SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म तथा जैनदर्शन "जैनदर्शनमें 'जीव' तत्त्वकी जैसी विस्तृत श्रआलोचना है वैसी और किसी दर्शनमें नहीं है । "वेदान्त दर्शनमें संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध इन तीन प्रकारके कर्मोंका वर्णन है। जैनदर्शनमें इन्हींको यथाक्रम सत्ता, बन्ध और उदय कहा है । दोनों दर्शनोंमें इनका स्वरूप भो एकसा है । “सयोग केवली और अयोग केवली अवस्थाके साथ हमारे शास्त्रोंकी जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्तिकी तुलना हो सकती है । जुदे, जुदे गुणत्थानोंके समान मोक्ष प्राप्तिकी जुदी जुदी अवस्थाएं वैदिक दर्शनोंमें मानी गयी हैं । योगवाविष्ठमें शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, संसक्ति, पदार्थाभावनी और नूर्यगाः इन सात ब्रह्मविद् भूमियोंका वर्णन किया गया है । "संवर तत्त्व और 'प्रतिमा' पालन, जैनदर्शनका चारित्र मार्ग है । इससे एक ऊंचे स्तरका नैतिक श्रादर्श प्रतिष्ठापित किया गया है । सब प्रकारसे आसक्ति रहित होकर कर्म करना ही साधनाकी भित्ति है। आसक्तिके कारण ही कर्मबन्ध होता है; अनासक्त होकर कर्म करनेसे उसके द्वारा कर्मबन्ध नहीं होगा । भगवद्भीतामें निष्काम कर्मका जो अनुपम उपदेश किया है, जैनशास्त्रोंके चरित्र विषयक ग्रन्थोंमें वह छाया विशदरूपमें दिखलायी देती है। "जैनधर्मने अहिंसा तत्त्वको अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक करके व्यवहारिक जीवनको पग, पगपर नियमित और वैधानिक करके एक उपहासास्पद सीमापर पहुंचा दिया है, ऐसा कतिपय लोगोंका कथन है । इस सम्बन्धमें जितने विधि-निषेध हैं उन सबको पालते हुए चलना इस बीसवीं शतीके जटिल जीवनमें उपयोगी, सहज और संभव है या नहीं, यह विचारणीय है । जैनधर्ममें अहिंसाको इतनी प्रधानता क्यों दी गयी है ! यह ऐतिहासिकों को गवेषणाके योग्य विषय है । जैनसिद्धान्तमें अहिंसा शब्दका अर्थ व्यापकसे व्यापकतर हुअा है। तथा, अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थोंमें वह रूपान्तर भावसे ग्रहण किया गया गीताके निष्काम-कर्म-उपदेशसा प्रतीत होता है । तो भी, पहले अहिंसा शब्द साधारण प्रचलित अर्थमें ही व्यवहृत होता था, इस विषयमें कोई भी सन्देह नहीं है । वैदिक युगमें यज्ञ-क्रियामें पशुहिंसा अत्यन्त निष्ठुर सीमापर जा पहुंची थी। इस क्रूर कर्मके विरूद्ध उस समय कितने ही अहिंसावादी सम्प्रदायोंका उदय हुआ था, यह बात एक प्रकारसे सुनिश्चित है । वेदमें ‘मा हिंस्यात् सर्व भूतानि' यह साधारण उपदेश रहनेपर भी यज्ञ कर्ममें पशुहत्याकी अनेक विशेष विधियोंका उपदेश होने के कारण यह साधारण विधि (व्यवस्था) केवल विधिके रूपमेंही सीमित हो गयी थी, पद पदपर उपेक्षित तथा उल्लंघित होनेसे उसमें निहित कल्याणकारी उपदेश सदाके लिए विस्मृतिके गर्भ में विलीन हो गया था और अन्तमें 'पशु यज्ञके लिए ही बनाये गये हैं' यह अद्भुत मत प्रचलित हो गया था। * इसके फल स्वरूप वैदिक कर्मकाण्ड: बलिमें मारे गये पशोंके रक्तसे लाल होकर समस्त सात्त्विक भावका विरोधी * “यशार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । अतस्तवां घातयिष्यामि तस्माद्यशे वधोऽवधः ॥" ९१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy