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________________ जैनाचार तथा विश्वसमस्याएं अन्ताराष्ट्रिय अनुभवोंसे शिक्षा ___ सन् १९१९ में स्थापित राष्ट्रसंघ तथा १९३४ तक चलाये गये निःशस्त्रीकरणके प्रयत्नोंने यह स्पष्ट कर दिया है कि गुप्त एवं बद्धमूल कारण 'हिंसा'का प्रतीकार किये विना प्रकट लक्षण 'युद्ध'का विनाश असंभव है। क्यों कि अाज हिंसा विश्वकी समस्त दलबन्दीमें व्याप्त है। अहिंसाके उत्तरोत्तर विकासका अर्थ है राजतंत्र तथा आर्थिक व्यवस्थाको दृष्टि से एक दलकी दूसरे दलपर प्रभुताका अभाव तथा यूरोप, अमेरिका, एशिया, अफ्रिका तथा समस्त राष्ट्रोंको व्यावहारिक रूपसे विकास, स्वातंत्र्य तथा अवसर समताके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेना । अन्तस्तंत्र में अहिंसा अहिंसाकी प्रतिष्ठाके बाद प्रत्येक देशकी अन्तरंग नीतिका भी नवीकरण हो जाय गा। क्योंकि रथूल पर्यवेक्षक भी यह भलीभांति जानते हैं कि अधिकांश देशोंकी आर्थिक व्यवस्थाका आधार वहांकी बहुसंख्यक जनताका विकासके अवसरोंके समान विभाजनसे वञ्चना होती है। हमारे साम्प्रदायिक तथा जातिगत विभाजनका हेतु भी अन्ततोगत्वा बल एवं बलपूर्वक विश्वास कराना ही होता है । तथा आंशिक रूपसे पूर्व परम्परा और अभ्यास भी होते हैं। अपर्याप्त साधन सामग्रीके कारण चली आयी संकुचित राष्ट्रीयताको अब स्थान इसलिए नहीं है कि जीवनोपयोगी पदार्थोंकी विपुलताकी संभावनाके कारण वह स्वयं निरस्त हो जाती है । आज तो मानव जीवनके नये श्रादर्श स्थापित करने हैं । प्रत्येक स्त्री, पुरुष तथा शिशुका योग-क्षेम अभीष्ट है, उन्हें आत्म-विकासके अधिकसे अधिक अवसर समान रूपसे जुटाने हैं । इसे अहिंसा सिद्धान्तके अतिरिक्त और कौन कर सकता है; क्यों कि यह सब उसका स्वरूप ही है। अहिंसाका विधायक रूप-- यद्यपि 'अहिंसा' [ न+हिंसा ] शब्द निषेधात्मक है तथापि उसकी शिक्षा केवल निवृत्तिपरक नहीं है अपितु व्यवहार दृष्टि से सर्वथा प्रवृत्तिपरक है तथा जिसके सुप्रभावसे सुदूर भविष्य भी अस्पृष्ट नहीं रह सकता । अहिंसा किसी भी देशकी सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओंके पारस्परिक सम्बन्धोंका पुनरुद्धार कराती हुई उसके अन्तरंग तंत्रमें आमूल परिवर्तन के लिए प्रेरित करती है । यह अनिवार्य है कि संस्थाओंके पुनर्निर्माणके साथ-साथ हमारी दृष्टि अथवा जीवन विषयक मान्यतामें भी तदनुरूप परिवर्तन हो । जैसा कि 'प्लैटो तथा एरिष्टोटल' को अभीष्ट ‘सब प्रकारकी संस्थाओं के अपने विशेष गुण तथा तदनुरूप नैतिकता होनी चाहिये' कथनसे सिद्ध है। यदि किसी संस्थाकी अपनी नैतिकता न हो तो उसकी सजीवता लुप्त हो जाती है और वह पुनर्निर्माण यन्त्रवत् जड़ हो जाता है, तथा अन्ततोगत्वा वह प्रभावहीन अथवा प्रतिगामी हो जाता है । अतः अहिंसाको आदर्श बनाना अनिवार्य है वह किसी भी सिद्धान्ताका अन्यथा बोध अथवा आचरण नहीं होने दे गी।
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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