत तथा ३ द्रविड़ इन तीन वर्गों में रख सकते हैं । ऋग्वेदके निर्माणके समय जो भाषा बोली जाती थी वह पाइय (प्राकृत) भाषाका प्राचीनतम रूप मेंथा । इस भाषाकी कोई कृति उपलब्ध नहीं है । जैनों की श्रद्धमागधी (अर्धमागधी ) तथा बौद्धोंकी पाली पाइयके द्वितीय युगके रूप हैं। आज भी इन दोनों भाषाओंका पुष्कल साहित्य उपलब्ध है । विषय निरवधि है अतः यहां पाली साहित्यकी चर्चा नहीं करें गे । जैन आगम ग्रन्थ अर्द्धमागधी साहित्यके प्राचीनतम ग्रन्थ माने जाते हैं । श्वेताम्बर मान्यतानु. सार इनमेंसे कुछकी रचना भगवान् महावीरके समय (५९९-५२७ ई० पू०) में हुई थी' । छन्द, नाट्य, संगीत शास्त्र तथा दो भाषात्मक नाटकोंमें मरहट्ठी ( महाराष्ट्री) सोरसेनी (शौरसेनी ) मागती (मागधी) अरहछ (अपभ्रंश अथवा अपभृष्ट) पेसाई (पैशाची ), आदि अनेक प्राकृत भाषात्रों तथा बोलियोंके नाम मिलते हैं। व्याकरण-पालीका व्याकरणभी पाली भाषामें ही उपलब्धहै इसके अतिरिक्त अन्य प्राकृतोंकी यह स्थिति नहीं है । उनकी कुछ विशेषताओं तथा संस्कृत व्याकरणकी कुछ वातोंका दिग्दर्शन ही इनके व्याकरण हैं । उदाहरण के लिए आयारका (द्वि०, ४, १ रू. ३३५) तीन वचन-लिंग-काल-पुरुष चित्रण, ठाणका (अष्टम) आठ कारक निरूपण आदि। यह ज्योंका त्यों अणुअोगद्दार (सू० १२८) में पाया जाता है । इस आगमके पृ० १०५ ब पर (१) एकाक्षर तथा (२) अनेकाक्षर शब्दोंका उल्लेख मिलता है । पृ० १११-२ ब पर लिंग विवेचन है। सूत्र १२४, १२५, १३० में क्रमशः चार, पांच और दश प्रकारकी संज्ञानोंका उल्लेख है । सात समासों ( सू० १३०) का भी वर्णन है । “कप्प निजन्थी..." (प० १३०) पांच प्रकारके पदोंका उल्लेख करता है तथा अगले पद्यमें चार प्रदार्थों का निर्देश है। 'श्रावस्सय' "की विसेसावास्सय भास्य' मराठी टीकामें पाइय भाषाकी विशेषताओंका वर्णन है।" १ जैन आगमसाहित्यका इतिहास। २ "भारतीय तथा इरानी अध्ययन' नामक ग्रन्थमें श्री कटारेका प्राकृत भाषाओंके नाम' शीर्षक निबन्ध । ३ "पाइय साहित्यके व्याकरण-वैशिष्टय" सार्वजनिक सं०४३ (अक्तूबर १९४१) Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय साहित्यका सिंहावलोकन कोशकार - शोभन मुनिके भाई, तिलकमञ्जरीके कर्ता धर्मपालने अपनी कनिष्ठा बहिन सुन्दरीके लिए सम्वत् १०२९ में “पाइय-लच्छि नाममाला' बनायी थी । कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि (सं० ११९५ १२६७ ) दूसरे पाइय कोशकार थे । इनकी रयनावलीमें देसी (देश्य) शब्दों का प्ररूपण है । इससे ही ज्ञात होता है कि छह विद्वानोंने इस दिशा में कार्य किया था जिनमें अभिमानसिंह भी एक थे इनकी वृत्तिपर उदात्ता चलने टीका लिखी थी, किन्तु वे सब ग्रन्थ अब तक अप्राप्य ही हैं । गोपालने पद्य देसीकोश बनाकर संस्कृत में शब्दार्थ दिया था । हेमचन्द्रके समान देसी शब्दोंका पाइय में ही अर्थ देने वाले देवराज और गोपाल में भेद है । 'तरंगावलिके' यशस्वी लेखक पादविप्पसूरिने भी देशी कोश लिखा था । शिताङ्ग तथा राहुलके विषय में भी ऐसी ही किम्वदन्ती है । छन्द शास्त्र - श्री पिङ्गलका 'पाइय- पिंगल' नौदियड़यका गाहालक्खन, अज्ञात नामक लेखक का कविदप्पण, स्वयम्भूचन्द्र विरहांकका काइसट्टह और रत्नशेखरका छन्दोकोस, आदि मुद्रित पाइयछन्द ग्रन्थ हैं । अलंकार - अनुश्रो गद्दार में प्राप्त नवरसोंके वर्णनपर से अनुमान किया जाता है कि पाइयअलंकार ग्रन्थ अवश्य रचे गये हों गे । यदि अनुमान निराधार सिद्ध हो तो भी सं० १९६१ से पहिले लिखा गया अलंकारदप्पण तो प्राप्य ग्रन्थ है ही । नाटक - कप्पूरमंजरी समान सट्टकों के अतिरिक्त भी प्रत्येक संकृत नाटक प्राकृतोंसे परिपूर्ण है । वस्तुतः इन्हें संस्कृत नाटक कहना सत्य नहीं है क्योंकि इन सबमें दो से अधिक भाषाओं का उपयोग हुआ है प्राकृतोंकी विविधता के लिए मृच्छकटिकका स्थान अनुपम है । कथा -- अपनी विविधता तथा विपुलता के कारण भारतीय कथा साहित्य विश्व में विख्यात है ! पाइय लेखकों की इस क्षेत्र में भी भारी देन है । उवासगदसा सुन्दर संक्षिप्त कहानियोंका भण्डार है । हरिभद्रकी समराइच्चका तथा धुत्ताक्खान सर्व विश्रुत हैं । जैन पुराण साहित्य अति विपुल है । 1 काव्य - प्रवरसेनका सेतुबन्ध तथा वाक्पतिराजका गौडवहो सुप्रसिद्ध पाइय महाकाव्य हैं । वाक्पतिराजका 'महामोहविजय, सर्वसेनका हरिविजय अब तक अप्राप्य हैं। गोविन्दाभिसोय के बारह सर्गों में प्रथम आठ के रचयिता बिल्वमंगल हैं और शेष सर्ग उनके शिष्य दुर्गाप्रसाद ने लिखे थे । ये दोनों केरलदेश वासी थे । श्रीकण्ठका यमक काव्य, रामपाणिवादके 'उसा निरूद्ध तथा कंसवहो' आदि अन्य काव्य ग्रन्थ हैं। स्तोत्र - मराठी पाइय में अनेक जैन स्तोत्र हैं; यथा नन्दिषेणका अजियसान्ति काया, जिनप्रभका पासनाह लहुथाया, भद्रबाहुका उवसग्गहरथोत्त तथा तिजयपहुत्तथोत्त, आदि सुप्रसिद्ध हैं । कवितावलि - प्राचीन युगमें कवितावलियोंका महत्त्वका स्थान रहा है । 'हालकी गाहा सतसई' ५३ ४१७ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ प्राकृत साहित्य ही नहीं समग्र संस्कृत साहित्यमें प्राचीनतम ग्रन्थ है। जयवल्लभके 'वज्जालग्ग' पर रत्नदेवगणिने १३९३ में टीका लिखी थी। भानुचन्द्रके शिष्य सिदिचन्द्रगणि ने 'सुभासियसंदोहकी' रचना की थी। भवभावना आदि पाइय ग्रन्थ सूक्तिओंसे परिपूर्ण हैं। कुमारपालचरिया भी नीति वाक्योंसे परिप्लावित है। दर्शन-अर्धमागधीमें लिखित 'पवयणसार, पंचसुत्त सम्मइपयरण, धम्मसंगहणी, कर्मग्रन्थ आदि विविध दार्शनिक ग्रन्थ हैं । गणित शास्त्र-आर्यभट्टके गणित पदको टीकामें भास्करने पाइय पद्य उद्धृत किये हैं, जिस परसे पाइय गणित ग्रन्थोंका अनुमान किया जा सकता है । सूयगह निज्जुत्तिकी सीलाककृत टीकामें तीन गुरुगाथाएं भी यही अनुमान कराती हैं । इनके अतिरिक्त सूरियपण्णत्ति, इइसियकरण्डग, तिलोयपण्णत्ति, आदि ग्रन्थ गणित शास्त्रके उल्लेखोंसे परिपूर्ण हैं। विविध ग्रन्थ -जिनप्रभसूरिका णाणातित्थकहा, दुर्गदवेका रिछसमुच्चय, सग्गरसुद्धि, सिद्धपाहुण, मयणमाउड, पिवीतियाणाण, वत्थुसार, आदि विविध ग्रन्थ हैं। ___ यह अति संक्षिप्त तथा एक सम्प्रदायके साहित्यको ही प्रधानतया दृष्टि में रखकर लिखा गया निबन्ध यह सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं कि संस्कृतकी भांति प्रत्येक विश्वविद्यालयको प्राकृत पाठनकी पूर्ण व्यवस्था करनी चाहिये । इससे हमारी दृष्टि उदार होगी। और भाषाके आधार पर निर्मित दलबन्दी भी स्वतः शिथिल हो जायगी । ४१८ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तररत्नमालाका कर्ता ? श्री पं० लालचन्द्र भगवान् गान्धी प्रश्नोत्तर रत्नमाला के कर्तृत्वके सम्बन्ध में कितने ही समयसे मतभेद चला आता है । एक २९ की लघुका कृतिके भिन्न भिन्न दिगम्बर श्वेताम्बर जैन, ब्राह्मण, बौद्ध, अनेक कर्ता होना विचित्र है । तथापि भिन्न भिन्न स्थानों में प्राप्त विविध नाम-निर्देश सत्य गवेषणा करनेके लिए आह्वान करते हैं । सितपट- गुरु विमल नामयुक्त मूलकी प्राचीन प्रतियां - सन् १८९० की आवृत्ति में और पिछली सन् १९२६ को चौथी आवृत्तियों में इस कृतिके ऊपर नीचे प्राचीन प्रति (संवेगि साधु श्रीशान्तिविजयजी की) के आधार से 'श्रीविमल प्रणीता ( विरचिता) प्रश्नोत्तररत्नमाला' छुपा हुआ है ? और इसकी अन्तिम २९ वीं आर्या में रचयिताने अपना नाम विमल, और अपने विशेषणमें' सितपटगुरु (श्वेताम्बराचार्य ) स्पष्ट सूचित किया है " रचिता सितपटगुरुणा विमला विमलेन रत्नमालेव । प्रश्नोत्तरमालेयं कण्ठगता कं न भूषयति ? ॥ २६॥" लेकिन सम्पादकने वहां टिप्पणी में आर्याके स्थानमें दो पत्रवाली ( सूरतके श्रेष्ठि भगवान् दास प्रेषित ) पोथीका पाठान्तर अनुष्टुप् श्लोक भी दिया है— “विवेकात् त्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥” यह पोथी कितनी प्राचीन है ?, अथवा यह श्लोक-लेखन कितना प्राचीन है ? मालूम नहीं । विवेकसे राज्यका त्याग करनेपर भी नामका मोह त्याग न करनेवाला अपनेको 'राजा' शब्द द्वारा परिचित करे पूर्व नामका त्याग न करे ? एक लघुकृतिके कर्तारूपमें अपनेको प्रकट करे; यह विचित्र लगता है । अमोघवर्ष नामक अनेक राजा हो गये हैं तथापि कई दिगंबर विद्वानोंका मत है कि दि० श्राचार्य जिनसेन ४१६ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ आदिका जो भक्त था, वह इसका कवि होना चाहिए, जो विक्रमकी नवमी शतोके अन्तमें, और दशमी शतीके प्रारम्भमें विद्यमान था। सुप्रसिद्ध पं० नाथूराम प्रेमीजीने 'जैनसाहित्य और इतिहास (पृ० ५१९) में अमोघषर्षका परिचय कराते हुए उसे इस प्रश्नोत्तर रत्नमालाका कर्ता बतलाया है और सूचित किया है कि "प्रश्नोत्तररत्नमालाका तिब्बतीभाषामें एक अनुवाद हुआ था, जो मिलता है, और उसके अनुसार वह अमोधवर्षको बनायी हुई है । ऐसी दशामें उसे शङ्कराचार्यकी, शुकयतीन्द्रकी या विमलसूरिकी रचना बतलाना जबर्दस्ती है ।" सं०५ की टिप्पणीमें उन्होंने लिखा है- 'श्वेताम्बर साहित्यमें ऐसे किसी विमलसू रिका उल्लेख नहीं मिलता, जिसने प्रश्नोत्तररत्नमाला बनायी हो। विमलसूरिने अपने नामका उल्लेख करने वाला जो अन्तिम पद्य जोड़ा है, वह आर्या छन्दमें है, परन्तु ऐसे लघुप्रकरण ग्रन्थोंमें अन्तिम छन्द आम तौरसे भिन्न होता है, जैसा कि प्रश्नोत्तररत्नमालामें है और वही ठीक मालूम होता है।" यह कथन सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करने पर अपुष्टसा मालूम होता है । यह नहीं बताया किदिगम्बर साहित्यमें अन्यत्र कहां कहां उल्लेख मिलता है कि-अमोघवर्षने यह प्रश्नोतररत्नमाला . बनायी थी। तिब्बती भाषाका लेखन अस्पष्ट और सन्दिग्ध है, ऐसे लेखन पर इस कृतिको अमोघवर्षकी बतलाना उचित नहीं है। श्वेताम्बर साहित्यमें विमलसूरिकी रचना सूचित करती हुई इस प्रश्नोत्तररत्नमालाकी ही छह सौ वर्ष प्राचीन शताधिक प्रतियां भिन्न-भिन्न स्थानोंमें उपलब्ध हैं। अतः सम्भव तो यह है कि ---आर्यामय मूल ग्रन्थसे अलग मालूम पड़ता अमोघवर्प नामवाला वह अनुष्टुप श्लोक, सितपटगुरु विमल निर्देशवाली २९ वी आर्याके स्थानमें किसीने जोड़ा होगा। यह कोई महाकाव्य नहीं है, कि सर्गके अन्तिम पद्योंकी तरह इसके अन्तमें भिन्न छन्दों वाली रचना चाहिये । प्रकरणों के अन्तिम पद्य भिन्न छन्दमें होनेका कोई नियम नहीं है। अतः ऐसी दलीलोंसे इस कृतिको अमोघवर्षकी बतलाना युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं होता। तटस्थ दृष्टिसे इस निबन्धका मनन करने पर, इस कृतिका वास्तविक कवि सितपट-गुरु विमल प्रतीत होगा। यद्यपि राज्य त्यागनेवाले राजाका 'राजा' रूपसे परिचय देनेके समान ही 'सितपटगुरुणा' आदि भी सन्देहोत्पादक हैं । राजा अमोघवर्ष के नाम-निर्देशवाली प्रश्नोत्तर-रत्नमालाकी कितनी प्राचीन प्रतियां कहां कहां किस प्रकार उपलब्ध हुई है ? किसीने प्रकट नहीं किया, श्वेताम्बर जैन-समाजके चतुर्विध संघमें इसका पठनपाठन-प्रचार व्याख्यानादि अधिक रूपमें चलता रहा है, ऐसा मालूम होता है। श्वेताम्बर जैन विद्वानों, और प्राचार्योंने इसके उपर संक्षिप्त, विस्तृत, प्रत्येक प्रश्नोत्तरके साथ कथा-साहित वृत्तियां व्याख्या, अवचूरि, बालावबोध, भाषार्थ-स्तवक (ठवा), वार्तिक आदि रचे हैं । सैकड़ों वर्षों से गुजरातमें इस कृतिने अच्छी ४२० Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर रत्नमालाका कर्ता लोकप्रियता पायी है । पठन-पाठन के लिए उपयुक्त प्रकरण संग्रह, प्रकीर्णग्रन्थ संग्रह प्रकरण पुस्तिका आदिमें इसके प्रति समादर दर्शाया है । गुजरात की प्राचीन राजधानी पट्टन में भिन्न-भिन्न प्राचीन जैन ग्रंथभंडारों में इस प्रश्नोत्तर रत्नमालाकी पत्र पर लिखी हुई १५ प्रतियां विद्यमान हैं। गायकवाड प्राच्य ग्रन्थमाला के सं० ७६ में प्रकाशित 'पत्तनस्थ प्राच्य जैनभाण्डागारीय ग्रन्थसूची [ ताडपत्रीय विविधग्रन्थ परिचयात्मक प्रथम भाग ]' में पांचसौ वर्षोंसे अधिक प्राचीन अनेक प्रतियोंके उल्लेख हैं । इसके अतिरिक्त संघवी, पहन, डभोई ( दर्भावती ), बड़ौदा, लिंबडी भंडारोंकी प्रतियों, मध्यप्रान्त तथा बरारकी संस्कृत प्राकृत ग्रन्थसूची, बीकानेर, लन्दन, इटलीकी ग्रंथसूची, एशियाटिक सोसाइटी, खंभात, आदिकी सूचियों में विमलसूरि ही इसके कर्त्ता रूपसे उद्घृत हैं । जर्मन तथा फैञ्च अनुवादकोंने भी इसे विमलसूरि कृत उल्लेख किया है । विमलसूरि के उल्लेख - यद्यपि पीटर्सन ने 'पउमचरिउ' के कर्ताको बौद्ध लिखा था किन्तु श्री हरिदासशास्त्रीके निबन्धने उसका प्रतिवाद किया था । 'क्रियारत्न समुच्चयमें' गुणरत्नसू रिने, गुर्वावली में मुनि सुन्दरसूरिने तथा धर्मसागरजीने तपागच्छ पट्टावलिके अन्त में विमलसूरिका स्मरण किया है। नवाङ्गीवृत्ति में, तथा दर्शनशुद्धि में विमलगणिका उल्लेख है । एक विमलचन्द्र पाठक देवसूरिके बन्धु रूपमें डा० फ्लीट द्वारा उल्लिखित हैं । प्रा. वेवरकी जर्मन ग्रन्थसूची, अभिधान राजेन्द्र गच्छमतप्रबन्ध, आदि उक्त आर्या रूपसे विमलसूरिका उल्लेख करते हैं। इस प्रकार अनेक विमल गुरुयोंकी स्पष्ट संभावना होते हुए भी वि० सं० १२२३ में विरचित वृत्तिके आधारपर यही मानना उचित होगा कि इसकी रचना इस तिथि से पहिले हो चुकी थी । जैन सिद्धान्तभवन आरा में संकलित कन्नड़ लिपिके हस्तलिखित शास्त्रोंकी सूचीमें ५२७ संख्याक ग्रन्थ प्रश्नोत्तर रत्नमाला है । इसमें कर्ता रूपसे अमोघवर्षको ही लिखा है । ऐतिहासिक लेखकों तथा शोधकोंने भी राष्ट्रकूट अमोघवर्षकी कृतियों में इसे गिनाया है । तथापि विशेष विवरण एवं अनेक प्रतियों के अभाव में उसकी मान्यतापर विश्वास नहीं किया जा सकता है । प्राकृत रूपान्तर — इसका किसी अज्ञात नाम विद्वानने प्राकृत में भाषान्तर किया है जिसमें "पण्हुत्तर रयणमालं...इत्यादि" आशिष वचन है । इसपर उत्तमऋषिने गुजराती वार्तिक रचा था, जिसकी प्रति बड़ौदा जै० ज्ञा० म० में ( सं० १०९२ ) सुरक्षित है । जैसलमेर के शास्त्र भण्डारोंकी सूचीके आधार पर वि० सं० १२२३ में हेमप्रभसूरीने इसपर २१३४ श्लोक परिमाण करनेपर यह सम्वत् शुद्ध ही प्रतीत होता है। सं० १४२९ में देवेन्द्रसूरिने एक वृत्ति लिखी थी, जिसकी सं० १४४१, १४८६, १५३६ में की गयी प्रतिलिपियां पट्टन, पूना तथा बर्लिन में अब भी सुरक्षित हैं । वृत्ति रची थी। विवेचन ४२१ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ इसके बादकी भी इसकी अनेक प्रतिलिपियां भारतभर में मिलती हैं। यह प्राचीनतम वृत्ति भी लेखक रूपसे श्री विमल गुरुका स्मरण करती है। गुजराती बालबोध टीका विमलसूरिको ही कर्त्ता बताती है । श्रीआनन्दसमुद्रकी संक्षिप्त वृति भी इसीकी पोषक है । इसपर निर्मित अवचूरि तथा कथामय वृत्तियां भी यही सिद्ध करती हैं। शंकराचार्य सहित प्रतियां - बृहत्स्तोत्ररत्नाकर तथा बृहत्स्तोत्र - रत्नहार में वेदान्त स्तोत्रों के साथ मुद्रित प्र० रत्न० माला 'कः खलु नालं क्रियते' आदिसे प्रारम्भ होकर 'श्री मत्परमहंस... विरचिता' आदि में समाप्त होती है । वर्नेल केटलाग वाले संस्करण से " रचिता शंकरगुरुणा विमला विमलोत्तररत्नमालेयं" आदिके साथ “श्री मत्परमहंस... आदिमें" समाप्त होती है । शंकर सीरीजमें “... विमलाश्च भान्ति सत्समाजेषु (६७ ) " के उपरान्त ' इति कण्ठगता विमला.... ' तथा 'श्रीमत्परमसंसादि' के साथ समाप्त होती है । शंकराचार्य के नाम के साथ एक अन्य प्रति प्रश्नोत्तर मणिरत्नमाला नामसे मिलती है । इसका प्रारम्भ - " अपार संसार समुद्रमध्ये सम्मजतो मे शरणं किमस्ति ? गुरो ? कृपालो ? कृपया वदैतद् विश्वेशपादाम्बुज दीर्घनौका । १ ।” तथा अन्त — "कण्ठं गता श्रवणं गता वा प्रश्नोत्तराख्या मणिरत्नमाला | तनोतु मोदं विदुषां सुरम्या ( प्रयत्नाद् ) रमेश गौरीश कथेव सद्यः ॥३२॥” 'श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचिता प्रश्नोत्तर रत्नमाला समाप्ता ।' रूपसे होता है । इन सबका स्थूल परीक्षण ही यह सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त है कि मूलकृतिमें ये बलवद् परिवर्तन किये गये हैं । फलतः निराधार एवं व्यर्थ हैं । इस संक्षिप्त सामग्री के आधारपर विचारक स्वयमेव लेखकका निर्णय कर सकते हैं । जिसमें ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण भी बहुत अधिक साधक होगा । ४२२ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कथाओं की योरुप यात्रा प्रा० कालीपद मित्र एम० ए०, बी० एल०, सहित्याचार्य ट्वानीका अनुवाद - 'कथाकोश' का ट्वानीकृत अनुवाद देखनेके पश्चात् 'कुमारपाल - प्रतिबोध' देखने पर यद्यपि ऐसा लगा है कि बहुत कुछ अंशोंका अनुवाद शुद्ध है । तथापि ट्वानीके अनुवादकी आधारभूत प्रति किसी प्राकृत प्रतिका संस्कृत भाषान्तर रही हो गी ऐसी कल्पना भी मनमें श्रती है। तथा वही मूल प्राकृत ग्रन्थ कुमारपालप्रतिबोधका भी स्रोत होना चाहिये । इतना ही नहीं हेमचन्द्रकृत परिशिष्ट पर्व भी आंशिक रूपसे उसी मूलग्रन्थका भाषान्तर होना चाहिये । डा० उपाध्ये द्वारा सम्पादित हरिषेणकृत वृहत्कथाकोशके प्रकाशित होनेपर यह अनुमान स्पष्ट हो गया है क्योंकि प्रकृत कथाकोश प्राकृत 'आराधना' का संस्कृत रूप मात्र है । हरिषेणका श्राराधना मूलाधार - श्री ट्वानीने अपने अनुवाद में उन भागोंका भाषान्तर नहीं किया है जो उन्हें प्राप्त प्रतिमें प्राकृतमें ही थे । तथा सम्प्रति आराधना कथाकोश और कु० प्र० की सहायतासे पूर्ण किये जा सकते हैं । इस प्रकारके स्थलोंकी संख्या पर्याप्त है । कहीं कहीं मूलकी स्पष्टताका उल्लेख करके ट्वानीने यथामति अनुवादको पूर्ण करनेका प्रयत्न किया है? | अनुवाद तथा कुमा० प्रतिवोधका पारायण करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनोंका मूल स्रोत कोई प्राकृत ग्रन्थ था जो कि हरिषेणका 'आराधना' ही हो सकता है। जैसा कि डा० उपाध्येके उपर्युल्लिखित ग्रन्थ से भी सिद्ध होता है । विश्व कथाओं का मूलस्रोत अराधना --ट्वानीने अपने अनुवाद में यह भी संकेत किया है. कि कथाकोश तथा योरूपकी कथाओं में पर्याप्त समता है- (क) एक किसान अपने भोजन के एक भागको सत्पात्र में देनेका नियम किया था । तथा यथाशक्ति वह जिन लयको भी दान देता था। एक दिन वह बहुत भूखा था । पत्नीके भोजन लाते ही वह मन्दिर गया और सत्पात्र ( मुनि, आदि) की प्रतीक्षा करने लगा। किसी देवको उसकी परीक्षा १ कुरुचन्द्र कथानक पृ० ७९-८, धन्यकथानक, भरत कथानक पृ० १९२५ । ( ओरिएण्टल ट्रान्सलेशन फण्ड नवीं माला २, १८९५ ) १२ वही पृष्ठ २०८ की कुमा० प्रति० पृ ५९ "अकयत्तस्स इत्यादि' से तुलना । ४२३ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ लेनेकी धुन सवार हुई। वह तीन बार मुनियों के भेष धारण करके आता है और सब भोजन ले जाता है।" यह कथा ग्रिमरोजकी ८१ वी कथाका स्मरण दिलाती है जिसमें 'ब्राडर लाष्टिङ्ग' अपने भोजनका तीन चौथाई 'सेण्ट पीटर'को देता है जो कि भिक्षुरूपमें तीन बार उसके सामने आये थे। (ख) श्रारामशोभा तथा सांपकी कथा-संपेरे द्वारा अाहत सांपकी विद्युत्प्रभा रक्षा करती है । सांप शरीर छोड़कर देव रूपमें उसके सामने खड़ा हो जाता है तथा वर मांगनेको कहता है ।' इसीका रूपान्तर काडनेके 'अण्डर डैस' 'श्रोलिवे वाडमैन' में मिलता है जहां लिश्टनैस किसी दुष्ट लड़केसे सांपको मुक्ति दिलाता है । सांप मन्त्र-कीलित राजकुमारी निकलता है और वह अपने मुक्ति दातासे विवाह कर लेती है। (ग) "आरामशोभाका एक राजकुमारसे विवाह होता है । उसकी विमाता उसे मारकर राजपुत्रसे अपनी लड़की विवाहना चाहती है । फलतः वह विषाक्त मिष्टान्न उसे भेजती है।" गोजियन वाचके 'जिसीवियनिशे मारचेन'में मत्सरी बहिनें 'मारज्जेडाके' पास विषाक्त रोट भेजती हैं। (घ) “आरामशोभाके पुत्र होता है । विमाता उसे कुएंमें फेंक देती है और उसके स्थानपर अपनी लड़कीको लिटा देती है।" ग्रिमरोजको ग्यारहवीं कथा "ब डरचन तथा श्वेस्तरचन" की वस्तु भी ऐसी ही है। (ङ) सोते समय ऋषिदत्ताके मुखको एक राक्षसी रंग देती है और वह राक्षसी समझी जाती हैं, आदि कथा ग्रिमरोजकी तीसरी कथा समान है। (च) सागरदत्त चाण्डालसे कहता है कि दमनको मार डालो । वह उसकी एक अंगुली काटकर ही सागरदत्तको दिखाता है । इत्यादि कथा भी ग्रिमरोजको २९ वी कथाके समान है। इस प्रकार अनेक जैन काथाएं हैं जिन्हें योरूपियन कथाकारोंने अपना लिया था । कथाएं कैसे योरुप गयीं कथात्रोंकी यह योरूप यात्रा एक नूतन मोहक समस्याको जन्म देती है। ट्वाइनीके मतसे "योरूपकी जिन कथाओंमें उक्त प्रकारकी समता है वे भारतवर्षसे ही योरूप ने (उधार) ली हैं । वास्तवमें ये कथाएं परसिया होकर योरूप पहुंची हों गी । अब लोग इस बातका अपलाप नहीं करते कि विविध कथाए' भारतसे योरूप आयी थीं । यह शंका 'कि क्या ये भारतमें ही सर्व प्रथम गढी गयी थी हो सकती है...यदि धर्म प्रचारकों, प्रवासियों, तातार आक्रमणों, धर्म युद्धों, व्यापारिक, आदि महायात्राओं के समय इन कथाओंके मौखिक आदान प्रदानको दृष्टिमें न रखा जाय । क्योंकि निश्चयसे इन्हीं अवसरों पर भारतीय जैन कथाओंकी धारा योरूपकी ओर बही थी।" भारतीय साहित्यकी सफल निर्माता राज्य ४२४ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कथाओंकी योरप यात्रा सभात्रों द्वारा ही ये कथाए भारतसे बाहर गयी होंगी। एक शंका यह भी हो सकती है कि जैनधर्म तो बहुत कुछ भरतखण्डमें ही रहा है. फिर उसकी कथाएं बाहर कैसे गयों ? किन्तु भारतीय संस्कृतिको जैन धर्मकी अनुपम देनका विचार करते ही इसका समाधान स्वयं हो जाता है । यह कहना अति कठिन है कि भारतीय संस्कृतिको जैन, बौद्ध तथा वैदिक धर्मों में से किसने कितना दान दिया है। यह निश्चित है कि भारतीय धर्मकथात्रोमय योरूपीय कथाएं भारतसे ही गयी थीं । पूर्वी भारतके समान उत्तर तथा पश्चिम भारतकी कथाएं भी योरूप पहुंची हैं । १९२२ ई० में 'जोव्वनीस हरतल'ने लिखा था कि गुजरात की श्वेताम्बर जैन कथाएं भी योरूपमें प्रचलित हैं । उदाहरण स्वरूप उन्होंने संस्कृत तथा गुजराती ग्रंथमें प्राप्त 'रत्नचूड़ कथा' का उल्लेख किया था। यहूदियोंकी कितनी ही कथाओंका उद्गमस्थान भारत था । भारतमें कथा साहित्यका भी आदान प्रदान था इसीलिए कितनी हो जैन कथाएं बौद्ध साहित्यमें पायी जाती हैं और बौद्ध धर्मके साथ वे तिब्बत, रूस, ग्रीस सिसली, इटली, आदि देशों तक चली गयी हैं। वास्तवमें भारतीय कथा साहित्यमें धर्म भेद नहीं है तथा समस्त धर्मोंके कथा साहित्यको भारतीय कथा कहना ही उपयुक्त होगा । जैन, वृहत्कथाकोशकी इस साहित्यमें अनुपम स्थिति है । इसकी 'कडारपिंग कथा' वासुदेव रिंडीमें ही नहीं मिलती है, अपितु बढ़ते बढ़ते इटली तक गयी हैं और संभवतः शेकस्पियरके एक नाटककी मूल वस्तु बन गयी है यद्यपि बाजली नाटकमें यह साधारणसी घटना रूपमें उपलब्ध होती है। १, ट्वाइनी कृत कथाकोशके अनुवादकी भूमिका पृ. ९६-७ । २, इण्डियन हिस्टोरीकल क्वारटरली १९५६ सेप्टे०-दिस० में लेखकका लेख ! ४२५ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रका विषय श्री प्रा० बलदेव उपाध्याय साहित्याचार्य, एम० ए०, आदि __ जैन सिद्धान्तके अन्तर्गत उत्तराध्ययनसूत्र' की पर्याप्त प्रतिष्ठा तथा महत्ता है। यह प्रथम 'मूलसूत्र' माना जाता है । 'मूलसूत्र' का मूलत्व किंमूलक है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। मूल शब्दका प्रयोग ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रन्थों में प्राचीन विशुद्ध ग्रन्थके लिए पाया जाता है। पैशाची बृहत्कथाके अनुवादक सोमदेवने अपने 'कथासरित्सागर' में मूल ग्रन्थके अनुगमन करनेकी प्रतिज्ञा की है (यथामूलं तथैवैतन्न मनागप्यतिक्रमः )। 'महाव्युत्पत्ति' में प्रयुक्त मूलग्रन्थ का प्रयोग भगवान् बुद्ध के साक्षात् कहे हुए वचनोंके लिए ही प्रतीत होता है। सूत्र' से अभिप्राय दार्शनिक सूत्रोंके समान अल्पाक्षर विशिष्ट वाक्यां या वाक्यांशोंसे नहीं है, प्रत्युत महावीरके उपदेशोंके सार प्रस्तुत करनेके कारण ही ये ग्रन्थ इस शब्दके द्वारा अभिहित किये गये हैं । 'उत्तराध्ययन' के प्रथम पद 'उत्तर'की व्याख्या भी टीकाकारोंके मतमें विभिन्न सी है। एक टीकाकारने 'उत्तर' का अर्थ श्रेष्ठ बतलाकर इन सूत्रोंको सिद्धान्त ग्रन्थों में श्रेष्ठ माना है । परन्तु ग्रन्थोंके नाममें उत्तर शब्दका प्रयोग अधिकतर 'अन्तिम' 'पिछला' के ही अर्थमें दीख पड़ता है। उत्तर नाम विशिष्ट ग्रन्थोंकी संख्या कम नहीं है, परन्तु सर्वत्र इसका संकेत 'पूर्व' के विपरीत 'पिछल।' या 'अन्तिम अर्थमें ही उपयुक्त दीखता है। उत्तरकाण्ड, उत्तरखण्ड, उत्तरग्रन्थ, उत्तरतन्त्र, उत्तर तापनीय -आदि ग्रन्थोंके नाम इस कथनके स्पष्ट प्रमाण है। भगवान महावीरके अन्तिम उपदेश होने के कारण हो इस ग्रन्थका यह नामकरण हैं। जैनियोंका सचेल सम्प्रदाय बतलाता है कि महावीरने अपने अन्तिम पजुसनमें बुरे कर्मोंके निर्देशक पचपन अध्यायोंको तथा छत्तीस विना पूछे हुए प्रश्नोंकी व्याख्या करके अपना शरीर छोड़ा (छत्तोस...अपुट्ट वागरणाई ) । अन्तिम ग्रन्थसे टीकाकार इसी उत्तरा १ एतान्यध्ययन:नि निगमनं सर्वेषामध्ययनानाम् । प्रधानत्वेऽपि रूढ्याऽमून्येव उत्तराध्ययन शब्द वाचकत्वेन प्रसिद्धानि। -नन्दी टीका। २ वर्तमानमें प्रचलित सूत्रग्रन्थों को केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय ही सर्वथा सत्य मानता है। मूल सम्प्रदायकी दृष्टि में म.र्य सम्राट चन्द्रगुप्तके राज्यकालके अन्तमें हुए द्वादशवाय दुर्भिक्षके कारण तथा श्रुतकेवलियोंके अभावके कारण अंग साहित्य दूषित हो गया था। ४२६ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रका विषय ध्ययनको ग्रहण करते हैं । और यह होना स्वाभाविक ही है। इस ग्रंथ में ३६ प्रकरण या अध्ययन है । 'अपृष्ट व्याकरण' का लक्ष्य यह ग्रंथ भली भांति हो ही सकता है। साधारणतया प्रश्न पूछने पर ही महावीर ने उनका समुचित उत्तर दिया है, परन्तु इस सूत्र में प्रश्न नहीं पूछे जाने पर भी सिद्धान्तोंका व्याकरण है अन्तमें यह सूत्र महावीरकी ही साक्षात् देशना बतलाया गया है "इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिणिव्वुए । छत्तीस उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसम्मए | इन प्रमाणोंसे यही सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ भगवान महावीरकी ही देशना है और अन्तिम संकलन है । अर्थात् उत्तराध्ययनके वाक्य महावीरके ही मुखसे निकले हुए अमृतमय उपदेश हैं । इसी मान्यता तथा सिद्धान्तके कारण इस ग्रंथ को इतना गौरव प्राप्त है यहां मैं उन लोगोंकी बात नहीं करता जिनकी इस सिद्धान्तमें आस्था है । उत्तराध्ययन के अन्तर्गत ३६ प्रकरण या अध्ययन हैं : इनके अनुशीलन करनेसे अनेक महत्व पूर्ण तथ्यों का परिचय हमें प्राप्त होता है । इन प्रकरणोंके विषयों का सामञ्जस्य टीकाकारोंने दिखलाने का श्लाघनीय उद्योग किया है। ग्रंथका उद्देश्य नये यतिको जैन धर्मके माननीय तथा मननीय सिद्धान्तोंका उपदेश देना है । किन्हीं किन्हीं प्रकरणों में सिद्धान्तका ही एकमात्र प्रतिपादन है. परन्तु अन्य प्रकरणों में प्राचीन आख्यान तथा कथानकोंके द्वारा सिद्धान्तको रोचक तथा हृदयंगम बनाया गया है । रूखे सूखे सिद्धान्तोंको आख्यानोंके द्वारा परिपुष्ट तथा सुन्दर बनाकर जनताको उपदेश देनेकी प्रथा बड़ी प्राचीन है । जैनी लोग इस कार्य में बड़े ही सिद्धहस्त सिद्ध हुए हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रं शमें जैन कथा - साहित्यकी प्रचुरता का यही रहस्य है । उत्तराध्ययनके अन्तिम आठ दस अध्यायों में शुद्ध सिद्धान्तोंका ही प्रतिपादन किया गया हैयथा २४ वें प्रकरणमें 'समिति का वर्णन है २६ में समायारी ( सम्यक् आचरण ) का; २८ में मोक्षमार्ग गतिका, ३० में तपस्याका ३३ में कर्मका, ३५ में लेश्याका तथा ३६ में जीव, जीवके विभागका विशद वर्णन है । एक बात ध्यान देनेकी यह है कि यह ग्रन्थ शास्त्रीय पद्धति पर लिखे गये ग्रन्थों ( जैसे उमास्वामीका तत्त्वार्थसूत्र आदि ) से प्रतिपादन शैली में नितान्त पृथक् है । इन पिछले ग्रंथों की रचना एक विशिष्ट तर्कका अनुसरण करके की गयी है, परन्तु उस तार्किक व्यवस्थाका यहां अभाव है । यह विशिष्टता इस ग्रंथी प्राचीनताको सूचित करनेवाली है । ब्राह्मणों तथा बौद्धों द्वारा आक्रमण किये जाने पर तार्किक शैलीका अनुगमन नितान्त आवश्यक था, परन्तु इस प्राचीन ग्रन्थ में अनावश्यक होने से इसका अनुधावन नहीं है, प्रत्युत श्रद्धालु जनताके सामने जैनधर्मका उपादेय उपदेश सीधे सादे शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। डा० कारपेन्टियरने इन अध्यायों को पीछे जोड़ा गया माना है; यह सम्भव हो सकता है, जैन अनुयायी सम्प्रदाय में यह ग्रंथ सदासे ही ३६ अध्यायोंसे युक्त माना गया है । परन्तु जैन सिद्धान्तोंके निदर्शन रूपसे जो आख्यान यहां दिये गये हैं वे नितान्त प्राचीन हैं, इसमें ४२७ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ सन्देह करनेकी जगह नहीं है । इनमें से कतिपय प्राचीन आख्यानोंकी यहां चर्चा की जा रही है । उपलब्ध आख्यानोंमें निम्न लिखित पांच निःसन्दिग्ध सुदूर प्राचीनकालसे सम्बन्ध रखते हैं (१) राजा निमीका कथानक नौवें अध्ययनमें आया है । ये मिथिलाके राजा थे और चार समकालीन प्रत्येकबुद्धों या स्वयं सम्बुद्धोंमें अन्यतम थे । स्वयंसम्बुद्धों' से अभिप्राय उन सिद्ध पुरुषोंसे है जो विना किसी गुरुके ही अपने ही प्रयत्नसे बोधि प्राप्त करनेवाले होते हैं । वे अपना ज्ञान दूसरोंको देकर मुक्त नहीं कर सकते । वे 'तोर्थेकर' से इस बातमें भिन्न होते हैं । राजा निमिकी संबोधि तथा वैराग्यका आख्यान अपनी लोकप्रियताके कारण वैदिक-बौद्ध साहित्यमें भी है। ब्राह्मणके वेषमें इन्द्रके प्रश्न करने पर निमिने अपनी वर्तमान वैराग्यमयी स्थितिका बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। निमिकी यह प्रसिद्ध उक्ति यहां उपलब्ध होती है-हमारे पास कोई भी वस्तु विद्यमान नहीं है । हम अकिञ्चन हैं । हम सुखसे जीवन विताते हैं । मिथिलाके जल जाने पर भी मेरा कुछ भी नहीं जलता। (२) हरिकेशकी कथा-(१२ वें अध्ययनमें)-इस कथाके द्वारा तपस्या करनेवाले धर्मशील चाण्डालकी श्रेष्ठता याज्ञिक ब्राह्मणोंसे बढ़कर सिद्धि की गयी है । टीकाकारोंने कथाका सविस्तर वर्णन टीकामें किया है । बौद्धोंके 'मातङ्ग जातक' ( जातक ४/९७) में भी ऐसा ही आख्यान है । 'यज्ञ की यहां आध्यात्मिक व्याख्याकी गयी है । ब्राह्मणोंके प्रश्नपर हरिकेशने इसकी अच्छी मीमांसा की है तप अग्नि (ज्योति ) है; जीव अग्निस्थान (वेदि ) है; कार्योंके लिए उत्साह स्तुवा है; शरीर गोमय है, कर्म ही मेरा इन्धन है; संयम, योग तथा शान्ति ऋषियोंके द्वारा प्रशंसित होम है जिसका मैं हवन करता हूं।' धर्म ही मेरा तालाब है, ब्रह्मचर्य निर्मल तथा आत्माके लिए प्रसन्न, शान्त तीर्थ ( नहाने का स्थान ) है; उस में स्नान कर, मैं विमल, विशुद्ध तथा शीतल होकर अपने दोषको छोड़ रहा हूं२ ?' यज्ञकी यह आध्यात्मिक कल्पना उपनिषदोंमें भी ग्राह्य है। ज्ञानकाण्डकी दृष्टिमें कर्मकाण्डका मूल्य अधिक नहीं हैं । इसलिए मुण्डक उपनिषदें यज्ञ अदृढ़ नौका रूप बतलाया गता है (प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपाः)। (३) चित्रसंभूतकी कथा-(१३ अ० )-इस कथाके अनुरूप ही बौद्ध जातक 'चित्तसंभूत' (जा० ४९८) की कथा है । जातककी गाथाओंके शाब्दिक अनुकरण भी यहां बहुलतासे उपलब्ध होते हैं । १ सुहं वसामों जीवामो येसि नो नस्थि किंचण ! मिहिलाए उज्झमाणीए नमे उज्झइ किंचण ॥ २ तवो जीई जोवो जोईथाणं जोगा सुया सरीर कारिसंग कम्मेहा रांजय जोग सन्ती होम हुगामि इसिण पसत्थं ॥४४।। धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे अगाविले अत्तपसन्न लेसे। जहिं सि नाओ विमलो विसुद्धो सुसीइओ पजहामि दोस ॥४६। ४२८ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रका विषय चित्र जैन मुनि थे तथा भोग विलासोंसे विरक्त होकर तापस जीवन व्यतीत करते थे । संभूत राजा थे और भोगोंमें आकण्ठ मग्न थे। दोनों प्राचीन जन्ममें सुहृद थे इसी भावसे प्रेरित होकर चित्रने संभूतको बड़ा सुन्दर उपदेश दिया-समय बीत रहा है । दिन जल्दी बीत रहे हैं । मनुष्योंके भोग कथमपि नित्य नहीं हैं । वे मनुष्यके पास आते हैं और उसे उसी प्रकार छोड़ देते हैं जिस प्रकार पक्षी फलहीन वृक्ष को।' ...... (४) इसुकारको कथा-(१४ अ० )—इसमें कर्मासक्त पुरोहित तथा उनके ज्ञानी तपस्वी पुत्रोंका अध्यात्म विषयक वार्तालाप है । बौद्धोंके हस्तिपाल जातक (जाः ५०९) में इसकी स्पष्ट सूचना है । भृगु और उनकी पत्नी वासिष्ठिका बड़ा मनोरम तथा शिक्षाप्रद संवाद भी इसी भावनासे अोतप्रोत है। क्योंकि वेदपाठको मुक्तिका साधन न मानकर इसमें तपस्या तथा निष्काम जीवनको मुक्तिका उपाय बतलाया है। (५) रथनेमिकी कथा—(२२ अ०) भगवान कृष्णचन्द्रकी कथासे यह कथा सम्बद्ध है। अरिष्टनेमिने जैनमतानुयायी मुनि बनकर अपनी मनोनीत पत्नीकाभी परित्याग कर दिया। रथनेमि उन्हीं के . भाई थे, पर चरित्र में हीन थे। २३ वें अध्ययनके अनुशीलनसे उस समय पार्श्वनाथ तथा महावीरके अनुयायियोंके परस्पर मतभेदका पता चलता है । इस परिच्छेदको हम ऐतिहासिक दृष्ठिसे बड़े महत्त्वका मानते हैं । महावीरके समान पार्श्वनाथ भी ऐतिहासिक पुरुष हैं, इसमें सन्देह करनेकी जगह नहीं है। जैन सम्प्रदायकी यह मान्यता कि वे महावीरसे ढाई सौ वर्ष पहले उत्पन्न हुए, नितान्त सच्ची है । केशी पार्श्वनाथके मतानुयायी ये तथा गौतम महावीर के । कहा जाता है कि पार्श्वनाथ चार व्रतके उपदेष्टा थे तथा महावीर पांच व्रतों के । ब्रह्मचर्य (पंचम व्रत ) का ग्रहण अपरिग्रहके अन्तर्गत पार्श्वनाथको मान्य था, परन्तु कालान्तरमें इस व्रतके ऊपर विशेष जोर देनेकी आवश्यकता होनेसे इसका निर्देश अलग किया गया। वस्त्रके विषयमें दोनोंके विभेदका यहां स्पष्ट उल्लेख है। पार्श्वनाथ यतियोंके लिए वस्त्र-परिधान के पक्षपाती थे, पर महावीर परिधानके एकान्त विरोधी थे२ । गौतमकी व्याख्यासे इसका धार्मिक रहस्य स्फुटित होता है कि मोक्षके साधनके लिए ज्ञान, दर्शन तथा चरित्रकी आवश्यकता है, बाह्य आचरणकी नहीं अह भवे पइन्ना उ मोक्खसब्भूयसाहणा। नाणं दसणं चेव चरित्तं चेष निच्छए ॥ (२३ । ३३) १, अच्चे कालो तरन्ति राइओ न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा । उविच्च भोगा पुरिसं चयंति दुमं जहा खीणफल व पक्खी ।। (१३/३१) २ अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिओ बदमाणेण पासेण य महाजसा ॥ २९. ४२९ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ___ गौतमके उत्तरोंसे प्रसन्न होकर केशी भी अपने प्राचीन मतका मोह छोड़कर महावीरका पक्का अनुयायी बन जाता है । जैनमतके इस प्राचीन वृत्तकी जानकारीके लिए यह अध्ययन अत्यन्त उपकारक है । पचीसवें अध्ययनमें ब्राह्मणत्वकी बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है । यज्ञ करनेवाले ब्राह्मण विजयघोष तथा जनमतावलम्बी साधु जयघोष के बीच वेद तथा यज्ञके रहस्यके विषयमें उपादेय प्रश्नोत्तर है। साधु जी बाहरी कर्म काण्डको अनादरकी दृष्टि से देखते थे। इन्होंने अपने मतका प्रतिपादन अनेक गाथाओं के द्वारा किया-- अग्गिहुत्तमुहा वेया जन्नट्ठी वेयसा मुहं । नक्खत्ताण मुहं चन्दो धम्माण कासवो मुह ॥ १६॥ 'वेदका मुख्य विषय अग्निहोत्र है; यज्ञका प्रधान विषय उसका तात्पर्य है, नक्षत्रोंका मुख चन्द्रमा है और धर्मों में मुख्य काश्पय (ऋषभ ) का धर्म है अर्थात् धम्मों में जैनमत ही श्रेष्ठ है।' ब्राह्मणके सच्चे स्वरूपकी जो व्याख्या यहां की गयी है, वह महाभारत, धम्मपद तथा सुत्तनिपातके साथ मेल खाती है | महाभारतमें अनेक स्थलोंपर ब्राह्मणत्वकी विशद व्याख्या है। वही विषय धम्मपदके 'ब्राह्मण वर्ग' में तथा सुत्तनिपातके 'ब्राह्मणधर्मिक सुत्त' में बड़ी सुन्दरतासे प्रतिपादित है । अर्थ साम्यके साथ ही साथ पद-साम्य भी अनेक स्थानों पर आश्चर्य जनक है। यह अंश अत्यन्त प्राचीनता की तथा साहित्यिक सौन्दर्यकी दृष्टि से नितान्त गौरवपूर्ण है। ब्राह्मण सत्यका सच्चा उपासक होता है न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।। यम्हि सच्चञ्च धम्मो च सो सुची सोच ब्राह्मणो ॥२४॥ धम्मपद कोहा वा जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया। मुसं न वयई जोउ तं वयं बूम माहणं ॥२५॥ जिस प्रकार जलमें उत्पन्न होने पर भी कमल जलसे लिप्त नहीं रहता, उसी प्रकार ब्राह्मण भी काममें अलित रहता है जहां पोमं जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलि कामेहिं तं वयं बूम माहणं ॥२७॥ यह उपमा धम्मपदमें भी प्रयुक्त हुई है (वारि पोक्खर पत्तेव) ब्राह्मण तथा तपस्वीकी पहिचान भीतरी गुणों से होती है, बाहरी गुणोंसे नहीं । श्रमणकी पहचान समता है, ब्राह्मणको ब्रह्मचर्य, मुनिकी ज्ञान और तापसकी तपस्या । समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्मणो । नाणेण च मुणी होइ टवेण होइ तापसो ॥३१॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रका विषय श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार गोतम गोत्री स्थूलभद्रकी अध्यक्षता में पाटलीपुत्रमें ३०० ई० घू० के आसपास जैन मुनियोंकी जो समिति हुई उसीमें अंगों का लिपिबन्धन कार्य सपन्न हुआ | भाषा तथा भाव – उभय दृष्टियोंसे उत्तराध्ययनकी प्राचीनता स्वतः सिद्ध है । अतः यह उस समय भी सिद्धान्त में सम्मिलित था, माननेमें विशेष विप्रतिपत्ति नहीं प्रतीत होती । उपदेशोंकी सुन्दरता के कारण यह ग्रंथ नितान्त लोकप्रिय है । जैन धर्मके स्वरूपकी समीक्षा करनेसे स्पष्ट ही प्रतीत होता कि भारतीय संस्कृतिको अहिंसामय बनाने का श्रेय उसे ही है । इसकी छाया उपनिषदों में निहित सिद्धान्तों में विकासित हुई है । यज्ञोंके हिंसात्मक होने से जैनधर्म उसका निन्दक है, दार्शनिक जगत् में सांख्योंने भी इस मतकी उद्भावना की । यज्ञोंमें क्षय, अतिशय तथा अविशुद्धि होनेसे सांख्य यज्ञोंको दोषयुक्त ही मानता है । यज्ञों में पशुहिंसा होनेके कारण ही समग्र फलमें किञ्चित् न्यूनता आ जाती है । व्यासभाष्य में इसे 'आवापगमन' कहा है ' । यज्ञोंको नौका ( प्लवा एते अदृढा यज्ञरूपाः) उपनिषद् भी बतलाते हैं । इसीलिए आरण्यकों में ही यज्ञकी भावनाको विस्तृत रूप दिया गया है । श्रीमद्भगवद्गीता इसी विशाल यज्ञ भावनाकी चतुर्थ अध्याय में व्याख्या करती है । बाह्य आचार तथा शौचकी अपेक्षा आभ्यन्तर शौच पर अग्रह करना उपनिषदों का भी पक्ष है और जैनधर्ममें तो इसका समुद्र ही है । उपनिषदोंमें किसी एक ही मतके प्रतिपादन की बात ( एकान्त ) ऐतिहासिक दृष्टिसे नितान्त हैय है । उनकी समता तो उस ज्ञानके मानसरोवर ( अनेकान्त ) से है जहां से भिन्न भिन्न धार्मिक तथा दार्शनिक धाराएं निकलकर इस भारत भूमिको आप्यायित करती आयी हैं । इस धारा (स्याद्वाद ) को अग्रसर करनेमें ही जैन जैनधर्मका महत्त्व है । इस धर्मका आचरण सदा प्रत्येक जीवका कर्तव्य है । वर्धमान महावीरने स्पष्ट शब्दों में कहा है जरा जाव न पीडेड वाही जाव न घटुइः। जाविंदिया न हायंति ताव धम्मं समायरे ॥ १ लेखकका 'भारतीय दर्शन' (पृष्ट ३३५ ) ४३१ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक-सूत्रका विषय श्री डा० विमलचरण ला, एम० ए०, बी० एल०, पीएच. डी , डी० लिट० अोवाइय-सूय' (औपपातिक सूत्र) अथवा 'उववाइय सूय' इवे. जैन उपाङ्गोंमें सर्वप्रथम है । उववाइयका अर्थ सत्ता होता है । इसपर अभयदेवसूरिकी प्राचीनतम टीका है। इसमें १८६ सूत्र हैं प्रत्येक सत्र विषय विशेषका परिचायक सन्दर्भ है अथवा पद्य सूत्र में प्रत्येक गाथा या पाद किसी विषयका वर्णन करता है । प्रारम्भिक सूत्र गद्य तथा अन्तिम पद्य रूप हैं । सूत्र १६८-९ सिद्धोंकी स्थिति तथा स्वभावके प्ररूपक होनेके कारण विशेष मोहक हैं । ४९, ५६, ७६ तथा १४४ सूत्रोंमें इसी प्रकार के स्मृति सन्दर्भ हैं । वर्णनकी शैली वैचित्र्य लिये हुए है अर्थात् मूल तथा विवेचन एक ही जगह एकत्रित् हो गये हैं। समस्त वस्तु भगवान महावीर तथा चम्पाके कुणिकके मिलन तथा भ० महावीर और गणधर इन्द्रभूतिके प्रश्नोत्तर के प्रसंगसे उपस्थित की गयी है। समस्त विवेचनका प्रधान उद्देश्य भ० महावीरकी सर्वोपरि महत्ता तथा लोकोत्तर व्यक्तित्त्वका ज्ञापन उनके उपदेशोंकी कैवल्यसे उत्पत्ति,वीरके 'गृहस्थ साधक नैष्टिक अनुयायियोंकी उन्नत अवस्था, को समझाना है । तथा सिद्धपद सर्वोपरि है । द्वितीय भाग ( सूत्र ६२-१८९) में गुरु परम्पराका वर्णन है। अभिधम्म पिटकका 'पुग्गलपण्णत्ति' भाग प्राणि वर्गका विकास क्रमसे वर्णन करता है, किन्तु वह सब वर्णन मनोवैज्ञानि तथा प्राचार मूलक है ; ऐतिहासिक नहीं । 'नित्था' अथवा लक्ष्यों के प्रतिपादक सूत्र इनकी ठीक विपरीत दिशामें पड़ते हैं। वस्तुके साक्षात् प्रतिपादनात्मक शैली औपपातिक सूत्रकी अपनी विशेषता है। वर्णनमें स्वाभाविकता तथा सरलता सर्वत्र लक्षित होती हैं। अतः यइ सहज कलासा प्रतीत होता है । आत्मविजय तथा आत्म-सिद्धि रूप जैन सैद्धान्तिक आदशोंसे अोतप्रोत होकर भी इसकी रचना स्पष्ट, धारावाही, १ यद्यपि सूत्र ग्रन्थोंके वर्तमान रूपमें दिगम्बर तथा श्वेताम्बरोमें भेद है तथाथि उनके नाम और प्रधान वर्ण्य विषयों को लेकर ऐसी स्थिति नहीं है। 'डास० औपपातिक सूत्र' नामसे श्री ई०ल्यूमनने इस सूत्रको 'अभा०क्यूर डाई कु० मो०, हर० वोन डा० डयू. मो० गैस० "भा०८,२ लिपजिग १८८३")। संस्कृत टीका सहित दूसरा संस्करण आगमोदय ग्रन्थमालासे निकला है। एन० जी० सूरूका विवेचनात्मक संस्करण विशेष उपयोगी है। २ एस० लेवी (ज० ए० १९१२ टी० २०)। ४३२ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सूत्रका विषय गम्भीर तथा सारगर्भित है । चम्पानगरी, पुण्णभद्द उपाश्रय, उसके उद्यानोंके अशोक वृक्ष, विम्बसारका पुत्र राजा कुणिक, रानी धारिणी तथा भ० महावीरके वर्णन स्पष्ट तथा साङ्गोपाङ्ग हैं। इसके साथ साथ भ० वीरके समवशरण तथा राजा कुणिककी बन्दनायात्रा के चित्रण भी चित्ताकर्षक हैं । पपातिक सूत्र के अनुसार वैमानिक देव उत्तम देव हैं । इनके बाद ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी आते हैं । वैमानिक देव, सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तंव, कापिष्ठ, शुक्र, सहस्रार आदि स्वगमें विभक्त हैं । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारकादि ज्योतिषी देव हैं। भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व, आदि व्यन्तर देव हैं। असुर, नाग, सुपर्ण, विद्युत, अमि, दीप, समुद्र, दिक्, पवन, आदि भवनवासी देव हैं। इनसे निम्न श्रेणी के जीवोंमें पृथ्वी - जल-अनिवायुकायिक जीव गिनाये हैं । स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य तथा दर्पण ये आठ (अष्ट- ) मंगल द्रव्य हैं(सू० ४९) । अगले (५३-५) सूत्रों में कुछ और मंगल द्रव्योंकी भी चर्चा है । सामाजिक जीवन से ब्राह्मणोंकी प्रधानताको समाप्त करनेके उद्देश्य से कतिपय मंगल द्रव्योंकी कल्पना की गयी है। बौद्धधर्म में भी इसका अनुसरण है" तीर्थंकरों के लक्षणों का वर्णन करते हुए उन सब शंख पद्मादिका वर्णन है जो वैदिक साहित्य में भी पाये जाते हैं। भगवान महावीरको धर्म चक्रका प्रवर्तक श्रेष्ठ चक्रवर्ती कहा है । बौद्ध साहित्य में भी इसकी समता समुपलब्ध है । वानप्रस्थ ग्रहण करके गंगा के किनारे तपस्या में लीन तापसोंके वर्णन में अग्निपूजक सकुटुम्ब साधुयों का वर्णन है जो भूमिपर सोते थे । वे याग-यज्ञादिमें लीन, सपरिग्रह व्यक्ति थे । पानीके कलश तथा रसोईके वर्तन उनका परिग्रह था । वे विभिन्न प्रकार से तप करते थे - कोई शंख अथवा कुलधमनक बजाते थे, कोई चर्म तथा मांसके लिए हिरण मारते थे तो दूसरे कम हिंसाको करनेके लिए हाथीको मारते थे, कोई सीधा दण्ड लिये अथवा एक दिशा में दृष्टि एकाग्र किये चलते थे । वे नदी अथवा समुद्रतीर पर वृक्षमूल में रहते थे । पानी, वायु जल, वनस्पति, मूल, कन्द, वल्कल, फूल, बीज आदि उनके भोज्य पदार्थ थे | पंचाग्नि तप करके उन्होंने अपने शरीरको जला दिया था । इसी सूत्र में पवैया समणोंका भी उल्लेख है जो अशिष्ट प्रकार से इन्द्रिय भोगों में लीन थे तथा नृत्यगान ही जिनकी साधना थी । इसीमें ब्राह्मण तथा क्षत्रिय परिव्राजकोंके भेदका वर्णन है । उन दार्शनिकोंका वर्णन है जो कपिलका सांख्य, भार्गवका योग, आदि मार्गका अनुसरण करते थे तथा भारतीय तपमार्गके बहूदका कुटिव्रता, हंसा तथा परमहंसा श्रेणियोंके द्योतक थे। कोई कोई कृष्ण परिव्राजक थे । आजीविकोंको १ खुद्दक पाठान्तर्गत मंगल सुत्त पृ० २-३, महामंगल जातक सं० ४५३, सुत्तनिपात पृ० ४६-७ । २ औपपातिक सूत्र भा० १६, दीघनिकाय भा० ३. लक्खण सुत्तन्त । ५५ ४३३ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अलग गिनाया है । इनका वर्णन थेरवाद (वि० १२० ) के ही समान है । तपस्वियोंके गम्य ( साध्य ) का श्रेणि विभाग भी रोचक है । इस वर्णनमें बौद्ध प्रपञ्चसूदनी तथा उपनिषदोंके वर्णनमें समता है । घोषालके षड्-अभिजात सिद्धान्तकी इससे तुलना की जा सकती है । औपपातिकसूत्रके मतसे गृहस्थसाधु व्यन्तर, वानप्रस्थ ज्योतिषी, परिव्राजकब्रह्मलोक, और आजीविक अच्युत पदको मरणके बाद प्राप्त करते हैं । बौद्ध ब्रह्मघोषके मतसे ब्राह्मण ब्रह्मलोक, तापस आभस्सार लोक, परिव्राजक सुभ-किण्णलोक तथा आजीविक अनन्तमानस लोक जाते हैं । इस सूत्रमें ऐसे विरक्तोंका भी वर्णन है जो अपना सारा संसार त्यागकर गृहस्थोंके भलेके लिए ही प्रयत्न करते हैं, ऐसे लोग ही अनेक जन्म बाद अभियोगिक देव होते हैं। णिण्हण (निहक ) साधुअोंका भी उल्लेख हैं जो प्राप्त वचनों की उपेक्षा करके विपथगामी हो जाते हैं । वे द्रव्य-साधु मात्र हैं। ऐसे ही लोगों में तेरासियों ( त्रैराशिक) की गणना है अनेक जन्म धारण करके ये लोग भी उपरि वेयकोंमें जन्म लेते हैं । ऐसे भी धर्मात्मा हैं जिनका आचार शुद्ध है तथा नैतिकतासे अपनी आजीविका करते हैं । अपने ग्रहीत व्रतोंका पालन करते हैं तथा हिंसासे दूर रहते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभसे परे रहते हैं । वे आदर्श गृहस्थ उपासक हैं जो मर कर अच्युत कल्प तक जाते हैं । गृहस्थ सर्वथा राग द्वेष मुक्त नहीं हो सकता है और न पूर्ण रूपसे हिंसाका ही त्याग कर सकता है। यह सब वे ही कर सकते हैं जो वीरप्रभुके मार्गपर चलकर सब कुछ छोड़कर गुप्ति-समिति आदि का पालन करते हैं । दीक्षित साधुओंमें जिनका परम आत्म विकास नहीं होता वे मर कर सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होते हैं । तथा जिन्हें पूर्ण तप द्वारा कैवल्य प्राप्ति हो गयी है वे "लोग-अग्ग-पैट्ठाणा हवन्ति ।" अन्तमें सिद्धोंका विशद विवेचन है। इसे केवलकथा, ईसपब्भार, तणु, तणुतणु, सिद्धिलोक, मुक्ति, आदि नामोंसे कहा है। यह अविनाशी, अनन्त और लोकोत्तर है। ईसपब्भार अति प्रचलित नाम है । यह देवलोक तथा ब्रह्मकल्पसे बहुत ऊपर है । यद्यपि इसे 'पृथ्वी' शब्द द्वारा कहा जाता है जहां सिद्ध अनन्त काल पर्यन्त रहेंगे । जन्म, हानि, मरण तथा पुनर्जन्म चक्रसे सिद्ध लोक परे है । संसारमें रहते हुए सिद्ध ( भव्य ) जीव शारीरिक कष्ट,सीमित आयु, नाम, वंश आदि बन्धनोंसे मुक्ति नहीं पा सकते । फलतः आत्माको बांध रखनेवाली समस्त सांसारिक उपाधियोंको सर्वथा नष्ट करके वे मुक्त होते हैं । संसारी अवस्थामें वे नित्य नैमित्तिक कार्य करते हैं । इस प्रकार जब पूर्ण कैवल्यको प्राप्त कर लेते हैं तो वे पौद्गलिक स्थितिको समाप्त कर देते हैं और समस्त उपाधियोंका आत्यन्तिक क्षय कर देते हैं । जैनधर्म सम्मत जीवका चरम विकास वह चिरस्थायी शाश्वत विश्व है जहां मुक्त जीवोंका निवास है । साधारण जिज्ञासुकी ‘वे वहां कैसे समय व्यतीत करते हैं ? इस जिज्ञासाका यह सूत्र उत्तर नहीं देता। १, प्रपञ्चसूदनी २, पृ. १ टिप्पण । ४३४ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सूत्रका विषय यह सूत्र रिउ(ऋग् )-वेद, यजुवेद ( यजुर्वेद ), सामवेद, अहण्ण (अथर्ष )-वेद, इतिहास ( पञ्चम वेद ) निघण्टु, छह वेदाङ्ग, छह उपांग, रहस्स ( स्य ) ग्रन्थ, षष्ठितंत्र, आदि वैदिक साहित्यकी तालिका देता है । संक्खाण ( अंक गणित ), सिक्खा (ध्वनि ), कप्प, वागरण (व्याकरण) छन्द, निरुत्त (क्त), जोइष ( ज्यौतिष' ), आदि के सहायक ग्रन्थ रूपमें ही वेदाङ्गोंका निरूपण है । इसमें सांख्य तथा योग दर्शनोंका ही उल्लेख है यद्यपि अणुअोगद्दार सुत्तमें बौद्ध सासनं, विसेसियं, लोकायतं, पुराण, व्याकरण, नाटक, वैसिकं, कोडिलीयं, काम सूत्र, घोडयमुहं आदिके उल्लेख हैं । वत्थुविज्जा (वास्तुशास्त्र) का निर्देश है । तथा नगर, पुर, ग्राम, विविधभवन, प्रासाद, सभागृह, दुर्ग, गोपुर, साज सज्जा, निर्माण, तथा खाद परीक्षा, भवन निर्माण, सामग्री परीक्षा, उद्यान निर्माण, आदि इसके क्षेत्रमें आते हैं। निर्माता 'थपति' अथवा बडढकि नामसे प्रसिद्ध थे। तक्षण पाषाणोत्कीर्णन आदि इसी विद्याके अंग थे। जैन साहित्य 'नक्खत्त विजा' के विकासका वर्णन करते हैं । सूर्य चन्द्रादिके स्थान, गति, संक्रमण, प्रभाव, आदिका विशद विवेचन मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि सूत्रकी रचनाके समय लोग ग्रहण, नक्षत्र, ग्रह, ऋतुओं, आदिसे ही परिचित नहीं थे अपितु ज्यौतिषी, ऋतु, वृष्टि, आदिके समयमें भविष्यवाणी भी करते थे । बौद्ध साहित्यसे भी इसका समर्थन होता है। चम्पा नगरमें राजा बिम्बसारके पुत्र कुणिकके अभिषेक महोत्सवका वर्णन है। इस समय प्रभु वीर भी वहां पधारे थे पुण्णभद्द चैत्यमें उत्सव हुआ था। इसके चारों ओर सघन वन थे। विविध स्थानों तथा वर्गों के लोग प्रभुके दर्शनार्थ आये थे। लिच्छवि, मल्ल, इक्ष्वाकु, ज्ञात्रि, आदि क्षत्रिय वहां आये थे । राजपिता बिम्बसार उत्सवमें नहीं थे। राजाकी पत्नियोंमें धारिणी अथवा सुभद्रा प्रमुख थीं । अजातशत्रुकी पत्नी तथा प्रसेनजितकी पुत्री वजिराकी इस प्रसंगमें अनुपस्थिति रहस्यमय है । अंग तथा मगधके राजनैतिक सम्बन्धों की भी चर्चा नहीं है। कुणिकका अभिषेक अंगके कुमारामात्य रूपसे हुआ था अथवा स्वतंत्र शासक रूपसे; इस विषयकी सूचना सूत्रमें नहीं है । शंका होती है कि क्या कुणिक अजातशत्रु ही था । यहां पर सब व्यक्तियोंका आदर्श चित्रण है । राजामें बौद्धिक तथा कायिक सभी शुभ लक्षण थे फलतः वह अभिनन्दनीय, आदरणीय एवं पूजनीय था । रानियां भी शील-सौन्दर्यका भंडार थी। परिखा, गोपुर, प्रासाद, भवन, उद्यान क्रीडास्थल, सम्पत्ति, समृद्धि, स्थायी आनन्द, आदिके कारण स्वर्ग समान ही थी । इन सब वर्णनोंसे वीरप्रभुकी महत्ता तथा विरक्तिका चित्रण होता है। किन्तु वर्णनों तथा उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि यह सूत्र भगवान वीर तथा उनके उपदेशों के बहुत समय बाद लिखा गया होगा। १. औ. सू. वि. १६०-७॥ २. ओ. सू, वि, ७७ । ४३५ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ गणनायक, दण्डनायक तथा तलवार आदिके उल्लेख सूचित करते हैं कि सूत्र ई० सन् के बादका है । ऐसा लगता है कि श्वेताम्बर जैन लेखक बौद्ध तथा ब्राह्मण लेखकोंको परास्त करने के लिए कटिबद्ध थे; भ०महावीरके शरीर-वर्णनके प्रकरणसे ऐसा लक्षित होता है। जहां बौद्ध बुद्धके शारीरिक लक्षणोंकी सख्या २२ बताते हैं वहीं यह सूत्र ८००० कहता है । तथापि कुछ ऐसे प्राचीनतर उल्लेख हैं जो पाली सन्दर्भोको स्पष्ट कर देते हैं; उदाहरणार्थ बौद्ध निकायोंमें 'इतिहास पञ्चम' के पूर्व आया अथर्ववेदका उल्लेख, यद्यपि दव्व (द्रव्य ) खेत (क्षेत्र ), काल, लोय ( लोक ) अलोय (अलोक ), जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, आदिके विवेचन प्रारम्भिक कोटिके ही हैं। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंका संक्षिप्त परिचय श्री पं० लोकनाथ शास्त्री ग्रंथ परिचय-- अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीकी दिव्य-ध्वनिकी गौतम गणधरने द्वादशांग इतके रूपमें रचना की । जिसका ज्ञान प्राचार्य परंपरासे क्रमशः कम होते हुए धरसेनाचार्य तक आया । उन्होंने बारहवें अंग दृष्टिवादके अंतर्गत 'पूर्व एवं पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिके कुछ अंशोंको पुष्पदंत और भूतबलिको पढ़ाया। उन्होंने 'सत्कर्म पाहुड' की छह हजार सूत्रोंमें रचना की । इसका नाम षट्खंडागम-सिद्धान्त है । जिसमें जीव स्थान, क्षुल्लक बंध, बंधसामित्त-विचय, वेदना, वर्गणा, और महाबंध नामके छह विभाग हैं । उसके पहलेके पांच खंडों पर वीरसेन स्वामीने धवला नामकी टीका या भाष्यकी रचना शक सं० ७३८ में पूरी की। यह ७२ हजार श्लोक परिमाण है। षड्खंडागमका छठवां खण्ड महाबंध या महाधवल है जिसकी रचना स्वयं भूतबलि आचार्य ने बहुत विस्तारसे ४० हजार श्लोक परिमाण गद्य रूपसे ही की है । उस पर विशेष टीकाएं नहीं रची गयीं। धरसेनाचार्य के समयमें गुणधर नामके एक और प्राचार्य हुए हैं । उन्हें भी द्वादशांगका कुछ शान था। उन्होंने कषायप्राभृतकी रचना की। उसे पेज्जदोसपाहुड भी कहते हैं । इसका आर्यमंक्षु और नागहस्तिने व्याख्यान किया और यतिवृषभाचार्यने उस पर चूर्णी-सूत्र रचे। इस पर भी श्री वीरसेन स्वामीने टीका की । परंतु, वे उसके आद्यंशपर २० हजार श्लोक परिमाण टीका लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये । तब उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्यने ४० हजार परिमाण और टीका लिखकर उसे पूरा किया । इस टीका या भाष्यका नाम जयधवला है । इसका परिमाण ६० हजार है। इन तीनों ग्रंथोंकी ताडपत्रीय प्रतियां मूडबिद्रीके सिद्धान्त मंदिर में विराजमान हैं। उनमें धवला की तीन प्रतियां हैं । तीनोंके अक्षर समकालीन जान पड़ते हैं। उनमेंसे एक प्रति प्रायः पूर्ण है । दूसरी प्रतिमें बीचके कई पत्र नहीं हैं। और तीसरी प्रतिमें तो सेकड़ों पत्र नहीं हैं। जयधवलाकी एक ही प्रति है। वह संपूर्ण है । महाबंधकी एक ही प्रति ताडपत्रकी है। जिसमें बीच बीचके कई ताडपत्र नहीं हैं। