SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनाचार तथा विश्व समस्याएं अच्छी नहीं है । भाषण शैलीका आदर्श निर्वाचनोंमें निम्नतम रूप धारण कर चुका है और कभी कभी 'राजसभा' तथा 'दास-शासन'के नीचतम षडयन्त्रों की सीमामें प्रवेश कर जाता है। ऐसी स्थितिमें सत्यका मार्ग भी अहिंसाके समान साधक है । “सत्यमेव जयते” सूक्ति तथ्य है क्योंकि अन्तमें सत्य की ही विजय देखी जाती हैं । किन्तु मनसा, वाचा, कर्मणा पाला गया सत्य सफलता का सरल मार्ग है ऐसा अर्थ करना भ्रान्ति हो गी । आज के समय में यथार्थ अथव। सत्य का मार्ग कण्टकाकीर्ण है। इसमें विरोध, . दमन और कष्ट हैं । वह धैर्य, आत्मबल तथा मुनियों ऐसे तप की अपेक्षा करता है। असत्य मनुष्की वह दुर्बलता है जिसका उद्गम पशुबल से है, और पशुबलके विनाशके साथ ही विनष्ट हो सकती है । घरेलू जीवनमें मनुष्य आज भी सत्य बोल सकता है, किन्तु इससे विश्व की गुत्थी की एक ही पाश खुलती है । वर्तमान समस्याके दो पक्ष हैं अर्थात् १---जन साधारणको अपने घरेलू तथा सामाजिक जीवनमें शुद्ध यथार्थता, सत्यता और स्पष्टकारितासे चलने योग्य वातावरण उत्पन्न करना तथा २-सभा, राजतान्त्रिक दल तथा शासनाको भी उक्त सिद्धान्तानुकूल ढंगसे कर्तव्य पालन करना सहज कर देना । विशेषकर इन्हें परराष्ट्र नीतिमें भी उसी सत्यता एवं स्पष्ट वादितासे व्यवहार करनेका अभ्यस्त बनाना जिसे वे व्यक्तिगत जीवनमें वर्तते हैं। समाज हितकी दृष्टि से भी सत्यके उपयुक्त परिस्थितियां उत्पन्न करना आवश्यक है । इससे दूर भविष्यमें ही भला न होगा अपितु तुरन्त ही इसके सुफल दृष्टिगोचर होंगे। एक ही पक्ष जीवन नहीं है, विविध पक्ष परस्पर सापेक्ष हैं और घटनाओंका एक अपरिहार्य चक्र है, यह तथ्य पुनः हमारे संमुख श्रा खड़ा होता है। अतएव यथा संभव कुप्रवृत्तियों के चक्रको नष्ट करना हमारा धर्म है । राष्ट्रिय तथा अन्ताराष्ट्रिय व्यवहार में सत्यके उन्नत स्तरको प्राप्त करना उचित और आवश्यक है । सत्य व्यवहार की जितनी प्रगति होगी उतनी ही सरलतासे समाजको वर्तमान अधोमार्गसे निकाल करके उच्चतर युक्ति एवं नैतिकताके सुपथपर लाया जा सकेगा। ३-अस्तेय-- अहिंसा तथा सत्यमय पुनर्निर्माण इस बातकी विशद कल्पना करता है कि प्रत्येक मनुष्य परस्परके व्यवहारमें दूसरोंके स्वत्वों (अधिकारों) को स्वभावतः सुरक्षित रखे । अचौर्य (अस्तेय) अणुव्रतका श्रात्मा यही है । यद्यपि शब्दार्थ चोरीका त्याग ही होता है तथापि गूढ तथा सार अर्थ यही है कि मनुष्य दूसरेके अधिकारोंका अपहरण न करे । तथा 'सर्वभूतहिते रतः' ही रहे । इसके लिए 'स्वत्व' अथवा अधिकारोंके स्वरूपको दार्शनिक दृष्टि से समझना आवश्यक है। संक्षेप में कह सकते हैं कि व्यक्तित्वके विकासमें उपयोगी सामाजिक परिस्थितियोंका नाम ही 'स्वत्व' है । फलतः सर्व साधारणको 'स्वत्व' अर्थात् उचित सामाजिक परिस्थितियोंको समानरूपसे पानेका जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वत्वोंका सम्बन्ध केवल व्यक्तिसे नहीं है अपितु वे समष्टिकी सम्पत्ति हैं क्योंकि सामाजिक १८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy