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वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
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५ जैन तीर्थ - तीचों की तीयताका इतिहास, तीयंता निमित्तक विभाजन, भौगोलिक स्थिति, आदि । ६ जैनसमाज -- प्राचीन कालका जैन समाज, वर्तमान युगके प्रारम्भ तक का संक्षिप्त परिचय, आधुनिक युगका प्रारम्भ, वर्तमान युगकी प्रधान प्रवृत्तियां - महासभा, परिषद्, संघ, आदि । सामाजिक संस्थाओं का इतिहास, शिक्षा संस्थाएं, मन्दिर, साहित्यिक पुनरुद्धार, सामाचारपत्र, पारमार्थिक संस्थाएं, औषधालय, धर्मशाला, भोजनालय, उदासीनाश्रम, समाजकी वैधानिक स्थिति । मातृमण्डल -स्त्रीका स्थान, जागृति आदि ।
७ वर्णीजी का जीवन और संस्मरण -- (अ) संक्षिप्त जीवन चरित्र; - - प्रारम्भिक जीवन, जैनत्व की ओर झुकाव, विद्यार्थी जीवन त्याग सेवामय जीवन, शिक्षा प्रसार, सार्वदेशिक प्रवास, प्रभावना तथा स्थितिकरण तथा मुक्ति के पथपर । स्थापित शिक्षासंस्थाओं के परिचय, विशेष भाषणों तथा पत्रों के अवतरण, संस्मरण, श्रद्धाञ्जलि |
( आ ) जीवन सम्बन्धी चित्र तथा सम्बद्ध संस्था आदि के चित्र यथास्थान । तीर्थंकर आचार्य, मूर्ति मंदिर आदि के चित्र
(इ) कविताएँ -- विविध विषयों तथा वर्णीजी विषयक कविताएँ यथास्थान ।
सामग्री तथा सहयोग प्राप्त करनेके
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प्रयत्नमें लगभग डेड वर्ष विताने के बाद जब सन् ०४७ के प्रारम्भ में मुझे 'श्री काशी विद्यापीठ रजत जयन्ति अभिनन्दन ग्रन्थ से अवकाश मिला तो प्राप्त समस्त सामग्रीको अपने आप ही एक बार आयन्त देखा और इस निष्क पर पहुंचा कि ऐसी सामग्री से अभिनन्दन ग्रन्थ दिगम्बर जैन, सदृश किसी सावधि पत्र के विशेषांक से अच्छा न होगा। गत्यन्तरा भावात् पुनः प्रामाणिक सार्वजनिक विद्वानोंसे विविध प्रकारसे लेख प्राप्त करनेका प्रयत्न प्रारम्भ किया। : हीरक जयन्ति महोत्सव समिति शीघ्र ही ग्रन्थ तयार करने के लिए जोर दे रही थी किन्तु प्रेस, कागज तथा समुचित सामग्री के अभावके कारण प्रतीक्षा करना अनिवार्य हो गया था । सौभाग्य से दूसरा प्रयत्न पर्याप्त सफल हुआ और इस बौद्धिक मधुकरीमें काफी अच्छे लेख मिले। इस बार पुनः प्रतीक्षा करने की अपेक्षा डा० उपाध्ये की सम्मत्यनुसार स्वालम्बी बनना ही अच्छा समझा और प्राप्त समस्त सामग्रीका सम्पादन पूज्य भाई पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी सहायता से स्वयमेव कर डाला । यतः “सात पांचकी लाकड़ी एक जनेका बोझ " ही होती है अतः कितने ही उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विषयों पर अब भी लेख न थे । ऐसे लेखोंकी पूर्ति में ने अपनी स्मृति (Notes ) के आधार पर प्राचीन प्रामाणिक विद्वानोंके लेखोंको भारती (हिन्दी) में दे कर की इस प्रकार संकलित तथा सम्पादित सामग्रीको अपने काशी निवासी साथियों तथा संयुक्त मंत्री वर्णी ही. ज. म. स. से नौम्बर ४७ में अनुमत कराके मुद्रण की व्यवस्था में लग गया और २१ जून '४८ से वास्तविक मुद्रण कार्य प्रारम्भ कर सका। यद्यपि दिसम्बर ४८ तक ग्रन्थका तीन चौथाई भाग छप गया था तवापि इसके बाद कुछ महीनों पर्यन्त प्रेसके दूसरे कार्यों में फंस जाने के कारण तथा उसके बाद अन्य कार्यों में मेरे व्यस्त हो जाने के कारण मुद्रण कार्य दिसम्बर ४९ में समाप्त हो सका । रूपरेखा के अनुसार ग्रन्थ का कलेवर एक हजार पृष्ठका होता, किन्तु वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक लेखकों की कमी, शासनका कागज नियंत्रण तथा स्वयमुपनत आर्थिक सहयोगका अभाव एवं आर्थिक सहयोग के लिए प्रार्थना न करने के आदेश और उसके निर्वाहके कारण सात सौ पृष्ठसे ही संतोष करना पड़ा। विवश होकर सामग्रीको कम किया और कई विभागोंको एक कर दिया। प्रत्यके विषय में स्वयं लिखनेकी पाश्चात्य पद्धति वर्तमान में भारतीय विद्वानों ने भी अपनायी है तथापि "आपरितोवाद्विदुषां न मन्ये साबु प्रयोग विज्ञानम्" वाक्य ही मेरा आदर्श है विशेष न कह कर
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