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ विषय परिचय- (१) षड्खंडोंमें प्रथम खंडका नाम जीवस्थान है । उसमें सत्संख्यादि आठ अनुयोग से गुणस्थान और मार्गण स्थानोंका आश्रय लेकर जीवस्वरूपका वर्णन है । (२) दूसरे खंडका नाम क्षुद्रबंध या क्षुल्लक बंध है । इस खंड में स्वामित्वादि ग्यारह प्ररूपणा में कर्मबंध करनेवाले जीवोंका कर्म बंधके भेदों सहित वर्णन है । (३) तीसरे खंडका नाम बंध-स्वामित्व-विचय है । इसमें कितनी प्रकृतियोंका किस जीव के कहां तक बंध होता है ? कितनी प्रकृतियोंकी किस गुणस्थानमें व्युच्छित्ति होती है ? इत्यादि कर्मबंध संबंधी विषयोंका जीवकी अपेक्षा से विशद विवेचन है । (४) वेदना खंड चौथा है । इस खंड के अंतर्गत कृति और वेदना अनुयोगके आश्रयसे, कारणकी प्रधानतासे वेदनाका अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है । (५) पांचवें खंडका नाम वर्गणा है । इस खंडका मुख्याधिकार बंधनीय' है । जिसमें तेईस प्रकारकी वर्गणाओंका वर्णन और उनमेंसे कर्मबंधके योग्य वर्गणात्रों का विस्तारसे विवेचन किया गया है । (६) छठे खंडका नाम महाबंध है । उसमें भूतबलि आचार्यने प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों प्रकारके बंधोंका विधान खूब विस्तार से किया है । हम उपर बतला चुके है कि कषायप्राभृतको 'पेज्जदोसपाहुड' भी कहते हैं । इसमें पंद्रह अधिकार हैं। उनमेंसे पेज्जदोस विहत्ति में केवल उदयकी प्रधानता से व्याख्यान किया गया है । आगेके चौदह अधिकारों में बंध, उदय और सत्त्व आदिके आश्रयसे कषायोंका विस्तृत विवेचन है | दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म, राग, द्वेष, मोहरूप एवं कषाय और नो- कषायरूप है । षड्खंडागममें अनेक अनुयोगों द्वारा आठ कमोंके बंध, बंधक, आदिका विस्तार से वर्णन है । परंतु इस कषायप्राभृत में केवल मोहनीय कर्मका ही मुख्यतासे वर्णन है । कषायप्राभृतमें तीन ग्रंथ एक साथ चलते हैं । कषायप्राभृत मूल गाथाएं है जो कि गुणधराचार्य कृत हैं । और उस पर यतिवृषभाचार्य की चूर्णी-वृत्ति एवं श्री वीरसेनस्वामीकी जयधवला टीका है । ताडपत्रीय प्रतियोंका लेखन काल- धवला सं ० १ की अन्तिम प्रशस्तिसे विदित होता कि मंडलिनाडुके भुजबल गंगपेर्मडि देवकी काकी एडवि देमियक्कने यह प्रति श्रुतपंचमी व्रतके उद्यापन के समय शुभचंद्राचार्यको समर्पित की थी। शुभचंद्राचार्य देशीगण के थे । और बन्निकेरे उत्तुरंग चैत्यालय में उस समय विराजमान थे । शुभचंद्रदेवकी गुरुपरंपरा, व उनके स्वर्गवासका समय श्रवणबेलगोला शिलालेख सं० ४३ ( ११७ ) में पाये जाते हैं, उनका स्वर्गवास शक सं० १०४५ श्रावण शु० १० शुक्रवारको हुआ था । अर्थात् उनको स्वर्गस्थ करीब ८२२ वर्ष हुए हैं । ४३८ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलादि सिद्धान्तग्रंथोंका संक्षिप्त परिचय शिमोगा के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उक्त बन्निकेरे चैत्यालयका निर्माण शक सं० १३०५ में हुआ है । ताडपत्र ग्रंथ सं ० १ धवलाको देमियक्कने जिन्नपसेठीसे लिखवाकर शास्त्र दान किया था । इसका श्र. बे. शिलालेख सं० ४६ (१२९ ) में सविस्तर वर्णन है । उसमें उनका नाम देमति, देवमति, देमियक इत्यादि दिया है। उन्हें शुभचन्द्रदेवकी शिष्या तथा श्रेष्ठिराज चांमुंडरायकी पत्नी लिखा है । उनकी धर्मानुबुद्धिकी खूब प्रशंसा की है । उक्त देमियक्का का स्वर्गवास शक. सं० १०४२ विकारि संवत्सर फाल्गुन कृष्ण ११ को हुआ था । अतएव पता चलता है कि धवला सं० १ प्रतिको लिखवाकर मिक्कने अपने स्वर्गवासके पूर्व अर्थात् शक १०३७ और १०४२ के बीच में शुभचन्द्रदेवको अर्पण किया होगा | अब तक उसे करीब ८२७ वर्ष हुए हैं। अन्तिम तीन 'बंद' पद्योंमें लिखा है कि कोपल नामके प्रसिद्ध निर्त्यवे पुर में जिन्न पसेठी नामका एक श्रावक रहता था। वह दानशूरं एवं समस्त लेखक वर्ग में या विद्वानों में अत्यंत चतुर और जिनभक्त था । इत्यादि विशेषणोंसे उसकी प्रशंसा की है। इतना ही नहीं तीसरे पद्य में उसके सुन्दर अक्षरोंका वर्णन करते हुए लिखा है कि उसकी अक्षर पंक्ति ऐसी प्रतीत होती है मानो समुद्रमें स्थित मोतियों को निकालकर उन्हें छेद करके सरस्वती देवीके कंठका अलंकार हार ही गूंथा हो । सचमुच में इस प्रतिके अक्षर मोती के समान अत्यंत सुंदर हैं । उपरोक्त प्रशंस्ति-पद्योंका संग्रह यहां श्रावश्यक नहीं है । धवलाकी दूसरी प्रति इसकी अंतिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि, इसे राजा गंडरादित्यदेवके पडेवल अर्थात् सेनापति मल्लिदेव ने लिखवाकर कुलभूषण मुनिको अर्पण किया था। वे कुलभूषणमुनि आचार्य पद्मनंदिके शिष्य थे । मूल संघ में कुंदकुंदाचार्यकी परंपरामें हुए थे । उक्त मल्लिदेवकी प्रशंसा में कई पद्य हैं। 'सुजन चूडामणि' रत्नत्रयभूषण' आदि विशेषणों से उनका स्मरण किया है । उक्त पद्योंमें से कुछ पद्य निम्न प्रकार हैं गुणनिधि-मल्लिनाथ-डे वल्लननिंदित, कुंदकुंद-भूषण कुलभूषणोद्ध-मुनिपंगे जिनागम तत्र सत्प्ररूपणमेनिसिर्दुदं धवलेयं परमागममं जिनेश्वरप्रणुत मनोल्पिनि बरेयिसित्तनिदं कृतकृत्य नादनो ॥ सेनानिर्मल्लिनाथाख्यो विश्रुत्या विश्वभूतले । गंडरादित्यदेवस्य मंत्री मंत्रिगुणान्वितः ॥ धवलाकी तीसरी प्रतिमें प्रशस्ति नहीं है, तो भी समकालीन अक्षरोंसे जान पड़ता है कि पूर्वोक् दोनों प्रतियां लगभग ८०० वर्ष पहले की हैं । ४३९ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ जयधवलाकी प्रति- सिद्धान्त मंदिर में जयधवलाकी ताडपत्रीय प्रति एक ही है। उसे बल्लिसेट्टिने लिखकर अर्पण किया था। अंतिम प्रशस्ति में पद्मसेनमुनिको प्रशंसा में कर्नाटक पद्य हैं । उनमें उनको 'जैन सिद्धान्त-वननिधि ताराधिप', 'वाणिवारासि - सैद्धान्तिक चूडारत्न' और 'कुमतकुधर वज्रायुध' इत्यादि उपाधियों से स्मरण किया है ( यह पद्मसेनाचार्य कुलभूषण के गुरु पद्मनंदी ही होंगे ) प्रशस्ति में पद्मसेन के बाद उनके शिष्य कुलभूषण का स्मरण किया है । उक्त प्रशस्ति में लेखक बल्लिसेहिको 'वैश्य कुलदीधिति', 'गण्य पुण्यनिधि' और 'शौचगुणांबु निधि, आदि उपाधियोंसे विभूषित किया है। वह इतना उदार था कि स्वार्जित द्रव्यको शास्त्रदान आदि में व्यय करता था । उक्त मुनि पद्मसेन या पद्यनंदि और बल्लिसेट्टीका समय विचारणीय है । महाबंध की प्रति- महाबंध की ताडपत्रीय प्रतिको राजा शांतिसेनकी पत्नी पल्लिकांबाने उदयादित्य से लिखवा कर श्री पंचमी व्रत उद्यापना के समय आचार्य श्री माघनंदिको समर्पित किया था। उक्त ग्रंथकी अंतिम प्रशस्ति में लिखा है कि उपरोक्त माघनंद्याचार्य आचार्य श्री मेघचंद्रके शिष्य थे । उक्त माघनंदि आचार्य, राजा शांतिसेन और मल्लिकांचाका समय विचारणीय है । ४४० Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञात - नाम कर्तृक-व्याकरण श्री डा० बनारसीदास जैन एम० ए०, पीएच० डी० जिस व्याकरणके कुछ सूत्र नीचे उद्धृत किये जाते हैं, उसका न तो नाम मालूम है और न कर्ता । इसके प्रारंभके केवल १०५ सूत्र उपलब्ध हुए हैं जो एक ताड़-पत्रीय प्रतिके पहले और दूसरे पत्र प नेवारी अक्षरों में लिखे मिलते हैं । यह प्रति नेपाल देशके कठमांडू भंडारमें सुरक्षित है । इसके कुल १६ पत्र हैं । पहले दो पत्रों पर प्रस्तुत व्याकरणका अंश और शेष १४ ( ३- १६ ) पत्रों पर पुरुषोत्तमकृत प्राकृतानुशासनके अन्तिम १८ (३-२० ) अध्याय लिखे हुए हैं । समग्र प्रति एक ही हाथकी लिखी हुई प्रतीत होती है । ऐसा जान पड़ता है कि इस प्रतिमें दो व्याकरणोंके पत्र मिश्रित हो गये हैं- अज्ञात नाम व्याकरण के प्रथम दो और प्राकृतानुशासन के अंतिम चौदह । एक हो हाथके अक्षर होनेसे यह भूल निवारण नहीं हो सकी । प्रतिके अन्त में लिपिकाल नेपाली सं० ३८५ ( वि० सं० १३२२ ) दिया है । इससे यह नहीं कहा जा सकता कि पहले किस व्याकरणकी लिपि हुई । नेपाल- नरेशकी आज्ञा से इस प्रतिके फोटो बनवाये गये । एक सैट विश्व भारती शान्तिनिकेतन को भेजा गया, दूसरा फ्रांस में पैरिसकी लायब्रेरी को । वहांसे प्रो० लुइज्या नित्त दोलची ने इस प्रतिका संपादन किया जो सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ । सन् १६३६ में महायुद्ध छिड़ जानेसे यह पुस्तक । भारत में आने से रुकी रही। अभी पिछले वर्ष ही लाहौर आयी है ज्ञान नहीं था । यदि अज्ञात - नाम व्याकरणका लिपिकाल भी सं० यह व्याकरण सं० १३२२ से पहले की रचना है, तथा प्रचार होगा । इससे पूर्व इन व्याकरणों के अस्तित्वका १३२२ हो, तो इससे सिद्ध होता है कि नेपालमें किसी समय प्राकृतका अच्छा इस लेख के द्वारा जैन विद्वानोंका ध्यान जाता है ताकि वे इसकी पूर्ण प्रति ढूंडनेका प्रयत्न जिनका संसारमें नाम तक प्रकट नहीं हुआ है । अज्ञात नाम प्राकृत व्याकरणकी ओर आकर्षित किया करें । जैन भंडारों में अब भी कई ऐसे ग्रंथ सुरक्षित हैं 1 १. “ली प्राकृतानुशासन डी पुरुषोत्तम पर लिंगिअ नित्ती - डोल- पेरिस ” १९३७ पृ १४१ मूल्य १० शिलिंग । इसमें अज्ञात - नाम कर्तृक व्याकरणका उपलब्ध अंश प्रकाशित किया गया है । ५६ ४४१ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रंथ नेपाल से प्राप्त अज्ञातनाम-कर्तृक प्राकृत-व्याकरणके सूत्र-- ॐ नमो बुद्धाय ।। (१) ऋ ऋ ल ल न सन्त्यत्र नोमो न णानाः पृथक् । न शषौ द्विवचनञ्चैव चतुर्थी दृश्यते क्वचित् ॥ (२) ए श्रौ पदादौ ॥ (३) अउदौतो वा ॥ (४) अइदैतः॥ (५) क्वचिदेदिदीतः ॥ (६) उदोदादौतः ॥ (७) आदिदीतामेत् ।। (८) एत इत् ॥ (९) अत इदोतौ॥ (१०) अत उः२॥ (११) इत उः ॥ (१२) ईत उः ॥ (१३) ऊत ए: ॥ (१४) आदीदूतामलोपेऽसंयोगे ह्रस्वः ।। (१५) दाढा ॥ (१६) आदिदुतां क्वचिद्दीर्घः ॥ (१७) व्यञ्जनादुत श्रोः ॥ (१८) उदोतोरिदुतौ ॥ (१९) ऋतोऽदिदुदातः ॥ (२०) उरूरि सव्यञ्जनस्य च ॥ (२१) इदुतौ वा ॥ (२२) ईदरी ॥ (२३) लुल्योरिलिः ॥ (२४) रः परसवर्णः ॥ (२५) डढणबभमदधनरहितवर्गा वर्णा -अपदादौ नायुक्तात् ॥ (२६) कुदुतुषोकतेषां ॥ (२७) तथकखघधभां हः॥ (२८) हो बः॥ (२९) त लोपो णडपडरककाराश्च ।। (३०) अंकालं ॥ (३१) वेण्टं ॥ (३२) टो डढौ ॥ (३३) फालहं॥ (३४) दूरुः ॥ (३५) वस्य हुः ॥ (३६) फो भः ॥ (३७) यवरडां लः॥ १, प्रतिके प्रारम्भमें अंक १ से मिलता हुआ संकेतात्मक ऊँ है जिसे नित्ती-दोलचीने छोड़ दिया है । २, प्रतिका पाठ औतः। ३, प्रतिमें-इत ऊः। १, प्रतिमें-ईत : ५, प्रतिमें दुदेदातः । ४४२ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञात-नाम कर्तृक-व्याकरण (३८) णडालघरवटाम् ॥ (३९ कालोपः पूर्वस्य वाच ॥ (४०) कगचजदपा मपदादाव संयुक्तानां लोपः (४१) वो बहुलम् ॥ (४२) उः॥ (४३) यः पदादौ 'जा॥ (४४) लोपोऽन्यत्र ॥ (४५) चजोर्यः ॥ (४६) पो वः ॥ (४७) फः ।। (४८) दो डः॥ (४९) तादी चादयः शयां ॥ (५०) सराण्ठादयः ।। (५१) शषोश्छ सहाः ।। (५२)प्रथमतृतीयानांमणरलससंयोगिनां तद्भाव (५३) खेडं । (५४) प्रथमसंयोगे प्रथमद्वितीयौ ॥ (५५) समसंयोगे प्रथमा विसर्ग द्वितीय चतुर्था क्षरम् ॥ (५६) पदादौ क्षस्य झच्छखाः ॥ (५७) मध्यान्तयो युक्ताः ॥ (५८) क्षमस्य च्छहो ॥ (५६) च्छमा ॥ (६०) ध्मस्य द्रुमः ॥ (६१) द्वश्च ॥ (६२) ष्टस्य ट्ठिोठाकाश्च ।। (६३) स्तस्य पदादौ थठखाः ॥ (६४) ठोऽन्यत्र ॥ (६५) यस्य ज्जल द्वौ ॥ (६६) सेज्जा ॥ (६७) श्मस्मयो शः॥ (६८) मष्ययो हः ॥ (६९) सुण्हा ।। (७०) चोणः॥ (७१) दो रः॥ (७२) रोरीर वहाः ॥ (७३) दीह दीहरौ दीर्घस्य ।। (७४) मनलय पूर्वो हः परस्तात्यः ।। (७५) हो न्दः । (७६) क्षस्य ज्झः। (७७) सोहो वा। (७८) प्यस्योमः (७६) शस्य जणौ पदादौ । (८०) संयुक्तावपदादौ । (८१ शषोः संयोगादेलोपः। (८२) स्कस्त स्पनां खथफाः। (८३) ष्णस्नोः सणः। (८४) त्नस्य दणं । (८५) श्राद्धतः सदहिग्रं। १, प्रतिमें पदादादी। २, यहां प्रतिमें एक अक्षर पढ़ा नहीं जाता। ३, यहां प्रतिमें परस्तेत्यः पाठः है ४, प्रतिमें स्कस्तस्यनां पाठ है। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रंथ (८६) श्लम्लोः सलमलौ (८८) नो णः। (९०) संयोगे लोपः। (६२) अप्पः । (६४) टदो रन्ते सदौ। (९६) अत श्रोकारे । (६८) ह्रर्हावेव पदादौ। (१००) भीष्मादयो न महाराष्टेषु ॥ (१०२) द्विवचनस्य बहुवचनम् । (१०४) बहुवचनस्य कचिल्लोपः। (८७) प्सश्चो च्छः। (८९) छ। (९१) मनोः पूर्वसवर्णः। (६३) मध्यलोपावादि स्वरो वा। (९५) तयोर्लोपः। (६७) संयोगात् करणं कचिदस्वरस्य । (९९) दध कहार परा गाथा पा मस्मकेषु । (१०१) हरादयः शब्दः समानाः । (१०३ स श्री पुंसि । (१०५) अनभ..." ४४४ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ भाषाको जनोंकी देन श्री प्रा० के० जी० कुन्दनागर, एम० ए० ____ कन्नड़ भाषाके निर्माताओं तथा कन्नड़ साहित्यके विधाताोंमें जैनियोंका सर्व प्रथम तथा सर्वोत्तम स्थान है । इस दिशामें उन्होंने इतना अधिक कार्य किया है कि, भाषा, व्याकरण, साहित्य, छन्द, दर्शन, गणित, राजनीति, विज्ञान, टीका आदि कोई भी शाखा उनके कर्तृत्वसे अछूती नहीं है । भावी कर्णाटकियोंके लिए उन्होंने ऐसी समृद्धि छोड़ी है जिसके लिए उनकी सन्तान सदैव ऋणी रहेगी। समय अनुकूल था; यदि राजाश्रयमें वे लिखते थे तो विद्वान भी उनकी रचनात्रोंका समादर करते थे । वे स्वयं भी विविध भाषाओंके पंडित थे तथा जनताका धर्मप्रेम उनकी प्रत्येक रचनाको जनपदके कोने कोने तक ले जाता था। इस प्रकार बढ़ते बढ़ते जैन साहित्य कर्णाटकके विद्वानों और धर्मात्माओंकी आराधनाका विषय बन गया था। ऐसे विशाल साहित्यके दिग्दर्शन मात्रका यहां प्रयत्न किया जा रहा है क्योंकि उसका आंशिक वर्णन भी कठिन है फिर पूर्ण विवेचनकी तो कहना ही क्या है । इस विवेचनमें चौदहवीं शतीके प्रारम्भ तकके साहित्यके संकेत रहेंगे। क्योंकि तबतक इन मनीषियोंका कार्य पूर्ण हो चुका था। श्रुतकेवली भद्रबाहुके नेतृत्वमें जैन संघकी दक्षिण यात्रा तथा उनका श्रवण बेलगोलमें निवासके समयसे ही दक्षिणमें जैन धर्मका प्रसार प्रारम्भ होता है। अपने धर्मके प्रचारके लिए पूर्ण प्रयत्न करके भी वे चोल राजाओंके दमनके कारण तामिल जनपदमें असफल ही रहे। दूसरी ओर कर्णाटकके गंग, चालुक्य, राष्ट्रकूट, कदम्ब, होयसल शासक सब धर्मों के प्रति उदार थे फलतः जैनधर्म वहां सरलतासे फूला फला। आधुनिक धर्म प्रचारकोंके समान जैनाचार्योंने भी अपने सिद्धान्तोंको हृदयंगम करनेके लिए कन्नड़ भाषाको माध्यम बनाया था जैसा बौद्धोंने भी किया था क्यों कि अशोक-लेख तथा बौद्ध विहार कर्णाटकमें मिले हैं । हां कन्नड़में कोई साहित्य अवश्य नहीं मिला है। हालमिडि लेखसे ज्ञात होता है कि चौथी शती पू० से लेकर ई० ४ शती ई० के मध्यतक कन्नड़ लिखने पढ़ने योग्य न हो सकी थी फलतः संस्कृत प्राकृतसे शब्द लेकर जैनोंने इसे समृद्ध किया। तथा कितने ही कन्नड़ शब्दोंको प्राकृतमें भी लिया फलतः कन्नड़ शब्द भी तत्सम, तद्भव और देश्य हो सके । कमल, कुसुम, वीर, बात, संगम, मोक्ष, आदि संस्कृत शब्द तत्सम हैं । इनके अर्थोके वाचक कन्नड़ शब्द होते हुए भी चम्प तथा शैलीकी दृष्ठिसे तत्सम ४४५ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ शब्द अपनाये गये थे। करगस (क्रकच ) अग्ग ( अर्घ ) वेहार ( व्यवहार ) सक्कद ( संस्कृत ) स्सिी (श्री) आदि तद्भव शब्द हैं जो संस्कृत शब्दोंके प्राकृतमय कन्नड़ रूप हैं। सरसति ( सरस्वती ), विजोदर (विद्याधर ), दुजोधन ( दुर्योधन ) आदि तद्भव नाम हैं । ( वग्ग-व्याघ्र ), तिगलपेरे (ससि-शशी) बर्दु ( मिलतु मृत्यु), यदु ( श्रोसद औषधि ), बान् (आगस=अाकाश ), आदि देश्य शब्द हैं। इनके अतिरिक्त अगल ( रकेवी), भावरि ( मुनि भिक्षा), अरियेरुकार ( चर ), रंदवणिग (पाचक ), मादेल (पूंजी ), आदि शब्द भी बनाये गये थे एसे कितने ही शब्दोंका अब भी चलन है । तथा वक्तव्यके समझानेके लिए संस्कृत शब्दोंका यथेच्छ प्रयोग हुआ है। शब्दोंके निर्माणके साथ साथ कन्नड़पर संस्कृत व्याकरणकी भी छाया पड़ी है। संस्कृत वर्णमाला संज्ञाएं, सातकारक, सम्बन्धवाची सर्वनाम, समास, सति-सप्तमी, कर्मवाच्य, आदि इसके ही सुफल हैं। जैनोंके इस परिवर्द्धनके कारण कितने ही विद्वान कन्नड़को संस्कृतकी पुत्री कल्पना करते हैं । संस्कृत छन्दोंका उपयोग द्राविड़ षट्पादि, त्रिपादि, रगले, अक्कर, आदि छन्दोंके साथ किया है। साहित्य निर्माण-कन्नड़ जैन कवि तथा लेखकोंने सर्वत्र समन्तभद्र, कविपरमेश्वर तथा पूज्यपादका स्मरण किया है इन आचार्योंकी लेखनीसे भी कन्नड़में कुछ लिखा गया था यह नहीं कहा जा सकता, हां इनके संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंपर कन्नड़में टीकाएं अवश्य उपलब्ध हैं । श्री वर्धदेव; अपरनाम तुंबलराचार्यने (६५० ई० ) तत्त्वार्थ महाशास्त्रपर चूड़ामणि टीका लिखी थी। इनके समकालीन शांमकुंदाचार्य ने कन्नड़ प्राभृतोंकी रचना की थी। अर्थात् इस समय तक कन्नड़ भाषा दार्शनिक ग्रन्थ तथा कविता लिखने योग्य हो गयी थी। इस समयसे लेकर राष्ट्रकूट राजा, नृपतुंग देव ( ८१४-७८ ई० ) तकके अन्तरालमें निर्मित कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। नृपतुंगदेव अपने 'कवि राजमार्ग' में कितने कन्नड गद्य पद्य निर्माताओं का ससम्मान उल्लेख करते है। भामहके काव्यालंकार, दंडीके काव्यादर्शसे लिये जानेपर भी इस ग्रन्थके विषयमें भाषा और पद्योंकी अनुकूलताकी दृष्टि से परिवर्तन किया गया है । इनका उत्तर-दक्षिण मार्ग भेद कन्नड़ भाषा विज्ञानके प्रारम्भकाद्योतक है । ८७७ से ९४० ई० तकका समय पुनः सुसुप्तिका समय था । अद्यतन शोधोंने हरिवंशपुराण तथा शूद्रक पद्योंके यशस्वी रचयिता गुणवर्म तथा नीतिवाक्यामृत के कन्नड़ टीकाकार आचार्य नेमिचन्द्रको कन्नड़ साहित्यके इस युगके निर्माता सिद्ध किया है । ___ इसके बाद हम कन्नड़ साहित्यके स्वर्ण युगमें आते हैं । क्यों कि आदिपुराण तथा भारतके रचयिता श्री पंप ( ल० ९४० ई० ), शान्तिपुराण जिनाक्षरमालेके निर्माता पन्न ( ल० ६५०), त्रिषष्ठि १ श्रवणबेलगोल शिलालेख सं० ३७, ७६, ८८ बादामिका एक शिलालेख सन् ७०० ई० का ( इण्डियन एण्टेक्वा० भा० १०, पृ०६१) सिद्ध करते हैं कि कन्नड़ उस समय तक कविताके योन्य हो गयी थी। इनमेंसे एक शाल विक्रीडित, दो मत्तेभविक्रिडित तथा एक त्रिपदि छन्दमें है। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ भाषाको जैनोंकी देन लक्षण महापुराणके लेखक चावुण्डराय ( ९६८ ई० ) तथा अजितपुराण एवं गदायुद्धके निर्माता रन्न ( ९६३ ई० ) इसी समयमें हुए हैं । अपनी काव्य कला, कोमल कल्पना, चारू चिन्ता, प्रस्फुटित प्रतिभा तथा प्रसाद गुणयुक्त शैलीके कारण तत्कालीन कन्नड़ चिन्तकोंपर इनकी प्रभुता छा गयी थी तथा पंप, पोन्न और रन्नने असाधारण ख्याति पायी थी। यही कारण है कि बारहवीं शतीके प्रारम्भमें हुए नागचन्द्र कविने 'अभिनवपंप' उपाधि धारण की थी। इनकी शैली उत्तम चम्पू है । पोन्न तो वाणको बराबरी करते हैं। चरित्र चित्रण तथा भाव व्यञ्जनामें रन्न अति अर्वाचीन हैं । तीर्थकर पुराण शृंगार-शान्त रसका अलौकिक सम्मिश्रण हैं । यही अवस्था भावावलिकी है जिसके आधेसे अधिक भागमें शृंगार और शेषमें शान्त रस है । शेष रस कथा वस्तुका अनुगमन करते हुए इन्ही प्रधान रसोंका समर्थन करते हैं । दर्शन तो इसमें अोतप्रोत है । यही जैन पुराणोंकी विशेषता है । इसी कारण इनको संक्षिप्त करना संभव नहीं है। अद्यतनीय दृष्टियोंसे इन ग्रन्थोंकी समालोचना करना उचित नहीं होगा क्योंकि उस समयकी दृष्टि भोग, आन्तरिक शान्ति तथा आत्यन्तिक सिद्धि थी। जिनका इन ग्रन्थोंने सर्वथा सुन्दर निर्वाह किया है। पम्पका कर्ण, पोन्नका दमितारि तथा रन्नका दुर्योधन सिद्ध करते हैं कि ये दुखान्त पात्र चित्रण में पारंगत थे। महाकवि थे इसीलिए सहस्र वर्ष बीत जानेपर भी उनके ग्रन्थ आज नये ही हैं । इसी कारण चालुक्य तथा राष्ट्रकूट राजाओंने उन्हें 'कवि चक्रवती' आदि उपाधियां भी देकर सम्मानित किया था। जिनसेनाचार्य तथा गुणभद्राचार्य के पूर्वोत्तर-पुराणोंसे कथा वस्तु लेकर चांवुडरायने त्रिषष्ठि-लक्षण महापुराणकी रचना की है। कहीं कहीं तो कविपरमेश्वरके पद्य भी इन्होंने उद्धृत किये हैं । ये कवि होनेके साथ साथ युद्ध तथा धर्मवीर भी थे। श्रवण-बेलगोलस्थ श्री १००८ बाहुबलि-मूर्ति इनकी अमर कीर्ति है । बड्डाराधने नामक गद्य ग्रन्थ इस युगकी सर्वोत्तम कलामय रचना है। कुछ लोग श्वोअथवा श्वि-कोट्याचार्यको इसका लेखक कहते हैं तो दूसरे अज्ञातकर्तृक बताते हैं। जो भी हो जैनधर्मके माहात्म्य द्योतक कथाओंका यह संग्रह अनुपम है। तथा अपने युगके कथा ग्रन्थ 'देवी-अराधना' धूर्ताख्यान, जातक कथा, आदिकी कोटिका ग्रन्थ है । फलतः इसके यशस्वी लेखकको भूल जाना कन्नडिगोंका दुर्भाग्य हो गा। अब ग्यारहवीं शतीमें आते हैं तो हमें अभिनव पंप नागचन्द्र तथा श्रीमतीकान्तिके दर्शन होते हैं। 'भारती वर्णपूर, साहित्य-विद्याधर, साहित्य सर्वज्ञ आदि उपाधियां ही पंपकी महत्ताको प्रकट करती हैं । इन्होंने अपनी रामायण में विमलसूरिके पउमचरिऊका अनुसरण किया है । रावणके दुखान्त चरित्र चित्रणमें अद्भुत कुशलताका परिचय दिया है। इन्होंने विजयपुरमें मल्लिनाथ मन्दिर बनवा कर वहीं मल्लिनाथ पुराणकी रचना की थी। नागचन्द्रने स्वयमेव कान्तिदेवीकी कवित्व विषयक उत्कृष्टताका उल्लेख किया है । 'कान्तिहं पर समस्ये' ग्रन्थ उपलब्ध है अन्य कृति कोई अबतक प्राप्त नहीं हुई है। अन्य कवियोंकी तालिका ४४७ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ निम्न प्रकारसे हो सकती है । कर्णपार्य ( ११४० ) नेमिनाथ पुराण । नेमिचन्द्र ( ११७०) लीलावती, अर्धनेमिपुराण । अग्गल ( ११८९) चन्द्रप्रभ पु० । बंघवर्म ( १२०० ) हरिवंशाभ्युदय, जीवसंवोधने । आचण्ण ( ११९५ ) वर्धमान पु० । पाइपंडित ( १२०५ ) पार्श्वनाथ पुराण । जन्न ( १२०९) अनन्तपु० यशोधरचरित । शिशुमायण ( १२३३ ) त्रिपुरदहन, अंजनाचरित्रे । गुणवर्म ( १२३५ ).पुष्पदंतपु० चन्द्राष्टक । कमलभव ( १२३५) शान्तीश्वर पुराण । अंडय्य । (१२३५ ) कब्विगर काख । कुमुदेन्दु (१२७५ ) रामायण । हस्तिमाल ( १२६०) अादिपुराण (गद्य) । शिलाहार गंगरादित्यके कालमें उत्पन्न कर्णपार्यका नेमिनाथ पुराण अद्भुत चम्पूकाव्य है । लीलावति शृंगारिक उपन्यास है जिसकी वस्तु संक्षिप्त होनेपर भी दृश्यादिके सुन्दर वर्णनोंसे ग्रन्थ दीर्घकाय हो गया है। इनकी कल्पनाने 'सूर्यको अदृष्ट तथा विधातासे अनिर्मित वस्तु भी कविसे परे नहीं' किम्बदन्तीको सत्य कर दिया है । कलाकान्त, भारती-चित्त-चोर आदि विशेषण इनकी योग्यताके परिचायक हैं। बन्धुवर्मसे पार्श्वपंडित तकके लेखक एक ही श्रेणीके हैं। जन्न कल्पनाशील न होकर भी प्रसाद पूर्ण है। यशोधरचरितमें चित्रित अहिंसा धार्मिकता तथा सांसारिकताका सुन्दर समन्वय है। दोनों ग्रन्थ महत्त्वके काव्य हैं अतएव होयसल-यादव नृपति द्वारा दत्त 'चक्रवर्ती, राजविद्वत्सभा-कलहंस, आदि उपाधियां आश्चर्य चकित नहीं करतीं । कामदहन खाण्ड-काव्य ही अंडय्यकी रव्यातिका कारण हुआ है । कवित्वके अतिरिक्त इस उपान्याससे उनका मातृभाषा प्रेम तथा उत्साह भी फूट पड़ता है। शिशुमायण तथा कुमुदेन्दुने चम्पू शैलीको त्यागकर 'सांगत्य' 'षट्पदि' छन्दोंको लेकर जनपदके जनका विशेष अनुरञ्जन किया है । ये सभी कावि अनेक भाषाओंके पंडित थे तथा संस्कृत बहुल भाषा लिखते थे । फलतः 'कन्नड संस्कृतके आश्रित है' आरोपके साथ जन-मन तृप्त नहीं हया। इसी प्रातृप्तिने बारहवीं शतीमें साहित्यिक-दार्शनिक क्रान्ति की सृष्टि की। वसवके वीरशिव मतकी स्थापना तथा 'वचनों' की रचनाने नूतन युगको जन्म दिया। जिससे प्रभावित हो नयसेनने धर्मामृत लिखकर संस्कृत शैलीके विरूद्ध क्रान्ति की थी। यह स्थिति देखकर भी उन्होंने भावी विपत्तिके प्रतिरोध तथा जन मन अनुरंजनका सुविचारित प्रयत्न नहीं किया था। जिसका परिणाम जैनधर्मके लिए घातक हुअा। तथापि कतिपय व्यक्तियोंने इस स्थितिका सामना प्रचारात्मक ग्रन्थ लिखकर किया था। ऐसे लेखकोंमें निम्न कवि प्रधान थे । ब्रह्मशिव (११२५) समयपरीक्षे, त्रैलोक्य चूड़ामणिस्तोत्र । वीरणंदि (११५३) आचारसार तथा टीका । वृत्तविलास (११७० ) प्राभृतत्रय, तत्त्वार्थ परमात्मप्रकाशिके । माघणंदि (१२६० ) शास्त्रसार समुच्चय । नागराज (१३००) पुण्यास्रव । कनकचन्द्र (१३०० ) मोक्षप्राभृत टीका । ब्रह्मशिवके समयपरीक्षेमें प्राप्तागम तथा अनाप्तागम विवेचन करते हुए वैदिक शास्त्रोंकी न्यूनताओंका संकेत किया है। किन्तु चम्पू तथा गम्भीर विषय होनेके कारण यह जन-प्रिय न हो सका Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नड़ भाषाको जैनोंकी देन वृत्तविलासकी धर्मपरीक्षाकी भी यही स्थिति है । यह अमितगतिकी धर्मपरीक्षाका कन्नड चम्पू रूप है । माधनन्दि कृत शास्त्रसारसमुच्चय जैन दर्शनका विस्तृत वर्णन करता है यह कन्नड़ भाष्य युक्त सूत्रग्रन्थ है जिसके व्याख्यान पंपके आदिपुराण आदि ग्रन्थोंके उलेल्खोंसे परिपूर्ण हैं । किन्तु ये आकस्मिक प्रयत्न न तो जनताको तुष्ट कर सके और न उनकी ज्ञान पिपासा ही बुझा सके । मल्लिकार्जुन, (१२४५) नागवर्ग (११४५ ) केशिराज ( १२६० ) आदि भी समयकी पुकारको न समझ सके । इसीलिए आलंकारिक साहित्यके महत्त्वकी सिद्ध करनेके लिए उन्होंने क्रमशः 'सुक्ति सुधार्णव' काव्यावलोकन, शब्दमणिदर्पण, आदि ग्रन्थ लिखे जो कि सूक्ति, लक्षण तथा व्याकरणके अत्युत्तम ग्रन्थ होकर भी अपने सौ वर्ष बाद ही 'षट्पद्-ियुग' के प्रारम्भको न रोक सके । वैज्ञानिक विषयोंपर लिखनेवाले कतिपय विद्वानोंकी तालिका निम्न प्रकार हैश्रीधराचार्य ( १०४९) जातकतिलक । राजादित्य ( ११२० ) व्यवहार-क्षेत्र-गणित् लीलावती चित्रहसुगे । कीर्तिवर्म (११२५ ) गोवैद्य । जगद्दलसोमनाथ (११५० ) कल्याणकारक ( कर्णाटक )। रट्टकवि ( १३०० ) रट्टमत (फ० ज्यो०)। ईनमें से भी कितने ही ग्रन्थ चम्पू शैलीमें हैं । विविध विशाल कन्नड़ साहित्यमेंसे ग्रन्थों तथा लेखकोंका यह अति संक्षप्त संकलन है । तथापि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्योंने किस प्रकार कन्नड़ भाषा तथा साहित्यका निर्माण किया है । तथा कन्नडिगोंके लिए प्राचीन आलंकारिक संस्कृतसे सम्बद्ध करके कितनी अनुपम सम्पत्ति छोड़ी है । साहित्यके सव अंगोंमें नाटक एकमात्र अंग है जिसका अनुपातिक पोषण नहीं किया गया है। तथापि 'गुदायुद्ध' आदि ग्रन्थोंमें नाटकके समस्त गुणोंके दर्शन होते हैं । Jameer ५७ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अज्ञात कन्नड़ नाटककार श्री एम० गोविन्द पाई अंगरारया कृत 'मित्रविन्द - गोविन्दा' १८०० ई० तकके कन्नड साहित्य में एकमात्र नाटक है । मैसूरके राजा चिक्कदेवराय ( १६७२ - १९०४ ) की राजसभा के शेरी वैष्णव' कवि थे । यह नाटक भी श्री हर्ष के रत्नावलि नाटकका भाषान्तर मात्र है जिसमें केवल पात्रोंकी संज्ञाएं परिवर्तित कर दी गयीं हैं। आपाततः जिज्ञासा होती है कि कालिदासके मालविकाग्निमित्रमें उल्लिखित सौमिल्ल कविपुत्रादि के नाटकों के समान किसी प्राचीनतर कन्नडिंग कविके नाटक भी तो कहीं लुप्त अथवा गुप्त नहीं हो गये हैं । महाकवि रन्नके गदायुद्ध ( १००७ ई० ) में चित्रित कञ्चुकी एवं विदूषकादि पात्रोंकी उपस्थिति विशेष कर इस ओर आकृष्ट करती है क्योंकि संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों में इनका चित्रण नहीं पाया जाता है । अतः अनुमान किया जा सकता है कि प्रारम्भमें रन्न अपनी कृतिको नाटक रूप देना चाहते थे और बाद में महाकाव्य रूप दे गये । फलतः इतना कहा ही जा सकता है कि उनके सामने संभवतः कोई नाटक अवश्य थे । गद्य-पद्यमय पञ्चतन्त्र नामका एक कन्नड ग्रन्थ है इसके रचयिता ब्राह्मण विद्वान् दुर्गसिंह हैं। इसकी लगभग पचास प्रतियों में "अति संपन्नतेवेत्त.... प्रमदलीला पुष्पिताम्रद्रुमम् ।" श्लोक पाया जाता है । तथा जो कि मुद्रित प्रतिमें नहीं है । यह ग्रन्थ प्रजापति संवत्सरकी चैत्रशुक्ला द्वादशी सोमवारको समाप्त हुआ था । ग्रन्थ के प्रारम्भ ( पृ० ३१-३८) में लिखा है कि कवि चालुक्य वंशी जगदेकमल्ल कीर्तिविद्याधरकी राजसभा में रहते थे । सगकी सन्धिमें कवि अपना उक्त राजानोंके समय में " महासन्धिविग्रहि" रूपसे भी उल्लेख करता है ? यह राजा पश्चिम चालुक्य वंशी जयसिंह – जगदेकमल्ल - कीर्त्तिविद्याधर ( १०१८१०४२ ) के सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता। फलतः गुणाढ्यकी पैशाची वृहत्कथा से 'वसुभागभट्ट ' १ "सौमिल्ल कविपुत्रादीनां प्रबन्धात् " २ मैसूर राजकीय सरस्वती सदन तथा दि० जैन सिद्धान्त भवन आरा में संचित प्रतियां । १३ कर्णाटक काव्यमञ्जरी माला में प्रकाशित २३ वां पुष्प (१८९८ ) ४५० Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अज्ञात कनड़ नाटककार द्वारा संस्कृत रूपान्तर किये गये पंचतन्त्रके कन्नड भाषान्तरका काल ६५३ शालिवाहन सं० (सोमवार ८ मार्च १०३१ई० ) होगा। ____ वाल्मीकि, व्यास, विष्णुगुप्त, गुणाढय, वररुचि, कालिदास, भवभूति आदिका स्मरण करते हुए कवि दुर्गासिंह इनके बाद ही कन्नड़ कवियोंका भी स्मरण करते हैं । जिसके पुष्ट आधारपर हम श्री विजय, कन्नमय्य, असग, मानसिज, चन्द्र भट्ट, पोन्न, पम्प, गगनांकुश तथा कविताविलासको उनका पूर्ववर्ती मान ही सकते हैं । इनमें श्री असग संस्कृत कवि भी थे जैसा कि उनके प्रकाशित वर्द्धमानचरित्र' तथा शान्तिपुराणसे स्पष्ट है । “संवत्सरे दशनवोत्तरवर्षयुक्त ।१०४।...ग्रन्थाष्टकं च समकारि जिनोपदिष्टम् ।१०५।" पद्यों द्वारा कविने “वर्धमानचरित' के रचना समयकी सूचना दी है । अर्थात् 'चोल राजा श्रीनाथके राज्य कालमें विमलानगरीमें विद्या पढ़कर मैंने ९१० संवतमें यह ग्रन्थ लिखा था । पोन्न ( ९५० ई०) अपने शान्तिनाथ पुराणमें कन्नड़ कवितामें अपनेको असगके समान लिखते हैं । फलतः वर्धमानच रतका समाप्ति काल सं० ९१० 'शालिवाहन' न होकर 'विक्रम' ही हो सकता है। फलतः ८४६ ई०३ तक राज्य करनेवाले राजा श्रीनाथ चोल कोकिल्लि अपरनाम श्रीपति होंगे तथा रचनाकाल ८५३-४ ई० होगा । छन्दकी सुविधाके कारण श्रीपतिका श्रीनाथ हो जाना तो सुकर है ही। असगकी स्तुति करनेके ठीक पहले दुर्गसिंह “अब तक कोई ऐसा सुकवि न हुआ है और न होगा जिसकी तुलना कन्नमय्यसे की जा सके। जिनका मालवी [ ती ]-माधव विद्वानोंके हृदयको मन्त्रमुग्ध करता है ।' अर्थमय पद्य द्वारा कन्नमय्यका स्मरण करते हैं । राष्ट्रकूट नृपति नृपतुंग (८१४-७७ ई) द्वारा रचित कहे जानेवाले लक्षणग्रन्थ कविराजमार्ग में कन्नड़ कवि श्रीविजयका उल्लेख है। श्रीविजयको पञ्चतन्त्रकार दुर्गसिंहने भी स्मरण किया है। यद्यपि असग तथा कन्नमय्यका कविराजमार्गमें उल्लेख नहीं है तथापि कन्नमय्य न्यूयाधिक रूपमें नृपतुगके समकालीन रहे होंगे क्योंकि उनके कुछ ही पहले असगकी मृत्यु हुई थी फलतः कन्नमय्य द्वारा 'मालवि-माधव' का रचनाकाल ८०० ई० कहा जा सकता है ' दुर्भाग्यवश यह नाटक अनुपलब्ध है फलतः विपुल कन्नड़ साहित्यमें प्रकृत श्लोकके सिवा कन्नमय्य का उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता है । मालवि-माधव नाम ही संस्कृत नाटक मालती-माधवका स्मरण दिला देता है। और उसके साथ, साथ करुण रसावतार महाकवि भवभूतिकी अमर कीर्ति भी मूर्तिमान हो उठती है । ऐसाभी स्पष्ट १. श्री रावजो सरवारम दोषी शोलापुर द्वार। प्रकाशित। २, “कन्नड़ कवितेयोल असगम् " ३, दक्षिण भारतमें ऐतिहासिक लेख पृ० ३४० । ४, “परम कवीश्वर चेती हर मैबिनमेसेव मालवी माधवं । विरचिसिद कन्नमय्यं वरमागं सुकवि बगेबोडिन्नु मुन्न ।" ४५१ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतीत होता है कि मालवि-माधव कन्नड़ नाटक था । प्रधान नायिकाके नामका भेद सूचित करता है कि यह नाटक संस्कृत नाटकका केवल भाषान्तर नहीं था अपितु स्वतंत्र कन्नड़ नाटक था। जिसमें कविने भवभूतिका प्रसिद्ध नाटक सामने रहनेके कारण संभवतः नायिकादिके आंशिक समान नाम रखे थे । दुर्गसिंह द्वारा की गयी लेखक तथा नाटककी प्रशंसा सिद्ध करती है कि ८०० ई० लगभग एक महान् कन्नड़ कविने महान् कन्नड़ नाटककी सृष्टि की थी जो कि अब लुप्त है । नाम तथा कन्नड़ साहित्यके निर्माण आदि समस्त परिस्थितियोंसे यह भी पुष्ट होता है कि कन्नमय्य जैन विद्वान थे। य ४५२ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय अश्वागम श्री पी० के० गोडे, एम० ए० आचार्य हेमचन्द्रकी (१०८८ - ११७२ ई०) अभिधान - चिन्तामणि के भूमि खण्ड में निम्नपद्य हैं“सिते तु कर्क कोकाहौ खोङ्गाहः श्वेतपिङ्गले ॥ ३०३|| पीयूषवर्णे सेराहः पीते तु हरियो हये । कृष्णवर्णे तु खुड्गाह क्रियाहो लोहितो हयः || ३०४॥ नीलस्तु नीलकोऽथ त्रियूहः कपिलो हयः । वोल्लाहरूवयमेव स्यात् पाण्डुकशेर बालधिः || ३०५ || उराहस्तु मनाक्पाण्डुः कृष्णजङ्घोभवेद्यदि । सुसाहको गर्दभाभः चोरखानस्तु पाटलः || ३०६ || कुलाहस्तु मनापीतः कृष्णः स्याद्यदि जनुनि । उकनाहः पीतरक्तच्छायः स एव तु क्वचित् ॥ ३०७॥ कृष्णरक्तच्छविः प्रोक्तः शोणः कोकनदच्छविः । हरिकः पतिहरितच्छायः एव हालकः || ३०८ || पङ्गुलः सितकाचाभः हलाहश्चित्रितो हयः ।” चुका हूं कि आ० हेमचन्द्र द्वारा दत्त इनमें वर्णके अनुसार कोकाह, खोङ्गाह, सेराह, खुङ्गाह क्रियाह, त्रियूह, बोल्लाह, उराह, सुसहक, वोरुखान, कुलाह, उकनाह, हलाह, आदि नाम आये हैं जिन्हें आचार्यने 'देशी', शब्द कहा है । उनका इन शब्दोंका विग्रह कहीं कहीं सर्वथा काल्पनिक प्रतीत होता है यथा‘वैरिणः खनति वोरुखानः । अपने एक पूर्व लेख में मैं सिद्ध कर अश्वनामों में से कितने ही नाम जयदत्त अश्वायुर्वेद 3 अध्याय तृतीय ( सर्वलक्षणाध्याय ) तथा चालुक्य नृपति सोमेश्वर कृत ल० ११३० ई० ) मनसोल्लास के 'वाजि -वाह्या लि-विनोद' ( पोलो ) में भी उपलब्ध हैं । यद्यपि आचार्य इन शब्दोंको देशी कहते हैं तथापि मुझे ये विदेशों से ये प्रतीत होते हैं । ई० की ८ वीं तथा १३ वीं शतीके मध्य भारत में बहुलतासे लाये गये घोड़ों के साथ ही ये नाम आये होंगे। ये कब किसके द्वारा आये, आदि पर फारसी और अरबीके विद्वान प्रकाश ST सकते हैं । इतना निश्चित है कि आचार्यने सावधान कोशकारके समान उस समय प्रचलित इन शब्दों को लेकर अपने कोश तथा भारतीय भाषाको कालको दृष्टिसे सर्वाङ्ग सम्पन्न किया था । १, "खोङ्गहादयः शब्दाः देशीप्रायाः " २, प्रेमी अभिनंदनग्रन्थ पृ० ८१ । ३, बिवलों का इण्डिका, कलकत्ता ८८६ । ४५३ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ उक्त निष्कर्षो तक पहुंचने के समय तक युझे यादवप्रकाश कृत 'वैजयन्ती' कोशका पता नहीं था जो आचार्य से थोड़े समय पूर्व ल० १०५० ई० में बना था। आचार्यकी जीवनी में श्री व्यूलरने — शेषाख्य नाममाला; अभिधानचिन्तामणिकी पूरक है । जिसमें जयन्तप्रकाशकी वैजयन्ती के उद्धरणोंकी भरमार है ( पृ०९१९ टि० ७३ ) " । "अभिधान चिन्तामणिके साथ पुनः प्रकाशित नाममा ला भी यादवप्रकाशके प्राचीनतर ग्रन्थ वैजयन्तीसे अत्यधिक मिलती जुलती है। तथा इससे बहुसंख्याक दुर्लभ शब्द आचार्यने लिये हैं ।" आदि लिखकर सिद्ध किया है कि आचार्य यादवप्रकाशके ऋणी हैं। यदि श्री व्यूलरका यह कथन सत्य है तो हमारे अनुमान से उपर्युल्लिखित अश्वनाम भी आचार्य ने वैजयन्तीके २ भूमिकाण्ड क्षत्रियाध्याय के ६६ - १०६ श्लोकोंसे लिये हैं । यादवप्रकाश 'अश्वानामागमे' पद द्वारा किसी अश्व शास्त्रका संकेत करते हैं जो कि जयदत्तका अश्वायुर्वेद ही हो सकता है जिसमें वर्णानुसारी अश्वनाम तृतीय अध्यायके १०० से ११० श्लोकोंमें दिये हैं। क्योंकि नकुलकृत अश्वचिकित्सित, वाग्भटकृत अश्वायुर्वेद, कल्हणकृत सारसमुच्चय तथा भोजकृत युक्तिकल्पतरू ग्रन्थों में कोकाह, खुड़ाह, आदि नाम नहीं मिलते हैं । अतः सम्प्रति यही अनुमान होता है कि यादवप्रकाशने वर्णानुसारी अश्वनामोंको संभवतः जयदत्तके 'अश्ववैद्यक' से ही लिया है। फलतः अश्वशास्त्र के विकास में कालक्रम से सर्वप्रथम अश्ववैद्यक कार श्री जयदत्त ( १००० ई० ) से पहले होंगे तथा उनके बाद यादव प्रकाश ( १०४० ई० श्र० हेमचन्द्र ( १०८८ - ११७२ ई० ) तथा सोमेश्वर ( ११३० ई० ) आवें गे । संभवतः आचार्य ने अपने कोशको किसी विशेष अश्वागम अथवा अश्वागमों के आधार से नहीं बनाया था, अपितु उनका आधार प्राचीनतर कोश ही थे जैसा कि उनके द्वारा किसी अवशास्त्रका उल्लेख नहीं किये जाने से स्पष्ट है । फारसी तथा अरबी घोड़ोंका भारत व्यापी व्यवसाय, देश के समस्त राजाश्रोंकी सेनामें उनका प्राधान्य तथा चार संस्कृत कोशकारों द्वारा उनके नामोंका अपने ग्रन्थों में दिया जाना एक ही समयकी घटना है। इन चार कोशकारोमेंसे भी जयदत्त तथा सोमेश्वर स्वयमेव शासक थे । अपने ग्रन्थकी प्रशस्तिमें जयदत्त अपने आपको 'महा सामन्त' कहते हैं यद्यपि इनका पूर्ण परिचय अत्र तक स्थिर नहीं हुआ है | और सोमेश्वर अत्यन्त संस्कृत चालुक्य शासक थे जैसाकि उनके विशाल एवं बहुमुख सांस्कृतिक ग्रन्थ 'मानसोल्लास' से स्पष्ट है। भारतीय कोश- साहित्यको समय समयपर हुए निष्णात कोशकार विद्वानोंने अपने समय में प्रचलित विदेशोद्भूत शब्दोंको भी तत्तद कोशों में लेकर हमारे शब्दभण्डारकी श्रीवृद्धि की है । जैसा कि १. श्रीमणिलाल पटेल कृत अंग्रेजी अनुवाद पृ०३६ । २. गुष्टाव ओपर्टका संस्करण (मद्रास १८९३) पृ० ११२ । ४५४ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय अश्वागम अश्वनामोंके पूर्व विवेचन से ही नहीं अपितु संस्कृत टीकाकारोंके सावधान विवेचनसे भी स्पष्ट है । यथा- 'अश्वबला' शब्दका अर्थ करते हुए डल्लण ( ल० ११०० ई० ) का उसे शाक कहना, अथवा इसकी व्याख्या में सुश्रुतका 'अश्वबला तथा गोथिका समानार्थक हैं जिसके लम्बे पत्ते होते हैं तथा जिसे तुरुष्क देश में 'हिस्फित्थ' कहते हैं, आदि । अन्यत्र ' मैं लिख चुका हूं तुर्की, फारस, अरब में हिस्फित्थ अथवा इस्पित्त अथवा अस्पित्त एक घास है जिसे खिलाकर घोड़े मोटे किये जाते हैं । अपने कोश में आगत शब्दों का विग्रह आचार्यने वैयाकरणकी दृष्टिसे किया है, फलतः उसको ऐतिहासिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता । फलतः " कोक वदाहन्ति भुवं कोकाहः, खमुद्गाहन्ते खोङ्गाहः; पृषोदरादित्वात्, सीरवदाहन्ति भुवं सेराहः, हरिं वर्णं यान्ति हरियः, खुरैर्गाहते खुङ्गाहः, क्रियां न जहाति क्रियाहः, त्रीन यूथति त्रियूहः, व्योम्नि उल्लङ्घते वोल्लाहः, उरसा हन्ति उराहः, सुखेन राहेति सुरुहकः, वैरिणः खनति वोरुखानः, कुलमाजिहीते कुलाहः, उच्चैर्नह्यते उकनाहः, हलवदाहन्ति हलाहः, हलति क्ष्मां हालकः । यदि विग्रह मौलिक एवं पांडित्यपूर्ण हो कर भी ऐतिहासिक नहीं कहे जा सकते। क्योंकि असंस्कृत शब्दोंका विग्रह संस्कृत व्याकरण अथवा कोशके आधारपर करना उचित नहीं है । इतिहास एवं भाषा के शास्त्री ही इन शब्दों की प्रामाणिक व्याख्या कर सकते हैं । फलतः उक्त ग्रन्थोंके सिवाय अन्य संस्कृत ग्रन्थों में इन नामोंकी शोध संस्कृतज्ञोंको करना चाहिये तथा फारसी और अरबीके विद्वानोंको भी इनके मौलिक उद्गमादिपर प्रकाश डालना चाहिये। तभी इनके वास्तविक विग्रह किये जा सकें गे। १ भारतीयविद्या ( बम्बई ) में प्रकाशित 'अश्वबला' लेख। २ बैक्ट्रिया (प्राचीन ईरान धन हिन्दूकुश और ओक्सस नदीके मध्यका लम्बा प्रदेश ) अथवा वालहीक, मींडों का साम्राज्य, मैडिकजड़ी, अर्थशास्त्र तथा हर्षचरित में वर्णित बालूहीक अश्व, आदिका विचार अश्वबला तथा बाल्हीक अथवा बैक्ट्रियासे सम्बन्धका संकेत करता है। ४५५ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुराणोंके स्त्रीपात्र श्रीमती ब्र० पं० चन्दाबाई जैन, विदुषीरत्न ___ साहित्य मानवताको सजीव करता है । सविशेष पुराण; ये साहित्य कलाके ऐसे अवयव हैं जिनसे मानव अपनी विचार धाराको परिष्कृत कर सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक,और आर्थिक सदाचारका निर्माण करता है । वह पौराणिक पात्रोंके जीवनके साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित कर उनके समान बननेका प्रयत्न करता है । प्रत्येक नर-नारीके जीवन तत्त्वोंकी अभिव्यक्ति नैतिकता या सदाचारके आधार पर ही हो सकती है । सत्य, त्याग, परदुःख-कारता, दृढ़ता, सहिष्णुता, स्वार्थ-हीनता, संयम, इन्द्रियजय आदि ऐसे गुण हैं जिनके सद्भावसे ही मानव जीवनकी नीव दृढ़ होती है। इन गुणोंके अभावमें मानव मानव न रहकर दानव कोटिमें चला जाता है। आत्मनिरीक्षण एक ऐसी प्रवृत्ति है जिससे व्यक्ति अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर क्षमा, मार्दव, सत्य, प्रभृति भावोंको उद्बुद्ध कर सकता है। यह आत्मनिरीक्षण प्रवृत्ति कुछ लोगोंमें सहज जागृत हो जाती है और कुछमें आगम ज्ञान द्वारा। पौराणिक पात्रों के आदर्श चरित्र व्यक्तिकी इस आत्म निरीक्षण प्रवृत्तिको बुद्ध-शुद्ध कर देते हैं, और वाचकके जीवन में सत्य और अहिंसाका भली-भांति संचार होने लगता है। _ विश्वमें सदासे नर और नारी समान रूपसे अपने कार्य कलापोंके दायित्वको निभाते चले आ रहे हैं । इसी कारण हमारे पुरुष; पुराण-निर्माताओंको भी पुरुषपात्रोंके समान नारीपात्रोंका चरित्रगत उत्कर्ष दिखलाना ही पड़ा था। जहां नारीको 'नरक नसैनी' बतलाया है, वहीं लौकिक दृष्टि से मातृत्वमें उसके समस्त गुणोंका विकास दिखाकर उसे जननीत्वके उच्च शिखरपर आरूढ़ कर जगत्पूज्य बनाया है। तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, प्रभृति महापुरुषोंको जन्म देनेवाली और लालन करने वाली नारी कदापि हीन नहीं कहीं जा सकती है। हां केवल वासना और विलासिताकी प्रतिमूर्ति नारी अवश्य उपेक्षणीय, निन्दनीय तथा घृणाकी वस्तु बतलायो गयी है । यह केवल नारीके लिए ही चरितार्थ नहीं है किन्तु नरके लिए भी हैं ! जिस पुरुषने विलास और वासनाके आवेशमें होश हव.सको भुलाकर अपना पतन किया है. पुराणोंमें उसके जीवनकी समालोचना स्पष्ट रूपमें की गयी है । पुराणकारोंने नारीके लौकिक शिव और सत्य रूपकी अभिव्यञ्जना बड़े सुन्दर ढंगसे की है। ४५६ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुराणों के स्त्रीपात्र साहित्यिक दृष्टि से कई स्थलोंपर पुरुषपात्रों की अपेक्षा नारी पात्रों के चरित्रमें अधिक आन्तरिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति हुई है । नारी पात्रों में कुछके चरित्रोंपर परिस्थितियोंके घात-प्रतिघात इस प्रकार पड़े हैं कि उनसे उनका चरित्र अत्यधिक प्रभावोत्पादक हो गया है। सीता, अंजना, राजुल, आदि कतिपय ऐसी पौराणिक नारियां हैं जिनके चरित्रका उत्कर्ष विविध परिस्थितिमों से हो कर त्यागवृत्ति में परिवर्तित होता हुआ आदर्श स्वरूप में प्रकट हुआ है । पुराणकारोंकी यह विशेषता है कि उनने पहले नारियोंका त्याग विवशावस्था में दिखलाया है किन्तु आगे उस त्यागको स्वेच्छा और आत्महितकी कामनासे कृत सिद्ध किया है । जैन पुराणोंके चरित चित्रणकी एक विशेषता यह है कि उनके नारी पात्रोंका अपना व्यक्तित्व है । राधा के समान उनके नारीपात्र पुरुषके व्यक्तित्वसे सम्बद्ध नहीं हैं किन्तु नारीकी पृथक् सत्ता स्वीकार कर पुरुषपात्रोंके समान उसके जीवनकी गतिशीलता, त्याग, साइस, शील, इन्द्रिय विजय प्रभृति अनुकरणीय गुणोंका सुन्दर अंकन किया है। लौकिक दृष्टिसे भी जैन पुराणोंके नारी पात्र सजीव रूपमें सामने उपस्थित हो कर जीवनके उत्थानकी शिक्षा देते हैं । आदिपुराण और पद्मपुराणके कुछ स्थल तो इतने सुंदर हैं कि धार्मिक दृष्टिसे उनका जितना महत्त्व है, साहित्यिक दृष्टिसे कहीं उससे अधिक है । अंजना और राजुलके विरहकी मूक वेदना इतनी मर्मस्पर्शी है कि इन दोनोंके चरित्रोंको पढ़कर ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो सहानुभूति के दो आंसू न गिरा सके । करुणा से हृदय आर्द्र हुए विना नहीं रह सकता है । वैदिक पुराण निर्माताओंने भी श्रीकृष्णके विरह में गोपिकाओं के विरही हृदयकी सुन्दर व्यंजना की है । किन्तु जहां गोपिकाओं का जीवन अपने आराध्य प्रियके जोवनके साथ सम्बद्ध है, वहां जैनपुराणोंकी नारीका जीवन स्वतन्त्र रूपमें है । पुरुष के समान आत्म विकासमें नारी भी स्वतन्त्र रूपसे अग्रसर हुई है । चहार दिवारीके भीतर रख कर जैन पुराणकारोंने उसे केवल विरह में ही नहीं तपाया है किन्तु आत्मसाधना की में गलाकर उसे पुरुषके समान शुद्ध किया है । नारीके मातृत्व के साथ उसके त्यागी जीवन का यह समन्वय जैन पुराणोंकी भारतीय साहित्यको एक अमूल्य देन है। जहां इतर भारतीय पुराणोंमें नारीका केवल एक ही जीवन दिखलायी पड़ता है वहीं जैन पुराणों में उसके दोनों पक्षोंका स्पष्ट प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है । भारतीय साहित्य की दृष्टिसे चरित्र चित्रणकी सफलताका एक प्रधान मापदण्ड यह है कि जो चरित्र जीवनको जितना अधिक ऊंचा उठा सके वह उतना ही सफल माना जाय गा । एका-एक किसीके त्याग या तपस्याकी बात मानव हृदयको प्रभावित नहीं कर सकती है, किन्तु जब यही बात संघर्षकी आग में उपकर द्वन्द्वात्मक तराजू के पलड़ोंपर भूलती हुई – कभी इधर और कभी उधर झुकती हुई मानव हृदयको प्रभावित करके एक और बोझल हो लुढ़क जाती है तो प्रत्येक व्यक्ति उसके प्रभावमें आ जाता है ५८ ४५७ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ और तदनुकूल अपने जीवन को बनानेका प्रयत्न करता है । जैन पुराणों में अंकित नारी पात्रोंका चरित्र भी मानव मात्रको आलोक प्रदान करने वाला है । जैसा कि कतिपय उद्धरणों द्वारा सिद्ध हो गा । जम्बूस्वामी चरित्रमें भवदेव अपने ज्येष्ठ भ्राताकी प्रेरणा से अनिच्छा पूर्वक मुनि हो गया था, किन्तु उसकी आंतरिक इच्छा भोगोंसे निवृत्त नहीं हुई थी ! वह सर्वदा अपनी रूपवती, गुणवती, सुशीला भार्याका स्मरण कर आनन्दानुभव किया करता था। एक दिन उसके गुरु अपने अनेक शिष्योंके साथ, जिनमें भवदेव भी था उसके नगर में आये । विषय वासनाओं से परास्त भवदेव एक मन्दिर में जाकर ठहर गया और वहां पर रहनेवाली आर्थिक से अपनी स्त्रीकी कुशल क्षेम पूंछने लगा । आर्यिकाने - भवदेवकी स्त्रीने, जो कि भवदेवके सन्यासी हो जानेपर संसारसे उदासीन होकर आर्यिका का व्रत पाल रही थी - मुनिको विचलित देखकर उपदेश दिया । आर्यिका नागवसू–भवदेवकी स्त्रीने वासना में आसक्त हुए अपने पतिको इस प्रकार पतनके गड्ढे में गिरने से बचाया । उसने केवल एक ही व्यक्तिकी रक्षा नहीं की किन्तु साधु जैसे उच्चादर्शको दोष से बचानेके कारण भारतीय उत्तम साधु परम्पराकी महत्ताका मुख भी उज्ज्वल रखा। क्या अब भी नारीको केवल वासना की मूर्ति कहा जा सकता है ? हरिवंशपुराण में अरिंजय राजाकी पुत्री प्रीतिमतीका चरित्र लौकिक और पारमार्थिक दोनों ही दृष्टियों से उत्तम है । प्रीतिमती नाना विद्याओं में प्रवीण, साहसी, और रूपवती थी। जब वह वयस्क हुई तो पिताने स्वयम्वरमें आये हुए राजकुकारों से कहा कि जो इस कन्याको तेज चलने में परास्त कर देगा और मेरूकी प्रदक्षिणा जिनेन्द्र भगवान की पूजन करके पहले आ जायगा उसीके साथ इसका विवाह किया जायगा । उपस्थित सभी विद्याधर कुमार और भूमिगोचरी राजपुत्रोंने प्रयत्न किया, किन्तु वे सभी कन्या से पराजित हुए, जिससे विरक्त होकर प्रीतिमतीने सांसारिक वासनाओं को जलाञ्जलि देकर आर्यिका व्रत ग्रहण कर लिये तथा तपश्चरण द्वारा अपने आर्जित कमको नाश किया । हरिवंशपुराण में अनेकों नारियोंके चरित्र बहुत ही सुन्दर रूपमें अंकित किये गये हैं । जिन चरित्रोंसे नारियोंकी विद्वत्ता, तपश्चर्या, कार्यनिपुणताकी छाप हृदयपर सहज ही पड़ जाती है । बनारस निवासी सोमशर्माकी पुत्री सुलसा और भद्राको विद्वत्ताका सुन्दर और हृदयग्राहक वर्णन किया है । पद्मपुराण में विशल्याका चरित्र चित्रण बहुत ही सुन्दर किया गया है । पुराणकारने बताया हैं कि उस नारी शिरोमणिमें इतना तेज था कि उसके जन्म ग्रहण करते ही सर्वत्र शान्ति छा गयी १ जम्बूस्वामी चरित्र पृ० ७१-७२ २ हरिवंशपुराण पृ० ४३२ ३ हरिवंशपुराण पृ० ३२६ । ४५८ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पुराणोंके स्त्रीपात्र थी तथा उसके भव भवान्तरोंके दिव्य चरित्रका निरूपण कर नारी चरित्रको बहुत ऊंचा उठा दिया है। आचार्यने विशल्याके चरित्रको अत्यन्त उज्ज्वल बनाया है। वस्तुतः उस नारीके चरित्रको मानवके चरित्रसे बहुत ऊपर उठा दिया है । क्या कोई भी निष्पक्ष विद्वान् उस वर्णनको देखकर नारी की महत्तासे इंकार कर सकता है ? विशल्याकी पूर्व भवावलीके वर्णनमें अनंगसराकी दीक्षाका चित्र भी कम सुन्दर नहीं है । इस चित्रने भारतीय रमणीको बहुत ऊंचा उठा दिया है। वह केवल वासना या गृहस्थीके जंजालकी कठपुतली ही नहीं रह गयी है प्रत्युत त्याग और तपस्याकी प्रतिमूर्ति बन गयी है। जैनाचार्योंकी यही सबसे बड़ी विशेषता है। इस प्रकरणके दो श्लोकोंमें नारीकी सहानुभूति और दयाका अंकन आचार्य प्रवर रविषेणने कितना सुंदर किया है । सतीको भूखा अजगर निगल रहा है, रक्षक उसकी रक्षा करना चाहते हैं । किन्तु अनंगसरा रक्षकोंको इशारेसे मना कर देती है और बतलाती है कि इस बेचारे भूखे जन्तुकी हिंसा न कीजिये । यह आत्मा अमर है विनाशशील शरीर अनादि कालसे ही उत्पन्न और नष्ट होता चला आ रहा है फिर इसमें मोह क्यों ? यह अब बच नहीं सकता । पद्मपुराणमें आचार्य रविषेणने मन्दोदरीके राग विरागात्मक गंगा जमुनी चरित्रका निर्माण कर पौराणिक नारी चरित्र चित्रणको आजके मनोवैज्ञानिक स्तरपर पहुंचा दिया है । मन्दोदरीकी दयाका चित्र देखिये "पतिपुत्र वियोग दुःखज्वलनेन विदियिता सती जाता।" "हा पुत्रेन्द्रजितेदं व्यवसितमोहक्कथं त्वया कृत्यम् । हा मेघवाहन कथं जननी नापेक्षिता दोना ॥" "त्यक्ताशेषग्रहस्थवेषरचना मन्दोदरी संयता। जाताऽत्यन्त विशुद्धधर्मनिरता शुक्लैकवस्त्राऽऽवृता।" "संशुद्धश्रमणा व्रतोरुविभवा जाता नितान्तोत्कटा।" (प० पु० भा०३ पृ० ९१-९२) जो मन्दोदरी एक क्षण पहले पति, पुत्र, पौत्र, आदिके शोकसे विह्वल दृष्टिगोचर होती है वही दूसरे क्षण बदली हुई परम धार्मिक, संसार-विरक्त, मोह मायासे हीन और आत्माकी साधिका नजर आती है। पुराण निर्माताओंका नारी चरित्रका यह विकास क्रम क्या अाजके अंतर्द्वन्दको प्रकट करनेवाला नहीं है ? मन्दोदरीकी दोलायमान मानसिक स्थितिका शब्द-चित्र क्या इससे सुंदर बन सकता है ? १५० पु० पृ. ४२५-२६ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोंका मत श्री आचार्य क्षितिमोहन सेन मध्य युगके साधकोंकी कुछ बातें कही जा रही हैं । जातिभेद तो समाजतत्त्वके साथ युक्त है । उन साधकोंके लिए धर्म ही सार था । मध्ययुगके ये साधु-संत भगवान के साथ प्रेमद्वारा युक्त किये हुए वैयक्तिक योगकी खोजमें थे। इस सम्बध प्रतिष्ठाके रास्ते, बाह्य आचार, शास्त्र, भेष प्रभृतिका प्रयोजन उन्होंने स्वीकार नहीं किया। भगवतप्रेमकी तुलनामें वे सभी उनके लिए तुच्छ थे । उन्होंने यह नहीं स्वीकार किया कि स्वर्ग में पहुंचनेके लोभसे एवं नरकवासके डरसे धर्मका प्रवर्तन हुआ है। इस प्रेम-धर्ममें उन्होंने ऐसा एक अभेद और साम्य पाया जो वेदान्तमें वर्णित अभेदसे कहीं ज्यादे सरस है। प्रेम पथके पथिक होनेकी वजहसे उन्होंने कायाको वृथा क्लिष्ट करना न चाहा। फिर भी प्रेम ही के लिए उनको देह-मनका सर्वविध कलुष, सयत्नसे परिहार करना पड़ा है। उन्होंने देहको देवालय माना है । एवं इसी देवालयमें देहातीत चिन्मय ब्रह्मकी प्रतिष्ठा की है। उनके लिए मिट्टी-पत्थरके देवालयोंमें प्रतिष्ठित मूर्तिका कोई मूल्य नहीं। बाह्य उपचारों द्वारा की गयी पूजा वे अर्थहीन समझते थे । दया, अहिंसा, मैत्रो यही उनकी साधनाएं थीं। शास्त्रों में इन साधनाओंका तत्त्व नहीं मिलता । देहके अंदर ही विश्व ब्रह्माण्डकी स्थापना है । एवं इस परम तत्त्वको गुरु ही दर्शा सकते हैं यह बात वे मानते थे । फल स्वरूप गुरू के लिए उनकी अचल भक्ति थी। साधुओं के सत्संगसे प्रेमभाव उपजता है इसलिए साधुसेवा एवं साधुसंग भी महाधर्म है। जहां भक्ति होती है वहीं भगवान विराजते हैं । बाह्य आचारोंसे क्या होगा, प्रेम ही से प्रेम उपजता है । "प्रेम प्रेम सौं होय,” (रविदास)। भगवानका स्वरूप ही प्रेम है । श्रद्धा एवं निष्ठाद्वारा क्रमसे रूचि, आग्रह एवं अनुरागकी उत्पत्ति होती है। फिर अनुरागसे प्रेम उपजता है। प्रेम उपजने पर प्रेम-स्वरूपके साथ सम्बंध कर लेना सहज हो जाता है । और जब यह सहज सम्बंध प्रतिष्ठित होता है तभी जीवनकी चरम सार्थकता मिलती है। वे गुरूसे इन सब तत्त्वोंकों सुना करते। इसलिए गुरूके प्रति उनकी श्रद्धा-भक्तिका कोई अंत न था। गुरूके प्रति इस प्रकारकी भक्तिका उल्लेख बौद्ध महायान धर्ममें, तन्त्रोंमें, पुराणोंमें, मध्य ४६० Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोंका मत युगमें सर्वत्र पाया जाता है । जैन पाहुड़ दोहोंके द्वारा भी गुरूकी महिमा सर्वत्र विघोषित हुई है । सम्भवतः यह गुरुभक्ति भी आयको आर्येतर स्थानोंसे ही मिली है। कारण वेद के आदि युगमें गुरुभक्तिका इतना प्रादुर्भाव देखनेको नहीं मिलता । धीरे धीरे इसका प्रभाव बढ़ने लगा । ब्रह्मचारियोंके लिए आचार्य वन्दनीय एवं अनुसरणीय गिने जाते थे – वन्दन एवं अनुसरण करनेकी भावनाके पीछे भी गुरुभक्तिका थोड़ा बहुत संधान मिलता है । लेकिन बाद के गुरुवाद में गुरूका स्थान और भी बड़ा है । पाश्चात्य शिक्षा एवं भारतीय शिक्षा-संस्कृति में एक विशेष प्रभेद यह है कि ग्रीस प्रभृति देशों के अधिवासियोंके गुरू विद्या बेचा करते थे । विद्या उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति थी। पैसे देकर उनको विद्या खरीदनी पड़ती थी । बोल कर गुरू इच्छानुकूल इसे बेच भी सकते थे । भारतके ब्रह्मचारी एवं गुरू सम्पूर्णं मानव समाजके पालक थे । एवं चूंकि गुरुयोंकी साधना विश्व सत्यवर केन्द्रित होती थी इसलिए उनसे अर्जित ज्ञान भी विश्वके समस्त अधिवासियों के लिए था । इसलिए गुरूयोंको ज्ञान बेचने का कोई अधिकार न था । तक्षशिला, पुरुषपुर प्रभृति स्थानोंमें ग्रीक प्रभावसे प्रभान्वित गुरू कहीं कहीं विद्या बेचा करते थे | लेकिन ऐसा करनेके कारण उनकी यथेष्ट निन्दा होती थी । भारतकी साधना में विद्या किसी भी स्थान पर व्यक्तिगत कोई वस्तु न गिनी गयी, वह सब मानवकी थी । बृहत् संहिता की भूमिका में डा० एच कर्ण० भू० पृ० ५२ ) साहबने बड़े आश्चर्य के साथ इसका उल्लेख किया है। उपनिषद के युग लेकर आज तककी भारतकी साधना में गुरुत्रों के लिए एक बड़ा स्थान है । वहां गुरू विद्या नहीं बेचते बल्कि वे शिष्यों का पालन करते हैं एवं साधना के बलसे शिष्योंको धन्य कर विश्वसाधनाको आगे बढ़ते चलते हैं । कवीर प्रभृति साधक निरक्षर हो सकते हैं, लेकिन गुरूकी कृपासे वे तत्त्वज्ञानी थे । उनकी अपनी प्रतिभा भी अतुलनीय थी इसलिए पण्डित न होने पर भी उनका किसी तरहका नुकसान नहीं हुआ । बल्कि कबीर प्रभृति साधक यदि पण्डित होते तो शायद ऐसी अपूर्व तत्वपूर्ण बातें उनके मुंहसे न निकलती । कबीर जातिके जुलाहा थे जिनपर हिन्दू-मुसलमान किसी संस्कारका बोझ न लदा था । सत्र प्राचीन संस्कारों से वे मुक्त थे । सब तरहके भारोंसे मुक्त होनेके कारण ही इतनी सहजमें उनके कानों तक भगवानकी वाणी पहुंच पायी है । बंगालके बाउल भी इसीलिए इतने मुक्त हैं । उनके गीतों में है- तोमार पथ ढेके छे मन्दिरे मसजेदे | तोमार डाक सुनि साँद चलते ना पाद रुखे दांड़ाय गुरुते मरशेदे || मन्दिर और मसजिदने तुम्हारे पास पहुंचने के रास्तेको ढक रखा है। तुम्हारी बुलाहट सुनायी दे रही है लेकिन आगे बढ़ा न जाता है । गुरु एवं मरशेद रास्तेमें डपटकर खड़े हो जाते हैं । ४६१ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रंथ गुरू एवं मरशेदके पक्षवालोंका स्वार्थ भेद बुद्धिको बनाये रखने में है। ये सब बातें उनकी जबानपर नहीं आतीं । इसलिए वे बात बातमें भेद-विभेदकी दुहाई देते हैं । कबीरको जब सब कहने लगे- "तू नीच कुलका होकर भी इन सब सत्योंका संधान कैसे पा गया ?" तो कबीरने जवाब दिया-"बरसात होनेपर पानी तो ऊंचे स्थानपर नहीं ठहरता, सब पानी बह कर नीचेकी अोर इकट्ठा होता है, सबके चरणोंके नीचे । "उचै पानी ना टिकै नीचे ही ठहराय' ॥" कबीरने फिर एक जगह कहा-'पण्डित लोग पढ़ पढ़कर पत्थर, और लिख लिखकर ईट हो गये. उनके मन में प्रेमकी एक छींट भी प्रवेश न कर पाती है। "पढ़ि पढ़िके पत्थर भये लिखि लिखि भये जू इंट। कवीर अन्तर प्रेमकी लागि नेक न छीटर ॥" संस्कृत न जाननेवाले कबीर काशीमें बैठे बैठे चारों ओर पंडितों में बेधड़के मनकी बात चलती भाषामें जोरसे प्रचार करने लगे-सब कहने लगे-“कबीर, यह क्या कह रहे हो ?" कबीर बोले"संस्कृत कुएके पानी जैसा है और भाषा है बहती जलधारा ।" "संस्कृत है कूपजल भाषा बहता नीर ॥" (वही, पृ०३७९ ) नाना संस्कृतिके मिलनसे हिन्दू (भारती) संस्कृतिको गठन होनेकी वजहसे इसमें गतिशीलताके लिए एक प्रकारकी श्रद्धा फूट पड़ती थी। ऐतरेय ब्राह्मण में इन्द्रकी सार बात 'अग्रसर हो चलो' यही देखनेको मिलती है। मध्ययुगकी सार बात-"अग्रसर हो चलो' ही है । अग्रसर न होनेकी शिक्षा हम लोगोंको आजकल अंग्रेजीके शिक्षितोंमें अधिक देखनेको मिलती है-अंग्रेजी सभ्यता असल में स्थितिशील या कन्जर्वेटिव सभ्यता है। कबीर सर्वदा सचल एवं सजीव भावोंके उपासक थे। अचलताके अंधकारक उनने किसी दिन पूजा नहीं की। वे कहते-बहता पानी निर्मल रहता है, बंधा पानी ही गंदा हो उठता है। साधक गण भी यदि सचल हों तो अच्छा है । ऐसा होनेपर किसी तरहका दोष उनको स्पर्शनहीं कर पाता है ? "बहता पानी निरमला बंदा गंदा होय । साध तो चालता भला दाग न लागै कोय ॥” ( वही पृ० ६७ ) १ बालकदासजी द्वारा प्रकाशित कबीर साहेबका साखी ग्रन्थ, पृ० ३९८ २ वही पृ० १९९ । ४६२ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोंका मत पथ चलते यदि कोई गिर भी पड़े तो कोई हरजा नहीं। "मारग चलते जो गिरै ताको नाहों दोस ॥"(वही पृ० ३६४ ) अचलताके प्रति कबीरकी भक्ति न थी। उनका प्रेम बलिष्ठ प्रेम था, इसी लिए प्रेमको साधना द्वारा उनने वीरत्वकी साधना करनी चाही थी। इस संसार में प्रवेश करते ही उन्होंने सुना कि आकाशमें रण दमामा बज रहा है, युद्धका नगाड़ा चोट खा रहा है और उस चोटकी तालसे ताल मिलाकर जीवन की बाजी लगाते हुए उनको अग्रसर हो चलना पड़ेगा। "गगन दमामा बाजिया पड़या निसान घाव ॥" कबीर कहते हैं-जिस मृत्युसे सब डरते हैं मुझे उसीसे आनन्द प्राप्त होता है । मौतकी परवाह न कर निडर होकर आगे बढ़ना होगा। "जिस मरणे थे जग डरै सो मेरे आनन्द ॥" (वही पृ० ६९) कबीर कहते हैं कि प्रेमकी कुटियापर पहुंचनेके लिए अगम्य अगाध रास्ता चलना पड़ता है। जो अपना शीश उनके चरणोंमें उपहार दे सकता है उसे ही प्रेमका स्वाद मिलता है। "कबीर निज घर प्रेमका मारग अगम अगाध । सीस उतारि पग तलि धरै तब निकटि प्रेमका स्वाद ॥ ( वही पृ०६९) साधनाका पथ दुर्गम व अगाध होने पर भी साधकोंके दल इस पथ पर चलने में कभी नहीं डरे । भारतके आकाशसे विधाताकी जो आदेशवाणी उनके दमामेंमें नित्य ध्वनित होती है, वही सब साधनाकी समन्वयवाणी है। इस पथपर जो साधक आते हैं उनके दुःख-दुर्गति-लांछनका कोई अंत नहीं रह जाता है । उनके लिए घर और बाहर सर्वत्र दिन रात उत्पीड़न व अत्याचार प्रतीक्षा किया करता है । इतना होने पर भी भारतके यथार्थ तपस्वियों का दल इन सब विपदोंसे भीत होकर पीछे न हटा । युगयुगमें उनका आविर्भाव होता ही रहा । वीर लड़ाईके मैदानमें चला,वह भला क्यों पश्चाद पद होने लगा ? "सूरा चढ़ि संग्राम को पाछा पग क्यों देइ ॥” ( दादू, सुरातन अङ्ग, १३) यही है वीरोंकी साधना-पथ, यहां कापुरुषोंका स्थान नहीं । "कायर काम न आवइ बहुसूरेका खेत ॥” ( वही, १५ ) अष्ट प्रहर साधनाका यह युद्ध बिना खड़गके चल रहा है; "आठ पहरका जूझना विना खाँडै संग्राम ।" (साखी ग्रन्थ सुरमा अङ्ग, ५९ ) १ नागरी प्रचारिणी सभाकी कबीर थायली पृ० ६८ । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ रहा है; धरणी एवं आकाश में कम्पन जारी है, समस्त शून्यताको भरदेने वाला गर्जन सुनायी पड़ धरणी श्राकाशा थर हरै गरजै सुन के वीच ॥ ( साखी ग्रन्थ, सुरमा अङ्ग, १२३ ) इतनी अड़चनोंके होते हुए भी युग-युगमें भारतीय साधकोंके दल अपनी मैत्री एवं समन्वयकी विराट साधनाको लेकर निर्भयता के साथ वीरोंकी तरह अग्रसर हुए हैं। बाहरकी बाधाएं एवं घरका विरोध बीच बोचमें उनके पथमें बाधा स्वरूप होकर अवश्य खड़े हुए हैं लेकिन उनकी साधना की अग्रगतिको सर्वदा के लिए रोक न सके । विधाताकी वह महान् आदेश वाणी अभी भी जिनके कानोंमें पहुंचेगी उनकी प्रतिहत गति में किसी तरहको विधि निषेध, कोई दुःख विपद बाधा, जरासा भी उनके अग्रगमन में रुकाव न डाल सकेगा । ४६४ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययुगीन सन्त-साधनाके जैन मार्गदर्शकश्री आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्यके जिस अंगका नाम 'सन्त साहित्य' है वह विक्रमकी चौदहवीं शतीके बाद प्रकट हुआ है । इसका प्रधान स्वर भक्ति और प्रेम है । दक्षिणके रामानुज, रामानंद श्रादि आचार्योंकी प्रेरणासे यह भक्ति-साहित्य प्राणवान हुआ था । लेकिन यह साहित्य केवल दक्षिणके वैष्णव प्राचार्यों का अनुकरण या अनुवाद नहीं है। उत्तरके शैव, शाक्त, बौद्ध और जैन साधकोंने इसके लिए भूमि तयार कर रखी थी । इस सन्त-साहित्यकी पृष्ठभूमिके अध्ययन के लिए जिस प्रकार पुराण, आगम, तंत्र, और वैष्णव संहिताएं आवश्यक हैं उसी प्रकार सहज-यानियों, नाथ-पंथियों, निरंजनियों और जैन साधकों के लोक भाषामें लिखे ग्रन्थ भी आवश्यक हैं, बल्कि सच पूछा जाय तो यह दूसरे प्रकारके साहित्य ही अधिक आवश्यक हैं। ___ अठवी-नवीं शतीमें वह विशाल नाथ-संप्रदाय श्राविर्भूत हुआ था जिसने लगभग समूचे उत्तर भारतको प्रभावित किया था। आज भी इस संप्रदायके स्थान कामरूपसे काबुल तक फैले हुए हैं । नाथ-पंथीं सिद्धोंमें से अनेक ऐसे हैं जो वज्रयानके आचार्य भी माने जाते हैं। इन दिनों नाथपंथी योगियोंमें अनेक पुराने संप्रदायोंके योगी रह गये हैं । इन में लकुलीश, बौद्ध, वाममार्गी योगी तो हैं ही; वैष्णव और जैन योगी भी हैं । वस्तुतः आठवीं-नवीं शतीमें एक ऐसे शक्तिशाली लोकधर्मका आविर्भाव हुआ था जो किसी संप्रदाय विशेषमें बद्ध नहीं था। इस शक्तिशाली लोकधर्मका केंद्रबिंदु 'योग' था । 'योग' में भी काया-योग या हठयोग ही उसका प्रधान साधन मार्ग था । बाह्याचारका विरोध,चित्तशुद्धिपर जोर देना, पिंडको ही ब्रह्माण्डका संक्षिप्त रूप मानना, और समरसी भावसे स्वसंवेदन आनन्दके उपभोगको ही परम आनन्द मानना इस योगकी कुछ खास विशेषताएं थीं । सन् ईसवीकी आठवीं नवीं शतीमें 'जोइन्दु' या योगेन्द्र नामके जैन साधक हो गये हैं । उनकी अपभ्रंश रचनात्रों में वे सभी विशेषताएं पायी जाती हैं जो उस युगकी साधनामें मुख्य रूपसे, घूम फिरकर बार बार आ जाया करती है । इसी प्रकार जोइन्दुके प्रायः एक शती बाद उत्पन्न हुए मुनि रायसिंहजी के पाहुड़ दोहे पाये गये हैं जिनमें बाह्याचारका खण्डन और देहमें परमशिवके मिलनका बड़ा भावपूर्ण और सुन्दर वर्णन पाया जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन साधकोंके ग्रंथों में 'परमात्मा' या 'निरंजन' का ठीक वही अर्थ नहीं है जो ४६५ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ शैव या शाक्त लोगोंके ग्रन्थोंमें गृहीत हैं । जैन सन्त अगणित आत्माओंमें विश्वास करते हैं । ये आत्मा मुक्त होकर अलग वर्तमान रहते हैं परन्तु उनका गुण एक होनेसे वे 'एक' कहे जा सकते हैं । यह पद ज्ञानसे प्राप्त हो सकता है और ज्ञानका सबसे बड़ा साधन चित्तशुद्धि है। जोइन्दुने परमात्मप्रकाशमें (२७० ) कहा है कि हे जीव ! जहां खुशी हो जानो और जो मर्जी हो करो किन्तु जब तक चित्त शुद्ध नहीं होता तब तक मोक्ष नहीं मिलनेका जहिं भावइ तहिं जाइ जिय, जं भावइ करि तं जि । केम्बइ मोक्ख ण अत्थि पर , चित्तह शुद्धि ण जंजि । और दान करनेसे भोग मिल सकता है, तप करनेसे इन्द्रासन भी मिल सकता है परन्तु जन्म और मरणसे विवर्जित शाश्वत पद पाना चाहते हो तो वह तो ज्ञानसे ही मिल सकता है दाणिं लम्भइ भोउ पर, इंदत्तणु पि तवेण । जम्मण मरण विवजियउ, पउ लब्भइ णायेण ॥ (प० प्र० २-७२) जब यह मोक्ष प्राप्त हो जाय गा तब आत्मा ही अन्य आत्माओं के समान 'परम'-आत्माका पद प्राप्त कर लेगा । कहना नहीं होगा यह मत शैव, शाक्त साधकोंके मतसे भिन्न है, परन्तु भिन्नता पंडितोंके शास्त्रार्थका विषय है। साधारण जनताके लिए यह बात विशेष चिन्तित नहीं करती कि मरनेके बाद वह चिन्मय सत्तामें विलीन हो जायगा या अलग बना रहेगा, या एकदम लुप्त हो जायगा । मरण और जन्मके चक्कर में फिर नहीं पड़ना पड़ेगा, इस विषयमें दो मत नहीं है। इसीलिए साधारण जनताके लिए यह उपदेश ही काफी है कि दान और तपकी अपेक्षा ज्ञान और चित्तशुद्धि श्रेष्ठ हैं । वस्तुतः इन रचनात्रोंमें अधिकांश पद ऐसे हैं जिनपरसे 'जैन' विशेषण हटा दिया जाय तो वे योगियों और तांत्रिकोंकी रचनाओं जैसी ही लगें गी। परवर्ती सन्तोंकी रचनाओंसे तो इनमें अद्भुत साम्य है। जब जैन साधक जोइंदु कहते हैं कि देवता न तो देवालयमें है. न शिलामें, न चंदन प्रभृति लेपन पदार्थों में, और न चित्रमें, बल्कि वह अक्षय निरंजन ज्ञानमय शिव तो समचित्तमें निवास करता है देउ ण देवल णवि सिलए, ण वि लिप्पइ णवि चित्ति । अखउ णिरअणु णाणमउ, सिउ संटिंउ समचिति ॥ . (परमात्मप्रकाश १-१२३) तो यह भाषा कबीर और दादू जैसे सन्तोंकी लगती है। निस्सन्देह ये जैन साधक परवर्ती भक्ति-साहित्यके पुरस्कर्ताओंमें गिने जायगे । ४६६ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ययुगीन सन्त साधनाके जैन मार्गदर्शक बाहरी वेश-भूषा, नहाना-धोना या ऊपरी मनसे जपतप वस्तुतः कोई विशेष सिद्धि नहीं देते, इस बातका प्रचार इन जैन साधकोंने बड़ी शक्तिशाली भाषामें किया है। मुनि रामसिंहने भेषकी व्यर्थता दिखानेके लिए सांपकी कैंचुलीसे उपमा दी है। ऊपरी आवरणको सांप छोड़ देता है और नवीन आवरण धारण करता है। इससे उसका विष थोड़े ही नष्ट होता है। इसी प्रकार भेष बदल कर साधु बन जानेसे आदमी शुद्ध नहीं होता । इसके लिए आवश्यक है भोग-भावका परित्याग । जब तक यह नहीं होता तब तक नाना वेषोंके धारणसे क्या लाभ है ? सप्पि मुक्की कंचुलिय जं विसु तंण मरेइ । भोयहं भाव ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ । - मुनि रामसिंहने लिखा है कि हे योगी, जिसे देखनेके लिए तू तीर्थों में घूमता फिरता है वह शिव भी तो तेरे साथ साथ घूम रहा है, फिर भी तू उसे नहीं पा सका जो पइं जोइउं जोइया तित्थई तित्थ भमोइ। . .. सिउ पइसिहं हहिडियउ, लहिवि ण सक्किउ तोइ ॥ इसे पढ़ते ही कबीरदासका वह प्रसिद्ध भजन याद आ जाता है जिसमें कहा गया है'मोको कहां ढूढ़े बंदे, मैं तो तेरे पासमें।' परम प्राप्तव्य इस शरीरके बाहर नहीं हैं, जो कुछ ब्रह्मांड में प्राप्त है वह सभी पिंडमें पाया जा सकता है। यह उस युगकी प्रधान विशेषता है। इन जैन साधकोंने भी अपने ढंगसे इस सत्यका प्रचार किया है । मुनि रामसिंहने कहा है कि ए मूर्ख ! तुम देवालयोंको क्या देखते फिरते हो। इन देवालयोंको तो साधारण लोगोंने बना दिया है। तुम अपना शरीर क्यों नहीं देखते जहां शिवका नित्य वास है ? मूढ़ा जोवइ देवलई, लोयहिं जाइं कियाई । देह ण पिच्छइ अप्पणिय, जहिं सिउ संतु ठियाई ॥ पुस्तकी विद्यासे वह परम प्राप्तव्य नहीं पाया जाता । कथन मात्रसे उसे नहीं उपलब्ध किया जा सकता । गोरखनाथने रटंत विद्याका परिहास करते हुए कहा था "पढ़ा-लिखा सुत्रा विलाई साया, पंडितके हाथां रह गई पोथी" तोता सब शास्त्र पढ़ जाय तो भी विलाईके हाथसे नहीं बच पाता और हाथमें पोथी लिये लिये पंडित मायाका शिकार हो जाता है। जोइन्दुने भी पुस्तकी विद्याकी व्यर्थता बतायी है । यह जो चेला-चेलियोंका ठाट बाट है, पोथियोंका अम्बार है, इनके चक्करमें पड़ा हुआ जीव भले ही प्रसन्न हो ले परन्तु है यह अनुभवगम्य सत्यके लिए अन्तराय ही है (परमात्मप्रकाश २,८८ ) जब तक चित्त Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ विषय विकारसे दूषित है तब तक उसमें शिवका साक्षात्कार असंभव है । 'ए योगी, निर्मल मनमें ही परमशिवका साक्षात्कार होता है, घन रहित निर्मल नभोमण्डल में ही सूर्य स्फुरित होता है जोइय णित्र मणि णिम्मलए पर दीसह सिव सन्तु । अम्बर निम्मल घण रहिए भागु जि जेम फुड़न्तु ॥ ( प० प्र० १०११९ ) यह खेदकी बात है कि निरंजन और निर्गुण मतके अनुयायी साधकों के साहित्य के अध्ययन के प्रसंग में अभीतक इन जैन साधकोंके साहित्यका उपयोग नहीं किया गया है । रामसिंह जोइन्दुके अतिरिक्त और कोई भी साधक इस श्रेणीके कवि हुए हैं या नहीं यह हमें मालूम नहीं है । मेरा विश्वास है कि जैन भाण्डारोंमें अभी इस प्रकारके अनेक ग्रंथ पड़े हुए हैं। उनके सुसंपादित संस्करणकी बड़ी आवश्यकता है और साथ ही सन्त साहित्य के शोधकों का भी यह कर्तव्य है कि वे पोथियोंसे ही सन्तु न रहकर इन अज्ञात उत्सों की खोज खबर लें । ४६८ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय-ज्योतिषका पोषक जैन-ज्योतिष श्री पं० नेमिचन्द्र जैन, शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न, ज्यौतिषाचार्य __ भारतीय आचार्योंने "ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्" ज्योतिष शास्त्रकी व्युत्पत्ति की है अर्थात् सूर्यादि ग्रह और कालका बोध करानेवाले शास्त्रको ज्योतिष शास्त्र कहा है । इसमें प्रधानतया ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु, आदि ज्योतिःपुओंका स्वरूप, संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओंका निरूपण तथा ग्रह, नक्षत्रोंकी गति, स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ फलोंका कथन किया जाता है। ज्योतिषशास्त्र भी मानवकी आदिम अवस्थामें अंकुरित होकर ज्ञानोन्नतिके साथ-साथ क्रमशः संशोधित और परिवर्धित होता हुआ वर्तमान अवस्थाको प्राप्त हुआ है। भारतीय ऋषियोंने अपने दिव्यज्ञान और सक्रिय साधना द्वारा अाधुनिक यन्त्रोंके अभाव मय प्रागितिहासकालमें भी इस शास्त्रकी अनेक गुत्थियोंको सुलझाया था। प्राचीन वेधशालाओं को देखकर इसीलिए आधुनिक वैज्ञानिक आश्चर्यचकित हो जाते हैं। ज्योतिष और आयुर्वेद जैसे लोकोपयोगी विषयोंके निर्माण और अनुसन्धान द्वारा भारतीय विज्ञानके विकासमें जैनाचार्योंने अपूर्व योग दान दिया है। ज्योतिषके इतिहासका आलोडन करने पर ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों द्वारा निर्मित ज्योतिष ग्रन्थोंसे जहां मौलिक सिद्धान्त साकार हुए वहीं भारतीय ज्योतिषमें अनेक नवीन बातोंका समावेश तथा प्राचीन सिद्धान्तोंमें परिमार्जन भी हुए हैं । भारतका इतिहास ही बतलाता है कि ईस्वी सन्के सैकड़ों वर्ष पूर्व भी इस शास्त्रको विज्ञानका स्थान प्राप्त हो गया था । इसीलिए भारतीय आचार्योंने इस शास्त्रको समयसमय पर अपने नवीन अनुसन्धानों द्वारा परिष्कृत किया है। जैन विद्वानों द्वारा रचे गये ग्रन्थोंकी सहायताके विना इस विज्ञानके विकास-क्रमको समझना कठिन ही नहीं, असंभव है। ग्रह, राशि और लग्न विचारको लेकर जैनाचार्योंने दशकों ग्रन्थ लिखे हैं। आज भी भारतीय ज्योतिषकी विवादास्पद अनेक समस्याएं जैन ज्योतिषके सहयोगसे सुलझायी जा सकती हैं। यों तो भारतीय ज्योतिष का शृङ्खलाबद्ध इतिहास हमें आर्यभट्टके समयसे मिलता है, पर इनके पहलेके ग्रन्थ वेद, अंग साहित्य, ब्राह्मण ग्रन्थ, सूर्यप्रशप्ति, गर्गसंहिता, ज्योतिषकरण्डक एवं वेदाङ्गज्योतिष प्रभृप्ति ग्रन्थोंमें ज्योतिष शास्त्रकी अनेक महत्त्वपूर्ण बातोंका वर्णन है । वेदाङ्गज्योतिष में पञ्चवर्षीय युगपर से Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ उत्तरायण और दक्षिणायन के तिथि, नक्षत्र एवं दिनमान आदिका साधन किया गया है। इसके अनुसार युगका आरम्भ माघ शुक्ल प्रतिपदा के दिन सूर्य और चन्द्रमाके धनिष्ठा नक्षत्र सहित क्रान्तिवृत्त में पहुंचने पर माना गया है । वेदाङ्ग ज्योतिषका रचनाकाल कई शती ई० पू० माना जाता है । इसके रचनाकालका पता लगाने के लिए विद्वानोंने जैन ज्योतिषको ही पृष्ठभूमि स्वीकार किया है । वेदाङ्ग ज्योतिषपर उसके समकालीन षट्खण्डागममें उपलब्ध स्फुट ज्योतिष चर्चा, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं ज्योतिषकरण्डक आदि जैन ज्योतिष ग्रन्थोंका प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है । जैसा कि 'हिन्दुत्व' के लेखक के "भारतीय ज्योतिष में यूनानियों की शैलीका प्रचार विक्रमी सम्वत् से तीन सौ वर्ष पीछे हुआ | पर जैनों के मूल ग्रन्थ अङ्गों में यवन ज्योतिषका कुछ भी आभास नहीं है । जिस प्रकार सनातनियोंकी वेदसंहिता में पञ्चवर्षात्मक युग है और कृत्तिकासे नक्षत्र गणना है उसी प्रकार जैनोंके अङ्ग ग्रन्थों में भी है; इससे उनकी प्राचीनता सिद्ध होती है २ ।" कथन से सिद्ध है । सूर्यप्रज्ञप्तिमें पञ्चवर्षात्मक युगका उल्लेख करते हुए लिखा है "श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन सूर्य जिस समय अभिजित् नक्षत्र पर पहुंचता है उसी समय पञ्चवर्षीय युग प्रारंभ होता है ।" अति प्राचीन फुटकर उपलब्ध षट्खण्डागमको ज्योतिष चर्चासे भी इसकी पुष्टि होती है । वेदाङ्गज्योतिषसे पूर्व वैदिक ग्रन्थोंमें भी यही बात है । पञ्चवर्षात्मक युगका सर्व प्रथमोल्लेख जैन ज्योतिष में ही मिलता है। डा० श्यामशास्त्रीने वेदाङ्गज्योतिष की भूमिका में स्वीकार किया है कि वेदाङ्गज्योतिष के विकास में जैन ज्योतिषका बड़ा भारी सहयोग है विना जैनज्योतिष के अध्ययन के वेदाङ्ग ज्योतिषका अध्ययन अधूरा ही कहा जायगा। प्राचीन भारतीय ज्योतिष में जैनाचार्योंके सिद्धान्त अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं । जैन ज्योतिष में पौर्णमास्यान्त मास गणना ली गयी है, किन्तु याजुष - ज्योतिष में दर्शान्त मास गणना स्वीकार की गयी है । इससे स्पष्ट है कि प्राचीन कालमें पौर्णमास्यान्त मास गणना ली जाती थी, किन्तु यवनोंके प्रभाव से दर्शान्त मास गणना ली जाने लगी। बादमें चान्द्रमासके प्रभावसे पुनः भारतीय ज्योतिर्विदोंने पौर्णमास्यान्त मास गणनाका प्रचार किया लेकिन यह पौर्णमास्यान्त मास गणना सर्वत्र प्रचलित न हो सकी। प्राचीन जैन ज्योतिषमें हेय पर्व तिथिका विवेचन करते हुए अमके सम्बन्ध में बताया गया है" कि एक सावन मासको दिन संख्या ३० और चान्द्रमासकी दिन संख्या १ स्वराक्रमेते सोमा यदा साकं सवासवी। स्यात्तदादि युगं माघस्तपरशुक्लोऽयनं हूयुदक ।। प्रपद्ये ते श्रवादी सूर्याचन्द्रमसावुदक । सर्प दक्षिणा करतु माघश्रावणयोरसदा || ( वेदाङ्ग ज्योतिष पृ० ४-५ ) २ हिन्दुत्व पृ० ५८१ । ३ " सावण बहुल पडिवए वालवकरणे अभीइ नक्खते । सम्वत्थ पडम समये जु+स्स आई वियाणाहि ॥ " ४ वेदाङ्गज्योतिष की भूमिका, पृ० ३ । ५ – सूर्य प्रज्ञप्ति, पृ० २१६-१७ ( मलयगिर टीका ) । ४७० Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय-ज्योतिषका पोषक जैन-ज्योतिष २६+३२।६२ है । सावन मास और चान्द्रमासका अन्तर अवम होता है अतः ३०-२९+३२/६२ = ३०/६२ अवम भाग हुआ, इस अवमकी पूर्ति दो मासमें होती है।" अनुपातसे एक दिनका अवमांश १/६२ आता है । यह सूर्यप्रज्ञप्ति सम्मत अवमांश वेदाङ्गज्योतिषमें भी है। वेदाङ्गज्योतिषकी रचनाके अनन्तर कई शती तक इस मान्यतामें भारतीय ज्योतिषने कोई परिवर्तन नहीं किया लेकिन जैन ज्योतिषके उत्तरवर्ती ज्योतिषकरण्डक आदि ग्रन्थों में सूर्यप्रज्ञप्ति कालीन स्थूल अवमांशमें संशोधन एवं परिवर्तन मिलता है, प्रक्रिया निम्न प्रकार है इस काल में ३०/६२ की अपेक्षा ३१/६२ अवमांश माना गया है। इसी अवमांश परसे त्याज्य तिथिकी व्यवस्था की गयी है। इससे वराहमिहिर भी प्रभावित हुए हैं उन्होंने पितामहके सिद्धांतका उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'रवि शशिनोः पञ्चयुगवर्षाणि पितामहोपदिष्टानि । अधिमासस्त्रिंशद्भिर्मासैरवमो द्विषष्ट्या तु ॥' अतः स्पष्ट है कि अवम-तिथि क्षय सम्बन्धी प्रक्रियाका विकास जैनाचार्योंने स्वतन्त्र रूपसे किया । समय-समयपर इस प्रक्रियामें संशोधन एवं परिवर्तन होते गये। वेदाङ्गज्योतिष में पौंका ज्ञान करानेके लिए दिवसात्मक ध्रुवराशिका कथन किया गया है। यह प्रक्रिया गणित दृष्टि से अत्यन्त स्थूल है । जैनाचार्योंने इसी प्रक्रियाको नक्षत्ररूपमें स्वीकार किया है। इनके मतसे चन्द्र नक्षत्र योगका ज्ञान करनेके लिए ध्रुवराशिका प्रतिपादन निम्न प्रकार हुआ है "चउबीससमं काऊण पमाणं सत्तसट्टिमेव फलम् । इच्छापव्वेहिं गुणं काऊणं पज्जया लद्दा ॥" अर्थात् ६७/१२४४१८३०/६७ = ९१५/६२ = १४+४७/६२ = १४+९४/१२४की पर्व ध्रुवराशि बतायी गयी है । तुलनात्मक दृष्टि से वेदाङ्गज्योतिष सम्मत और जैनमान्यताकी ध्रुवराशिपर विचार करनेसे स्पष्ट है कि नक्षत्रात्मक ध्रुवराशिका उत्तरकालीन राशिके विकासमें महत्त्वपूर्ण योग है। आगे इसी प्रक्रियाका विकसित रूप क्रान्तिवृत्तके द्वादशभागात्मक राशि है। पञ्चवर्षात्मक युगमें जैनाचार्योंकी व्यतीपात-आनयनसम्बन्धी प्रक्रियाका उत्तरकालीन भारतीय ज्योतिषमें महत्त्वपूर्ण स्थान हैं । ज्योतिष करण्डककी निम्न गाथाओंमें इस प्रक्रियाका विवेचन मिलता है। अयणाणं सम्बन्धे रविसोमाणं तु वे हि य जुगम्मि । जं हवइ भागलद्धं वइहया तत्सिया होन्ति ॥ वायत्ततरीपमाणे फलरासी इच्छिते उ जुगभेए । इच्छिय वइवायपि य इच्छं काऊण आणे हि ॥ १-'द्वाषष्ठितमघस्रस्य ततस्सूर्योदयक्षणे । उपस्थिता पूर्वरीत्या द्राक त्रिषष्टितमी तिथिः ।।' टाना ." . .. २–'निरेक द्वादशाभ्यस्तं द्विगुणं रूपसंयुतम् । षष्ठ्या षष्ठ्या युतं द्वाभ्यां पर्वणां राशिरुच्यते ।' -वेदांगज्योतिष [ याजुष ज्योतिष सोमाकर सुधाकर भाष्याभ्यां सहितम् ], पृ० २० । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ ___ इन गाथाओंकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरने "इह सूर्याचन्द्रमसौ स्वकीयेऽयने वर्तमानौ यत्र परस्परं व्यतिपततः स कालो व्यतिपातः तत्र रविसोमयोः युगे युगमध्ये यानि अयनानि तेषां परस्पर सम्बन्धे एकत्रमेलने कृते द्वाभ्यां भागो ह्रियते । हृते च भागे यद्भवति भागलब्धं तावन्तः तावत्प्रमाणाः युगे व्यतिपाता भवन्ति ॥" गणितक्रिया -७२ व्यतिपातमें १२४ पर्व होते हैं तो एक व्यतिपातमें क्या ? ऐसा अनुपात करनेपर--१२४४१/७२= १+५२/७२४१५ = १०+६०/७२ तिथि ६०/७२४३० = २५ मुहूर्त । व्यतिपात ध्रुवराशिकी पट्टिका एक युगमें निम्न प्रकार सिद्ध होगी तिथि (१) १२४/७२४१% (२) १२४/७२४२ = ( ३ ) १२४/७२४३ = (४) १२४/७२ ४४ = (५) १२४/७२४५ = (६)१२४/७२४६ = (७) १२४/७२४७ = (८) १२४/७२ ४८= (९) १२४/७२४९ = (१०) १२४/७२४१० = grur VAM ~ जहां वेदाङ्गज्योतिषमें व्यतिपातका केवल नाममात्र उल्लेख मिलता है, वहां जैन ज्योतिषमें गणित सम्बन्धी विकसित प्रक्रिया भी मिलती है। इस प्रकियाका चन्द्रनक्षत्र एवं सूर्यनक्षत्र सम्बन्धी व्यतिपातके आनयनमें महत्त्वपूर्ण उपयोग है । वराहमिहिर जैसे गणकोंने इस विकसित ध्रुवराशि पट्टिकाके अनुकरण पर ही व्यतिपात सम्बंधी सिद्धान्त स्थिर किये हैं। जिस कालमें जैन-पञ्चाङ्गको प्रणालीका विकास पर्याप्त रूपमें हो चुका था उस काल में अन्य ज्योतिषमें केवल पर्व, तिथि, पर्वके नक्षत्र एवं योग आदिकके आनयनका विधान ही मिलता है । पर्व और तिथियों में नक्षत्र लानेकी जैसी सुन्दर एवं विकसित जैन प्रक्रिया है, वैसी अ य ज्योतिषमें छठी शतीके बादके ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। काललोकप्रकाशमें लिखा है कि युगादिमें अभिजित् नक्षत्र होता है । चन्द्रमा अभिजित्को भोगकर श्रवणसे शुरू होता है और अग्रिम ३, ज्योतिष करण्डक पृ० २००-२०५ । ( पूर्व पृठात् ) ४७२ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय-ज्योतिषका पोषक जैन ज्योतिष प्रतिपदाको मघा नक्षत्र पर आता है। नक्षत्र लानेकी गणित प्रक्रिया इस प्रकार है-पर्वकी संख्याको १५ से गुणा कर गत तिथि संख्याको जोड़ कर जो हो उसमें दो घा कर शेषमें ८२ का भाग देनेसे जो शेष रहे उसमें २७ का भाग देनेपर जो शेष अवे उतनी ही संख्या वाला नक्षत्र होता है, परन्तु यह नक्षत्र-गणना कृत्तिकासे लेनी चाहिये। प्राचीन जैन ज्योतिषमें सूर्य संक्रान्तिके अनुसार द्वादश महीनोंकी नामावली भी निम्न प्रकार मिलती है प्रचलित नाम श्रावण भाद्रपद आश्विन कार्तिक मार्गशीर्ष पौष सूर्य संक्रान्तिके अनुसार जैन महिनोंके नाम अभिनन्दु सुप्रतिष्ठ विजया प्रीतिवर्द्धन श्रेयान् शिव যিছি माघ फाल्गुन हमवान् चैत्र वसन्त वैशाख कुसुमसंभव ज्येष्ठ निदाघ आषाढ़ वनविरोधी इस मास प्रक्रियाके मूलमें संक्रान्ति सम्बन्धी नक्षत्र रहता है । इस नक्षत्रके प्रभावसे ही अभिनन्दु आदि द्वादश महीनोंके नाम बताये गये हैं । जैनेतर भारतीय ज्योतिषमें भी एकाध जगह दो चार महीनोंके नाम आये हैं। वराहमिहिरने सत्याचार्य और यवनाचार्यका उल्लेख करते हुए संक्रान्ति संबंधी नक्षत्रके हिसाबसे मास गणनाका खण्डन किया है। लेकिन प्रारंभिक ज्योतिष सिद्धान्तोंके ऊपर विचार करनेसे यह स्पष्ट है कि यह मास प्रक्रिया बहुत प्राचीन है ऋक् ज्योतिषमें एक स्थानपर कार्तिकके लिए प्रीतिवर्द्धन और आश्विनके लिए विजया प्रयुक्त हुए हैं। इसी प्रकार जैन ज्योतिषमें सम्वत्सरकी प्रक्रिया भी और मौलिक व महत्त्वपूर्ण है । जैनाचार्योंने जितने विस्तारके साथ इस सिद्धान्तके ऊपर लिखा है उतना अन्य सिद्धान्तोंके सम्बन्धमें नहीं । प्राचीन १ "नक्षत्राणां परावर्त ....." इत्यादि । काललोकप्रकाश, पृ० ११ । ६० ४७३ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ कालमें भी जैनाचार्योंने सम्वत्सर-सन्बन्धी जो गणित और फलितके नियम निर्धारित किए हैं वे जैनेतर भारतीय ज्योतिषमें आठवीं शतीके बाद व्यवहृत हुए हैं । नाक्षत्र सम्वत्सर, ३२७ + ५२; युग सम्वत्सर पांच वर्ष प्रमाण, प्रमाण सम्वत्सर, शनि सम्वत्सर । जब बृहस्पति सभी नक्षत्रसमूहको भोग कर पुनः अभिजित् नक्षत्र पर आता है तब महानाक्षत्र सम्वत्सर होता है। फलित जैन ज्योतिषमें इन सम्वत्सरोंके प्रवेश एवं निर्गम आदिके द्वारा विस्तारसे फल बताया है, अतः निष्पक्ष दृष्टि से यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भारतीय ज्योतिषके विकासमें जैन सम्वत्सर प्रक्रिया का बड़ा भारी योग दान है । षट्खण्डागम धवला टीकाके प्रथम खण्ड गत चतुर्थांशमें प्राचीन जैन ज्योतिषकी कई महत्त्वपूर्ण बातें सूत्ररूपमें विद्यमान हैं उसमें समयके शुभाशुभका ज्ञान करानेके लिए दिनरात्रि के (१) रौद्र (२) श्वेत (३) भैत्र (४) सारभट (५) दैत्य (६) वैरोचन (७) वैश्वदेव (८) अभिजित् (९) रोहण (१०) बल (११) विजय (१२) नैऋत्य (१३) वरुण (१४) अर्यमन् और (१५) भाग्य मुहूर्त बताये हैं। इन दिनमुहूत्तों में फलित जैन ग्रन्थोंके अनुसार रौद्र, सारभट, वैश्वदेव; दैत्य और भाग्य यात्रादि शुभ कार्यों में त्याज्य हैं । अभिजित् और विजय ये दो मुहूर्त सभी कार्यों में सिद्धिदायक बताये गये हैं । आठवीं शतीके जैन ज्योतिष सम्बन्धी मुहूर्त्तग्रन्थों में इन्हीं मुहूर्तोंको अधिक पल्लवित करके प्रत्येक दिनके शुभाशुभ कृत्योंका प्रहरों में निरूपण किया है । इसी प्रकार रात्रिके भी ( १) सावित्र (२) धुर्य ( ३) दात्रक (४) यम (५) वायु (६) हुताशन (७) भानु (८) वैजयन्त (९) सिद्धार्थ (१०) सिद्धसेन (११) विक्षोभ (१२) योग्य (१३) पुष्पदन्त, (१४) सुगंधर्व और (१५) अरुण ये पन्द्रह मुहूर्त हैं । इनमें सिद्धार्थ, सिद्धसेन, दात्रक और पुष्पदन्त शुभ होते हैं शेष अशुभ हैं । . सिद्धार्थको सर्वकार्योंका सिद्ध करनेवाला कहा है। ज्योतिष शास्त्र में इस प्रक्रियाका विकास आर्यभट्टके बाद निर्मित फलित ग्रन्थों में ही मिलता है। तिथियोंकी संज्ञा भी सूत्ररूपसे धवलामें इस प्रकार आयी है--नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता (तुका), और पूर्णा ये पांच सज्ञाएं पन्द्रह तिथियोंकी निश्चित की गयी हैं, इनके स्वामी क्रमसे चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, आकाश और धर्म बताये गये हैं। पितामह सिद्धान्त, पौलस्त्य-सिद्धान्त और नारदीय सिद्धान्तमें इन्हीं तिथियोंका उल्लेख स्वामियों सहित मिलता है, पर स्वामियोंकी नामावली जैन नामावलीसे सर्वथा भिन्न है। इसी प्रकार सूर्यनक्षत्र, चान्द्रनक्षत्र, बार्हस्पत्यनक्षत्र एवं शुक्रनक्षत्रका उल्लेख भी जैनाचार्योंने विलक्षण सूक्ष्मदृष्टि और गणित प्रक्रियासे किया है। भिन्न-भिन्न ग्रहोंके नक्षत्रोंकी प्रक्रिया पितामह सिद्धान्तमें भी सामान्यरूपसे बतायी गयी है। १ "रौद्रः श्वेतश्च ....इत्यादि" धवला टीका, चतुर्थ भाग पृ० ३१८।। २ "सवित्रो धुर्यसंशश्च ...." इत्यादि । धवला टीका, चतुर्थ भाग, पृ० ३१९ । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्योतिषका पोषक जैन-ज्योतिष अयन सम्बन्धी जैन ज्योतिषकी प्रक्रिया तत्कालीन ज्योतिष ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक विकसित एवं मौलिक है। इसके अनुसार सूर्यका चारक्षेत्र सूर्य के भ्रमण मार्गकी चौड़ाई-पांच सौ दश योजनसे कुछ अधिक बताया गया है, इसमें से एक सौ अस्सी योजन चारक्षेत्र तो जम्बूद्वीपमें है और अवशेष तीन सौ तीस योजन प्रमाण लवणसमुद्रमें है, जो कि जम्बूद्वीपको चारों ओरसे घेरे हुए है । सूर्य के भ्रमण करनेके मार्ग एक सौ चौरासी हैं इन्हें शास्त्रीय भाषामें वीथियां कहा जाता है। एक सौ चौरासी भ्रमण मार्गों में एक सूर्य का उदय एक सौ तेरासी बार होता है। जम्बूद्वीपमें दो सूर्य और दो चन्द्रमा माने गये हैं, एक भ्रमण मार्गको तय करनेमें दोनों सूर्योंको एक दिन और एक सूर्यको दो दिन अर्थात् साठ मुहूर्त लगते हैं । इस प्रकार एक वर्षमें तीन सौ छयासठ और एक अयनमें एक सौ तेरासी दिन होते हैं । । सूर्य जब जम्बूद्वीपके अन्तिम प्राभ्यन्तर मार्गसे बाहरकी ओर निकलता हुआ लवणसमुद्रकी तरफ जाता है तब बाहरी लवणसमुद्रस्थ अन्तिम मार्गपर चलनेके समयको दक्षिणायन कहते हैं और वहां तक पहुंचने में सूर्यको एक सौ तेरासी दिन लगते हैं। इसी प्रकार जब सूर्य लवणसमुद्रके बाह्य अन्तिम मार्गसे घूमता हुआ भीतर जम्बूद्वीपकी ओर आता है तब उसे उत्तरायण कहते हैं और जम्बूद्वीपस्थ अन्तिम मार्ग तक पहुंचनेमें उसे एक सौ तेरासी दिन लग जाते हैं । पञ्चवर्षात्मक युगमें उत्तरायण और दक्षिणायन सम्बन्धी तिथि-नक्षत्रका विधान' सर्वप्रथम युगके आरंभमें दक्षिणायन बताया गया है यह श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको अभिजित् नक्षत्रमें होता है । दूसरा उत्तरायण माघ कृष्णा सप्तमी हस्त नक्षत्रमें; तीसरा दक्षिणायन श्रावण कृष्णा त्रयोदशी मृगशिर नक्षत्रमें; चौथा उत्तरायण माघशुक्ला चतुर्थी शतभिषा नक्षत्रमें; पांचवा दक्षिणायन श्रावण शुक्ला दशमी विशाखा नक्षत्रमें; छठवां उत्तरायण माघ कृष्णा प्रतिपदा पुष्य नक्षत्रमें; सातवां दक्षिणायन श्रावण कृष्णा सप्तमी रेवती नक्षत्रमें; आठवां उत्तरायण माघ कृष्ण त्रयोदशी मूल नक्षत्रमें; नवमां दक्षिणायन श्रावण शुक्ल नवमी पूर्वाफाल्गुणी नक्षत्र में और दशवां उत्तरायण माघ कृष्णा त्रयोदशी कृत्तिका नक्षत्र में माना गया है किन्तु तत्कालीन ऋक् , याजुष् और अथर्व ज्योतिषमें युगके आदिमें प्रथम उत्तरायण बताया है । यह प्रक्रिया अब तक चली आ रही है । कहा नहीं जा सकता कि युगादिमें दक्षिणायन और उत्तरायणका इतना वैषम्य कैसे हो गया ? जैन मान्यताके अनुसार जब सूर्य उत्तरायण होता है-लवण समुद्र के बाहरी मार्गसे भीतर जम्बूद्वीपकी ओर जाता है-उस समय क्रमशः शीत घटने लगता है और गरमी बढ़ना शुरु हो जाती है । इस सर्दी और गर्मोके वृद्धि-हासके दो कारण हैं, पहला यह है कि सूर्यके जम्बूद्वीपके समीप आनेसे उसकी किरणोंका प्रभाव यहां अधिक पड़ने लगता है, दूसरा कारण यह कहा जा सकता है कि उसकी किरणे समुद्र १ "प्रथम बहुल पडिवए · · इत्यादि, सूर्यप्रशप्ति ( मलयगिर टीका सहित). पृ. २२२ । ४७५ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णो अभिनन्दन ग्रन्थ के अगाध जलपरसे आनेसे ठंडी पड़ जाती थीं। उनमें क्रमशः जम्बूद्वीपकी ओर गहराई कम होने एवं स्थलभाग पास होनेसे सन्ताप अधिक बढ़ता जाता है, इसी कारण यहां गर्मी अधिक पड़ने लगती है। यहां तक कि सूर्य जब जम्बूद्वीपके भीतरी अन्तिम मार्गपर पहुंचता है तब यहां पर सबसे अधिक गर्मी पड़ती है । उत्तरायणका प्रारंभ मकर संक्रान्तिको और दक्षिणायनका प्रारंभ कर्क संक्रांतिको होता है । उत्तरायणके प्रारंभ में १२ मुहुर्त्तका दिन और १८ मुहुर्त की रात्रि होती है। दिनमानका प्रमाण निम्नप्रकार बताया है । पर्व संख्याको १५ से गुणाकर तिथि संख्या जोड़ देना चाहिए, इस तिथि संख्या में से एक सौ बीस तिथिपर आने वाले अवको घटाना चाहिए | इस शेषमें १८३ का भाग देकर जो शेष रहे उसे दूना कर ६१ का भाग देना चाहिये जो लब्ध आवे उसे दक्षिणायन हो तो १८ मुहूर्त्त में से घटाने पर दिनमान और उत्तरायण हो तो १२ मुहूर्त में जोड़ने पर दिनमान आता है | उदाहरणार्थ युगके आठ पर्व वीत जानेपर तृतीया के दिन दिनमान निकालना है अतः १५×८ = १२०+३ = १२३ – १ = १२२÷१८३ = ० + १२३ = १२२४२ = २४४ ÷६१ = ४, दक्षिणायन होने से १८ – ४ = १४ मुहूर्त दिनमानका प्रमाण हुआ । वेदाङ्गज्योतिष में दिनमान सम्बंधी यह प्रक्रिया नहीं मिलती है, उस कालमें केवल १८-१२ = ६÷१८३=६१ वृद्धि-हास रुप दिनमानका प्रमाण साधारणानुपात द्वारा निकाला गया है । फलतः उपयुक्त प्रक्रिया विकसित और परिष्कृत है इसका उत्तरकालीन पितामह के सिद्धान्तपर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा है । पितामहने जैन प्रक्रिया में थोड़ासा संशोधन एवं परिवर्द्धन करके उत्तरायण या दक्षिणायनके दिनादिमें जितने दिन व्यतीत हुए हों उनमें ७३२ जोड़ देना चाहिये फिर दूना करके ६१ का भाग देने से जो लब्ध आवे उसमें से १२ घटा देने पर दिनमान निकालना बताया है । पितामहका सिद्धान्त सूक्ष्म होकर भी जैन प्रक्रिया से स्पष्ट प्रभावित मालूम होता है । नक्षत्रोंके आकार सम्बन्धी उल्लेख जैन ज्योतिषकी अपनी विशेषता हैं । चन्द्रप्रज्ञप्ति में नक्षत्रोंके आकार-प्रकार, भोजन - वसन आदिका प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि अभिजित् नक्षत्र गोशृङ्ग, श्रवण नक्षत्र कपाट, धनिष्ठा नक्षत्र पक्षीके पिंजरा, शतभिषा नक्षत्र पुष्पकी राशि, पूर्वाभाद्रपद एवं उत्तराभाद्रपद अर्ध-वावड़ी, रेवती नक्षत्र कटे हुए अर्ध फल, अश्विनी नक्षत्र अश्वस्कन्ध, भरिणी नक्षत्र स्त्री की योनि, कृत्तिका नक्षत्र ग्राह, रोहणी नक्षत्र शकट, मृगशिरा नक्षत्र मृगमस्तक, आर्द्रा नक्षत्र रुधिर बिन्दु, पुनर्वसु नक्षत्र चूलिका, पुष्य नक्षत्र बढ़ते हुए चन्द्र, आश्लेषा नक्षत्र ध्वजा, मघा नक्षत्र प्राकार, पूर्वाफल्गुनी एवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र अर्ध - पल्यङ्ग, हस्त नक्षत्र हथेली, चित्रा नक्षत्र मउआके पुष्प, स्वाति नक्षत्र खीले, विशाखा नक्षत्र दामिनी,अनुराध नक्षत्र एकावली, ज्येष्ठा नक्षत्र गजदन्त, मूल नक्षत्र बिच्छू, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र १ ज्योतिषकरण्डक, गाथा ३११- २० । २ "द्वयग्निनमेषूत्तरतः "पद्य, पञ्चसिद्धान्तिका । ४७६ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्योतिषका पोषक जैन ज्योतिष । हस्तीकी चाल और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र सिंहके आकार होता है यह नक्षत्रों की संस्थान सम्बन्धी प्रक्रिया वराहमिहिर के कालसे पूर्व की है । इनके पूर्व कहीं भी नक्षत्रोंके आकार की प्रक्रियाका उल्लेख नहीं है । इस प्रकारसे नक्षत्रोंके संस्थान, आसन, शयन आदिके सिद्धान्त जैनाचार्योंके द्वारा निर्मित होकर उत्तरोत्तर पल्लवित और पुष्पित हुए हैं। प्राचीन भारतीय ज्योतिषके निम्न सिद्धान्त जैन-अजैनोंके परस्पर सहयोगसे विकसित हु होते हैं। इन सिद्धान्तोंमें पांचवां, सातवां, आठवां, नवम् दसवां, ग्यारहवां और बारहवें सिद्धान्तोंका मूलतः जैनाचायाँने निरूपण किया है । प्राचीन जैन ज्योतिष ग्रन्थोंमें षट्खण्डागमसूत्र एवं टीका में उपलब्ध फुटकर ज्योतिष चर्चा, सूर्यप्रज्ञति, ज्योतिषकरण्डक, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति, अङ्गविज्जा, गणविजा, आदि ग्रन्थ प्रधान हैं। इनके तुलनात्मक विश्लेषणसे ये सिद्धान्त निकलते हैं ( १ ) प्रतिदिन सूर्यके भ्रमण मार्ग निरूपण सम्बन्धी सिद्धान्त - इसीका विकसित रूप दैनिक अहोरात्रवृत्तकी कल्पना है । ( २ ) दिनमान के विकासकी प्रणाली । ( ३ ) अयन सम्बन्धी प्रक्रियाका विकास – इसीका विकसित रूप देशान्तर, कालान्तर, भुजान्तर, चरान्तर एवं उदयान्तर सम्बन्धी सिद्धान्त हैं । (४) पत्र में विषुवानयन इसका विकसित रूप संक्रान्ति और क्रान्ति हैं । ( ५ ) संवत्सर - सम्बन्धी प्रक्रिया - इसका विकसित रूप सौरमास, चान्द्रमास, सावनमास एवं नाक्षत्रमास आदि हैं । ( ६ ) गणित प्रक्रिया द्वारा नक्षत्र लग्नानयनकी रीति- इसका विकसित रूप त्रिंशांश, नवमांश, द्वादशांश एवं होरादि हैं । ( 9 ) कालगणना प्रक्रिया - इसका विकसित रूप अंश, कला, विकला आदि क्षेत्रांश सम्बन्धी गणना एवं घटी पलादि सम्बन्धी कालगणना है । ( ८ ) ऋतुशेष प्रक्रिया - इसका विकसित रूप क्षयशेष, अधिमास, अधिशेष आदि हैं । ( ६ ) सूर्य और चन्द्रमण्डल के व्यास, परिधि और घनफल प्रक्रिया - इसका विकसित रूप समस्त ग्रह गणित है । ( १० ) छाया द्वारा समय निरूपण – इसका विकसित रूप इष्टकाल, भयात, भभो एवं सर्वभोग आदि हैं । ( ११ ) नक्षत्राकार एवं तारिकाओंके पुञ्जादिकी व्याख्या इसका विकसित रूप फलित ज्योतिषका वह अंग है जिसमें जातककी उत्पत्तिके नक्षत्र, चरण आदिके द्वारा फल बताया गया हो । ( १२ ) राहु और केतुकी व्यवस्था — इसका विकसित रूप सूर्य एवं चन्द्रग्रहण - सम्बन्धी सिद्धान्त हैं । जैन ज्योतिष ग्रन्थोंमें उल्लिखित ज्योतिष - मण्डल, गणित - फलित, आदि भेदोपभेद विषयक वैशिष्टयों का दिग्दर्शन मात्र करानेसे यह लेख पुस्तकका रूप धारण कर लेगा, जैसा कि जैन शास्त्र भण्डारोंमें उपलब्ध १ चन्द्रप्रप्ति, पृ०२०४-२१० । ४७७ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ गणित, फलित, आदि ज्योतिष के ग्रन्थोंकी निम्न संक्षिप्त तालिकासे सष्ट है। तथा जिसके आधारपर शोध करके जिज्ञासु स्वयं निर्णय कर सकेंगे कि जैन विद्वानोंने किस प्रकार भारतीय ज्योतिष शास्त्रका सर्वाङ्ग सुन्दर निर्माण, पोषण एवं परिष्कार किया है। गणित ज्योतिषके ग्रन्थ १ सूर्यप्रज्ञप्ति मूल प्राकृत, मलयगिरि वृत्ति (संस्कृत टीका) २ चन्द्रप्रज्ञप्ति ___, ३ ज्योतिषकरण्डक मूल प्राकृत, संस्कृत टीका ४ अंगविज्जा और गणिविज्जा (प्राकृत) ५ मण्डल प्रवेश ६ गणितसार संग्रह (संस्कृत)-महावीराचार्य (सन् ८५०) ७ गणितसूत्र (संस्कृत) ८ व्यवहार गणित ( कन्नड़)-राजादित्य (११ वीं सदी) ६ जैन गणित सूत्र (,)- राजादित्य, यह विष्णुवर्द्धनके आश्रित थे । समय ११ वीं सदी है । १० जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति—अमितगति, रचनाकाल सं० १०५० ११ सिद्धान्त शिरोमणि ?—त्रैवेद्य मुनि १२ गणित शास्त्र (संस्कृत) श्रीधराचार्य । १३ सार्धद्वीपद्वय प्रज्ञप्ति (संस्कृत) १४ लीलावती ( कन्नड़)-कविराजकुञ्जर १५ क्षेत्र गणित (कन्नड़) राजादित्य (११ वीं सदी) १६ व्यवहाररत्न (कन्नड़) १७ लीलावती ( अपभ्रंश) लालचन्द्र सं० १७३६ १८ लीलावती (संस्कृत) लाभवर्द्धन १६ गणित शास्त्र (संस्कृत) श्रेष्ठिचन्द्र २० यन्त्रराज (संस्कृत) महेन्द्रसूरि सं० १४३७ २१ गणितसार (प्राकृत) ठक्कुरफेरू, रचनाकाल-सं०१३७५ के आसपास २२ जोइससार ( ठक्कुरफेरु ) सं० १३७२ २३ ज्योतिष मण्डल विचार-तपोविजय कुशलसरि सं० १६५२ २४ ज्योतिष सारोद्धार-आनन्दमुनि सं० १७३१ २५ गणित साठसौ-महिमोदय २६ पंचाङ्गानयनविधि-महि० रचनाकाल सं० १७२३ २७ नवग्रह गणित-पञ्चाङ्ग,गणित सहित (तेलगू) २८ गणित संग्रह-एलाचार्य २६ छत्तीसुपूर्वप्रति उत्तर-प्रतिसह-महावीराचार्य ३० अष्टकवर्ग-सिद्धसेन ३१ अलौकिक गणित-देहली के पंचायती मन्दिरके भण्डारमें है ३२ भ्रमण सारिणी दे० पं० मं० ३३ अणुजातक ३४ पञ्चाङ्ग विचार , ३५ चन्द्रार्को पद्धत्ति . ३६ ज्योतिप्रकाश दिल्ली के धर्मपुरा मन्दिर भण्डार है। ३७ तिथि सारणी-पार्श्वचन्द्रगच्छी बाघजी -मुनि सं० १७८३ ३८ ज्योतिषसार संग्रह-कवि रत्नभानु-अमर ग्रन्थालय तुकोगंज इन्दौर । ४७८ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्योतिषका पोषक जैन ज्योतिष ३९ जन्म पत्र पद्धत्ति - हर्ष कीर्ति ( १७ वीं शती) ४१ जन्म पत्र पद्धत्ति - महिमोदय ४० जन्मपत्र पद्धत्ति - लब्धिचन्द्र (सं० १७५१ ) ४२ इष्टतिथि सारणी - लक्ष्मीचन्द्र (सं० १७६० ) ४४ जगचन्द्रिका सारणी - हीरचन्द्र ४३ ग्रहायु साधन - पुण्यतिलक ४५ चन्द्रवेध्य प्रकीर्णक (प्राकृत पत्र संख्या ६, श्लो० १२५ ) ४६ चन्द्ररज्जु चक्रविवरण (पत्र४, श्लो० २६० ) ४८ यन्त्र रत्नावली - पद्मनाग ४७ तिथ्यादि सारिणी ( पत्र ३) ४९ पञ्चाङ्ग तिथि विवरण (श्लोक संख्या १९० ) ५१ ग्रह दीपिका - ( पत्र संख्का ८) जैस० भ० ५३ पंचांग दीपिका ६ ५५ पञ्चांग तत्व " " " फलित ज्योतिषके जैनग्रन्थ ५७ केवलज्ञान होरा (संस्कृत ) चन्द्रसेनमुनि ग्रन्थप्रमाण, ५ हजार श्लोक | ५८ श्रायज्ञान तिलक ( प्राकृत ) दामनन्दिके शिष्य भठबोसरि, ग्रन्थ प्रमाण ५० पत्र । ५९ चन्द्रोन्मीलन प्रश्न (संस्कृत) - श्लो ४ हजार ६० भद्रबाहु निमित्तशास्त्र,, — भद्रबाहु, श्लोक ४ हजार ६१ रिट्ठसमुच्चय ( प्राकृत ) – दुर्गदेव सं० २०८९ गाथा २६१ ६२ क ६३ ज्योतिर्ज्ञानविधि (संस्कृत) श्रीधराचार्य, " ५० अक्षप्रभा - ( पत्र संख्या ७ जेसलमेर भण्डार ५२ ग्रहरत्नाकर कोडक - ( पत्रसंख्या १६),, ५४ करण शार्दूल ५६ वक्रमार्गी - ( पत्र संख्या १ ) " (अधूरा ) ६४ उत्तमसद्भाव प्रकरण,, मल्लिषेणाचार्य, सन् १०५०, श्लोक १९६ । ६५ केवलज्ञानप्रश्न चूड़ामणि ( संस्कृत ), समन्तभद्र, पत्र संख्या १८ । ६६ ज्ञानप्रदीपिका (संस्कृत ) -- प्रकाशित ६८ ज्योतिषसार (प्राकृत) (अनु० पं० भगवानदास ) ६९ अर्हत्पासा केवली ( संस्कृत ) भट्टारक सकलकीर्ती ( पत्र संख्या ६ ) पत्र संख्या ६, श्लो० संख्या २८० । ७० अक्षर प्रश्न केवली ७१ हस्त संजीवन - ( संस्कृत ) ७३ ज्योतिषप्रकाश (संस्कृत ) - हीरविजय ७५ स्वप्नमहोत्सव (संस्कृत) ७७ पासाकेवली – ( संस्कृत ) - गर्गमुनि ७८ सामुद्रिक शास्त्र (संस्कृत ) -- समुद्रकवि ( लिपिकाल सं० १८४४, पंचायती मंदिर देहली ) ४७९ ६७ सामुद्रिक शास्त्र - ( सं० प्रका० ) 13 "1 ७२ निमित्त शास्त्र - (प्राकृत) ऋषिपुत्र ( प्रकाशित) ७४ स्वप्नविचार ( प्राकृत ) - जिनपालगणि प्र ७६ स्वप्नचिन्तामणि — दुर्लभराज 33 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी - श्रभिनन्दन ग्रन्थ ७९ द्वादशग्रह प्रश्नावली ( संस्कृत ) ८१ सामुद्रिक भाषा - ( दे. पं. मं. ) ८३ प्रतिष्ठा मुहूर्त्त - (दिल्ली - पंचायती मन्दिर) ८५ कूपचक्र ८७ नष्टजन्मविचार " "" ७९ शनिविचार ९० सउन ( शकुन चौपाई ) - देवविजय ९१ स्वप्न सहातिका - जिनवल्लभ मुनि (१३ वीं सदी) ६२ स्वप्नप्रदीप- वर्द्धमान सूरि ९३ जातक तिलक ( कन्नड़ ) श्रीधराचार्य ९५ लोकविजय यंत्र ( प्राकृत २८ गाथा ) ९७ शकुनशास्त्र - जिनदत्तसूरि (१३ वीं सदी) ९९ गैलिशकुन ( कन्नड़, मल्लिसेन, ३५ पत्र ) १०१ ज्योतिष संग्रह (संस्कृत २० पत्र ) १०३ सामुद्रिक लक्षण - ( संस्कृत २० पत्र ) १०५ स्वप्नदीपक " " " १०७ निमित्तदीपक १०६ ज्योतिश्चक्र विचार ( प्राकृत ) १११ शकुनावली (संस्कृत) सिद्धसेन " "3 १९३ शकुनावली रामचन्द्र (सं० १८१७ ) ११५ सामुद्रिक लक्षण (संस्कृत ) लक्ष्मीविजय ११७ सामुद्रिक रामविजय ८० सामुद्रिक सटीक ( देहली के पंचायती मन्दिरके भण्डार में) ८२ शकुन विचार (भाषा गोवर्द्धनदास - सं० १७६२) ८४ स्त्रीभाग्य पंचाशिका ( संस्कृत, लिपिकाल १७७४) ८६ प्रश्नज्ञानप्रदीप ( दि. पं. मं. ) ८८ चन्द्रमाविचार 39 विजयदान सूरि ११६ रमलसार १२१ जिन संहिता (संस्कृत) एकसन्धिी भट्टारक १२३ अर्हच्चूड़ामणिसार ( प्राकृत ) भद्रबाहु १२५ तिथि कुलक ९४ गर्गसंहिता – (संस्कृत-प्राकृत मिश्रित) गर्गमुनि ९६ शकुनदीपिका चौपई (जयविजय सं० १६६०) ९८ नक्षत्र चूड़ामणि (संस्कृत) १०० सामुद्रिकशास्त्र सटीक (संस्कृत २२ पत्र ) १०२ सुग्रीवमतशकुन ( कन्नड़ ३० पत्र ) ११० हस्तकाण्ड पार्श्वचन्द्र ११२ शकुन रत्नावली,, (वर्द्धमान) ११४ शकुनप्रदीप (हिन्दी) लक्ष्मीचन्द्र यति (सं० १७६०) ११६ सामुद्रिक (संस्कृत) अजयराज ११८ रमलशास्त्र भोजसागर १२० सामुद्रिक हिन्दी रामचन्द्र १२२ कालकसंहिता, कालकाचार्य १२४ चातुर्मासिक कलंक १२६ मेघमाला पत्र १८ १२७ लग्नशुद्धि (संस्कृत) हरिभद्रसूरि (८ वीं शती) १२८ नारचन्द्र ज्योतिष - नारचन्द्र (श्लो० २०० दिगम्बर) १२६ आयप्रश्न (संस्कृत श्लो० ६०) ९३० द्वादशभाव जन्मप्रदीप - भद्रबाहु ( पत्र संख्या ८) १३१ नवग्रह राशि विचार (संस्कृत श्लो० १६६ ) १३२ निधनादिपरीक्षा शास्त्र (संस्कृत) पत्र ३ १३३ भवसागर संस्कृत (श्लोक० ३३०० ) १३४ योगायोगप्रकरण (संस्कृत) ७ पत्र १३५ ध्वजधूम (संस्कृत) २ पत्र १३६ तौयोगादि ३ पत्र ४८० १०४ शकुन दीपक ( सं ० ) १०६ कुमारसंहिता १०८ ज्योतिषपाल 22 "" कुमारनन्दि मुनि Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्योतिषका पोषक -जैन ज्योतिष १३७ ज्ञानमंजरी , २ पत्र १३८ गृहदीपिका ,८पत्र १२६ शतांकी , ७ पत्र १४० षट् भूषण , १६ पत्र १४१ मूल विधान , १३ पत्र १४२ योग मुहूर्त , ५ पत्र १४३ ज्योतिष फल दर्पण ,, १४४ खरस्वर विचार-खण्डित प्रति १४५ छींक विचार-खडिण्त प्रति १४६ शकुनावली–वसन्तराम १३० ताड़पत्र १४७ सामुद्रिक तिलक-जगदेव, ८०० आर्या प्रमाण १४८ स्वप्नसप्ततिका वृत्ति-सर्वदेवसूरि सं० १२८७श्लो०८०० १४६ स्वप्नाष्टक विचार-संस्कृत, १ पत्र १५० श्वान शकुन विचार-खण्डित प्रति १५१ श्वानसप्तती-श्लो० २०० १५२ मानसागरी पद्धति, संस्कृत-मानसागर, श्लो० १००० १५३ जोइसदार-प्राकृत, हरिकलश १५४ लग्न विचार १५५ मेघमाला-मेघराज १५६ जन्म समुद्र सटीक-नरचण्डोपाध्याय १५७ मंगल स्फुरण चौपई-हिन्दी, हेमानन्द १५८ वर्ष फलाफल ज्योतिष-संस्कृत, सूरचन्द्र १५६ सामुद्रिक तिलक-संस्कृत, दुर्लभराज १६० शकुनदीपिका– संस्कृत अज्ञात १६१ दिपकावली - ,, जयरत्न सं० १६६२ १६२ स्वप्नसप्ततिकावृत्ति ,, जिनवल्लभ, टी• जिनपाल १६३ शकुनशास्त्रोद्धार , माणिक्यसूरि १६४ अष्टाङ्ग निमित्त-ऊने दिकज्ञान १६५ लग्नघटिका-सोमविमल १६६ मास-वृद्धि हानि विचार--नेमकुशल १६७ ज्योतिष लग्नसार--संस्कृत, विद्याहेम १६८ षट्ऋतु संक्रान्ति विचार--संस्कृत कवि खुटयाल १६९ हायन सुन्दर (संस्कृत) पद्मसुन्दर-१७ वीं सदी । १७० दिनशुद्धि दीपिका (प्राकृत) रत्नशेखरसूरि, टी० विश्वप्रभा, १५ वीं सदी । १७१ प्रश्नशतक स्वोपज्ञ वेतालवृत्ति (संस्कृत) नरय ऊपाध्याय १७२ प्रश्नचतुर्विंशतिका (संस्कृत) नरचन्द्रोपाध्याय, १३ वीं सदी १७३ उदय दीपिका , मेघविजय १७४ रमलशास्त्र -संस्कृत १७५ यशोराज राजी—पद्धत्ति (संस्कृत) यशश्रुतसागर, सं० १७६२ १७६ ज्योतिषरत्नाकर--(संस्कृत), महिमोदय १७७ विवाहपटल (संस्कृत) अभयकुशल १७८ विवाहपटल (संस्कृत) रूपचन्द्र १७९ विवाह पटल (संस्कृत) हरि १८० मुहूर्त चिन्तामणि ठवा (संस्कृत) चतुर्विजय १८१ चमत्कार चिन्तामणि ठवा (संस्कृत) जैनमतिसार १८२ चमत्कार चिन्तामणि वृत्ति (संस्कृत) अभयकुशल ४८१ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन ग्रंथ १८३ जिनेन्द्रमाला (संस्कृत) टीका, कन्नड़ १८५ होराज्ञान (संस्कृत) गौतमस्वामी १८७ तपासावली — हिन्दी, वृन्दावन १८९ नरपिङ्गल (कन्नड़) शुभचन्द्र १९१ ज्योतिश्शास्त्र -संस्कृत १६३ ज्योतिसार -- संस्कृत १९५ ग्रहदृष्टिफल १९७ ग्रहफल " "" १९९ भुवन दीपक - संस्कृत, पद्मप्रभ १४ वीं सदी २०० भुवनदीपक सिंह तिलकवृत्ति सहित सं० १३२६ २०१ खरतरगच्छीय रत्नधीर वृत्ति सं० १८०६ २०३ प्रश्नव्याकरण ज्योतिकोंनी २०५ स्वप्नविचार यशः कीर्ति २०७ सामुद्रिक फलाफल - संस्कृत ( ४ पत्र ) हर्ष कीर्ति " १८४ शकुनदीपक (संस्कृत) वीरपंडित १८६ तपासा केवली - हिन्दी, विनोदीलाल १८८ अक्षर केवली शकुन (संस्कृत) अज्ञात (पत्र १० ) १९० स्त्रीजातकवृत्ति (संस्कृत) नारचन्द्र (४०० श्लो० ) १९२ जोइससार - प्राकृत ( पत्र संख्या ४ खण्डित ) २२१ अट्टमत-- कन्नड़ ऊट्ठजीव, सन् १३०० २२३ ज्योतिष सारोद्धार, हर्षकीर्ति १७ वीं सदी २२५ उदयविलास -- श्री सूरि जिनोदय २२७ वर्ष फलाफल - - पत्रसंख्या १२ २०२ ग्रहवाटिका - संस्कृत २०४ स्वप्नसुभाषित - प्राकृत २०६ स्वरोदय २०८ सामुद्रिक सार (संस्कृत) ८ पत्र २०६ सार संग्रह २१० ज्योतिषविषय (कन्नड़) ६ ताड़पत्र श्लो० १२ २११ ज्योतिषसंग्रह - - संस्कृत, टीका (कन्नड़) ताड़पत्र११९ २१२ जोतिष संग्रहात्मक (कन्नड़) ६० पत्र २१३ ज्योतिष संग्रह (संस्कृत-कन्नड़) ९६६ पत्र २१४ आरम्भसिद्धि (संस्कृत) उदय प्रकरणी १३ वीं सदी २१५ आरम्भसिद्धि टीका हेमहंस गणि सं० १५०४ २२९ कररेहा लक्खण - प्राकृत २३१ रमलशास्त्र — मेघ विजय २१६ त्रैलोक्य प्रकाश-- संस्कृत, हेमप्रभसूरी सं० १३०५, श्लो० १९६० २१७ निमित्तदीपक - संस्कृत, जिनसेन २१९ जिनेन्द्रमाला-संस्कृत १६४ ग्रहगोचर, -,, (पत्र संख्या ३५१ ) १९६ ग्रहप्रमाणमंजरी -संस्कृत १९८ ग्रहबलविचार ४८२ "" २१८ ज्योतिषपटल - - महावीर २२० जिनेन्द्रमाला वृत्ति २२२ मेघमाला - हेमप्रभ सूरि २२४ वर्य प्रबोध -- संस्कृत, मेघविजय २२६ मेघमाला मेघराज सं० १८८१ २२८ श्रंगविद्या - प्राकृत २३० हस्तकाण्ड—पार्श्वचन्द्र २३२ स्वरोदया – भाषा, चिदान्द सं० १८०० Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्योतिषका पोषक जैन ज्योतिष २३३ दृष्टि विचार--प्राकृत, पत्र संख्या २२ २३४ अंगलक्षण २३५ तिथिकुलक २३६ चातुर्थशिव कुलक २३७ जन्मकुण्डली विचार १ पत्र २३८ जातकविधान (संस्कृत) सिंहमल. श्लो० १३८० २३९ जातक दीपिका (संस्कृत) हर्षविजय, खण्डित २४० जातक पद्धत्ति , पत्र ८ अध्याय १ २४१ द्वादशभाव फल , २४२ लग्नशुद्धि विचार , २४३ षष्ठि सम्वत्सरी-संस्कृत,क्षेमकीर्ति,श्लो० ३०० २४४ जन्मपत्रिकागत कालादि-विचार २४५ जन्म कुण्डलिका २४६ कुण्डकेशर--१० पत्र २४७ कालज्ञान-संस्कृत २४८ कालशतक-मुनिचन्द्रसूरि २४६ ज्यौतिष सारिणी-संस्कृत, शुभचन्द्र २५० लग्न शास्त्र-हेमप्रभ सूरि २५१ लग्न परीक्षा-उदयप्रभदेव सूरि २५२ लग्न कुण्डली विचार २५३ कामधेनु--१६ पत्र २५४ धीष्णोपचारसार, पत्र संख्या २ २५५ खेलवाड़ी--प्राकृत, माहूया गाथा १३६७ २५६ पल्लीविचार, पत्र संख्या ४ २५७ पल्ली शरद शान्ति-वृद्धगर्गमुनि (श्लो० २०) २५८ लघुशकुनावली २५९ शकुनरत्नावली-नगीनदास (श्लो० ११००) २६० शत सम्वत्सरिका-पत्र ३५ २६१ सिद्धाज्ञा–पद्धत्ति २६२ अक्षरचूड़ामणि-(संस्कृत) पत्र ३१ २६३ सूर्य-चन्द्र ग्रहण विचार-लिधी भंडार लिधी (अहमदाबाद) २६४ सूर्य-चन्द्र मण्डल विचार-ज्ञानानन्द भण्डार गोपीपुरा में २६५ प्रश्नशतक-जिनवल्लभसूरी २६६ अक्षर प्रश्नोत्तर (संस्कृत) पत्र ५ २६७ अक्षरमाला प्रश्न-(संस्कृत) पत्र ८ श्लोक १२० २६८ अक्षर कण्डिला प्रश्न-अप्र० ग्रंथ, पत्र ४ २६६ अक्षरवर्ग २७० वर्गाटक प्रश्नावली २७१ ऋषिपुत्र संहिता (संस्कृत-प्राकृत लिखित) ऋषिपुत्र २७२ गुट्टफलाफल - कन्नड़, ५ ताड़पत्र, इलो० १२४ २७३ ताजिक प्रबोध-तेलगू २७४ ग्रहफलादेश-संस्कृत २७५ चन्द्राौं —प्राकृत, ११पत्र, गाथा १६२ २७६ जन्मप्रदीप-देवसूरि २७७ ज्ञान दीपिका-संस्कृत, श्लो ३२० २७८ गणितसार-संस्कृत, श्रीधराचार्य २७९ सिद्धान्त शिरोमणि-अजितसागर २८० षटखण्ड भूपद्धति--संस्कृत, अजितसागर स्वामी २८१ कालज्ञान--धर्मसागर २८२ ज्योतिर्दीपक-संस्कृत, भद्रबाहु २८३ व्रततिथि निर्णय-संस्कृत,सिंहनन्दि २८४ ज्योतिर्बोध--तेलगू,कवि भास्कर २८५ चित्रहमुगे-कन्नड़,राजादित्य सन् ११२० ४८३ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ २८६ लीलावती, राजादित्य २८८ ग्रहदीपिका - संस्कृत २६० नूतनफल २९१ ऊर्धकाण्ड या ऊर्वकाण्ड ( बीजुं ) - देवेन्द्रसूरि शिष्य हेमप्रभसूरि २६२ जम्बूद्वीपजीवा - गणिपाद ८ पत्र २६४ प्रश्नरत्न सागर - विजयसूरि २६६ समयविचार - अमरकीर्त्ति २६८ जातक निर्णय ३०० संवेगरंग शास्त्र - प्राकृत, जिनचक्र २८७ गुहसूत्र २८९ जातक फलप्रदीप २३ विवाह पटल टीका - हर्षकीर्त्तिसूरि २५ जातक दीपिका - हर्षरत्न, सम्वत् १७६५ " इनके अतिरिक्त लगभग १००-१५० ग्रन्थ ऐसे भी तालिकाश्रों में मिलते हैं जो समान नाम वाले हैं तथा कर्त्ताओं के नामोंका उल्लेख नहीं हैं । ज्योतिषसार, ज्योतिष संग्रह, ग्रहदीपिका, जन्मपत्री - पद्धति ग्रहफल - प्रश्न शतक, आदि नामोंके सैकड़ों ग्रन्थ हैं अतः विना ग्रन्थोंको देखे उनके पृथक्त्वका निर्णय शंकास्पद ही रहे गा । २६३ द्वादशजन्मभावफल - भद्रबाहु २६५ मञ्जरीमकरन्द - भट्टकल्याणक २६७ दैवज्ञविलास - लक्ष्मणसूरि २६६ जातक योगार्णव ३०१ चरणकाण्डक - दुर्गदेव सं० १०८६ जैनेतर ज्योतिष ग्रन्थोंपर जैनाचार्योंकी टीकाएं १ गणित तिलक वृत्ति - सिंह तिलकसूरि, सं० १२२ ३ कर्णकुतूहल – सुमतिहर्ष, सं० १६७८ ५ ताजिकसार टीका - सम्वत् १६७७ ७ लघुजातक वार्त्तिक - मतिसागर, सम्वत् १६०५ ९ जातक पद्धत्ति वृत्ति - जिनेश्वरसूरि ११ महादेवी सारणी वृत्ति - घनराज, सम्वत् १६९२ १३ ज्योतिर्विदाभरण - भावप्रभसूरि, सम्वत् १७६८ १५ चन्द्रार्कौ वृत्ति - कृपाविजय १४ षट्पंचाशिका बालावबोध महिमोदय १६ भुवन दीपकावलि - लक्ष्मीदिव्य, सम्वत् १७६७ १७ मुहूर्त चिन्तामणि ठवा - चतुरविजय १८ चमत्कार चिन्तामणि ठवा - मतिसागर, सम्वत् १८२७ १९ चमत्कार चिन्तामणि वृत्ति - अभयकुशलसूरि २० वसन्तराज शकुन टीका - भानुचन्द्र गणि २२ विवाह पटलबोध — अमरवाणी २१ स्त्रीजातक वृत्ति -नारचन्द्र २४ विवाह पटल अर्थ - विद्या हेम, सम्वत् १८३७ ४८४ २ ग्रहलाघव वार्त्तिक - यशस्वतसागर सं० १६७८ ४ होरामकरन्द वृत्ति - सुमतिहर्ष ६ लघुजातक टीका - भक्तिलाभ, सम्वत् १५७१ ८ लघुजातक ठवा - लघुश्यामसुन्दर १० जातक पद्धत्तिदीपिका - सुमतिहर्ष, सम्वत् १६७३. १२ ग्रहलाघव टिपण - राजसोम Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्रोत श्री डा. अवधेशनारायण सिंह, एम० एससी०, डी० एस्सी०, आदि वर्तमानमें उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थ भारतीय ज्यौतिष तथा गणित शास्त्रकी सफलताओंका स्पष्ट संकेत करते हैं अतएव ईसाकी पांचवी शतीसे लेकर आज तकके विकासका इतिहास भी इन परसे लिखा जा सकता है। किन्तु ईसाकी ५ वीं शतीसे पहिले लिखा गया कोई भी संस्कृत ग्रन्थ अब तक देखनेमें नहीं श्राया है। ५ वीं शतीके पहिले जो गणित अथवा ज्योतिष ग्रन्थ थे वे छठी शती तथा बादकी शतियोंमें नवीकृत होकर पुनः लिखे गये थे । ६२६ ई०में लिखे गये ब्रह्मस्फुट सिद्धान्तमें ऐसे अनेक ज्योतिष ग्रन्थोंका उल्लेख है जो परिष्कृत हो कर पुनः लिखे गये थे। अतः ५ वीं शतीके पहिले ज्योतिष तथा गणित शास्त्रोंकी अवस्था बतानेवाले कोई भी प्रमाण संस्कृत ग्रन्थों में नहीं हैं। यह वह समय था जब संभवतः आर्यभट और उनके पूर्ववर्ती पाटलिपुत्रीय विद्वानोंके प्रभावसे भारतमें अंकोंके 'स्थान मूल्य' का सिद्धान्त प्रचलित हुआ होगा। अभी कुछ समय पहिले मैं जैन साहित्य में ऐसी सामग्रीको पा सका हूं जो 'स्थानमूल्य' के सिद्धान्तके पहिलेके अर्थात् ईसाकी ५ वीं शतीसे पूर्वके भारतीय गणित और ज्यौतिषके इतिहासके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण सूचनाएं देती है । जिन उल्लेखोंका मैं यहां विवेचन करूंगा वै श्राचार्य श्री भूतबलि--पुष्पदन्त द्वारा विरचित षट्खण्डागम सूत्रोंकी "धवला" टीकामें पाये जाते हैं । जिसका कुछ वर्ष पहिले सुप्रसिद्ध जैन पंडित हीरालालजीने सम्पादन किया है। धवलाटीकामें साधारणतया विविध प्राकृत ग्रन्थोंके उद्धरण हैं। ये उद्धरण ऐसे ग्रन्थोंसे हैं जिनका पठन पाठन वैदिक विद्वानोंने छोड़ दिया था किन्तु जैन विद्वान १० वीं शती तक इनका उपयोग करते रहे थे । ५ वीं शतीमें प्राकृत साहित्यिक भाषा न रही थी और न इसमें उसके बाद कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ही लिखा गया है। अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि जैन ग्रन्थों में प्राप्त उद्धरण उन ग्रन्थों के हैं जो ईसाकी ५ वीं शतीके पूर्व ही लिखे गये थे। ....... सन् १९१२ में श्री रंगाचार्य द्वारा 'गणितसार संग्रह' के प्रकाशनके बादसे गणितज्ञोंको सन्देह होने लगा है कि प्राचीन भारतमें एक ऐसा भी गणितज्ञोंका वर्ग था जिसमें पूर्ण रूपसे जैन विद्वानोंका ही प्राधान्य था । कलकत्ता गणित-परिषद्-(कलकत्ता मैथमैटिकल सोसाइटी) के विवरणके २१ ३ भागमें ४८५ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री बी० दत्तका "जैन गणितज्ञ वर्ग" शीर्षक निबन्ध प्रकाशित हुआ है जिसमें विद्वान लेखकने गणित तथा गणित ग्रन्थों के विषयकी तालिकाएं दी हैं । फलतः जिज्ञासुओंके लिए यह निबन्ध पठनीय है । यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम उपरि-उल्लिखित 'गणितसार संग्रह' के अतिरिक्त अन्य जैन ज्यौतिष अथवा गणित ग्रन्थोंका अब तक पता नहीं लगा सके हैं। ऐसे ग्रन्थ हैं या नहीं यह भी बाज नहीं कहा जा सकता, फलतः जैन गणित विषयक समस्त उल्लेखोंको हम उनके सिद्धान्त ग्रन्थोंसे ही संकलित करते हैं । इस प्रकार प्राप्त उद्धरण भी बहुत कम हैं। इनका भी अपेक्षाकृत विस्तृत वर्णन मुझे सबसे पहिले धवलाटीका में ही देखनेको मिला है। ____धवला टीका हमें निम्न सूचनाएं देती है-१--'स्थान मूल्य' का उपयोग, २-घातांकों ( Indices ) के नियम, ३-लधु गणकों ( Logarithms ) के सिद्धान्त, ४,-भिन्नोंके विशेष उपयोगके नियम तथा ५-ज्यामिति और क्षेत्रमितिमें उपयुक्त प्रकार । क्षेत्रफल और आयतनको सुरक्षित रखने वाले 'रूपान्तर' सिद्धान्तका भी जैनाचार्योंने उपयोग किया है। क्षेत्रमितिमें इसका उन्होंने पर्याप्त प्रयोग किया है। धवलामें पाई (ग)का ३५५/११३ मूल्य मिलता है। इसको पाईका 'चीनीमान' कहा जाता है किन्तु मेरा विश्वास है कि कतिपय लोगोंने इस मानक इनका चीनमें प्रचलन होनेसे पहिले भी जाना था तथा प्रयोग किया था। अंकगणित 'स्थानमान' सिद्धान्त-जैन सिद्धान्त तथा साहित्य में हम बड़ी संख्याअोंका प्रयोग पाते हैं। इन संख्याओंको शब्दोंमें व्यक्त किया गया है। धवला टीकामें आगत उद्धरण ऐसी संख्याओंको अंकों द्वारा व्यक्त करनेकी कठिनाईका उल्लेख करते हैं फलतः उन्हें व्यक्त करनेके कतिपय उपाय निम्नप्रकार हैं: (क) ७९९९९९९८ को 'वह संख्या जिसके प्रारम्भमें ७, मध्यमें छह बार ६ तथा अन्तमें ८' कह कर व्यक्त किया है।' (ख) ४६६६६६६४ को 'चौंसठ, छहसौ, छयासठ हजार, छयासठ लाख तथा चार करोड़ लिखा है । (ग) २२७९६४९८ को दो करोड़,सत्ताइस, निन्यानवे हजार चार तथा अंठानवे कहा है'। श्रीधवलाके तृतीय भाग पृ० ६८ पर - सत्तादी अटुंता छरणव मज्झा य संजदा सव्वे। तिग भजिदा विगुणिदा पमत्त रासो पमत्ता दु ॥ १, धवला, भा० ३, पृ०९८ पर जीवकाण्ड (गोम्मटसार )की ५१ वीं गाथा (पृ०६३३) उद्धत है। ' २, वही, पृ० ९९,गा० ५२ । ३, , १००,,५३। ४८६ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणित के इतिहास के जैन स्रोत यह मूल गाथा मिलती है जो कि प्रथम प्रकारका उदाहरण है तथा पाठकोंके विचार करनेमें विशेष साधक होगी। यह गाथा बतलाती है कि लेखक विद्वान ही अंकों के 'स्थानमान' को भली भाँति नहीं जानते थे अपितु इस समय के पाठकोंने भी इसे समझ लिया था । यद्यपि इस गाथा के मूल लेखकका श्र तक पता नहीं लग सका है तथापि मेरा विश्वास है कि यह ईसाकी प्रारम्भिक शतीमें किसी जैनाचार्य ने ही लिखी होगी । ये आचार्य निश्चयसे ईसाकी ५ वीं शतीसे पहिले हुए होंगे । जैन ग्रन्थों में सुलभ उक्त प्रकारके उद्धरण प्राचीन भारत में प्रचलित 'स्थानमान' सिद्धान्त के महत्त्वपूर्ण ऐसे प्रमाण हैं जो अन्य वैदिक, आदि ग्रन्थों में नहीं पाये जाते हैं । घातांक - अंकों के 'स्थानमान' के प्रयोगमें आने से पहिले बड़ी संख्याओं को व्यक्त करनेके लिए विविध प्रकारोंका अविष्कार किया गया था । यतः जैन वाङ्गमय में बहुत लम्बी लम्बी संख्याओं का प्रयोग किया गया है अतः इन्हें व्यक्त करनेके लिए घातांक नियमानुसारी प्रकार अपनाये गये थे । (१) वर्ग, (२) घन, (३) उत्तरोत्तर वर्ग, (४) उत्तरोत्तर घन, (५) संख्याको स्वयं-घात ( Power ) बनाना इस प्रक्रियामें प्रधान दृष्टियां थीं। वे 'मूलों' का भी प्रयोग करते ये विशेषकर (१) वर्गमूल, (२) घनमूल, (३) उत्तरोत्तर वर्गमूल, (४) उत्तरोतर घनमूल आदिका । इनके अतिरिक्त घातोंको वे उपरि लिखित प्रकारों द्वारा ही व्यक्त करते थे । उदाहरणार्थ उत्तरोत्तर वर्ग तथा वर्गमूलको लिखनेका प्रकार निम्न था— अ का प्रथम वर्ग (अ) = श्र२ अ अ इस प्रकार अ का अ در " का द्वितीय वर्ग : का तृतीय वर्ग ... न स्थानीय वर्ग का प्रथम वर्गमूल द्वितीय तृतीय " " न स्थानीय, = = = : ॥ = = (अर, 2 ४८७ २ = अ४ = अर १/२ अ १/२ अ १/२ श्र न १/२ श्र अ न अ २ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ संख्याको स्वयं अपना ही घात बनानेकी प्रक्रियाकी "वर्गितसंवगित" संज्ञा थी तथा किसी संख्याका उत्तरोत्तर वर्गित-संवर्गित निम्न प्रकारसे लिखा जाता था अ का प्रथम वर्गित-संवर्गित= . , द्वितीय = (अ) " तृतीय तृतीय , = इसी प्रकार किसी भी घात तक ले जाया जाता था। वर्गित-संवर्गितकी प्रकियासे बहुत बड़ी संख्याएं बनती हैं । यथा २ का वर्गित संवगित(२५६)२५६ है। यह संख्या विश्वमें उपलब्ध विद्युत्कणोंकी संख्यासे भी बड़ी है। जैनोंको निम्न लिखित घातांक-नियम ज्ञात थे तथा वे इनका उपयोग भी करते थे। म न म+न (क) अ४ अ =अ म-न (ख) + अ = अ म) न मन (ग) (अ =अ इन नियमोंके प्रयोर्गोंके उदाहरणोंकी भरमार है। एक रोचक उदाहरण निम्न प्रकार हैं । २ के सातवें वर्गमें २ के छठे वर्गका भाग देने पर २ का छठा वर्ग शेष रहता है । अर्थात् २ २ २ २२% २ लघुगणन-श्री धवलामें निम्न पदोंकी परिभाषाएं दी हैं(क) किसी भी संख्याके 'अर्द्धच्छेद' उतने होते हैं जितनी बार वह आधी की जा सके । इस प्रकार :म के अर्धच्छेद = म होगा । अर्द्धच्छेदका संकेत रूप 'अछ' मान कर हम वर्तमान गणन प्रथानुसार कह सकते हैं क्ष के अच अथवा अछ (क्ष)=लगक्ष, जिसमें लघुगणक २ के आधारसे है। (ख) संख्या विशेषके अर्धच्छेदके अर्धच्छेद बराबर उसकी 'वर्गशलाका' होती है । अर्थात् क्ष की वर्गशलाका = वश (द) = अच {अच (क्ष) = लग लग क्ष, जिसमें लघुगणक रहै के श्राधार से । ४८८ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्त्रोत (ग) कोई संख्या जितनी बार ३ से विभक्त की जा सके उसके उतने ही तृकच्छेद होते हैं। फलतः क्ष के तृच्छेद =तृच (क्ष) = लग ३ यहां लघुगणक ३ के आधारसे है। (घ) किसी संख्याके चतुर्थच्छेद उतने होते हैं जितनी बार उसमें ४ से भाग दिया जा सके । क्ष के चतुर्थच्छेद = लग (क्ष) जिसमें लघुगणकका आधार ४ होगा। आजकल गणितज्ञ ए अथवा १०के आधारसे भी लघुगणकका प्रयोग करते हैं। ऊपरके दृष्टान्तोंसे स्पष्ट है कि जैनी २,३ तथा ४ के आधार तक संभवतः लघुगणकका प्रयोग करते थे किन्तु इसका व्यापक प्रयोग उन्होंने नहीं किया है । धवलामें इस बात के निश्चित प्रमाण हैं कि जैनोंको अधो लिखित लघुगणक नियम भलीभांति ज्ञात थे (१) लग (म/न)= लग म-लग न । (२) लग (मन)= लग म+ लग न । (३) लग (म)=म, यहां लघुगणकका अधार २ है । (४) लग (क्ष)= २ क्ष लग क्ष । (५) लग लग (६)लग क्ष+१+लग लग क्ष । क्यों कि वामांक= रग (२ क्ष लग क्ष) =लग क्ष+जग +लग लग क्ष =लग क्ष+१+लग लग क्ष । (२ के आधारसे हुए लग २ के समान यहां १ है।) (६) लग (क्ष) क्ष = द लग क्ष (७)माना '' एक संख्या है। तब श्र अका प्रथम वर्गितसं = अ =ब (मान लीजिये ) ,, द्वितीय ,, =ब =म( , ) , तृतीय , = य =द ( , ) धवला में निम्न निष्कर्ष मिलते है(क) लग ब =अलग अ ___ ४८९ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ (ख) लग लग ब= लग अ + लग लग अ (ग) लग य = बलग ब (घ) लग लग य = लग ब+जग लग ब = लग अ+लग लग + लग अ । (च) लग द= 4 लग य (छ) लग लग द = लग य+लग लग य, तथा आगे । ( ८ ) ' लग लग द ब । इसकी विषमता आगे भी विषमताको उत्पन्न करती है - ब लग ब+लग ब+लग लग ब बर । संस्कृत गणित ग्रन्थों में इस प्रकारके लघुगणक नियम नहीं मिलते हैं । मेरी दृष्टि से यह सर्वथा जैनियोंका अविष्कार था और उन्होंने इसका प्रयोग भी किया था। इसकी सारिणी बनानेका कोई प्रयत्न नहीं किया गया था। इसीलिए यह परिष्कृत विचार भी न सिद्धान्त रूपसे विकसित हुआ और न अंकों गण में सहायक हो सका । सच तो यह है कि उतने प्राचीन युगमें गणित लघुगणकके प्रयोग योग्य विकसित नहीं था । अतः उस युग में भी इन नियमों का प्रयोग ही अधिक आश्चर्यकारी है । भिन्न - जब 'स्थानमान' का प्रयोग नहीं होता था तब भजन या भाग कठिन था । यद्यपि भिन्न सम्बन्धी अंकगणितीय मूल क्रियाएं ज्ञात थीं तथापि गणना में उनका प्रयोग करना सरल न था । उस समय के अंकगणितज्ञ इसके लिए विविध प्रकारोंकी शरण लेते थे, तथा इनसे बहुत समय बाद मुक्ति मिली थी | स्थानमान के प्रयोगके पहिले प्रयोगमें श्राये कतिपय प्रकारोंको नीचे दिया जाता है । ये सब भी घबला टीकासे हैं (8) न‍ = न+ न+ (न/प) (२) म संख्या में द तथा दा भाज होंसे भाग दीजिये तथा ख और खा को भजनफल ( या भिन्न) आने दीजिये; जैसा कि श्रागे गुरूसे म को द + दा के द्वारा भाग देनेवर अये फल से स्पष्ट है ख १+ (ख-खा) म ख द+दा (खा/ख) + १ (३) यदि (४) यदि म द अ न १+१ =ख और - अथवा ब अ = ख, तब ब+ब 3 मा = खा, तत्र द ( ख - खा ) + मा = म द = ख ४९० ख न+१ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा श्र -4-4 = ख+ ब-ब न तथा (५) यदि - ख तब श्र ब-स (६) यदि -- बा = ब और यदि च = (७) यदि अ अ 16 ब बा (८) यदि अ (९) यदि - अ ब (१०) यदि च = ख = ख+ ब स ख-स ख (११) यदि ब अ ब बा अ ब =ख, और +१ क्ष = ख ब 1 तथा -१ स (बा-ब) बा 7 अ ब = ख, तथा ब ख न-१ = ख, और बस ख+स अ ब+स अ खा = ख श्र = ख -- स, तत्र बा= ब+ बा खा=ख+ = ख+स, तब ख तथा दूसरी भिन्न हो तो बा श्र ब+क्ष श्र ब - द = ख, तथा -ख ख स ब+स =ख तथा अ ब.स ख स ब-स ख = ख+ श्र ब-स ख +3 ब अ = खा, तो ब+स -१ = ख- ख तो = ख+स, तो ४९१ = खा, तो ; ख ब भारतीय गणित के इतिहासके जैन स्रोत स- १ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ज्यामिति एवं क्षेत्रमिति भारतीयोंको समानान्तर चतुर्भुज, समलम्ब, चक्रीय, चतुर्भुज, त्रिभुज, वृत्त तथा त्रिज्यखण्ड के क्षेत्रफल निकालनेके गुरु ज्ञात थे । इसके अतिरिक्त समानान्तर षड्फलक समतल, श्राधारयुक्त शूची स्तम्भ, वेलन, तखा शंकुके श्रायतन निकालनेके गुरू भी उनसे छिपे न थे। किन्तु वैदिक ग्रन्थो में इस बातका कोई अभास भी नहीं मिलता कि ये गुरु किस प्रकार फलित हुए थे। किन्तु धवलामें छिन्न-शंकुका आयतन निकालनेकी सर्वाङ्ग प्रक्रिया तक मिलती है। यह वर्णन स्पष्ट बताता है कि ज्यामितिके अध्ययनकी भारतीय प्रथा ग्रीक प्रथासे सर्वथा भिन्न थी। उक्त दृष्टान्तमें किसी क्षेत्रफल या आयतनको सरलतर क्षेत्रफल अथवा पायतनमें, क्षेत्रफल या आयतनको विना बदले ही विकृत करनेका सिद्धान्त निहित है। यतः वर्तमानमें वैदिक तथा जैन ग्रन्थों में उपलब्ध क्षेत्रमितिके गुरुओंकी उपपत्तिका पुनर्निर्माण शक्य है । अतः यहां पर हम कतिपय उपपत्तियोंका पुनर्निर्माण करेंगे भी, किन्तु ऐसा करनेके पहिले धवला के मूल उद्धरण तथा उसके अनुवादको देख लेना अनिवार्य है लोकका आयतन निकालनेका प्रश्न है। जैन मान्यातानुसार लोक नीचे ऊपर रखे गये तीन छिन्न-शंकुत्रोंके आकारका है ( देखें आकृति१) । विविध परिमाण आकृतिमें दिखाये गये हैं। धवलामें लोक के आयतनकी गणना की गयी है। नीचे लिखे निष्कर्ष अधोलोक (आकृति २) के छिन्न-शंकु ( Frustum) का आयतन निकालने में सहायक हैं। आधारका व्यास = ७ (राजु) मुख (शिखर) का व्यास=१,, उत्षेध = ७ ,। धवला टीका निम्न प्रकार है'मुखमें (ऊपर) तिर्यक रूपसे गोल तथा आकाशके एक प्रदेश बाहुल्ययुक्त इस सूचीकी परिधि ३५७ होती है । इस (परिधि) के आधेको विष्कम्भ ( एक राजु ) के आधेसे गुणा करनेपर ४९२ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्योतिषके इतिहासके जैन-स्रोत ३५५/४५२ आता है । अब हमें लोकके अधोभागका अायतन निकालना है अतः क्षेत्रफल ( ३५५/४५२) में सात राजका गुणा करनेपर वह ५२२५ होगा (श्राकति २ १ पुनः चौदह राजु लम्बे लोकक्षेत्र में से सूचीको निकालकर मध्य लोकके पास उसके दो भाग कर दें। उनमें से नीचे के भागको लेकर ऊपरसे (चित्त ) पसारने पर वह क्षेत्र सूपाके आकारका होता है। इस सूर्पाकार क्षेत्रका ऊपरका विस्तार (लम्बाई ) ३५3 प्रमाण है । तथा तलको लम्बाई २१५१३ है । इसे सात राजु लम्बे मुख-विस्तार द्वारा नीचेकी ओर काटनेपर दो त्रिभुज तथा एक आयत चतुरस्राकार क्षेत्र बन जाते हैं। ___ इन तीन क्षेत्रों में से बीचके आयत चतुरस्र क्षेत्रका आयतन निकालते हैं। इसकी ऊंचाई सात राजु है । लम्बाई ३५४ है। मुखमें बाहुल्य आकाशके एक प्रदेश प्रमाण तथा तले (नीचे) तीन राजु प्रमाण है, फलतः मुख विस्तारको सात राजु तथा तल विस्तारके श्राधे (डेढ़े राजु) से गुणा करनेपर मध्यम भागका आयनत ३२३३३ होगा। "अब शेष दो त्रिकोण क्षेत्र सात राजु ऊंचे, एक राजुके एकसौ तेरह भागोंमें अड़तालीस युक्त नौ राजु ( ९६५७) भुजा ( अाधार ) युक्त हैं । भुजा और कोटिका परिमाण कर्ण के अनुपातसे है । ...... १ "एदस्स मुहतिरिय वट्टस्स एगागास पदेस बाहलस्स परिओ एत्तिओ छोदि ३५४(३१३) इममद्वेणविक्खभद्ध ण गुणिदे एत्तियं होदि ३५१ (३५५) । अधोलोग भाग मिच्छामो त्ति सत्तहि रज्जूहिं गुणिदे खायफलमेत्तियं होदि ५४३५ (५३३५) । (पृ० १२) २ 'पुणो णिस्सई खेत्त चोइस रज्जु आयद दो खंडागि करिय तत्थ हेछिम खंडं घेत्तृण उड्ढं पाटिय पसारिदे सुप्पखेत्त होऊग चेदि । तस्स मुहवित्थारो एत्तिओ होदि ३११ (३५५) । तलवित्थारो ऐतिओ होदि २२१५७ (२१११३) । एरथ मुहवित्थारेण सत्तरज्जु अपामणे छिंदिदे दो त्रिकोण खेत्तानि एयमायद चतुरस्स खेत्तं च होइ।" (पृ० १२-१३) ३ 'तस्थ ताव मज्झिमखेत्तफल माणिज्जदे । एदस्स उस्सेहो सत्त रज्जूओ। विवखभो पुण एत्तिओ होदि ३१ (३५७)। मुहम्मि एगागासपदेस बाहलं तलम्मि तिण्णि रज्जु बाहल्लो त्ति सत्तहि रज्जूहि मुहवित्थार गुणिय तल बाहल्लद्धण गुणिदे मज्झिम खेत्तफलमेत्तियं होदि ३४३३ (३२३२३)।” (पृ० १३) Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दोनोंके कर्णों को बीचमें काटकर दोनों दिशाओं में सीधी ऊर्ध्वाकार रेखाएं खींचने पर तीन, तीन क्षेत्र बन जाते हैं । ( आकृति ३) ।" "इनमें से दो चतुष्फलकोमें प्रत्येककी ऊंचाई ( ह द तथा हा दा । साढे तीन राजु है, लम्बाई (फ ब तथा फा बा ) एक राजुके दो सौ छब्बीस भागोमें से एक सौ इकसठ युक्त चार राजु ( ४ ३३३ ) है, दक्षिण ( बा दा) तथा वान (ब द ) दिशामें मोटाई तीन राजु है, दक्षिण तथा वाम ओर ही ऊपर तथा नीचे क्रमशः डेढ़ राजु है और शेष दो कोनोंमें आकाशके एक प्रदेश भर (शून्यवत् ) है तथा अन्यत्र क्रमसे घटती बढ़ती है । ( अतएव यह सब ) निकल आने पर जब एक चतुष्फलक क्षेत्रको दूसरे पर पलट कर रख देते हैं तो सर्वत्र तीन राजु मोटाईयुक्त क्षेत्र हो जाता है। (श्राकृति ४ ) इसकी लम्बाईमें ऊंचाई तथा मोटाईका गुणा करने पर ४९ ४५५ क्षेत्रफल अाता है।" ____ अवशेष चार चतुरस्र क्षेत्रोंकी ऊंचाई साढ़े तीन राजु है, उनकी भुजाओंकी लम्बाई योजनके दो सौ छब्बीस भागों में से एक सौ इकसठ अधिक चार राजु (४ १६३) प्रमाण है । इनके कौँको १ 'संपहिं सेस दो खेत्ताणि सत्तरज्जु अवलंबयाणि तेरसुत्तरसदेण एक रज्जु खडिय तत्थ अठैतालीस खंड माहिय णवरज्जु भुजाणि भुजकोडि पाओग्ग कण्णागि कण्णभूमीए आलिहिय दोसु वि दिसासु मज्झम्मि फालिदे तिष्णि तिष्णि खेत्ताणि होत्ति।' (पृ. १३-१४) २ 'तत्थ दो खेत्ताणि अद्ध ठरज्जुरतेहाणि छब्बीसुत्तर-वेसदेहि एगरज्जु खंडिय तत्थ एगट्ठिखंड भाहिय खंड सदे॥ सादिरेय चत्तारि रज्जु विक्खंभाणि दक्षिण-वामहेट्ठिमकोणे तिषिणि रज्जु वाहल्लाणि, दविखण-वाम कोणेसु जहाको उमरिम हेट्रिटमेसु दिवड्ढरज्जु गहल्लागि, अवसेसदोकोणे एगागासबाहल्लाणि, अप्णत्थ कम-वढिगद बाहल्लाणि घेत्ता तत्थ एगखेत्तुस्सुवरि विदियखेत्ते विवज्जासं काऊग टविंदे सम्वत्थ तिणि रज्जु बाहल्लखेत्तं होइ । एदस्स वित्थार मुस्सेहे गुणिय वेहेण गुगिदे खायफल मेत्तियं होई ४९२१७।' (पृ०१४ ) ४९४ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्रोत लेकर दोनों (तल पर तथा ऊपरकी ओर ) दिशाओं में ठीक बीचसे काटने पर चार आयतचतुरस्र तथा आठ त्रिभुज क्षेत्र होते हैं।' इनमेंसे चारों अायत चतुरस्र क्षेत्रोंका घनफल पूर्वोक्त (ऐसे ही) दो अायत चतुरस्रोंके घनफलका एक चौथाई होता है। चारों क्षेत्रोंमें ( दो दो को पलट कर मोटाईके अविरोधसे एक साथ रखने पर (सबकी) मोटाई तीन राजु होती है ( तथा ) पूर्वोक्त क्षेत्रोंकी लम्बाई तथा ऊंचाईकी अपेक्षा इनकी लम्बाई ऊंचाई अाधी ही पायी जाती है। चारों क्षेत्रों की मिलाकर भी मोटाई किस कारणसे तीन राजु मात्र होती है ? प्रकृत क्षेत्रोंकी मोटाई पूर्वोक्त क्षेत्रोंकी अपेक्षा आधी मात्र होनेसे तथा इनकी ऊचाई भी पूर्वोक्त क्षेत्रोंसे आधी मात्र दिखनेसे । २ अब शेष अाठ त्रिकोण क्षेत्रोंको पूर्ववत् खंडित करने पर पूर्वोक्त त्रिकोणोंसे आधी मोटाई, ई तथा लम्बाईके सोलह त्रिकोण क्षेत्र होते हैं । इनको निकाल कर ( शेष) आठ अायत चतुरस्रोंका क्षेत्रफल अभी कहे गये ( अायतोंके ) फलसे एक चौथाई मात्र आता है। इस प्रकार सोलह, बत्तीस, चौंसठ, श्रादि क्रमसे तब तक आयत चतुरस्र क्षेत्र बनते जायगे जब तक कि अविभाग प्रतिच्छेद ( प्रदेश ) अवस्था नहीं आय गी। तथा इसमें पूर्ववर्ती श्रायत चतुरस्रों के क्षेत्रफलसे उत्तरवर्ती (द्विगुणित) अायत चतुरस्रोंका फल एक चौथाई ही हो गा। इस प्रकारसे उत्पन्न निःशेष क्षेत्रोंके फलोंको जोड़नेकी प्रक्रिया कहते हैं। वह इस प्रकार है १ ‘अवसेस चत्तारि खेत्ताणि अद्ध ठरज्जुरसेहाणि छब्बीस्सुत्तर वेसदेहि एगरज्जु खडिय तत्थ एगठिंसद खडेहि सादिरेय चत्तारिरज्जु (४१६१)भुजाणिकण्णखेत्ते आलिहिय दोसु वि पासेसु मञ्झम्मि छिष्णेतु चत्तारि आयद चउरंस खेत्ताणि अठ्ठ त्रिकोण खेत्ताणि च होति ।' (पृ० १४-१५) २ 'एत्थ चदुह मायद चउरंस खेत्ताणं फलं पुब्बिल दो खेत्त फलस्स चउभागमेत्त होदि । चदुसु वि खेत्तेसु वाहल्लाविरोहेण एगढ़ कदेसु तिष्णि रज्जु वाहल्लं पुबिल्ल खेत्त विक्संभायामेहिं तो अद्धमेत्त विक्खभायामपमाण खेतुवलभादो। किमर्छ चदुण्हं पि मिलिदाणं तिष्णि रज्जु वाहल्लत ? पुन्बिल खेत्त वाहल्लादो संपहिय खेत्ताण मद्धमत्त वाहल्लं होदूण तदुस्सेहं पेक्खिदूण अद्धमेत्तुस्सेह देसंणादो।" (पृ०१५) ३ 'संपहि सेस अठ्ठ खेताणि पुव्वं व खंडिय तत्थ सोलस तिकोण खेत्ताणि अणंतरापीदखत्ताण मुस्सेहादो विक्खभादो वाहल्लादो च अद्धमेत्ताणि अवणिय अण्हमायद चउरंस खेत्ताणं फल मगंतराइक्कत चदुखेत्त फलस्स चउभाग मेत्त होदि ।' (पृ. १५) ४ एवं सोलस-वत्तीस-चउसठि आदि कमेण आयद चउरंस खेत्ताणि पुबिल्ल खेत्तफलादो चउभागमेत्त फलाणि होदूण गच्छति जाव अविभागपलिच्छेदं पत्तं ति ।” (पृ० १५-१६) ४९५ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ सभी क्षेत्रोंका घनफल चतुगुणित क्रमसे निश्चित आता है ( ऐसा मानकर ) सबसे अंतिम घनफल को चारसे गुणा करने तथा एक कम उतने ( तीन ) से ही भाग देने पर ६५ १६ ( ६५११ ) आता है । (तः) अधोलोकके समस्त क्षेत्रों का घनफल १०६ (१०४२२५ ) होता है । २ गणितशास्त्र के इतिहासकी दृष्टिसे अधोलोकके इस विवरण में निम्न तथ्य बड़े महत्व के हैं (१) कोई भी वक्र सीमाओं से युक्त क्षेत्र सीधी सीमायुक्त क्षेत्रों में ऐसे ढंग से विभाजित किया जा सकता है कि क्षेत्रफल पर कोई भी प्रभाव न पड़े। विशेषकर यदि अन्तःशून्य ( पोला ) शंक्वाकार ( आकृति २ ) को सीधी सीमा युक्त ( श्राकृति ३) में परिवर्तित किया जाय तो फलमें कोई परिवर्तन नहीं होता है । (२) स्पष्ट प्रदर्शन अथवा सिद्धिके लिए आकृति निर्माणका सिद्धान्त सत्य माना गया था । अब सद तथा आबा सा दा ( आकृति ३ ) चतुष्फलकों के घनफल निकालने में इस सिद्धान्तका विशेष रूपसे प्रयोग हुआ है । अ (३) ज्यामितिकी श्रेणियोंमें स= र<। १ - र न + स = अ+अर+अर±+... अर (४) " का मूल्य = = 77 क्षेत्रमिति के गुरुओं की साधक रचना ऊपरके निदर्शनोंमें उपयुक्त श्राकृति परिवर्तन तथा रचना के सिद्धान्तोंका भारतीय क्षेत्रमिति में प्रचलित तथा उपयुक्त निम्न गुरुश्रोंके निकालने में उपयोग किया जा सकता है। क्षेत्रफल - १ - परिभाषा - लम्बाई में चौड़ाईका गुणा करनेपर आायतका क्षेत्रफल आता है । २- अाधारकी लम्बाई में ऊंचाईका गुणा करनेपर समानान्तर चतुर्भुजका क्षेत्रफल अ. ता है । ( श्राकृति सं. ५ ) द का गुरू स्वयंसिद्ध मान लिया गया था । स्वीकार कर लिया गया था । स स प्रकृति ५ प्रकृति ६ दाणित्ति १ एवमुपण्णासेस खेत्तफल मेलावण विहाणं वुच्चदे । तं जहा सम्म खेत्तफलाणि चउगुण कमेण अवट्ठिकादूण तत्थ अंतिम खेत्तफलं चउहिं गुणिय रूवूणं काऊग तिगुणिद छेद्देण ओत्रदेि एत्तियं होई ६५१३३६ (६५) । अधोलोगस्य सव्वखेत्त फल समासो १०६ ३६६ (१०४३६३) ।” ( पृ० १६ ) ४९६ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्रोत रचना -- ( श्राकृति ६ में) सद पर बफ लम्ब डालने से बने ब स फ भागको काटकर दूसरी तरफ ए द रूप से जोड़ दीजिये इस प्रकार बनी श्राकृति श्रायत होगी और प्रमेय निकल श्रायगा । श्राकृति परिवर्तनका प्रथम नियम- समानान्तर चतुर्भुजकी एक भुजाको अपनी ही सीध में चलाने से उसका क्षेत्रफल तदवस्थ रहता है । यथा अब सदमें स द भुजाको अपनी ही सीध में बढ़ाते हुए एफ रूपमें ले आये हैं और इस प्रकार बना आयत (ए अ व फ) क्षेत्रफल में अ ब स द के समान है । ३ – आधारकी आधी लम्बाई में ऊंचाईका गुणा करनेसे त्रिभुजका क्षेत्रफल आता है । यह निष्कर्ष सत्य है क्यों कि उसी आधार पर बने उतनी ही ऊंचाई के समानान्तर चतुर्भुजसे त्रिभुज आधा होता है । श्राकृति परिवर्तनका द्वितीय नियम - यदि त्रिभुजका शीर्ष आधारके समानान्तर हटाया जाय तो त्रिभुजका क्षेत्रफल तदवस्थ ही रहता यथा श्राकृति ७ है । ( श्राकृति ७ ) ४ - आधारकी श्राधी लम्बाई में पक्ष ( फलक Face ) को जोड़कर ऊंचाई से गुणा करने पर समलम्बका क्षेत्रफल आता; यथा श्राकृति ८ है । द ( श्राकृति ८ ) इस प्राकृतिकी रचना से परिणाम निकलता है कि श्राकृति परिवर्तनका सिद्धान्त समलम्बके लिए भी काम आ सकता है । अर्थात् समलम्बकी एक समानान्तर भुजाको अपनी सीधमें बढ़ानेसे समलम्बके क्षेत्र पर कोई प्रभाव नही पड़ता है । ६३ ४९७ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ५-वृत्तके त्रिज्य-खण्डका क्षेत्रफल प्राधे चाप तथा त्रिज्यके गुणनफलके बराबर होता है । (श्राकृतिह) (आकृति १०) रचना-अ ब स त्रिज्यखंडको ( आ. ९) अनेक ( संभवतः समान ) छोटे त्रिज्य खंडोंमें बांटो और इनके चाप इतने छोटे हों कि उन्हें सीधी रेखासे भिन्न समझना भी कठिन हो । इस प्रकार त्रिज्यखंड अनेक त्रिभुजोंमें विभक्त हो जाता है। अब इन त्रिभुजोंको बस आधार पर इस तरह रखो कि उनके आधार एक दूसरेसे सटे रहें (आ. १०) और उनके शीर्षों को इस प्रकार चलायो कि वे अ बिन्दुपर आ मिलें । इस प्रकार त्रिज्यखण्डका क्षेत्रफल अब स त्रिभुजके बराबर ही आता है। और बस अाधारकी लम्बाई चाप तथा ऊंचाई त्रिज्यखण्डके त्रिज्यके समान होती है। विकृतिका तृतीय नियम-यदि वृत्तके तृज्यखण्डको ऐसे त्रिभुजमें परिवर्तित किया जाय जिसके अाधार और ऊंचाई त्रिज्यखण्डके चाप तथा त्रिज्यके बराबर हों तो क्षेत्रफल तदवस्थ ही रहता है। कोणके द्विभाजकको केन्द्र पर स्थित रखके तथा वृत्ताकार चापको सीधा करके यह श्राकृति परिवर्तन किया जाता है। ६–परिधिकी आधी लम्बाईको त्रिज्यसे गुणा करनेपर वृत्तका क्षेत्रफल पाता है। रचना-त्रिज्यके सहारे (त्रिज्य परसे ) वृत्तको काटकर इसे त्रिकोण रूपसे फैला दीजिये तो वृत्तका क्षेत्रफल इस त्रिकोण के समान हो गा। क्योंकि अाधार परिधिके और ऊंचाई त्रिज्यके बराबर होनेसे उक्त फल स्वयं सिद्ध है। (ब्लोम) उपसिद्धान्त--अ तथा ब त्रिज्यायुक्त दो समकेन्द्रक वत्तों तथा दोनों त्रिज्योंसे Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्रोत सीमित क्षेत्रका क्षेत्रफल उस समवलम्ब के बराबर होता है जिसकी समानान्तरभुजाएं दोनों वृत्तोंके चापके बराबर होती हैं तथा ऊंचाई दोनों वृत्तोंके त्रिज्यों के अन्तरालके बराबर होती है। (आकृति ११) (आकृति १२) आयतन ७परिभाषा--समकोण षडप.लकका श्रायतन उसकी लम्बाई चोड़ाई तथा मोट ईका उत्तरोत्तर गुणा करनेसे आता है। ------ (अाकृति १३) (आकृति १४) ८--षडफलकका आयतन इसके आधारके वर्गमें ऊंच ईका गुण। करनेपर आता है। रचना--प्राकृतिके संकेतानमार द म सं फं फ ए एंभागको काटकर दूसरी ओर ले जाने पर समानातर षड्फलक समकोण--समानान्तर षड्फलक हो जाता है। आकृतिमें दो फलक समकोणीय और और दो धरातलीय हैं । अगर ये समकोणीय न होते तो ऊपरकी एक पुनरावृत्ति करनेसे समानान्तर षड्फलक; समकोण समानान्तर षडफलक हो जायगा। ४९९ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ विकृतिका चतुर्थ सिद्धान्त--यदि समानान्तर षड्फलकके एक फलकको उसके धरातलपर हटाया जाय तथा सामनेके फलकको तदवस्थ रखा जाय तो स० षडफलकके श्रायतनमें कोई अन्तर नहीं पड़ता है। इसके अनुसिद्धान्त रूपसे हम कह सकते हैं-- ६--श्राधारके लेत्रफलमें ऊंचाईका गुणा करनेसे समपार्श्व (Prism) का आयतन अाता है । १०--आधारके क्षेत्रफलमें ऊंचाईका गुणा करनेसे सम-अनुप्रस्थ परिच्छेदयुक्त वेलनका आयतन निकलता है। ११--आधारके तृतीयांशके क्षेत्रफलमें ऊंचाईका गुणा करने पर चतष्फलकका श्रायतन निकलता है। कारण त्रिकोणात्मक आधार पर बनाया गया समपार्श्व तीन समान चतुष्फलकोंमें विभक्त किया जा सकता है। उपरि अंकित प्राकृतिमें चतुष्फलकका आयतन निकालनेके प्रकारका दूसरा विकल्प भी बताया है। १२–श्राधारके तृतीयांशके वर्गमें ऊंचाईका गुणा करने पर शूचीस्तम्भका आयतन आता है। रचना--शूचीस्तम्भको अनेक चतुष्फलकोंमें विभक्त किये जा कनेके कारण उक्त निष्कर्ष अाता है। १३--सम-शंकुके आधारके क्षेत्रफलमें ऊंचाईका गुणा . अ. करनेपर उसका आयतन आता है। रचना--आधारकी त्रिज्याके सहारे ऊर्ध्वाकार रूपसे शीर्षतक (आकृत १५) शंकुको काटिये, फिर इसे ऐसा बढ़ाइये कि आधार आकृति ६ के त्रिभुजमें परिवर्तित हो जाय । इस प्रकार शूचीस्तम्भ चतुष्फलकमें परिवर्तित होता है । इस चतुष्फलकका अायतन आधारके तृतीयांशके क्षेत्रफलमें ऊचाईका गुणा करने पर आता है । और उक्त निष्कर्षकी पुष्टि करता है। यह परिणाम विकृति-नियम चारके अनुसार सम-विषम, वर्तुल-अवर्तुल सभी शंकुओं के लिए उपयुक्त है। १४--यतः आधारकी समतल समानान्तर रेखासे शंकुको (बाकी ) काटनेसे छिन्न-शंकु बनता है अतः उसका अायतन व्यवकलन पद्धतिसे निकाला जा सकता है । छिन्न-शंकु ज्ञात होनेसे उस मूल शंकुका पता अवश्य लग जाना चाहिये जिसे काटकर छिन्न-शंकु बना है। किन्तु धवलाकार ऐसा न करके उस रचना तथा विकृतिके सिद्धान्तोंके सहारे छिन्न-शंकुका सीधा आयतन निकालते हैं जिसके पुनर्निर्माण का मैंने यहां प्रयत्न किया है। ५०० Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणित के इतिहास के जैन-स्रोत कल्पना कीजिए कि अ तथा ब छिन्न- शंकुके आधार तथा ह ऊंचाई है । इसमें से ब त्रिज्या तथा ह ऊचाईका वेलन अलग करके रचना तथा विकृति करते हुए 'आकृति तीन' में दत्त पिण्ड प्राप्त होता है । इस आकृतिमें- श्र श्रा=ब बा = २ग्बं ब द=बा दा = श्रं -- बं ब स=बा सा="( श्रं - - ) अ द=ना दा = ह इस पिंडको तथा आ के बीचसे जाने वाली समतत ऊर्ध्वाकार रेखाओं द्वारा तीन भागों में बांट देते हैं । तब ब द दाबा या समपार्श्व और अब स द तथा श्रा बा सा दा ये दो समान चतुष्फलक बन जाते हैं । त्रिकोणात्मक आधार अ ब द पर स्थित २ बं ऊंचाई युक्त अ ब द दाबा आ समपार्श्वका आयतन -- बदXX २ = 2 ( श्रं -- बं) XहX२ बं = बं हं ( श्रं - - ) ...... . ( प्र ) है | दोनों चतुष्फलकोंके श्रायतनका योग होता है- २XX ब द×त्र सX द = 3X ( श्रं - - ) X (अं-- बं) हं = " ( अं--बं )२Xहं...... (द्वि) अतएव छिन्न- शंकुका आयतन होता है- हं+बं हं ( श्रं - बं ) + 3 ( श्रं बं ) ह =+"हं {३ बं२+३ श्रं बं—–३ बं^+श्रंश्+चं'–२ श्रं बं } =ते॒ग॒हं { श्रं*+बं*+२श्रं बं } यह प्रसिद्ध गुरु है। अनन्त प्रक्रिया ब दोनों चतुष्फलकोंका आयतन तो सीधे ही निकल आया है। प्रत्येक चतुष्फलकको (आबा ) के मध्यबिन्दु ग (गा) में से ऊर्ध्वाकार समतल रेखाएं खींचकर तीन भागो में विभक्त कर दिया है। बदह ए ग इ फ तथा बा दा हाँ ऐगा ई का पिण्डोंको एक दूसरे पर रखनेसे त्रिकोणात्मक आधार पर हं ऊंचाईका समानान्तर चतुर्भुज बन जाता है । ५०१ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-प्रन्थ ब द=(अंबं) तथा वफ-स (अं-बं) कल्पना कीजिये कि इस सम नान्तर चतुर्भुजका श्रायतन क है । अर्थात्क= " (अं-बं)२४३६ = ग (अं-बं)२४ उक्त रचनामें प्रदर्शित चारां चतुष्फलकोंमेंसे प्रत्येकके भुजाके मध्यबिन्दुमें से समतल ऊर्ध्वाकार तल खींचकर तीन भाग करिये। इस प्रक्रिया द्वारा ब द ह ए गइ फ समान चार पिंड तथा पाठ चतुष्फलक और उत्पन्न होते हैं। इन चारों पिण्डोंको एक साथ रखनेसे एक समानान्तर चतुर्भुज बनता है जिसका अायतन पूर्वोक्त (स० च०) के आयतनका चतुर्थ भाग होता है अर्थात् इसका आयतन ? क है। इस क्रमसे उत्तरोत्तर निम्नांकित पायतन पाते हैं क, क, २ इनका योग होगाक (१++++......) ३ यतः क (अं-ब)२ के समान मान लिया गया है अत: = (अं-ब) २ हं = दोनों चतुष्फलोंका अायतन । पूर्वोक्त विधिसे उत्तरोत्तर रचना क्रम चालू रखनेसे चतु फलकों का आयतन घटता ही जाता है । और अनन्त रचना करनेसे बिन्दु मात्र रह जाता है। अतएव धवलाकारने ठीक ही कहा है कि चतुष्फलक बिन्दु मात्र रह जानेके कारण उनका अायतन शून्य हो जाता है । अतएव अब स द तथा आ बा सादा दोनों चतुष्फलकों में प्रत्येकका श्रायतन होता है ( अं-बं) xहं = x.(अं-नं )x( अं-बं)xहं =3x आधारका वर्गxउत्षेध इस विवेचनमें उल्लेखनीय तथ्य ये हैं - (१) रचनाके अनन्त अनुक्रमका निश्चित प्रयोग तथा (२) अनन्त श्रेणीके योगके गुरुका निश्चित प्रयोग। ५०२ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गणितके इतिहासके जैन-स्रोत प्राचीन भारतीय गणितज्ञोने अनन्तक्रमके उपयोगको कैसे सिद्ध किया था यह हम संभवतः कभी न जान सकेंगे। फलतः भारतीय गणितज्ञ ८ व ९ वी शती ई० सदृश प्राचीन समयमें भी अनन्त क्रमका उपयोग करते थे कह कर ही हमें संतुष्ट होना पड़ता है। अब २८३२ अन ---- २०००० ... ७+ + इसके उत्तरोत्तर संसृत ३, तथा ३५ हैं । के मूल्यांकनका ग्रीक विद्वानोंने प्रयोग किया था अतएव इसे , का ग्रीक मूल्य कहते हैं। आर्यभटके अंकनमें यह दूसरा संसृत है तथा भारतमें ही आर्यभट्ट द्वि० तथा भास्कर द्वि० ने इसका , का स्थूल मूल्य कह कर प्रयोग किया है। तृतीय संसृत २३ का वैदिक गणितज्ञों तथा ज्योतिषियोंने बहुत कम उपयोग किया है। सत्रहवीं शती ई० के चीनी विद्वानों के ग्रन्थों में पाये जाने के कारण पाश्चात्य विद्वान इसे ग का 'चीनी मल्य' कहते हैं। किन्तु धवलाकार श्री वीरसेनने अपनी रचना ८ अक्टूबर ८१६ ई० को समाप्त की थी। किन्तु उन्होंने इस ग-२१ मल्यांकनका प्रयोग करते हुए इसके समर्थनमें प्राचीनतर गाथा' का प्रयोग किया है जिसकी संस्कृत छायाके अनुसार विशुद्ध अनुवाद हो गा "व्यासमें १६ से गुणा करके १६ जोड़कर तीन-एक-एक (११३ ) से भाग देकर व्याससे 'तिगुनेको जोड़नेसे 'सूक्ष्मसे सूक्ष्म' (परिधि ) निकल आता है।" । प-३च्या+ १६ व्या+१६ ( इसमें प तथा व्या क्रमसे परिधि तथा व्यासके लिए प्रयुक्त हैं। ) उक्त गाथार्थकी वीरसेन निम्न व्याख्या करते हैंप=३ व्या+१६व्या_ ३५५ व्या ११३- ११३ अर्थात् ग = ३६६० = १४। यह व्याख्या तब तक ठीक न होगी जब तक 'षोडश सहितम्' का अर्थ १६ बार जोड़ा गया" न किया जाय । इस प्रकार गाथाका अर्थ हो गा "१६ से गुणित व्यास,--अर्थात् सोलह बार जोड़ा गया-में तीन-एक-एकका भाग देकर व्यासका तिगुना जोड़ देनेसे सूक्ष्मसे सूक्ष्म ( परिधि) निकल आती है।" पाई (ग) का मूल्य 'वृत्तको वर्गाकार' बनानेका प्रश्न; अथवा भारतीय धार्मिक दृष्टिसे अधिक मौलिक एवं महत्वपूर्ण 'वर्गको वृत्ताकार' बन नेका प्रश्न वैदिक यज्ञ यागदिके साथ ही उत्पन्न हुआ था तथा अत्यन्त १-"व्यासम् षोडश गुणितं पोडशसहितं त्रि-रूप-रूपरविभक्तम् । व्यास विगुणित सहितं सूइमादपि तद् भवेत् सूक्ष्मम् ।।" २- 'अकानां वामतो गतिः' अतः । एक-एक-तीन (११३ ) संख्या होगी। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण बन गया था। संभवतः यह प्रश्न कवेदके सर्व प्रथम मन्त्रके साथ ही ( ईसासे ३००० वर्ष पूर्व) उठा हो गा । गाहपत्य, आहवनीय, तथा दक्षिणा नामकी प्रारम्भिक तीनों वेदियोंका क्षेत्रफल समान होने पर भी उनके श्राकार विभिन्न-वर्ग, वृत्त तथा अर्धवृत्त-होना आवश्यक था। तैत्तिरीय संहितामें रथचक्र चिति, समुह्य चिति, परिचय्य चिति नामोंसे उल्लिखित पांच वेदिकानोंको एक ऐसा वृत्त बनाना चाहिये जिसका क्षेत्रफल ऐसे वर्गके समान हो जिसका क्षेत्रफल १ होता है। उन दिनों का मूल्य ३ तथा ३.१ के बीचमें घटता बढ़ता रहता था। का मूल्य-१०' का सबसे पहिले जैनाचायोंने ही प्रयोग किया था ऐसा प्रतीत होता है। इसका उमास्वामिने प्रयोग किया था जो कि प्रथम शती ई० पू० में हुए हैं । वे कहते हैं - "व्यासके वर्गको दशसे गुणा करके वर्गमूल निकालने पर परिधि आती है । तथा उसमें व्यासके वर्गका गुणा करने पर क्षेत्रफल निकलता है।" ____ यह अंकन (ग =१०) इतना लोकप्रिय हुआ कि उत्तरकालीन ब्रह्मगुप्त (६२८), श्रीधर (ल० ७५०), महावीर ( ल० ८५० ), आर्यभट्ट द्वि० ( ल० ९५०), आदि वैदिक गणितज्ञों एवं ज्योतिषियोंने भी इसका खूब प्रयोग किया है । ग = ६३४३२ का आर्यभट्ट प्र० ने प्रयोग किया है । वे कहते हैं कि २०००० व्यासयुक्त वृत्तकी परिधिका स्थूल प्रमाण १०० धन ४ में ८ का गुणा करके ६२००० जोड़नेसे आता है । हम देखते हैं कि 'सहितम्' का प्रयोग जोड़ तथा गुणा-अर्थात् संख्याका बारम्बार योगदोनों अर्थों में वेदांग ज्योतिषमें किया गया है किन्तु आर्यभट्ट ( ४९९ ) तथा दूसरे गणितज्ञोंने इन दोनों अर्थों में इसका प्रयोग नहीं किया है । इसके अाधारपर यही अनुमान किया जा सकता है कि उक्त उद्धरण ई० की पांचवीं शतीसे पहिले ही लिखा गया होगा जब कि 'सहितम्' का प्रयोग-योग तथा गुणा-दोनों अर्थों में प्रचलित था। अतः स्पष्ट प्रतीत होता है कि = ३५७ तथोक्त चीनी मूल्यांकन भारतमें प्रचलित था; और संभवतः चीनसे बहुत पहिले । यह भी संभव है कि बौद्ध धर्मप्रचारकों द्वारा यह चीनको प्राप्त हुश्रा हो अथवा यह भी सर्वथा असंभव नहीं है कि उन्होने स्वतंत्र अाविष्कार किया हो । उक्त उद्धरणमें दूसरी महत्त्वपूर्ण बात 'सूक्ष्मादपि सूक्ष्म' है । इसका यही भावार्थ होता है कि भ का सक्ष्म मूल्य ज्ञात था जो कि = /१० अथवा ग= २२ थे । यदि तृतीय संसृत दूसरेका समीपतर संन्निकटीकरण है तो आर्यभट्टके मूल्यसे इसका सम्बन्ध भी स्पष्ट है। १–विशेष परिचय के लिए कलकत्ता विश्व विद्यालयके श्री बी० बी० दत्तका 'दी साइन्स ओफ सुल्वा ( The Science of Sulba.) १३२. दृष्टव्य है। २–उमास्त्रामिकृत तत्त्वार्थसूत्र का सन् १९०३ में श्री के० पी० मोदी द्वारा प्रशशित कलकत्ता संस्करण ३,२ भाष्य । अभी पता लगा है कि भाष्यसे प्राचीनतर प्राकृत ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख है। ३–आर्यभट्ट, द्वि०, १०। ५०४ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेदका मूल प्राणवाद-पूर्व श्री पं० कुन्दनलाल न्यायतीर्थ, आदि प्रारम्भ जैन काल-गणनानुसार अवसर्पिणी युगचक्रके पहिले तीन कालोंमें भोगभूमि रहती है। चौथे कालके साथ कर्मभूमि प्रारम्भ होती है और संभवतः उसीके साथ अन्नाहार तथा साबाध जीवन भी। फलतः त्रिदोषका कोप हुश्रा और जनता बहुत भीत' हो गयी। वे इस युगके आदिपुरुष भगवान ऋषभदेवके पास गये और उनसे समझ सके कि किसी देवी देवताके प्रकोपके कारण नहीं, अपितु जीवनमें व्यतिक्रमके कारण ही वे रोगी हुए हैं। अदिपुरुषने बताया कि आयुके लिए क्या हित कारक है और क्या अहितकारक है। इन दोनों से किस प्रकार क्रमशः रोग शान्त तथा उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार आत्मा तथा शरीरका सम्बन्ध जीवन (आयु), उसमें होने वाले उपद्रवोंका निदान तथा उनकी शान्ति रूप चिकित्सा मय शास्त्र आयुर्वेद का प्रारम्भ हा । __ संसारके समान अयुर्वेद भी अनादि अनन्त है । तथापि अाधुनिक ऐतिहासिक परम्पराके अनुसार उपलब्ध पुरातत्त्व सामग्री के आधारसे भी आयुर्वेदका विचार किया जाय तो हम देखते हैं कि ऋग्वेदमें भी अनेक शस्त्र क्रियाश्रों तथा मंणि-मंत्र औषधियोंके उल्लेख है। चन्द्रमाके क्षय तथा श्वित्रकी चिकित्सा, च्यवन ऋषिकी पुनयौवन प्राप्ति ही कथाोंने अश्विनीकुमारोंको वैद्योंका ब्रह्मा बना दिया है। अथर्ववेदमें मणिमंत्र औषधितंत्रकी भरमार सी है। और अग्निवेश-संहित आदिकी तो कहना ही क्या है। वेद भी आगे जाकर यदि देखा जाय और अद्यावधि प्रचलित मान्यताको ही 'वावावाक्यं' न माना जाय तो जैन वाङ्मय के बारहवें अंग दृष्टिवादके भेद पूर्वगतमें १२ वां भेद 'प्राणवाद' है । इस प्राणवादमें अष्टांग शरीरविज्ञानका जो वर्णन है वह ऐतिहासिक दृष्टि से भी आयुर्वेद को सुदूर भूतकाल तक ले जाता है । यह प्राणवाद ही आयुर्वेदका मूल स्रोत है। वेदादि ग्रन्थोंमें उपलब्ध आयुर्वेदका स्पष्ट उल्लेख संकेत करता है कि इनके पूर्व आयुर्वेदका सांगोपांग विवेचन हो चुका था। १ "..अअवयं परमायुष एव लोके तेषां महद्भयमभूदिह दोषकोपात् ।" २ “आयुर्हिताहित व्याधेर्निदानं शमनं तथा . .रेष आयुर्वेद इति स्मृतः ।" ५०५ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ चिकित्सा प्रकार आयुर्वेदिक चिकित्सा (१) काय तथा (२) शल्य चिकित्साके भेदसे दो प्रकारकी है । इन दोनों को ही १-काय, २- बाल, ३-ग्रह ४-ऊर्जाग य शालाक्य, ५-शल्य, ६-दंष्ट्रा, -जरा तथा ८-वृष के भेदसे ग्रहण करने पर इनकी संज्ञा अष्टांग आयुर्वेद हो जाती है। अष्टांगका विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि सप्तधातु, त्रिदोष और रक्तसे होने वाले दोषोंके प्रतिकार से लेकर भूत, ग्रह, आदि तक की चिकित्सा पद्धति प्राचीन भारतमें सुविकसित हो चुकी थी। ___ शल्य चिकित्सा भी कोरी कल्पना न थी अपितु इसकी वास्तविकता तथा सर्वाङ्गीण विकास सुश्रुत, आदि ग्रन्थों से हाथका 'कंगन' हो जाती है । जिस समय 'सरजरी' के सर्जकों को मछली भूनकर खाना नहीं आता था उस सूदूर भूतमें भारत के चिकित्सक बद्धगुदोदर, अश्मरी, आवृद्धि, भगंदर, मूगर्भ, आदिका पाटन (ोपरेशन) करते थे । ___वात, पित्त तथा कफ इन तीनों दोषों, रस रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओं, दूष्यके ही अन्तर्गत मलमूत्रादि, वातादिके स्थान लक्षण, अादिके विवेचन लघुकाय लेखमें स्पष्ट संभव नहीं हैं । तथा अभिनन्दन ग्रन्थ ऐसे बौद्विक आयोजनों को प्रत्येक विषयकी ज्ञान धारामें वृद्धि करना चाहिये । फलतः आयुर्वेद के प्रेमियों तथा विचारकों के लिए 'जैन वाङ्मयमें आयुर्वेद के स्थान' का संकेत ही पर्याप्त है। ५०६ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यके मूल आधार श्री विट्ठलदास मोदी एक भ्रान्ति ___प्रायः लोगों का ख्याल है कि स्वास्थ्य सौभाग्यसे प्राप्त होता है और रोग दुर्भाग्य की निशानी है: जब कि बात ऐसी कतई नहीं है । न स्वास्थ्य आसमानसे टपक पड़ने वाली चीज है न रोग ही। हम एक साइकिल या मोटरकार खरीदते हैं उसे ठीक दशामें रखने के लिए, उससे ठीक काम लेने के लिए हमें उसके अंग प्रत्यंगसे परिचित होना पड़ता है । हमें जानना पड़ता है कि हमें कब कहां और कितना तेल देना चाहिए और उनका इस्तेमाल कैसे करना चाहिए ताकि अपनी पूरी अवधि तक हमें अच्छी तरह काम दे सकें। शोक है कि शरीर रूपी अमूल्य मशीनके बारेमें हम कभी कुछ जानने की कोशिश नहीं करते उसे न अच्छी तरह चलानेकी ही विधि सीखते हैं । फलतः रोग आते हैं और इसके चलते रहने पर ही साधारणतः लोग इसे स्वास्थ कहते हैं । इससे बढ़िया और पूरा काम नहीं लिया जा सकता। द:ख तो इस बात का है कि कुछ लोग स्वास्थ्य के ठेकेदार बन गये हैं, उन्होंने डाक्टर, वैद्य और हकीम की संज्ञा ले ली है । वे कहते हैं बीमार पड़ने पर हमारे पास आश्रो, हम तुम्हें रोगसे मुक्त कर देंगे । यद्यपि खुल्लमखुल्ला वे यह घोषित नहीं करते कि 'जैसे चाहो रहो,जो चाहो करो। आहार-विहार के कुछ नियम जाने सुने हों तो उन्हें तोड़ी । इससे होने वाले नुकसान को दूर करने का हम जिम्मा लेते हैं। अन्य व्यापारियों की तरह ये व्यापारी हैं और आज के व्यापारी से दया, धम और ईमानदारी कितनी दर चली गयी है यह बताने की जरूरत नहीं है। फिर भी व्यापार करने वाले स्वास्थ्यके ठेकेदार धनके लोभमें ऐसा न कहें, ऐसा न करें; तो क्या करें ? प्रकृतिकी गोदमें ऐसी दशामें हमें प्रकृति से पथ-प्रदर्शन प्राप्त करना होगा । जिस प्रकृति-पुरुष का प्रकृतिके साथ सामंजस्य था उसके जीवन का अध्ययन करना होगा । हम उसकी संतान हैं, उसकी आदतोंके अनुसार चल कर ही हम स्वस्थ रह सकते हैं और खोया स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं। पाश्चात्य विद्वानोंके मतसे मनुष्य अपने आदि कालमें शिकारपर जीवन बसर करता था। शिकार किया, माँस खाया। ५०७ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रंथ न उसे उसके साथ किसी अन्य चीज की जरूरत थी न शिकार ही नियमित था । ऐसी दशामें उसे कई दिन तक भूखों रहना पड़ता था। कंदमूल,फल ग्रहण करते समय भी वह कोई बहुत तरह के फल या कंद इकडे नहीं करता था, जो जिस जगह मिला, खाया । जब वह पशुपालक हुअा तब उसे दूध भी मिलने लगा और खेती करना सीखने पर भोजन पाने के लिए उसे अपने एंडी-चोटी का पसीना एक करना होता था । उसके इस स्वाभाविक जीवनमें हम यह देख सकते हैं कि उसे अपना भोजन प्राप्त करनेके लिए घोर परिश्रम करना पड़ता था और वह एक बारमें एक ही चीज खाता था । अतः यदि हम अाज स्वस्थ रहना चाहते हैं तो हमें श्रम-शील होना चाहिए और अपना भोजन सादा रखना चाहिए। सादेसे मतलब यह है कि कुदरत जो चीज जैसी पैदा करती है उसी दशामें उसे ग्रहण करें । अन्न ऐसा खाद्य जिसे पचाने की ताकत आज हममें नहीं रह गयी है उन्हें हम पकाकर खांय पर इसका यह मतलब नहीं है कि घी, तेल, चीनी सी दस चीजें इकट्ठी करके उनसे एक चीज बना कर उसे ग्रहण करें। दूध को दूधकी तरह लें, मलाई, घी, रबड़ी बनाकर नहीं। गन्ना जब मिले उसे लें पर उसे चीनीके रूपमें परिवर्तित कर साल भरके लिए जमा न करें। हर ऋतुमें नये खाद्य पाते हैं, ऋतुसे उनका और हमारा संबंध होता है। जो चीज जब पैदा हो तब उसे हम ग्रहण करें । बुद्धिजीवीके लिए श्राज श्रमजीवीका जीवन ग्रहण कर सकना कठिन होगा। पर श्रम तो उसे करना पड़ेगा ही चाहे वह किसी रुपमें करे । वह श्रम उपजाऊ श्रमके रुपमें करे या श्रासन,व्यायाम, टहलना, दौड़ना, आदि के रुपमें करे; पर करे जरूर । न श्रमसे किनाराकशी करके वह कभी स्वस्थ रह सकता है और न आज का बिगड़ा हुआ भोजन कर के। रोगका मूल कृत्रिम जीवन सहज-पुरुष प्रकृतिके प्रांगण में रहता था । न उसने गर्द, गंदगी, धूएँ बदबू से भरे गाँव और शहर बसाये थे, न धूप और हवासे उसे छिपाने और दूर रखनेवाली अट्टालिकाएं ही बनायी थीं । आज शहरके निवासीके लिए नंगे या दिन भर धूपमें रह सकना और दिन भर शुद्ध वायु प्राप्त करना कठिन है। फिर भी स्वस्थ रहने के लिए उसे इनका उपयोग करना आवश्यक है। अतः सबेरे कुछ समय के लिए अपने बदनपर धूप लेकर और शुद्धवायुसे भरे स्थानमें टहलने जाकर इनका आंशिक उपभोग कर सकता है और उसके अनुपातमें अंशतः स्थास्थ्य प्राप्त कर सकता है । और जो खास बात हम पुरुषमें देखते हैं वह थी उसकी निश्चिन्तता और शुद्ध जलका प्रयोग । शुद्ध जलके नामपर आज शहर वालोंको इकट्ठा किया हुआ और साफ किया हुआ नलका पानी मिलता है और बहुतसे लोग तो पेयके नामपर चाय,काफी,लेमन,शर्बत और मदिरा भी पीते हैं,जबकि पेय जल ही है अन्य सब विषमय है। हमें जहाँ तक बन सके शुद्ध जलका उपयोग करना चाहिए। ५०० Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य के मूल आधार आजकी सभ्यता और आजके अर्थशास्त्राने निश्चितता हर ली है। मनुष्य कटे पतंग की तरह हो गया है और उसका दिमाग इधर उधर उड़ता रहता है। उसे पता नहीं रहता वह कहां जाकर पड़ेगा । ईश्वर (कर्म) के विश्वास की खूंटी जिसमें उसका मन अटका रहता था आज उखड़ गयी है अथवा बुरी तरह हिल रही है । ऐसी स्थिति में चिन्ता, घबराहट, जड़ता, मूर्खता, दुर्व्यसन, व्यभिचार उसके साथी हो गये हैं । मनुष्य सोचे वह क्यों यह सब कर रहा है, कहां जा रहा है समय निकाले इनपर विचार करनेको और वे उसे उनसे छूटने का जो पथ बतलायें उस पर चले । ये छह सिद्धांत है स्वस्थ रहने के लिए सातवां सिद्धांत की पहले में ही आगया है कि हम कभी कभी उपवास करें । उपवास मन और तन द्वारा की गयी गलतियोंका शोधन करता है और उनमें रोग उत्पन्न होनेपर उनका नाश भी । ५०९ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मप्रचार और समाजसेवा-विज्ञान श्री अजितप्रसाद, एम० ए०, एल०एल० बी० श्री स्वामी समन्तभद्राचार्यने रत्नकरण्डश्रावकाचारमें धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि "संसार दुःखतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे", संसारके दुःखोंसे बचाकर प्राणीमात्र को उत्तम सुखमें जो पहुंचा दे सो धर्म है। सुख का लक्षण दुःख का अभाव है, और दुःख उत्पन्न होता है चाह से, इच्छित वस्तुके न होने से । जहां चाह है, वहां दुःख है । चाह का मिटजाना ही सुख है । 'सरापा आरजूने होने वंदा कर दिया हमको । वगर न हम खुदा थे गर दिल-ए-वेमुद्दा होता।' इस सुखक रूपरेखा भोगभूमि के वर्णनसे कुछ समझमें आ सकती है, जहां मनुष्य अपनी इच्छा पूर्ति के लिए किसी दूसरे के प्राधीन नहीं था, उसकी सब जरूरतें कल्पवृक्षोंसे पूरी हो जाती थीं। पति-पत्नी एक साथ ही उत्पन्न होते; शीघ्र ही पूर्ण यौवनको पा लेते । लम्बी मुद्दत तक जीते रहते थे। एक साथ ही छींक या जंभाई लेकर मर जाते थे । न बीमारी का कष्ट न बुढ़ापे का दुःख, न रिश्तेदारोंसे जुदाई का गम, न मरने का भय, न रोटी कपड़े का फिकर, न धन दौलत जमा करने का बखेड़ा। श्राराम ही आराम, सुख ही सुख था । किन्तु वह सुख चन्द रोजा ही था और सर्वथा निराबाध भी न था। श्री पं० जुगलकिशोरने सिद्धिसोपान काव्यमें दर्शाया है कि उत्तम सुख बाधा रहित, विशाल, उत्कृष्ट, अंतिम, शाश्वत, सहजानन्द अवस्था है। वहां दःख का लेश भी नहीं है, वह कृत-कृत्य पद प्राप्ति है। वहां किसी प्रकार की चाह या वांछा नहीं रह गयी है। सिद्ध परमात्मा न भक्तों की सहाय करने आते हैं न दुष्टों का संहार । वह अतीन्द्रिय, शाश्वत, निजानन्द रसास्वादनमें लीन है। उस अक्षय सुख-अनन्त सुख का अनुमान या परिमाण कोई कर ही नहीं सकता । ऐसा उत्तम सुख शुद्ध आत्मा का निज स्वभाव है। परन्तु देहधारी संसारी श्रात्मा अनादिकालसे अशुद्ध अवस्था में है। स्वभावसे वंचित, विभावमें रत, सतत रागद्वष, काम क्रोधादि कषाय विषय वासनाके कारण अशुद्ध दशामें रहता है; यद्यपि उस अशुद्धता की मात्रा घटती बढ़ती रहती है, परन्तु वह बिल्कुल मिट नहीं जाती । अशुद्धता का नाम जैन सिद्धान्तमें कर्म है । लोकमें मुख्यतया दो द्रव्य हैं; एक जीव, दुसरा अजीव । इन दोनों का मेल ही संसार का खेल ५१० Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म प्रचार और समाजसेवा-विज्ञान है, दुनिया रंगारंगी, उसकी विचित्रता है । शुद्ध जीव अमूर्तिक है; अनन्तज्ञान, अन तसुख, अनन्तवीर्य के अक्षय भण्डार स्वरूप है । शुद्ध अवस्था में वह दिखायी नहीं पड़ता, किन्तु अपने पुरुषार्थ से,अपने प्रयत्नसे, अपनी अनादि अशुद्ध अवस्थाका अन्त करके शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा बन सकता है। स्वर्ण पृथ्वीके गर्भमें अशुद्ध अवस्था में रहता है। भूगर्भसे निकाल कर विविध प्रयोगों द्वरा उसको शुद्ध किया जाता है। और शुद्धता प्राप्त कर लेने पर वह शुद्ध ही बना रहता है। इस शुद्धि क्रिया बार बार अग्निमें तपाया जाना ही विशेषता है। इसी प्रकार अशुद्ध आत्माको, संसारी जीवको, कर्ममलसे आच्छादित देहधारी प्राणीको, इच्छा निरोध करके, विषय वासनासे हटा कर, व्रत, संयम, ध्यान रूप, विविध प्रकारके तपश्चरणसे शुद्ध किया जाता है । शुद्ध हो जाने पर इस संसारी जीवका ही नाम परमात्मा, शुद्धात्मा. सिद्ध, आत्मस्वरूपस्थित, वीतराग, परमेटी, अात, सार्व, जिन, सर्वज्ञ, कृती, प्रभु, निर्विकार, निरंजन, परमेश्वर अजर, अमर, सच्चिदानन्द, श्रादि अनेक हो जाते हैं । इस परमपदकी प्राप्तिका मार्ग श्री प्राचार्य उमास्वामिने तत्त्वार्थसूत्रमें “सम्यग्दर्शनज्ञान -चारित्राणि मोक्ष मार्ग:' बतलाया है । सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तीनोंका सम्मिलित होना मुक्तिका साधन है। ज्ञान कितना ही गहरा, कितना ही विस्तीर्ण क्यों न हो और चारित्र कितना ही कठोर और कितना ही दुस्सह क्यों न हो, वह सभ्यक्दर्शनके अभावमें सम्यक् उपाधिको नहीं पा सकता। सम्यकदर्शन क्या है ? "तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं '' तत्त्वोंमें यथार्थ, दृढ़, अचल, अटल श्चद्वानको सम्यक्दर्शन कहते हैं। तत्त्व मूलतः दो हैं और विशेषतः सात । मल तत्व जीव और अजीव हैं। ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता, भोक्ता, जो तत्व है. उसे जीव कहते हैं। उस ही तत्वक निमित्तसे अजीव शरीर, जीवितात्मा कहा जाता है; और उस ही तत्त्वके इस अजीव शरीरसे पथक हो जाने पर, शरीर शव होता है। संसारमें शुद्ध जीव देखने में नहीं आ सकता, वह तो अमूर्तिक वस्तु है, इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। वह केवल अनुभव गम्य है। वह अनुभव सतत अभ्याससे प्राप्त होता है। "इश्क क्या है, यह बस आशिक ही जाने हैं' इस अनुभव प्राप्तिके बाद ज्ञानका अद्भुत विकास होता है; सम्यक आचरणमें व्रत, समिति, गुप्ति, परिग्रहजय, ध्यान, तपश्चरणमें आनन्द आने लगता है, ऋद्धियां स्वयं सिद्ध हो जाती हैं । हजारों मीलको बात मनुष्य इस प्रकार जान लेता है. जैसे उसके निकट समक्षमें सब कुछ हो रहा है। उसका शरीर इतना हल्का हो सकता है कि धुनकी हुई रुईके गालेके मानिन्द हवा में उड़ता फिरे, और ऐसा भारी हो सकता है कि किसी प्रकार हिलाये न हिले: इतना सूक्ष्म हो सकता है कि पर्वतोंके बीच में होकर निकल Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जावे, और इतना विशाल हो सकता है कि पैर फैलाये तो समस्त लोक उसके बीचमें आ जाय । फिर दुर्द्धर तपश्चरण द्वारा कर्मका समूल नाश कर स्वाभाविक अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य की शाश्वत प्राप्ति का प्रयत्न ही मनुष्यका धर्म है, उसको चाहे जिस नामसे पुकारो, वह आत्मधर्म है, निज धर्म है, जिनधर्म है। सप्ततत्त्वोंका जो स्वरूप श्री वीरभगवानकी दिव्यध्वनिमें विपुलाचलपर श्रावणकी प्रतिपदाके दिन सर्व संसारके हितार्थ प्रतिपादित किया गया था, उस धर्म का आंशिकरूप तत्त्वार्थसूत्र में संक्षेपतः बतलाया गया है। कर्मरूप परिवर्तित होने योग्य अजीव तत्त्व पुद्गल बेजान द्रव्यके परमाणु तथा वर्गणा लोकके प्रत्येक प्रदेशमें, देहके अन्दर आकाशमें भी ठसाठस भरे हुए हैं । संसारी जीवके मन, वचन, कायके हलन चलनके निमित्तसे ऐसे वर्गणा कर्मरूप धारण करके उस प्राणीके अत्यन्त निकट सम्पर्कमें आजाते हैं, इस पास अाजाने को आश्रव तत्व कहा गया है। सर्वतः सट जाने के पीछे प्राणी अपने कषाय सहित भावोंके निमित्तसे अपनेआप में मिला लेता है । उस एकमेक रूप को वन्ध तत्त्व कहते हैं । कर्म वर्गणाके आश्रव को रोकना संवरतत्त्व है । आत्मा प्रदेशोंमें एकमेक होकर बंधे हुए कर्मवर्गणाओं को हटा देना निर्जरा तत्त्व है । कर्ममलसे सर्वथा विमुक्त होकर आत्मा का निरावरण होजाना अथवा आत्म स्वरूप की प्राप्ति मोक्ष तत्त्व है। इस प्रकार सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की परिपाटी चतुर्विध संघ द्वारा महावीर स्वामीके निर्वाणके बाद कई सौ बरस तक चली। फिर काल दोषसे जिनवर प्रतिपादित धर्ममें शाखा प्रशाखाएँ बढ़ती चली गयीं, और बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ीं कि प्रत्येक शाखा प्रशाखाने अपने को मूल धर्म का रूप दे दिया। मूल धर्म रूपी तनाको इन शाखाप्रशाखाओंके जालने आच्छादित कर लिया। और पृथक-पृथक मठ स्थापित कर शाखानुयायियोंने अपनी अपनी गद्दियां जमा लीं । धर्म का स्थान इन मठोंने ले लिया । ऐसी खेदजनक परिस्थिति को देखकर १८९९ में कुछ युवकोंने एक सभा स्थापित की ताकि मिन्न भिन्न सम्प्रदाय मिलकर मूल अहिंसाधर्म की छत्र छायामें आत्मोन्नति, धर्मोत्रति तथा समाजोन्नति करें। इसी का नाम १९०७में भारत जैन-महामंडल हो गया। इस मंडलके संचालक जैनधर्मकी दिगम्बर श्वेताम्बर, स्थानकवासी तीनों समाजोंके मुखिया पुरुष थे । ये अापसमें मिल जुलकर काम करते थे। इस मण्डल का एक अधिवेशन १९०१ में जयपुर निवासी श्री गुलाबचन्द ढड्डाके सभापतित्वमें सूरत नगरमें, १९१५ में प्रा० खुशालभाई टी० शाह की अध्यक्षतामें बम्बई में हुआ था। तत्पश्चात श्वेताम्बर दिगम्बर सम्प्रदायमें तीर्थक्षेत्र सम्बन्धी मुकदमें कचहरीयोंमें चलने लगे । और मण्डलके उदीयमान व्यापक सर्वोपयोगी काममें भारी क्षति हुई । अब भी मंडलका कार्यालय वर्धा ५१२ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्योतिषके इतिहासके जैन-स्रोत गंज में श्री सेठ चिरंजीलाल बड़जात्या की निगरानीमें जारी है और उसका मुखपत्र अंग्रेजी जैनगजट अपने ४१ वें वर्ष में चल रहा है। तथापि जिनधर्म का उद्योत इस पैवन्द लगानेसे नहीं होगा । वह चाहता है भीषण त्याग और तपस्या मय आचरण । जैनधर्म की सच्ची जय उस समय हो गी जिस समय हम दुनियाके सामने ऐसे आदर्श जैनधर्मवलम्बी पेशकर सकें गे जो नागरिक होते हुए सत्यके उपासक होंगे । स्वप्नमें भी झूट वचन उनके मुँहसे नहीं निकलेगा, उनका आचार-विचार-व्यवहार अहिंसामय होगा, वह पराई वस्तु ग्रहण नहीं करेंगे, धोकेबाजी की परछांई भी उनके व्यवहार में न पड़ने पायगी, उनकी तारीफमें यह कहना अनुचित या अतिशयोक्ति न हो गा कि 'मनमें होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन से करिये' जैनी म्याद्वाद सिद्धान्त अपने व्यवहारसे प्रतिपादन करके दिखा देंगे । अनेकान्त तब केवल पुस्तकों का विषय न रह जावे गा, शब्द तथा वाक्य योजना तक ही सीमित न रहेगा. अपितु उसका सजीव उदाहरण लोकके सम्मुख उपस्थित हो जाय गा । स्याद्वाद मनुष्य-जीवन की दृष्टि होगा। ___ कर्म-सिद्धान्त और अहिंसाधर्मकी भी यही हालत होगी। ‘सत्त्वेषु मैत्री', गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेशु जोवेषु कृपापरत्व, माध्यस्थभावं विपरीतबतौ" के जीते जागते उदाहरण संसार में दिखायी देंगे। हमारी भारतीय दुनियासे दुःख दर्द, ईर्षा, छीना झपटी, लड़ाई, दंगा, पारस्परिक संहार, पीड़न आदि नरकके दृश्य अदृश्य हो जावेगे। लोकमें सुख और शान्ति का प्रसार होगा, नया संसार बस जायगा । -p-DODIA ५१३ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसमाजका रूप - विज्ञान श्री बा० रतनलाल जैन बी० ए०, एल-एल० बी० जैन समाज प्राचीन कालमें वैभव पूर्ण था, यह बात प्राचीन ग्रन्थोंसे भलीभांति सिद्ध है । ऐतिहासिक युग के प्रारंभ में भी जैन समाज उन्नत अवस्था में था । भगवान महावीर के समय में अनेक राजा जैन धर्मावलम्बी थे । महावीर भगवान के पश्चात भी मगधाधिपति सम्राट् चन्द्रगुप्त व कलिंग देश के अधिपति सम्राट खारवेल जैन धर्मावलम्बी थे । उत्तरी भारतमें तीसरी चौथी शती से जैन धर्मका ह्रास प्रारंभ हुआ तथापि बारहवीं शती तक इसे राज्यधर्म होनेका सौभाग्य प्राप्त रहा जैसा कि दक्षिण एवं गुजरात के इतिहास से सिद्ध है । बारहवीं शती के अन्त से लेकर उन्नीसवीं शती के अन्ततक का सात सौ वर्षका दीर्घकाल भारतवर्ष के लिए महान विप्लव, दमन तथा ह्रासमय रहा है। जैन, बौद्ध, वैदिक, आदि प्रचलित धर्मोंको बड़ा धक्का लगा । आक्रमण, दमन, और अनाचारमय वातावरण में हिंसामय जैनधर्मका ह्रास अधिक वेगके साथ हुआ । देश भर में हिंसा प्रति-हिंसाकी अग्नि प्रज्वलित हो उठी। जिसकी चरम सीमा औरंगजेबकी कट्टरता, अन्धविश्वास एवं भारत वर्ष के प्रचलित धर्मों के प्रति शत्रुता तथा उसकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न मरहटे व सिक्ख वर्गों के निर्माण में हुई । मरहठे व सिक्ख पूर्ण संगठित भी नहीं होने पाये थे कि अंगरेजी राज्य ने अपने देशप्रेम, संगठन, आदि कुछ सद्गुणों के कारण समस्त भारत पर अपनी सत्ता अठारहवीं शतीके प्रारंभ में ही स्थापित कर ली ; किन्तु इनकी राजनैतिक निष्ठुर लूट तथा दमन नीतिको भी देशने पहिचाना तथा १८८५ में भारतीय कांग्रेसको जन्म दिया । कांग्रेसके जन्म के कुछ काल बाद ही जैन समाज के नेताओं ने संगठनकी श्रावश्यकता अनुभव करके 'भारतवर्षीय जैन महासभा की नींव डाली । कितने ही काल तक महासभाने जैन समाज में जाग्रति उत्पन्न की। कुछ समय पश्चात प्रगतिशील व स्थितिपालक दो दल स्पष्ट प्रतीत होने लगे । सन् १९११ में इन दोनों दलों में विरोध इतना बढ़ गया कि प्रगतिशील सुधारकोंको जैन महासभ से अलग होना पड़ा। महासभा स्थितिपालकों के हाथमें पहुंच गयी । तथापि बैरिस्टर चम्पतरायजी ने जैन महासभा में सम्मिलित होकर नवजीवन उत्पन्न करनेका प्रयत्न किया किन्तु स्थितिपालकों के सामने उनकी नीति असफल है, यह फरवरी १९२३ के देहली जैन महोत्सव में स्पष्ट हो गया । ५१४ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसमाजका रूप-विज्ञान अतः देहली जैन महोत्सवके अवसरपर 'भा० दि० जैन परिषद' की स्थापना हुई । नवयुवकों के उत्साहसे परिषदका कार्य दिन प्रति दिन बढ़ने लगा जिसका श्रेय स्व० ब० शीतलप्रसादको सबसे अधिक है। परिषदने अपने प्रारंभिक कालमें ही स्थितिपालकोंके घोर विरोधकी नीति अपनायी । परिषदके पत्र वीरने इसकी प्रगतिमें साधक मरणभोज, दस्सापूजा, आदि निषेध कार्योंका यथाशक्ति प्रचार किया है। महासभा तथा परिषदकी दलगत नीतिसे कितने ही विद्वान असन्तुष्ट थे । क्योंकि वैदिक समाज के कट्टर संप्रदाय द्वारा किये जाने वाले आक्रमणोंका स्व० गुरुजीके समान ये दोनों सरथाएं सामना करनेमें असमर्थ थीं। इस लिए जैन आम्नाय पर आये घातक संकटको टालनेके लिए तटस्थ नीतिकी श्रेष्ठतामें विश्वास करने वालों द्वारा शास्त्रार्थों के बीच स्वयमेव “भा० दि० जैनसंघ' की स्थापना सन १६३३ के लगभग की गयी। किन्तु भगवान् वीतरागके उपासक जैन समाजमें आज तक इतनी राग होनता न आयी कि वे सामाजिक क्षेत्र में स्याद्वादमय व्यवहार करते या जैन समाज एवं धर्म का विकास प्रकाश होने देते । (DI बुन्देल खण्ड ५१५ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृभूमि के चरणों में विन्ध्यप्रदेशका दान श्री पं० बनारसीदास चतुर्वेदी 'स्वाधीन मातृभूमि के चरणों में विन्ध्यप्रदेश क्या भेंट अर्पितकर सकता है ? यह प्रश्न आज हम पाठकों के सामने उपस्थित करते हैं । यह बात तो निश्चित ही है कि भारत के भिन्न-भिन्न भागों की भेंट उन जनपदों की योग्यता, शक्ति, परिस्थिति और साधनों के अनुसार होगी । वैचित्र्य में ही सुन्दरता निवास करती है । प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण हिमालय प्रदेश की सेवाओं का मरुभूमि राजस्थान की सेवाओं से भिन्न होना सर्वथा स्वाभाविक है; पर कौन सेवा छोटी है कौन बड़ी-भेंटों में इस प्रकार का भेद करना सर्वथा अनुचित होगा । मुख्य भेंट किसी मनुष्य का जीवनदान है, और मनुष्य तो प्रत्येक भूमि खण्ड में उत्पन्न होते हैं । यदि बंगाल राजा राममोहनराय तथा कवीन्द्र श्री रवीन्द्र को जन्म दे सकता है तो काठियावाड़ महर्षि दयानन्द और महात्मा गान्धी को । इसलिए हममें से किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह व्यर्थाभिमान द्वारा दूसरे की भेंट की उपेक्षा करे। की भेंट का मूल्य समान है, चाहे वह करोड़पति की हो या मजदूर की, मातृभूमि संवलिया ( सांवरे कृष्ण भगवान् ) की तरह भाव की भूखी है । हां, तो प्रश्न यह है कि जननी जन्मभूमि को विन्ध्यप्रदेश क्या भेंट अर्पित करेगा ? इस प्रश्न का यथोचित उत्तर तो इस जनपद के सुयोग्य निवासी ही दे सकते हैं, फिर भी परामर्श के तौर पर दोचार बातें हम भी निवेदन कर देना चाहते हैं । स्वास्थ्य सदन -- इस रमणीक भूमिखण्ड में पचासों ऐसे सकते हैं, जिनमें कुछ तो गर्मियों के लिए अधिक होता है, और कहीं-कहीं वर्षा ऋतु की अनोखी छटा जतारा अथवा बरुआसागर, कुण्डेश्वर या सनकुआ के को आशातीत लाभ होगा और वे अपने जीवन के इन स्थलोंका महत्त्व पूर्णतया नहीं समझते। मां के लिए सभी बच्चों राजा की हो या रङ्क को । मनोहर स्थल विद्यमान है, जहां सैनिटोरियम बनाये जा उपयुक्त होंगे, कुछ का सौन्दर्य शीतकाल में प्रस्फुटित दर्शनीय है । यदि रेगिस्तान के रहने वालों को निकट रहनेका सौभाग्य प्राप्त हो, तो उनके स्वास्थ्य पुनर्निमाण में अनेक अंशों तक सफल होंगे । यहाँ कहा भी है 'अति परिचयादवज्ञा' ( अति परिचय ५१६ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृभूमिके चरणों में विन्ध्यप्रदेशका दान अवज्ञा या उपेक्षा का कारण होता है ) । जिस चीज को हम बार-बार देखते हैं, उसका सौन्दर्य हमारी खों से उतर जाता है । यदि विन्ध्यप्रदेश निवासी यहां के प्रकृतिदत्त सौन्दर्यको नष्ट न कर दें - यही नहीं यदि वे उसकी रक्षा तथा वृद्धि के लिए तत्पर हो जायें तो स्वार्थ की दृष्टिसे भी उनका यह कार्य दूरदर्शितापूर्ण होगा । सहस्रों यात्रियों का आगमन उन स्थलोंकी समृद्धि में सहायक होगा । श्रास-पास के जनपदोंके व्यक्ति यहां ग्राकर वन-भ्रमण द्वारा अपने शरीरको स्वस्थ कर सकते हैं, और यहां की नदियों तथा सरोवरोंमें स्नान करके अपने चित्तको प्रसन्न । तैरना सीखने के लिये जैसी सुविधाएं इस प्रदेश में विद्यमान हैं, वैसी अन्यत्र शायद ही मिलें । आश्रम और तपोवन - भारतीय संस्कृति तथा सभ्यताका स्रोत तपोवन ही थे । यह मानी हुई बात है कि हम तपोवनों को प्राचीन परम्परा तथा पूर्व रूपमें ज्यों का त्यों स्थापित नहीं कर सकते । जमाना बदल चुका है और समय का तकाजा है कि हम अपने तपोवनोंको आधुनिक सभ्यता के सात्विक लाभों से वंचित न रक्खें । उदाहरणार्थ हम याधुनिक आश्रमों में रेडियो सेट रखने के पक्षपाती हैं । संसारकी प्रगतिशील धारासे अलग रहने का प्रयत्न करना अव्वल दर्जे की मूर्खता होगी ! साथ ही हमें यह बात न भूलनी चाहिये कि गत युद्ध के बाद समस्त संसार में आधुनिक सभ्यता के प्रति भयंकर प्रतिक्रिया हो रही है और जीवनकी गतिको तीव्रतम तेजीके साथ चलाने वाले तमाम यंत्र तथा साधन आज नहीं तो कल अपनी लोकप्रियता खो बैठेंगे । खूबी इसी में है कि हम लोग अभी से ऐसी संस्थाओं और ऐसे आश्रमोंकी नींव डाल लें, जहां हमारे विद्वान और ज्ञानके पिपासु एकत्रित होकर शान्त वायुमण्डल में अपना कार्य कर सकें । आज बेतवा और केनके सुरम्य तट तथा धसान और जामनेरके जंगल हमें निमंत्रण दे रहे हैं कि हम अपने श्राश्रमोंकी वहां स्थापना करें। उनके निकट बनी हुई झोंपड़ियां कलकत्तेकी चौरंगी स्ट्रीट अथवा बम्बई के मलावार हिलके महलोंसे अधिक सजी होंगी। इस गरीब मुल्क में ईंट तथा चूने और पत्थरका मोह करना हिमाकत है । खुली हवा के स्कूल (Open air school) खोलने के लिए इतने मनोरम स्थल और कहां मिलेंगे ? लोग कहते हैं कि विन्ध्यप्रदेश भारतका स्काटलैण्ड । पर कहना यो चाहिए कि स्काटलैण्ड ब्रिटेनका विन्ध्यप्रदेश है । बुन्देलखण्ड थवा मनुष्यों की — प्रकृतिके शान्तिनिकेतन में हम महिनों तक रहे हैं, पर वहाँका प्राकृतिक सौन्दर्य मध्यप्रदेश के सैकड़ों स्थलोंके सामने नगण्य-सा है। यहां कमी है तो बस कल्पनाशील साथ पुरुषका संयोग कराने वाले मनीषियोंकी। यहां खीरा दस गुना बड़ा होता है, बेर छोटे सेव जैसे और लौकी तिगुनी लम्बीं होती है, बस छोटा होता है तो आदमी ! सदियों तक छोटी-छोटी जागीरों ५१७ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ 1 और राज्यों में विभक्त रहने के कारण यहाँके जनसाधारण के व्यक्तित्व क्षुद्र से क्षुद्रतर बनते गये हैं । यदि विन्ध्यप्रदेश इससे पूर्व अलग प्रान्त बन गया होता तो यहां की जनता में क्षुद्रत्वकी वह भावना ( Inferiority complex ) न पाई जाती, जो आज यत्र-तत्र दीख पड़ती हैं। यदि आज भी यहांके निवासियोंको पता लग जाय कि प्रकृति माताके वे कितने कृपापात्र हैं तो कल ही यहां बेतवा तथा केन के तट सांस्कृतिक तीर्थ बन सकते हैं । संस्थाएं तो पहले सजीव व्यक्तियोंकी कल्पना में स्थापित होती हैं, उनका मूर्त रूप तो पीछे दीख पड़ता 1 फलों के बाग -- यहां विन्ध्यप्रदेश में आकर शरीफा ( सीताफल ) के सैकड़ों पेड़ जंगलों में उगे देखकर हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा । जो फल आगरे में तीन पैसे में एक-एकके हिसाब से मिलता है, उसे यहां पैसे में तीन-तीन को कोई नहीं पूंछता ! नीचां से इस प्रकार लदे हुए वृक्ष हमने अन्यत्र नहीं देखे, और जहां तक बेर, जामुन, इमली, झरबेरी तथा कैथका सवाल है, इस प्रान्तके कुछ भागो में मानो व्यावहारिक साम्यवाद ही आगया ! हमारी ओर बेरियोंकी रखवाली होती है- क्या मजाल कि कोई पांच-सात बेर भी तोड़ ले और यहां कोई उनकी कुछ भी कद्र नहीं करता ! सुना है कि ओरछा राज्यके नदनवाड़े नामक तालाब के नीचेको भूमि इतनी जरखेज है कि वहां फलोंके बीसियों बगीचे बन सकते हैं ! १०-१२ वर्गमीलका वह तालाब दर्शनीय कहा जाता है और हम इस बात के लिए लज्जित हैं कि उसकी यात्रा अभी तक नहीं कर सके। पर इससे क्या, कल्पना में हम वहांके भावी उपवनोंके फलोंका स्वाद चख चुके हैं। और उनकी हजारों टोकरियां संयुक्तप्रान्तके निष्फल जिलींको भेजकर मुनाफ़ा भी उठा चुके हैं ! जताराके केले कलकत्तेके चीनिया केलोंका करीब करीब मुकाबला करते हैं, और कुण्डेश्वर के अमरूद खाने के बाद इलाहाबाद से अमरूद मंगानेका विचार ही हकने छोड़ दिया है । जब लंगड़े ग्राम हमारे ही उपवन में विद्यमान हैं तो श्री सम्पूर्णानन्दजी की काशी से उन्हें मंगानेकी क्या आवश्यकता है? जब स्थानीय नारं गियों में नागपुरका स्वाद आ विराजे तो रेलका महसूल क्यों दिया जाय ? इस भूमिमें सब कुछ विद्यमान है - हां बस कसर है तो इतनी कि "करम हीन नर पावत नाहीं" । प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री---- क्या प्राचीन साहित्यकी दृष्टिसे और क्या पुरातत्त्व अथवा मूर्तिकला की दृष्टि से विन्ध्य प्रदेशका दान इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसका मुकाबला भारत के बहुत ही कम प्रान्त कर सकेंगे । मढ़खेरा और सांची चंदेरी और देवगढ़, ओरछा और दतिया, हार और सोनागिर जैसे सांस्कृतिक तीर्थं आपको अन्यत्र कहां मिलेंगे ? आज भी सैकड़ों-हजारों प्राचीन हस्तलिखित पोथियां यहां मिल सकती हैं और उनके अन्वेषण ५१८ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृभूमिके चरणोंमें विन्ध्यप्रदेशका दान से हमारे साहित्यके एक महत्वपूर्ण अंगको पूर्ति हो सकती है। इसके सिवा विन्ध्यप्रदेशमें कितने ही प्राचीन स्थल ऐसे विद्यमान हैं, जहां खुदाई होने पर बहुत सी ऐतिहासिक सामग्रीका पता लगेगा। ग्राम-साहित्य विन्ध्यप्रदेशके अनेक ग्राम रेलकी लाइन तथा आधुनिक सभ्यतासे बहुत दूर पड़ गये हैं । जहां इससे हानि हुई है वहां कुछ लाभ भी हुआ है । इस जनपद के ग्राम-साहित्यका जायका ज्यों का त्यों सुरक्षित है । इधर इस प्रांत के ग्राम-साहित्य का जो संग्रह हमने देखा है, उससे हमें आश्चर्य के साथ हर्ष भी हुआ है और कुछ ईर्ष्या भी। ईर्ष्या इसलिए कि व्रजके ग्राम-साहित्यको हम इस प्रांत के ग्राम-साहित्यसे बहुत पिछड़ा हुआ पाते हैं। अन्तिम निर्णय तो तब होगा जब व्रजके ग्राम-साहित्यका पूर्ण संग्रह हो जाय, पर अभी तो हमें ईमानदारीके साथ यह बात स्वीकार करनी पड़ेगो कि विन्ध्यप्रदेश व्रजको बहुत पीछे छोड़ गया है । कहीं-कहीं तो व्रज के ग्रामगीत और रसियोंका रंग इतना गहरा हो गया है कि वह घासलेटकी सीमा तक पहुंच गया है। ___मुहाविरों में तो बाजी बुन्देलीके हाथ रहती दिखती है। "अपने काजै सौतके घर जाने परत" में जो माधुर्य है वह “अपने मतलबके लिये गधेको बाप बनाने" के असांस्कृतिक मुहाविरेमें कहां रखा है । इस प्रदेशकी कहानियां भी अपना एक अलग स्वाद रखती हैं। श्री शिवसहायजी चतुर्वेदी द्वारा संगृहीत कहानियोंको पाठक 'मधुकर में पढ़ ही चुके हैं। अपने व्रजवासी भाइयोंसे हमारा अाग्रह है कि वे शीघ्रातिशीघ्र उक्त जनपदके ग्राम-साहित्यका संग्रह प्रकाशित करदें। आधुनिक सभ्यताके उपकरणोंके आक्रमण से ग्रामीण साहित्यकी कितनी हानि हो रही है, इसका अनुमान अब हम करते हैं। अभी उस दिन प्रातःकालमें एक ग्राममें चक्की पीसतो हुई बुढियाके मुंहसे सुना था “सुनौरी परोसिन गुइयां, जे बारे लाला मानत नइयां” उस समय हम सोचने लगे कि मिल की चक्कियां खुल गयी हैं और नगरके निकट बसे हुए ग्रामोंकी औरतें भी अब मिलों पर ही आटा पिसवाती हैं, इसलिए अब चक्की के गीत भी थोड़े दिनके मेहमान हैं ! मिलकी चक्की-पूतना बालगोपालोंके मधुर उराहनोंको भला कब छोड़ने वाली है ! कृषि विषयक अनुसन्धान शिक्षा सम्बन्धी अथवा राजनैतिक क्षेत्र में विन्ध्यप्रदेश निकट भविष्यमें कोई महान कार्य कर सकेगा इसकी सम्भावना कम ही है। वैसे इस वसुन्धराके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। बहुत सम्भव है कि इस समय किसी ग्रामीण मिडिल स्कूल अथवा किसी हाई स्कूल में पढ़ने वाला क्षात्र आगे चलकर ऐसा निकले जो महान शिक्षा विशेषज्ञ अथवा देशनेता कहलावे और जिसे भारतव्यापी कीर्ति प्राप्त हो, पर हम यहां सम्भव असम्भवका तर्क पेश नहीं कर रहे हैं । वास्तविक स्थिति यह है कि विन्ध्यप्रदेश शिक्षा Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ की प्रगतिशील धारा से बिल्कुल अलग-थलग पड़ा हुआ है। जहां संयुक्तप्रांत में पांच-पांच विश्वविद्यालय हैं वहां इस प्रांत में केवल एक ही यानी सागरका । यदि कभी कोई दूसरा विश्वविद्यालय यहां कायम किया जाय तो वह कृषि विषयक होना चाहिये । पुराने विश्वविद्यालयों की नकल करने से कोई फायदा नहीं । कुछ वर्ष पहले स्वर्गीय प्रोफेसर गीडीजने मध्यभारत के लिए एक विश्वविद्यालय की योजना बनायी थी, जिसमें कृषिको विशेष स्थान दिया गया था । यदि कोई इस प्रकार का विश्वविद्यालय यहां स्थापित हो जाय तो उसके द्वारा इस प्रान्त का ही नहीं मातृभूमि का भी विशेष हित हो सकता है । वर्त्तमान दान आज भी अनेक क्षेत्रों में विन्ध्यप्रदेश मातृभूमि का मुख उज्ज्वल कर रहा है । गुप्तबन्धु ( कविवर मैथिलीशरणजी गुप्त और श्री सियारामशरणजी ) अपनी साहित्यसेवा के लिए भारतव्यापी कीर्ति के योग्य अधिकारी सिद्ध हो चुके हैं, और बन्धुवर वृन्दावनलालजी वर्मा ने जो कुछ लिखा है उसके पीछे एक दृढ़ व्यक्तित्व, सुलझे हुए दिमाग तथा सुसंस्कृत स्वभाव की मनोहर झलक विद्यमान है । स्वर्गीय मुंशी अजमेरी जी का नाम इन सब से पहले आना चाहिए था । बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उनकी साहित्यिक रचनाओं का और उनसे भी बढ़कर उनके मधुर व्यक्तित्व का मूल्य अभी तक ग्रांका नहीं गया । यदि उनकी समस्त रचनाएं एक साथ संग्रह में प्रकाशित कर दी जातीं और उनके संस्मरणों की एक पुस्तक छप जाती तो यह कार्य हमारे लिए सम्भव हो जाता । बन्धुवर गौरीशङ्करजी द्विवेदी, श्री कृष्णानन्दजी गुप्त, श्री नाथूरामजी माहौर, श्री घासीरामजी व्यास, सेवकेन्द्रजी, रामचरणजी हयारण, श्री प्रियदर्शीजी, हरिमोहनलाल वर्मा, श्री चंद्रभानु जी तथा अन्य बीसियों कार्यकर्ताओंों की साहित्यिक सेवाऐं उल्लेख योग्य हैं । श्री व्यौहार राजेन्द्रसिंहजी एम० एल० ए० इसी प्रान्त के हैं और हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशक श्री नाथूरामजी प्रेमी भी । कितने ही व्यक्तियों के नाम यहां छूटे जा रहे हैं, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उनकी रचनाएँ या सेवाएं नगण्य हैं । श्रीमान् श्रोछेश के देवपुरस्कार, उनकी वीरेन्द्र केशव - साहित्य परिषद, समय-समय पर दिये हुए उनके सहृदयतापूर्ण दान तथा उनके उत्कट हिन्दी प्रेमके विषयपर लिखने की आवश्यकता नहीं । उसे सब जानते ही हैं । क्षमाप्रार्थी हैं हम उन कार्यकर्ताओं से जिनके नाम छूट गये हैं। हां, अपने निकटस्थ साहित्यिकों के नाम हमने जानबूझ कर छोड़ दिये हैं । हौकी— हौकी के खेल में तो यह प्रान्त भारत में ही नहीं समस्त संसार में अपना सानी नहीं रखता । सुप्रसिद्ध खिलाड़ी ध्यानचन्द और रूपसिंह इसी प्रान्त के हैं और भारत की सर्वश्रेष्ठ हौकी टीम श्री भगवन्त • क्लच तो टीकमगढ़ की है। ५२० Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृभूमिके चरणों में विन्ध्यप्रदेशका दान भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विन्ध्य प्रदेश क्या भेंट मातृभूमिके चरणों में अर्पित कर सकता है उसका संक्षिप्त ब्यौरा हमने दे दिया है। हमारा कर्त्तव्य-- हम लोगों का जो इस प्रान्तके अन्न जलसे पल रहे हैं-कर्त्तव्य है कि हम इस जनपदके नमक को अदा करें। यदि कहीं भी इस प्रान्तका कोई नवयुवक शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, व्यायाम (खेलकूद ), उद्योग-धंधे, राजनीति अथवा समाजसुधार, इत्यादिके क्षेत्रोंमें हमारी सहायता या प्रोत्साहन की आशा कर रहा है तो अपनी सेवाएं नम्रतापूर्वक अर्पित करना हमारा कर्तव्य है। यह भूमिखण्ड प्रतीक्षा कर रहा है सरस्वतीके उन उदार उपासकों की जो मिल बांट कर अपनी सुविधाओंको भोगने के सिद्धान्तमें विश्वास रखते हों, वह इन्तजार कर रहा है उन साधन-सम्पन्न व्यक्तियोंको जो उद्योग-धंधे खोलकर चार दाने यहां को गरीब जनताके पेटमें भी डालें, वह बाट जोह रहा है उन बड़े भाइयोंकी, जो छुटभाइयों को प्रोत्साहन तथा प्रेरणा देने में अपना गौरव समझे। हां, इस जनपद की इस उपेक्षित भूमिको जरूरत है ऐसे आदर्शवादी नेताओंकी, जो अपना तन मन धन इस प्रांतकी सेवामें अर्पित करने के लिए सर्वदा उद्यत हों। लोगों का यह आक्षेप है कि हमारे कार्यकर्ताओंका बहुधन्धीपन अथवा उनकी संकीर्ण मनोवृत्ति इस प्रान्तकी उन्नतिमें सबसे बड़ी बाधा रही है, पर हमारी समझमें सर्वोत्तम तरीका यही है कि हम किसी पर आक्षेप न करें जिससे हमें जो भी सहायता मिल सके लें और आगे बढ़ें। जो साधन-सम्पन्न होते हुए भी इस प्रान्तकी सेवा करने के लिए कुछ भी नहीं करते उनसे अधिक करुणाका पात्र और कौन होगा? और दयनीय स्थिति उनकी भी है जो लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंको एक साथ खुश रखने के असंभव प्रयत्नमें लगे हुए हैं। जिस प्रान्तके अधिकांश निवासी शिक्षाविहीन, साधनहीन और जीवन की साधारण आवश्यकताअोंके लिए पराधीन हों, उसकी सेवा करना एक महान यज्ञ है। सौभाग्यशाली हैं वे जो यथाशक्ति इस यज्ञमें सहायक हैं। भगवान्ने गीतामें कहा है :-- "यज्ञशिष्ठाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्" अर्थात् यज्ञसे बचे अन्नको खाने वाले श्रेष्ट पुरुष सब पापोंसे छूटते हैं और जो केवल अपने शरीरके पोषणके लिए ही भोजन बनाते हैं वे पापको ही खाते हैं । ६६ ५२१ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ इसका व्यापक अर्थ यह है कि शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, सुख, सुविधा, साधन, इत्यादिका जो सर्वसाधारणके साथ मिल बांट कर उपयोग अथवा उपभोग करते हैं वे ही श्रेष्ठ पुरुष हैं । भगवानके इन शब्दोंमें व्यक्तियों तथा जनपदों और देशोंके लिए भी सन्देश छिपा हुआ है । यदि विन्ध्यप्रदेश गौरवपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहता है तो उसे अपनी सर्वोत्तम भेंट मातृभूमिके चरणोंमें अर्पित करनी होगी, और अखिल विश्वके हितमें ही हमारी मातृभूमिके महान ध्येयको निरन्तर अपने सामने रखकर जो भी व्यक्ति अपने कुटुम्ब, नगर, जनपद अथवा देशकी सेवा करता है वही वस्तुतः जीवित है-- बाकी सब तो घासफूसकी तरह उग रहे हैं। NDowan ५२२ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिराज विन्ध्याचल श्री कृष्णकिशोर द्विवेदी | गिरिराज विन्ध्याचलको पुराणकारोंने समस्त पर्वतोंका मान्य कहा है तथा उसकी गणना सात कुल पर्वतों में की गई है— मेहेन्द्रो मलयः सद्यः सवितमान् ऋक्षवानपि । विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तेते कुल पर्वताः । ( महाभारत भी० प० अ० ९ श्लो० ११) इसमें ऋक्ष विन्ध्य और पारियात्रको साथ रखनेका विशेष कारण है । अपने दोनों सहयोगियोंके साहचर्य में विन्ध्यकी स्थिति इतनी सौन्दर्यमयी बनगयी है कि बाणके शब्दों में उसे "मेखलेव भुवः " कहा जाय तो लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । हिमालयकी गगनचुम्बी उंचाई, शुभ्रहिमानी रहस्यमय वातावरण और विराट् नग्नता, आश्चर्य और आकर्षण उत्पन्न अवश्य करते हैं । पर विन्ध्याचलकी विषमता, कामरुपता, सघन द्रुमलतावेष्टित कंटकाकीर्ण मार्ग, वन्य पशुत्रोंके निनाद से मुखरित गुहाऐं, कलकल निनाद करते स्वच्छ झरने, पर्यटकके मनको एक प्रकारके भय मिश्रित आनंदसे अभिभूत कर देते हैं। विन्ध्यके बनोंका सौन्दर्य बड़ा ही अद्भुत है । बाणने कादम्बरीमें उसका कितना सजीव वर्णन किया है... "विन्ध्याचल की अटवी पूर्व एवं पश्चिम समुद्रके तटको छूती है, यह मध्यदेशका आभूषण है। पृथ्वीकी मानो मेखला है । उसमें जंगलो हाथियोंके मद जलके सिंचनसे वृक्षों का संबर्धन हुआ है । उसकी चोटियों पर अत्यन्त प्रफुल्लित सफेद फूलों के गुच्छे लग रहे हैं । वे ऊंचाई अधिक होने के कारण तारागणके समान दीख पड़ते हैं । वहां मदमत्त कुरर पक्षी मिर्च के पत्तांको कुतरते हैं, हाथी के बच्चोंकी सूड़ोंसे मसले गये तमाल के पत्तोंकी सुगंध फैल रही है और मदिरा के मद से लाल हुए केरल (मलावार ) की स्त्रियोंके कपोलोंके समान कोमल कांतिवाले पत्तों से वहांकी भूमि अच्छादित है, वे पत्ते भ्रमण करती हुई वन देवियोंके पैरोंके महावर से रंगे हुए से मालूम होते हैं । वह भूमि तोतों से काटे गये अनारों के रससे गीली रहती है तथा कूदते फांदते बंदरोंसे हिलाये गये कोशफल वृक्षों में से गिरे हुए पत्तों और फूलोंके कारण रंग विरंगी दिखायी देती है। दिन रात उड़ती हुई फूलों की रजसे वहांके लता मंडप मलिन हो गये हैं । वे वन लक्ष्मीके रहनेके महलोंके समान मालूम होते हैं ।" ५२३ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ कहने का तात्पर्य यह है कि विन्ध्याचल बड़े बड़े जंगलों से युक्त है । विशालवृक्षों एवं कुसुमित लतागुल्मों से आच्छादित है । उस पर चारों ओर सदैव हृष्ट पुष्ट स्वर्णमृग, वाराह, भैंसे, बाघ, सिंह, बन्दर, खरहे, भालू और सियार विचरण करते रहते हैं । और विन्ध्यके चरणों में लहराती हुई नर्मदा ! "वह तो ऐसी प्रतीत होती है मानो हाथी के शरीर पर श्वेत मिट्टी से रेखाएं सजाकर श्रंगार किया गया हो । रेवा (नर्मदा का जल वन्य गजोंके निरंतर स्नान के कारण मदगंध से सुरभित रहता है और उसकी धारा जम्बू कुंजों में विरमती हुई धीरे धीरे बहा करती है । उसके कछारोंमें वर्षाके प्रारम्भमें पीत हरित केशरोंवाले कदम्ब कुसुमोंपर मधुकर गूंजते रहते हैं । मृग प्रथम बार मुकुलित कंदलीको कुतरा करते हैं और भूमिकी सोंधी गंधको सूंघकर हाथी मस्त हो जाते हैं । "यहां का प्रत्येक पर्वत शृंग अर्जुन ( कवा) की गन्धसे सुरभित रहता है। श्वेत पागों और सजल नयनों से मयूर यहां नवीन मेघका स्वागत करते हैं । " अमरुक की एक नायिका चैतकी उजली रातमें मालती गंध से आकुल समीरण में प्रियतमकी निकटवर्तिनी होकर भी अपने पुराने प्रच्छन्न संकेत स्थल रेवाकी कछार में स्थित वेतसी तरुके नीचे जानेको बार बार उत्कंठित हो उठती है । विन्ध्याचल सब भारतीय पर्वतोंका गुरु ( ज्येष्ठ ) है । भूतत्ववेत्तात्रों का मत है कि भारतवर्ष में विन्ध्य अरावली और दक्षिणका पठार ही सबसे पुरानी रचना है। इनका विकास अजीब कल्प ( Azoic Age) में पूरा हो चुका था । उत्तर भारत, अफगानिस्तान, पामीर, हिमालय और तिब्बत उस समय समुद्र के अन्दर थे । खटिका युग ( ) के भूकम्पोंसे हिमालय आदि तथा उत्तर भारतीय मैदान चोटियोंपर भी खटिका युगके जीवों और डावला (अरावली ) की भीतरी चट्टानों में के कुछ अंश ऊपर उठ आये । हिमालयकी सबसे ऊँची वनस्पतियों के अवशेष पाये जाते हैं जब कि विन्ध्याचल और जीवों की सत्ताका कोई चिन्ह नहीं मिलता । प्राकृतिक सौन्दर्य के अतिरिक्त विन्ध्याचलका धार्मिक महत्व भी कम नहीं है । विन्ध्यवर्ती तीर्थों की महिमा पुराणकारोंने मुक्तकंठ से गायी है । पार्श्वनाथगिरि, विन्ध्यवासिनी, नर्मदा, अमरकंटक, ताम्रकेश्वर श्रादि गणित तीर्थोंको विन्ध्य अपनी विशाल गोदमें आश्रय दे रहा है । मत्स्य पुराण में गंगा, यमुना और सरस्वती से भी अधिक नर्मदाकी महिमाका गुणगान किया है। " कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और सरस्वती कुरुक्षेत्र में पवित्र है, परन्तु गांव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है ।" “यमुनाका जल एक सप्ताह में, सरस्वतीका जल तीन दिनमें, गंगाजल उसी क्षण और नर्मदा जल दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देता है ।" आगे चलकर अमरकंटककी महिमामें कहा गया है - "अमरकंटक तीनों लोकों में विख्यात है । ५२४ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिराज विन्ध्याचल यह पवित्र पर्वत सिद्धों और गंधवों द्वारा सेवित है। जहां भगवान् शंकर देवी उमाके सहित सर्वदा निवास करते हैं। जी महानुभाव अमरकंटककी प्रदक्षिणासे हजार यज्ञोंका फल पानेमें विश्वास नहीं रखते, न जिन्हें सौन्दर्य तृष्णा ही सताती है, उनके लिए भी विन्ध्यकी नाना विध वन्य तथा खनिज संपत्ति कम आकर्षणकी वस्तु नहीं है। यहां पाठकोंके मनोरंजनार्थ महाभारतसे एक विन्ध्याचल संबंधी अनुश्रुति उद्धृत करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकता। यह कथा अगस्त्य ऋषिके महात्म्यके प्रसङ्गमें लोमश ऋषिने युधिष्ठिरको सुनायी थी ।...... ___ “जब विन्ध्य पर्वतने देखा कि सूर्य उदय और अस्तके समय स्वर्णमय पर्वतराज मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं तब उसने सूर्य से कहा.--'हे सूर्य ! जैसे तुम प्रतिदिन मेरुकी प्रदक्षिणा करते हो, वैसे ही हमारी भी प्रदक्षिणा करो।' पर्वतराजके ऐसे वचन सुनकर सूर्य बोले-'मैं अपनी इच्छासे थोड़े ही मेरुकी प्रदक्षिणा करता हूं, जिन्होंने यह जगत् बनाया है, उन्होंने मेरा यह मार्ग निश्चित कर दिया है ।' सूर्य के ऐसे वचन सुनकर विन्ध्यको अत्यन्त क्रोध हुआ और सूर्य तथा चन्द्रमाके मार्गको रोकने की इच्छासे वह अपने को ऊंचा उठाने लगा यह देख देवगण तब एक साथ उसके पास आये और उसे इस कार्यसे रोकने लगे, परन्तु उसने एक न सुनी, तब सब देवगण, तपस्वी और धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषिके अाश्रममें पहुंचे और उन्हें अपना अभिप्राय कह सुनाया—'हे द्विजोत्तम ! पर्वतराज विन्ध्य क्रोधके वशवर्ती होकर सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रोंके मार्गको रोकना चाहते हैं । हे महाभाग, आपके सिवा उन्हें और कोई नहीं रोक सकता, इसलिए कृपाकर उन्हें रोकिये।' देवताओंके वचन सुनकर अगस्यने अपनी पत्नी लोपामुद्राको साथ लिया और विन्ध्यके निकट पहुंचे । उनके स्वागतके लिए विन्ध्य उनके निकट उपस्थित हुअा तब ऋषिने विन्ध्यसे कहा---'हे गिरिश्रेष्ठ. हम विशेष कार्यसे दक्षिण जाना चाहते हैं, इसलिए मुझे जाने के लिए मार्ग दो और जब तक हम लौट न आयें तब तक ऐसे ही प्रतीक्षा करते रहो, जब मैं आजाऊ, तब तुम इच्छानुसार अपनेको बढ़ाना।' इस प्रकार बचन देकर अगत्य दक्षिणको चले गये फिर वहांसे लौटे नहीं और बेचारा विध्य अब तक शिर झुकाये उनकी बाट जोह रहा है।" ___यह कथा प्राचीन कालसे ही काफी प्रसिद्ध रही है, कालिदासने भी रघुवंशमें "विन्ध्यस्य संस्तंभयिता महाद्रेः' कह कर इसी कथाकी अोर संकेत किया है, देवी भागवतकारने भी उसे उद्धृत किया है यद्यपि श्रोताओंका ख्याल करके नमक मिर्चका पुट भी उसमें दे दिया है। इस कथाका अभिप्राय क्या ५२५ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अभिनन्दन ग्रन्थ है यह तो ठीक नहीं कहा जा सकता, पर संभव है "कृणुध्वं विश्वमार्यम्" अथवा सच कहें तो 'आर्यमयम्' के उद्देश्यको पूरा करनेके लिए उत्सुक आर्यंजनोंने दक्षिण देशकी दुर्गमताकी थाह लेने के विचार से जो प्रयत्न किये थे, उन्हींका चित्रण इस कथामें किया गया हो । जो हो, विन्ध्याचल सचमुच भारतका पितामह है । इस पृथ्वी के लाखों करोड़ों वर्ष के आलोडन संघर्षण - परिवर्तन उसने अपनी आंखों से देखे हैं, अजीव कल्प मौनदृष्टा रहा है और सजीव कल्पकै गगन चुम्बी वृक्षों, वनकेवल उसने अपने नेत्रों से देखा ही है, उन्हें गोद में भी विलोडन और इस जगत् के जाने कितने की लाखों वर्षों की विराट शून्यताका वह स्पतियों तथा दानवाकार वन्य जन्तुओं को न खिलाया है। खटिका युग के कितने भीम भयंकर भूकंप उठा । धरणीके कितने रूप परिवर्तन, कितने महासागरोंका अन्त और कितनी स्थलियोंके उद्भवको उसने कौतुक के साथ देखा है । श्राजके शैलराट हिमालय को अभी उस दिन सौरीगृहमें देख वह मुस्कराया था और अब उस कलके शिशु हिमालयको आसमान से बातें करते देख वह अगस्त्य के लौटने की प्रतीक्षा में दक्षिणकी ओर बार बार देखने लगता है, पर हाय ! "अद्यापि दक्षिणोद्देशात् वारुणिन निवर्तते" ( आज भी अगस्त्य दक्षिण से लौटते दिखायी नहीं देते ) | मानव के नाम के इस विचित्र प्राणीको अस्तित्व में आते और चारों ओर फैलते उसने देखा है, कितने गर्वोद्धत विजेता की अदम्य लिप्साए उसकी छातीको रौंदती हुई चली गयी हैं, और कितने हतदर्प परन्तु स्वाभिमानी पराजितोंने प्राणोंकी बाजी लगा कर उस लिप्सा के दांत तोड़नेका महोद्यम किया है, इसका सारा लेखा जोखा उसके पास है हमारा बुन्देलखंड इस वृद्ध पितामहकी जगह में बैठ कर शत शत स्नेह निर्झरियों से अभिषिक्त होकर गर्वित है, और उसकी चट्टानोंको तोड़फोड़ कर उछलती कूदती नर्मदा तो मानो युग युगकी अनुभूतिकी वाणी सी अपनी वन्या से चुप्पी के कगारोंको तोड़ती हुई हृदयके अतल गंभीर देश से बहती चली आती है ! हे पुरातन गिरिश्रेष्ठ ! शैलराज हिमालयके हे ज्येष्ठ बन्धु !! तुम्हें कोटि कोटि प्रणाम । ५२६ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहाक खंडहर श्री अम्बिका प्रसाद दिव्य, एम० ए० खजुराहा बुन्देलखण्ड के अंतर्गत छतरपुर राज्यमें, एकान्त जंगलमें बसा मुत्रा एक छोटा सा ग्राम है, जिसमें अधिकसे अधिक दो तीन सौ घर होंगे । परन्तु यह छोटा सा ग्राम किसी समय चन्देल राजाओं को राजधानी था। इसमें उनके समय के कुछ खंडहर आज भी खड़े हैं। हन खंडहरोंको देखकर चन्देलोंकी समृद्धि तथा वैभव के जैसे विशाल चित्र हमारी कल्पनामें आते हैं वैसे आज बुन्देलखण्ड में कहीं भी देखनेको नहीं मिलते। अतः चन्देलोंके विषय में कुछ जाननेकी एक सहज जिज्ञासा हमारे हृदयमें जाग उठती है। चन्देलोंका राज्य जैसा कि प्राचीन शिलालेखोंसे पता चलता है, नवीं शताब्दी से १३ वीं शताब्दी तक रहा । इन्होंने अपनेको चन्देल्ल या चन्द्रेल कहा है और चन्द्रात्रेय मुनिका वंशज बतलाया है । चन्द्रात्रेय मुनिका जन्न ब्रह्मान्द्र मुनि अथवा ब्रह्मासे हश्रा कहा जाता है। चन्द्रात्रेयके वंशमें अनेक राजाओंको परम्परामें एक नन्नुकका जन्म हुआ। नन्नुकने ८३१ ई. के लगभग चन्देल वंशकी नींव डाली। आगे चलकर इस वंशमें एकसे एक प्रतापी तथा शक्तिशाली राजा हुए । उनकी सूची इस प्रकार है-- नन्नुक, वाक्यपति, जयशक्ति, रोहित, हर्ष, यशोवर्मन, धंग, गंड, विद्याधर, विजयपाल, कीर्तिवर्मन, देववर्मन, सल्लक्षणवर्मन, जयवर्मन, पृथ्वीवर्मदेव, परमादिदेव तथा त्रैलोक्य वर्मदेव । इनमें से जयशक्ति, हर्ष, यशोवर्मन, धंग, गंड तथा विद्याधर के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं, क्योंकि इनके समयमें खजुराहाकी विशेष उन्नति हुई। जयशक्ति और विजयशक्ति दो भाई थे। महोवामें जो एक शिला लेख मिला है, उसमें इन्हे जेजा और बेजा करके लिखा है। जयशक्तिको जेजक और विजय शक्तिको विजक भी कहा गया है। उपरोक्त शिला लेखसे ज्ञात होता है कि जेजकके कारण ही इस प्रान्तका जिसे आज बुन्देलखण्ड कहते हैं, 'जेजाक भुक्ति' नाम पड़ा। यही नाम आगे चलकर जुझोप मात्र रह गया। हर्ष-यह इस वंश का छटा शासक था। इसने अपने राज्यको कन्नौजके प्रतिहारोंकी पराधीनतासे छुड़ाकर स्वतंत्र घोषित किया, कन्नौजके राजा क्षितिपाल देवको भी राष्ट्रकूट वंशके राजा इन्द्र तृतीयके चुगुलसे छुड़ाया। ५२७ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ यशोवर्मन- -यह हर्षका ही पुत्र था, कहीं कहीं इसे लक्षणवर्मन भी कहा है, यह अपने पिता के समान ही शक्तिशाली तथा प्रतापी हुआ । यह अपने वंशका सातवां राजा था और ६३० ई० में सिंहासनारूड़ हुश्रा । यह बड़ा ही महत्त्वाकांक्षी तथा युद्ध प्रिय था । उसने चेदिके कलचुरियोंको हराकर कालिंजर जीत लिया और अपने राज्य में मिला दिया । कन्नौज के शासकका भी मानमर्दन किया तथा नर्मदा से लेकर हिमालय तक अपना आतंक जमाया । धंग --यह इस वंशका सबसे विख्यात राजा हुया । यह यशोवर्मनका पुत्र था । धंग शब्दका अर्थ है बड़ा काला भौंरा, संभव है, यह नाम इसे किसी गुण विशेषके कारण ही दिया गया हो। इसने अपने राज्य को पूर्वमें कालिंजरसे लेकर पश्चिममें ग्वालियर तक और दक्षिण में वेतवासे लेकर उत्तर में यमुना तक फैलाया । यह वही सुप्रख्यात धंग था जिसने गजनी के सुलतान सुबुक्तगीनका मुकाबला करनेको पंजाब के राजा जयपालको सहायता दी थी। इसने गुर्जर प्रतिहारोंसे अपने राज्यको पूर्णरूप से स्वतंत्र कर लिया | यह सौ वर्षसे भी अधिक जीवित रहा, और गङ्गा यमुनाके किनारे जाकर अपना शरीर त्याग किया । गंड- यह बंगका पुत्र था और अपने पिता के समान ही प्रतापी हुआ। गंड शब्दका अर्थ है वीर ! इसके वीर होने में कोई सन्देह नहीं था । इसने लाहौर के राजा जयपाल के पुत्र नन्दपाल की महमूद गजनवी के विरुद्ध सहायता की परन्तु भाग्यने साथ न दिया । विद्याधर- इसे वीदा भी कहा गया । यह गंडका पुत्र था । यह भी अपने पूर्वजोंके समान ही प्रतापी तथा शक्तिशाली हुआ । कन्नौज के राजा राज्यपालने महमूद गजनवीकी पराधीनता मानकर जो आत्मग्लानि उठायी थी वह इससे न देखी गयी । उसने राज्यपाल को प्राणदंड दे महमूदको चुनौती दी और उसे दो बार हराया । अन्त में कालिजरके स्थान पर दोनों में सुलह हो गयी । वीदाने कहा जाता है, भाषा में एक कविता लिखकर महमूद के पास भिजवायी थी । उसे महमूदने बहुत पसन्द किया तथा फारस के विद्वानों को दिखाया | वीदाको बधाई भेजी तथा १५ दुगको शासन भी उसे सौंप दिया । भाषा ( हिंदी ) की कविता के विषय में मुसलमानी पुस्तकों में यह सबसे पुराना उल्लेख है । इन शासकोंकी देख-रेख में खजुराहाने जो गौरव तथा वैभव प्राप्त किया वह बुन्देलखंड की किसी भी रियासत की राजधानीको प्राप्त नहीं । प्राचीन शिलालेखों में इसका नाम खर्जूरपूर या खर्जूर वाहक मिलता है । कहा जाता है कि इसके सिंहद्वार पर खजूर के दो स्वर्ण वृक्ष बनाये गये थे और इसी कारण इसका नाम खर्जूरपुर या खर्जूर वाहक पड़ा था । यह भी अनुमान किया जाता है कि यहां खजूर वृक्षकी पैदावार अधिक रही होगी । इसका प्राचीनतम उल्लेख ग्रीक विद्वान टालमीके भारतके भूगोल वर्णन में मिलता है। उसने बुन्देल खंडकावर्णन सुन्दरावतीके नामसे किया है और टेमसिस, कुर्सीनिया यमप्लेटरा तथा नबुनन्द नगर, इत्यादि ५२८ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहाके खंडहर नगरोंका उल्लेख किया है । टेमसिससे कालिंजरका बोध होता है जो कि बुन्देलखंडके अन्तर्गत ही है । वैदिक साहित्यमें कालिंजरको तापस स्थान कहा है और इस तापस शब्दसे ही टेमसिस बना हुआ प्रतीत होता है। इसी तरह कुर्पोनिधि भी खजुराहाका रूपान्तर प्रतीत होता है जिसके प्रमाण भी मिलते हैं । ___टालमीके पश्चात् चीनी यात्री हुएनशांगने भी अपने भारत-यात्रा वर्णनमें इसका उल्लेख किया है। हुएनशांगने ६३०-४३ई० के बीच भारतका भ्रमण किया था। उसने बुन्देलखंडका जिसे उस समय जेजाकभुक्ति कहते थे चीचेट करके वर्णन किया है और उसकी राजधानी खजुराहा बतलायी है । खजुराहा नगरका घेरा उसने १६ क्ली अर्थात् अढ़ाई मीलसे कुछ अधिक बतलाया है। उसने यहांकी पैदावारका भी जिक्र किया है । यह भी लिखा है कि यहांके निवासी अधिकतर अबौद्ध हैं । यद्यपि यहां दर्जनों बौद्ध बिहार हैं तब भी बौद्ध लोग बहुत कम संख्यामें हैं । मन्दिर जब कि ब्राह्मण पलते हैं । यहांका राजा भी ब्राह्मण है परन्तु वह बौद्ध-धर्ममें बहुत श्रद्धा रखता है । हएनशांगके पश्चात् खजुराहाका उल्लेख महमूद गजनवीके साथी पाबूरिहाके यात्रा वर्णनमें मिलता है। आबूरिहा यहां सन् १०२२ में आया था । उसने खजुराहाका नाम कजुराहा करके लिखा है और उसे जुझोतकी राजधानी लिखा है । श्रावरिहाके पश्चात् सन् १३१५ के लगभग इब्नबतूता यहां आया । उसने खजुराहाका नाम खजुरा लिखा है। यहां के एक तालाबका भी उल्लेख किया है जिसको उसने एक मील लम्बा बतलाया है। वह लिखता है कि इस तालाबके किनारे कितने ही मन्दिर बने हुए हैं जिनमें जटाधारी योगी रहते हैं । उपवासों के कारण उनका रंग पीला पड़ रहा है। बहुतसे मुसलमान भी उनकी सेवा करते हैं और उनसे योगविद्या सीखते हैं। इन विदेशी यात्रियोंके उल्लेखोंके अतिरिक्त चन्देल वंशके राजकवि चन्दके महोबाखंड नामक काव्य ग्रन्थमें भी खजुराहाका अच्छा वर्णन मिलता है । स्मरण रहे कि यह चन्द पृथ्वीराजरासोके लेखक चन्दबरदाईसे पृथक थे । चन्देल कट्टर वैदिक थे और शैवमतके अनुनायी थे । शिवकी भार्या मनियादेवी इनकी कुलदेवी थी। चन्देलोंके सम्पूर्ण राज्यमें मनियादेवी की बड़ी आवभगतसे पूजा होती थी। तब भी चन्देल दसरे मतोंके विरोधी न थे। वे जैन तथा बौद्धमतमें भी श्रद्धा रखते थे। इनका आदि स्थान मनियागढ़ था जो आज भी केन नदीके किनारे पर राजगढ़के समीप एक पहाड़ीपर खड़ा हुआ है। कहा जाता है, इन्होंने परहार या प्रतिहारोंसे राज्य छीना था जिनकी राजधानी मऊसहनियां थी। मऊसहनियां भी नयागांव और छतरके बीचमें आज भी खड़ी है । उत्तरीभारतके सम्राट हर्षवर्धनकी मृत्युके पश्चात् इन्होंने अपना राज्य इस सारे भूखंडमें, जिसे आज बुन्देलखंड कहते हैं, फैला लिया । ५२९ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन-ग्रन्थ कहा जाता है कि इनके पूर्वपुरुष चन्द्रब्रह्मका जन्म खजुराहा ही में हुआ था। चन्द्रब्रह्मकी मां काशीसे आयी थी और उन्होंने कर्णवतो अर्थात् केन नदीके किनारे जो कि खजुराहासे कुछ ही दूरसे निकली है, तप किया था। तपके फलस्वरूप इनके चन्द्रब्रह्मका जन्म हुआ । जब चन्द्रब्रह्म सोलह वर्ष के हुए तो इनकी मां ने भांडवयज्ञ करवाया। इस यज्ञके लिये ८४ वेदियां बनायी गयी थीं और कुएं में भरकर म्हटके द्वारा वैदियों तक निरंतर धी पहुंचाया गया । घी पहुंचाने के लिए पत्थरकी जो परनालियां बनायी गयी थीं, वे अब भी खजुराहामें पड़ी हैं । इन वेदियों पर बादमें ८४ विशालकाय मन्दिर बनवाये गये । इन मन्दिरों से कुछ अब भी खड़े हैं । खजुराहाके खंडहरों में यही विशेष हैं और इनके कारण ही खजुराहा आज भी सुप्रख्यात है और हमारे लिए दर्शन तथा अध्ययनको चीज बना हुआ है। इन मन्दिरोंको खजुराहाका बोलता हुआ इतिहास कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। पत्थरसे इनके समयके रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज नैतिक तथा धार्मिक जीवन, सभीके उभरे हुए चित्र दूर ही से बोलते हुए से दिखाई पड़ते थे। ये मन्दिर कितने विशाल कितने भव्य तथा कलापूर्ण है कहते नहीं बनता। इनके विषयमें स्वयं पुरातत्त्व विभागकी रिपोर्ट में लिखा है। In beauty of out-line and richness of carving the temples of Khajuraha are unsurpassed by any kindred group of monument in India. खेद है कि चौरासी मन्दिरोंमेंसे केवल तीस पैंतीस मन्दिर ही शेष रह गये हैं । अन्य या तो कालकी गतिसे स्वयं ही या मुसलमान शासकोंके प्रहारोंसे धराशायी हो गये । जब खजुराहाके ये खंडहर हमको आश्चर्यमें डालते हैं, तब खजुराहा जब अपनी पूर्ण यौवनावस्थामें रहा होगा, उस समय उसे देखकर हमारे क्या विचार होते, इसको हम कल्पना भी नहीं कर सकते। ये मन्दिर भुवनेश्वरके सुप्रसिद्ध मन्दिरों की इण्डोआर्यन पद्धति पर बने हैं और एक एक मन्दिरमें छोटी बड़ी इतनी अधिक मूर्तियां हैं कि उनका गिनना भी कठिन है । ये सभी मन्दिर प्राकृति और बनावटमें प्रायः एक से ही हैं और एक ही मतके प्रतीकसे ज्ञात होते हैं। कई मन्दिर इनमें से पंचायतन शैलीके हैं और पूर्णतया वैदिक शिल्प शास्त्रके अनुकूल हैं । समस्त मन्दिर तीन समूहोंमें विभक्त किये जा सकते हैं-पश्चिमी समूह, पूर्वी समूह तथा दक्षिणी समूह । पश्चिमी समूह विशेष दर्शनीय है । इनमें नीचे लिखे मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं । पश्चिमके मन्दिर चौसठ योगनियोंका मन्दिर-यह मन्दिर शिवसागर नामकी झील के उत्तर पूर्व एक ऊंचे टीले पर स्थित है । मन्दिर तो धराशायी हो चुका है, अब उसका भग्नावशेष मात्र है। इसमें कहा जाता है, भगवति चण्डिका देवीकी तथा उनकी दासी ६४ योगनियोंकी विशाल मूर्तियां पृथक-पृथक खानोंमें स्थापित थीं। ५३० Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहाके खंडहर परन्तु अब वे सबकी सब लापता हैं । केवल खाने खाली पड़े हुए दिखलायी देते हैं । हां एक बड़े खानेमें तीन मूर्तियां पड़ी हैं, उनसे यह बात सिद्ध होती है कि यह मन्दिर ६४ योगनियोंका ही था । इन मूर्तियों में से एक महिषा-मर्दिनीकी है, दूसरी महेश्वरी तथा तीसरी ब्रह्माणीकी। कहा जाता है खजुराहाके मन्दिरोमें यह मन्दिर सबसे अधिक प्राचीन है। कन्दरिया मन्दिर- यह मन्दिर चौसठ योगनियोंके मन्दिरसे कुछ ही दूरी पर उत्तरकी अोर स्थित है । यह खजुराहाके सभी मन्दिरोंसे विशाल और भव्य है। यह ईसाकी १० वीं शताब्दीका बना हुआ है। पहले पंचायतन शैलीका था, परन्तु चारों कोने के सहायक मन्दिरोंका अब नाम निशान भी नहीं । यह बाहर भीतर, देवी देवताओं तथा अप्सरात्रोंकी विभिन्न मूर्तियोंसे आच्छादित है। देवी जगदम्बाका मन्दिर-यह भी उपरोक्त मन्दिरके समीप ही है और उसी शैलीका बना हुआ था; परन्तु इसके भी सहायक मन्दिरोंका अब पता नहीं। इसकी सजावट भी कन्दरिया मन्दिरके समान ही कलापूर्ण तथा दर्शनीय है। यह मन्दिर पहले विष्णु भगवान्की स्थापनाके लिए बनवाया गया था। परन्तु आज विष्णुके स्थान पर उनको अधांगिनी श्री लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित है जिसे लोग अज्ञान वश काली अथवा देवी जगदम्बाके नामसे पूजते हैं । चित्रगुप्तका मन्दिर—यह जगदम्बाके मन्दिरसे कुछ ही दूरीपर उत्तरकी अोर स्थित है । श्राकार प्रकारमें भी उपरोक्त मन्दिरके समान ही है। इसके गर्भमन्दिरमें सूर्य की एक पांच फीट ऊंची मूर्ति स्थापित है। विश्वनाथ मन्दिर-यह मन्दिर भी चित्रगुप्तके मन्दिर के समीप ही है । यद्यपि यह कन्दरिया मन्दिरसे कुछ छोटा है परन्तु रूप रेखामें उसीके समान हैं । यह भी पंचायतन शैलीका बना हुआ था; परन्तु सहायक मन्दिरोंमें से दो लापता है। इसकी सजावट भी अन्य मन्दिरोंके समान ही कलापूर्ण है। इसके मंडपके अन्दर दो शिलालेख खुदे हुए हैं। एक विक्रम सम्वत १०५६ का है दूसरा १०५८ का । १०५६ के शिलालेखमें नन्नुकसे लेकर धंग तक चन्देल राजाओंकी नामावली दी गयी है। इसी लेखसे पता चलता है कि यह मन्दिर धंगका बनवाया हुआ था, और इसमें, हरे मणिका शिवलिंग स्थापित किया गया था, परन्तु अब उस शिवलिंगका पता नहीं। दूसरा शिलालेख किसी अन्य मन्दिरके ढीहे से लाकर रख दिया गया है, जिसे वैद्यनाथका मन्दिर कहते हैं । लक्ष्मणजीका मन्दिर-यह भी समीप ही है और आकार प्रकारमें विश्वनाथके मन्दिरके समान ही है । यह भी पंचायतन शैलीका बना हुआ है। सौभाग्यसे इसके चारों सहायक मन्दिर अब भी खड़े हैं। इसकी मूर्तियां विशेष सुन्दर और कलापूर्ण हैं। इसके मंडपके अन्दर भी एक शिलालेख पड़ा है जिससे पता चलता है कि यह धंगके पिता यशोवर्मनका बनवाया हुआ था। इसके अन्दर विष्णुकी जो मूर्ति ५३१ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ स्थापित है वह कन्नौजके राजा देवपालसे प्राप्त की गयी थी, जिसे यशोवर्मनके पिता हर्षदेवने हराया था । मंगलेश्वरका मन्दिर-यह लक्ष्मणजीके मन्दिरके बगल में दक्षिणकी अोर स्थित है । इसमें एक विशाल शिवलिंग स्थापित है, जिसकी आज भी बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे पूजा होती है। इस मन्दिरमें कलाकी कोई विशेष चीज दर्शनीय नहीं। इस समूहमें और भी कई छोटे-छोटे मन्दिर हैं परन्तु विशेष उल्लेखनीय नहीं हैं। पूर्वी समूह यह समूह खजुराहा ग्रामके अति सन्निकट है। इसमें तीन वैदिक मन्दिर हैं तथा तीन जैन मन्दिर । वैदिक मन्दिरों में ब्रह्मा, वामन, तथा जावारीके मन्दिर हैं। इसके अतिरिक्त हनुमानजी की एक बहुत विशाल मूर्ति है। इस मूर्तिकी पीढ़ीके नीचे एक छोटा सा लेख है जिसमें हर्ष सम्वत् ३१६ पड़ा है जो ९२२ ई० के बराबर होता है। खजुराहाके अबतक मिले हुए शिलालेखों में यह सबसे प्राचीन शिलालेख है। सल्लक्षणवर्मनने जिसका कि नाम चन्देल वंशावलीमें दिया जा चुका है, पहली ही बार अपने तांबेके द्रव्योंमें हनुमानजी की मूर्ति अंकित करायी थी। इससे पहले हनुमानजी की कोई स्वतंत्र मूर्ति भारतीय कलामें नहीं मिलती। अतः हनुमानजी की मूर्तिके प्रचारका श्रेय चन्देलोंको ही है। ब्रह्माका मन्दिर- यह मन्दिर खजुराहा सागरके तीरपर स्थित है तथा नवीं और दरवीं शताब्दीके बीचका बना हुआ है । इसमें जो मूर्ति स्थापित है वह शिवकी है, परन्तु लोगोंने उसे ब्रह्माकी मूर्ति समझ रक्खा है। इसकी भी कला उच्चकोटि की है। वामन मन्दिर-यह ब्रह्माके मन्दिरसे एक फलोंग उत्तर पूर्वकी अोर बना हुआ है । यह रूप रेखामें जगदम्बा तथा चित्रगुमके मन्दिरके समान है, परन्तु उन दोनोंसे कहीं अधिक विशाल है । इसके अन्दर वामन भगवान्की चार फीट आठ इंच ऊंची एक सुन्दर मूर्ति स्थापित है। जापारी मन्दिर --यह खजुराहा ग्रामके समीप खेतोंके बीचमें स्थित है। अन्य मन्दिरोंकी अपेक्षा यद्यपि कुछ छोटा है परन्तु कलाकौशलमें कम नहीं । इसके अन्दर विष्णु भगवान्की चतुर्भुजी मूर्ति स्थापित है । यह दसवीं शताब्दीका बना हुआ है। जैन मन्दिरोंमें घंटाई, आदिनाथ, तथा पारसनाथके मन्दिर हैं। घंटाई मदिर-यह खजुराहा ग्रामके दक्षिण पूर्वकी ओर है । इसके स्तम्भोंमें घंटियोंकी देल बनी हुई है । अतः इसे घंटाई मन्दिर कहते हैं । इसका भी कला कौशल देखने योग्य है । आदिनाथ मन्दिर—यह घंटाई मन्दिरके हाते के अन्दर ही दक्षिण उत्तरकी ओर स्थित है। यह भी देखने योग्य है। इसमें जो मूर्ति स्थापित थी वह लापता है। पारसनाथ मन्दिर-जैन मन्दिरों में यह सबसे विशाल है । इसमें पहले वृषभनाथकी मूर्ति स्थापित थी परन्तु अब उस मूर्तिका पता नहीं है । उसके स्थान पर पारसनाथकी मूर्ति स्थापित कर दी गयी ५३२ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहाके खंडहर । इस मन्दिरकी सजावटमें वैदिक मूर्तियां भी बनायी गयी हैं । और यह चीज देखने योग्य हैं | यह मन्दिर ९४५ ई० के लगभगका बना हुआ है। इसके पास ही एक शान्तिनाथका मन्दिर है । दक्षिण समूहमें दो ही मन्दिर हैं -- एक दूल्हादेवका तथा दूसरा जतकारी का दूल्हादेवका मन्दिर – खजुराह के मन्दिरोंमें यह मन्दिर सबसे सुन्दर माना जाता है । इसे नीलकंठका मन्दिर भी कहते हैं । यह दूल्हादेवका मन्दिर क्यों कहलाया ? कहा जाता है कि एक बारात इसके समीपसे गुजर रही थी । अचानक ही दूल्हा पालकी परसे गिर पड़ा और मर गया । वह भूत हुआ और उसी समय से यह मन्दिर दूल्हादेवका मन्दिर कहा जाने लगा । जतकारो मन्दिर - र-- यह मन्दिर जतकारी ग्रामसे करीब तीन फलोंगकी दूरीपर दक्षिणकी ओर है। इसमें विष्णुकी एक विशाल मूर्ति जो नौ फोट ऊंची है, स्थापित है | इन मन्दिरों के अतिरिक्त और भी कई छोटे छोटे मन्दिर तथा अन्य इमारतोंके खंडहर पड़े हैं, जिनमें प्रत्येक के पीछे उस भव्य अतीत युगका महत्त्वपूर्ण इतिहास छिपा हुआ है 1 इन मन्दिरोंके शिल्प और स्थापत्य कला के अतिरिक्त मूर्तियों के विषय भी विशेष अध्ययन के योग्य है। यहां जीवनकी अनेक झांकियोंके साथ शृंगारको ही विशेष स्थान दिया गया है और शृंगार की मूर्तियां ही हमारी आंखको सबसे पहले आकृष्ट करती हैं। देवी देवताओं की सौम्य मूर्तियां तो इनके सामने दब ही जाती हैं। इनमें कोककी अनेक कलाओं का खुलकर प्रदर्शन किया गया है। श्लील और अश्लीलकी उस समय क्या परिभाषा रही होगी कुछ कहा नहीं जा सकता । कुछ मुखसे यह भी बात सुनने को मिलती हैं कि इस प्रकारकी नग्न और अश्लील मूर्तियों के स्थापनसे इमारतों पर बिजली नहीं गिरती 1 कुछ इसे वाम मार्गियों का खेल बताते हैं । जो हो, यह कारीगरी आज हमारे कौतूहल तथा अध्ययनकी चीज बनी हुई है । उस समय पुरुषके हृदय में स्त्रीका कैसा रूप समाया हुआ था, स्त्रीका समाजमें अपना क्या स्थान था, उनके नैतिक जीवनकी क्या परिभाषा थी, तथा उसके नारीत्वके मानरक्षाकी क्या प्रायोजना थी, ये सब बातें हमारे सामने प्रकट हो जाती हैं । खजुराहाकी स्त्रियां अपार सुंदरी, अचल यौवन शृंगार प्रिया तथा अनंगोपासिका है। वे न क्षीण काय हैं न स्थूल । उनकी शरीर रचना स्वस्थ और सुडौल है । उनके अंग प्रत्यंग एक विशेष सांचे में ढले हुए से प्रतीत होते हैं । वे एक निश्चित शास्त्र के अनुकूल बनाये गये हैं, प्रकृति जैसी अनियमितता उनमें नहीं । उनकी कुटियां धनुषाकार कानों तक खिंची हुई रेखाएं मात्र हैं । उनकी श्रांखों में यौवन अनंग और कटाक्ष हैं । वे रूपगर्विताके समान सदा अपने ही रूपको देखती और सम्हालनी हुई सी प्रतीत होती हैं। उनकी अन्तरतरंगे ५३३ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ शृंगार के द्वारा प्राप्त किसी नैसर्गिक अानन्दकी अोर उन्मुख हैं । उनकी मुद्राओं तथा भावभंगियोंमें कर्कषता, कठोरता तथा क्रोधको कहीं भी स्थान नहीं है । स्त्रियोचित कोमल लज्जा अवश्य उनके मुखों पर दिखती है । और यही खजुराहाके कारीगरके हृदयमें स्त्रीत्वका सम्मान है। उनकी नासिका, ठुड्डी तथा कपाल इत्यादि भी किसी विशेष अादर्शके अनुकूल बनाये गये हैं । उरोज शरीरमें इतने प्रमुख और उन्नत तथा गुरुतर हैं कि उनका भार सम्हालना भी स्त्रियोंको कठिन सा प्रतीत होता ज्ञात हो रहा है। इस भावके अभिव्यंजनमें कारीगरने जो कौशल दिखलाया है, वह देखते ही बनता है। उसके सौन्दर्यकी कल्पना प्राचीन होने पर भी श्राज अर्वाचीन सी ज्ञात होती है। ___खजुराहाकी रमणियोंका शृगार भी उनके सौन्दर्य के अनुरूप है, कल्पित नहीं । उसके कुछ परिवर्तित रूप आज भी बुन्देलखंडमें प्रचलित हैं, परन्तु उस समयकी सी शृंगारप्रियता स्त्री समाजमें अब देखनेको नहीं मिलती । उस समय एक एक अंगके अनेक अनेक अलंकार मूर्तियोंके अंगोंपर दिखलायी पड़ते हैं । वेणी बांधनेके ही कितने ढंग उस समय प्रचलित थे, देखने योग्य हैं । मालूम नहीं, आज वे ढंग क्यों लुप्त हो गये और स्त्रियां अपनी वेष भूषाकी श्रोरसे क्यों इतनी उदासीन हो गयौं ! वेणी बन्धनमें भी कितनी कला हो सकती है, यह खजुराहासे सीखना चाहिए । सिरके प्रत्येक अलंकारका तो अाज नाम भी ढुंढ निकालना कठिन है । तब भी झूला, शीशफूल, बीज, दावनी, इत्यादि जो आज भी बुंदेलखंडमें प्रचलित हैं, पहचाने जा सकते हैं । मस्तकपर बिंदी देनेकी सम्भवतः उस समय प्रथा ही नहीं थी। बिन्दीका चिह्न किसी भी मूर्ति पर अंकित नहीं मिलता। नाकका भी कोई भूषण दिखलाई नहीं पड़ता । कानोंमें प्रायः एक ही प्रकारका भूषण जिसे ढाल कहते हैं, मिलता है । गले में लल्लरी, मोतियोंकी माला, खंगोरिया. हार, हमेल, तथा और भी कुछ ऐसे गहने देखनेको मिलते हैं जिन्हें पहचान सकना कठिन है । बाजुओं में बजुल्ले, बटुवा, जोसन, टांडे तथा और भी कई गहने दीखपड़ते हैं। कलाइयोंमें वगमुहे, चूड़े कंकड़ तथा दूहरी ही प्रायः मिलती हैं। कटिमें सांकर पहननेकी कुछ विशेष प्रथा रहो है । इसका बनाव अाज कलके बनावसे कुछ विशेष अच्छा दिखायी पड़ता है। उसकी झालरें प्रायः घुटनों तक झूलती नजर आती हैं। __ पैरोंके प्रति खजुराहाका कारीगर कुछ उदासीन सा प्रतीत होता है । पैरोंमें केवल पैजेने या कड़े सा कोई गहना दिखायी देता है। खजुराहाकी स्त्रियोंमें वस्त्रोंका व्यवहार बहुत ही परिमित है। कटिके नीचे ही धोती पहननेकी प्रथा थी। सिर पर उसे नहीं अोदा जाता था। उत्तरीयका भी पता नहीं चलता। वक्ष पर कंचुकी अवश्य दृष्टिगोचर होती है । सीना खुला रखनेमें खजुराहाकी स्त्रियां लजाका अनुभव नहीं करती दीखतीं । सिरका ढांकना तो वे जानती ही नहीं थीं। रुप और शृंगारके साथ खजुराहाकी स्त्रियोंकी भावभंगी तथा अंगप्रत्यंगकी विचित्र मुद्राएं Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहाके खंडहर देखते ही बनती है । अंग प्रत्यंगमें कलाकारने कैसी कैसी कल्पना की है यह अध्ययनकी चीज है । स्त्रीके खड़े होनेमें, बैठनेमें चलने फिरनेमें, समीमें एक विशेष सौन्दर्य की योजना है । उसके प्रत्येक हावभावमें कोमलता, क्रिया विदग्धता और कटाक्ष वर्तमान् है । प्रत्येक हावभावमें उंगलियां और अांखें विशेष क्रियाशील हैं । प्रत्येक उङ्गलीका कुछ नियत काम सा प्रतीत होता है, जैसे चन्दन लगाने में पेंतीका ही प्रयोग किया जाता है। सोने अोर नितम्बमें खजुराहाका कलाकार सौन्दर्य का विशेष अनुभव करता है। प्रत्येक मुद्रामें सीने और नितम्बों की उसने प्रधानता दी है। नितम्ब भागको सामने लानेके लिए उसने शरीरको इतना मरोड़ दिया है कि कहीं कहीं पर वह प्रकृतिके भी विपरीत हो गया है। कटि इतनी कोमल और लचोली है कि वह यौवनके भारको सम्हाल ही नहीं सकती । ऐसा मालूम होता है कि खजुराहाका कलाकार भद्देपन या गंवारुपनको जानता ही नहीं था। पुरुषके लिए खजुराहाकी स्त्रियां उसकी विषय पिपासाको साधिका मात्र हैं। कलाकारने अपनी वासना मय भावनाओंको इतना खुलकर अभिव्यक्त किया है कि स्त्री की सहज लजाका भी उसे ध्यान नहीं रहा । उसने स्त्रीको पुरुषों से भी अधिक कामुक और विषयतृषित दर्शाया है। वही प्रेम और प्रसंगके व्यापारमें अग्रसर और पुरुषसे भी अधिक आनन्द लेती हुई प्रतीत होती हैं । आनन्दोद्रे कमें वह पुरुषमें समा जाना चाहती है। पुरुषकी मरजीपर वह इतनो झुक गयी है कि उसके अन्दर हड्डियों का भी अस्तित्व ज्ञात नहीं होता । वह अपनी प्रत्येक अवस्थामें पुरुषको रिझानेका षड्यन्त्र सा ही करती नजर आती है । कहीं वह वेणी सम्हाल रही है, कहीं अांख में अंजन दे रही है, कहीं अंगड़ाई ले रही है, कहीं आभूषणों को पहन रही है, कहीं पैरसे कांटा निकाल रही है । वह अपने अन्तःपुरमें है और यौवनकी उत्ताल तरंगोंसे खुलकर खेल रही है, पर उसकी सब तैयारी नेपथ्यमें सजते हुए पात्रके समान किसी विशेष अभिनयके लिए ही है । हाँ, उसकी प्रत्येक मुद्रामें अनन्त यौवन, विषय पिपासा और स्वास्थ्य की छाप है । ___ खजुराहा का पुरुष लम्पट और व्यभिचारी नहीं। वह प्रेम और स्त्रीप्रसंग को एक पवित्र यज्ञ सा समझता हुआ प्रतीत होता है । उसके पीछे भी एक धार्मिक भावना अन्तर्निहित सी ज्ञात होती है । उसका हृदय शुद्ध है तथा लक्ष्य भी । वह विषय का रोगी नहीं । यद्यपि खुजराहा के पत्थर पत्थर में काम की दशा का अविर्भाव होता है तो भी उस वायुमंडल में आधुनिक अस्वस्थता, ह्रास और पतन के चिन्ह नहीं । उस युग के पुरुषों में यज्ञ की भावना थी और यही उनके प्रत्येक कार्य के पीछे शक्ति थी। उनमें आत्मबल तथा चरित्रबल या । आजकल हमारे हृदयों में कुरुचि समा गयी है और हम वस्तु का ठीक ठीक मूल्यांकन नहीं कर पाते । यही रोग हमें जीवन का सदुपयोग नहीं करने देता। शृगार-मूर्तियों के अतिरिक्त पूजा, शिकार, मल्लयुद्ध, हाथियोंके युद्ध, फौजकी यात्रा, इत्यादि अनेक Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकार की जीवन की घटनाओं को व्यक्त करनेवाली मूर्तियां भी खुजराहा में दृष्टिगोचर होती हैं। इससे ज्ञात होता है कि खजुराहाके कलाकारका उद्देश जीवन के सभी अंगोंपर प्रकाश डालने का था। उसोकी दृष्टि जीवन की सम्पूर्णता की अोर थी । एक जगह तो पत्थर ढोते हुए मजदूरों तक का चित्रांकन किया गया है । इस प्रकार खजुराहा के मन्दिर अपने समय की एक इनसाइकिलोपीडिया के स्वरूप हैं । शिल्पकारों ने जो कौशल दिखलाया है उसका अनुकरण आज असम्भव सा प्रतीत होता है । पत्थर की तो उन्होंने मोम ही बना डाला था। उसे अपने मनोनुकूल ऐसा ढाला है जैसा की हम धातुओं को नहीं ढाल सकते । न जाने उनके पास कौन से अौजार थे और कौन सी लगन । एक साथ जब हजारों शिल्पकार छेनी और टाकियोंसे पत्थर पर काम करते होंगे तब कैसे संगीत का प्रादुर्भाव होता होगा, हम कल्पना नहीं कर सकते । अाज खजुराहा खडहर के रुप में पड़ा हुआ है तब भी वहां के भूखंडमें उसी युग की मधुर स्मृति लिये शीतल वायु चलती है । उन खंडहरों में घूमने में, मन्दिरों के झरोखों में बैठकर उस युग की कल्पना करने में, ऐसा आनन्द आता है जैसे हम उसी युगमें पहुंच गये हों । वर्तमान् जीवन की सुध बुध ही सी भूल जाती है । वास्तव में खजुराहा देखने योग्य है । खजुराहा जाने के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन हरपालपुर तथा महोबा हैं। इन दोनों से छतरपुर से होते हुए ठीक खजुराहा तक मोटर लारियां जाती हैं । ५३६ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुंदेलखंड में नौ वर्ष श्री शोभाचन्द्र जोशी सन् ११३८ के अक्टूबर महीने में मैं टीकमगढ़ आया था । बे दिन बेकारी के थे। पूरे पांच वर्ष संयुक्त प्रान्त की धूल फांकने पर भी मुझे नौकरी नहीं मिली। न जाने कितनी निराशा, अपमान, लांछना और फाकेकशी का मुझे शिकार बनना पड़ा। जीवन एक दुःसह भार बन गया था । अलिफलैला के अस्तिशेष बुड्ढे की भांति उसे कंधों से उतार कर फेंक देने की शक्ति भी मुझमें नही थी और उसे लिये-लिये घसीटने की भी अब अधिक आकांक्षा नहीं रह गयी थी, विस्तृति की नकाब पहने हुए बेकारी के वे पांच वर्ष, प्रेतच्छायाओं की भांति, मेरी नींद में मुझे आज भी चौंका देते हैं । कभी कभी लगता है कि सुख और सन्तोष को जिस इमारत को मैं अपने चारों ओर खड़ा करना चाहता हूं, वह अर्ध. निर्मित हो मुझे लेकर भूमिसात् न हो जाय । टीकमगढ़में मुझे नौकरी मिल गयी । कुछ दिनोंके लिए रहने को राज्यका अतिथिगृह मिला । अच्छा अन्न, अच्छे वस्त्र, अच्छ। घर, -विजली, मोटरें, संगीत, नृत्य । उन दिनों दुर्गापूजाका उत्सव चल रहा था। अतिथिगृहमें राज कवियों और कोकिलकंठी वारागंनाओंका जमघट लगा हुआ था। कविता और सुर, रस और धनि, वाणो अर सौन्दर्य का मनोहर सम्मेलन था। मुझे लगा कि मेरे पापोंकी अवधि बीत गयी। पुण्यों का भोग प्रारम्भ हो गया। यह स्वर्ग था। वह नरक था, जिसे मैं पीछे छोड़ आया। कई मित्र भी बन गये थे। आज जो लोग मेरे मित्र है, वे नहीं। वे तो स्वप्नोंके साथी थे। जब तक स्वप्न चले, वे भी रहे । स्वप्न टूटे तो उनकी मैत्री भी टूट गयी। सांयकाल को अतिथि निवासमें चले आया करते थे। रसज्ञ जन थे। कविता और सौन्दर्य परखना जानते थे । 'व्हाइट हार्स व्हिस्की', और देशी हरे के गुण दोषों का विवेचन कर सकते थे 'क्रेवन ए' सिगरेट पीनेसे किस प्रकार मनुष्य दीर्घायु हो जाता है अोर तेंडूके पत्तोंकी बनी बीड़ी पीकर क्यों अकाल मृत्यु प्राप्त होती है-इस तथ्यका उन्हें आश्चर्यजनक ज्ञान था। उन दिनों टीकमगढ़में पानी मंहगा था। शराब और पेट्रोल सस्ते थे। मोटरें बैलगाड़ियों से ६८ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ भी अधिक अनायास प्राप्य थीं। मैं मित्रोंके साथ दूर दूर घूमने चला जाया करता । सरकारी मोटर पर सैर करनेके लिए शॉफरको दो चार 'क्रेवन ए' पिला देना पर्याप्त होता । नगरके बाहर दूर जंगलों में हम लोग घमा करते । यहांकी धरतीपर प्रकृति माताकी ऐसी ममता देखकर इस जनपदको स्वर्ग समझ लेनेकी मेरी धारणा और भी दृढ़ हो गयी। मैं जिस प्रदेशका निवासी हूं, उसे कालिदासने देवभूमि कहा है। हिन्दुस्तान के जिन मनुष्यों के पुण्यभोग अभी तक अखंड है, वे प्रति वर्ष ग्रीष्म में मेरे उस देशका उपभोग करने चले जाया करते हैं। हिमालय की मुक्त वायु, चीड़के वृक्षोंसे ढकी उपत्यकाएं, पिण्डारी ग्लेशियरकी शीतल छाया-देवताओंकी उस धरती पर आज-कल सभी कुछ पैसे से खरीदा जा सकता है। किन्तु मुझ जैसे पृथ्वी-पुत्रोंको, जिन्हें भैरव देवताकी लात लगी हैं, ये सारी वस्तुएं स्वत्व होने पर भी दुष्प्राप्य हैं । सो-,बुन्देलखंडकी भूमिमें लगा कि हिमाचल तो गया, किन्तु मैं घाटे में नहीं रहा। कालिदासका यक्ष निर्वासित होने पर स्विट्जरलैंड नहीं गया था। इसी जनक-तनया-स्नान-पुण्योदक भूमिने उसे भी कहीं शरण दी थी। यहाँके हरे-भरे आम और जामुन के जंगल, प्रसन्न-जला नदियां, वेतवा, धसान, केन, जामनेर-सैकड़ों तालाब, तालाबोंके बांध पर बने पुराने राजाओंके प्रासाद, किले, स्मृति-स्तूप । चप्पे चप्पे पर इतिहास और प्रकृति को गाढ़ालिंगन किये देखा । पुराणोंमें हिमालय और विन्ध्याचलकी प्रतिस्पर्धा वाली कहानी पढ़ी-सुनी थी। विन्ध्याचल का उद्दण्ड प्रताप और विनम्र भाव, मुझे दोनों मानो इस जनपदके स्वभावमें भीगे हुए लगे। यहां की मीठी बोली, लोगोंका बिनीत स्वाभिमानी श्राचरण। पांच बर्षकी धूलभरी खानाबदोश कहानीका यह नया अध्याय था। सोचता था, अब सुखसे जी सकंगा। दो महिनेके बाद समयने करवट बदली तो स्वप्नोंकी यह अजीमुश्शान इमारत 'धड़ाम-धम' गिर पड़ी। ईटें, पत्थर, चूना-सब कुछ खाकमें मिल गये। अतिथिनिवास का चपरासी आया, बोला-'हुजूर, साहब की मर्जी हुई है कि आप कोई मकान ढूढ लो। गेस्टहाउसमें ज्यादा दिन रहना कायदेके खिलाफ है। अब आप मेहमान तो रहे नहीं ; रियासतके नौकर हैं।" उस दिन पहिले पहल लगा कि मैं नौकर हूं. शाहजादा नहीं। नौकरोंके लिए स्वर्गका निर्माण नहीं हुआ है। शाहजादोंके जिस स्वर्गको देख देख कर मैं स्वप्नोंका निर्माण किया करता था, वह सत्य नहीं था। बुन्देलखंडके जिस रूप पर मैं रीझ गया था, वह शाश्वत नहीं था । वह छल था-प्रवंचना थी। वह आवरण था, कि जिसे भेदकर श्रात्माका दर्शन होना मुझे बाकी था । जो सत्य है, चिरन्तन है, सुन्दर है-किन्तु जो कुरूप है, भयावह है, बुन्देलखंडकी उस मानवताका भी अब दर्शन मैंने किया। यहांके वन, यहांकी नदियां, तालाब, गगनस्पर्शी राज प्रासाद, मोटरे, शराबकी बोतलें, वारांगनाएँ, मृत-संस्कृतिके गायक राजकवि-ये ५३८ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुदेलखंड में नौ वर्ष सबके सब मिथ्या थे। सत्य है वह लोक, जिसके बीच, उस दिनसे आज तक, पूरे नौ वर्ष और कुछ महीने में रहता आया हूं। जिनके शरीरमें मेरा शरीर जिसको आत्मामें मेरी आत्मा, सांसमें सांस, घुल मिल गयी है । जिसकी कुरूपतामें मेरे जीवनका चिद्रूप समा गया है । एक रंग, एक रस हो गया है । मैं उसी बुन्देलखंडका स्वरुप खीचूंगा। भौगोलिक मानचित्र पर छपे हुए एक भूमिखण्ड और स्वप्न निर्माताओं के भावी बुन्देलखंडका नहीं। 'जीवनकी छोटी सी लौ' ____ अभी, जब कि मैं यह लिख रहा हूं, दिनके दो बजे हैं । कोई बीस फीट लंबा दस फीट चौड़ा कमरा है। आठ फीट ऊंची दीवारों पर पांच फीट तक सील चढ़ी हुई है। भिन्न-भिन्न प्रकारकी दुर्गन्धसे कमरा महक रहा है । ऊपर छत पर असंख्य मकड़ियोंके जाले लगे हुए हैं । हर तीसरे दिन मैं उन्हें मिटाकर साफ करता हूं। किन्तु रातभर में वे ज्योंके त्यों तन जाते हैं। फर्शकी एक अोर दरी बिछा कर मैं यह लिख रहा हूं। दूसरे कोनेमें मेरे दो बच्चे और उनकी जननी एक दरी पर सोये हुए हैं । कमरा प्रातःकाल बुहारा गया था। किन्तु अभी तक उसमें कूड़ेका ढेर बिखर गया है। बच्चोंके मुह पर मक्खियां मंडरा रही हैं । पत्नीके शरीर पर जो धोती है वह मैली हो गयी हैधोबियोंने दो-याना कपड़ा धुलाई करदी है, और सनलाइट साबुन साढ़े सात आनेमें आने लगा है। मुझे पचास रुपये तनखा मिलती है । मैं एक भारतीय विश्वविद्यालयका स्नातक हूं; अध्यापक हूं। बुन्देलखंडके सैकड़ों-हजारों बालकों को नागरिक बनानेका ठेकेदार हूं। मुझे लोग राष्ट्र निर्माता (नेशनबिल्डर) कहा करते हैं। मैं यह इस लिए लिख रहा हूं कि मैं अपने आप को बुन्देलखण्डी समझने लगा हूं। यहां का जल, यहां की वायु, मेरी रग रगमें समा चुकी है। मेरे दोनों बच्चे यहां की धूलमें लिपट-लिपट कर पनप रहे हैं । मैं अपने आप को एक इकाई मानता हूं इस जनपद की । मेरा जीवन यहां के जीवन का प्रतीक है। मेरा घर वहां के घरों की भांति, और मेरा परिवार वहां के समाज का प्रतिबिम्ब है । इसीलिए मैंने उसका वर्णन किया है। मेरे मकान के बाहर जो गली है, उसमें दानों और गन्दे पानीके लिए नालियां नहीं हैं, लोगों के शरीरों की नहावन, गन्दे कपड़ों की धोवन, पेशाब और पाखाना इस गली की जमीनमें पिछली डेढ़ शताब्दी से रसता चला जा रहा है। सोल के रूपमें वही मकानों की निचली मञ्जिलों पर चढ़ आया है। पिछले नौ वर्षों में मैंने इसी एक छोटेसे मुहल्लेमें चौदह बच्चों को टाइफाइड और चेचकसे मरते देखा है। मलेरियासे लोग मरते कम हैं। नहीं तो इस मुहल्ले में अंगुलियों पर गिनाने को बच्चे नहीं मिलते । इन. चौदह अकाल मृत्यु प्राप्त मानव-शिशुओंमें मेरी एक बहिन और भाई भी शामिल हैं। बहिन पांच वर्ष की Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ थी और भाई ढाई वर्ष का । दोनों भले चंगे थे। टाइफाईड हुआ और मर गये । इसलिए तो मैं कहता हूं कि मैं बुन्देलखण्डी हूं । गुलाब के फूलों की भांति खिले हुए अपने दो निरपराध भाई-बहिनों का मैंने बुन्देलखण्ड की सन्तप्त आत्मा को बलि चढ़ा दिया । मेरे आंसू बाकी बारह बच्चों के माता-पिता के आंसूत्रों के साथ मिलकर बहे थे । फिर कौन कह सकता है कि मैं बुन्देलखण्डी नहीं हूं ? एक मेरे मुहल्ले में पिछले नौ वर्षों में चौदह बच्चे मरे । मेरी गली बहुत छोटी हैं ! टीकमगढ़ में ऐसी कमसे कम दो सौ गलियां होंगी । चौदह को दो सौ से गुणा करने पर दो हजार आठ सौ होते हैं । नौ वर्ष में अठ्ठाईस सौ बच्चे । एक वर्ष में करीब तीन सौ ? मा नः स्तोके तनये, मान आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः, मा नो वीरान् रुद्रभामिनी वधीः हविष्मन्तः सदमित्वा हवामहे । आदिम पुरुषने भगवान् रुद्रसे यह प्रार्थना की थी— 'हे रुद्र ! मेरे नन्हे नन्हे बच्चों पर रोष न करें । मेरे गाय, बैल, मेरे घोड़ा पर क्रुद्ध न हों । मेरे भाई बहिनों पर कृपा दृष्टि रखें । वास्तविक मनुष्य की इससे अधिक अभिलाषा नहीं होती । उसके बाल बच्चे सुखी रहें, स्वस्थ फूलोंसे खिले रहें । बस, इससे अधिक जो चाहता है, वह चोर है । वह दूसरे की अभिलाषित आवश्यकताओं की चोरी करता है । वह दूसरेके बच्चों को भूखों मारता है । वह हजारों लाखों माताओं की गोद समय में ही रिक्त कर देता है । वह प्रकृति की इस सुन्दर सृष्टी पर टाइफाइड, चेचक, प्लेग, हैजेके कीटाणुओं को बरसाता है । टीकमगढ़ के बच्चों पर रुद्रके इस कोप को किसने बुलाया ? किसने उनके जीवित रहने के एक मात्र अधिकार को भी छीन लिया ? बच्चे समाज का सौन्दर्य हैं, उसकी कोमलता हैं। जिस समाज में बच्चे मरते हैं, वह ठूंठ है, जो स्वयं जलता है और दूसरों को जलाता है । उसे उखाड़ फेंकना चाहिए, नष्टकर देना चाहिए । जीवन लौ की दूसरी भभक मेरे पड़ोस में एक परिवार रहता है । उसे परिवार कैसे कहूं । स्त्री पुरुष का एक जोड़ा । पुरुष सुनारी करता है या बढ़ईगिरी, मैंने यह जानने का प्रयत्न कभी नहीं किया। पिछले नौ बरसों से मैं उन्हें देखता आ रहा हूं। पुरुष डेढ पसलो का है, और स्त्री वायुसे फूलकर रक्तहीन मांसकी एक गुब्वारानुमा पुतला बन गयी है। दोनों सदा अस्वस्थ रहा करते हैं। बरसों से ज्वार खाते आ रहे हैं। तीजत्योहार के दिन मीठे तेल में उनके घर गेहूं की पूड़ियां अवश्य बन जाती है । स्त्रीकी कोई सन्तान नहीं है । किन्तु वह बांझ भी नहीं है । सालमें कम से कम एक बार उसे स्राव हो जाता है। तीन-तीन चार चार महिने तक पेट में परिवर्धित कर अन्तमें आकृतिहीन एक मांसपिंड को वह नारी जन्म देती है। और वर्षके ५४० Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुंदेलखंड में नौ वर्ष बाकी दिन प्राणहीन सी चारपायी पर पड़ी रहती है, मैं पिछले नौ वर्षों से यही क्रम देखता आ रहा हूं, दुनिया समूची मैंने नहीं देखी, किन्तु एक मात्र इसी स्त्री में मैंने तड़पते हुए नारीत्व को बार-बार मरते जीते, फूलते मुरझाते देखा है, मेरे सामने बारम्बार एक विराट आश्चर्य मूर्तिमान बन कर खड़ा हो जाता है कि दुनियां वालों की अांखें क्यों अब तक अपने इस वीभत्स रुप को नहीं देख सकीं। इन चित्रोंके द्वारा मैं यह चाहता हूं कि मेरे हृदय पटल पर अंकित बुन्देलखण्ड की रुपरेखाएं उभर उठे, मैं अपने मुहल्ले को टीकमगढ़ का, टीकमगढ़ को बुन्देलखंडका, और बुन्देलखंड को भारतके इस महादेश का सूक्ष्मचित्र मानता हूं। मैं व्यक्ति को समूची मनुष्यता और पेड़ की छोटी सी टहनी को संसार भरके वृक्षों का चित्र मानता हूं। यह केवल मेरे ही मानने की बात है। दूसरेसे मनवाने की महत्त्वाकांक्षा मुझ में नहीं । बुन्देल जनकी तीसरी झांकी-- अपनी तीसरी अनुभूतिके चित्रसे मैं समझता हूं कि अब तक जो रेखाएं मैंने खींची है, उनमें छाया और प्रकाश का समावेश हो जायगा, इसे लिखने के तीन चार महिने पहिले की बात है, बुन्देलखंड की जनता का एक नेता मार डाला गया, नेताओं पर अपनी श्रद्धा या प्रेमके वशीभूत होकर यह लिख रहा होऊं सो बात नहीं है , नारायणदास खरे मेरा मित्र भी था; इसी नाते कई बार मैं उसके इतने निकट भी पहुंच सका था कि उसके हृदय की पहिचान कर सकू। पिछले नौ वर्षों में एक मात्र यही एक व्यक्ति मुझे मिला, जो जान गया था कि उसके जनपद की पीड़ा कहां पर है, संसारके दूसरे देशों की भांति नेता कहानेवाले व्यक्तियों की कमी यहाँ भी नहीं है। बरसाती शिलीन्ध्री की भांति ये लोग अनायास उत्पन्न हो जाते हैं और अपने चारों ओर की पृथ्वी को एक कुरुप दर्शन प्रदान करते हैं । नारायणदास जीता रहता और अपने जनपद की पीड़ा का इलाज कर सकता या नहीं, यह दूसरी बात है, मैं तो प्रकृत नेता को कुशल वैद्य मानता हूं। यदि डाक्टर जानते कि रोगी का निदान क्या है, तो चिकित्सामें कठिनता नहीं होती। अब अभागे प्रयत्न कर रहे हैं कि उसके बलिदानके महत्त्व की उपेक्षा की जाय, जो उनका मसीहा बन कर आया था, सम्भव है कि समय का सर्वग्रासी चक्र उनके प्रयत्न को सार्थक कर दे. आकाशके एक कोने में भभक कर टूट जाने वाला नक्षत्र था नारायणदास । अनन्त नीलिमामें वह डूब गया है। मैं व्यक्तिवादी हूं इसलिए, मैंने अपने बुन्देलखंडके नववर्षीय जीवनमें जो कुछ निधियां प्राप्त की हैं. उनमें एक नारायणदास का मृत्यु सन्देश है । वह वस्तु मेरी है क्योंकि जैसा मैंने चाहा उसे समझा, उससे मैंने सीखा कि संसारमें दुःख है किन्तु सर्वशक्तिमान भी है, दुःख ही मरमात्मा की अनुभूति है; सुख त्याज्य है किन्तु ग्राह्य नहीं । दुःख हमारा है और सुख पराया। यहांपर उसके संस्मरणके द्वारा मैं अपने इस विश्वासको और भी दृढ़ कर देना चाहता हूं कि मनुष्य का समाज आज भले ही, रुग्ण हो, भले ही उसका अंगप्रत्यंग विषमताके कोढ़से गल-गल कर कट रहा हो; किन्तु मनुष्यता अविनाशी है, सत्य है, सुन्दर है। प्रकृति कुरूपता को ५४१ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दन ग्रन्थ सहन नहीं कर सकती। पतझड़ का मौसम केवल दो महिने रहता है, बाकी दस महिने संसार में दरियाली छायी रहती है, फूल खिलते रहते हैं, फल लगते रहते हैं । टीकमगढ़ से लगा हुआ एक वन है, उसे खैरई कहते हैं । श्राजसे पांच साल पहिले उसमें आग लग गयी थी, सारा जंगल जले अधजले ठूंठोंसे भर गया था। आज कोई व्यक्ति उस वन को देखे तो मेरी बात पर विश्वास नहीं करेगा। श्राज वहां असंख्य नये-नये तरुण वृक्ष उठ आये हैं खूब पने पने सुन्दर | अग्नि उस महाविनाशके चिन्ह तक नहीं रह गये, घाव ऐसा भर गया है कि खरोंच तक नहीं बची। अत्यन्त विकृत रूपमें है, सड़ रहा है, गल रहा है; किन्तु प्रकृति का नहीं है, निर्माण शाश्वत है; मृत्यु जीवन पर विजय नहीं पा सकती, बुन्देलखंड का घाव या नियम अटल है । विनाश शाश्वत जीवन मृत्यु पर विजयी होता है। युन्देलखंड सनातन जीवन का एक स्पन्दन नारायणदास था जब तक उस जैसे व्यक्ति यहां आते रहेंगे तब तक बुन्देलखंड का श्रात्मा नष्ट न होगा, वह एक चिन्ह था कि मानवता अपने दर्द को दूर करना चाहती है, खैरईके जंगल में जिन्होंने आग लगायी थी, उन्हें राज्यसे क्या दण्ड मिला, यह मैं नहीं जानता पर शाप के भागी अवश्य हुए। मनुष्यता अपने सुखचैन में आग लगाने वालों को पहिचान गयी है। मेरे एक छोटेसे मुहल्ले में चीदह बच्चा की मृत्यु और उपयुक्त तथा पौष्टिक भोजन के अभाव में मां न बन सकने वालो नारी का शाप व्यर्थ नहीं जायगा । स्वर्ग की सीमाएं मनुष्य को दृष्टिगोचर होने लगी हैं. वे स्वयं बढ़ी श्रा रही हैं इस ओर जिस दिन बुन्देलखंड स्वर्ग बन जायगा, जब यहां उत्पन्न होने वाला प्रत्येक बालक बूढ़ा होकर ही अपनी जीवन यात्रा समाप्त करेगा, जिस दिन प्रत्येक नारी का गोद भरी पूरी रहेगी, उस दिन मनुष्य देवता बन जायगा, और तब तक यदि मैं जीता रहा तो सबसे पहिले मेरी कलम बुन्देलखंडके विजयगीत बोल उठेगी, किन्तु मैंन रहा तो मेरा वर्ग रहेगा, कलमवालों की परम्परा सदासे अटूट चली आ रही है, बुन्देलखंड के कीर्तिगान के लिए चारणों की कमी नहीं होगी । ५४२ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डका स्त्री- समाज श्री राधाचरण गोस्वामी एम. ए., एल एल. बी. पुरातन सभ्यता की प्रतीक धर्म और आचार की मंजुल मूर्ति, सरलता और सहनशीलता की साकार प्रतिमा, उत्सवरता, प्रकृति- प्रिया, विनोदनी, रूढ़िवादिनी, विश्वासिनी, कर्मरता- - यह है खण्ड की नारी । वेशभूषा - दतिया, झांसी और समथर व आस-पास की स्त्रियां लंहगा पहनती हैं और ओढ़नी श्रोती हैं, उच्च वर्णों में इसपर भी चद्दर लपेटती हैं। उसका एक छोर चलने में पंखा सा कलात्मक रूप से हिलता है और अवगुंठन के सम्हालने में संलग्न उंगलियां पद-क्रमण और शरीर-रेखा ( contours ) ही वर्ण और वयस का परिचय देती हैं । विजावर, पन्ना, चरखारी, छतरपुर और इसके आसपास केवल धोती पहनने की प्रथा है । इसमें दोनों लांघ बांधी जाती हैं। उत्सव में जब बुन्देलखंड की वधू सुसज्जित होती है तो उसकी वस्त्राभूषण - कला निखर जाती है । पैरों में महावर लगा, पैरों की उगलियों में चुटकी और अगुष्ठ में छल्ला पहने, लहरों वाले घांघरा पर बुंदकियों वाली चुनरी ओढ़े, कंचुकी से वक्ष कसे, उसपर लहराती हुई सतलरी लल्लरी गोरे गले में काले पोत की छटा को बढ़ाता है। सरपर सीसफूल, वंदिनी पहने वह आज भी जायसी की " पद्मिनी " की होड़ करती है । आखों में यहां की बाला इतना बारीक काजल लगाती हैं कि वह कजरारी आखें कुछ काल में चुन सा लेती हैं । उच्चवर्ण के कुलों में कहीं कहीं अनुपम सौन्दर्य देखने को मिलता है । यहां के एक प्रसिद्ध राजघराने की राजकुमारी ने जो आसाम में व्याही गयी थी कुछ साल हुए विश्वरूप प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार पाया था । धर्म और उत्सव - बुन्देलखंड की नारी पर आर्य और अनार्य धर्म, प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय सभ्यता की अमिट छाप है । उसके उदार वक्षस्थल में वैष्णव, शैव, शाक्त और जैन मत मतान्तरों का द्रोह नहीं और न है मन्दिर दरगाह का भेद । श्रादिम जाति के पूज्य चबूतरे और पाषाणखण्ड भी उसके कोमल हृदयको उसी तरह द्रवित करते हैं जैसे आर्यों के देवता और पीर का मकबरा । प्राचीन अर्वाचीन दर्शन शास्त्रों की वह पंडित नहीं, पर उसके हृदय में है वह अगाध विश्वास जो सभी धर्मों ५४३ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ की भित्ति है, उसी पर वह अपनी जीवन की इच्छात्रों की प्रतिमा बनाकर अर्पित करती । और सफलता पर इष्ट की पूजा करती है और असफलता पर भी अपने देवताको गाली नहीं देती; न विश्वासमें कमी करती है | यह है बुन्देलखंडकी नारीकी धर्म जिज्ञासा | बुन्देलखंड वैष्णव, शाक्त शिव और जैन मन्दिरों का केन्द्र है । ओरछा के नृपति मधुकरशाहकी पत्नी पुष्य नक्षत्र में चलकर अपने रामको अयोध्या से लायी थी और महारानीके वृद्ध हो जानेसे भगवान् कृपा कर बैठ गये थे जिससे उन्हें सेवामें कष्ट न हो । उनकी गाथा प्रसिद्ध नाभाजी कृत भक्त मालमें है । दतिया में गोविन्दजी और विहारीजी, पन्ना में जुगल किशोरजी. मैहर में शारदा देवी, उन्नाव में बालाजी, छतरपुर में जटा शंकर, प्राचीन मंदिर है । हर राज्य में, हर गांव में मंदिर हैं जहाँ पर नारियां प्रतिदिन विशेष कर उत्सवों पर दर्शनार्थ जाती हैं । कार्तिक मास में बुन्देलखंड की नारी वृजके कृष्ण कन्हैयाकी गोपिका बनकर उसकी पूजा करती हैं फिर महारासमें वह खो जाते हैं तो वह ढूंढ़ती हैं और पुनर्मिलन पर आनन्द मनाती हैं । उन दिनों उषा कालसे स्त्रियोंका समूह मधुर गीतोंके रवसे गली गलीको मुखरित कर देता है । होली व्रजके बाद बुन्देलखंड में विशेष उत्सव है । इन दिनों जो गीत गाये जाते हैं उन्हें फा कहते हैं । छतरपुर राज्यके अमर कलाकार "ईसुरी" ने फागें बनाने में कमाल किया है और दतिया में फागों के साथ 'भेद' गायी जाती है यह मिश्रित रागिणी दतियाकी भारतीय संगीतको देन है । उस समय राजाके महल से लेकर गरीबकी कुटिया तक मार्ग में, खेतपर, चौपाल में, हाटमें, नदी-नाले के तीरों पर, सभी जगह वही प्रकृति-प्रिया उत्सवरता बुन्देलखण्डकी नारीकी मधुर ध्वनि सुनायी देती है । कहीं पर नरनारी साथ साथ गाते बजाते हैं पर बुन्देलखण्ड में पर्दा प्रथा अधिक होनेसे यह दलित जातियों तक ही सीमित है। घरों में देवर भाभी से फाग खेलते हैं और बहनोई सालियोंसे । पतिपत्नी मिलकर मधुर प्रेम रागका आस्वादन करते हैं। कुमारिकाएं नवरात्रिमें नौरताका खेल खेलती हैं--उस समय प्रभात में किशोरियोंके “हिमांचल की कुअर लड़ायती नारे सुटा' से प्रांगण गूंज उठते हैं और वह शिवको प्राप्त करनेकी गौरीके तपका अनुसरण करती है । अन्तिम दिन गौरीकी मृत्तिका मूर्तिका शृंगार युक्त पूजन कर उसे चबैना खिलाती हैं । शरद काल में ही वेरी की कांटोंदार डाली में हर कांटे पर फूल लगाकर जब कुमारिकाएं 'मामुलियईके आगये लिवा कुमक चली मामुलिया' गाती हुई कन्धोंसे कन्धा मिलाये भूमती गाती हुई जाकर सरोवरोंमें उसे सिरानें ( अर्पित करने ) जाती हैं तो मालूम होता है इन्होंने अपने जीवन की साधही कंटकों को पुति बनना निश्चित किया है । अक्षय तृतीयाको एक दूसरेसे स्त्रियां उनके पतियोंका नाम पूछती हैं । और बतलाने में झिझक करने पर चमेलीके वोदर ( टहनी) से प्रतारण करती हैं। श्रावण मासमें हर वधू अपने भाई के बुलाने को आनेकी प्रतीक्षा करती हैं । और मायके ( पीहर ) जाकर झूले झूलती हैं और गीत गाती हैं । ५४४ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डका स्त्री-समाज इस प्रकार हर मासमें हर सप्ताहमें कभी न कभी वह अपनी यातनाओंको एक ओर रखकर अपनी सखी-सहेलियोंके साथ मिलकर उत्सवके आनन्द मनाती हैं। कभी तुलसीका पूजन तो कभी वटका, कभी रात भर जागरण तो कभी दिन भर उपवास, कभी देवीपूजन तो कभी विष्णुपूजन, वस यों ही उसकी जीवनकी घड़ियों में मुस्कराहट विखरती रहती हैं। आचार व्यवहार धर्मके स्थानपर अन्धविश्वास, रूढ़िवाद, बाह्य आचार और व्यवहारने बुन्देलखंड की नारीसमाज के हृदयमें आसन जमा लिया है । शिक्षाका अभाव, अज्ञान और अपर्यटनने नारीके मस्तिष्कको संकुचित कर दिया है। यहां वहां पर सुन्दर संस्कृतिकी झलक उसके प्राचार व्यवहारमें दृष्टिगोचर होती है, पर गतिहीनता उसका सबसे बड़ा दोष है । राजपरिवारोंकी देखा देखी पर्दाने उच्च वर्गों में, घर बना लिया है जिन्होंने स्वयं मुगल बादशाह, नवाबोंकी नकल कर मध्ययुगमें इसे अपनाया था। इसका प्रभाव नारिॉके स्वास्थ्य पर बुरा अवश्य पड़ रहा है पर अधिकतर श्रमशील होनेके कारण उसका अधिक प्रभाव नहीं हो पाता। पर्दा वैसे भी उतना कठिन नहीं—जैसा संयुक्तप्रान्तके कतिपय हिस्सोंमें है। श्वसुर, जेठसे विशेष पर्दा होती है और उनसे भी; जो श्वसुर या जेठके बराबर वाले हों । हाट बाजार में स्त्रियां आनन्दसे जाती हैं और वस्तु क्रय करती हैं । कम उम्रकी स्त्रियां नाम मात्रकी पर्दा करती हैं। उनका घूघट तो बड़ा होता है पर वह आने जाने, काम करने में और बोलने चालनेमें बाधक नहीं होता। मालिने हाट-बाटमें गजरा बेचती हैं। काछिनें साग भाजीकी गली गली आवाज लगाती हैं। चमारोंकी स्त्रियां अपने परिवारके जनों के साथ मजदूरी करती हैं। बुन्देलखंडकी नारीकी दिनचर्या बुन्देलखंडकी प्रायः सभी स्त्रियां सूर्योदयके पूर्व ही उठकर चक्की पर आटा पीसती हैं । उस समयके गीत बड़े मनोहर होते हैं और उनके श्रमको कम करते हैं । प्रभात की सुन्दर, सुखद समीरके साथ सन-सनकर वह आल्हादमय हो जाते हैं। प्रभात होते होते मक्खियोंके जागनेके पूर्व गायों का दूध दोहन करती हैं । गौशाला को परिमार्जित कर गायों को द्वारके बाहर करती हैं जहांसे घर का बालक उन्हें राउन ( गायोंके एकत्र होनेके स्थान ) तक ले जाता है । और फिर वरेदी ले जाता है गोचारन को । इसके उपरांत घरमें वारा (बुहारू) देकर चौका बर्तन करके वह स्नान करती हैं, कूपसे जल लाती हैं और भोजन बनाती हैं । दफ्तरको, स्कूलको या दूकानको जाने वाले परिवारके लोग दश बजे से बारह बजे तक भोजन करके निवृत्त हो जाते हैं । इसके उपरांत वह नारी स्वयं बची हुई भाजी या मट्ठा, दाल और रोटी का भोजन करती है। परिश्रम उसे इन्ही सीधी सादी वस्तुओंमें सारे विटामिन (पोषक तत्त्व ) दे देता है। दोपहर को वह कुछ अनाज को बीनबान कर साफ करती है, फटकती है या फिर सीकोंके ५४५ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ पंखे या बर्तन बनाती हैं। फटे टूटे कपड़े या कागज की लुगदीके ( Pulp ) के बड़े छोटे बर्तन बनाती है जिन्हें सिकौली कहते हैं । तब वे कुछ विश्राम करती । प्रायः संध्या को बुन्देलखंड में रोटी नहीं बनती। यह बड़ा बुरा रिवाज है । इसका कारण यह हो सकता है कि पुनः रोटी बनाने में दुबारा मसाला लकड़ी व्यय हो, पर जो भी हो, सबेरेको ही रक्खी रोटी, दाल, साग, प्रायः लोग खाते हैं । इसी कारण ब्यालू जल्दी ही कर लेते हैं और गो-धूलि - वेला के उपरान्त खा पीकर फिर निवृत्त हो जाते हैं। मजदूरों की स्त्रियां प्रातः उठते ही रोटी बनाती हैं और संध्याको आकर फिर बनाती हैं। वह कोदों की रोटी और भाजी खाती खिलातीं हैं । बुन्देलखंड में जुवार उरद की दालके साथ रुचिकर मानी जाती जाती है। गेहूं की दतिया, चरखारी, समथर और ओरछा छोड़कर और स्थानों में बड़ी कमी है । ओरछा और विजावर राज्यों में चावल भी बहुत होते हैं। पर वहां की स्त्रियां चावलों का भिन्न भिन्न प्रयोग नहीं जानतीं । चिवड़ा या चूरा जो म० प्रा० में 'खूब बनता है यहां कोई नहीं जानता । स्त्रियां रातमें गपशप करती, गीत गाती और कथा कहानी सुनती सुनाती हैं । दतिया एवं पन्ना में देवालयों में भी काफी संख्या में जाती हैं । वीर बालाएं यह वही भूमि है जहां पर राज परिवारकी तो क्या वारविलासिनी भी मुगल दरबार में भेंट नहीं हुई । एक बार कहा जाता है कि मुगल दरबार में ओरछा नरेश के दरबार की नर्तकी रायप्रवीण के रूप और गुण की प्रशंसा इतनी बढ़ी कि उसकी मांग आयी । राजा सावन्त थे । राज्यकार्य प्रसिद्ध विद्वान केशवदास उसे लेकर गये । उस प्रवीण वारविलासिनीने चुनोती दे दी — 'विनती रायप्रवीण की सुनियो शाह सुजान, भूठी पातर भखत है वारी' वायस स्वान, इसपर चतुर कलाप्रेमी मुगल सम्राटने उसे वापस कर दिया। वीरता तो बुन्देलखंड की स्त्रियों का विशेष गुण है। महारानी लक्ष्मी बाई जिनका नाम भारत के कोने कोने में अब सभी जानते हैं, महाराष्ट्र के रक्त और बुन्देलखंड के पानी से परिपालित थीं। उनकी जीवनी को देखने से पता चलता है कि उनकी परिचारिकाओं में से सुन्दरी स्त्रियां जो बुन्देलखंड की ही वीर बालाएं थीं, उन्होंने ऐसे काम सिखाये कि जिनके सामने कोई भी वीरपुरुष गर्व कर सकते हैं | महारानी झांसी के पूर्व भी राज्यों के विग्रह और युद्धों में, शान्तिकाल में, लुटेरों और वटमारोंके उपद्रवों में अथवा अपने सतीत्व रक्षा के निमित्त बुन्देलखंड की स्त्रियोंने अपूर्व वीरता का परिचय दिया है । यदि पर्दाप्रथा और रुढ़ियां बाधक न हों तो वे अब भी उचित स्थान पाकर अपनी वीरता दिखा सकती हैं । लेखक के एक और लेख में (जो 'मधुरकर' टीकमगढ़ में छपा था ) बुन्देलखण्ड की एक वीरबाला ऐसी हो रानी का चरित्र है जिसने मध्यकाल में अपने पतिके दिल्ली में रहने पर प्रसिद्ध गढ़ सेउढ़ा को अपने देवर से बचाया और उसके धोखेसे ले लेने पर पुनः एक छोटी सी फौज द्वारा उसे जीता और अपने पति की अमानत उन्हें वापस दी। इससे भी वीरतापूर्ण उदाहरण उस लोधिनकी लड़कीका है, जिसकी १ नाई की एक जाति जो राज दरबारमें जूठन उठाते खाते हैं । ५४६ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डका स्त्री-समाज कथा मैंने कई साल हुए विजावरमें ही सुनी थी। कहा जाता है कि जंगल में एक डाकूने उसे घेर लिया और बलात्कार करना चाहा। उसने कहा कि कपड़े उतार लो मैं भोगको तैयार हूं । जब डाकू कपड़े उतारने लगा उस समय उसकी तलवार जमीन पर थी और दोनों हाथ व्यस्त थे तथा क्षण भरको अांखें बन्द थीं। साहसी लड़कीने झपटकर तलवार उठायी, खोलकर वार किया और डाकूको खत्म कर दिया । कौन इस वीरताकी प्रशंसा न करेगा । ये हैं बुन्देलखंडकी वीरबालाएं । विवाह एवं सामाजिक स्थिति बुन्देलखण्डकी नारीको समाजने बुरी तरह दलित कर रखा है। सदियोंके अत्याचार और प्रपीड़नने उसकी वृत्तियोंको विकृत, इच्छाओंको सीमित और विकासको कुंठित बना रखा है। बालिकाओं को बहुत ही जल्दी ब्याह दिया जाता है। प्रायः गावोंमें अच्छे घरोंमें दश वर्ष की भी लड़की ब्याह दी जाती है । और फिर कथित उच्च वर्गों में विधवा विवाह भी नहीं होता। इन सबसे होने वाली जीवनकी हाहाकारका वह कब तक सामना करे ? पतन भी होता है और समाजकी सुकुमार वेलि स्नेहके जलके विना असमय ही मुरझा जाती है । उसकी आह समाजके हृदयका घुन बन बैठी है । श्वसुरके रहते वधू अपने पतिसे जी भर हंस खेल भी नहीं सकती और सास बनने तक उसके अरमान मर जाते हैं फिर वह पुत्रवधू पर यन्त्रणाएं करके अपने यौवनकी आहत कामनाओंका प्रतिशोध लेती है । ननद भाभीको सदाचारका पाठ पढ़ाती है, जेठकी स्त्री नीति और घरकी बड़ी बूढ़ी धर्मकी शिक्षा देती हैं। फिर भी स्वभावसे बुन्देलखंड की बाला विनोदिनी है। वह इन सबकी अभ्यस्त सी है और उसकी स्वाभाविक हंसी पर यह सब यातनाएं कम प्रभाव डालती हैं। प्रकतिका उसे यह वरदान हैं कि रूखा सूखा खाकर वह स्वस्थ रहती है। कठोर परिश्रम कर थोड़ा विश्राम पाकर प्रसन्न होती है और साधारण शृगारके उपचारोंसे हो सौन्दर्यको विभूषित करती है। समाजमें कुमारी रहने पर माता पिताके यहां लड़की लाड़-चावसे रक्खी जाती है और वैवाहिक जीवनकी अपेक्षा स्वतन्त्र भी रहती है। घरकी वधुअोंसे वह काम काज सीखती हैं और नन्ही सी उम्रमें ही विवाह होने पर प्राय: वे समयसे पूर्व ही वधू बन जाती है । पर विवाहके उपरान्त तीन या पांच साल में प्रायः द्विरागमन होता है। इस कारण वह किशोर होते होते ही वास्तव में प्रणयी जीवन बितानेको अपने पतिके घर जाती है। अन्ताराष्ट्रीय समितिने जिसका पहले प्रधान कार्यालय जिनेवामें था, नारी विषयक खोजकी एक उपसमिति बनायी थी। उसने अपना निर्णय बड़े अनुसन्धानके उपरान्त दिया था कि प्रौढ़ विवाह की अपेक्षा बालविवाह जीवनको अधिक सुखी बनाता है। पर अति हर एक वस्तुकी बुरी होती है । बुन्देलखंडमें बालविवाह भी उसी अति पर पहुंच चुका है। उच्चवर्णकी स्त्रियों में सामाजिक अधिकार निम्नवर्णकी स्त्रियों की अपेक्षा कम है । उच्चवर्णकी स्त्री अब भी मनु महाराजकी आज्ञाके अनुसार कुमारी अवस्थामें पिताके शासन में, विवाहित होने पर पतिके और ५४७ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ वृद्ध या विधवा होने पर लड़कों के शासन में रहती है । "न स्त्री स्वातन्त्र्य मर्हति " उसपर अक्षरशः लागू होता है । वैदिक धर्मशास्त्र के अनुसार भले ही बहुत कुछ सम्पत्ति ( स्त्रीधन) की अधिकारिणी हो पर बुन्देलखंड की नारीका कोई वास्तव में धन नहीं । विवाह के समय चढ़ाये गये जेवरात वस्त्र भी उसके पति न सिर्फ अपना समझते हैं वरन् जुआंरी पति सब कुछ दाव पर मर्जे में लगा देते हैं और विचारी नारी समझती है कि उस पर उसका अधिकार नहीं । सम्पत्ति के बंटवारे में उसे कभी कुछ नहीं मिलता और केवल रोटी कपड़ा पानेका उसका अधिकार है, वह भी उच्छिष्ट और परित्यक्त । उच्चवर्णीय विधवाकी स्थिति शोचनीय है । बालविवाह होने पर, पति के मर जाने पर बालिका को अपने लिए विधवा समझना कठिन हो जाता है । गुप्तप्रेम, व्यभिचार और भ्र ूणहत्याएं भी होती हैं। पर इस सबसे अधिक होती है शाश्वत निराशा और कभी कभी होता है विद्रोह । उस विद्रोहिणी नारीको समाज घृणा, उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से देखता है । पर वास्तव में वही अशिक्षित प्रकृतिरता युवती नारी स्वतन्त्रता और क्रान्तिकी प्रतीक है । निम्नवर्णकी नारी अपनी समकालीन तथोक्त उच्च वर्णोंकी नारीसे कहीं स्वतन्त्र और सुखी है । काछी, कोरी, ढीमर, वरई, नाई, धोबी, चमार तथा अत्पृश्य जातियोंमें जैसे वसोर और भंगी सबमें विधवा विवाह की प्रथा है । स्त्री प्रथम पतिके मर जाने पर तथा उसके द्वारा परित्याग किये जाने पर जिसे “छोड़ छुट्ठी" कहते हैं पुनः वरण की जा सकती है । इसे "घरन ।" कहते हैं । इस रक्खी हुई स्त्रीको भी नये पतिको अच्छी तरह रखना पड़ता । प्रायः इन जातियों में स्त्रियां सुखी होने पर सजातीय अन्य पुरुषके साथ भाग जाती हैं; फिर मुकदमा भी चलते हैं तो वापस ले ली जाती हैं । भगा ले जानेवाला पहले पति को “ब्याहगति" देकर अर्थात् पूर्व प्रणय का खर्च देकर फिर विवाह कर सकता है । इधर यह निम्नवर्णी नारी अपने पतिकी तरह श्रमजीवी है । वह भी घास काटती, लकड़ी बीनती खेतीका काम करती है । उसकी इस तरह निजकी सम्पत्ति होती है । उसका समाजमें इस कारण एक स्वतंत्र स्थान है । इधर इन सभी कही हुई जातियों में 'पैठुवा' की भी प्रथा है अर्थात् धनी स्त्री जिसका पति मर चुका हो अपने जातिके अविवाहित या विधुर पुरुष को वतौर लैंगिक साथी ( Sex Companion) रख लेती है । इस पुरुष का उसकी सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता । बस यह खाता पीता, काम करता है । उसकी खेती बारी देखता है। उसके द्वारा हुए बच्चे जायज माने जाते हैं । वह यदि प्रथम पतिसे बच्चे न हों तो पूरी सम्पत्ति पर अन्यथा आधी पर अधिकार पाते हैं । स्वतन्त्र भारत को शिक्षा दीक्षा के अभाव में विद्याहीना, कलाहीना, संस्कारहीना, दीना, दलिता, बुन्देलखंड की नारी को जागृत और स्वतन्त्र, सुखी और सम्पन्न करना होगा। उस समय उसकी उन स्वाभा विक, प्रकृतिदत्त शक्तियों का समुचित और सुगठित विकास होगा । जिनके स्वस्थ वीज उसके सहज रूप में आज भी स्पष्ट हैं। ५४८ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० शिवदर्शनलाल वाजपेयी सुधाकर शुक्ल, साहित्यशास्त्री, काव्यतीर्थ प्राचीन कालसे ही वाङ्मयके विस्तार एवं प्रचारके लिए समय समय पर ब्रह्मर्षि तथा राजा अवतीर्ण होते रहे हैं । उनके स्तुत्य प्रयत्नोंके कारण अपूर्ण पार्थिव पदार्थों में भी आज भी दिव्यताके दर्शन हो जाते हैं। उन निष्काम कर्मयोगियोंने निर्जन कान्तारोंमें गुरुकुल बनाकर जंगल में मंगल उपस्थित कर दिया था। ऐसे गुरुकुलोंसे हिमालय और विन्ध्यके विशाल अरण्य भरे पड़े थे जिनमें सकल-कला-कुशल कुलपतियोंकी संरक्षकतामें दश सहस्त्र बालक विद्योपार्जनके साथ साथ भरण पोषण भी पाते थे । भारद्वाज, अत्रि, अंगिरा, जमदग्नि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वरतन्तु, वाल्मीकि, अगस्त्य और कण्व, प्रभृति कुलपतियोंकी कृपासे ही भारत भूतकालका भाल-भूषण बना हुआ था। और अवनति काल में भी वे नालन्दा और तक्षशिला जैसे विशाल विद्यापीठोंको प्रतीक रुप में छोड़ गये, जिनके पाणिनि, वररुचि और चाणक्य जैसे विद्या विशारद स्नातकोंने मोहमग्न और यवनपदाक्रान्त आर्यावर्तको पतनके गम्भीर गर्तसे निकाल ही नहीं लिया अपितु प्राचीन पद्धतियोंको ही उद्धारका अाधार सिद्ध कर दिखाया । सच पूछिये तो अल्प व्यय में अनल्पज्ञान-राशि वितरण करने वाले वह गुरुकुल, श्राजके पुष्कल धनराशिको होम देने वाले वाह्याडम्बरोंके प्रचारक, स्वास्थ्यके दावानल आधुनिक विश्व विद्यालयोंको चुनौती दे रहे हैं । आज तो ज्ञान और विज्ञानके साधनोंकी अपेक्षा विद्याभवनोंके निर्माण में कहीं अधिक धन व्यय किया जाता है किन्तु प्राचीन काल में 'अहःनीवार मुष्टिपचना' महर्षि केवल शैल शिलातलों पर बैठकर अध्यापन करते हुए प्रकृतिकी कृतिको कितना कमनीय और पावन बना देते होंगे । 'एते त एव गिरयो विरुवन्मयूरास्तान्येव मत्तहरिणानि शिलातलानि, ये वातिथेयपरमा यमिनो भजन्ते, नीवार मुष्टिपचना गृहिणो गृहाणि ।' अध्ययनाध्यापनकी यह प्रकृति पावन प्राचीन प्रणाली यद्यपि काल-चक्रकी लपेट में आ गयी हैं परन्तु सर्वथा नामशेष नहीं हो पायी और आज भी कुछ तपोधन मनस्वी उसको जीवित रखनेके प्रयत्नमें प्राणपणसे सचेष्ट हैं। हमारे चरितनायक पं. शिवदर्शनलालजी वाजपेयी उसी परम्परा के थे, यद्यपि समयकी गति तथा परिस्थितियों के कारण उनकी शिक्षा दीक्षा पर्याप्त रुपसे न हो सकी थी। फिर भी होनहार विरवानके होत चीकने पात'के अनुसार आपमें वृद्धों तथा विद्वानोंमें भक्ति, Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ दलितों और अशक्तों में श्रासक्ति एवं समाज सेवामें अनुरक्ति, आदि भव्य भाव बाल्यकाल से ही परिलक्षित होते थे । आप अपने सदगुणोंको छिपानेका प्रयत्न निरन्तर करते रहते थे । मित शब्द मानों आपके भाषण, भोजन और व्ययका विशेषण बननेके लिए ही निर्मित हुआ था । संयम तो आजन्म अभ्यस्त था । कार्यकारिणी क्षमता पूर्व थी । छरहरी गौरी गात्रयष्टि, अलिकाल कुन्तल, विशाल भाल-भूषित त्रिपुण्ड्र, लम्बे श्रवणयुग्म, उन्नत नासिका, तनु और अरुण श्रोष्ठों पर चटक काली मूंछ, कलित कल्हार सा वदन, मनोहर ग्रीवा, प्रलम्ब बाहु, प्रशस्त वक्षःस्थल, निराडम्बर वेश, हृदय निरावेश, दृष्टि प्रायः सनि त्र, शुद्ध श्वेत खद्दरकी धोती और साफा, यहां तक कि चरणत्राण तक श्वेत, यही उनकी बेष भूषा थी, यही थे औरैया गुरुकुलके कुलपति पं० शिवदर्शनलाल वाजपेयी । कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था । जन्मभूमि कानपुर के समीप थी परन्तु युवावस्था में आपने औरैया में पदापर्ण किया जहां कि आपका विवाह हुआ था । श्वसुरालय में एक मात्र दुहिता के साथ साथ सम्पत्ति के भी पति बने और वहां रहने लगे, अब आपकी वय चौवीसके निकट थी, उन्ही दिनों पं० छोटेलाल दद्दू और पं० केशवप्रसाद जी शुक्लने अपने प्रान्त में देववाणी संस्कृतका उत्तरोत्तर ह्रास होते देखा, विचारने लगे क्या किया जाय ? संस्कृत प्रचारका शुभ विचार उनके परिष्कृत मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ । उद्घाटन भी हो गया बड़े उत्साह और उत्सव के साथ विद्यालयका ; पर 'यथारम्भस्तथासमाप्तिः ' के अनुसार जितने शीघ्र उत्साह जागृत हुआ पर्याप्त सहयोग के अभाव में उतने ही शीघ्र वह सुन होने लगा । उस समय उनकी सहयोगसतृष्ण दृष्टि जैसे ही वाजपेयी जी पर पड़ी कि 'मानहु सूखत शालि खेत पर घन घहराने' फिर क्या था ! वाजपेयीजी जुट पड़े जी जानसे । उनका तो जन्म ही जनता जनार्दनकी सेवा के लिए हुआ था। उनकी निष्ठा और निश्छल सेवाप्रवृत्ति आदिको देखकर सभाने संस्थाका सूत्र उन्हीके सबल करोंमें समर्पित कर दिया । वाजपेयीजी ने देखा संस्कृत विद्यालयके लिए कोई भवन नहीं है, आपने शीघ्र ही अपना बाग जिसमें एक शिव मठ और वृक्षथे विद्यालयको दान कर दिया । भूमितो हो गयी पर भवनका प्रश्न जटिल था । वर्तमान की आवश्यकता कोई ऐसी न थी जिसके लिए उन्हें विशेष चिन्तित होना पड़ता । एक कक्ष में काम चल सकता जो पांचसौ रुपये में बन जाता क्योंकि उस समय छात्रोंकी संख्या पन्द्रह या बीस थी परन्तु वे दूरदर्शी थे। अपनी संस्थाको महाविद्यालयका रूप देनेकी उनकी अभिलाषा थी। इस उग्र आकांक्षाने उस तरुण तपस्वीको पलभर भी बैठने नहीं दिया । उनके व्यक्तित्वका प्रभाव ही ऐसा था कि जिसके समक्ष कृपण भी उदार बन जाते थे | परिणामतः बाग के प्रांगणकी छात्रावाससे घेर दिया और मध्य में अनेकों विशाल कक्ष बनवाये । उनका हृदय सब कुछ सह सकता था पर श्रार्तनाद नहीं सुन सकता था । रोगियोंकी दरिद्रता और डाक्टरोंकी हृदयहीनता से क्षुब्ध होकर उन्होंने स्वास्थ्य प्रचार करनेका संकल्प कर लिया । अतः एक विशाल रसायनशालाका निर्माण कराया । एक पीयूषपाणि चिकित्सक चूड़ामणिको अध्यापक नियुक्त किया ५५० Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० शिवदर्शनलाल वाजपेयी जिन्होंने जयपुर सम्मेलन, और तिब्बी कालेज दिल्लीकी परीक्षाओं के लिए बीसियों क्षात्रोंको योग्य बनाया। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए एक रसायन शास्त्रीजी नियुक्त किये गये जो आयुर्वेदिक छात्रोंको औषधि निर्माण में कुशल बनाते हैं, यहां सब प्रकारके रस, स्वर्ण भस्म, वंग भस्म और सभी आसव, अरिष्ट, वटी, घृत, तैल, आदि सिद्ध किये जाते हैं और यह रसायनशाला औषधि निर्माण में प्रमाण मानी जाती है । समीपके प्रान्तीय डिस्ट्रिक्ट बोर्डके औषधालयों में यहीं से सभी औषधियां जाती हैं, यही नहीं कि केवल आयुर्वेद में ही इतनी उन्नति हुई हो अपितु व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, वेदान्त, पुराण, इतिहास, दर्शन और वेदका भी पूर्ण और विधिवत् शिक्षण होने लगा । विद्यालयका विकास-क्रम पहिले तो कार्य यथा तथा ही चलता रहा पर श्री वाजपेयीजी के प्रवेश करते ही संस्था की रुपरेखा ही कुछ और होने लगी। कार्यक्रम सुचारु रूप से चलाने के लिए पं० वैद्यनाथ शास्त्री की नियुक्ति की गयी। उन्होंने योग्यतापूर्वक कार्य किया । कुछ काल पश्चात् वह फर्रुखाबाद चले गये । इसके बाद पं० त्रिभुवननाथजी आये । ये बड़े ही विद्वान और बुद्धिमान् थे । इनके आचार विचारसे तत्कालीन वातावरणको पहिले से अधिक लाभ हुआ। यह व्याकरण चार्य, साहित्याचार्य तथा वेदान्त शास्त्री थे। अनेक वर्षों तक सन्तोषजनक कार्य करके यह गोयनका विद्यालय काशी चले गये और इनके स्थान पर पण्डित प्रवर रमाशंकर जी प्रतिष्ठित हुए। यह व्याकरण और साहित्य दोनों के ही प्राचार्य थे । पर यह ज्ञात न हो सका कि दोनों विषयों में से उनकी किसमें अधिक गति है । वस्तुतः दोनों ही विषयों में अप्रतिहत गति थी । अध्यापन की यह विशेषता थी कि खिलाड़ी से खिलाड़ी विद्यार्थी जटिलतम विषय को आसानी से हृदयंगम कर लेता । और स्वभाव सरल, परिश्रमी । इनके समयसे वास्तविक विकास का प्रारम्भ हुआ। इन्होंने तो अध्ययन और अध्यापन की दिशा ही बदल दी परन्तु कुछ वर्ष बाद ये प्रधानाध्यापक होकर प्रयाग चले गये । पं० ललिताप्रसाद जी डबराल इसके बाद प्राचार्य डवराल जी पधारे । आप व्याकरणाचार्य, काव्यतीर्थ, वेदान्त-वाचस्पति हैं । यह उन व्यक्तियों में से हैं जिनसे स्वयं उपाधियां गौरवान्वित होती हैं । आप उन दो चार निरीह निरहंकार मनुष्यों में से हैं जो अपने ग्रन्थों में अपना नाम नहीं देते, अपने नाम के साथ उपाधि नहीं जोड़ते और अपने चरण छुपाने में संकोच करते हैं । इन्हींके दर्शन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ । 'नैषधीय' पढ़ाते पढाते आप नाचने लगते और खण्डन खण्डकाव्य का भाष्य करते समय अद्भुत वक्तृत्वशक्ति का परिचय देते । इनका नाम सुनकर खुर्जा, बुलन्दशहर, छपरा, गढ़वाल बांदा, आदि दूर दूर स्थानों के ५५१ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ आचार्य के छात्र औरैया संस्कृत विद्यालय में आये । व्याकरण, साहित्य, वेदान्त, मीमांसा, धर्मशास्त्र, दर्शन, पुराण और इतिहास का समस्त बाङ्मय इनको हस्तामलकवत् था । इन सब शास्त्रोंके विद्यार्थियों को अंग्रेजी अनिवार्य रुप से पढ़नी थी । इसी समय विद्यालय अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंच चुका था । काशी, करवी और खुर्जा को छोड़कर उतना बड़ा संस्कृत विद्यालय उत्तर भारत में सम्भवतः अन्यत्र कहीं न था । विद्यालय बस्ती से दूर होने के कारण तपोवन बन रहा था । अग्निहोत्रों के धूमपुञ्जसे पिंगपादप पल्लव कुलपति कण्व्के तपःपूत श्राश्रम का स्मरण कराये विना न रहते । ब्राह्ममुहूत में कहीं वटुवृन्द सन्ध्योपासन कर रहे हैं, कोई स्वाध्याय में संलग्न है तो कोई आसन बिछा रहे हैं; एक व्यायाम निरत है तो दूसरे बिल्वपत्र चयन कर रहे हैं। इधर मृगशिशु पृथ्वी सूंघता फिरता है उधर देव मंत्रोच्चारण और देव मठमें घण्टा ध्वनियों के बीच मयूर कुहुक उठता है । इतना सब कुछ होने पर भी श्री वाजपेयी जी प्रायः यही कहा करते थे कि अभी तो हमारे विद्यालय का शैशव ही है । इतने अल्पकाल में इतनी उन्नति के साथ प्रतिवर्ष नवीन विषयोंके उद्घाटन और प्रतिमास नयी नयी योजनाएं देखकर लोग न जाने किस काल्पनिक वाङ्मय लोकमें विचरण करने लगे थे कि ' हा हन्त हन्त नलिनीं गज उनहार' वाजपेयी जी ज्वरग्रस्त हुए । हेमन्त ऋतु थी, शनैः शनैः शक्तिपाल ने उनकी इहलीला समाप्त कर दी । उजड़ा हुआ उपवन वस्तुतः वाजपेयी जी तो मरकर भी अमर बन गये पर उनका उपवन वह महाविद्यालय उजड़ गया । उनके दाह संस्कार से लौटकर मैंने देखा तो विद्यालय के अणु अणुसे करुणा वह रही थी, बाजपेयी जी के वियोग में विद्यालय भी विभाविहिन हो गया । उनके अभाव में समिति के शेष सदस्योंकी शक्ति परिमित रह गयी । एक वर्ष ज्यों त्यों करके टल सका कि पटटू आचार्यको असभ्यता पूर्वक अपमानित कर निकाल दिया गया | कुलपतिके निधन के पश्चात् उस विद्यालय के धन और धर्म वही आचार्य थे यह सर्वविदित था । इन महानुभावमें एक त्रुटि अवश्य थी कि वह कलिकालानुकूल न बन सके और न वे अपने प्रभुओं को यज्ञोपवीत और फलोपहार दे सके । वाजपेयी जी के बाद यहां गुणों की कोई उपर्युक्त कसौटी न रही थी, अतः अनेक शास्त्र निष्णात डबराल जैसे आचार्य के सभी गुण दुर्गुण बन गये । इसके बाद यह प्रस्ताव आया कि स्वर्गीय वाजपेयी जी का एक तैलचित्र विद्यालय में लटकाया जाय, जिससे उनकी पावन प्रतिमा का प्रतिबिम्ब निरन्तर प्रत्यक्ष रहे । परन्तु कुछ गण्य मान्य व्यक्तियों को यह प्रस्ताव भी न जंचा । जिस देशमें नृशंश शासकों की पुरुष प्रमाण- प्रतिमाएं प्रचुर धनराशि व्यय कर चतुष्पथों पर आरोपित होती रही हों वहां दीन दुखियों के उद्धारक और देववाणी के प्रचारक के तैल चित्रके टांगे जाने में भी बाधा ! कृतघ्नता की पराकाष्ठा हो गयी । वाजपेयी जी के निधन से केवल विद्यालयको ही ५५२ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० शिवदर्शनलाल वाजपेयी धक्का नहीं लगा, वरन् स्वयंसेवक समिति, पुस्तकालय, स्थानीय शहर कमेटी, कांग्रेस कमेटी, सभी को भयंकर आघात पहुंचा । दिनचर्या इच्छा शक्ति में दृढ़ एवं नियम पालनमें कठोर होने के कारण लोग श्री वाजपेयी जी को हठी समझते थे । वस्तुतः वे हठी तो नहीं हठधर्मी अवश्य थे ! उनका नियम था प्रातः चार बजे शय्या त्याग देना, शौचादिसे निवृत होना और सद्यः स्नान कर सन्ध्योपासन हित बैठ जाना । स्वस्थ हों या अस्वस्थ, शक्ति रहते वह अपने नियमसे नहीं टले । तत्पश्चात् वह विद्यालय के लिए चन्दा करने चले जाते या तत्सबन्धी अन्य कार्य में संलग्न हो जाते । दस बजे से अपनी दूकान पर पहुंच जाते । वहां दूकान के कामके साथ-साथ विद्यालयका काम भी करते और उसकी उन्नति के लिए नयी-नयी योजनाएं बनाते । चार बजे दूकान छोड़कर चार कोस तक गावोंमें चन्दा करने चले जाते । चन्दाका धन अपने साथ नहीं लेते। किसी विश्वस्त गृहस्थ के यहां रखकर चले आते, भोजन तो कहीं करते ही न थे, और यदि प्यास भी लगती तो परिचित आचार व्यक्तिके यहां ही पानी पीते । यदि लौटने में अधिक रात्रि हो गयी और घर में भोजनादिकी व्यवस्था न पायी तो खिचड़ी पकायी और पुत्रके साथ खाकर विद्यालय का आय-व्यय का हिसाब करने लगे । जब तक हिसाब ठीक न बन पाता सोने न जाते । इधर चाहे कितनी देर में सोते पर प्रातः चार बजे अवश्य उठ बैठते । कभी-कभी रात्रि में बहुत कम सो पाते फिर भी दिनमें कभी न सोते थे । निरीक्षण संस्कृत विद्यालयों में प्रायः अहर्निश ही अध्ययन क्रम चलता रहता है । वे अध्यापकों का अधिक सम्मान करते थे । अतः उत्तरदायी होने पर भी कभी उनसे अध्ययन कार्यके विषय में किसी प्रकारके प्रश्न न करते । विद्यार्थियों का निरीक्षण करने में सतत सतर्क रहते और अपनी दूकान पर ही बैठे-बैठे देखते रहते कि कौन विद्यार्थी बाजार अधिक आते जाते हैं । और अति देखकर चुपके से आचार्य से उन लड़कोंके आचार विचार आदि के विषय में सावधानीसे जांच पड़ताल कराते । विद्यालय से उनका घर एक मील से कुछ ही कम होगा, परन्तु रात्रि में भी निरीक्षण करनेसे न चूकते । घरसे लालटेन लेकर चल दिये, विद्यालय से सौ कदम दूर ही बत्ती कम कर ली और बाहर खिड़कीके पास चुप चाप खड़े हो हो कर प्रत्येक कक्ष में प्रत्येक श्रेणीके विद्यार्थियों को देखते रहते कि पढ़ते हैं या बातें करते हैं; और बातें भी करते हैं तो विषय क्या है । इस प्रकार प्रायः विद्यार्थियों की व्यक्तिगत वृत्तियोंसे परिचित ही रहते थे। हां इतनी उदास्ता उनमें थी कि दुर्गुणों को देख कर भी दुगुणीसे घृणा नहीं करते थे और न कभी किसी विद्यार्थीके साथ कठोर व्यवहार करते थे, उनमें कष्ट सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता असाधारण थी, जब अधिक ठण्ड पड़ती या जल बरसता होता, या काली रात होती, ऐसे अवसरों पर प्रायः निरीक्षण अवश्य ही करते । ५५३ ७० Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ विनय के साथ सुधार-भावना एक बार जाड़ेके दिन थे । माहाउट पड़ रही थी। विद्यार्थी कुछ पढरहे थे, कुछ खेल रहे थे, एक कक्षमें कुछ विद्यार्थी अनेक प्रकारकी किशोर-सुलभ बातें कर रहे थे, एक विद्यार्थी खड़ा होकर कुछ भाषण देने लगा, भाषण क्या था अनर्गल-प्रलाप, क्रम-हीन वाक्य रचना। कक्षमें सभी विद्मार्थी उस राग रंगमें इतने मग्न थे कि बाह्य वातावरण का किसी को भान ही नहीं रहा कि अक्समात् एक प्रतिमाने प्रवेश किया । जब वह हाथ जोड़ कर कुछ कहने को हुए तो सभीके पैरके नीचे की जमीन खिसक गयी. वे बोले गोवर्धन जी ! यह पाजामा आप हमें देने की कृपा करें तो अच्छा हो इसमें दो गरीबोंके शरीर ढकेंगे, इसके बाद थोड़ा बहत समझा कर चले गये । बात यह थी कि गोवर्धनने ढीली मुहरी का लंक्लाट का पाजामा पहन रक्खा था । संस्कृत विद्यालयोंमें वेष भूषा आदि का अधिक आदर नहीं होता और फिर वाजपेयी जी जैसे निसर्ग सरल, उसपर भी कांग्रेस भक्त, शुद्ध सरल खद्दरके अनन्य उपासक देख रहे थे; संस्कृत का विद्यार्थी, धोती नहीं पाजामा, वह भी चूड़ीदार नहीं ढीला, और वज्रपात तो यह हो गया कि वह खद्दर का न होकर लंक्लाट का था। अस्तु हम लोगोंने छानवीन की कि यह कब और किधरसे आ गये । दूसरे दिन निग्न कक्षाके विद्यार्थीने बताया कि रात को जब पानी बरस रहा था सड़क पर लघुशंका करने गया तो सड़क पर कुछ दूर बत्ती चमकी फिर अचानक गुम हो गयी। बस फिर क्या था सब कुछ ज्ञात हो गया। कर्तव्य प्रियता जब वाजपेयीजी टाउन एरिया कमेटीके सदस्य थे तो कभी कभी पानी बरसनेके समय घूम घूम कर लालटेनोंको खोलकर देखते थे कि कहीं नौकर तेल तो कम नहीं डाल गया। एक बार सत्याग्रहमें भाग लेनेके कारण आपको छै महीनेके लिए जेल भी जाना पड़ा था पर इतने दिनों वहां आपने भुजे चने तथा दूधको छोड़कर और कुछ ग्रहण न किया। सार्वजनिक संस्थाओं के लिए चन्दा करना विषपानकी भांति कठिन कार्य है फिर भी वाजपेयी जी बड़े धैर्यके साथ उसे किया करते थे । पर साथ ही साथ अपने अन्तः करणकी ध्वनिको वे मन्द नहीं होने देते थे। इटावा जिलेके एक ग्राममें एक रईसके यहां उपनयन संस्कार था। आयोजन भी वैभवके अनुसार ही हुआ। विद्यालयके लिए चन्दाका सुयोग देख कर वाजपेयी जी भी पहुंचे । प्रान्तके अनेक रईस उपस्थित थे। अातिथ्य महोदयने वाजपेयीजोसे भोजनका आग्रह किया पर यह तो निकट सम्बन्धीको छोड़कर और कहीं अन्न ग्रहण करते ही न थे तो यह कहा गया कि कमसे कम खोयेकी मिठाई तो खा ही लीजिये। इन्होंने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि यह अप्रसन्न हो जाय तो विद्यालयकी हानि हो। अतः इन्होंने कुछ पेड़े लेकर इच्छा न होने पर भी पानीके साथ निगल लिये । चलते समय चन्देकी प्रार्थना की । उन महानुभावने पांच रुपये दे दिये, इन्होंने बहुत कुछ कहा पर वह तो इससे आगे 'सूच्यंग्रे न केशव' पर अड़ गये । रईस ५५४ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पं० शिवदर्शनलाल वाजपेयी महोदयका कोई दोष नहीं था । संकल्पित द्रव्यमें से इन्हे कुछ और दे देते तो नर्तकियोंके हिसाबमें कमी पड़ जाती। तपस्वी ब्राह्मण चल दिया। अश्रद्धासे दिये गये उन पांच रुपयेसे उनके मनमें आत्मग्लानि उत्पन्न हो गयी । बाहर एक निर्मल जल कूप दीख पड़ा तो किनारे पर बैठ गये । कण्ठ तक मध्यमा और तर्जनीके द्वारा वमन करना प्रारम्भ किया। तब तक समाप्त न किया जब तक विश्वास नहो गया कि अब उस ग्रामका जल कण भी उदरमें नहीं रहा । कुल्ला किया, कुछ गायत्री मंत्र भी जप किया और तब चले। विद्वद्भक्ति एक बार प्रधान प्राचार्य के यहांसे धीमर चला गया जो चौकाबर्तन आदि किया करता था । उन्होंने मंत्रीजी यानी पाजपेयीजी से कहा कि धीमरका प्रबन्ध कर दीजिये। धीमर मिल न सका पर चौका बर्तन उसी क्रमसे ठीक मिलता रहा अतः प्रधानाध्यापकने भी फिर इधर ध्यान ही नहीं दिया । इस प्रकार एक महिना बीत गया। एक दिन एक शास्त्रीका विद्यार्थी प्रातः पढ़नेको उठा। उसने किसीकोअंधेरेमें चौका करके बर्तन मलते देखा । वह आया तो दृश्य देखकर सन्न रह गया। स्वयं वाजपेयीजी बर्तन मल रहे थे । वह विद्यार्थी जब तक प्रधानाध्यापकको बताने गया, तब तक आप बर्तन ढंगसे रखकर चले जा चुके थे। एक बार बस्ती में महामारीका प्रकोप हुआ। आप सेवा समितिके भी सदस्य थे। पक्के सनातनी होने पर भी मृत अछूतोंके शव यमुना घाट भेजने और अनाथ रुग्णोंकी चिकित्साका प्रबन्ध करनेमें संलग्न रहे जब कि घर पर एक मात्र पुत्र शिवाधर रोग शैयाका सेवन कर रहा था । पड़ोसियों ने कहापहिले घर फिर बाहर । आप पुत्रकी देख रेख नहीं करते । आपने उत्तर दिया-जो सबकी देख रेख करता है वह उसकी भी करेगा। अनेकके समक्ष एकका उतना महत्त्व नहीं । पड़ोसियोंने कुछ न कहा । मन ही मन प्रणाम किया और वही लोग शिवाधरजी की सुश्रूषा करने लगे। औचित्य पालन मैं पहिले ही कह चुका हूं कि विद्यालय प्राचीन तपोवनोंका प्रतीक है। अतः वहां द्रुम, ललित लताएं, गुरुतम गुल्म एवं वनस्पतियोंका होना स्वाभाविक ही है और काशीफल कूष्माण्ड तो सर्वत्र ही सुलभ है। एक दिन शिवाधरजी एक लौकी लेकर घर आये। पिताजीने पूछा-बेटा यह कहां से लाये । उन्होंने उत्तर दिया-मैं विद्यालय गया था तो गुरुजीने दी है । ___ वाजपेयीजीने कहा-बेटा विद्यालयको तो देना ही चाहिये उससे लेना ठीक नहीं, जानो अभी दे आयो और गुरुजीके चरण छूकर क्षमा मांगो और साथ ही प्रतिज्ञा करो कि अब ऐसा न करूंगा । बेचारे बालकको ऐसा ही करने पर छुटकारा मिला । अपरिग्रह वाजपेयीजी ने अपनी भूमि विद्यालयको दान कर दी । अपनी दुकानको चौपट कर दिया और Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अकाल में ही काल कवलित हो जाने तथा अर्थाभावके कारण एकमात्र एवं प्राणप्रिय पुत्रको उच्च शिक्षासे वंचित रखा। अतः तन-मन-धन और धर्म लगाकर भी जिस व्यक्तिने विद्यालय बनाया, बढ़ाया और पर्याप्त कोष छोड़कर निकट भविष्य में गत्यवरोधसे भी बचाया, उसका तैलचित्र भी विद्यालय स्वीकार न कर सके यह कितनी कृतघ्नताकी बात है ! जैसाकि पहिले लिखा जा चुका है, वाजपेगीजी ने विद्यालयके अन्तर्गत आयुर्वेदीय-रसायन शाला को स्थापना भी करवायी थी, जहां पर सभी प्रकारके रस, भस्म, आसव, अरिष्ट, आदि शास्त्रीय विधिसे बनाये जाते हैं । आयुर्वेदाचार्य पं० जगन्नाथजी पाण्डेय इस विभागके प्रमुख हैं। वाजपेयीजीको जब सन्निपातने ग्रस लिया तो बस्तीके प्रायः सभी वैद्योंकी सम्मति हुई कि अमुक रस दिया जाय और वह रसायन शालासे ही मंगाया जाय क्योंकि वह शुद्ध शास्त्रीय विधिसे सिद्ध है। मैं उस समय वहीं बैठा था। मैंने सुना, शिवाधरजी बोले, और जहांसे बताइये मैं मगानेको तैयार हू चाहे जितना मूल्य लगे, परन्तु अपनी रसायन शालाकी कोई भी औषधि न दीजिये, पिताजीकी यह आज्ञा है। इस पर भी जब एक वैद्यने कहा कि वह रस क्या है रामबाण ही समझिये और फिर पैसातो दे रहे हैं । शिवाधरजी रोकर कहने लगे अंतिम समय में उनका नियम न तोड़िये । जीवन भर उन्होंने विद्यालयकी कोई वस्तु ग्रहण नहीं की,और बीमार होनेके पूर्व ही उहोंने मुझसे कहा था कि अपनी रसायनशालाकी औषधि मेरे लिए न मंगाना । आखिर ऐहिक लीला समाप्त कर दी पर अपनी प्रतीज्ञासे न टले । अपने 'यशःशरीरेणा' वे आज भी विद्यमान हैं पर विद्यालयके भग्नावशेषोंके श्रांसू पोछने वाला आज कोई नहीं। यदि यही क्रम रहा तो वह दिन दर नहीं जब विद्यालय में फिर यथापूर्व १५ विद्यार्थी ही रह जायगे और धीरे धीरे वे भी खिसक जावेंगे। हमारे देशमें संस्कृत प्रेमियोंकी कमी नहीं । पू० महात्मा गांधीजी तो प्रत्येक भारतीयके लिए संस्कृत अध्ययन आवश्यक मानते थे और देशरत्न राजेन्द्रबाबूने अपने अत्यन्त व्यस्त जीवनमें भी संस्कृत साहित्य पर एक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण पुस्तक लिखा है । साधन सम्पन्न वैश्यसमाज में भी संस्कृत के प्रति श्रद्धा-भक्ति विद्यमान है और सुना है कि संयुक्त प्रान्तके शिक्षामंत्री संस्कृतप्रेमी ही नहीं स्वयं अच्छे संस्कृतज्ञ भी हैं । और सर्वोपरि बात यह है कि स्वर्गीय वाजपेयीजी की तपस्यासे जिन्होंने लाभ उठाया था ऐसे पचासों विद्यार्थी यत्र तत्र विद्यमान हैं, इन सबके होते हुए भी यह संस्कृत विद्यालय, देववाणीका यह आदभुत उपवन उजड़ जाय, इससे अधिक दर्भाग्यकी बात और क्या हो सकती है। पर हम निराशावादी नहीं। अपने प्रान्तमें संस्कृत विश्वविद्यालयकी स्थापनाकी चर्चा चल रही है और बंगालके गवर्नर माननीय कैलाशनाथजी काटजू तो संस्कृतको राष्ट्रभाषाके रुपमें देखना चाहते है। हमें आशा है कि हामरे विद्यालयकी ओर भी इन महानुभावोंका ध्यान जायगा और वाजपेयी जी के उस उपवनमें "अइहै बहुरि बसन्त ऋतु, इन डारन वे फूल।" Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. बा० कृष्णबलदेवजी वर्मा श्री गौरीशङ्कर द्विवेदी 'शङ्कर' ___सन् १६२४ की दीपावली थी । स्व० रायसाहब पं० गोपालदास जी उरई लौटने के लिए मोटर की प्रतीक्षा कर रहे थे, कालपी डाकघरके चबूतरेपर हम लोग बैटे हुए थे; बाजारसे आता हुआ इक्का रुका और उस पर से एक नाटे कद के भद्र पुरुषने हंसते हुए आकर हाथ जोड़ कर रायसाहब से प्रणाम और मुझसे भी रामराम की। कुरसी पर जब वह बैठ गये तब रायसाहबने मेरी ओर संकेत करके उन सजन से कहा कि आप जानते हैं न, ये भी साहित्यक और कवि हैं और कवीन्द्र केशव के वंशधरों के जामाता हैं । अन्तिम वाक्यने उन सजनपर जादू जैसा असर किया । वे बड़ी शीघ्रता से उठकर मुझ से गले मिले और रोकने पर भी पैर छू ही लिए । पहले इसके कि मैं कुछ कह सकू उन्होंने कहना प्रारम्भ कर दिया कि केवल कवीन्द्र केशव हो को मैं अपना कविता-गुरू और हिन्दी भाषाका का प्रथम श्राचार्य मानता हूं। यह बड़े ही सौभाग्यका दिन है जो आप से अनायास ही भेट हो गयी, क्या कवीन्द्र केशवके वंशधर इसी बुन्देलखंड में अब भी हैं ! इत्यादि बड़ी देर तक बातें होती रहीं । रायसाहब उरई चले भी गये किन्तु उनकी बातों का तांता समाप्त नहीं हो रहा था । यह उनकी हमेशा की प्रकृति थी-कितने ही आवश्यक कार्य से कहीं जा रहे हों किसी विषय विशेष पर चर्चा उठ खड़ी हो तो उस आवश्यक कार्यको भूल जायंगे और अपने विषयका तब तक निरन्तर प्रतिपादन करेंगे जब तक आप भली प्रकार सन्तुष्ट न हो जाय । स्व. बा. कृष्णबलदेव जी वर्मासे यह मेरी प्रथम भेंट थी, फिर तो मैं उनका अधिक कृपापात्र, उनके परिवार का एक सदस्य सा और कालपीवालों के लिए उन जैसा ही एक नागरिक बन गया था। वहां के कितने ही संस्मरण हैं किन्तु उनकी चर्चा यहां न करूंगा । स्व० वर्मा जी के सम्बन्ध में ही संक्षेपमें लिखता हूं। स्व० बा० कृष्णबलदेव जी वर्माका जन्म सं० १६२७ वि० में वेदव्यास जी की जन्मभूमि कालपी में हुआ था । आपके पूज्य पिताजी का शुभनाम लाला कन्हयीप्रसाद जी खत्री था, वर्मा जी के पूर्वज प्रायः दो सौ वर्ष पूर्व पंजाबसे आकर कालपीमें बसे थे, कालपी में उन्होंने सराफी, हुण्डी, आदि के व्यापार में अच्छी सम्पत्ति एकत्रित कर ली थी। उन्हीं दिनों वे ब्रिटिश सरकार तथा मध्यभारत की कितनी ही रियासतोंके बैंकर भी हो गये थे। ५५७ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ सन् १८५७ ई० के विप्लवमें कालपी गदरका केन्द्र सा बन गया था। अनेक लड़ाइयां भी वहां हुई । फलस्वरूप कालपीमें उन दिनों लूटमारका बाजार गर्म रहता था । वर्माजी के पूर्वज भी लूटमारके शिकार हुए किन्तु ब्रिटिश सरकारके खैरख्वाह होने के कारण किसी के प्राणों की क्षति नहीं हुई । आप के पूर्वजों का बनाया हुआ मंदिर अब भी कालपी में है जो पाहूलाल खत्रीके मंदिरके नाम से प्रसिद्ध है और इस मंदिरमें उन विप्लवकारी दिनोंकी स्मृतियां अब भी विद्यमान हैं । वर्माजी के पूर्वज धार्मिकनिष्ठाके लिए प्रसिद्ध थे। उसका अंश अब भी आप के वंशजों में वर्तमान है। पवित्रताका आपके यहां विशेष ध्यान रखा जाता है। ब्राह्मण समुदायके प्रति आप के वंशजों की बड़ी ही ऊंची धारणा है। उसे वे अब भी बड़ी ही श्रद्धासे देखते हैं और वर्मा जी के पिता तो इन सद्गुणों में बहुत ही बढ़े-चढ़े थे । रामचरितमानस और रामचन्द्रिकाके वे बड़े ही प्रेमी थे। वर्माजीने अपने पिताजीका अनुकरण कर रामचन्द्रिकाके प्रति बचपन ही में बड़ा अनुराग उत्पन्न कर लिया था। प्रारम्भिक शिक्षा कालपी ही में समाप्त कर वर्मा जी लखनऊ के केनिङ्गकालिजमें प्रविष्ट हुए और इण्ट्रेस तथा इण्टर की परीक्षाएं भी आपने दो बार दी, किन्तु सार्वजनिक कार्यों में फंसे रहने के कारण तथा और अनेक कारणों से उसमें श्राप अनुत्तीर्ण हो गये । यद्यपि आप उसे पास न कर सके किन्तु आपकी योग्यता अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू, हिन्दी और बंगला में बहुत ही ऊंची थी। आप मराठी तथा और भी कितनी ही भाषाओंके जानकार थे । शिलालेख आदि की लिपियां आप बड़ी ही सरलता से पढ़ लेते और उसका अर्थ बतला देते थे इन पंक्तियों के लेखकको भी अनेक बार आपकी असाधारण विद्वत्ताका परिचय मिला है । ___ वर्मा जी में बचपन ही से नेतृत्त्व शक्ति आ गयी थी। उनके विद्यार्थी जीवनकी कितनी ही मनोरंजक घटनाएं हैं । हास्यके भावसे प्रेरित होकर स्वामी रामतीर्थ जी ने तो उन दिनों ही 'खुदाई फौजदार' की उपाधि आपको दे डाली थी। सन् १८९९ की लखनऊ वाली कांग्रेसमें स्वयंसेवकों के कप्तान के रूप में बड़ी ही सफलता पूर्वक आपने सेवा की। ऐंटी-कांग्रेस नामकी संस्थाका जो कि उसी वर्ष विरोध करनेके लिए बनी थी, आपने स्वयं तथा अपने अन्य सहयोगियों द्वारा उसी वर्ष में ही खातमा कर दिया । ___कलकत्तेका एकादश हिन्दी-साहित्य सम्मेलन अापके. ही प्रधान मंत्रित्वमें हुआ था और यह आपका ही प्रयत्न था कि इस सम्मेलनमें चालीस हजारका दान सम्मेलनको मिल सका और जिससे 'मंगलाप्रसाद पारितोषक' तबसे प्रतिवर्ष दिया जा रहा है और जब तक दिया जाता रहेगा तब तक स्वर्गीय वर्माजी की याद उसी प्रकार अमर बनी रहे गी। ५५८ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० बा० कृष्णबलदेवजी वर्मा वर्माजीने लखनऊ से 'विद्या-विनोद समाचार' साप्ताहिक पत्र तथा काशीसे भी एक पत्र निकाला था जो कि कई वर्ष तक बड़ी ही सफलता पूर्वक चलते रहे। वर्माजी प्रायः २५ वर्ष तक लगातार जालौन जिलेके डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्य तथा कालपी म्यूनिसिपेल्टीके सदस्य रहे । पश्चात सर्वप्रथम गैरसरकारी म्यूनिसिपल-चैयरमैन भी आप ही हुए और बहुत वर्षों तक बड़ी ही योग्यतापूर्वक उस कार्यको आपने निबाहा। आप आनरेरी मजिस्ट्रेट भी रहे हैं । सार्वजनिक कार्यों में इतने व्यस्त रहने पर भी आपने साहित्य-सेवाके व्रतको बड़ी ही तत्परतासे जीवन भर रक्खा । सरस्वती आदि पत्रिकाओंमें आपके उच्चकोटिके लेख निकलते रहते थे । आपके सन् १९०१ ई० की सरस्वती ( भाग दूसरा, संख्या ८ तथा ९, पृष्ठ २६२-२७१ तथा ३०१-३०६) में 'बुन्देलखण्ड पर्यटन' शीर्षक लेखसे प्रभावित होकर स्व० ओरछानरेश महाराजा श्री प्रतापसिंहजू देवने आदर पूर्वक आपके परामर्श हो के अनुसार ओरछेकी प्राचीन इमारतोंकी रक्षाका प्रबन्ध कर दिया था। ___ 'काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा' के जन्मदाताओं में से वर्माजी एक प्रधान व्यक्ति थे और समय समय पर आप अपना भरपूर सहयोग उसे जीवन भर देते ही रहे । अाप प्रयागकी हिन्दुस्तानी एकाडेमीके सभासद तथा एकाडेमीकी त्रैमासिक मुखपत्रिका 'हिन्दुस्तानी' के सम्पादक मण्डलमें थे। वर्माजीका अध्ययन बहुत ही अधिक था और स्मरणशक्ति भी आपकी गजबकी थी । संस्कृत और दी की अगणित कविताएं आपको कराठान थीं । वार्तालापमें जिस कविकी चर्चा आ जाती थी उसके कितने ही छन्द आप तुरन्त सुना दिया करते थे, बुन्देलखण्डके इतिहासका आपने बड़ी ही खोजसे संकलन किया था। बुन्देलखण्डके लिए आपकी बड़ी ऊंची धारणा थी आपके एक पत्रमें जो कि उन्होंने काशीसे २३-१२-३० को मुझे लिखा था कुछ विवरण देखिए काशी २३-१२-३० 'पूज्यवर प्रणाम आपको यह जानकर दुःख होगा कि मैं तां० २३ को इलाहाबाद गया, वहां से अोरियण्टल कान्फ्रेंस एटैन्ड करने पाटलिपुत्र गया, वहांसे बौद्धकालीन यूनीवर्सिटी नालंदा, राजगिरि, वैशाली, सहसाराम, श्रादि देखनेको था कि पाटलिपुत्रमें सख्त बीमार पड़ गया और यहां काशी अपने भानजे डाक्टर अटलविहारी सेठ M.B.B.S. मेडीकल श्राफीसर Central Hindu School Banaras के यहां लौट आया। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ परसों सबेरे मेरे रोग ने भयानक रूप धारण किया-Heart sink होने लगा, नाडिका बैठ चली, विश्वनाथ जी से आप सब मित्रों की मङ्गल कामना करते हुए अटल निद्रा लेने ही को था कि डा० के injections व मकरुध्वजके डोजोंने Heart और नाडिका को सम्हाल रिया। अब मैं improve कर रहा हूं और अभी जब तक बिल्कुल ठीक न हो जाऊंगा तब तक आठ दस दिन यहां रहंगा, यदि कैलाशवास भी कर लूं तो भी मेरी शुभ कामनाओंको सदैव अपने साथ समझिए गा और सदैव मातृभाषाकी सेव में रत रहिए गा। ___ बुन्देलखण्डके गौरव का ध्यान रहे. सोते जागते जो कुछ लिखिये पढ़िये वह मातृभूमिके गौरवके सम्बन्धमें ही हो । शोक ! मैं इस बीमारीके कारण शय्यासीन होने से 'सुधा' के ओरछाङ्क को अभी कुछ नहीं लिख सका हूँ । एक पुराना लेख 'बुन्देलखण्ड का चित्तौर ओरछा दुर्ग' था, वह सरस्वती को दे दिया था। १ तारीख तक आपके पास उसकी प्रति (सरस्वती की) पहुंचेगी तथा एक प्रति महाराज की सेवामें व एक दीवान साहब की सेवामें पहुंचे गी, उसे आप अवश्य देखिये गा । लेख सचित्र है, उसमें ओरछाका गौरव है, चित्तौराधिपति प्रतापपर वीरशिरोमणि वीरसिंहदेवका ऐतिहासिक प्रमाणोंके साथ प्राधान्य है। चित्तौरसे ओरछा गौरवशाली है यह भाव हैं। यदि आठ दस दिन और जीवित रहा तो सुधाके अङ्कके लिए लेख पहुंचे गा। X वर्मा जी के मित्रों की संख्या इतनी अधिक थी कि किसी भी बड़े आदमी, साहित्यिक या नेता की चर्चा कीजिये आपको तुरन्त वर्मा जी से यह मालूम हो जायगा कि उनसे उनका कब और कैसे साक्षात्कार हुआ, कितने दिन और कैसे उनके साथ उन्होंने कार्य किया, किसकी उनके लिए कैसी धारणा थी, इत्यादि बातोंसे आपके अंगणित मित्रों के सम्बन्धमें अनेक-अनेक मनोरंजक बातें मुझे आपसे समय-समय पर सुनने को मिली है। महात्मा गांधीसे लेकर छोटे से छोटे कांग्रेसके नेतासे आपका परिचय था, महामना पूज्य पं. मदनमोहनजी मालवीय और पं० मोतीलालजी नेहरूसे तो बड़ी ही घनिष्ठता थी, श्री सी० वाई० चिन्त मणि सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता राखालदास बनर्जी आपके बड़े ही घनिष्ट मित्र थे । बर्लिनके प्राच्यविद्या-विशारद डाक्टर वान लूडर्स से भी आपका गहरा परिचय था, श्री रामानन्द जीचटर्जी.श्री पं० महावीर प्रसाद जी द्विवेदी और आधनिक प्रमख साहित्यिकोंसे आपकी जान पहिचान थी। वैसे तो प्राय: सभी कवियों की कविताओं का आपने अध्ययन किया था किन्तु कवीन्द्र केशवके आप अनन्य भक्त और उपासक थे । आप बहुधा कहा करते थे कि कवि तो सचमुच अकेले 'केशव' ही हुए हैं । जब वर्माजी कवीन्द्र केशव और बुन्देलखण्ड की प्रशंसा करने लगते थे तो उनकी जबान थकती नहीं थी और छेड देने पर तो और भी अधिक श्रोज आ जाता था. हिंदो संसार में वर्माजीके उक्त विषयोंके ५६० Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० बा० कृष्णबलदेवजी वर्मा प्रमाण माने जाते थे । उनमें क्षुद्र प्रान्तीयता न थी । उनका हृदय बड़ा ही ऊंचा और विशाल था । अपने एक दूसरे पत्र में आपने लिखा था कि "यह जानकर मुझे और भी आनन्द हुआ है कि 'सुधा' ओरछा अङ्क प्रकाशित करेगी । मैं उसमें सहयोग देनेके लिए पूर्णतया प्रस्तुत हूं । साहित्य के देवस्वरूप श्री केशवदास जी मेरे हृदयाराध्य उपास्यदेव हैं । फिर यह कहां सम्भव है कि जहां उनका अथवा ओरछा राज्यका गुणगान होने को हो वहां मैं कुछ भी त्रुटि करूं ? पर कहना इतना ही है कि एक सप्ताह का समय जो लेखके लिए आप मुझे देते हैं, वह बहुत ही अपर्याप्त है, कारण यह है, इस समय मैं बहुत व्यग्र हूं, यह सप्ताह क्या दो सप्ताह तक मैं ऐसा फंसा हूं कि दम मारने का अवकाश नहीं, क्योंकि ता० २१ नवम्बर को मैं प्रयाग आ रहा हूं । ऐकेडेमी की ओरसे पत्रिका पहली जनवरी को प्रकाशित होने वाली है। उसके एडिटोरियल बोर्ड की मीटिंग २३ नवम्बर को है । पत्रिकाके एडिटोरियल बोर्ड का मैं आनरेरी मेम्बर हूं । पत्रिकाके लिए एक बहुत विस्तृत लेख भारतवर्ष के अन्तिम सम्राट महाराज समुद्रगुप्तके सम्बन्ध में खोज करने और स्टडी करने में मुझे दो साल लग गये । प्रयाग, कौशाम्बी, दिल्ली, एरण, गया, आदिके स्तम्भों परके लेखों को पढ़ना पड़ा, कनिंघम की आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट की स्टडीज करनी पड़ी। गुप्तकालीन मुद्राओं व मूर्तियों को खोज कर उनसे ऐतिहासिक रहस्य उद्घाटन करने पड़े । श्रत्र वह लेख पूर्ण करके भेजा है । वीर-विलास की भूमिका तब तक लिखकर तैयार हो जावेगी । उसे भी प्रकाशनार्थ भेज रहा हूं। दूसरे २५ दिसम्बर को काशीमें ऑल एशियाटिक एज्यूकेशन कान्फ्रेन्स होने वाली है, उसका भी मैं मेम्बर हूं, उसके लिए भी लेख प्रस्तुत करना है, जो भारतवर्ष की प्राचीन युनिवर्सिटियों और शिक्षा पद्धति पर होगा, साथ ही २६ ता० को काशी नागरी प्रचारिणी सभा के साहित्य परिषदका अधिवेशन है, जिसके लिये सभापति श्रीयुत रावबहादुर माधवराव किये हैं । उस परिषद के लिए बन्धुवर बाबू श्यामसुन्दरदास जी रायसाहबने बुन्देलखण्ड के साहित्यपर एक लेख पढ़ने की आज्ञा की है जिसकी मैं स्वीकृति दे चुका हूँ, और जिसे तयार करने का आज लग्गा लगाऊंगा। साथ ही पटने में ओरिएण्टल कानफ्रेंस है उसमें भी जाना पड़ेगा और उसके लिए भी कुछ मसाला इकट्टा करना होगा। अतः आप बाबू दुलारेलाल जी से यह कहिये कि वे कृपा करके पन्द्रह-बीस पृष्ठ की जगह मेरे लेखके लिए रिजर्व रक्खें ।" वर्मा जी बड़े ही चरित्रवान थे । आपकी गृहणीका स्वर्गवास आपकी तीस वर्ष ही की अवस्था में हो गया था किन्तु आपने दूसरा विवाह नहीं किया । अपने बृहद् परिवारकी सुव्यवस्था आप जिस योग्यता से करते थे वह देखते ही बनता था। मित्रों के आदर सत्कार करने में भी आप बड़े ही विनम्र और कुशल थे। मित्रोंका तांता आपके यहां लगा ही रहता था वर्मा जी में यह खूबी थी कि प्रत्येक समुदाय में घुल-मिलकर बातें करके मनोरंजन कर लेते थे । बच्चों में बच्चे और बड़े बूढ़ोंमें बुड्ढे । ७१ ५६१ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ हंसोड़ भी अव्वल नम्बरके थे। कुछ स्थलोंका हास्य उनका ऐसा मुंहतोड़ हुआ करता था कि बीरबलकी याद आ जाया करती थी। वर्मा जी अच्छे कवि भी थे। उन्होंने कितनी ही कविताएं समय-समय पर लिखीं। भर्तृहरि नाटक और प्रेत-यज्ञ नाटक तो प्रकाशित भी हो चुके थे । एक ग्रन्थ क्षत्र प्रकाश भी प्रकाशित हुआ था किन्तु अधिकांश साहित्य, जो कि उन्होंने कठिन परिश्रम करके तैयार किया था, अब भी अप्रकाशित है। उसमें बुन्देलखण्ड का इतिहास और कवीन्द्र-केशवके ग्रन्थों की सम्पादित सामग्री है। अपने कितने ही पत्रोंमें उसकी उन्होंने चर्चा की है किन्तु लेखके बढ़ जानेके भयसे उसे यहां देना अनुपयुक्त ही सा है। वर्मा जी ने आजीवन साहित्य सेवा की है और साहित्य सेवा करते ही करत २८ मार्च को केशव-जयन्ती ही के दिन रामनवकी सं० १९८८ वि० को काशीमें पण्य सलिला भागीरथीके तटपर आपने गो लोकवास किया। भारतवर्ष की प्रमुख साहित्यक संस्थाओंसे उनका निकटतम सम्पर्क रहा और उनके द्वारा उन्होंने साहित्य की बड़ी भारी सेवा की । कालपी का 'हिन्दी विद्यार्थी सम्प्रदाय' उन्होंके प्रोत्साहनसे पनपा है ! यों तो उनके विशाल परिवारमें कितने ही योग्य व्यक्ति हुए और है किन्तु स्व० व्रजमोहन जी वर्मा तथा चि० मोतीचन्द्र जी की वे अधिक प्रशंसा किया करते थे और अपना वास्तविक उत्तराधिकारी बतलाया करते थे । स्व० ब्रजमोहन जी वर्मा की सेवाओंसे जो कि 'विशाल भारत' द्वारा उन्होंने की थी हिन्दी संसार अपरिचित नहीं है । चिं० मोतीचन्द्रजी भी अपने पितामहके पदचिन्हों पर सफलता पूर्वक उत्तरोत्तर आगे बढ़ रहे हैं यह संतोषका विषय है । सम्प्रदाय को प्रगतिशील बनाने में उनकी लगन, कार्यतत्परता और सहनशीलता सदैव ही प्रशंसनीय रही है । मुझे उस दिन और भी अधिक प्रसन्नता होगी जिस दिन स्वर्गीय वर्मा जी के साहित्यको प्रकाश में लानेको अोर वर्माजीके वंशधरोंका तथा सम्प्रदायका कदम आगे बढ़ेगा । जीवन भर परिश्रम पूर्वक उन्होंने जो मैटर तैयार किया था उसका सदुपयोग होना नितान्त और शीघ्र ही आवश्यक है । इससे उनकी आत्माको तो शांति मिलेगी ही किन्तु हिंदी संसारका भी उससे बड़ा ही हित हो सके गा ऐसी पूर्ण आशा है। ५६२ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोक-कवि ईसुरी श्री गौरीशङ्कर द्विवेदी 'शङ्कर' __कवि प्रसविनी बुन्देलखण्डकी भूमिका अतीत बड़ा ही गौरवमय रहा है, प्रकृतिने बुन्देलखण्ड की भूमिको अनोखी छटा प्रदान की है, ऊंची नीची विन्ध्याचल की शृखलाबद्ध पर्वत मालाएं, सघनबन-कुंज, सर-सरिताएं आदि ऐसे उपक्रम हैं जिनकी रमणीयताको देखकर मानव-हृदय अपने आप आनन्द विभोर हो जाता है । यहांकी भूमि ही प्राकृतिक कवित्व-गुण प्रदान करनेकी शक्ति रखती है। आदिकवि वाल्मीकीजी, कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजी, मित्रमिश्र, काशीनाथ मिश्र, तुलसी, केशव, बिहारीलाल और पद्माकर जैसे संस्कृत और हिन्दी साहित्य-संसारके श्रेष्टतम कवियोंकी प्रतिभा को प्रसूत करनेका सौभाग्य बुन्देलखण्ड ही की भूमिको प्राप्त है। इनके अतिरिक्त और भो कितने ही सुकवियोंके महाकाव्य अभी प्रकाश ही में नहीं आये हैं यह तो हुई शिक्षित समुदायके कवियोंके सम्बन्धको बात, किन्तु जन साधारणमें भी ऐसे ऐसे गीतोंका प्रचार है जिनको सुनकर तबियत फड़क उठती है । वे गीत हमारी निधि है और युग युगसे हमारे ग्रामवासियों द्वारा अब तक सुरक्षित रुपमें वंशपरम्परासे चले आ रहे हैं। उन गीतोंको हम 'ग्राम-गीत' या 'लोक-गीत' कहते हैं। ग्राम-गीत या लोक-गीत भारतवर्ष ग्रामोंका देश है और ग्राम भाषाएं ही हमारे साहित्यकी जननी हैं । साहित्यके क्रमिक विकासके विवरण का अध्ययन करनेसे यह और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। ग्राम-गीतोंके जन्मदाता ग्राम-गीतोंके जन्मदाता या जन्मदात्री वे ही भोले भाले ग्रामीण या भोली भाली विदुषियां हैं जिनके विशाल हृदय गांवोंमें रहते हुए भी विश्व-प्रेम और विश्व-हितके अभिलाषी हुश्रा करते हैं, जो नित्य प्रति कहा करते हैं कि भगवान सबका भला करें' तब हमारा भी भला होगा। बनावटसे कोसों दूर रहकर जिनमें त्याग, संतोष, क्षमा, करुणा और शांति का निवास रहता ५६३ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ है, जो दीनहीन होते हुए भी ऊंचे दिलवाले, निरभिमानी होते हुए स्वाभिमानी, और कानूनी दुनियाके बढ़ते हुए फरेबसे दूर रहते हुए भी अपनी बातके धनी होते हैं, हमारे ग्राम-गीत उनहीके हृदयोद्गारों को प्रकट करते हुए प्रकाशमें आते हैं। इधर हमारी साहित्य की बढ़ती हुई प्रगतिमें ग्रामभाषाकी उपेक्षा ही सी रही, उसको अपनानेके लिए कोई सम्मिलित उद्योग नहीं किया गया । यही कारण है कि हमारा शब्द-भण्डार प्रायः संकीर्ण ही सा प्रतीत होता है। यह संतोष का विषय है कि शिक्षित समुदाय का ध्यान ग्राम-गीतों की ओर आकर्षित हुआ है और यह भी उनकी विजयका स्पष्ट उदाहरण है। ग्राम-साहित्यके प्रचार और प्रसारसे जहां जन साधारणमें पढ़ने लिखने की रुचि उत्पन्न हो सके गी वहां हिन्दीभाषा-भाषियों को भी कितने ही नवीन शब्द, जिनको अब तक हम व्यवहारमें नहीं लाते थे, प्राप्त हो जायेंगे, और इस प्रकार शब्द भण्डार बढ़नेसे हमारी भाषा जो कि राष्ट्र-भाषा हो चुकी है, सब प्रकार पूर्ण हो सके गी। पिङ्गलशास्त्रके विद्वानोंने 'वाक्यम रसात्मकम् काव्यम्,' रससे पूर्ण वाक्यको काव्य माना है । कविता का सम्बन्ध हृदय और मस्तिष्क दोनों ही से हुआ करता है । ग्राम-गीत यद्यपि पिङ्गलशास्त्रके कड़े बन्धनोंसे जकड़ा हुआ नहीं होता है किन्तु यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनमें कवित्व नहीं। ग्राम-गीतोंकी उपयोगिता ग्राम-गीतोंकी रचना जिनके द्वारा हुआ करती है, जिनके लिए वे रचे जाते हैं, उनको वे यथेष्ट आनन्द और सच्ची तन्मयता देने में अवश्य ही फलीभूत होते हैं । 'भाव अनूठो चाहिए भाषा कोई होय' के अनुसार भी यदि वे रसादिकसे परिपूर्ण न भी हों तो भी भाव-प्रधान तो होते ही हैं, कविता की क्लिष्ट-भाषा हृदय को आनन्द-विभोर नहीं कर सकती, जब उसका अर्थ समझाया जावे तब ही उसका रसास्वादन चित्तको प्रसन्न करता है और वह भी बहुत ही थोडे समुदाय का। किन्तु सरल भाषामें गाये गये गीत असंख्य जन-समुदायके हृदयों में विना किसी टीका टिप्पणी, अर्थ या व्याख्या किये ही प्रवेश पा जाते हैं । उनमें विना वायुयानके 'आसमान पर चढ़ाने वाली' और 'लूली लोमड़ी को नाहर बनाने वाली' थोथी कवि-कल्पनाएं भले ही न हो किन्तु उनमें होता है ग्राम-जीवन के प्रत्येक पहलू का सरल भाषामें मार्मिक और सच्चा वर्णन, वंशपरम्पराकी रूढ़ियों, ऐतिहासिक सामग्रियों और कितने ही अन्य विषयों का ऐसा समावेश जिसे सुनकर हृदय फड़क उठता है । स्वाभाविकता तो इन गीतोंमें ऐसी समायी हुई रहती है जैसे तिलमें तैल यही कारण है कि Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोक-कवि ईसुरी कितने ही अधिक व्यक्तियों के लिए कितने ही अंशों में कृत्रिम कविताओंकी बनिस्वत ग्राम-गीत ही अधिक प्रभावोत्पादक और उपयोगी सिद्ध होते हैं। ग्राम-गीतोंकी व्यापकता भारतवासियोंका सामाजिक जीवन सर्वथा गीतमय ही है। जन्म होते ही स्त्रियां हिलमिल कर सोहरके गीत गाती हैं, मुण्डनके अवसर पर मुण्डनके गीत । इसी प्रकार जनेऊ के गीत, विवाहगीत, संस्कारों के गीत, बारहमासे, सैर, कजलियों के देवियों के गीत, खेतों के और चक्की पीसने के गीत, गङ्गा यमुना स्नान, तीर्थयात्रा और मेलेके गीत, इत्यादि इत्यादि प्रत्येक अवसरके गीतों द्वारा ग्रामीण जनता अपना मनोरंजन किया करती है। भारतवर्षके प्रत्येक भागमें भिन्न भिन्न रूपसे इन गीतोंका साम्राज्य है। लोक-कवि ईसुरीका वंश-परिचय बुन्देलखण्डके ग्राम-गीतों का विस्तृत विवरण बुन्देल-वैभवके एक भागविशेष में अलगसे संग्रहीत किया जा रहा है। प्रस्तुत लेख में जिन गीतों की चर्चा की जा रही है वे एक ही लोक-कविके बनाये हुए हैं--उनका शुभ नाम है । ईसुरी आपका जन्म सं० १९८१ वि० में मेड़की नामक ग्राम में, जो कि झांसी प्रान्तांतर्गत मऊरानीपुर से छे मील है, हुआ था। आपके पूर्वज अओरछा निवासी थे किन्तु अठारहवीं शताब्दीमें जिन दिनों ओरछे का व्यवसाय श्रादि गिरगया और राजधानी भी अन्यत्र चली गयी तब वे ओरछा छोड़कर मेड़की चले गये थे, तबसे उनके वंशज वहीं मेड़की में खेती बारी, साहकारी और पण्डिताई करते हैं। __ ईसुरीके पूर्वज अरजरिया तिवारी जुझौतिया ब्राह्मण थे। मेड़कीमें पं० भोले अरजरियाके सदानन्द उर्फ अधार, रामदीन और ईसुरी ये तीन पुत्र हुए । ईसुरी का पूरा नाम ईसुरीप्रसाद या ईश्वरीप्रसाद था किन्तु उनकी ख्याति उनके उपनाम ही से अधिक है। ईसुरी अधिक पढ़े लिखे न थे । उनका बचपन लाड़ प्यार ही में व्यतीत हुआ इसके दो कारण थे, एक तो अपने ही घर में सबसे छोटे थे, दूसरे इनके मामाके कोई संतान न थी । अतः अधिकतर इनको अपने मामाके यहां ही रहना पड़ता था। बड़े होने पर जमींदारोंके वे आजीवन कारिन्दा होकर रहे और बड़े ही सम्मान पूर्वक । उनके सम्बन्धका विस्तृत विवरण 'ईसुरी-प्रकाश' में दिया जा रहा है। ईसुरीके गीतोंकी भाषा ईसुरीके जितने गीत अब तक प्राप्त हुए हैं, वे सब एक ही प्रकारके छंदमें हैं, कहीं कहीं छंदके साथ दोहा भी जोड़ दिया है। जन साधारण उन गीतों को फाग कहते हैं। १६ और १२ मात्राओके ५६५ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ विश्रामसे उसमें २८ मात्राएं होती हैं और अंत में दो गुरू । छंदशास्त्र के अंतर्गत यह छंद सार, नरेन्द्र और ललितपद की श्रेणी में आता है । ईसुरीके गीतोंकी विशेषता यह है कि सीधी सरल भाषा में गीतको मनोहर बना देते थे और प्रथम पंक्ति को द्वितीय पंक्ति का जोरदार समर्थन प्राप्त रहता है जिससे गीत सुनते ही सुनने वालों का ध्यान बरबस उसकी ओर आकर्षित हो जाता है, यथा गोरी कठिन होते हैं कारे, जितने ई रंग वारे । Fara गीतोंकी आलोचना ईसुरीके गीतों की आलोचना करते समय यह आवश्यक है कि प्रत्येक वातारण की ओर हमारा ध्यान रहे । राम और कृष्ण सम्बन्धी गीत उन्होंने जितनी तन्मयता से कहे हैं उससे कहीं अधिक तन्मयता से श्री राधारानी के श्री चरणों में उन्होंने श्रद्धाञ्जलियां अर्पित की हैं। अपनी उपास्यदेवी ब्रजरानी श्री राधिका जी ही को वे मानते थे। यों तो अकाल वर्णन, ऋतु वर्णन, आदि और भी कितने ही विषयोंके उनके गीत हैं किन्तु सर्वोत्तम विषय उनका है 'प्रेम'का | प्रेम कलाका प्रतिरूप है इसलिए प्रेमको अध्ययनका एक अच्छा विषय कह सकते हैं । विद्यापति, सूर तथा अन्य भक्त कवियों के गीतों का भी सूत्रपात प्रेम ही से हुआ यद्यपि उन्होंने प्रेमको ईश्वरत्व के विशाल पथमें परिणत कर अपने अमर गीतों में गाया, तब भी वे प्रेम पर विना खेले न रहे । गोस्वामी तुलसीदासजी भी जो अधिक संयत और गंभीर थे अपनी कविता में प्रेमका रेखाङ्कन किये विना न रह सके । वास्तव में प्रेम ही सबसे प्रबल मनोविकार है और मानव जीवनकी अनेक उलझनों का स्रोत भी । इसी कारण संसार के साहित्य में यह अपना विशेष स्थान रखता है । यह प्रेमही है जो अपढ़ और अज्ञान जनता के मुंहसे गीतोंके रूपमें निकल पड़ता है । ईसुरी तो प्रेम अप्रतिम कलाकार ही थे, उनके गीत प्रेम और जीवन से श्रोत प्रोत हैं। छायावाद की सजनी के बहुत पूर्व उन्होंने रजउ, जैसे मधुर शब्द की कल्पनाकी, उसका व्यवहार किया और रजउ को सम्बोधित करके इतने गीत निर्माण कर डाले कि आज भ्रम सा हो रहा है कि आखिर ये रजउ ईसुरी की कौन थी ? वास्तवमें प्रेमिकाके जो चित्र उन्होंने प्रदर्शित किये हैं वे इतने आकर्षक और स्वाभाविक बन पड़े हैं कि उनकी सूक्ष्मदृष्टि और चतुरताकी प्रशंशा किये विना नहीं रहा जाता । आपके गीतों के कुछ उदाहरण देखिए । उनको पढ़ते और सुनते ही चित्रपटकी भांति दृश्य समाने आ जाता है । सौंदर्य से प्रभावित हो ईसुरी कहते हैं कि इस सुन्दर मुहको देखकर कोई टोटका टौना न कर दे, कहीं किसीकी कुदृष्टि न पड़ जाय, घर और मुहल्ले में तुम हो तो एक खिलौना हो, तुम ही ५६६ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से तो सब मन बहलाते हैं, कम से कम कुदृष्टिसे बचे चिन्ह ) लगा लिया करो, हम सबकी यही श्राकांक्षा है कोउ करत टोटका दौना, ई घर और वार पुरा पालेमें, तुम कड़वौ करे नजर बरका कें, 'ईसुर' इने खुसी बिध राखै, बुन्देली लोक- कवि ईसुरी रहने के लिए ढिटौना ( माथेपर काजलका कि तुम दीर्घजीवन प्राप्त करो लडुआ से मौना । हौ लाल खिलौना । देवौ करे ठिटौना | जुग जुग जियै निरौना । जिस प्रकार उंगली के थोड़े ही संकेत से डोर में बंधी हुई चकरी जाती और तुरंत लौट आती है, वही दशा प्रेमी की है । वह प्रेमिकाके दर्शनों के लिए जाता है और निराश लौट आता है, दिन भर यही क्रम रहने पर भी तृप्ति नहीं होती। इसीलिए वह कहता है कि घरोंकी दूरी बहुत ही खटकने वाली बात है – 'तकछुक' शब्दने तो कमाल कर दिया है, 'अवसर' तकछकके काइंयापन और उतावली को नहीं पा सकता । यथा हमसें दूर तुमायी बखरी, रजउ हमें जा अखरी । बसौ चाइयत दोर सामने, खोर सोड़ हो सकरी । तक-छुक नई मिलत कउबे कौं, घरी भरे कौं छकरी । हमरीतुमरी दोउ जननकी, होवे कौं हां तकरी | फिर आवैं फिर जावैं 'ईसुर' भये फिरत हैं चकरी । - प्रेमी कितनी ठोकरें खाता है, क्या से क्या हो जाता है, इसको कितने ही गीतों में कितने ही प्रकार से कहा है । निम्नलिखित गीत में तो पराकाष्टा ही कर दो है । वे कहते हैं, बड़े-बड़े, मोटे-ताजे भी सूखकर छुहारे की भांति रह जाते हैं और जो इकहरे बदन के हैं उनका तो कहना ही क्या, हाड़ों के पिंजड़े पर खाल इस तरह रह जाती है जैसे मकड़ी का जाला और इस सबका कारण है प्रेमका व्यौरेवार वर्णन गीत में देखिए खटका, जौ तन हो गौ सूक छुआरौ, बैसइं हतौ इकारौ । रै गई खाल हाड़ के ऊपर, मकरी कैसो जारो । तन भौ बांस, बांस भौ पिंजरा, रकत रौ ना सारौ कहत 'ईसुरी' सुन लो प्यारो, खटका लगौ तुमारौ । और क्या कोई दुबला पतला होगा । हड्डीके प्रेम-पंथका खटका ऐसा ही हुआ करता है, भुक्त भोगी जानते ही हों गे, छुहारेसे भी अधिक ढांचेपर चमड़ा ही चमड़ा रह गया है और वह भी इतना ५६७ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पतला, रक्त और मांस विहीन, कि आप उसके भीतर की हड्डियां उसी प्रकार गिन लें जिस प्रकार मकड़ी के जालेको गिन लेते हैं। एक निगाह ही में देखकर अनुभव कर लें कि विरही इसे कहते हैं। मकड़ी के जाले और पिंजढेकी, वह भी बांके पिंजड़े की जो उपमा दी है वह कितनी ठीक बैठती है इसे पाठक ही विचार करें। प्रेमीको आशा और निराशा के झूले में प्रायः भूलना पड़ता है । कंचन काया और मन-हीरा की दशा होती है, इसे इस पंथके पथिक ही भली प्रकार अनुभव करते हैं जब से भई प्रीति की पीरा, खुसी नई जौ जीरा । कूरा माथी भी फिरत है कमी आ गई रकत मांस की, फूंकत जात विरह की आगी इसे उतै मनन्दीरा बहौ हगन से नीरा । सुकता जात सरीरा । ओई नीम में मानत 'ईनरी पोई नीम को कीरा । , प्रेम-पंथके थपेड़े ईसुरी जी ने भी उठाये थे या नहीं इससे हमें सरोकार नहीं, किन्तु उन्होंने जैसे सजीव वर्णन इस विषयके किये हैं उनको सुनकर तबियत फड़क उठती है। नसीहत भी मिलती है कि अगर कंचन काया को कूरा-माटी ( कूड़ा और मिट्टी) और मन-हीरा को दुखी करना है तो इस कूचेमें कदम बढ़ाना । फिर तो एक बार कदम उठ चुकने पर वही कहावत हो जायगी, कि नीम का कीड़ा नीम ही में सुख मानता है। प्रेमिका के लिए प्रेमी पक्षियोंसे भी नीचे काठ पत्थर तक होने को धन्य मानता है यदि उनको प्रेमी और प्रेमिकाके मिलनका मुयवसर प्राप्त है तो बेकल प्रेमी प्रतीक्षा करते करते जब थक जाता है और सफल नहीं होता तब यही भावनाएं उसे शांत किया करती हैं। जवानीमें भी वह सोचने लगता है कि अब कितने दिन की जिंदगी है, अब भी प्रेमिका मिल जाय अन्यथा इसी प्रकार तरसते हुए संसारके बाजार से हाट उठते ही मनीराम उड़ न जांय, शरीर छूट न जाय । बिधना करी देह ना मेरी, रजउ के घर की देरी । आउत जात चरन की धूरा, लगत जात हर बेरी । लागी ज्ञान कान के वेंगर, बजन लगी बजनेरी । उठन चात अब हाट 'ईसुरी' बाट बहुत दिन हेरी । , प्रेमिका के घर की देहरी बनने की अभिलाषा प्रेमीको प्रेरित करती है और उसकी अपने शरीर से कहीं अधिक विशेषताएं बतलाता हुआ कहता है कि विधाताने ऐसा स्वर्ण-संयोग क्यों न उपस्थित किया जिससे आते और जाते हुए मुझे चरण-रज प्राप्त कर सकनेका तो सौभाग्य और सुअवसर तो मिलता ही रहता । ५६८ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोक-कवि ईसुरी प्रेमीके दर्शनों की प्यासी प्रेमिका कहती है कि यदि मेरा प्रेमी छल्ला बनकर मेरी उंगुलियोंमें रहता होता तो कितना सुविधाप्रद होता। जब मैं मुंह पोंछती तो वे गालोंसे सहज ही में लग जाते, जब मैं आंखोंमें काजल देती तो उनके अपने आप दर्शन हो जाते, मैं जब जब घंघट संभालती तब तब वे सन्मुख उपस्थित होते और इस प्रकार उनके लिए तरसना न पड़ता जो कउं छैल छला हो जाते, परे उंगरियन राते। मौं पोंछत गालन कौं लगते, कजरा देत दिखाते । धरी घरी चूंघट खोलत में, नजर सामने राते। मैं चाहत ती लख में विदते, हात जाई कौं जाते । 'ईसुर' दूर दरस के लाने, ऐसे काये ललाते । इधर प्रेमी भी कह रहा है कि फिरते फिरते मेरे पैरोंमें छाले पड़ गये हैं फिर भी मैं सङ्ग छोड़ने वाला नहीं । कंधेपर झोला डालकर घर घर अलख जगाता हूं, गलियों की खाक छान रहा हूं, रोड़ा बनकर इधर उधर भटक रहा हूं, सूखकर डोरी की तरह हो गया हूं, हाड़ घुन हो चुके हैं फिर भी तुम्हारे कृपा पात्र न बन सका। दो गीत देखिए हड़रा घुन हो गये हमारे, सोसन रजउ तुमारे। दौरी देह दूबरी हो गई, कर के देख उगारे। गोरे आंग हते सब जानत, लगन लगे अब कारे । ना रये मांस रकत के बंदा, निकरत नई निकारे । इतनउ पै हम रजउ कौं 'ईसुर', बनें रात कुपियारे । फिरतन परे पगन में फीरा, संग न छोड़ों तोरा । घर घर अलख जगाउत जाकें, टंगी कंदा पै झोरा । मारौ मारौ इत उत जावै, गलियन कैसो रोरा । नई रौ मास रकत देही में, भये सूक के डोरा । कसकत नई 'ईसुरी' तनकउ, निठुर यार है मोरा । प्रेमिका की तलाशमें दर्शनोंकी दक्षिणा मांगनेवालेके उद्गार देखिए जो कोउ फिरत प्रीतिके मारे, संसारी सों न्यारे । खात पियत ना कैसउं, रहते, वेस-विलास विसारे। ७२ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ ढुंड़त फिरत बिछुर गए नेही, जांचत हैं हर द्वारे। 'ईसुर' नई कोउ बेदरदी, दरस दच्छना डारे । प्रेम-पंथमें आसक्तिमें आकुलता और विरक्तिमें सान्त्वना मिल जाया करती है अब ना होबी यार किसीके, जनम जनम कौं सीके । समझे रइयौ नेकी करतन, जे फल पाये बदीके । यार करे से बड़ी बखेड़ा, विना यारके नीके। अब मानुस से करियो 'ईसुर', पथरा रामनदीके । इत्यादि कितने ही गीत इस विषयके सुने गये हैं। रामावतार और कृष्णावतार विषयक गीतोंके भी कुछ उदाहरण देखिएरामावतार कोपभवनमें रानी केकई राजा दशरथसे कह रही हैं कि हे राजाजी ! भरतजी राज पावें और श्रीरामजी वन जावें, यह वरदान मैं मांगती है। प्रतिज्ञा कर दीजिए कि चौदह वर्ष पश्चात् ही रामचन्द्रजी अयोध्या में श्रावें । राजा दशरथकी क्या दशा हो गयी है वह अनुभव ही करते बनती है । उन्हें आगे कुत्रां और पीछे खाई दिखलायी देती है-- राजा राज भरत जू पावें, रामचन्द्र बन जावें। केकई बैठी कोप भवन में, जौ बरदान मंगावें । कर दो अवध अवधके भीतर, चौदई बरसै श्रावें । श्रागे कुत्रां दिखात 'ईसरी', पाछे बेर दिखावें । भरत अयोध्यामें आ गये, रानी केकईसे वे कह रहे हैं कि मैया दोनों भाइयोंको वनमें भेज दिया है, पिताजीको स्वर्गमें भेजकर रघुवंशियोंकी नाव डुबा दी है। अरे माता कौशिल्या और सुमित्राके एक एक ही पुत्र तो था ! हे देव ! कैसे इस अवधकी लाज रहती है जब उसपर कालीकी छाया पड़ गयी है बन कौं पठै दये दोइ भैया, काये केकई मैया । पिता पढ़ सुरधाम, बोर दई, रघुबंसन की नैया । हती सुमित्रा कौशिल्या के, एकई एक उरैया । 'ईसुर' परी अवधमें कारी, को पत भांत रखैया। रावणको मन्दोदरी समझा रही है कि आपने मेरा कहना न माना । श्री सीताजी उनको रानी हैं जो अंतर्यामी हैं, यह सोनेकी लङ्का धूलमें मिल जावेगी अन्यथा सीताजी सहित श्रीरामचन्द्रजीसे मिल लो ५७० Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमने मोरी कई न मानी, सीता ल्याये बिरानी । जिनकी जनक सुता रानी हैं, वे हर अंतरध्यानी । हेम कंगूर धूरमें मिलजें, लङ्काकी राजधानी । लै केँ मिलौ सिकाउत जेऊ, मंदोदरी 'ईसुर' आप हात हरयानी, श्रानी मौत निसानी । सयानी । पाप करने से क्या कभी किसीने मेवा पाया है ? उससे तो नाश ही हो जाया करता है। देखिये उस रावण के यहां जिसको अभिमान था कि उसके एक लाख पूत और सवा लाख नाती हैं, यथा - कृष्णावतार इक लख पूत सवा लख नाती, ता रावन घर दिया न बाती । उस रावणके घर में कबूतर रहने लगे और महलों पर कौए उड़ने लगे । कोई पानी देने वाला न रहा, 'लुस पिण्डोदक क्रिया' वाली बात हो गयी को रौ रावन के पनदेवा, बिना किये हर सेवा । करना सिंघ करौ कुल भर कौ, एक नाड कौ खेवा । कालकंद अवधेस काट दये, जै बोलत सब देवा । बांकन लगे काग महलन पै, भीतर बसत परेवा । 'ईसुर' नास मिटाउत पाउत, पाप करें को मेवा । बुन्देली लोक कवि ईसुरी संसारी । गिरधारी, हमने कीनी यारी । होती, बहुत हती ऊपर तबियत भरी हमारी । जाकी, जनम जिंदगी हारी । मूरत, गोरी नई निहारी । अपनों तुमें जान काउ और सें करने हर हर तरां तुमारे तुलसी गङ्गा जामिन 'ईसुर' तकी स्याम की काले रंग पर सखियोंका व्यंग है, संसार में कालेकी बनस्थित गोरेको अधिक पसंद किया जाता है किन्तु सखियोंने गोरे की तलाश नहीं की, सांवलिया ही पर हर प्रकार संतोष किया और उन ही पर अपना जन्म और जीवन हार बैठी हैं । तुलसी और गङ्गा इसकी साक्षी हैं इससे बड़ी जमानत और किसकी किसे सम्भव है ? इसीलिए आपको अपना ही समझकर हम सबने आपसे मित्रता की । श्री राधिकाजीको ये अपनी उपास्यदेवी मानते थे, एकबार जब इनके सिरपर गाज (विजली) गिरते गिरते बच गयी तब आपने कहा था कि ५७१ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ हम पै राधा की सिवकाई, ऐसी कां बन पाई । उन कौं धुन से ध्यान लगा के, एकउ दिना न ध्याई । ना कभऊं हम करी खुसामद, चरन कमल चित लाई। प्रन कर पाप करत रये हो गश्रो, को को पुन्न सहाई । परत लाड़ली ईसुर जा सें, सिर से गाज बचाई । इत्यादि कितने ही भावपूर्ण गीत आपके विविध विषयों पर उपलब्ध हैं; किन्तु यहां उन सबकी चर्चा करना सम्भव नहीं । 'ईसुरी-प्रकाश' में वे संग्रहीत हैं। आशा है हमारे इस सफल लोक-कविका उचित सम्मान करने के लिए हिन्दीभाषा-भाषी सम्मिलित रूपमें उद्योग करेंगे और ईसुरीके यश-शरीरको, जो कि कविताओं और गीतोंके रूपमें यत्र तत्र सर्वत्र प्रचलित हैं, यथासाध्य एकत्रित कर सुन्दर-तम रूप देनेका प्रयत्न करेंगे। ५७२ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवर श्री गणपति प्रसादजी चतुर्वेदी श्री श्याम सुन्दर वादल प्राचीन भारतके पुराने तपोवनों एवं गुरुकुलोंको शिक्षाका अादर्श निःस्वार्थ भावसे अपने चारों ओर ज्ञानका वितरण करना है। गुरुकुलके उपाध्यायके समक्ष शिक्षण एक पवित्र कर्तव्य था जिसमें धनका कोई खास महत्त्व नहीं था। अाजकी अत्यन्त व्यय-साध्य और व्यापारिकता भरी शिक्षाप्रणालीके युगमें रहनेवाले लोग तो उस समयके कुलपतिकी परिभाषा जानकर आश्चर्य करेंगे कि दस हजार विद्यार्थियों के सम्यक् भरण, पोषण और शिक्षणका भार उसपर रहता था। परन्तु ऐसे लोगोंकी अभी भी कमी नहीं है जो इस परम्पराको आज भी जीवित रक्खे हुए हैं । अपने पूर्व-पुण्यों के फल-स्वरूप मुझे ऐसे ही एक महापुरुषके चरणोंमें बैठकर अध्ययन करनेका सुयोग मिला है । नीचेकी पंक्तियोंमें उनका पुण्य चरित्र चित्रित है। बुन्देलखंडके मऊ नगरके जुझौतिया ब्राह्मण-वंशमें श्री नन्हैलाल चौबेके द्वितीय पुत्रके रूपमें मेरे गुरुवर वि० संवत् १६२७ की ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमीको अवतीर्ण हुए थे। बचपनमें ही जननी और जनकके दिवगंत हो जाने के कारण चिरकाल तक आपपर बड़े भाईका कठोर संरक्षण रहा। "क्योरे गनपति पुरुखोंकी किसानी मिटा दै है रे। जौ गजाधर न हो तो दाने-दाने को तरसतो" इत्यादि वाग्वाणों की वर्षा होती रहती थी। चौबे जी अपने अग्रज के किसानी परिश्रमको जानते थे, उन्हें पिताका स्थानीय मानते थे. अतएव कभी उनकी बातोंका बुरा नहीं मानते थे। इन्होंने सब कुछ सहते हुए अध्ययन जारी रखा। चौथी कक्षा तक हिन्दी और उर्दू का ज्ञान प्राप्तकर आपने पन्द्रह वर्षके वयमें संस्कृतके अध्ययनका प्रारंभ किया था। श्री स्वामीप्रसाद सीरौटीयासे सारस्वत और सिद्धांतचन्द्रिका अापने दो ही वर्षमें समाप्त कर दी । सत्रह वर्षकी श्रायुमें आपने अपने घर पर एक निःशुल्क संस्कृत पाठशाला स्थापित कर दी थी। अब अध्ययन और अध्यापन दोनों साथ साथ चलने लगे। इन दिनों छतरपुर और मऊरानीपुर शेरवाजीके प्रसिद्ध अखाड़े बने हुए थे। छतरपुरमें इस साहित्यके आचार्य स्व० श्री गंगाधरजी व्यास थे और मऊरानीपुरमें पुरोहितजी। सयय समय पर इन दोनों ५७३ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ की दलोंमें भिड़न्त भी हो जाया करता था। यह द्वन्द्व कभी कभी तीन तीन रात चलता था, जिसमें जनता बड़ी दिलचस्पी लेती थी। एक बार जब उक्त दोनों गोलोंमें द्वन्द्व चल रहा था, तभी श्री चौबेजीने पुरोहित-गोलकी औरसे संस्कृतका एक स्व-रचित पद्य गाकर सुनाया। श्री व्यास-गोलमें इसकी जोड़का कोई छन्द कहनेवाला नहीं था । फलतः उसे हार मान लेनी पड़ी । पुरोहितजीने चौबेजीकी पीठ ठोंकी और उन्हें अपनी गोलका नेता बनाया। इतना ही नहीं इनकी ख्याति बढ़ाने के उद्देश्यसे श्री पुरोहितजीने अपने ही व्ययसे श्रीमद्भागवतकी प्रति मंगाकर और स्वयं ही यजमान बनकर इनसे विधिपूर्वक उसका श्रवण किया । इससे इनकी इतनी ख्याति फैली कि अब पुराणोंके द्वारा उनकी स्वतंत्र आजीविका भी चलने लगी। अब अग्रजकी कठोरता प्रेम और श्रद्धामें शनैः शनैः परिवर्तित होने लगी। उपर्युक्त घटनाके पश्चात् शैर-साहित्य के भंडारको भरनेमें चौबे जीने बड़ा योग दिया। उनके सम्बन्धकी ऐसी ही एक दूसरी घटना है । उक्त दोनों गोलों में प्रतिद्वन्दिता चल रही थी। दो दिवस हो गये थे। तीसरी रात भी जब आधी बीत चुकी थी तो व्यास-गोलकी अोरसे एक अमोघ अस्र छोड़ा गया जो संभवतः इस प्रकार था अम्बा को मिला चूड़ामणि किससे बताना । इस पे ही आज हार जीत मीत मनाना। कुछ क्षण पुरोहितजीकी गोलमें सन्नाटा रहा। श्रोता समझते थे अब पुरोहितजीको गोल हारी। अकस्मात् चौबेजीको सप्त-शतीके द्वितीय अध्यायके "क्षीरोदश्चोमलं हारमजरेच तथाम्बरं चूड़ामणि, तथा दिव्यं कुण्डले कटकानिच' की याद आ गयी, तत्काल ही उन्होंने गोलके एक आशुकवि स्व. श्री बोदन स्वर्णकारकी सहायतासे, लेखकको जैसा याद है, निम्न पद्य गाकर सुना दिया उपहार क्षीर सागर ने हार को दियो । ताही सौ दिव्य अम्बर चूड़ामणी लियो। देवन के अस्त्र शस्त्र दिव्य भूषण धारे । मैया ने असुर मारे भूभार उतारे। अपार भीड़में से सहसा तालियों की तड़ातड़ ध्वनि उठ पड़ी और जय पराजयका निर्णय हो गया। ___ इन्होंने दो ही वर्षमें नगरके तत्कालीन प्रसिद्ध ज्योतिषी श्री मथुराप्रसादजी तिवारीसे मुहूर्तचिन्तामणि, नीलकण्ठी, बृहज्जातक और गृहलाघव पंचतारा तक पढ़ लिया था। तिवारीजी ग्रहलाघव पंचतारा तक ही पढ़े थे, परन्तु चौबेजीने अपनी प्रखर प्रतिभा द्वारा सम्पूर्ण ग्रहलाघव और लीलावतीका गणित सिद्ध कर लिया था। एक वर्ष श्रापका बनाया हुआ पंचांग भी प्रकाशित हुआ था। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवर श्री गणपति प्रसादजी चतुर्वेदी दतिया निवासी स्व० श्री राधेलालजी गोस्वामीसे आपने यद्यपि षलिंग तक ही सिद्धान्तकौमुदी पढ़ी थी, परन्तु आपने अपने छात्रोंको पूर्ण सिद्धान्त-कौमुदी पढ़ायी है। टीकमगढ़के तत्कालीन विद्वान् श्री राजारामजी शास्त्री (रज्जू महाराज) से आपने न्यायशास्त्र पढ़ा था, एवं श्रागन्तुक विद्वानोंसे स-स्वर वेद पाठका भी अभ्यास कर लिया था। अब किसी विषयका छात्र आपकी पाठशालासे निराश होकर नहीं जाता था । आयुर्वेदके कितने ही छात्रोंने आपकी पाठशालामें अध्ययन कर उच्च परीक्षाएं दी हैं । यद्यपि आपने कोई परीक्षा नहीं दी पर आपके कई छात्रोंने शास्त्री परीक्षा तक उत्तीर्ण की है। कर्मकाण्ड, वैदिक यज्ञादिमें श्राप इतने ख्यात हो गये हैं कि अब तक दूर दूर तक आप प्रधान याशिकके रूपमें ले जाये जाते हैं। चौबेजी पुराणादिपर इतना सुन्दर प्रवचन करते हैं कि एक बार आपके पाणिनि व्याकरणके गुरु श्री गोस्वामीजी इतने मुग्ध हो गये कि जैसे ही श्री चौबेजी व्यासगद्दीसे उतरकर नीचे आये कि उन्होंने इनके पैर पकड़ लिये । चौबेजीको इससे अत्यन्त दुःख हुआ और गोस्वामीजीके चरणों में प्रणामकर पश्चत्ताप करने लगे । गोस्वामीजी बड़े भावुक थे, वे कहने लगे मैंने गणपति प्रसाद चौबेके नहीं पुराण प्रवक्ता भगवान् वेदव्यासके चरण छुए हुए हैं। आप दूर दूर पुराण प्रवचनके लिए जाने लगे। इन पंक्तियोंके लेखकको अन्ते-वासी होने के नाते कई बार ऐसे अवसरों पर आपके साथ जानेका सौभाग्य मिलता रहा है । माघमासकी विरल-तारिका, प्रभात कल्पा, रात्रि है, गुरुजीके स्नान हो रहे हैं । अपना नित्यका कर्म और नियमित सप्त-शतीका पाठ करके सूर्योदय होते न होते व्यासगद्दी पर बैठ जाते हैं,फिर सायंकाल चार बजे उठते हैं। कैसा उग्र तप है ? मैं तो अपनी किशोरावस्थामें भी उसे देखकर चकित हो जाता था। हेमन्तकी रात्रियां हैं, परीक्षार्थियों को पढ़ाते पढ़ाते बारह बजा देते हैं, और फिर उष:काल में उठकर छात्रोंको जगाकर फिर पढ़ाने लगते हैं। चालीस पैंतालीस वर्ष तक ऐसा निरन्तर एवं निःस्वार्थ अध्ययन कौन करा सकता है। छोटी सी लंगोटी लगाये, ग्वालोंको गाएं सौंप कर लौटते हैं, सहसा दीवान साहबकी सवारी आ जाती है, और इन्हींसे प्रश्न होता है चौबेजी कहां हैं ? आप उसी स्थितिमें अपना परिचय देते हुए उनका कार्य करने लगते हैं, कैसी सरलता है ? आपका प्रभाव न केवल विद्यार्थी समाज तक ही सीमित था परन्तु, साधारण जनता भी आपके तप, त्याग एवं सरलता आदि गुणों से प्रभावित थी और आपका सम्मान करती थी। जब सन् १९३० ई०में नगरमें साम्प्रदायिक अशान्ति हो गयी थी, श्री घासीराम जी व्यास उन दिनों जेल भेज दिये गये थे, तब तत्कालीन जिलाधीश डार्लिंग साहबने श्री चौबेजीको आग्रह पूर्वक शान्ति-स्थापना समितिका प्रमुख सदस्य चुना और अशान्ति पीड़ित दीन जनतामें चौबेजी द्वारा ही आर्थिक सहायता वितरित करायी। आपको भाषण-शक्ति अपूर्व थी। सनातन धर्मके महोपदेशक स्व. श्री कालूरामजी शास्त्रीने ५७५ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ नगरके कुछ ईर्ष्यालु पंडितोंकी प्रेरणासे एकबार शास्त्रार्थ के लिए इन्हें आहूत किया। आह्वान-पत्रमें शास्त्री जीने समय 'स्याम' के चार बजे लिखा था । श्री चौबेजीने 'स्याम' शब्दसे ही इस शास्त्रार्थका पूर्वपक्ष उठाया और अपना वक्तव्य समाप्त कर शास्त्रीजीके वक्तव्यकी प्रतीक्षा करने लगे। श्री शास्त्रीजी चौबेजीकी सर्वतोमुखी प्रतिभा पर मुग्ध हो गये और अपने वक्तव्यमें इनकी प्रशंसा कर आपके घनिष्ठ मित्र बन गये। वि० १९८४ के लगभग नगरके समस्त कहारोंने वैश्यसमाज के किसी व्यवहारसे असन्तुष्ट हो उनके यहां पानी भरना छोड़ दिया । सारे नगरमें खलबली मच गयी परन्तु किसीको कोई उपाय नहीं सूझता था। अन्तमें श्रीचौबेजीकी शरण ली गयी। नुनाई बाजार में एक विशाल सभाकी आयोजना की गयी जिसमें वर्ण धर्मों पर लगातार चार घंटे तक चौबेजीने वक्तृता दी । इस वक्तृताका कहारों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने वहीं अपनी उक्त हड़तालकी समाप्ति घोषित कर दी। ऐसो कितनी ही इन्होंने समाजकी मौन किन्तु महत्वपूर्ण सेवाएं की हैं। सरलता और स्वाभिमान उनके जीवन के मुख्य गुण रहे हैं । घमंड तो आपको छू भी नहीं गया, दम्भ तो आपसे कोसों दूर रहता रहा । निस्वार्थ भावसे विद्यादानकी इस साधनामें बड़े बड़े प्रलोभनों और विघ्नोंने बाधक बनना चाहा परन्तु दृढ़वती श्री चौबे जी पर उनका कोई असर न हुआ । टो. एन. बी कालेज राठ, (हमीरपुर ) के संस्थापक श्री ब्रह्मानन्दजीने जब सर्व प्रथम अपना विद्यालय खोहीमें स्थापित किया था तब संस्कृताध्यापन के लिए श्री चौबेजीसे उन्होंने बड़ा आग्रह किया था परन्तु चौवेजीने वेतन लेकर अध्यापन करना पसन्द न किया । चौबेजीके श्रद्धालु भक्त तत्कालीन मेडिकल आफिसर डा. प्रतापचन्द्र राय आपकी पाठशालाको सरकारी आर्थिक सहायता दिलाने के लिए जब जब आग्रह करते थे तभी चौबेजी अपने दृढ़-बतका निश्चय आप पर प्रकट कर देते थे। वि० संवत् १९७४ की महामारीमें इन पर एक महान् संकट आ पड़ा था। आपके एकाको विद्वान् युवा-पुत्र श्री रामप्रसादजी चतुर्वेदी, पुत्रवधू और अग्रज सब एक साथ चल बसे थे। केवल आप दम्पति ही अवशिष्ट रहे थे । इस घटनाने चौबेजीको पागल बना दिया । माताजी उक्त संकट और आपकी इस शोचनीय अवस्थाके कारण चिन्तासे सूखकर कांटा हो गयीं। इस दुखी दम्पतिको शोक-सिन्धुसे उबारने वाले थे स्व. श्रीब्रह्मचारी महाराज जिनके नामसे सुखनईके उत्तरी तटपर आज भी एक सुन्दर आश्रम बना है । जब ब्रह्मचारीजीने चौबेजीकी विक्षिप्त दशाका समाचार सुना तो स्वयं इनके घर दौड़े आये । वयोवृद्ध, प्रतिष्ठित एवं सुप्रसिद्ध होने के कारण आपके सान्त्वना-पूर्ण वचनोंका श्री चौबेजी पर बड़ा असर पड़ा। इतना ही नहीं, चौबेजीका ध्यान अतीत चिन्तनसे हटानेके लिए उन्होंने अपने ही आश्रममें बड़े धूम धामसे जुलूस निकालकर इनका श्रीमद्भागवत पुराण बैठा दिया । नगरसे दूर होने पर भी इस कथामें सैकड़ों नर नारी जमा हं.ने लगे । एक मासके इस महान् अनुष्ठानमें संलग्न होने से श्री चौबेजीको पर्याप्त ५७६ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवर श्री गणपतिप्रसादजी चतुर्वेदी आर्थिक लाभ तो हुआ ही सबसे बड़ा लाभ तो यह हुआ कि वे शोक के महान् भारको वहन करने योग्य हो सके । पाठशाला पूर्ववत् मुखरित हो उठी। ___गुरुजीकी इस पाठशालासे सैकड़ों छात्र विद्वान बन कर निकल चुके हैं स्व० श्री कृष्णनारायण जी भार्गव, सेक्रेटरी म्यू० बोर्ड झांसी और श्री गंगानारायण जी भार्गव, भूतपूर्व एम० एल० ए०, चेयरमैन डिस्ट्रिक्ट बोर्ड झांसी, और श्री गंगानारायण जी भार्गव, डिपुटी कलक्टर तथा श्रीयुत व्यासजी, आदि कितने ही महानुभावोंने इस पाठशालाकी खुली भूमिपर बैठकर संस्कृत साहित्यका अध्ययन किया है। मऊ नगर और तहसील में कदाचित् ही कोई ऐसा संस्कृतका पंडित होगा, जिसने चौबे जीकी पाठशालामें अध्ययन न किया हो। नगरके जिन विद्वानोंसे इन्होंने अध्ययन किया था उनके पुत्र और पौत्र तक आपकी पाठशालामें पढ़कर पंडित बने हैं । इन पंक्तियों के लेखकने तो गुरुदेवके श्रीचरणोंमें रह कर अनेक वर्ष व्यतीत किये हैं । खेतीकी देख-रेखके सिलसिलेमें उन्हींके साथ उनके 'हार'में, जो नगरसे छः मील की दूरी पर कैमाई ग्राममें है, जाकर कितनी ही हेमन्तकी निशाएं मचानके नोचे पयालमें लेटकर बितायी हैं। गुरुजी मचानके ऊपर पड़े पड़े रघुवंरा के श्लोक उठा रहे हैं और मुझसे व्याख्या करायी जा रही है । कभी-कभी तो इसी हार पर पूरी पाठशाला जम जाती थी। दोनों प.सलोंमें प्रायः पन्द्रह पन्द्रह दिन यहां गुरुजीको निवास करना पड़ता था। इससे साझेदार अधिक बेईमानी नहीं कर पाते थे और इन्हें खाने भर के लिए अन मिल जाता था। इस अवसर पर जितने छात्र वहां जाते थे सभीकी भोजन व्यवस्था गुरु-माता स्वयं करतो थों । जिन्हें इस महाप्रसाद पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उनका जीवन धन्य है। श्री चौबे जी के तीन पुत्र और दो कन्याएं हैं, सभी विवाहित हैं। दो वर्ष हुए श्रद्धया माताजी इहलीला समाप्त कर चुकी हैं । माताजीकी देख रेखमें एक बार आपकी आंखों का आपरेशन हो चुका था, अतएव शरीर यात्राके निर्वाह योग्य दृष्टि श्रापको प्राप्त है, इसके पूर्व एक वर्ष अन्धेपनका भी अनुभव करना पड़ा था। कनिष्ठ पुत्री के विवाहकी उलझनोंमें आपको बार बार बाजार जाना पड़ता था। दैवात् एक दिन सायंकाल को बाजार में ही दो गायों के बीच में पड़ जानेसे अापके पैरमें गहरी चोट आ गयी। फलतः तभीसे बड़ी कठिनाईसे चल पाते हैं । अब श्रवण शक्ति भी क्षोण हो चली है। फिर भी दो चार छात्र द्वार सेवन करते ही रहते हैं। और आपके ज्येष्ठ पुत्र श्री शिवनारायण जी चतुर्वेदीके कारण उन्हें निराश नहीं होना पड़ता । गुरुदेवने अपने शिष्योंपर अनन्य स्नेह रखा। उन्हें रहने के लिए अपना एक पूरा मकान दे रक्खा था, छात्र उनका ईंधन भी जला लेते थे, कितने ही निमंत्रणोंमें श्रापका प्रतिनिधित्व आपके छात्र ही करते थे। उनका भजन पूजन भी लगवा देते थे, एवं कितनी ही प्रकारसे आपने अपने छात्रों को सहायता प्रदान की है। प्रायः आपके सभी छात्रों की भावनाएं लेखककी इन भावनाओंसे भिन्न न होंगी और सभी उन्हें अपना सर्वस्व दाता मानते हैं। ७३ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनके खण्डहर श्री अम्बिकाप्रसाद वर्मा "दिव्य,' एम. ए. जाड़ेकी ऋतु थी. संध्याका समय । में अपने प्रांगन में बैठा धूप ले रहा था। इसी समय एक लड़की सिरपर टोकरी रक्खे आयी और बोली- 'बेर ले लो।' लड़की शायद पन्द्रह सोलह वर्षकी होगी, परन्तु यौवनके उसमें कोई चिन्ह नहीं दीख पड़ते थे। चिपटी नाक,अन्दरको घुसी हुई छोटी छोटी आंखें,मोटे मोटे ओंठ, सांवला रंग, ठिनगा कद, देखते ही ज्ञात होता था कि वह भाग्यकी ठुकरायी हुई है। जब कुछ काम नहीं होता तो कुछ खाना ही अच्छा मालूम होता है, यह भी एक मन बहलाव है । बोला-"देखू"। लड़की झिझकती तथा डरती हुई सी बेरोंकी खुली हुई टोकरी सामने रख प्रांगन में एक तरफ स्वाभाविक सुशीलतासे बैठ गयी, बैर बड़े बड़े और गदराए हुए थे। मेरी भूखी आंखोंने उनका स्वागत किया, परन्तु मेरी विना अाज्ञाके ही मेरी लड़की उन्हें खरीदनेको दौड़ी, श्राज्ञाकी क्या जरूरत थी, यह उसका रोजका काम था। मैंने उसके खरीदे हुए बैरों में से एक बैर उठाया और चक्खा, बैर मीठा था, अतः मुझे लड़कीके विषय में कुछ जिज्ञासा हुई । तू कहां की है ? "महराजपुराकी' लड़कीने दयनीय सी शक्ल बनाकर कहा । "तेरे और कौन है ?" मैं फिर योंही बेमतलब पूछा बैठा। “बूढा बाप और एक छोटा भाई"। "क्यों, मां नहीं है? "नहीं, वह तो मर गयी," ऐसा कहते लडकी की अांखों में आंसू आ गये। "कोन, ठाकुर है ?" "अहीर ।" "तो कुछ दूध मठठा घरे नहीं होता?" "कुछ नहीं, मांके मरजाने से सब घर बार बिगड़ गया । बाप बुड्ढा है, अांखोंसे भी कम दिखता है, ५७८ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनके खण्डहर उसका किया कुछ होता नहीं, भाई बिलकुल छोटा है वह क्या करने लायक है, देख रेख न होनेसे सब ढोर मर गये । कई नग गायें थीं कई नग भैंसें, अब कुल दो बैल बच रहे हैं, घी दूध कैसे हो।" __ "कुछ खेती पाती भी नहीं ?" मैंने पूछा । "दो खेत पड़े हैं, पर उनको जोतने वाला कौन है ? पड़े रहते हैं मुकतमें लगान भरना पड़ता है।" "तब गुजर कैसे होती है ?" "यही कवार करके, बैर बेच लिये या महुए बीन लिये ।" "तेरी शादी होगयी।" लड़की चुप थी, मैं समझ गया शादी होगयी है । मनमें एक प्रश्न और उठा जब यह लड़की अपनी ससुराल चली जावेगी तब उस बुड्ढे बापका क्या होगा ? पर ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जिनका उत्तर नियति ही दे सकती है मनुष्य नहीं । वह प्रश्न मनका मन ही में दब गया, मैं कुछ देर चुप रहा । ___ जब लड़की जानेको हुई मुझे एक बात फिर सूझी, मेरे हृदय में बहुत दिनोंसे नौकरीके अतिरिक्त कुछ दूसरा धंधा करनेकी इच्छा छिपी थी क्योंकि नौकरी में तो 'नौ खाये तेरहकी भूख' रहती है, विशेषकर रियासतों में । लड़कीसे उसके खेतोंकी बात सुनकर मेरी वह इच्छा जाग उठी, बोला-'खेत मुझे नहीं दे सकती ? 'मालिक ले लो, मैं तो ऐसा ही कोई आदमी चाहती हैं जो उन्हें जोतने लगे । मैं बापको भेजूंगी, आप बात कर लेना" ___ दूसरे दिन सबेरे मैं अपने कमरे में बैठा अपनी एक पुस्तक लिख रहा था । मेरे कमरेके सामने एक सेठजीका मकान है, सेठजी अपने दरवाजे पर खड़े थे। इतने में एक बुढा उनके सामने आकर खड़ा हो गया। कमरमें उसके चिथड़ोंकी एक लंगोटी थी, शरीर पर एक मैली लाल धोतीका जीर्ण शीर्ण टुकड़ा । कमर उसकी झुक रही थी शरीर भरमें झुर्रियां थीं,आंखों में धुंधलापन । उसे देखते ही सेठ जी समझे कोई भिखमंगा है। आवाज बुलन्द करके बोले-'उन पाठकजीके दरवाजे जा, वे मिनिस्टर हुए हैं, सबको सदावर्त बांटते हैं। “मैं सदावर्त लेने नहीं आया, मास्टर भैयाका मकान कहां है ?'' ''सामने जा" सेठजीने उसी बुलन्द आवाजमें कहते हुए उससे अपना पिण्ड छुड़ाया। मैं समझ गया वही बुड्ढा है, उसे बुलाया और बात शुरु की । वह बात बातमें कहता-'कहो हो', मुझे जबरन कहना पड़ता-'हां,' मुझे मालूम हुआ कि बुड्ढा बात करने में बहुत ही चतुर है । जात का अहीर है, जिन्दगी भर दूधमें पानी मिलाकर बेचता रहा होगा, एकके दो करता रहा होगा इत्यादि, Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ इत्यादि । अाखिर उसके खेत देखने के ब द कुछ तै करने का निश्चय किया, उसे किसी दिन संध्या समय आने को कहा। ___ एक दिन मैं स्कूलसे आया नहीं कि उसे दरवाजे पर डटा हुआ पाया । नागवार तो गुजरा परन्तु उसे वचन दे कुका था, उसके साथ जाना ही पड़ा। कई खेतोंको पार करके उसके खेतोंपर पहुंचा। खेती पातीका कुछ अनुभव तो है नहीं, सौदा भी इतना बड़ा नहीं था कि उसमें जादा चख चख की जाती। चालीस पचास रुपये की कुल बात थी क्योंकि बुडडा खेत बेचनेको नहीं सांझे पर उन्हें जोतनेको तैयार था। समझ लिया पचास रुपये न सही मनमें ऐसा हिसाब लगाकर बात तै कर दी। लिखा पढी कर देने पर बात आयी, मैंने उसे फिर समय दिया, वह फिर आया कई बार आया पर लिखा पढ़ीका कुछ साधन न मिल सका । आखिर एक दिन मैंने बला सी टालनेकी गरजसे दो रुपये दिये और कहा जाओ खेतों में काम शुरु करात्रो। लिखा पढ़ी फिर देखी जायगी। बड़ा रुपया लेकर चला गया। आठ दस दिन तक फिर नहीं आया। मैं समझ गया रुपया गये। आखिर एक दिन वह बाजार में मिला। मैंने पूछा —'क्यों रे फिर नहीं आया तूं । कुछ काम शुरु कराया ?' 'नहीं मालिक, मजदूर नहीं मिलते । अापके रुपया रक्खे हैं । मजदूर न मिले तो वापस कर जाऊंगा। सारे गांवसे कह कर हार गया । कोई नजदीक खड़ा नहीं होता। उसकी शक्ल देखकर मुझे उसके कहने में सचाई दीख पड़ी। ख्याल हुआ मजदूरों को मजदूर कहां रक्खे हैं और फिर आजकल । मैंने उसके ईमानकी परीक्षा लेनेकी गरजसे उसे कुछ दिनका और अवकाश देना उचित समझा : इसके बाद गर्मी की छुट्टियां आ गयीं, हमारा स्कूल बन्द हो गया और मैं दो महीने के लिए घर चला गया। जब लौटा वर्षा शुरु हो गयी थी। एक दिन सहसा उस बुड्ढेकी याद अायी प्रश्न दो ही रुपयेका था,परन्तु वह भी क्यों मुफ्त जावे। एक ग्रामीण उल्लू बनाकर ले जावे ! यह बात मुझे गवारा न थी। बुड्ढे पर क्रोध था रुपया उसके पुरखोंसे ले लेनेका संकल्प दुनियांकी धूर्तता कर, बेईमानी, दगाबाजी, बदमाशी, इत्यादि पर सोचता हुआ एक दिन उस बुड्ढे के घर जा ही पहुंचा। पर उसका घर देखते ही मेरे सारे विचार सहसा बदल गये। एक घर था, सामने छपरी जिसकी दो दो हाथ ऊंची मिट्टीकी दीवाले छप्परके बोझसे झुक सी रही थीं। छप्पर दीवालोंको दबाकर जमीनको छूनेकी कोशिश सी कर रहा था। दीवालें तब भी उस बुड्ढे के समान जीवन संग्राममें डटी हुई थीं, यद्यपि उनमें यत्र तत्र कूबड़ निकल रहे थे, मिट्टी खिसक रही थी, कहीं कहीं बड़े धुधुआ हो रहे थे, सामनेका घर आगेसे देखनेसे तो कुछ अच्छा मालूम होता था। दरवाजेमें किवाड़ लगे थे मगर पीछेसे वह भी भस-भसा गया था। प्रागेकी छपरी ही कुल रहनेकी जगह थी। पर उसकी छवाई नहीं हुई थी। उसमें इतना पानी टपक रहा था कि छपरीका सारा फर्श दल दल बन गया था। पैर रखनेको भी कहीं ५८० Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के खण्डहर जगह नहीं थी। इसी कीचड़ में वह बड़ा इक टूटी चारपायी पर जिसका विनाव झूलकर जमीनमें लग रहा था, लेटा था । मच्छर उसकी सेवा कर रहे थे, उसे अपना मधुर संगीत सुना रहे थे । वह उन्हें कभी इस तरफ हाथ पटक कर खदेड़ता था कभी उस तरफ । मेरे मन में पाया कि यदि दो रुपया और पासमें होते तो उसकी नजर करता। तब भी उसका मन लेने की गरजसे मैंने उसे आवाज लगायी वह मेरी श्रावाज सुनते ही बड़ा लजित सा विवश और लाचार सा कराहता हुआ चारपायीसे उठने की कोशिश करता हुआ बोला-'मालिक बीमार हूं।' सोचा--'तू बीमार न हो तो कौन हो ? खैरियत यही है कि तू अभी तक जीवित है । ऐसी जगह में ढोर भी यदि बन्द कर दिया जावे तो शायद रात भरमें खतम हो जावें ।' "पड़े रहो बब्बा" मैंने कहा। "कैसे पड़ा रहूं। आप मेरे घर आये हैं।" मैंने बहुत कहा पर बुड्डा न माना। आखिर अपने बुढ़ापेसे लड़ता हुआ लकड़ीके सहारे उस टूटी चारपायीसे उठकर लड़खड़ाता हुश्रा मेरे सामने आ खड़ा हुश्रा। कमरमें वही चिथड़ोंकी लंगोटी थी। शरीर पर वही लाल जीर्ण शीर्ण धोतीका टुकड़ा, वही चिथड़ोंकी लंगोटी थी। शरीरपर यत्रतत्र मच्छड़के काटने से पड़े हुए बड़े बड़े दाग । मैंने कृत्रिम कठोरतापूर्वक पूछा-'क्या बाबा 'मेरे रुपया नई देना।' यद्यपि उन्हें लेने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। "कल हाजिर हो जाय गे । दूसरेका माल कौन हजम होता है।" बुड्ढेने कराहते हुए कहा । मैंने दूसरी तरफ नजर फेंकी, बगलमें एक और कोठा था किवाड़ नदारद थे । उसमें बैल बंधते थे । उसे देखकर और मेरे होश हवास उड़ गये। कीचड़, मूत्र, गोबर आदि उसमें इस तरह सन रहे थे जैसे किसीने दीवाल उठाने के लिए मिट्टीका गारा तैयार किया हो। जब बुड्ढे का यह हाल था तब उसके मवेशियोंका यह होना स्वाभाविक ही था। मेरे न जाने कहां विचार गये ? मैंने उसके घरसे निकल कर एक आदमीसे जो समीप ही बैठा मुह धो रहा था, पूछा-'क्यों भाई इस बुड्ढे की कुछ सहायता नहीं कर सकते ? देखो कैसो बुरी हालतमें रह रहा है। सब लोग मिलकर हाथ लगवा दो तो बेचारेका घर ठीक हो जावे । ऐसे में तो मवेशी ही नहीं रह सकते । एक औरत दूर ही से कुछ नाराज सी होकर बोली-'उसकी लड़की है, दामाद है, जब वे नई करते तो दूसरे किसकी गरज है, करै न अपना ! मैंने कहा-'भाई आदमी ही आदमीके काम आता है, हो सके तो कुछ सहायता कर देना, ऐसा कहकर चला आया। ५८१ . Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ एक दिन जब संध्या समय स्कूल से लौटा तो उसकी लड़की घर पर खड़ी हुई मिली । बोली-मालिक ये आपके रुपये हैं ।' मैंने रुपये वापिस कर दिये । मैं सोचता हूं, हम बुद्धिजीवी लोग अपने और ग्रामीण जनताकी बीचकी बढ़ती हुई खाईको पाटनेका प्रयत्न कब करेंगे? इन गरीब किसान मजदूरों की ओर हमारे नेताओं और शासकों का ध्यान कब जायगा ? खुद ग्राम निवासीयों एक दूसरे की मदद करना कब सीखेंगे ? और जिस ग्राम संगठनकी बात हम बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं वह कब शुरू होगा ? ५८२ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभागा श्री यशपाल, बी० ए०, एल-एल० बी० वह अभागा अब इस संसार में नहीं है। कुछ दिन हुए, अपने संघर्षमय जीवनसे उसने मुक्ति पा ली। अब वह चैनकी नींद सोता है । संसारने जिसका तिरस्कार किया, समाजने जिसे ठुकराया,उसीको मृत्युने अपनी शीतल गोदमें प्रेमपूर्वक आश्रय दे दिया। उस नरकंकालका चित्र बार बार मेरे नेत्रोंके समक्ष प्रा जाता है। मैं उसे नहीं देखना चाहता । उस अोरसे अांखें मूंद लेना चाहता हूं । बुद्धिजीवियोंको ऐसे दृश्य हाड़-मांसकी आंखोंसे देखनेका अवकाश ही कहां? बुद्धिकी पकड़में जी चीज आ जाती है, वही उनके कामकी है । शेष सब निरर्थक हैं । पर मेरे शरीरमें हृदय अब भी स्पन्दन करता है और बुद्धि पूर्णतया उसे नष्ट कर देनेके प्रयत्नमें अभी तक सफल नहीं हो पायी। इसीसे उस अभागेका चित्र प्रायः मेरे मस्तिष्कमें सजीव रूपसे चक्कर लगाता रहता है। हम लोगोंने अपनेको चारों ओरसे पक्को परिधिसे वेर रखा है। परिधि अभेद्य है' और जहां-जहां द्वार हैं वहां लोहेके ऊंचे-ऊंचे फाटक चढ़े हैं। बाहरका दुख-सुख हम कुछ भी अपने तक नहीं आने देना चाहते । फिर भी वायु तो उन्मुक्त है, वह कोई बन्धन नहीं मानती। इसीसे चार कदम पर बसे जमड़ार, मिनौरा, नयागाांव, अादिकी अोरसे उड़ कर हवा आती है, और वहां निवास करने वाले मानव नामधारी प्राणियों के दुख-दारिद्यकी कथाएं हम तक पहुंचा जाती है। x सौ-सवासौ घरोके इस जमड़ार गांवके उस नुक्कड़ पर जो टूटी-फूटी झोंपड़ी दीखती है, उसी में वह अभागा वर्षांसे अपने जीवन के दिन गिन रहा था। श्वास-रोगने उसका सारा दम खींच लिया था। तिल्लोने बढ़कर उसके पेटमें बाल-भर भी स्थान न छोड़ा था तथा उसके हाथ-पैर सूख कर सोंक-जैसे हो गये थे। चिथड़ोंमें अपनी लाजको ढके अहर्निश वह परमपितासे विनती किया करता था, “हे नाथ, तुममें दया है तो मुझे उठालो। मैं अब जीना नहीं चाहता।" ५८३ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ जिनकी उपयोगिता नहीं, उनका जीना क्या । उसकी झोंपड़ी, उसके दो बच्चे, उसकी स्त्री दरिद्रताकी मानों साकार मूर्ति थे । बाप तो रोगी था। मां खेतो में मजूरी कर कुछ कमा लाती थी, जिससे उन चारों प्राणियोंका जैसे-तैसे काम चल जाता था। स्त्रीके पास तन ढकनेके लिए एक धोती थी; लेकिन बच्चों को एक घजी भी नसीब न थी और उनकी कायासे पता चलता था कि दिन उन्हें उपवास करना पड़ता है और अधभूखे तो वे हमेशा ही रहते हैं। वे तीन भाई-बहन थे, लेकिन एकको भगवानने छीन लिया। मां को यों दुःख तो हुआ; लेकिन बाद में उसने संतोषकी सांस ली कि चलो, दुखसे एकको छुटकारा मिला ! उसे सब 'पंखा' कह कर पुकारते थे। जब उसकी बीमारीका समाचार मुझे मिला तो एक संध्याको डाक्टरको लेकर मैं वहां पहुंचा। दोनों बच्चे हमें घेरकर आ खड़े हुए। बेचारी मां ने बहुतेरा चाहा कि गरीबीका अपनी वेबसीका, यों प्रदर्शन न होने दे, कुछ तो डाल दे ; लेकिन हाय, वह तो असहाय थी । भीतर-ही-भीतर पीकर रह गयी । और बच्चोंके तन पर दो घूंट आंसुत्रों के मैंने कहा, “तुम्हारे आदमीको देखने डाक्टर आये हैं । " आशाकी एक लहर उसके चेहरे पर दौड़ गयी । उसके भीतर छिपे दुखको मानों किसीने छू दिया। कातर वाणी में उसने कहा, "डाक्टर साहब, जैसे बने, इनको श्राराम कर दीजिये । ये उठ गये तो फिर मैं कहीं को न रहूं गी ।" दोनों अबोध बालक मांकी श्रोर एकटक देखते रहे और मांके वे शब्द झोंपड़ीके न जाने किस कोने में विलीन हो गये । डाक्टरने जेब से नली ( स्टेथसकोप) निकाल कर रोगीके हृदयकी परीक्षा की, लिटा कर पेट देखा, आंखों के पलक नीचे ऊपर कर जांच की और फिर कुछ देर गंभीर हो सोचनेके उपरांत बोले, ‘This case is hopeless' ( इस रोगीके बचने की कोई आशा नहीं । ) मैं कुछ बोल न सका और मां-बच्चे आशाभरी निगाह से डाक्टरकी ओर देख रहे थे सो देखते ही रहे । डाक्टरने कहा, "देखो न, इसकी तिल्ली इतनी बढ़ गयी है कि यह ठीक तौरपर सांस भी नहीं ले पाता ।" स्त्रीने गिड़गिड़ाते हुए कहा, "डाक्टर साहब सच कहिए. क्या इन्हें आराम हो जायगा । आप ही हमारे " कहते-कहते स्त्रीका गला भर आया । डाक्टर के मुंहसे अनायास ही सांत्वना के दो शब्द निकल पड़े "घबराओ नहीं, हम इसकी दवा करेंगे। शायद आराम हो जाय ।" ५८४ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री जी खाया कि डाक्टर चरणों में अपना सिर डालकर कहे कि डाक्टर, तुम हमारे परमेश्वर ही इनका इलाज तो तुम्हें करना ही होगा और कुछ नहीं तो मेरी खातिर, इन नन्हें बच्चों की खातिर, हमारी गरीबी की खातिर ! लेकिन बाहरके दो-चार लोग खड़े थे, इसलिए लाजके मारे मनकी बात मनमें ही मार कर रह गयी। कहा, "दवाके लिए किसी आदमीको तुम्हें रोज अस्पताल चलते-चलते डाक्टर ने भेजना होगा ।" अभागा स्त्रीकी बेबसी फिर उमड़ आयी । विनीत भावसे बोली, "मेरे घर में कौन बैठा है जिसे चार मील भेजूं ? मैं हूं, सो पेटके लिए मजूरी पर जाऊं कि दवा लेने ?" मैंने कहा, "डाक्टर, क्या संभव नहीं कि आप इसे अस्पताल में भरती कर लें ? वहां आप इसकी अच्छी तरह देखभाल भी कर सकेंगे और रोज-रोज दवा लानेका संकट भी न रहेगा ।" डाक्टर बोले, "हां, भरती किया जा सकता है ।" मैंने उस स्त्रीसे कहा, “देखो, कल इन्हें गाड़ीमें लिटाकर अस्पताल पहुंचा आना । वहीँ पर ये रहेंगे और इलाज होगा। कपड़ा, खाना सब अस्पताल से मिलेगा ।" अतिशय कृतज्ञता से भर कर उसने कहा, "अच्छा।" और हम लोग चले आये । X X X चौथे दिन डाक्टर श्राये, बैठते ही मैंने कहा, "कहो भाई, उस रोगीका क्या हाल है ? कुछ फायदा दिखा १" वे बोले, "फायदा ? अरे, वह तो पहुंचा ही नहीं ।" बड़ी झलाहट हुई । मुझे तो पक्का भरोसा था कि अगले दिन सुबह ही उस स्त्रीने रोगीको अस्पताल पहुंचा दिया होगा । डाक्टरने कहा, "तुम जानते नहीं, ये लोग बड़े बालसी है अम्मल दर्जेके लापरवाह । आदमी मर जाता है, तभी इनकी आंखें खुलती हैं ।" थोड़ी देर बाद जब डाक्टर चले गये तो गुस्से में भरा सीधा जमदार पहुंचा और उसकी झोंपड़ी पर जाकर आवाज लगायी कोई जवाब नहीं आया मैं भीतर घुसा चला गया। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। दो-चार मिट्टी लकड़ी के बर्तन इधर-उधर पढ़े थे। कोटे दरवाजे के पास जाकर मैंने कहा, "कोई है ?" ७४ ५८५ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उत्तरमें पांच छह बरसकी नंग-धडंग लड़की आ खड़ी हुई । मैंने कहा, "तुम्हारी मां कहां है?" इतने में उसकी मां भीतर निकल कर आयी। उसका चेहरा उतरा हुआ था। झुझलाहटके साथ मैंने कहा, “तुमने उसे भेजा नहीं ?" मेरे इस प्रश्नका क्षण भर वह कोई उत्तर न दे सकी। मैंने फिर कहा, “डाक्टर तुम्हारे सामने ही तो कह गये थे कि अस्पताल में भरती कर लेंगे, फिर भेजनेमें तुम पर क्या बोझ पड़ा।" स्त्रीने अब होठ खोले । बोली, “भेजती किसे ? वे तो उसी रातको उठ गये।" उसका प्रत्येक शब्द मेरे हृदयको बेधता हुआ पार निकल गया । गर्दन झुकाये मैं चुपचाप वहांसे चला आया। - ५८६ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनसुखा और कल्ला श्री पं० बनारसीदास चतुर्वेदी १० जुलाई सन् १९४२ दिन भर पानी बरसता रहा था। शामको फुहार पड़ रही थी। टहलने के लिए हम सडककी श्रोर निकल गये थे और लौट ही रहे थे कि इतनेमें मनसुखा बेलदार (कुम्हार) उधरसे आता हुआ दीख पड़ा । हाथमें एक कपड़ा था, जिसमें बहुतसे जामन बंधे हुए लटक रहे थे। मैंने मजाकमें कहा"ठहरो ! यहां डाकू हैं ! लामो सब माल असबाब धर दो !" मनसुखा मुसकराने लगा और अपनी पोटरी हमारी ओर बढ़ा दी। हमने आठ-दस जामन ले लिये । जामन पासके पेड़ों के ही थे और उन दिनों जम्बू वृक्षोंका अखण्ड दान चल रहा था और प्रत्येक पथिक मनमाने जामन खाता चला जाता था। ११ जुलाई सड़कपर पत्थरके टुकड़े डालनेकी मजदूरी मनसुखाने कर ली थी। नदी-तलमें वह पत्थर तोड़ रहा था। गधे पास ही खड़े हुए थे । बच्चे पत्थर बीन रहे थे। मैंने पुल परसे अावाज दी "मनसुखा तुम्हारी तस्वीर बहुत अच्छी आई है । बच्चोंके फोटो भी ठीक उतरे हैं।" मनसुखाने कहा-"सो तो ठीक, पर तस्वीरें हमें दिखाश्रो तो सही।" मैंने कहा-"अक्छा कल आना, सब फोटो दिखला दूंगा, पर दूंगा नहीं ! एक तस्वीर पांच पाने में पड़ती है।" मनसुखाने कहा-'अच्छा पंडितजी, पांच आने पक्के रहे ।" १२ जुलाई मनमुखा हमारे बगीचे पर आया और बोला-"पंडितजी कहाँ मुरम (पथरीली मिट्टी) गिराना चाहते हैं?" मैंने कहा-"यही प्रामके पेड़ोंके नीचे, जहां कीचड़ बहुत हो जाती है।" १३ जुलाई ५८७ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ सुना कि पास के गांव के किसी कुम्हार और उसके बच्चे को सांपने काट खाया है । उस वक्त हमें मनसुखाका खयाल भी नहीं आया । शामको खबर मिली कि मनमुखा और कल्लाको ही सर्पने काटा था और दोनों ही मर गये ! हृदयको बड़ा धक्का लगा । मनसुखा और उसके कुटुम्बके सभी प्राणियोंने हमारे बगीचे में बहुत दिनों तक मजदूरी की थी। सब घरवाले बाल बच्चे लगे रहते थे । ६ गधे भी साथ थे और तत्र एक रुपया रोज उन्हें मिलता था । उस समय मैंने आठ-दस चित्र लिये थे । "मजदूर के जीवन में एक दिन" शीर्षक लेख लिखनेका विचार था । चित्र बनकर बहुत दिन पहले ही आ गये थे, पर मैं अपने प्रमादवश उन्हें मनसुखा तथा उसके बक्चोंको अभी तक दिखला नहीं पाया था। जब कभी जिक्र आता तो कह देता, "अच्छा भाई, कल आना । " वह 'कल' नहीं आया, काल आ गया ! : मनसुखा और कल्ला उस धामको चले गये, जहांसे कोई वापस नहीं लौटता | चार दिन बाद मनसुखाकी है, उजियारी अपनी दुःख गाथा सुना रही थी -- “इतवारकी रातको वे फारमकी और धरमदास बाबाकी पूजा करने गये थे नौ बजे लौट आये रातको तीन बजे होंगे। उन्होंने कहा, "जगत है का ? मोय काऊने काट खाऔ ।" भीतर मेरा लड़का कल्ला पड़ा हुआ था । पासमें तीन बहनें और एक बुआ की लड़की लेटी हुई थी । कल्ला बोला “हमैं सोऊ काट खाऔ । मोय गुलगुलौ लगो तो " लड़कियोंको सांपने छुआ भी नहीं बाप बेटे दोनों को गाड़ी पर सवार कर टीकमगढ़ ले गये। बहुत इलाज किया पर कोई बस नहीं चला। अगर कल्ला (लड़का ) भी बच रहता तो मैं किसी तरह सन्तोष कर लेती। दोनों चले गये ।" इसके बाद कुम्हार आंखोंसे आंसू, टपकाती हुई बोली "जैसी विपता मोरे ऊपर परि गई उसी काऊ पै न परी होइगी ।" कल्पना तो कीजिये उस मज़दूर औरत के दुर्भाग्यकी जिसका पति और ग्यारह वर्षका लड़का दोनों एक साथ मृत्युके मुख में चले गये हों ! अब वह कुम्हारिन है और उसके चार बच्चे हैं, तीन लड़कियां और लड़का, जो डेढ़ महीने का है। यद्यपि उनके पिताको मरे अभी चार दिन भी नहीं हुए थे, वह दस बरसकी भगवन्ती मज़दूरी पर गयी हुई थी और सात सालकी मुनिया, छह सालकी त्रिनिया आश्चर्यचकित नेत्रों से अपने पिता तथा भाईकी तस्वीरें देख रहीं थी। डेढ़ महीने का मन्नू भी इस दृश्यको देख रहा था । जब मैंने वह चित्र दिखलाया, जिसमें कल्ला घोड़ीपर चढ़ा हुआ था और बगल में बाप खड़ा हुआ था तो कुम्हारिन विह्वल हो उठी। रो-रो कर कहने लगी "हां टीकाको यो तो बेटा, तुम्हारे हिंगा" कल्लाका विवाह हो चुका था । ५८८ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनसुखा और कल्ला कुम्हारिनके चहरेसे अनन्तवेदना टपक रही थी। मैं सोच रहा था "क्या बनावटी कहानियां इस सच्ची घटनासे अधिक करुणोत्पादक हो सकती हैं ?" इसके बाद मैंने कई महानुभावोंसे मन सुखा और कल्लाको दुर्घटनाका जिक्र किया है । श्रीयुत 'क' महाशय, जो लखपती आदमी हैं, बोले, 'हां ऐसी घटनाएं अक्सर घटा करती है । क्या किया जाय ?" 'ख' महोदयने कहा, "हां सुना तो हमने भी था । सांप छप्पर पर से गिरा था। खैर ।" 'ग' ने साफ ही कह दिया, "आप भी कहां का रोना ले बैठे ! हम किसीको दोष नहीं देते । स्वयं हम भी कम अपराधी नहीं हैं। हमारे पास सांप काटेकी दवाई (लैक्सिन) रक्खी हुई थी पर अपने आलस्य या लापर्वाहीके कारण उसकी सूचना हम अासपासके ग्रामों तक नहीं भेज पाये थे। जब निकटकी एक बुढ़ियाने कहा, "कुम्हारिन भूखों मरती है, उस दिन शामको मैं रोटी दे आयी थी", तब हमें उस भारतीय प्राचीन प्रथाका स्मरण आया जिसके अनुसार मातमवाले घरपर पासपड़ौसियों द्वारा भोजन भेजा जाता है । मैं दुबख्ता चाय पी रहा था और नियमानुसार सुस्वादु भोजन कर रहा था और पड़ोसके ग्राम में पांच प्राणियों पर यह वज्रपात हुआ था, मैं उस प्राचीन प्रथाको भी भूल गया ! यह था जनताको सेवा करनेका दम्भ रखनेवाले एक लेखककी संस्कृतिका हृदय-हीन प्रदर्शन ! अपने पति और पुत्रको एक साथ ही खोकर वह कुम्हारिन न जाने किस तरह अपने चार बच्चों का पालन कर रही है। पुस्तकों अथवा लेखों द्वारा नकली ज्ञानका सम्पादन करने वाले लेखक उसकी असीम वेदनाकी क्या कल्पना भी कर सकते हैं ? "दुखके एक कण में जितना ज्ञान भरा हुआ है उतना साधु महात्माओंके सहस्त्रों उपदेशों में नहीं" सुप्रसिद्ध आस्ट्रियन लेखक स्टीफन ज्विगका यह कथन सर्वथा सत्य है । ___ कुण्डेश्वर (टीकमगढ़) के निकट नयेगांव में करुणाकी उस साक्षात् मूर्तिको श्राप मजदूरी करते हुए पावेंगे। उसके ये वाक्य अब भी मेरे कानों में गंज रहे हैं"मदद देवे को को धरो है ? बिपता में को की को होय !" सच है-"दीनबन्धु त्रिन दीनकी को रहीम सुधि लेह" ५८९ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ Who never ate his bread in sorrow, Who never kept the midnight hours. Weeping and waiting for the morrow, They know you not, Ye heavenly powers. [ ए दैवी शक्तियो ! वे मनुष्य तुम्हें जान ही नहीं सकते, जिन्हें दुःखपूर्ण समय में भोजन करने का दुर्भाग्य प्राप्त नहीं हुआ तथा जिन्होंने रोते हुए और प्रातःकालकी प्रतीक्षा करते हुए रातें नहीं काटीं ।] --महाकवि गेटे मैं मंदाकिनिकी धवल धार श्री चन्द्रभानु कौर्मिक्षत्रिय 'विशारद' है विन्ध्याचलकी पुण्य गोदमें मेरा जन्मस्थल समोद । गिरिके उपलों में कर कलकल, मैं करती बाल विनोद सरल ।। गिर-गिर कर उठती बार-बार, मैं मंदाकिनि की धवल धार । मैं बन जाती निर्मल निझर, करती हर-हर के सुन्दर स्वर । होकर आकर्षित दर्शकगण, देखें मेरा अद्भुत जीवन ॥ देती कविको अनुपम विचार, मैं मंदाकिनि की धवल धार ।। मैं चट्टानों में गिर-गिर कर, बिखराती हूँ मुक्ता सुन्दर । फिर उन्हें मिटाकर अति सत्वर, बतलाती हूं-यह जग नश्वर ।। यों पहनाती उपदेश-हार, मैं मंदाकिनि की धवल धार । ५९० Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजान अहीर श्री पं० बनारसीदास चतुर्वेदी "पंडित जी, गाड़ी ले लूं ? सुजान को बाय आय गई है, " सुजान अहीर के बूढ़े बाप ने कहा। "जरूर ले लो, सबसे पहले तुम्हारा काम होना चाहिए, पर किस को बला रहे हो?" मैने पूछा वह बोला, "हवलदार को हवलदार नाम का भी कोई वैद्य या डाक्टर है यह मैं नहीं जानता था, मैंने झुझला कर उस बूढ़े से कहा- 'तुम भी अजीब आदमी हो, इतनी देर से खबर क्यों दी ? डाक्टर साहब को क्यों नहीं बुलाया ? सुजानके बूढ़े बाप का चेहरा उतरा हुआ था, उसकी हक्की बक्की भूल गयी थी, वह कोई उत्तर नहीं दे सका. तब मेरी समझमें यह बात आयी कि.उस बूढ़े से, जिसका जवान लड़का कई दिन से सन्निपात में मृत्यु शय्या पर रक्खा हो, समझदारीकी उम्मीद करना ही महज हिमाकत है, मैंने फिर भी डाक्टर साहब को पत्र लिख दिया, पर हम लोग नगरसे चार मील दूर रहते हैं, सवारी का कोई प्रबन्ध नहीं: और डाक्टर साहब दूसरे दिन शाम को पा सके-सुजान की मृत्यु के पांच घंटे बाद ? इस में उनका कोई अपराध नहीं था, उन जैसे सहृदय, कर्तव्यपरायण और सुयोग्य डाक्टर बिरले ही होंगे, पर अकेले वे क्या कर सकते हैं ? ओरछा राज्यमें शिक्षा चार फीसदी है और इककीस सौ वर्गमीलके नौ सौ ग्रामों में एक अस्पताल और तीन डिस्पेन्सरी हैं। सुजानका पिता अपने तीन पुत्रों को खोकर अब भी गाय बैल चराता हुआ कभी नजर श्राजाता है, जब मैं उसे देखता हूं हृदयको एक धक्का सा लगता है। मैंने उसको कहा था, तुम्हारा काम सब से पहले होना चाहिए पर क्या हम लोगोंने सुजान और उसके भाई बन्धुत्रोंका, सर्वोपरि तो क्या, कुछ भी ख्याल रक्खा है ? क्या हमने कभी यह सोचा है कि चारों ओरकी जनताके कल्याणमें ही साहित्यिकका भी कल्याण है ? Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ टूडे खंगार और भगौना धीमर, सरला धोबी और चतुरी सुन्नाबसीर और घंसा काछी ही वस्तुतः पृथ्वीपुत्र हैं; उनकी उपेक्षा करनेवाला साहित्य वास्तवमें एकाङ्गी है; यही नहीं, वह दर-असल श्रापित भी हैं, वह न कभी फूलेगा फलेगा। आज फिर बरसातमें भीगता हुआ सुजानका बूढा बाप दीख पड़ा और मैं सोचता हूं कि ये सेवासंघ, ये पूजा मण्डल, ये मन्त्री महोदय, ये धारा-सभा, ये नेतागण और ये हमलोग (रियासतोंके पालतू, फालतू साहित्यक) आखिर किस मर्जकी दवा हैं ? DDDD ५९२ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत कालमें बुन्देलखण्ड श्री विष्णु, प्रभाकर जमुना ( यमुना ),नर्मदा (रेवा), चम्बल (चर्मण्वती) और टोंस (तमसा )से परिवेष्टित भूभागको आज बुन्देलखण्ड कहा जाता है। कवि ने इसकी सीमाको इस प्रकार स्पष्ट किया है-. यमुना उत्तर और नर्मदा दक्षिण अंचल । पूर्व अोर है टोंस पश्चिमांचल में चम्बल ॥ उरपर केन, धसान. वेतवा, सिंध नदी है। विकट विन्ध्यकी शैल-श्रेणियां फैल रही हैं। विविध सुदृश्यावली अटल आनन्द-भूमि है। प्रकृति छटा बुन्देलखण्ड स्वछन्द भूमि है ।। इस भूभागका ढलान दक्षिणसे उत्तर को है। नर्मदाके उत्तरी कलपर महादेव और मैकाल श्रेणियों तथा अमर कंटकसे प्रारम्भ हो कर यमुनाके दक्षिण कूल पर पहुंचता है । आज यह प्रदेश भारतके चार प्रान्तोंमें बंटा हुआ है। उत्तर तथा पश्चिमोत्तरका प्रदेश युक्तप्रान्तमें है। दक्षिण में सागर तथा जबलपुर जिले मध्यप्रान्तमें हैं । भोपाल केन्द्रके पास है । पश्चिमकी अोर नवनिर्मित मालवसंघमें पुराने सिंधिया राज्यका कुछ भाग है । मध्य में बुन्देलखण्डका वह भाग जो छोटे छोटे राज्यों में बंटा हुआ था अब विंध्यप्रदेश कहलाता है । यद्यपि इतिहास इस बात का साक्षी नहीं है कि बुन्देलखण्डकी यह सीमा कभी दृढ़तासे मान्य रही है, इसके विपरीत यह समय समयपर विस्तृत और सकुंचित होती रही है तो भी भूमि, भाषा तथा बोलीकी दृष्टिमे यह सीमा स्वाभाविक है। इतिहासमें इस प्रदेशके अनेक नाम प्रचलित रहे हैं, बुन्देलखण्ड विन्ध्येलखण्ड ( विन्ध्य इलाखण्ड) जेजाक (या जीजाक) भुक्ति, जुझारखण्ड, जुझौति, वज्र, चेदि और दशार्ण । बुन्देला राजपूतोंकी क्रीड़ाभूमि होनेके कारण बुन्देलखण्ड और विंध्या अटवीमें स्थित होनेके कारण यह विन्ध्येलखण्ड कहलाने लगा वैसे बुन्देल स्वयं विन्ध्येलका अपभ्रंश हैं । बुन्देल गाहड्वालोंके वशंज थे जो विंध्यमें रहनेके कारण बुन्देले कहलाये । स्वर्गीय श्रीकृष्ण बलदेव वर्माके मतानुसार वैदिक कालीन यजुर्वेदीय कर्मकाण्डका प्रथम अभ्युदय इसी प्रदेशमें हुआ था। इसी कारण इसका नाम “यजुर्होती" हुआ जो कालान्तरमें बिगड़ कर 'जीजभुक्ति"बनगया। बुन्देलोंसे पहिले यहां पर चन्देल राजपूत राज्य करते थे। चन्देल शब्द चेदिसे निकला जान । (१) श्री मुंशी अजमेरी (२) इतिहास प्रवेश ( जय चन्द्र विद्यालंकार ), पृष्ट २५५. (३) मधुकर, बुन्देलखड प्रान्त निर्माण अंक, पृष्ट ३४७. ७५ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पड़ता है । इस कुलमें जेजाक या 'जयशक्ति' नामका एक प्रतापी राजा हा वह सम्भवतः विक्रमकी दसवों शताब्दीके अन्तमें रहा बताते हैं । उसीके नाम पर यह प्रदेश कुछ काल तक 'जेजाक भुक्ति' (या जीजाक भुक्ति या जेजा-मुक्ति ) कहलाता रहा। जुझौती और जुझारखण्ड इन्हीं नामोंके अपभ्रंश है । ये सब नाम अपेक्षाकृत अर्वाचीन हैं। महाभारत से जिन नामोंका सम्बन्ध वे केवल दशार्ण और चेदि हैं । दशार्ण इस प्रदेशमें बहनेवाली एक नदीका नाम भी है । आजकल वह "धसान" कहलाती है । कात्यायन, कौटिल्य, कालिदास, और उससे भी पूर्व महाभारतमें इस देशका वर्णन आया है। "प्रबत्सतर कम्बलवसनार्ण दशानामृणे" "दशाों देशः च दशार्णा" यह वातिक सिद्धान्तकौमुदीमें कात्यायनके नाम से लिखा है। अर्थशास्त्र में भी कौटिल्यने "दशाभवापराजित" कहकर बुन्देलखण्डमें पैदा होने वाले हाथियोंको उत्तम कहा है ।” दमयन्ती जब नलसे बिछुड़ कर चेदिके मार्गपर जा रही थी तब उसके साथके काफलेको हाथियोंने मार डाला था। महाभारतमें केवल वेत्रवती ( वेतवा ) और शुक्तिमती ( केन ) के बीचका प्रदेश दशोण कहा गया है । समूचे प्रदेशको कभी दशाणं नहीं कहा गया परन्तु श्री पं० गोविन्दराय जैनने इस नामकी एक नयी व्युत्पत्ति खोज निकाली है। दशाणं का अर्थ है दश जल । अण जल को कहते हैं । जिस प्रकार पांच नदियोंका प्रदेश होनेके कारण भारतका एक पश्चिमोत्तर भूभाग पंजाब कहलाया उसी प्रकार दस नदिपोंका देश होनेके कारण बुन्देलखण्ड भी दशार्ण कहा जा सकता है ! उन दस नदियोंके नाम ये है–धसान (दशार्ण), पार्वती, सिन्ध, बेतवा (वेत्रवती), चम्बल ( चर्मण्वती) जमना ( यमुना ), नर्मदा (रेवा ), केन (शुक्तिमती) टोंस ( तमसा ) और जामनेर है। इतिहास इस व्युत्पत्तिका समर्थन नहीं करता। महाभारत कालमें जिस प्रकार एक भागका नाम दशाण था उसी प्रकार दूसरे भागका नाम 'चेदि" भी था। राजा विदर्भके पोते चिदि के नामसे चर्मण्वती और शुक्तिमती के बीचका यमुनाके दक्खिनी कांठेका प्राचीन भारतीय प्रदेश चेदि कहलाने लगा। वही आज कलका बुन्देलखण्ड है। राजा विदर्भ यदुवंशी थे । वे प्रतापी परावृटके पड़ोते थे जो पुरूरवाके पौत्र नहुषके पुत्र ययतिसे लगभग ३० पीढ़ी बाद हुए अर्थात् ३६ वीं पीढ़ीमें । पुरूरवा, नहुष और ययाति वैदिक साहित्य के सुप्रसिद्ध चन्द्रवंशी राजा हैं। चन्द्रवंशी आर्य भारतमें सूर्यवंशी आर्यों के बाद आये थे और प्रतिष्ठान इनकी राजधानी थी। ययातिके पांच पुत्रोंमें पुरु जो सबसे छोटा (४) बुन्देलखण्डका सक्षिप्त इतिहास, गोरेलाल तिवारी, पृष्ट ४२. (५) मधुकर, बुन्देलखण्ड प्रान्त निर्माण अंक, पृष्ट २६५ (६) मधुकर, प्रान्त निर्माण अकं, पृष्ठ २६५. (७) भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृष्ठ १८० ५९४ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत कालमें बुन्देलखण्ड था पैत्रिक राजका अधिकारी हुआ। सबसे बड़े यदु के हिस्सेमें शुक्तिमती, वेत्रवती और चर्मण्वती के आसपासके प्रदेश आये । बुन्देलखण्डका अधिकांश भाग इसी प्रदेशमें आ जाता है। तुर्वसुको जो भाग मिला था वह साधारणतया आजकलका बुन्देलखण्ड है। उस कालमें यह कारूष देश कहलाता था । यह पुराना राज्य था जिसे; कहते हैं मनुके एक पुत्र करुषने बसाया था। दुह चर्मण्वती के उत्तर और यमुनाके पश्चिममें स्थित भूभागके स्वामी हुए और अनुको जो प्रदेश मिला वह अयोध्याके पश्चिम तथा गंगा यमुनाके उत्तर में था । यह मोटे तौर पर बुन्देलखण्ड और उसकी सीमा परके देशोंका ब्योरा है। उस कालमें आर्योंने बुन्देलखण्ड के दक्षिण में नयी बस्तियां नहीं बसायी थीं। पुराणों में आता है, पिता ययातिके मांगने पर, अपना यौवन न देनेके कारण यदुको श्राप मिला था कि उसके कुलमें राजा न होंगे। यदुके कुल में प्रायः राजा नहीं होते थे पर वे किसी आपके कारण नहीं बल्कि इसलिए कि यादव लोग गणराज्यमें विश्वास करते थे । श्रापकी कल्पना गणराज्य के प्रति घृणाका परिणाम है। उपरोक्त राजा विदर्भ इसी कुलकी एक शाखामें हुए । इन्होंने विन्ध्य और ऋक्ष मेखलाका पूर्वीभाग मेकल पर्वत तक जीत लिया था। यह नया प्रदेश इन्हींके नाम पर विदर्भ देश कहलाया । पुराना प्रदेश इनके पौत्र चिदिके नाम पर चेदि कहलाने लगा। ये वैदिक साहित्यमें बहुत प्रसिद्ध हैं। विश्वभारतीके डा० मणिलाल पटेलके अनुसार ऋग्वेदकी दानस्तुतियोंमें जिस कयु नामका वर्णन आया है वह चेदि का पुत्र था। चेदि की उदारता प्रसिद्ध थी। ऋग्वेद ८-५-३९ में कहा है-“कोई भी उस मार्गसे नहीं चल सकता जिस पर चेदि चलते हैं। इसलिए चेदियोंसे अधिक उदार राजा होनेका दावा कोई आश्रयदाता नहीं कर सकता ।" यह महाभारतसे लगभग साढ़े सात सौ वर्ष अर्थात पचास पीढ़ी पूर्व की बात है । इसके अतिरिक्त इतिहासमें इनके कुलका कुछ विशेष पता नहीं मिलता । इनके नौ पीढ़ी बाद एक राजा सुबाहुका पता लगता है । इनकी पत्नी दशार्ण देशके राजा सुदामा की पुत्री और नलकी पत्नी दमयन्तीकी मौसी थी। नलसे विछुड़ जाने पर दमयन्ती बहुत दिन तक इन्हींके राजमहलमें दासी बनकर रही थीं । चेदि राजा सुबाहु, अयोध्याके राजा ऋतुपर्ण, निषधके राजा नल तथा पौरव राजा हस्तीका समकालीन था। इसके बाद चेदिके यादवों का इतिहासमें पौरव राजा वसु के काल तक कुछ भी पता नहीं लगता । वसु एक पराक्रमी राजा था उसे चक्रवर्ती कहा गया है। उसने राजा सुबाहुके लग-भग २७ पीढ़ीबाद चेदिके किसी यादव शासकको पराजित किया था। वह यादव राजा अवश्य वीर रहा होगा क्योंकि चेदि-विजयके पश्चात वसुने बड़े गर्व के साथ चैद्योपरिचर (चेदि गणके ऊपर चलने वाला) की उपाधि धारण की थी। (८) "भारतीय अनुशीलन"-ऋग्वेदकी दान स्तुतियोंमें ऐतिहासिक उपादान । ५९५ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ यही नहीं इसने मत्स्यसे मगध तकके प्रदेश अधीन किये । वसुने शुत्ति मती नदीके तटपर शुक्तिमति नगरीको जो अाधुनिक बांदाके आस पास थी, अपनी राजधानी बनाया था। इस राजाके साथ चेदिमें यादवोंका शासन समाप्त हो कर पौरवोंका प्रारम्भ होता है । तत्कालीन चेदि देशका वर्णन महाभारतमें श्राता है । इन्द्रके शब्दोंमें "चिदि देश पशु के लिए सुखकारी, धन-धान्यसे पूर्ण, भोग विलासकी सामग्री से युक्त और रमणीक है । वह अगणित धन रत्नोंसे पूर्ण है तथा वहांकी वसुधा पशुओंसे भरी हुई है। वहांके मनुष्य सरल प्रकृतिके, सन्तोषी, साधु, उपहासमें भी झूठ न बोलने वाले, पितृभक्त और कमजोर बैलको हलमें नहीं जोतने वाले हैं।" इस प्रतापी राजा वसुके पांच पुत्र थे, इसलिए इनका राज्य पांच भागोमें बंट गया; मगध, कौशाम्बी, कारुष, चेदि और मत्स्य । महाभारत काल में ये पांचों राज्य वर्तमान थे। चिदि देश में उस समय शिशुपाल तथा उसके दो पुत्रों धृष्टकेतु और शरभका राज्य रहा। शिशुपालके पिताका नाम दमघोष और माताका नाम श्रुतश्रवा था। श्रुतश्रवा वृष्णि वंशी शूरसेनकी पुत्री बसुदेवकी बहिन तथा श्रीकृष्णकी बुना थी। दशाण देशका कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता। नल-दमयन्ती की कथा महाभारतके वनपर्वमें पाती है। उससे पता लगता है उस समयसे कुछ पहिले वहां कोई राजा सुदामा राज्य करते थे जिनकी दो पुत्रियां थीं। उनमें से एकका विवाह विदर्भ देश के राजा भीमसे हुआ था। वे दमयन्तीकी माता थीं । दूसरी पुत्रीका विवाह चेदिके राजा सुबाहुसे हुआ था। इसके लगभग ४३ पीढ़ी बाद वहां राजा हिरण्यवर्मा का पता लगता है। सभवतः जब राजा पाण्डु दिग्विजय के लिए निकले तब यही राजा वहां रहे होंगे जिनसे उन्हें युद्ध करना पड़ा था । वे कुरुकुलके विरोधी भी जान पड़ते हैं ।पूर्वभागा स्ततो गत्वा दशाणाः समरे जिताः । पाण्डुना नरसिंहेन कौरवाणां यशोभृता ।। २६ ॥ इन्हीं राजा हिरण्यवर्माकी पुत्रीसे पांचाल नरेश द्रुपदके पुत्र शिखण्डीका विवाह हुआ था। शिखण्डीके विषयमें अनेक किम्वदंतियां प्रसिद्ध हैं । कहते हैं वे जन्मके समय कन्या थे । उनकी माताने सौतके डरसे उन्हें पुत्र के रूपमें पाला। परन्तु विवाहके पश्चात यह भेद खुल गया । राजा हिरयवर्माको जब इस रहस्यका पता लगा तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ और बदला लेने के लिए द्र पदपर चढ़ दौड़ा परन्तु इसी बीचमें कहते हैं, किसी यक्षकी कृपासे शिखण्डी वास्तवमें पुरुष बन गया। इसके अतिरिक्त शिखण्डीके विषयमें यह भी प्रसिद्ध है कि वास्तवमें पिछले जन्ममें वह काशीराजकी पुत्री अम्बा थे । वस्तुतः ये सब (९) भारतीय इतिहास की रूपरेखा, पृट २०६ (१०)महाभारत, आदिपर्व, अध्याय ६५, (औंध संस्करण) (११) , , ,,११३ श्लोक २५-२६ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत काल में बुन्देलखण्ड कपोल कल्पित कथाएं सौतीके मास्तिष्कसे उपजी हैं । सत्य इतना है कि शिखण्डी द्रुपदके वीर पुत्र थे । वे महारथी थे और अर्जुन की सहायता से उन्होंने भीष्मका वध किया था । इन्हीं पराक्रमी द्रुपद पुत्रका विवाह दशार्ण देशके राजा हिरण्यवर्मा की पुत्रीसे हुआ था । राजा हिरण्यवर्मा के बाद वहां के राजा सुधर्मा का नाम महाभारत में आता है । वे पहले पहल उस समय महाराज युधिष्ठिरकी सभा में दिखायी देते हैं जब मय दानवने इन्द्रप्रस्थका निर्माण किया था। लिखा है 'सुर्मा.. पुत्रसहित शिशुपाल . ... यह सत्र और विज्ञोंके जाने दूसरे बहुत से क्षत्रिय भी धर्मराज युधि - डिरकी उपासनामें लगे रहते थे । २ । " परन्तु इन्हीं राजासुधर्माने भीमसेनसे, जब वे राजसूय यज्ञके अवसरपर पूर्व दिशा की ओर विजययात्रा पर निकले, 'रूएं खड़ी करने वाली लड़ाई की थी और बड़े पराक्रमी भीमसेनने अति बलवान सुधर्मा को यह लीला देखकर उनको प्रधान सेनापतिके पद पर बैठाया था ।" तत्र दाशार्णको राजा सुधर्मा लोमहर्षणम् । कृतवान्भीमसेनेन महायुद्धं निरायुधम् ॥ ६ ॥ भीमसेनस्तु तद्दृष्ट्वा तस्यकर्म महात्मनः । अधिसेनापतिं चक्रे सुधर्माणं महाबलम् ॥ ७ ॥ यही महावीर राजा सुधर्मा महाभारत युद्ध में चेदि और कारुष गणों के साथ पाण्डवों की ओर से लड़े थे। लिखा है, बारहवें दिन उन्होंने राजा भगदत्तसे " वृक्षोंसहित पंखों वाले पर्वतों" की तरह युद्ध किया और वीरगतिको प्राप्त हुए १४ । इनके बाद दशार्ण देशके राजा थे चित्राङ्गद । जिस समय अश्वमेध यज्ञके घोड़ेके पीछे पीछे अर्जुन दशार्णदेश पहुंचे थे उस समय इस बलवान अरिमर्दन घोड़ा रोक कर अर्जुनसे अत्यन्त भयंकर युद्ध किया था " । महाभारत के बाद दशार्ण देशके इतिहासका और कुछ भी पता नहीं लगता । हां जैन ग्रन्थोंमें ( आवश्यक चूर्णि ) लिखा है यहांके राजा दशार्णभद्र को भगवान महावीरने दशार्णकूट अथवा गजाग्रपदगिरि पर्वतपर दीक्षा दो थी । मृत्तिकावती इसकी राजधानी थी ६ । बुन्देलखण्डके दूसरे भाग चेदि देशका वर्णन ऊपर आ चुका है। शिशुपालकी कहानी सर्व विदित है । पुराणों में उसे हिरण्यकश्यप और रावणका अवतार कहा गया है । कहते हैं जिस समय वह पैदा हुआ था उसके तीन नेत्र तथा चार भुजाएं थीं । ज्योतिप्रियांने बताया जिसकी गोद में ( १२ ) (१३) ( १४ ) महाभारत सभापर्व, अध्याय ४ श्लोक २९-३३ सभापर्व, अध्याय २९, इलोक ६-७ द्रोणपर्व x 23 ( १५ ) अश्वमेधिकपर्व अध्याय ८३ श्लोक ५-६ (१६) प्रभी अभिनन्दन ग्रन्थ- जैन ग्रन्थोंमें भौगोलिक सामग्री (ले० डा० जगदीशचन्द्र जैन ) पृ० २६० ५९७ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ जाने पर इसके अतिरिक्त हाथ और नयन गिर जायेंगे उसीके हाथसे इसकी मृत्यु होगी। श्री कृष्णने जब उसे अपनी गोदमें लिया तब शिशपालके ये दोनों अतिरिक्त हाथ और तीसरी आंख गिर पड़ी। यह देखकर उसकी मां जो श्री कृष्णकी बुआ होती थी, बहुत डरी और उनसे अपने पुत्रके प्राणोंको भीख मांगने लगी। उस समय श्रीकृष्ण ने अपनी बुआको वचन दे दिया था कि वे शि पाल के सौ अपराध क्षमा कर देंगे । राजसूय यज्ञमें श्रीकृष्णकी पूजा होने पर जब शिशपालने उन्हें गालियां दी तब उसके अपराध सौ से बढ़ गये थे और इसीलिए श्री कृष्णने उसे मार डाला था। बहुत सी ऐसी कथाश्रोंकी भांति यह कथा भी कविकी कल्पना मात्र है। वस्तुस्थिति कुछ और है। निस्सन्देह चेदिनरेश शिशुपाल श्री कृष्णका परम शत्रु था, परन्तु महाभारतसे यह नहीं जान पड़ता। उसने पाण्डवोंका भी विरोध किया था। निस्सन्देह यज्ञके अवसर पर उसने श्री कृष्णके साथ भीम और पाण्डवों की भी निन्दा की थी, पर साथ ही यह भी कहा था, हम युधिष्ठिरको धर्मात्मा समझ कर आये थे । इसके अतिरिक्त सभापर्वमें हम उसे युधिष्ठिर की उपासना करते देख चुके हैं । भीम जब जययात्रा पर निकले तब भी उसने उनसे युद्ध नहीं किया बल्कि आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उनका अभिप्राय जान कर प्रसन्नता पूर्वक यज्ञमें आना स्वीकार किया। भीम तब उससे सत्कृत होकर तेरह रात वहां रहे८ । तस्य भीमस्तदा चख्यौ धर्मराज चिकीर्षितम् । सच तं प्रति गृह्येव तथा चक्रे नराधिपः॥ १६ । ततो भीमस्तत्र राजन्नुषित्वा त्रिदशक्षपाः। सत्तः शिशु पालेन ययौ सबलवाहनः ॥ १७ ॥ __शिशुपालकी श्री कृष्णसे शत्रुताके तीन प्रमुख कारण जान पड़ते हैं । पहिला कारण तो यह था कि श्रीकृष्ण न तो किसी देशके राजा थे,न तत्त्वदर्शी और न तपस्वी महात्मा। वे राजकुलके एक व्यक्ति थे फिर भी सारे देशमें उनकी प्रतिष्ठा थी। उनकी विलक्षण प्रतिभाका लोहा तत्कालीन मानव समाज मान चुका था और इसीलिए उनकी पूजा करता था। शिशुपाल भाईकी इस प्रतिष्ठासे जलता था और उन्हें नीचा दिखाने के प्रयत्न किया करता था । होता यह था हर बार उसे मुँह की खानी पड़ती थी। रुक्मिणीका विवाह एक ऐसी ही घटना थी। वह कुण्डिनपुरकी राजकुमारी थी और श्री कृष्णसे प्रेम करती थी । इसके विपरीत उसका भाई रुक्म उसका विवाह चेदिनरेश शिशुपालसे करना चाहता था । शिशुपाल मगध साम्राज्यका प्रधान सेनापति था। उससे मित्रता करके रुक्म अपना स्वार्थ साधन करना चाहता था परन्तु रुक्मिणी भी सजग थी। उसने द्वारिकामें श्रीकृष्णके पास अपना संदेशा भेजा और जब शिशुपाल वरात लेकर कुण्डिनपुर पहुंच चुका तब वे भी वहां पहुंचे और रुक्मिणीको हर लाये । शिशुपालने (१७) देखो (१२) (१८) महाभारत-सभापर्व, अध्याय २९, इलोक १६-१७ ५९८ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत कालमें बुन्देलखण्ड सुना तो उसके शरीरमें आग लग गयी। उसने यादवोंसे घनघोर युद्ध किया। उनकी नगरी जला डाली पर विजय उससे दूर ही रही । शत्रुताका यह दूसरा कारण कुछ प्रबल था। शत्रुताका तीसरा कारण तत्कालीन राजनीतीसे सम्बध रखता है। उस काल में एकराट्, बहुराट् संघ तथा श्रेणी यहां तक कि अराजकराष्ट्र जैसी राज्य संस्थाका अस्तित्व मिलता है। सारे देशमें अनगिनत छोटे छोटे राजा थे। कोई भी शक्तिशाली राजा उन्हें जीत कर या उनसे कर लेकर चक्रवर्ती राजाका पद ग्रहण कर लेता था। मगधका राजा जरासंध इसी तरहका एक पराक्रमी साम्राज्यवादी था। उसने अनेक राजाओंको जीत लिया था। अग वंग, कलिंग पुण्ड्र, चेदि, कारूष, किरात, काशी, कोशल और शूरसेन, कुण्डिनपुर, सौमनगर, आदि देशोंके राजा किसी न किसी तरह उसके प्रभाव में थे । इसके अतिरिक्त उसकी ओर कई अनार्य राजा भी थे। श्रीकृष्ण जिस कुल में हुए उस यादव कुल में गणतन्त्रीय शासन प्रणाली थी। उस गणतंत्रका तख्त उलटने वाला राजा कंस जरासंघका दामाद था। वास्तव में कंसने जरासंधकी सहायतासे ही संघके नेताको जो स्वयं उसके पिता थे कैद कर लिया था। वह अत्याचारी राजा था। कृष्ण जब युवा हुए तब उन्होंने गणतंत्रवादियों का नेतृत्व करके कंसको मार डाला और एक बार फिर उग्रसेनके नेतृत्व में गणतंत्रकी स्थापना की, जरासंध इस बात को नहीं सह सका । कहते हैं, उसने सत्रह बार यादव गणतंत्र पर चड़ाई की, पर कृष्णके नेतृत्वमें संघसेनाने उसे हर बार पराजित किया पर अठारहवीं बार जरासंधके साथ यवनराज कालयवन भी आया था। छोटा सा गणतंत्र अब अधिक न ठहर सका । वह कृष्णके नेतृत्त्वमें मथुरा छोड़ कर द्वारिकामें जा बसा । परन्तु जाते जाते भी कृष्ण कालयवनको मार गये थे । शिशुपाल इसी जरासंधका प्रधान सहायक और सेनापति था । ऐसी अवस्थामें उसका श्री कृष्णका प्रबल शत्रु बन जाना स्वाभाविक ही था। इतिहास बाताता है, श्री कृष्णने एक एक करके साम्राज्यवादके इन समर्थकों को नष्ट कर दिया। उन्होंने भीमद्वारा जरासंध का वध करवाया। वे उससे खुले युद्ध में नहीं भिड़े । इसप्रकार शिशुपाल को उन्होंने राजसूय यज्ञके अवसर पर स्वयं मार डाला । वस्तुतः वे विरोधी पक्ष की शक्ति को जानते थे । शिशुपालके बारेमें उन्होंने युधिष्ठिरसे कहा था--'हे पृथ्वीनाथ ! शिशुपालने सब प्रकार जरासंधका अवलम्ब करके उसके सेनापतिका पद लिया है१९ । जरासंधकी मृत्युके पश्चात् शिशुपाल प्रसन्न मनसे यज्ञ में श्राया परन्तु जब उसने कृष्णकी पूजा होते देखी तो उसके क्रोध को सीमा नहीं रही। कृष्ण जानते थे कि यदि वे शि पालको युद्ध के लिए ललकारते हैं तो सारा भारत दो भागोमें बंट जाता है । वे सघंटन के प्रेमी थे विघटनके नहीं। इसलिए तब तक चुप रहे जब तक भीष्मके कहने पर शिशुपालने स्वयं युद्धकी चुनौती नहीं दी। कृष्ण यही चाहते थे। युद्ध हुआ और शिशुपाल मारा गया। उस समय वहां उसके अनेकों मित्र राजा थे पर वे बोल नहीं सके क्यों कि धर्मयुद्ध था और स्वयं शिशुपालने श्री कृष्ण (१९) महाभारत, सभापर्व, अध्याय १४, श्लोक ११. Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ को ललकारा था । शिशुपालका वध करते समय श्रीकृष्णने उसके जो दोष गिनाये थे उनसे पता लगता है वह आचारविहीन भी था जैसे सभी साम्राज्यवादी होते हैं । उसने तपस्वी वभ्र की पत्नी और करूष देशके राजाका रूप धरकर उसकी वाग्दता भद्राका जो विशालापतिकी पुत्री थी, हरण किया था। शिशुपालकी मृत्यु के पश्चात चेदि राज्य का शासक उसका पुत्र धृष्टकेतु हुआ वह कृष्ण और पाण्डव दोनोंका मित्र था । दुर्योधनके लिए जब कर्ण दिग्विजय करने के लिए निकले थे तब उन्हें इसी शिशुपाल पुत्रसे युद्ध करना पड़ा था । यह अद्भुत वीर था । अश्वत्थामा, रुक्म और प्रद्युम्न के साथ उसकी गिनती होती थी२० । लिखा है-"महा यशस्वी, महावीर्यवान, महारथ, शिशुपालपुत्र धृष्टकेतु युद्ध होने पर संग्राममें काल स्वरूप हो जाते हैं. १ ।" वह पाण्डवोंकी सेनाके आगे चलने वाला था२२ । युद्ध में जब वह महारथ पौरवसे युद्ध करने चला तो महाभारतकारने लिखा है, "यह युद्ध ऐसा था जैसे ऋतुमति सिहंनीके सगंमके समय दो सिंह एक दूसरीकी ओर दौड़ते है२३ ।" इसी युद्ध में अपने पुत्र सहित वह द्रोणके हाथसे मारा गया था। उसकी लाशको देखकर कौरवमाता गान्धारीने कृष्णसे कहा था-'हेकृष्ण द्रोणके अस्त्र जिसने विफल कर दिये उसी द्रोण द्वारा मारे गये इस अद्भुत वीरको देखो२४।' धृष्टकेतुके पश्चात उसका भाई शरभ चेदि राज्यका स्वामी हुश्रा । अर्जुन जब अश्वमेध यज्ञका घोड़ा लेकर निकले तब वे शक्ति (शक्तिमति) नामकी रमणीय नगरीमें इसी शिशुपाल पुत्र शरभद्वारा पूजित हुए थे २५ । वैसे तो सारा भारत ही तब दुर्बल हो गया था परन्तु चेदि नरेशके पास सेनाका प्रभाव नहीं होगा। शिशुपालके पास कई अक्षौहिणी सेना थी लेकिन धृष्टकेतु केवल एक अक्षौहिणी सेना लेकर भारत युद्ध में सम्मिलित हुए थे । शरभके साथ महाभारत युग भी समाप्त हो जाता है । यद्यपि इसके बाद चेदिका कोई क्रमवद्ध इतिहास नहीं मिलता परन्तु “चेदि" नाम श्रआधुनिक काल तक चलता रहता है । महाजानपाद युगके सोलह जानपदोंमें एक चेदि भी है। वह वत्सके साथ आता है । जैन ग्रथोंके २५३ राज्योंमें भी चेदि उपस्थित है और शुक्तिमती अभी तक उसकी राजधानी है। ___ महाभारतमें धृष्टकेतुको एक स्थानपर'धृष्टकेतुश्च चेदीनां प्रणेता पार्थिवा ययौ । “चेद गणका स्वामी कहा है२६ । दूसरे स्थान पर चेदि,काशी और करूष गणोंका नायक सेनापति कहा है २० । (२०) महामारत उद्योग पर्व, अध्याय ५०, श्लोक ३० (२१) , , , ५१ ,, ४४ (२२) ,, भीम पर्व १५ (२४) ,, स्त्री पर्व , २५ ,, २० ,, आश्वमेधिक पर्व ,, ८३ ,, ३ ,, उद्योगपर्व ,, १९६ ,, २३ , , , २ (२७) Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत कालमें बुन्देलखण्ड , चेदि काशी करुषाणां नेतार दृढ़ विक्रमम् । सेनापतिम् मित्रन्न धृष्टकेतुमुपा ऽऽ दिशत् ॥ यहां गणका अर्थ गणतंत्र प्रणालीसे नहीं है । तत्कालीन भारतमें अनेक गणतंत्र थे। परन्तु चेदि देश एकतत्रं ही था और वहांका शासक "राजा" कहलाता था । शिशुपाल तो सम्राज्यवादी जरासंधका प्रबल समर्थक था। चेदिको जनपद भी कहा है। इसका अर्थ राज्य प्रणालीसे नहीं है बल्कि किसी जन विशेष ( अर्थात कवीले ) के रहनेके स्थानको जनपद कहते थे। इस जनमें एक ही कुल या जातिके लोग रहते हों यह बात नहीं थी । उसमें आदान प्रदान चलता रहता था। चेदि जनपद में वसु से पहले यादव लोगोंका शासन था । वमु पौरव था। तब यह निश्चित है चेदिगण में यादव और पौरव दोनों सम्मिलित थे। आज भी बुन्देलखण्डके गडरिये अपनेको यादववंशी कहते हैं। वैसे दशार्ण देशमें यादव राज महाभारतके अन्त तक बना रहा था । __ महाभारत-कालमें बुन्देलखण्डकी स्थिति प्रायः इस प्रकार थी। चर्मग्वती और शुक्तिमतीके बीचका यमुनाके दक्षिणका प्रदेश चेदिराज्यमें था और वेत्रवतीकी पूर्वी शाखा शुक्तिमतीके बीच का भाग दशार्ण देश कहलाता था । इसकी दक्षिणी सीमा मध्यप्रान्तके सागर जिले तक थी । पश्चिममें अवन्तिराज था। आज वही मालवा है। कुछ लोग दशार्ण को भी पूर्वी मालवा कहते हैं। पश्चिमोत्तर भागमें शूरसेन देश था । उत्तर में पंचाल, वत्स, काशी, और कौशल राज थे । पूर्वमें पुराना कारुष राज्य था । केन और टोंस ( तमसा ) के बीचका भाग सम्भवतः तब इसीमें रहा होगा। उसके दक्षिणमें भी अवश्य कुछ राज्य ( विन्ध्याचलके पूर्व में ) थे पर उनका ठीक पता नहीं लगता। ठेठ दक्षिणमें नर्मदा तटपर पश्चिमी राज्य था और आगे तत्कालीन अार्योंकी अन्तिम बस्ती विदर्भ थी। श्रार्योंके इन राज्योंके अतिरिक्त बीच बीचमें अनार्य जातियां भी बसती थीं। वे लोग असभ्य नहीं थे। नगर बसाना उन्होंने ही आर्योंको सिखाया था। आज भी बुन्देलखण्डकी सीमा पर और बुन्देलखण्डमें गौंड, कोल, शवर, ( सौर ) और मुण्ड आदि प्राचीन जातियां बसती हैं। विन्ध्यअटवीमें होनेके कारण इस प्रदेशमें बन प्रान्तर बहुत हैं, इसलिए लोग बड़ी सुगमता पूर्वक वहां बने रहे होंगे। इनमें शबर और मुण्ड तो आग्नेय वंशके हैं२८ । ये विन्ध्यवासिनी देवीके उपासक हैं । बभ्र वाहन इसी जातिके कहे जाते हैं। उस काल में इस प्रदेशकी सभ्यता और संस्कृतिका इतिहास दंड निकालना बड़ा कठिन है। महाभारत अपने युगसे बहुत बादमें लिखा गया है जबकि उसका काल “संहितायुग" में पड़ता है । इस युगमें वेदोका वर्गीकरण हुआ था । यह ईसासे लगभग १७७५ से लेकर १४५५ वर्ष पूर्व तक फैला हुआ (२८) भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृष्ठ, ११०-११४ ६०१ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ है २२ । विद्वानोंने निश्चित किया है कि महाभारतका युद्ध ईसासे लगभग १४०० वर्ष पूर्व हुअ परन्तु महाभारतकी कथा ईसाकी चौथी सदी तक लिखी जाती रही। इसलिए वेदोंमें जिस संस्कृतिका वर्णन है वही इस युगकी संस्कृति कही जा सकती है। उसमें से इस प्रदेशकी विशेषता खोजना सरल नहीं है। महाभारतकी सहायतासे कुछ निष्कर्ष अवश्य निकाले जा सकते हैं। ऊपर कहा गया है, इस देशमें 'एक राज्य शासन प्रणाली थी जैसा कि नलकी कथा में आता है और फिर कौटिल्यके अर्थशास्त्रमें कहा गया है । इस देशके हाथी उत्तम होते थे। तब इस प्रदेशके योद्धा हाथी पर चढ़ कर युद्ध करनेमें प्रवीण रहे होंगे। महाभारत युद्ध में स्थान स्थान पर चेदिगणकी वीरताका वणन है। विशेषकर कर्णपर्वमें पांचालोंके बाद ये ही बार बार कर्णके सामने आते हैं। अपने सेनापति धृष्टकेतुके मर जाने पर भी इनकी वीरतामें अन्तर नहीं आया। महाभारत युद्धके पहले दिन पाण्डवोंने जो क्रौञ्च व्यूह बनाया था द्रुपद (पांचाल ) उसके सिर स्थान पर था। नेत्र स्थान पर कुन्ती भोज और चैद्य थे अर्थात् ये तीनों सेनाके अग्रभागमें थे। सभी चक्रवर्तियोंकी भांति ये लोग भी मल्ल-युद्धके प्रेमी रहे होंगे। इन्द्रने जिस प्रकार चेदि देश और उसके लोगोंकी प्रशंसा की है वह ऊपर आ चुकी है । कर्णपर्वमें शल्यसे विवाद करते हुए कर्ण ने कहा है-"कुरु, शाल्य, पाञ्चाल, मत्स्य, नैमिष, कौशल काशी, पौंड्र, कलिंग, मागध, और चेदि देशके उत्पन्न महात्मा मनुष्य ही शाश्वत धर्मको जानते हैं 33 । यद्यपि यह बहुत बादमें जोड़ा गया जान पड़ता है तो भी महाभारत कालीन इस प्रदेशके निवासी साधु और सजन ही रहे होंगे । यो तो कर्ण के शब्दोंमें “सब देशोंमें दुष्ट और साधु रहते हैं३४ ।" वसु चैद्योपरिचरके कालमें अहिंसा (अर्थात् यज्ञमें पशुके बजाय अन्नकी आहुति देनेकी प्रथा ) और भक्तिप्रधान एकान्तिक धर्म (कर्मकाण्ड और तपके विरोधमें ) की लहर चली थी। महाभारत कालमें कृष्ण, बलराम उसके समर्थक थे तथा सात्वतोंमें उसका विशेष रूपसे प्रचार भी था३५ । परन्तु चैद्योंने भी इस नये धर्मको अपना लिया था इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता फिर भी यह अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है कि जिस धर्मका प्रवर्तन उनके एक पूर्वजने किया था और जो उनके (२९) भा. इति. रूपरेखा, २१९ (३०) देखो (५) (३१) महाभारत भीष्मपर्व, अध्याय ५०, श्लोक ४६-४९ (३२) देखो (१०) (३३) महाभारत कर्णपर्व, अध्याय ४५, श्लोक १४-१६ (३४) , , , (३५) भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृष्ठ २४६ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत काल में बुन्देलखण्ड सम्बन्धी यादवोंमें बहुत प्रचलित था उस धर्मका प्रभाव उनपर भी पड़ा होगा। दशार्ण देशके वृष्णि यादव तो कृष्ण के बहुत निकट थे। रामायण कालमें इस प्रदेशमें अत्रि, सुतीक्षण, आदि ऋषियोंके आश्रम थे परन्तु इस युग में आर्य लोग यहां पर पूरी तरह छा चुके थे और चेदि देश से झर झर कर विन्ध्यके उस पार बस्तियां बसाते जाते थे । इस काल तक ऋषियोंका युग भी समाप्त हो चुका था। और व्यास जी वेदोंके संकलन वर्गों - करण और सम्पादन में लगे हुए थे । स्वयं व्यासजीके विषय में सुना जाता है कि वे इसी प्रदेश में रहते थे । परन्तु यह ठीक नहीं है। वे तो बदरिकाश्रम में रहते थे। यह भी आता है कि व्यास माता सत्यवती जो शान्तनुपत्नी हुई चेदि नरेश बसु चैद्योपरिचर की कन्या थी परन्तु श्री जयचन्द्र विद्यालंकारने प्राचीन युगकी वंश तालिकाएं तैयार की हैं उनके अनुसार यह असम्भव जान पड़ता है क्योंकि सत्यवती उन्नासीवीं पीढ़ीमें तथा शान्तनु नब्बेवीं पीढ़ी में आते हैं ३ ६ । वैसे तो वे तालिकाएं भी अन्तिम नहीं है परन्तु इतना सत्य है कि अभी अधिक अनुसन्धानकी आवश्यकता है । इस काल में श्रार्यलोग कृषिको अपना चुके थे । इन्द्रने इस देशके रहने वालोंकी जो प्रशंसा की 1 थी इसमें एक वाक्य यह था " कमजोर बैलको इलमें नहीं जोतने वाले हैं ७ ।" इसके अतिरिक्त वे सुन्दर नगरोंका निर्माण भी करने लगे थे वेदि देशकी राजधानी शुक्तिमती एक प्ररूपात नगरी यी आश्वमेधिक पर्व में उसे रमणीय नगरी कहा इस प्रकार और भी अनुमान लगाये जा सकते हैं और अनुमान प्रमाख के अभाव में इतिहास नहीं नन सकते । आज भी महाभारत कालीन भारत एक रहस्य बना हुआ है यद्यपि श्रावरण हटता जा रहा है तो भी अध्ययन र अनुसन्धानकी आज जितनी आवश्यकता है, उतनी सम्भवतः कभी नहीं थी । इस नवभारत में ही भारतका अतीत रहस्य मुक्त न हो सका तो कब होगा ? (३६) भारतीय इतिहासकी रूपरेखा ०२६५ (३७) देखो (१०) ६०३ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही भूमि शोणित सनी, यहि पहाड़ यहि धार । हम बुन्देल खण्डीन को, यहि है स्वर्ग विहार ।। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम तीर्थंकर भ० ऋषभदेव के आत्मज प्रथम-सिद्ध श्रीबाहुबलिकी (५७ फीट उन्नत ) प्रस्तरमूर्ति श्रवणबेलगोला तीर्थाधिराज भ० महावीरकी अति प्राचीन मूर्ति ६०५ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ चित्रा Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वर्णीजी का घर। मड़ावराका स्कूलजहां वीजी छात्र तथा अध्यापक रहे। मड़ावरा की शाला (वैष्णव मन्दिर) जहां वर्णीजी कथा सुनने जाते थे। गोरावाला-जैनमन्दिर जिसने वर्णीजी को जैनधर्मकी ओर आकृष्ट किया। ६०६ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमड़ार उद्गम (मड़ावराका दादा-सरोवर) मड़ावराका दुर्ग तथा सरोवर गोरावाला मन्दिरका पृष्ठ भाग गोरावाला मन्दिरकी जिन प्रतिमाएं ६०७ जताराकी पाठशाला तथा डाकखाना जहां वर्णीजीने घर छोड़ने पर कार्य किया चित्रा Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ जताराका जैनमन्दिर जताराका सरोवर जिसके तटपर वर्णीजी धर्मगोष्ठी करते थे सिमराका जैनमन्दिर बाईजीकी बखर, सिमरा Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ स्व. सिवैन चिरोंजाबाईजी सिमरा वर्णीजी की धर्ममाता स्व. पं० अम्बादास शास्त्री, काशी वर्णीजी के विद्यागुरु चित्रां Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ सम्म काशी। जन्मस्थान, भदैनीभ. सुपार्श्वनाथ का ६१० वर्तमान युगके जैन विद्वानोंका विद्याकूल-श्री स्याद्वाद दि० जैन विद्यालय काशी; वर्णीजी इसके संस्थापक “तथा छात्र रहे हैं। श्री छेदीलाल-जैन मन्दिर (शिखरयुक्त) जिसके नीचेके भागमें छात्र वर्णीजी रहते थे। भेलूपुर-काशी। भ. पार्श्वनाथका-जन्मस्थान Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्री वर्णीजी के दीक्षागुरु स्व. ब्र. गोकुल चन्द्र जी युवक पं० गणेशप्रसाद (वर्णी) राग-विरागकी द्विविधामें वर्णीत्रयब्रह्मचारी पं० गणेशप्रसाद वर्णी, परम तपस्वी बाबा भागीरथजी वर्णी ब्र० दीपचन्द्रजी वर्णी Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ श्री १००८ महावीरप्रभुकी मूर्ति कुण्डलपुर श्री कुण्डलपुर क्षेत्र (मध्य प्रदेश), जहां वर्णीजीने ब्रह्मचर्य दीक्षा ली थी ६१२ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि. जैन तीर्थ क्षेत्र श्री कुन्डलपूर जी (दमोह-म.प्र.) श्री रेशन्दीगिरि अतिशय क्षेत्र-जहां वर्णीजी की विरक्ति पुष्ट हुई कुण्डलपुरका सरोवर और जिनमन्दिर ६१३. 風 SM चित्रा Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री जलमन्दिर रेशन्दीगिरि संस्कृत पाठशाला द्रोणगिरि वर्णजी की साधनाका क्षेत्र श्री द्रोणगिरि सागर विद्यालयका मानस्तम्भ ६१४ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ वर्णीजी की आत्मशोधके मार्ग में उपयोगी अतिशयक्षेत्र पपौरा (वि.प्र.) श्री वर्णी दि. जैन विद्यालय सागर (म. प्र.), वर्णी जी द्वारा संस्थापित बुन्देल खण्डकी सैकड़ों शिक्षा संस्थाओं में अग्रणी वर्णी दि. जैन विद्यालयका बाह्यदृश्य चित्रा Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री चन्द्रप्रभु मन्दिरका प्राचीन प्रवेशद्वार, पपौरा श्री महावीर जिनमूर्ति. खजुराहा Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ श्री आदिनाथ मन्दिर, खजुराहा 48 यक्ष-यक्षिणी, खजुराहा चित्रा Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गी-अभिनन्दन-प्रन्य ६१८ बूढ़ी चन्देरी-गुप्त कालीन मूर्तिकलाके अवशेष Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्देरी- खंदारजी ६१९ चित्रा Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ वर्णीजी की धर्ममाता सिंधैन चिरोंजाबाईजी का समाधिमरण श्री डूंगरेन्द्रदेवके समयमें निर्मित विशाल तीर्थंकर मूर्तियां, गवालियर ६२० Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रा 'वैराग्य मेवाभयम्' अनेक तीर्थोका भ्रमण तथा शिक्षा संस्था उद्घाटन-तीर्थका प्रवर्तन करने के बाद क्षुल्लक वर्णीजी ६२१ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दत-ग्रन्थ श्री १०८ आचार्य कुन्दकुन्दके -समयसारके प्रचार द्वारा सर्वहितमें रत वर्णीजी ६२२ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानजी महाराजके उपदेशद्वारा कुन्दकुन्दाम्नायमें दीक्षित अग्र-श्रावक -- ६२३ आचार्य कुन्दकुन्दके अनन्य भक्त श्री कानजी महाराज, सोनगढ़ चित्रा Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ CES तीर्थाधिराज महावीर स्वामीका दक्षिण भारतीय चित्र --तथा श्राविकाएं, सोनगढ़ (अगली पंक्तिमें बैठी कुमारियोंने इस भौतिक युगमें भी आजीवन ब्रह्मचर्य धारण किया है ।) Cav Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रां बुन्देलखण्डकी झांकी वर्णी-जनपदका ओरछा-दुर्ग वर्णी-जनपदके श्रमजीवी कृषक (चैतुआ)। बुन्देलखण्डका मेला बुन्देल खण्डके बालक ६२५ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ आंवला बुन्देलखण्ड के फूले विशेष वृक्ष शाल्मलि पलाश ६२६ कचनार आम्र Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रा बुन्देलखण्डमें गोधनके विकासका प्रयत्न,१७ सेर दूध देने वाली गाय पुरातत्त्ववेत्ताओं की प्रतीक्षामें कृषिप्रधान जनपदकी आशा, स्वस्थ किशोर बैल ६२७ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ बुन्देलखण्डके रमणीय मार्ग वर्षामें कूलंकषा बुन्देल खण्डकी सरिता शरत्कालीन स्वच्छ सरिता ६२८ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ कार्यालय दि० जैन संघ भदैनी, बनारस