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वर्णी अभिनन्दन-ग्रन्थ युगकी कल्पना करता है। इस वर्णनको देखते ही वैदिक कृतयुगका स्मरण हो पाता है जिसमें न्यूनाधिक रूपमें ऐसा ही सुखैकान्त था। यहूदी शास्त्रोंके 'इडन उद्यान' का जीवन भी कुछ ऐसा ही शुद्ध भोगमय जीवन बिताना था, जब कि यहूदी मान्यतामें केवल एक युगलाका ही वैसा सुखमय जीवन था । तथा यही युगल सृष्टिके श्रादि पितर थे । इतना स्पष्ट है कि दुःखमय वर्तमान युगसे बहुत पहिले शुद्ध सुखमय युगकी कल्पना सर्व सम्मत है।
पाश्चात्य विद्वानोंका मत है कि 'ईडन उद्यान' का जीवन एकान्त पूर्ण अज्ञानावस्थाका परिचायक है, अर्थात् उस समय विवेक, विचार तथा समन्वयकी योग्यताका सर्वथा अभाव था । सामाजिक दृष्टि से मानवकी यह वह अवस्था थी जब इसे पशु समुदायसे अलग करना कठिन था तथा मस्तिष्क सद्य:प्रसूत शिशुके समान था । निषिद्ध ज्ञान-फलका श्रास्वादन विवेक अथवा पुरुषत्वकी जाग्रतिका रूपक है तथा वहीं वर्णित मानव अधःपातकी युक्तियुक्तता सिद्ध करनेके लिए "जहां अज्ञान ही सुख है वहां विवेकी होना पाप है ।" कहावतकी शरण लेने को चरितार्थ करना हो जाता है ।
इस प्रकारसे भोगभूमिकी व्याख्या नहीं की जा सकती क्योंकि जहां यहूदी वृक्षका फल चखते ही सुखमय संसारसे पतन हो गया वहीं कल्पवृक्ष जैनभोगभूमिके मूलाधार हैं । तब कल्पवृक्षके रहस्यकी क्या व्याख्या की जाय ? 'मानवकी कल्पनानुसार वस्तु दाता' शाब्दिक अर्थ है । जैन मान्यतामें ऐसे वृक्ष भोगभूमिमें होते हैं । वैदिक धर्मानुसार सत्कर्म करके स्वर्ग में उत्पन्न होने वाले लोगोंकी समस्त इच्छाएं ये वृक्ष पूर्ण करते है, अस्तु कल्पवृक्ष पूर्वकृत सुकर्मोंके फलस्वरूप यथेच्छ सुखभोग देते हैं । मण्डूकोपनिषद्के "दो सवर्ण घनिष्ट मित्र पक्षी एक ही वृक्ष पर बड़े होते हैं उसमेंसे एक मधुर फल खाता है दूसरा उन फलोंको केवल देखता है" इस कथनमें मधुर फलों तथा भोक्तासे क्रमशः सत्कर्म तथा अात्मा इष्ट हैं । फलतः कल्पवृक्षके उत्तम फलोंसे भी जीवके सत्कोंके परिणाम ही अभीष्ट हो सकते हैं । इसी प्रकार उनके लयसे पुण्य समाप्ति तथा पुनः श्रम-शान्तिमय जीवनका संकेत है। गीताके "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति" से भी यही संकेत है । जैन भोगभूमि कल्पनाका भी इतना ही सार है कि पुण्यकर्मोंके फल सुखमय जीवन वितानेके बाद श्रम-चिन्तामय जीवनका प्रारम्भ होता है। ज्ञानसाधनका फल भोगभूमि
स्पष्ट है कि जैन भोगभूमि विवेक तथा साधनाका फल है, जब कि यहूदी सुखमय जीवन अज्ञान जन्य था । यहूदी शास्त्रानुसार ज्ञान पतनका कारण था। तब 'क्या मूर्खता सुख है तथा विवेकी होना लण्ठता है ?' यह शंका सर्वथा उचित प्रतीत होती है। भारतीय दृष्टि यहां भी स्पष्ट है विवेक तथा संयम द्वारा सत्कर्म बंधते हैं जिनका फल सुखभोग होता है तथा इनकी समाप्ति पर जीव सुखमय जीवनसे भ्रष्ट हो कर श्रममय जीवन प्रारम्भ करता है। फलतः कर्म-नियम तथा इसीका अंग पुनर्जन्म नियम भारतीय भोगभूमिका व्यवस्थापक है ।। यह विवेचन यहूदी 'सुखमय जीवन' की निम्न नैतिक
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