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________________ वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ नामक ग्रन्थमें 'नातपुत्त' नामक जिस निर्ग्रन्थ धर्मप्रचारकका उल्लेख है, वह 'नातपुत्त' ही महावीर स्वामी हैं उन्होंने ज्ञातृ नामक क्षत्रियवंशमें जन्म ग्रहण किया था, इसलिए वे ज्ञातृपुत्र' (पाली भाषामें जा[ना]तपुत्त) कहलाते थे । जैन मतानुसार महावीर स्वामी चौबीसवें या अन्तिम तीर्थंकर थे। उनके लगभग २०० बर्ष पहले तेईसवें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ स्वामी हो चुके थे । अब तक इस विषयमें सन्देह था कि पार्श्वनाथ स्वामी ऐतिहासिक व्याक्ति थे या नहीं परन्तु डा० हर्मन जैकोवीने सिद्ध किया है कि पार्श्वनाथने ईसा पूर्व आठवीं शताब्दिमें जैनधर्मका प्रचार किया था । पार्श्वनाथके पूर्ववर्ती अन्य बाईस तीर्थकरोंके सम्बन्धमें अबतक कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिला है। दिगम्बर मूल परम्परा है "तीर्थिक, निर्ग्रन्थ और नग्न नाम भी जैनोंके लिए व्यवहृत होते हैं । यह तोसरा नाम जैनोंके प्रधान और प्राचीनतम दिगम्बर सम्प्रदायके कारण पड़ा है । मेगस्थनीज इन्हें नग्न दार्शनिक (Gymnosphists) के नामसे उल्लेख करता है। ग्रीसदेशमें एक ईलियाटिक नामका सम्प्रदाय हुअा है। वह नित्य, परिवर्तनरहित एक अद्वैत सत्तामात्र स्वीकार करके जगतके सारे परिवर्तनों, गतियों और क्रियात्रोंकी संभावनाको अस्वीकार करता है । इस मतका प्रतिद्वन्द्वी एक 'हिराक्लोटियन' सम्प्रदाय हुअा है वह विश्वतत्त्व (द्रव्य) की नित्यता सम्पूर्ण रूपसे अस्वीकार करता है। उसके मतसे जगत सर्वथा परिवर्तनशील है। जगत् स्रोत निरवाध गतिसे बह रहा है, एक क्षणभरके लिए भी कोई वस्तु एक भावसे स्थित होकर नहीं रह सकती । ईलियाटिक-सम्प्रदायके द्वारा प्रचारित उक्त नित्यवाद और हिराक्लीटियन सम्प्रदाय द्वारा प्रचारित परिवर्तन-वाद पाश्चात्य दर्शनोंमें समय समय पर अनेक रूपोंमें नाना समस्याओंके आवरणमें प्रकट हुए हैं । इन दो मतोंके समन्वयकी अनेक बार चेष्टा भी हुई है; परन्तु वह सफल कभी नहीं हुई । वर्तमान समयके प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गसान (Bergson) का दर्शन हिराक्लीटियनके मतका ही रूपान्तर है। भारतीय नित्य-अनित्यवाद वेदान्त दर्शनमें भी सदासे यह दार्शनिक विवाद प्रकाशमान हो रहा है। वेदान्तके मतसे केवल नित्यशुद्ध-बुद्घ-मुक्त सत्य स्वभाव चैतन्य ही 'सत्' है, शेष जो कुछ है वह केवलनाम रूपका विकार 'माया प्रपञ्च'-'असत्' है । शङ्कराचार्य ने सत् शब्दकी जो व्याख्या की है उसके अनुसार इस दिखलायी देनेवाले जगतप्रपञ्चकी कोई भी वस्तु सत् नहीं हो सकती । भूत, भविष्यत् , वर्तमान इन तीनों कालोंमें जिस वस्तुके सम्बन्धमें बुद्धिको भ्रान्ति नहीं होती, वह सत् है और जिसके सम्बन्धमें व्यभिचार होता है १. दिगम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थों में महावीर स्वामीके वंशका उल्लेख 'नाथ' नामसे मिलता है, जो निश्चय ही "शातृ" के प्राकृत रूप 'णात' का ही रूपान्तर है। ८८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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