SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास थे । 'महान जैनचार्यों की ऐसी परम्परामें समन्तभद्र हुए “जिनके पश्चात् कालान्तरमें पूज्यपाद हुए। इसी कथनकी पुनरावृत्ति १३६८ ई. के शि० लेखमें मिलती है जिसमें समन्तभद्र के शिष्य शिवकोटि द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको अलङ्कृत करनेका भी उल्लेख है। १४३२ ई० का शिलालेख भी इसका अक्षरशः समर्थन करता है । और पद्मावती बसतिके सन् १५६० ई० के अभिलेखसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है । कर्णाटक साहित्यके इतिहासमें सर्वप्रथम नाम समन्तभद्रका आता है उसके पश्चात् कवि परमेष्टीका और फिर पूज्यपाद का । इन्द्रनन्दि, ब्रह्महेम, विबुधश्रीधर, आदि रचित विभिन्न श्रुतावतारोंमें समन्तभद्रका कुन्दकुन्दके अल्प समय पश्चात् होना पाया जाता है। धवलाकार स्वामी वीरसेन हरिवंशकार जिनसेन (७८३ ई०) आदिपुराणकार भगवजिनसेनाचार्य (७८०-८४० ई०) तथा अन्य अनेक इतिहासज्ञ विद्वानोंने समन्तभद्रका कुन्दकुन्दके पश्चात तथा पूज्यपादसे पूर्व होना स्पष्ट सिद्ध किया है । अतः इन एकरस प्रमाणोंके सम्मुख इस विषयमें शंका करनेका कोई कारण ही नहीं रहता। उपलब्ध प्रमाणोंका अत्यन्त सावधानता पूर्वक विशद विवेचन करके सब ही विद्वानोंने ईस्वी सन्का प्रारंभ काल ही कुन्दकुन्दका समय माना है । अतः यह मान लेना निराधार अथवा मनमाना नहीं है कि कुन्दकुन्दके और विशेषतः बलाकपिच्छके तुरन्त पश्चात तथा पूज्यपादके ही नहीं सिंहनन्दिके भी पूर्ववर्ती रूपसे उल्लिखित समन्तभद्र दूसरी शती ईस्वीके प्रथम पादमें हुए हों। ७. स्वामी समन्तभद्रको निश्चित रूपसे दूसरी शती ई० में स्थिर अथवा उसके भीतर ही उनके समयको ठीक ठीक निर्धारित करने में सर्वाधिक सबल साधक प्रमाण कतिपय ज्ञात ऐतिहासिक एवं भौगोलिक तथ्योंमें हैं । ये इतने स्पष्ट, विशेषतापूर्ण एवं अप्रतिरूप हैं कि इनका समय दूसरी शतीके कुछ दशकोंसे भी आगे पीछे नहीं किया जा सकता है । वे निम्न प्रकार हैं (१) श्रवणबेलगोलस्थ दौर्बलि जिनदास शास्त्रीके भंडारमें संगृहीत समन्तभद्र कृत 'आप्तमीमांसा' की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतिका अन्तिम वाक्य-"इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिप सूनोः श्रीस्वामी समन्तभद्रमुनेः कृतौ प्राप्तमीमांसायाम्' ।" कर्णाटक देशस्थित 'अष्टसहस्री' की एक प्राचीन प्रतिमें मिलता ऐसा ही वाक्य "इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनुना (?) शांति वर्मनाम्ना श्रीसमन्तभद्रेण" है । तथा 'स्तुतिविद्या' नामक अलङ्कार प्रधान ग्रन्थका जिसके अन्य नाम जिनस्तुतिशतं, जिनशतक तथा जिनशतकालंकार भी हैं और जिसके कर्ता निर्विवाद रूपसे समन्तभद्र हैं' अन्तिम पद्य एक चित्रबद्ध काव्य है और उसकी छह और तथा नव वलयवाली चित्र रचनापरसे 'शांतिवर्मकृतं' तथा 'जिनस्तुतिशतं' ये दो पद उपलब्ध होते हैं जो कवि और काव्यके नामों के द्योतक हैं । (२) उत्तरवर्ती विद्वानोंने उन्हें "श्रीमूलसंघ व्योम्नेन्दुः" विशेषणके साथ स्मरण किया १ स्वामी समन्तभद्र पृ०४ । २ स्वयंभूस्तोत्र-मराठी संस्करण भूमिकागतपजिनदास पाश्वनाथ फडकुलेका कथन । ३ स्वामी समन्तभद्र, पृ०६। ४ महाकवि नरसिंहकृत जिनशतक टीका । ३८६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy