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________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ अहिंसाका क्षेत्र उक्त विवेचनका यह तात्पर्य नहीं है कि मानव व्यवहार सर्वथा बल प्रयोगमय ही है। ऐसा होनेपर वस्तु व्यवहार संभव हो जायगा । और न समाज ऐसे वातावरण में चल सकेगा। आदर्श कुटुम्ब अथवा उससे बड़ा अन्य परिवार अथवा समाजके निर्माण के लिए पुष्कल मात्रा में पारस्परिक सहानुभूति एवं सहायता, , स्नेह एवं सान्त्वना तथा उत्सर्ग एवं बलिकी सदैव आवश्यकता होती है । विशेष ध्यान देने योग्य बात यही है कि उक्त गुण ग्राजके सामाजिक जीवन में पर्याप्त मात्रामें नहीं है, उसमें तो पशुबलकी कीट ही बहुत अधिक प्रतीत हो रही है । अतएव इस कीटको निकालकर सामाजिक गुणों के लिए स्थान करना है | समाजके आर्थिक वातावरण तथा व्यक्तिगत जीवनमें एक आवश्यक अंग-अंगिभाव है; यह भी सबके गले उतरना चाहिये । व्यक्तित्व सामाजिक वस्तु अर्थात् वह समाज से उत्पन्न होती है । फलतः वह सामाजिक संघटन में अन्तर्निहित है । केवल उपदेश और प्रेरणाही किसी समाज में नैतिक जीवनका संचार करनेके लिए पर्याप्त नहीं हैं; यह अनादि अनुभव है । यह बीज भी उपयुक्त भूमि, जलवायु एवं वातावरणकी अपेक्षा करता है, यही हिंसा के प्रस्तावकी वस्तुस्थिति है । पूर्ण मानव समाजका वास्तविक अहिंसामय जीवन तत्र ही संभव है जब कि विश्व के सामाजिक व्यवहार तथा संस्थानोंकी नींव भी अहिंसापर हो। ऐसी परिस्थिति में हिंसाका सार होगा मानवको बल प्रयोगको अपनी प्रकृति से सर्वथा मुक्त करके युक्ति, प्रेरणा, सहिष्णुता, सहायता तथा सेवाके भावोंसे श्रोत प्रोत कर देना । २- सत्य - हिंसा सिद्धान्त का यथार्थता अथवा सत्यसे घनिष्ट सम्बन्ध है । ऊपर देख चुके हैं कि आक्रमक का बल-प्रयोग आक्रान्त को छलिया बनाता है । यह भी ज्ञात है कि बल बहुधा अपनी लक्ष्य सिद्धि में असफल ही रहता है, तथा छल और भ्रमका सहारा लेना इसका स्वभाव है । यह वस्तुस्थिति "युद्ध में सब उचित है" इस लोकोक्तिको पृष्ठभूमि है । समस्त संभव सूत्रोंका उपयोग युद्ध में अंतर्निहित है | आज के युग में युद्ध 'सर्व-स्वामी' हो गया है अर्थात् बौद्धिक, नैतिक तथा भौतिक समग्र साधनों की पूर्णाहुतिका सहारा लेता है । शस्त्रीकरण का भार प्रारम्भ में जनमतको त्रस्त करके अव्यवस्थित सा कर देता है, किन्तु सर्व-स्वामित्व गुण सम्पन्न आधुनिक युद्ध बाद में जनमतके समर्थन के महत्त्वको स्वयं बढ़ाता है और वह सतत सावधानी स्पष्ट हो जाती है जिसके साथ वर्तमान राज्यों की व्यवस्थित प्रभुशक्ति मनोवैज्ञानिक प्रचार द्वारा जनता की स्वीकृति को उत्पन्न कर लेती है । फलतः "युद्ध सबसे पहले सत्यकी हत्या करता है" यह उक्ति सर्वथा चरितार्थ है । अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा उन्नीसवीं शतीका श्रेष्ठ स्थायी कार्य है । किन्तु उसका सुफल प्रचारके भूतसे दब गया है जिससे अाजका सम्पूर्ण वातावरण व्याप्त है । तथा जिसका अनुभव 'ध्वनिक्षेपक यंत्र' द्वारा जल, थल और नममें किया जा सकता है । देशों के अंतरंग शासनकी स्थिति भी इस दिशा में बहुत १३६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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