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वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थं
है ।१ ( ३ ) उन्होंने धूर्जटि नामक किसी महान प्रसिद्ध प्रतिवादीको वाद में पराजित किया था । ( ४ ) उनका कांची ( आधुनिक कांजीवरम् ) के साथ अपेक्षाकृत स्थायी एवं निकट संबंध था । ब्रह्मनेमिदत्तके कथाकोषमें तथा उससे भी प्राचीन प्रभाचन्द्र के गद्य कथाकोष में दो प्राचीनतर वाक्य उद्धृत किये हैं जिनके द्वारा समन्तभद्रने किसी राजाकी सभा में अपना कुछ परिचय दिया था। उनमें वे स्वयं अपने आपको "कांच्यां नग्नाटकोऽहं” कहते हैं, श्रवणबेलगोलके सन् १९२६ ई० के मल्लिषेणप्रशस्ति नामक शिलालेखसे भी उनका कांचीमें जाना प्रकट है, और 'राजाबलिकथे' से उनका उक्तनगर में अनेक बार जाना सूचित होता है । वहीं भीमलिंग शिवालय में आचार्यकी प्रसिद्ध भस्मक व्याधिके शान्त होनेकी घटनाका कथन है | ब्रह्मनेमिदत्त के अनुसार उनकी व्याधि जब कांचीमें शान्त न हो सकी तो उसके शमनार्थ वह अन्यत्र चले गये । इस प्रकार तामिल देशस्थ कांची नगरके साथ उनका घनिष्ट संबंध स्पष्ट है । (५) अपने
जीवन काल के पूर्वार्ध में आचार्यको भयङ्कर भस्मक व्याधि हो गयी थी जिसके कारण उन्हें गुरुकी आज्ञा से मुनिवेषका त्याग कर उसके शमनका उपाय करना पड़ा था । अन्ततः वह व्याधि शिवकोटि राजाके भीमलिंग शिवालय में शिवार्पित तंदुलान्न ( १२ खंडुग प्रमाण प्रतिदिन ) का पांच दिनतक भोग लगानेसे शान्त हुई । इसी अन्तरालमें राजाके द्वारा शिवलिंगको नमस्कार करनेके लिए आग्रह करनेपर उन्होंने 'स्वयम्भूस्तोत्र' के रूपमें चतुर्विंशति तीर्थङ्करोंकी स्तुतिकी रचना की थी। जिस समय वे भक्तिके प्रबल प्रवाहमें अष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभुकी स्तुति कर रहे थे तो शिवलिङ्ग फट गया और उसमेंसे चन्द्रप्रभु भगवानकी मूर्ति प्रकट हुई । इस चमत्कार से राजा अत्यधिक प्रभावित हुआ और जिनधर्मका परम भक्त हो गया । राजाबलिकथेके अनुसार यह घटना कांचीमें उपर्युक्त दोनों कथाकोषोंके अनुसार बाराणसीमें; सेनगणकी पट्टावलीके अनुसार नवतिलिङ्ग देशके राजा शिवकोटिके शिवालय में घटी थी । मल्लिषेण प्रशस्ति नामक शिलालेख में यद्यपि राजाका व नगरका नाम नहीं दिया है तथापि उससे शेष घटनाकी पुष्टि होती है 'विक्रान्तकौरव' नाटकमें भी शिवकोटि और शिवायन जो राजबलिकथेके अनुसार शिवकोटिका छोटा (भाई था ) के स्वामी समन्तभद्रके शिष्य होनेका उल्लेख है । नगर तालूकाके शिलालेख न० ३५ तथा श्र० बे० गो० शिलालेख न० १०५ (२५४) भी शिवकोटिको उनका शिष्य सूचित करते हैं । देवागमकी वसुनन्दि वृत्तिके मंगलाचरणके 'भेत्तारं वस्तुपालभावतमसो' पदसे भी स्वामी द्वारा किसी नरेश के भावान्धकारको दूर किया जाना ध्वनित होता है । राजाबलिकथेमें इस प्रसंग में यह भी उल्लेख है कि भीमलिंग शिवालयकी घटनासे प्रभावित होकर महाराज शिवकोटिने अपने पुत्र श्रीकंठको राज्यका भार सौंपकर भाई शिवायन सहित जिनदीक्षा ले ली थी। इसी पुस्तक में यह भी कथन है जि आचार्यकी यह व्याधि उस समय उत्पन्न हुई थी जब वे 'मणुवकहल्ली ' ग्राम में तपश्चरण कर रहे थे ।
१ हस्तिमल्लकृत- 'विक्रान्तकौरव' तथा अय्यपार्तकृत जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय ।
२ मल्लिषेण प्रशास्ति तथा शि० ले० न० ९०
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