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________________ संस्मरण आगसे आग कभी बुझती है। आज संसार के लोग जो बहिर्मुख हो रहे हैं, बाह्य साधन सामग्री ही में सुख मान कर उसके जुटाने का अहिर्निश प्रयत्न कर रहे हैं उससे क्या शान्ति मिली ? नहीं, फिर दुनियां जो सच्चे सुखका रास्ता भूल कर पथ भ्रष्ट हो चुकी है उसे सुपथपर लाना होगा । वह रास्ता है धर्मका, अाध्यात्मका । इसी प्रकाशको देनेके लिए गणेशप्रशाद वर्णीकी ज्योति प्रगट हुई है । जो स्वयं प्राध्यात्मिक आनन्दमें सराबोर हैं वही दूसरोंको उस ओर अग्रसर कर सकता है। जो स्वयं प्रकाशमान नहीं वह दूसरोंको क्या प्रकाशित करेगा ? किशोरावस्था ही तो थी । एक लकड़हारे से लकड़ी की गाड़ी ठहरायी कुछ अधिक मूल्यमें । धर्ममाताने जब कीमत सुनी, तो कहा कि 'भैया ठगे गये' । इन्हें लगा कि इसे जो अधिक दाम दिये हैं यह 'येन केन प्रकारेण' वसूल करने चाहिए। वह गाड़ीवाला जब खाली कर चुका तब आपने कहा 'तैने पैसे अधिक लिये है, लकड़ी चीर कर भी रख, नहीं तो उठा अपनी गाड़ी।' गरीब गाड़ीवान कुछ ही पैसे अधिक मिलने पर भी, यह कष्ट न उठा सका कि गाड़ी फिर भरता और वापस ले जाता । उसने कुल्हाड़ी उठायी, जेठकी गरमीके दोपहरका समय, पसीने से लथपथ हो गया तो भी लकड़ियां चीर कर उतने ही पैसे लेकर चला गया। ध्यान आया “मैंने बहुत गलती की। जब ठहरा हो लिया था तो उससे अधिक काम नहीं लेना था। चार आठ आने ही की तो बात थी, बेचारा भूखा प्यासा चला जा रहा होगा।" झट एक आदमीके लायक मिठाई और चिराईके पैसे ले उस रास्ते पर बढ़े जिससे लकड़हारा गया था, ढूंड़ते चले चिलचिलाती धूपमें । एक मीलके फासले पर वह मिला, कहा "भैया हमसे बड़ी भूल भई जो हमने तुमसे लकड़ी चिरायीं और भूखा रखा। लो जा मिठाई खात्रो और चिराईके दाम लो।" उस भोले भालेको यह सब देखकर लगा कि वह इस लोकमें नहीं है। लकड़ी बेचनेके साथ साथ उन्हीं दामों पर लकड़ी चीरना, ठहराये दामोंसे कम दाम पाना, थोड़े दामों पर अधिक मूल्यकी लकड़ी बेचना, लकड़ी घरमें रख देनेके साथ साथ घरका और काम करना, आदि साधारण बातें थीं। उसने इनके चरण छुए और कहा, 'अपन ऐसे चिल्लाटेके घाममें इतनी दूर काय आये १रोजई करत पण्डत जू अपनने कौन सी नई ज्यादती करी हती । बस, मैं सब पा गरो।" परन्तु पण्डित न माना, जब उसने वह मिठाई और पैसे ले लिये तभी शान्ति और निश्चिन्ता की सांस ली। . ___ साधारण पुरुषकी जो कमजोरी होती है वह यदि महापुरुषमें हो तो वह उसका गुण हो जाती है । संसारमें रहते हुए भी संसारमें न रहने वाला यह महान पुरुष जलमें कमलके समान संसारसे अलित है। इसीलिए तो विरोध और विवादका मौका नहीं आने देता, और उस रास्ते पर आगे आगे बढ़ा जा रहा है जिसे पूर्ण कर वह “वह' ही रह जायगा। आत्मानन्दकी ज्योति विखेरता हुआ उनचास
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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