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________________ स्वामी समन्तभद्रका समय और इतिहास ( ६ ) उपर्युक्त वृत्तान्तोंसे स्पष्ट कि प्रचंडवादी समन्तभद्र विभिन्न दूरस्थ प्रदेशों और प्रसिद्ध नगरोंमें धर्म प्रचारार्थ गये और उन्होंने उस समयकी प्रथाके अनुसार निश्शंक भावसे वादभेरियें बजा कर विख्यात वाद-सभाओं और राजसभाओं में प्रतिवादियोंको परास्त किया। विद्या एवं दार्शनिकता में अग्रणी वाराणसी नगरी ( बनारस ) ? के राज्यदरबारमें जाकर उन्होंने ललकारा था १ " हे राजन् मैं निर्गन्थ जैन वादी हू ं । जिस किसीमें शक्ति हो वह मेरे सम्मुख आकर वाद करे ।" श्रवणबेलगोलके उपर्युक्त शि. लेखके अनुसार आचार्यने 'असंख्य वीर योद्धाओंसे युक्त' विद्याके उत्कट स्थान तथा बहुजन संकुल करहाटक नगर'की राज्यसभामें पहुंच कर राजाको बताया था कि किस प्रकार वे 'अप्रतिद्वन्दी निर्भय शार्दूलकी वादार्थ विभिन्न दूरस्थ देशोंमें भ्रमण करके सुदूर कांची होते हुए उसके नगरमें पधारे थे । प्रकृ ब्रह्मनेमिदत्तके आराधनाकथाकोष तथा राजाबलिकथेमें भी पाया जाता है । किन्तु राजाबलिकथेमें इसका रूपान्तर हुआ है अर्थात् 'प्राप्तोऽहं करहाटक' के स्थान में वहां 'कर्णाटे करहाटके' पद है । और भी दो एक शब्द-भेद हैं किन्तु वे महत्वके नहीं हैं। आराधनाकथाकोष में इस पद्यसे पूर्व 'कांच्यां नग्नाटऽकोहं' वाला एक अन्य पद्म दिया हुआ है जिसमें उनके लाम्बुश, पुण्डू, दशपुर, तथा वाराणसी में भी वादार्थ जानेका उल्लेख है, साथ ही साथ यह भी सूचित होता है कि वे मूलतः कांची प्रदेशके नग्न दिगम्बर साधू थे, लाम्बुशमें 'मलिनतन पांडुवर्ण शरीर' के तपस्वी थे, पुण्ड्र पुरमें शाक्य भिक्षुके रूप में रहे, दशपुर नगर में मृष्टभोजी वैष्णव परिव्राजक के रूपमें रहे और वाराणसीमें चन्द्र सम उज्ज्वल कान्तिके धारक योगिराज के रूपमें रहे। इस पद्यमें उल्लिखित विवरणसे कथाकारका अभिप्राय; जो उनके अन्यत्र कथनसे स्पष्ट हो जाता है, यह है कि व्याधिकाल में आचार्य इन विभिन्न देशों में उक्त भिन्न भिन्न रूपों में रहे थे । राजाके उपर्युक्त उपलब्ध तथ्यों का निष्कर्ष यह है कि 'वे फाणिमंडलके अन्तर्गत उरगपुर नगरके पुत्र शान्तिवर्मा थे। मुनि अवस्थाका नाम समन्तभद्र था। कांची प्रदेशमें ही उनका प्रारंभिक अध्ययन अध्यापन तथा अधिकांश रहना हुआ । अतः 'कांचीके दिगम्बराचार्य' के नामसे वे सर्वत्र प्रसिद्ध थे । हल्ली नामक स्थानमें कुछ दिन रह कर उन्होंने तपश्चरण आदि किया, वहां इस प्रकार रहते हुए अपने मुनि जीवनके पूर्वार्ध में ही किसी समय वे महा भयङ्कर भस्मक रोगके शिकार हुए जिससे उनकी मुनिया में बड़ी बाधा उत्पन्न हुई। उन्होंने लाचार होकर समाधिमरणका इरादा किया, किन्तु उनके गुरुने उन्हें दीर्घायु, अत्यन्त योग्य प्रतिभाशाली एवं आगे चलकर जिनशासनकी महती वृद्धि करने वाला जानकर उस इरादे से विमुख किया और अस्थायी रूपसे रोगकी शान्ति तक उसके शमनका उपाय करने के लिए मुनिवेष त्यागनेकी आज्ञा दी । अतः मुनिवेष त्याग उन्होंने रोगकी ओर ध्यान दिया और १ 'राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिग्रन्धवादी' - ब्रह्मनेमिदत्त आराधनाकथाकोष तथा स्वामी समन्तभद्र पृ० ३२ । - ३६१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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